काकी का करवाचौथ

हमेशा की तरह करवाचौथ से एक दिन पहले काकी करवाचौथ का सारा सामान ले आयीं| वो रंग बिरंगे करवे, चूड़ी, बिंदी …सब कुछ लायी थीं और हमेशा की तरह सबको हुलस हुलस कर दे रही थी |

मुझे देते हुए बोलीं, “ये लो दिव्या तुम्हारे करवे, अच्छे से पूजा करना, तुम्हारी और दीपेश की जोड़ी बनी रहे|”

मैंने उनके पैर छू  कर करवे ले लिए| तभी मेरा ध्यान बाकी बचे सामान पर गया| सामान तो खत्म हो गया था| मैंने काकी की ओर आश्चर्य से देख कर पूछा, “काकी, और आपके करवे ?”

इस बार से मैं करवाचौथ नहीं रहूँगी”, काकी ने द्रणता से कहा|

मैं अवाक सी उनकी ओर देखती रह गयी| मुझे इस तरह घूरते देख कर मेरे मन में उठ रहे प्रश्नों के ज्वार को काकी समझ गयीं| वो मुस्कुरा कर बोलीं, नीत्से ने कहा है, आशा बहुत खतरनाक होती है| वो हमारी पीड़ा को कम होने ही नहीं देती|” 

काकी की घोर धार्मिक किताबों के अध्यन से चाणक्य और फिर नीत्से तक की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ| तभी अम्मा का स्वर गूँजा, “नीत्से, अब ये मुआ नीत्से कौन है जो हमारे घर के मामलों में बोलने लगा |” मैं, काकी, अम्मा और नीत्सेको वहीँ छोड़ कर अपने कमरे में चली आई |

मन बहुत  भारी था| कभी लगता था जी भर के रोऊँ उस क्रूर मजाक पर जो काकी के साथ हुआ, तो कभी लगता था जी भर के हँसू क्योंकि काकी के इस फैसले से एक नए इतिहास की शुरुआत जो होनी थी| एक दर्द का अंत, एक नयी रीत का आगाज़| विडम्बना है कि दुःख से बचने के लिए चाहें हम झूठ के कितने ही घेरे अपने चारों  ओर पहन लें पर इससे मुक्ति तभी मिलती है जब हममें  सच को स्वीकार कर उससे टकराने की हिम्मत आ जाती है| मन की उहापोह में मैं खिड़की के पास  बैठ गयी| बाहर चाँद दिखाई दे रहा था| शुभ्र, धवल, निर्मल| तभी दीपेश आ गए | मेरे गले में बाहें डाल कर बोले, “देखो तो आज चाँद कितनी जल्दी निकल आया है, पर कल करवाचौथ के दिन बहुत सताएगा| कल सब इंतज़ार जो करेंगे इसका|”मैं दीपेश की तरफ देख कर मुस्कुरा दी| सच इंतज़ार का एक एक पल एक एक घंटे की तरह लगता है| फिर भी चाँद के निकलने का विश्वास तो होता है| अगर यह विश्वास भी साथ न हो तो इस अंतहीन इंतज़ार की विवशता वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो |

मन अतीत की ट्रेन में सवार हो गया और तेजी से पीछे की ओर दौड़ने लग गया …छुक छुक, छुक- छुक| आज से 6  साल पहले जब मैं बहू बन कर इस घर में आई थी| तब अम्मा के बाद काकी के ही पैर छुए थे| अम्मा  ने तो बस खुश रहो”  कहा था, पर  काकी ने सर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी| सदा खुश रहो, जोड़ी बनी रहे, सारी जिंदगी एक दूसरे से प्रेम-प्रीत में डूबे रहो, दूधों नहाओ-पूतों फलों, और भी ना जाने क्या-क्या ….सुहाग, प्रेम और सदा साथ के इतने सारे भाव भरे आशीर्वाद|

यूँ तो मन आशीर्वादों की झड़ी से स्नेह और और आदर से भीग गया पर टीचर हूँ, लिहाजा दिमाग का इतने अलग उत्तर पर ध्यान जाना तो स्वाभाविक था|कौन है ये के प्रश्न मन में कुलबुलाने लगे l तभी किसी के शब्द मेरे कानों में पड़े अभी नयी -नयी आई है, इसको काकी के पैर क्यों छुआ दिए| कुछ तो शगुन-अपशगुन का ध्यान रखो |” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी|  

मौका मिलते ही छोटी ननद से पूछा, “ये काकी बहुत प्रेममयी हैं क्या? इतने सारे आशीर्वाद दे दिए |”

ननद मुँह बिचका कर बोली  “तुम्हें नहीं, खुद को आशीर्वाद दे रही होंगी या कहो भड़ास निकाल रही होंगी | काका तो शादी की पहली रात के बाद ही उन्हें छोड़ कर चले गए | तब से जाने क्या क्या चोंचले करती हैं,लाइम लाईट में आने को |”

शादी का घर था| काकी सारा काम अपने सर पर लादे इधर-उधर दौड़ रहीं थी| और घर की औरतें बैठे-बैठे चौपाल लगाने में व्यस्त थीं | उनकी बातों  का एक ही मुद्दा था काकी पुराण” | नयी बहु होने के कारण उनके बीच बैठना और उनकी बातें सुनना मेरीविवशता थी | काकी को काका ने पहली रात के बाद ही छोड़ दिया था,यह तो मुझे पता था पर इन लोगों की  बातों से मुझे ये भी पता चला कि भले ही काकी हमारे साथ रहती हो पर परिवार-खानदान  में किसी के बच्चा हो, शादी हो, गमी हो काकी बुलाई जाती हैं | काम करने के लिए | काकी पूरी जिम्मेदारी से काम संभालती | काम कराने वाले अधिकार से काम लेते पर उन्हें इस काम का सम्मान नहीं मिलता था | हवा में यही जुमले उछलते … कुछ तो कमी रही होगी देह में, तभी तो काका ने पहली रात के बाद ही घर छोड़ दिया | चंट है, बताती नहीं है | हमारे घर का लड़का सन्यासी हो गया | काम कर के कोई अहसान नहीं करती है | खा तो  इसी घर का रही है, फिर अपने पाप को घर का काम कर कर के कम करना ही पड़ेगा |

एक औरत जो न विधवा थी न सुहागन, विवश थी सब सुनने को सब सहने को |

मेरा मन काकी की तरफ खिचने लगा | मेरी और उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी | वे उम्र में मुझसे 14-15 साल बड़ी थीं | पर उम्र हमारी दोस्ती में कभी बाधा नहीं आई | मैं काकी का दुःख बांटना चाहती  थी | पर वो तो अपने दुःख पर एकाधिकार जमाये बैठी थीं | मजाल है कभी किसी एक शब्द ने भी मुँह की देहरी को लांघा हो l पर बूंद-बूंद भरता उनके दर्द का घड़ा साल में एक बार फूटता, करवाचौथ के दिन | जब वो चलनी से चाँद को देख उदास सी हो थाली में चलनी  वापस रख देतीं | फिर जब वो हम सब को अपने अपने पतियों के साथ पूजा करते देखतीं तब उनका दर्द पिघल कर आँखों के रास्ते बह निकलता |

अकसर वो हमें वहीं छोड़ पल्लू से मुँह दबा सिसकी भरते हुए सीढ़ियाँ उतरती l

अम्मा  हमेशा कहा करतीं, “अपशगुन करती है, उसके सामने पूजा न किया करो, नज़र लग जायेगी | अपने बारे में सोचती है, बबुआ के बारे में नहीं | कितना खुशमिजाज़ था | शेर शायरी का कितना शौक था | ऐसे कैसे सन्यासी हो गया कुछ तो कमी रही होगी इसमें | जाने क्या हुआ …. बेचारा कुछ कह न सका | बस चिट्ठी छोड़ गया, “मैं संन्यास लेना चाहता था | मेरी शादी की इच्छा नहीं थी | आप लोगों ने जबरदस्ती करा दी | मैं जा रहा हूँ | मैं अपना और इसका जीवन बर्बाद नहीं कर सकता l” ना जाने कहा चला गया… पता नहीं है भी या… ” कह कर अम्मा रोने लगतीं  | 

मुझे काकी पर दया आने लगती | काका ने तो अपनी इच्छा से सन्यास ले लिया पर काकी का संन्यास, अवांछित संन्यास उसके बारे में कोई क्यों नहीं सोचता है| उनका जीवन तो बर्बाद  हो गया| एक बार मैंने ही हिम्मत करके काकी से पूछा था | पर वो, “ये किताब दिखाना जरा, जो कल दी थी, बहुत ही अच्छी है” कहकर बात को टाल  गयीं |

घर के कामों के अलावा काकी का जीवन व्रत पूजा और उपवास के नाम समर्पित हो गया l वो कितने व्रत करती थीं | कितनी मालायें  जपती थी, तपती धूप  में नंगे पैर मंदिर की परिक्रमायें करती थीं कितनी मनौती माँगती थी कि काका घर लौट आयें | मैं सोचती की काकी का प्रयास व्यर्थ है वो धार्मिक से ज्यादा धर्मभीरु होती जा रही हैं  | बात-बात पर उनके शब्द होते, “ऐसा न करो,वैसा न करो,  इससे भगवान् नाराज़ हो जायेंगे | देखो सह लो पर करनी ना बिगड़े,अरे  एक जन्म में पिछले सात जन्मों की करनी का फल मिलता है l अपने लिए भी तो यही विश्वास था उनका, “बिगड़ी होगी कोई करनी किसी जन्म में अब हिसाब तो चुकाना पड़ेगा l “

मैं उन्हें समझाती ईश्वर कभी इन बातों से नाराज़ नहीं होते | पर चिकने घड़े पर पड़े पानी की तरह हर बात फिसल जाती,  उनपर कोई असर ही नहीं होता था l आखिरकार उनका मन मजबूत करने के लिए मैंने काकी की किताबों से दोस्ती करा दी | शुरू-शरू में तो वो सिर्फ मेरा मन रखने के लिए पढ़तीं l दस बार पूछने पर पता चलता, “अभी दो ही पन्ने पढ़ें हैं l” मेरी नाराजगी दिखाने पर मनाना भी खूब जानती, “अरे मेरी दिव्या रानी, रूठो ना आज पक्का पढ़ लूँगी l” शुरुआत भले ही बेमन से हुई हो  पर बाद में उनका मन किताबों में रमने लगा | हर किताब के बाद हमारी चर्चाएँ बढ़ती और उनकी समझ का दायरा l 

वो धर्मभीरुता से धर्म और फिर आध्यात्म की ओर मुड़ी | स्त्री और पुरुष से परे आत्म तत्व का बोध हुआ l  मालाएँ कम होने लगीं जीवन दर्शन स्पष्ट होने लगा | उनके व्यक्तित्व में एक स्थायित्व आने लगा | अंतस का बदलाव बाह्य  पर प्रतिबिंबित होने लगा l पलों की सुइयों के पीछे दौड़ती मिनट और घंटों की सुइयों के बीच दौड़ती काकी  के कुछ पल मुस्कुराने के लिए मुकरर होने लगे l धीरे से जीवन उनके जीवन में दस्तक देने लगा l  पिछले करवाचौथ को तो वो रोई भी नहीं थीं | और इस बार ये ऐलान! ज्ञान सच को स्वीकारने का साहस देता है | झूठ कितना भी मीठा हो पर है तो अस्तित्वहीन |

अब सोओगी नहीं क्या ?” दीपेश के प्रश्न से मेरी तन्द्रा टूटी |

दूसरे दिन व्रत था | हम सब पूजा की तैयारी में व्यस्त थे | और काकी अपना कमरा ठीक करने में | सब फर्नीचर इधरउधर कर रहीं थीं पलंग खसका कर खिड़की के पास कर दिया | अब सूरज की रोशिनी सीधे उनकी आँखों पर सुबह सुबह नृत्य करेगी | वही रोशिनी जिससे वे बेहद चिढती थीं | अँधेरे उन्हें भाते जो थे |

अम्मा  बडबडाये जा रहीं थी, “ इस बार करवाचौथ की तैयारी में भी नहीं आ रही हैं | साल भरे का त्यौहार है | अपशगुनी कहीं की, निर्लज्ज, पति को तो सन्यासी बनवा दिया | कम से कम उसकी उम्र की तो फिर्क कर | जाने आज क्या बदल देगी |” इस बार मैं अपने को रोक नहीं पायी और बोल ही पड़ी, “हाँ ,अम्मा बदल तो रहा है कुछ पर हर बदलाव बुरे के लिए नहीं होता |”

शाम को काकी भी तैयार हुई | पर पूजा के लिए नहीं | भारी कामदार साड़ी  की जगह सूती कलफ लगी साड़ी  खनखनाती चूड़ियों के स्थान पर दो कड़े व् दूसरे हाथ में घड़ी |माथे पर बड़ी लाल बिंदी  की जगह छोटी सी मैचिंग बिंदी | हमेशा की तरह,पूजा के समय आयीं भी नहीं | पूजा के बाद सबके साथ छत से  उतर कर जैसे ही मैंउनके पाँव छूने  झुकी, अम्मा बोल पड़ीं,  “ अरे उस अपशगुनी के पैर न छुओ | देखो करवाचौथ के दिन भी क्या भेष बनाया है | हमारे बबुआ …” 

“अम्मा अब बस भी करो” मैंने अम्मा की बात बीच में काटते हुए कहा | काकी जो सब सुन रहीं थी कहने लगी, “बोलने दो दिव्या, बोलने दो, अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता | बल्कि आज जो मैं बताउंगी उससे आप सब को फर्क पड़ेगा | खाना  खा के आप सब बैठक में आ जाइएगा |” काकी की बात सुन कर हम सब सकते में आ गए | करवाचौथ पर इतनी जल्दी खाना शायद ही हमने कभी खाया हो | आधे  घंटे में हम सब बैठक में हाज़िर थे |

काकी टी. वी. पर कौन बनेगा करोंड़पतिदेख रहीं थी | हम सब को देख वॉल्यूम कम कर बैठने का इशारा किया | हमारे बैठते ही उन्होंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया , “जब से मैं इस परिवार में आई हूँ | ताने उलाहने और उपेक्षा के अलावा मुझे कुछ नहीं मिला | मैंने सब सहन किया | इस इंतज़ार में की शायद मेरे पति वापस लौट आयें | जिससे मेरे ऊपर लगे सारे दाग धुल जाए | उसके  आलावा मैं कैसे सिद्ध करती खुद को | इंतजार…  इंतजार…. इंतजार, प्रतीक्षा या परीक्षा जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी l 

 ऊपर से बचपन से सुना था की पूजा व्रत उपवास सारी परिस्तिथियाँ बदल देते हैं | मैं न जाने कितने व्रत करती गयी की मेरे पति वापस आ जायें | हर करवाचौथ पर मेरे सब्र का बाँध टूट जाता | जब मेरा मन खुद से प्रश्न करता …मैं क्या हूँ ? कुँवारी, सुहागन या विधवा | मैं नहीं जानती थी की कई बार नसीब हमारा साथ इसलिए नहीं देता क्योंकि ईश्वर ने हमारे लिए कोई और भूमिका सोच रखी होती  है,पर ईश्वर के इस वरदान का दरवाजा  खुद खोलना होता है | हम अज्ञानता वश उसी लकीर पर चलते हैं और दुःख ढोते रहते हैं |”

“पर हमारा बबुआ … “ अम्मा कुछ कहतीं इस से पहले ही काकी ने उन्हें हाथ से चुप रहने का इशारा किया |

 

उन्होंने आगे बोलना शुरू किया | उनका एक एक स्वर शांत संयत और बहुत गहराई लिए हुए था , “अम्मा आपके बबुआ और मेरे पति ने संन्यास नहीं लिया  है शादी की रात आप के बबुआ मेरे सामने गिडगिडाने लगे | नेहा,मैं तुसे प्यार नहीं करता | मैं सुधा से प्यार करता हूँ | मेरा बच्चा सुधा के पेट में पल रहा है | मैं शादी नहीं करना चाहता था | पर पिताजी की मृत्यु के बाद परिस्तिथियाँ कुछ ऐसी बनीं की मैं अम्मा का दिल नहीं तोड़ सका | मैंने शादी को हाँ कह दिया | पर इससे बचने के उपाय खोजता रहा | समय बीतता गया, मैं रिश्तों की कशमकश में सच और झूठ के बीच किसी मछली की तरह निरुपाय छटपटाता रहा और… शादी भी हो गई l

दिल से मैं जानता हूँ की ये मेरा दोष है | मैंने सही  फैसला लेने में देर कर दी | मन स्वीकार नहीं कर पा रहा है l फिर भी अगर आज मैं तुम्हें नहीं छोडूगा तो चार जिंदगियां बर्बाद हो जायेंगी | सुधा आत्महत्या कर लेगी | मैं तुम्हें कभी प्रेम कर नहीं पाऊंगा | साथ रहते हुए भी हम अजनबी ही रहेंगे | इसलिए मैं जा रहा हूँ सुधा के पास | हम चेन्नई में रहेंगे | मैंने सब व्यवस्था कर ली है | मैं चिट्ठी लिख दूँगा की मैं संन्यास ले रहा हूँ | ऐसा मैं इसलिए लिख रहा हूँ ताकि परिवार के लोग मुझे खोजने न आये | नहीं तो वो मुझे खोज कर भावनात्मक दवाब बना कर फिर से तुम्हारे साथ बाँध देंगे | और सब कुछ गलत हो जाएगा |” 

मेरे आँसू झरने लगे |

मैं उनकी तरफ देखती ही रही | वो फिर बोले , “देखो मैं जानता हूँ तुम एक अच्छी संस्कारी लड़की हो | मैं तुम्हारा अहित नहीं करना चाहता | साल-दो साल सह लो फिर मैं खुद वापस लौट आउँगा | तब घर के सब लोग सुधा को स्वीकार कर लेंगे | और मैं खुद आगे बढ़ कर तुम्हारी कोई सम्मानजनक व्यवस्था कर दूँगा |” वो मेरे पाँव पकड़ कर रोने लगे l 

उनका दर्द और मेरा दर्द… तराजू के दो पलड़ों पर जैसे दो दर्द रख दिए गए हों l एक दर्द को जीतना था और दूसरे को हारना l तर्कों के बाँट बढ़ने लगे l

सारी  रात विचारों के झंझावातों के मध्य  जागते हुए  ही बीती | सच बता दूँ तो… अनजानी सुधा का दर्द हृदय को चाक किये दे रहा था l कहीं सुधा ने आत्महत्या कर ली तो? दो लोगों की मृत्यु की जिम्मेदारी मेरी होगी l नहीं… नहीं ये नहीं हो सकता l पति का प्रेम तो फिर भी नहीं मिलेगा l जिस पिता ने घर की इज्जत समझ इस घर सम्मान से ब्याहा था, इस बिखरे जीवन में उस घर में मेरे लिए कोई स्थान होगा ? हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा था l  आशा का दीप भी बीच-बीच में झिलमिल रहा था, शायद…l रात के अंधेरे में तैर कर निकली उससे भी कहीं स्याह भोर की दस्तक पर झपकी लगी ही थी कि घर में मचे कोलाहल से नींद टूटी l आशा का वो काल्पनिक जुगनू भी मेरे हाथ से निकल चुका था l  मैं आँख खुलते ही संज्ञा शून्य हो गयी | जिंदगी के कटघरे में मैं एक मुजरिम बन कर खड़ी थी l मुझे लगा हर हाल में मेरी हार तय है l मैं निर्णय ही नहीं कर पायी की मैं पति के आदेश का पालन करूँ या सब को सच बता दूँ | सबके चेहरे, आँखों के आकाश में आँसुओं से तैर गए l बचपन से सब बहुत भावुक कहा करते थे l शायद उस भावुक मन ने एक हारे हुए रिश्ते पर अपना सब कुछ हार जाना उचित समझा l

वैसे भी जिन्दगी के इस अचानक लगे झटके से जब तक मैं कुछ संभल पाती मेरे ऊपर इतने आरोप लग चुके थे की मैं कहीं न कहीं खुद को ही दोषी मानने लगी | स्त्रियों की बुनावट न जाने किस धागे से की जाती है की समाज तो समाज वो खुद को दोषी करार दे देती हैं |

अब मेरे पास एक ही उपाय था, प्रतीक्षा का | वो आयें और मुझे दोष मुक्त करें | अंतहीन प्रतीक्षा | बिना किसी पुरुष का स्पर्श किये भी मेरी दशा अहिल्या की सी थी | इतिहास गवाह है जब जब कोई अहिल्या पुकारेगी,राम आयेंगे | इस बार भी आये | पर पुरुष के भेष में नहीं, दूसरे  भेष में | मेरे उस राम का नाम है ‘ज्ञान’ |  इस ज्ञान रूपी राम ने मुझ पत्थर बनी अहिल्या में फिर से जीवन का संचार कर दिया | एक साल से मेरे मन में मंथन चल रहा था | पर मैंने करवाचौथ का ही दिन चुना | जो मेरे लिए सबसे पीड़ा का दिन होता था | मैंने बात कर ली है | कल से मैं सिलाई का काम लाऊँगी | खुद कमा  कर इस जलालत भरी जिंदगी से बाहर निकलूँगी |”

 

काकी की बात खत्म हो गयी |काका चेन्नई में है ये सुनने के बाद शायद ही किसी ने पूरी बात सुनी हो | सब खुश हो कर काका को वापस लाने की जुगत में लगे थे | सबकी जुबान पर एक ही बात थी | बबुआ पहले बता देता तो हम उसके सर पर इसे थोड़ी न बैठने देते | हाय! पूरे परिवार के बिना अकेले सुधा और बच्चों के साथ कैसे रहा होगा | कितना त्याग किया | उन सब से बेखबर मैं काकी की और बढ़ ली | ये जानते हुए की शायद मैं अकेली पड़ जाऊं |

मैंने काकी को सीने से लगा कर कहा , “काकी मैं हर मोड़ पर तुम्हारे साथ हूँ |”

और मैं भी” मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए दीपेश ने कहा |

काकी की आँखों में हमारे लिए ढेरों आशीर्वाद थे l

तभी मेरी नज़र खिड़की पर गयी | करवाचौथ का चाँद मुस्कुराता हुआ सा झांक रहा था | जैसे कह रहा हो काकी का करवाचौथ अब बदल गया है | उनका ज्ञान, स्वाभिमान ही उनका पति है | जो हर हाल में, हर परिस्थिति में उनकी रक्षा करेगा

आमीन ….मेरे होंठ चाँद के सजदे में सर झुकाते हुए बुदबुदा उठे |  

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

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5 thoughts on “काकी का करवाचौथ”

  1. वंदना जी, ज्ञान का दीपक ही इंसान को जिंदगी जीने का साहस देता है। बहुत सुंदर कहानी। मन को झंझोडती हुई।

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  2. वंदना जी
    काकी का करवाचौथ संवेदनशील, मार्मिक तथा स्त्री वर्ग को सार्थक सन्देश देती कहानी है। खूबसूरत कहानी के लिए बधाई

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