जरूरी है की बचपन जीवित रहे न की बचपना

वंदना बाजपेयी
हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत हिस्सा  बचपन होता है | पर बचपन की खासियत जब तक समझ में आती है तब तक वो हथेली पर ओस की बूँद की तरह उड़ जाता है | जीवन की आपा धापी  मासूमियत को निगल लेती है | किशोरावस्था और नवयुवावस्था  में हमारा इस ओर ध्यान ही नहीं जाता |उम्र थोड़ी बढ़ने पर फिर से बचपन को सहेजने की इच्छा होती है |

आजकल ऐसी कई किताबें भी आ रही हैं जो कहती हैं सारी  ख़ुशी बचपन में है अगर हमारे अन्दर का बच्चा  जिन्दा रहे तो एज केवल एक नंबर है | इन किताबों को आधा – अधूरा समझ कर जारी हो जाती है बचपन को पकड़ने  की दौड़ | ” दिल तो बच्चा है जी ” की तर्ज पर लोग बचपन नहीं बचपने को जीवित कर लेते हैं | व्यस्क देह में बच्चों जैसी ऊल जलूल हरकतें कर के अपनी  उम्र को भूलने का प्रयास करते हैं | थोड़ी ख़ुशी मिलती भी है पर वो स्थिर नहीं रहती |

क्या आपने सोंचा है की इसका क्या कारण है ?

दरसल हम बचपन को नहीं बचपने को जीवित कर लेते हैं | कई बार ऐसी हास्यास्पद स्तिथि भी होती है | जब बच्चे तो शांत बैठे होते हैं | वहीँ माँ – पिता बच्चों की तरह उचल -कूद  कर रहे होते हैं | यहाँ ये अंदाज लगाना मुश्किल हो जाता है की इनमें से छोटा कौन है | दरसल बचपन और  बचपने में अंतर है |  अगर इस बचपने का उद्देश्य लोगों का ध्यान खींचना या थोड़ी देर की मस्ती है तब तो ठीक है | परन्तु ये अपने अन्दर का बच्चा जीवित रखना नहीं है | क्योंकि इस उछल कूद के बाद भी हम वही रहते हैं जो अन्दर से हैं |

 अपने अन्दर का बच्चा जीवित रखने का अभिप्राय यह है की जिज्ञासा जीवित रहे , कौतुहल जीवित रहे , किसी की गलती को भूलने की क्षमता जीवित रहे , अपने प्रतिद्वंदी के काम की दिल खोलकर प्रशंसा करने की भावना जीवित रहे |पर क्या बच्चों की तरह हरकतें करने से  ये जीवित रहता है | बच्चा होना यानी सहज होना |पर हम अर्थ पर नहीं शब्द पर ध्यान देते हैं |

जरूरी है की बचपन जीवित रहे न की बचपना 


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