जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ

जरूरी है प्रेम करते रहना

  कविताएँ हो कहानियाँ हों या लेख, समीक्षा  सरल भाषा में गहन बात कह देने वाली महिमा पाठकों को हमेशा पहले से बेहतर,  नया  लिख कर चौंकाती रही हैं | सबकी प्रिय, जीवट, कलम की धनी साहित्यकार पत्रकार महिमा श्री का नया कविता संग्रह “जरूरी है प्रेम करते रहना” अपनी अलहदा कविताओं के माध्यम से बहुत जल्द ही पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है | हर कविता आपको रोकती है | एक गहन चिंतन मन में शुरू हो जाता है | क्योंकि हर कविता गहरी संवेदना से निकल कर आरी है और  उनमें एक जीवन दर्शन है |   जब महिमा किताब का शीर्षक “जरूरी है प्रेम करते रहना” रखना चुनती हैं, तब वो चुनती हैं जिजीविषा उन तमाम विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध जो हिम्मत और हौसला तोड़ देती है .. ये प्रेम, जीवन का राग है | बुरे में से अच्छा बचा लेने की ख्वाहिश  भर नहीं है जीवन जीने का सकारात्मक दृष्टिकोण है | तमाम विद्रूपताओं के बीच जीवन के पक्ष में युद्धरत सेनानी का जीवन को देखने का नजरिया कभी सतही नहीं हो सकता, वो गहनता  एक -एक  शब्द में एक -एक कविता में दृष्टिगोचर होती है |   जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ   अपनी भूमिका में वो लिखती हैं, “पीड़ा से एक रागात्मक संबंध इस कदर हो गया था कि लगता ही ना था  कि इससे आजाद हो पाऊँगी |इस दौरान सीखा की कठिन परिस्थितियों से जीवन में मुँह मोड़ने के बजाय “जरूरी है प्रेम करते रहना” ये भव पाठक को पूरे संग्रह में दिखता है |   कविता संग्रह तीन खंडों में हैं | हर खंड एक खूबसूरत कोट से शुरू होता है |जैसे  पहला खंड काफ्का के कथन “हम मरने के लिए नहीं जीने के लिए अभिशप्त हैं”| दूसरा खंड स. बी. फग्रयुसन के कोट “प्रेम संवेदना से ज्यादा कुछ नहीं पर प्रेम प्रतिबद्धता  से अधिक है|” तीसरा “अकुलाहटें मेरे मन की” कविताओं को विभिन्न नजरिए से पढ़ते हुए महिमा की कविताओं पर अपने विचार रखने के लिए मैंने स्वयं उन्हें कुछ खंडों में रखने की कोशिश की है | जिन पर क्रमवार अपने दृष्टिकोण को साझा करना चाहूँगी | महिमाश्री  की कविताओं में जीवन की साँझ हम मनुष्य हैं, टूटते हैं, जुडते हैं, फिर टूटते हैं और फिर फिर जुडते हैं | कई बार दुख उदासी हावी हो जाती  है पर उनसे जूझ कर निकलना ही जीवन है | जिजीविषा का अर्थ ये नहीं की हर समय सकारात्मक रहना है बल्कि तमाम निराशाओं  का मुकाबला कर सकारात्मकता चुनना है | ऐसे में जीवन की साँझ के दर्शन कई कविताओं में होते है | अगर अंधेरा ना हो तो उजाले का महत्व क्या है ? उजाले की राह जाने से पहले इस अंधकार से  रूबरू होना भी जरूरी है | इन कविताओं में कहीं कहीं T. S. Eliot की गहनता देखने को मिलेगी |मुझे Mollow Men की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं … Is it like this In death’s other kingdom Waking alone At the hour when we are Trembling with tenderness Lips that would kiss Form prayers to broken stone. संग्रह की पहली कविता “कर्क रोग से लड़ते हुए” में ही उस गहनता के दर्शन हो जाते हैं | जब हम जीत के करीब होता हैं तो अक्सर नई चुनौतियाँ सामने आ जाती हैं |   वो कहती हैं.. “धारा के विपरीत चलने की ख्वाहिशों ने कुछ अलग करने का हौसला तो दिया पर सोचा ही था अब इस पर साथ चल कर देखते हैं खुद धारा ने रास्ता बदल लिया”   आदमी एक पर ख्वाहिशें अनेक हैं | कब पूरी हुई हैं किसी की सारी तभी तो कविता “ख्वाहिशों के दिए “में वो लिखती हैं .. “ख्वाहिशें हजार वाट की आँखों में जलती हैं जैसे गंगा में जलते हैं असंख्य दिए”   कविता “विकलता एक श्राप है में जब वो लिखती हैं, “टूटे हुए पंख किताबों में ही अच्छे लगते हैं” तब वो शिकस्त झेले हुए इंसान की पीड़ा व्यक्त करती हैं |   महिमाश्री  की कविताओं में आशा का उजाला                           निराशा को परे झटक कर शुरू होता है एक युद्ध, आस-निराश के बीच में वहाँ  से कविताएँ सँजोती हैं जीवन के कतरे जिन्हें गूथ कर तैयार होता है आशा का पुष्प हार …तभी तो हाल नंबर 206 कविता में कहती हैं हॉल नंबर 206 के बेड के सिरहाने जिंदगी सुबह की धूप सी पसरने लगती है आहिस्ता .. आहिस्ता   “मेरी यायावरी” में वो कहती हैं .. “ढूँढना है मुझे फ़ानी हों से पहले स्वेद बूंदों के सूखने का रहस्य जीवन चाहे दो पल का शेष हो, दो बरस काया दो युगों का  मृत्यु अवश्यंभावी है | दिक्कत ये नहीं है जी जीवन कितना शेष है, पीड़ा ये है की जो जीवन हम जी रहे हैं उसमें जीवन कितना था |  “विदा होने स पहले” कविता पढ़ते हुए मुझे बेन जॉनसन की कविता “A lily of a day” याद आ गई | जीवन जीवंतता से भरपूर होना चाहिए | इस कविता  में महिमा  जीवन के अंतिम क्षण तक कुछ सीखने की बात करती हैं | यही जीवन जीने का सही तरीका है .. जीवन वीथिका में शेष बचे वर्ष के झड़ने से पहले सीख लेना है मल्लाहों के गीत अंकित कर लेना है अधर राग पर कुछ नाम जिन्हें पुकार सकूँ विदा होने से पहले मेरी  यायावरी हो या “विदा होने  से पहले” दोनों कविताएँ जीवन के पक्ष में खड़ी कविताएँ हैं |   महिमा की कविताओं में प्रेम महिमा की कविताओं में प्रेम किसी किशोरी का दैहिक आकर्षण नहीं है | वो परमात्मा से आत्मा से एकीकार है | वो केवल स्त्री पुरुष के प्रेम की ही बात नहीं करती अपितु उनके प्रेम राग में बहन भाई और तमाम रिश्ते समाहित हैं | अब “दीदिया के लिए” एक ऐसी कविता है जिसमें बहन के प्रति उमड़ते हुए प्रेम की सहज धारा को महसूस किया जा सकता है | अधिकांशतः छोटी बहनों ने बड़ी बहन के विदा हो जाने पर यह महसूस किया होगा | कविता के सौन्दर्य को बढ़ाते रूपक को देखिए, यहाँ  बेटी को मायके का  वसंत कह कर संबोधित किया है जिसके विदा  होते ही … Read more

मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”

राय प्रवीण

क्या इतिहास पलट कर आता है ? “हाँ” इतिहास आता है पलटकर एक अलग रूप में अलग तरीके से पर अक्सर हम उसको पहचान नहीं पाते | यहीं पर एक साहित्यकार की गहन दृष्टि जाती है | एक ही जमीन पर दो अलग-अलग काल-खंडों में चलती कथाएँ  एकरूप हो जाती हैं | राय प्रवीण फिर आती है लौट कर, पर इस बार घुँघरुओं की तान और मृदंग की नाद की जगह होता है बाढ़ का हाहाकार | अकबर को अपने दोहे से परास्त कर देने वाली क्या परास्त कर पाई उस व्यवस्था को जो पीड़ितों को  अनाज देने के बदले माँगती भी है बहुत कुछ | पाठकों की अतिप्रिय वरिष्ठ लेखिका आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा जी की  मार्मिक कहानी “राय प्रवीण” एक ऐसी ही कहानी है जो इतिहास  और वर्तमान के बीच आवाजाही करती अंततः पाठक को झकझोर देती है | आइए पढ़ते हैं एक मार्मिक सशक्त कहानी .. राय प्रवीण  गोविन्द गाइड को खोजना-ढूंढ़ना नहीं पड़ता। झांसी स्टेशन पर जब वातानुकूलित मेल-गाडि़यां रुकती हैं, या कि जब शताब्दी एक्सप्रेस आती है, वह गहरी पीली टी-शर्ट और सलेटी रंग की ढीली पैंट पहने, सिर के लंबे बालों को उंगलियों से कंघी-सी करता हुआ हाजिर मिलेगा। खास तौर पर शताब्दी आते ही उसकी देह में बिजली का-सा करंट दौड़ जाता है। बोगी नंबर 7 से एक्जीक्यूटिव क्लास तक आते-जाते भागमभाग मचाते हुए देख लो। कभी अंदर तो कभी बाहर, उतरा-चढ़ी में आतुरता से मुसाफिरों का जायजा लेता। सुनहरेे बालों वाले गोरे पर्यटकों को देखते ही उसके भीतर सुनहरा सूरज जगमगाने लगता है। अपनी बोली तुरंत बदल लेता है और जर्मन, फ्रेंच तथा इटैलियन भाषा में मुस्कराकर गर्मजोशी से अभिवादन करता है। छब्बीसवर्षीय गोविन्द की आंखों में अनोखी चमक रहती है। भले ही कद लंबा होने के कारण काठी दुबली सही। रंग तनिक सांवला, माथा ऊंचा और नाक छोटी। दांत सफेद, साफ। कुल मिलाकर पर्सनैलिटी निखारकर रहता है,धंधे की जरूरी शर्त। देशी पर्यटकों को वह तीर्थयात्री से ज्यादा कुछ नहीं मानता। वे ऐतिहासिक धरोहर को बेजायका चीज समझकर धार्मिक स्थानों की शरण में जाना पसंद करते हैं। उनके चलते गाइड को उसका मेहनताना देने की अपेक्षा महंत और पुजारियाें के चरणों में दक्षिणा चढ़ाना ज्यादा फायदे का सौदा है परलोक सुधारने का ठेका।—लेकिन गोविन्द ही कब परवाह करता है, विदेशियाें की जेब झाड़ना उसके लिए खासा आसान है। माईबाप, पालनहार, मेहनत और कला के कद्रदान विदेशी मेहमान! उसे ही क्या, सभी के प्यारे हैं विदेशी। तभी तो खजुराहो के ‘घुन गाइड’ उसका धंधा खोखला करने पर लगे रहते हैं। गोरे लोग देखे नहीं कि मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे। अंग्रेज बनकर ऐसे बोलेंगे ज्यों होंठों के बीच छिरिया की लेंड़ी दबी है। फ्ओरचा कुच नहीं सर! एकदम डर्टी, बोगस। जाड़ा में भी लू-लपट। गर्मी में फायर का गोला। रेनी सीजन में मड ही मड—टूरिस्ट लोग इल हो गया था डॉक्टर भी नहीं। नो मैडीसिन—। गोविन्द के कानों में गर्म सलाखें कोंचता रहता है कोई। —लेकिन उसे पछाड़ना आसान नहीं। साथ आए अनुवादक से आंख मारकर मिलीभगत कर लेता है (पैसा सबकी कमजोरी है)। पूरी बात मुसाफिरों तक नहीं जाने देता ट्रांसलेटर। गोविन्द होंठों तक आई मां-बहन की गालियों को जज्ब कर जाता है। अनुवादक का क्या, गालियों का ही रूपांतरण कर डाले और बदले में अधिक रकम की फरमाइश धर दे। बेईमानी के अपने पैंतरे हैं, जो धंधे के हिसाब से शिकंजा कसते हैं। गोरे समूह के साथ हो लेता है गोविन्द सर, ओरछा! मैम यू हैव हर्ड अबाउट राय प्रवीण? नहीं? राजा इंद्रमणि सिंह की प्रेमिका। ए स्टोरी ऑफ ट्रू लव। खजुराहो से पहले ही—बेतवा नदी के किनारे किला और राय प्रवीण का महल। लहरों पर नाचती है आज भी वह नर्तकी। बिलीव मी। पीठ और कंधों पर भारी वजन लटकाए हुए चलते पर्यटक स्त्री-पुरुष उसकी बात पर अचानक तवज्जो देते हैं, और वह मगन मन बोलता ही चला जाता है, मुगल  पीरियड में बादशाह अकबर का दिल ले उड़ने वाली राय प्रवीण। गोविन्द यह बात अच्छी तरह जानता है कि ओरछा के मुकाबले खजुराहो की शान धरती से आसमान तक फैली हुई है। संभोगरत युगल मूर्तियों की कल्पना में उड़ती आई पर्यटकों की टोली ओरछा में क्या पाएगी? ले-देकर एक टूटा-फूटा मामूली-सा किला, सादा रूप राम राजा का मंदिर और ऋतुओं के हिसाब से भरती-सूखती बेतवा। एकदम प्रकृति का अनुचारी कस्बा। रुकने-ठहरने के नाम पर सबसे बड़ा माना जाने वाला होटल शीशमहल नाम बड़े और दर्शन थोड़े। कई बार जब टूरिस्ट उसके हाथ से फिसल जाते हैं तो वह ऐसी ही बातें सोचकर दुखी होता है। सरकार को गरियाता है और पर्यटक के देखते ही फिर चालू किले  में आज भी राय प्रवीण की बीना गूंजती है सर! जुबान  की गति के हिसाब से हाथ नचाता, लोगों से कदमताल मिलाता हुआ अपने ग्राहकों पर बातों के लच्छे फेंकता चलता है, ज्यों हारना नहीं चाहता हो खजुराहो के आधुनिक वैभव से। अपने  प्रेमी को पुकारने वाली बेचैन प्रेमिका, अप्सरा रम्भा! एकदम आपके माफिक मैम! उसने साफ झूठ बोल दिया। विदेशी लड़की गोरी तो थी मगर खासी बदशक्ल। उसने एक इटैलियन लड़की को इसी तरह बहकाया था। गोविन्द के सफेद झूठ को सच मानते हुए वह खुद को राय प्रवीण समझने लगी थी और पूरे-पूरे दिन राय प्रवीण के महल के एकांत में बैठी रहती थी। वह किले के नीचे बने ढाबों से तवे की रोटी और आलू की रसीली सब्जी लाया करता था। बोलता था राय प्रवीण यही भोजन किया करती थी। कैसे न बोलता? इस बस्ती में गोश्त-मछली कहां? अच्छा पैसा ऐंठा था उस विदेशिनी से क्योंकि वह पैसे वाली थी और गोविन्द की उन दिनों फाकामस्ती चलती थी। राय प्रवीण जवान, खूबसूरत और नाचने-गाने वाली वेश्या! विदेशी लोग भले ही खुले जीवन के आदी हों, भारतीय स्त्री की आजादी की यह शैली उनके लिए जादू की तरह दिलचस्प और अद्भुत थी। यदि ऐसा न होता तो गोविन्द के ओरछा को कौन देखता? गोविन्द बताता ये जीवित कथाएं हैं सर! किले में गूंजती हुई आवाजें आज भी सुनाई देती हैं। गोरे लोग भारी सीनों में सांस रोककर आंखें फैलाने लगते हैं, मैले दांतों से डरी हुई-सी मुस्कराहट झरती है, तब गोविन्द को लगता है कि उसने टूरिस्ट पर अपना जाल डाल दिया है। अब यह खजुराहो जाने की जल्दी में नहीं है। वह पर्यटकों के आगे-आगे चलता है छाती फुलाकर। किले को गर्व से देखता हुआ। जिस दिन वह ओरछा में पर्यटक बटोरकर खड़े कर देता है, खुद को राजा इंद्रमणि सिंह से कम नहीं समझता और यदि वह टूरिस्टों को नहीं ला पाता, राय प्रवीण … Read more

स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे

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स्वागत नई किताब का कॉलम के अंतर्गत हम आने वाली किताब का टीजर सभी मित्रों, पाठकों से साझा करते हैं | इस बार शिवानी जयपुर की आने वाले कहानी संग्रह “कबीर जग में जस रहे” का चयन किया गया है | कवयित्री, कथाकार, पत्रकार और विभिन्न कार्यक्रमों के संचालक के तौर पर अपनी पुख्ता पहचान बनाने वाली शिवानी जयपुर का  पहला कहानी संग्रह “कबीर जग में जस रहे” शीघ्र ही बोधि प्रकाशन से आने वाला है | शिवानी जी की पहली कहानी “बातशाला” अटूट बंधन हार्ड कॉपी मैगजीन में प्रकाशित हुई थी | ये पहली कहानी ही काफी चर्चित रही थी | तबसे निरंतर अपनी पैनी लेखनी  के माध्यम से वो सार्थक साहित्य का सृजन कर रही हैं  | प्रस्तुत है उनकी आने वाले कहानी संग्रह का टीजर .. स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे “तुम? तुम कब से…” मुझे जो नहीं कहना चाहिए था वही जिव्हा के अग्रभाग पर आकर लटक गया। बिना हाड़ की ये जिव्हा, जितनी बाहर दिखाई देती है उससे अधिक भीतर छिपी होती है! जाने क्या क्या संचित रहता है उस भीतरी भाग में जो रपटीली सड़क पर फिसलते किसी ब्रेक फेल वाहन की तरह आखिरी छोर पर आकर लटक जाता है! अब टपका तो क्या और लटका रहा तो क्या? वापस पीछे तो जाने से रहा! मैं अपने शब्दों के ऐसे लटकने-भटकने को लेकर शर्मिंदा हो कर कुछ कहती उससे पहले अंबु ने मुस्कुराते हुए कहा “मुझे पता था आप सब अब तक यही समझते होंगे!” 2 … अब हाल ये था कि सिलीगुड़ी में कम और अंबु के घर-परिवार में अधिक दिलचस्पी हो गई थी! बात भले ही अजीब सी थी पर धरती, चाँद, सूरज, हवा और पानी की उपस्थिति की तरह सच्ची थी! इंसान दुनिया भर से झूठ बोल सकता है पर अपने हिये की थाह वो स्वयं ही ले सकता है! अपनी पीठ का तिल दिखाई भले ही न दे,पर हम ही जानते हैं कि वो है और कहाँ है! मेरे मन की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी! अंबु की उदासीनता से मुझे एतराज़ था,पर क्यों? ये समझ नहीं आ रहा था। बीस साल… बहुत बड़ा अर्सा था। जीवन में कितना कुछ बदलाव आ गया था! मुड़ कर देखने की फुर्सत ही नहीं मिली थी!अब मिली थी तो… अजीब उलझन में फँस गई थी। 3…. मुझे कई बार लगता है कि हमारा मस्तिष्क एक विशाल समन्दर की तरह होता है! हमारे क्रिया-कलापों के माध्यम से जो कुछ ऊपर से दृष्यमान होता है उससे कई गुना अधिक सामग्री हमारे सुप्त मस्तिष्क में संचित रहती हैं! क्या-क्या यादें और बातें जमा रहती हैं ये हम तब तक नहीं जान पाते जब तक कोई घटना,गोताखोर सी भीतर जाकर कुछ उथल-पुथल, कुछ तहकीकात न करे! और जिस तरह गोताखोर समुद्रतल तक पहुँचने के क्रम में कई तरह की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के सम्पर्क में आते हैं, उनके बारे में और अधिक नये-नये तथ्य जान पाते हैं, उसी तरह से कोई एक घटना, कोई एक बात हमें अतीत की गहराइयों में ले जा सकती है। इस दौरान हम उन पर नये सिरे से,नये दृष्टिकोण से विचार कर चकित हो रहे होते हैं! 4… “सबने अपने मन का किया! उन्होंने छोड़ना चाहा, छोड़ दिया! नन्नू ने जाना चाहा,चला गया! उन दोनों केे लिए कोई सज़ा नहीं! पर मेरे मन का क्या हुआ? मैंने भी तो वही किया जो मुझे ठीक लगता था! जिस बात का मन नहीं मानता था, नहीं किया! पर उसके लिए इतनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ी! मैं उस मरुभूमि की तरह बंजर रह गई जिसकी मिट्टी की गुणवत्ता पानी के अभाव में अनजानी ही रह जाती है…” 5 … दुखों की पोटलियाँ अगर समय-समय पर खोली न जाएँ तो वो सीलन से भारी होने लगती हैं। उसी सीलन के बढ़ते बोझ को कम करने के लिए दोनों सखियाँ अपने-अपने दुखों की पोटलियाँ एक दूसरे के सामने खोलकर थोड़ी हवा और धूप दिखाकर बोझ कम कर लेती थीं। 6 … अखबार खिड़की में लगाते हुए बिसना के हाथ काँप रहे थे। कंपकंपाते हाथों से अखबार और उसके ऊपर गत्ते अच्छी तरह फिट करके जब वो स्टूल से नीचे उतरा तब भी बाल्टी के पानी में पड़ गए कीड़ों का कुलबुलाना जारी था।रश्मि की बात उसके कानों में लगातार गूँज रही थी…”इतना गुस्सा आया कि बस हाथ पहुँच सकता तो गर्दन पकड़ कर वहीं मरोड़ देती! छुप-छुप के देखता है इडियट… बेशर्म! थू है थू ऐसे लोगों पर…हम हमारे घर में कुछ भी करें! हमारी मर्जी! कोई चुपचाप कैसे देख सकता है? कोई प्राइवेसी नहीं है क्या हमारी?” “थैंक्यू भैया” कहकर खुश होती रश्मि स्टूल उठा कर बाहर निकल गई। बिसना ने बाथरूम की बाल्टी का पानी फर्श पर बिखेर दिया। कीड़े बहकर नाली में जा रहे थे और बिसना उस शाम चुपचाप सारा सामान समेट कर घर जा रहा था… 7…. जब बच्चे माता-पिता को छोड़कर अपनी खुद की नई दुनिया बसा कर मस्त हो जाते हैं! तब माता-पिता अपना बचा हुआ जीवन,गुज़रे हुए जीवन की समीक्षा में ही निकालने लगते हैं! कारण ढूँढते रहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ! कभी-कभी गल्तियाँ समझ आती हैं तो अफसोस करते हैं। नहीं तो तकदीर को दोष देकर जी बहलाने की कोशिश करते हैं। नए कहानी संग्रह के के लिए शिवानी जयपुर को बहुत बहुत शुभकामनाएँ आपको “स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे” कैसा लगा ? अपनी राय हमाएं अवश्य बताएँ |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

सुमन केशरी की कविताएँ

सुमन केशरी की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अटूट बंधन पर प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि-कथा नटी सुमन केशरी दी की कुछ स्त्री विषयक कविताएँ | इन कविताओं में स्त्री मन की पीड़ा, कन्डीशनिंग से बाहर आने की जद्दोजहद और अपनी बेटी के लिए खुले आकाश में उड़ान सुरक्षित कर देने की अदम्य इच्छा के  विभिन्न रूप चित्रित हैं | चाहे वो स्त्री आज की हो या पौराणिक काल की | एक दिन ऐसा आता है जब स्त्री उठ खड़ी होती है, उन सारी बातों के विरुद्ध जो उस पर आरोपित की गईं हैं | वो.. वो सब कुछ कर लेना चाहती है जो उससे कहा गया था  की तुम नहीं कर सकतीं |  शायद वही दिन होता है जब उसकी अपनी दृष्टि विकसित होती है | वो दुनिया को अपने नजरिए से देखना शुरू करती है, याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछती है, द्रौपदी के आक्रोश को सही ठहराती है .. और उसे दिन वो पुरुष में अपना मालिक नहीं साथी तलाशती है, उसे मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान में उसका दर्द दिखाई देने लगता है, दिखने लगता है राम के यशोगान में सीता के समग्र अस्तित्व का विलय और वो सुरक्षित कर लेना चाहती है आकाश का एक कोना अपनी बेटी के लिए | सुमन केशरी की  कविताएँ (1) मैंने ठान लिया है   मैंने ठान लिया है कि मैं वह सब करूँगी जिसे मैंने मान लिया था कि मैं कर नहीं सकती मसलन कविता करना शब्दों के ताने बाने गूँथ कुछ ऐसा बुनना जिसे देखा नहीं सुना जा सके महसूसा जा सके   तुमने मुझे बंद कर दिया था रंग-बिरंगे कमरे में और मैं तुम्हारी उंगली थामे उसमें से बाहर निकल तुम्हारी आँखों से दुनिया देखती तुम्हारी भाषा में बतियाती चहकती गाती फिर उस कमरे में जा बैठती थी अपने पंख मैंने खुद ही काट दिए थे   मुझे  ताज्जुब होता था जाबाला का उत्तर सुनकर द्रौपदी का आक्रोश देखकर और याज्ञवल्क्य का व्यवहार सहज जान पड़ता था   कि एक दिन अचानक सपने में मुझे गार्गी का अट्टहास सुनाई पड़ा तड़प रही थी तब से अब तक मुक्ति की तलाश में मुझे देख विद्रूप से मुस्काई और आगे बढ़ गई उसकी हिकारत के कोड़े के घाव से अब भी रिस रहा है खून फट गया है माथा और अब तक की सारी आस्थाएँ विचार और सपने चूर चूर हो गए हैं एक हवा का झोंका दरारों के रास्ते रक्त की शिराओं में जा घुसा है और झिंझोड़ कर रख दिया है पूरे शरीर को मय चेतना के   इन दिनों मैंने घर के सारे खिड़की दरवाजे खोल दिए हैं   बड़ा मजा आता है बच्चों के संग कागजी जहाज उड़ाने और नाव चलाने में चट्टानों पर चढ़ कर कूदने में दूर तक दौड़ कर चंदा को साथ साथ चलाने छकने-छकाने में   प्रिय! अब मैं तुमसे दोस्ती करना चाहती हूँ चाहती हूँ कि तुम मेरे संग सूर्यदेश की यात्रा पर चलो   और हाँ पिछले दिनों याज्ञवल्क्य से चलते चलते हुई मुलाकात एक लंबी बहस में बदल गई है क्या तुम मेरे संग उलझोगे याज्ञवल्क्य से बहस में?     (2) मोनालिसा   क्या था उस दृष्टि में उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया   वह जो बूंद छिपी थी आँख की कोर में उसी में तिर कर जा पहुँची थी मन की अतल गहराइयों में जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी प्रलोभन से पीड़ा से ईर्ष्या से द्वन्द्व से…   वह जो नामालूम सी जरा सी तिर्यक मुस्कान देखते हो न मोनालिसा के चेहरे पर वह एक कहानी है औरत को मिथक में बदले जाने की कहानी….   (3) सुनो बिटिया……..   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन   तुम देखना खिलखिलाती ताली बजाती उस उजास को जिसमें चिड़िया के पर सतरंगी हो जायेंगे कहानियों की दुनिया की तरह   तुम सुनती रहना कहानी देखना चिड़िया का उड़ना आकाश में हाथों को हवा में फैलाना और पंजों को उचकाना इसी तरह तुम देखा करना इक चिड़िया का बनना   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन तुम आना…..     (4) ऋतंभरा के लिए….   जब जब मैंने नदी का नाम लिया बेटी दौड़ी आई पूछा तुमने मुझे पुकारा माँ?     जब जब मैंने हवा का नाम लिया मेरी पीठ पर झूम-झूम कहा उसने तुमने मुझे पुकारा और लो मैं आ गई   जब जब मैंने सूरज को देखा किरणों की आभा लिए उतरी वह मेरे अंतस्तल का निविड़ अंधेरा मिटाने     जब जब मैंने मिट्टी को छुआ वह हँस दी मानो बीज बो रही हो खुशियों  के मेरे आंगन में   जब जब मैंने आकाश को निहारा वह तिरने लगी बदरी बन बरसी झमाझम सूखी धरा पर     जब जब मैंने क्षितिज की ओर ताका वह मेरा आंचल थाम खड़ी थी कहती मैं हूँ न तुम्हारे पास…     (5) औ..ऋत   डर एक ऐसा पर्दा है जिसके पीछे छिपना जितना आसान उतना ही मुश्किल   कहा था जोगी ने उस रात जिस रात मैंने उसे बादलों के बाहर देखा था निरभ्र आकाश में   डर हमारे बीच पर्दे-सा तना था सांस की आवाज़ तक उसे कंपा जाती थी इतना झीना इतना महीन   डर क्या है धरती-सी बैठी औरत ने पूछा   डर आँधी है उड़ा ले जाता है अपने संग सब-कुछ योगी बुदबुदाया   अच्छा!   डर बाढ़ है बहा ले जाता है सब कुछ…   अच्छा!!   डर तूफान है सब कुछ छिन्न-भिन्नकर देता है     अच्छा!!!   औरत ने कहा और लेट गई…   बिछ गई धरती पर वह हरियाली-सी.. बहने लगी जल की धार-सी स्वच्छ सुंदर.. हवा के झौंके-सी भर ली सुगंध उसने नासापुटों में… बादलों में बूंदों-सी समा तिरने लगी आकाश के सागर में निर्द्वंद…   जोगी ने देखा सब डर के पर्दे के पीछे छिपे छिपे… अब जोगी था और डर था   और था ऋत विस्तृत…     (6) सीता सीता रात के अंधेरे में द्वार के पार आंगन में आंगन पार पेड़ों के झुड़मुटों से घास के मैदान से और उसके भी पार बहती नदी के बूंद बूंद जल से किनारो पर इकठ्ठी रेत के कण कण से नदी पार फैले पहाड़ों की चट्टानों से जिस पर … Read more

मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ

मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ

  समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी ने अपनी सशक्त और अलहदा पहचान बनाई है | उनके कथापत्रों में जहाँ एक ओर कमजोर दबे कुचले, शोषित वर्ग से लेकर मध्यम वर्ग और आज के हालातों से जूझते किरदार होते हैं तो दूसरी ओर वह मानवीय संवेदनाओं को जागृत कर अच्छे लोगों और अच्छाई पर भी विश्वास बनाये  रखने की आशा रखती हैं | मानवीय संवेदनाओं के उठते गिरते ग्राफ में वो कुछ अच्छा, सुखद थाम लेती हैं |वास्तव में यही वो लम्हे  हैं जिन्होंने  तमाम विद्रूपताओं से भरे इस समय में आशा की डोर को थाम रखा है | प्रज्ञा जी की इन कहानियों की विशेषता है कि वो बिलकुल आम पात्रों को उठाती हैं और सहजता के साथ शिल्प के अलंकारिक आडंबरों  से मुक्त होकर संवेदनाओं  के स्तर पर उतर कर गहनता से कथा बुनती जाती हैं |  समकाल पर कलम चालते हुए वो कोरी भावुकता में  नहीं बहतीं बल्कि तटस्थ होकर आस-पास घटने वाली एक-एक घटना का सूक्ष्म अवलोकन करते हुए साक्षी भाव से कथारस के साथ उकेरती चलती हैं | पाठक पढ़ कर हतप्रभ होता चलता है, “हाँ ! ऐसा ही तो होता है | पर ऐसा ही होता है को लिखने के लिए जिस सूक्ष्म नजर से समाज की पड़ताल करनी पड़ती है | समाज के मनोभावों का ऐक्स रे करना होता है, वो अपने आप में एक पूरा शोध होता है | जिसे उकेरना इतना सहज नहीं  है पर प्रज्ञा  जी इसमें सिद्ध हस्त हैं |   स्त्री चरित्रों को उकेरते समय भी वो किसी विमर्श के दायरे में ना बांध कर समाज की कन्डीशनिंग की बात करती हैं | जिसके शिकार दोनों हैं | आपसी सहयोग और सम्मान ही सहअस्तित्व का आधार है, जिसकी उंगली पकड़ कर उनके पात्र एक सुंदर दुनिया की संभावना तलाशते हैं | मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ   अभी हाल ही में प्रज्ञा जी का नया कहानी संग्रह “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश”  आया है | हर बार की तरह इस संग्रह की योजना भी उन्होंने बहुत सुचिन्तित तरीके से बनाई है | विषय में जहाँ समकाल की चिंताएँ हैं, तो प्रेम की फुहारें भी, एक अच्छे आदमी द्वारा अपने अंदर छिपे बुरे आदमी की शिनाख्त तो माटी से माटी होते हुए शरीर में नई आशा फूँक देने की कवायत भी | बहुत ही हौले से वो उस बाजार के दवाब और प्रलोभन की बात भी कह जाती हैं, जिसके पंजों की जकड़ में समझदार व्यक्ति भी फँस जाता है | आज जब हम उन्हीं विषयों को बार -बार अलग -अलग शिल्प में पढ़ते हैं, वहीं प्रज्ञा जी द्वारा लाए गए जीवन से जुड़े नए अनूठे विषय उन्हें कथाकारों की अलग पांत में खड़ा करते हैं | इस संग्रह में उन्होंने शिल्प के स्तर पर भी कुछ नए प्रयोग किये हैं जो आकर्षित करते हैं, पर उनसे कहानियों की भाषा की सरलता सहजता और प्रवाह की उनकी धारा अपने पूर्ववत वेग को नहीं बदलती |   पुस्तक की भूमिका “एक दुनिया जो हम चाहते हैं बने” में प्रज्ञा जी लिखती हैं, “मैंने इस संग्रह की कहानियों में अपने विवध वर्णी समय को अंकित करने का प्रयास किया है |समाज में जहाँ एक ओर मनुष्यता की विजय  की कहानियाँ सामने आई हैं, वहीं कहीं ना कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यता  पूंजी और बाजार में कहीं सबसे सस्ती और अनुपयोगी हो गयी है | इसलिए मेरा प्रयास रहा है कि समय की कटुता के साथ मनुष्यता के भरोसे को जीवित रखने वाले कुछ किस्से आप के साथ साझा कर सकूँ |     प्रेम दुनिया की सबसे सुंदर शय है | दो लोग मन -प्राण से एकाकर हो जाएँ इस से सुंदर घटना कोई दूसरी नहीं हो सकती | पहाड़ों की सुरम्य वादियों में हवा की सुरीली घंटियों सी आज भी गूँजती है अब तक मालूशाही और राजुला की प्रेम कहानी, जिसने हर संघर्ष के बाद आखिरकार पा ही लिया उसे जिसे बार -बार छल से दूर किया जाता रहा |कहाँ राज परिवार का मालूशाही और कहाँ साधारण घरआने की राजुला | पर प्रेम ने कब मानी हैं दीवारें |  वही प्रेम कहानी फिर उतरी उसी  धरती पर अपनी पूरी सुगंध, पूरी तारतम्यता के साथ | सदाबहार बुरांश के फूलों के बीच फिर छल ने दस्तक दी पर मालूशाही फिर आया अपनी राजुला के पास | “जिन्हें एक सच्चे वचन ने बांध लिया | कयोकि  निभाने के लिए एक वचन ही काफी है और ना निभाने के लिए सात सौ भी कम |  छलिया फिर आया भेष बदल कर ..पर मन ने उसका छल माना कहाँ | लोककथा से आधुनिक प्रेम कथा को जोड़ती बुरांश के फूलों सी दहकती एक अलग तरह की प्रेम कहानी है वो  कहानी पर जिसके  ऊपर संग्रह का नाम रखा गया है यानि “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश” |   “उसे तो पहाड़ की कहानियों को जिंदा रखना थ और कहानी के रास्ते हमारे प्यार को |”   कहानी “माटी का राग” एक ऐसी ही कहानी है जो जीवन को सकारात्मक नजरिये  से देखने पर जोर देती है | “चाक के पहिये पर दयाशंकर कुम्हार की मिट्टी में तर उँगलियाँ बड़ी कोमलता से नमूने गढ़ रही थीं।चाक की लय, उँगलियों की तान, मन के राग पर धीरे-धीरे आकार लेती कला ‘तुमसे हो न पाएगा ठाकुर जी महाराज… कहाँ धरती का सोना तैयार करने वाले तुम और कहाँ हम?’ दयाशंकर ने एक साँस में हुनर औरजात के समीकरण को खोलकर सामने रख दिया। ‘रिश्ता तो हम दोनों का ही माटी से ठहरा।’”   कहानी की ये पंक्तियाँ हैं  सीधे पाठक के मन में उतरती हैं| किसान हो, कुम्हार  हो या ये जीवन  सब माटी पर निर्भर  है| सारा जुगत है इस माटी को किसी सृजन में लगा देना | वो सृजन खेत खलिहानों में उगती फसल का हो सकता है, कला का हो सकता है या फिर स्वयं के जीवन को कोई सकारात्मक मोड़  देने का | राम अवतार की ये कहानी अनेक आयाम समेटे हुए है | चाहे वो धर्म के नाम पर जबरदस्ती वैमनस्यता हो, गाँवखेत छोड़कर कर शहरों की ओर भागते युवा हों |बुजुर्गों का अकेलापन हो|कहानी गाँव से शहर की ओर जाती है और फिर गाँव की ओर … Read more

दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक

दरवाजा खोलो बाबा

  “पिता जब माँ बनते हैं, ममता की नई परिभाषा गढ़ते हैं” कविता क्या है? निबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि, “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधाना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।“ इस परिभाषा में हृदय की मुक्तवस्था सबसे जरूरी शब्द है | यूँ तो हमारे अवचेतन पर हमारे जीवन, देखे सुने कहे गए शब्द अंकित होते हैं इसलिए हर व्यक्ति एक खास कन्डीशनिंग से निर्मित होता है | परंतु साहित्य में हम अक्सर चीजों को एक दृष्टि से देखने के इतने आदि हो जाते हैं कि दूसरा पक्ष गौढ़ हो जाता है | इसका कारण तमाम तरह के वाद और विचार धाराएँ भी हैं और पत्र -पत्रिकारों में उससे  प्रभावित लेखन को मिलने वाली सहज स्वीकृति भी है | पर क्या इतना आसान है एक लकीर खींच देना जिसके एक तरफ अच्छे लोग हं और दूसरी तरफ बुरे  | एक तरफ शोषक हों और दूसरी तरफ शोषित | मुझे उपासना जी की कहानी सर्वाइवल याद आ रही है जहाँ शोषित कब शोषक बन जाता है पता ही नहीं चलता| हब सब कहीं ना कहीं शोषक हैँ और कहीं ना कहीं शोषित |   हम मान  के चलते हैं कि खास तरह की पढ़ाई के लिए माता -पिता बच्चों पर दवाब बनाते हैं और संपत्ति के लिए बच्चे वृद्ध माता पिता का शोषण करते हैं | जबकि इसके विपरीत भी उदाहरण है | शिक्षा के लिए माँ -पिता से जबरदस्ती लोन लिवा कर  बच्चे ऐश करने में बर्बाद कर देते है | वृद्ध माता पिता अपने बच्चों  का इमोशनल शोषण भी करते है | पुरुषों द्वारा अधिकतर सताई गई है स्त्री पर कई बार शोषक के रूप में भी सामने आती है | कई बार खेल महीन होता है| वहीं पुरुष कई बार पिता के रूप में, भाई के रूप में, पति के रूप में स्त्री का सहायक भी होता है|   साहित्य में हर किसी के लिए जगह होनी चाहिए हर बदलाव दर्ज होना चाहिए तभी वो आज के समकाल का सही सही खाका खींच पाएगा |   ये सब सोचने-कहने का कारण डॉ.मोनिका शर्मा का नया कविता संग्रह “दरवाजा खोलो बाबा” है | निरंतर विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में अपने विचारोत्तेजक  लेखों द्वारा समाज को सोचने को विवश करती मोनिका जी अपने इस संग्रह में बदले हुए पुरुष को ले कर आई है | पिता, पति, भाई, पुत्र के रूप में स्त्री के जीवन में खुशियों के रंग घोलने, उनको विकास की जमीन देने और हमसफ़र बन कर साथ सहयोग देने में पुरुष की भूमिका पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए | खासकर तब जब वो बदलने की कोशिश कर रहा है | दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक “19 नवंबर” को मनाए जाने वाले “अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस” में घरेलू कामों में अपने द्वारा किये जाने वाले सहयोग का संज्ञान लेने  की माँग उठी है | ऐसे में साहित्य का इस दिशा में ध्यान ना जाना उचित नहीं | मोनिका जी पुस्तक “दरवाजा खोलो बाबा” की भूमिका में लिखती हैं कि, “भावी जीवन की हर परिस्थिति से जूझने का साहस, बेटियों को अपने बाबा के आँगन से मिली सबसे अनमोल थाती होती है | आज के दौर में संवेदनशील भावों को जीते भाई जीवनसाथी  और बेटों से मिल स्नेह सम्मान, भरोसे और भावनाओं की इस विरासत को सहेजते प्रतीत होते हैं | यह वक्त की दरकार है की साझी कोशिशों और स्त्री पुरुष के भेद से परे मानवीय सरोकारों की उजास को सामाजिक -पारिवारिक परिवेश में सहज स्वीकार्यता मिले | पूरे संग्रह चार खंडों में बँटा हुआ है जिसमें पिता, पिता -बेटी, पुरुष मन और प्रश्न हैं.. पिता खंड में उन त्यागों को रेखांकित किया है जो अपने बच्चों, घर -परिवार के लिए एक पुरुष करता है | मुझे प्रेमचंद् जी का एक वाक्य का भाव याद आ रहा  है, “पिता मटर -पनीर है और माँ दूध-रोटी” थोड़ी देर भी ना मिले तो बच्चे व्याकुल हो जाते हैं | बात गलत भी नहीं है .. दरअसल पिता का त्याग अदृश्य  रहता है | बच्चों की जरूरतें माँ से पूरी होती रहतीं हैं, घर के बाहर पिता भी उस नींव की ईंट है इसका ध्यान कम ही जाता है | इसी पर ध्यान दिलाते हुए  मोनिका जी लिखती हैं.. “कमाने, जुटाने के चिर  स्थायी फेर ने सारथी बन गृहस्थी का रथ खींचते एक पुरुष को गढ़ा सनातन यात्री के रूप में”   ———————————– घर स्त्री से होता है पर उस घर को बनाने में पुरुष भी बहुत कुछ खोता है … “किताबों के पल्ले  चढ़ते ही तालों में बंद हो गए समस्त रुचि रुझान चिकना-चौरस आँगन पक्का होते ही फिसल गए जीवन की मुट्ठी से मैत्री बंध, मेल जोल के पल चौखट -चौबारों की रंग रोगन की साज धज के निर्मल निखार से फीकी पड़ गईं मर्म की समस्त चाहनाएँ” ——————————– स्त्री के शोषक के रूप में दर्ज क्या पुरुष समाज की कन्डीशनिंग का शिकार नहीं है | क्या अपने को अच्छा पुत्र और अच्छा पिता साबित करने का भार उस पर नहीं है | संतुलन उसे भी बनाना है | महीन रस्सी उसके सामने भी है |   “बहुत सीमित -समवृत होता है आकाश पिता की इच्छाओं का माता -पिता का कर्तव्य पारायण बच्चा होने के दायित्व बोध की धूरी से अपने बच्चे के उत्तरदायित्वों के यक्ष तक सिमटा” ————————– “अपनी कविता “प्रवक्ता” में वो लिखती है.. आँगन के बीचों -बीच हर बहस, हर विमर्श में चुप रह जाने वाले पिता देहरी के उस पार बन जाते हैं  आवाज घर के हर सदस्य की” पिता -पुत्री खंड में पिता पुत्री के बदलते हुए रिश्तों की बात करती हैं | एक जमाना था जब पिता परिवार के सामने अपने बच्चों को प्यार नहीं करते थे, फिर एक उम्र के बड़ी  बेटियों से थोड़ी दूरी बनाते थे | विवाह के बाद अपनी मर्जी से मायके आने का हक बेटियों का नहीं रहता था | इस सब दिशाओं में आज बदले हुए पिता-पुत्री दिखते हैं | अब लड़कियाँ “बकी बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लिजों बुलाए” नहीं … Read more

मेरे संधिपत्र – सूर्यबाला

पुस्तक समीक्षा -मेरे संधिपत्र

  एक स्त्री के द्वारा कभी ना लिखे गए संधिपत्रों का जब-जब खुलासा होगा तब पता चलेगा के घर -परिवार की खुशहाली बनाए रखने के लिए वो क्या क्या करती है ? सब कुछ अच्छा दिखने की भीतरी परतों में एक स्त्री का क्या -क्या त्याग छिपा हुआ है? क्यों घर संसार उसकी निजी खुशी से ऊपर हो जाता है| और कई बार ये फैसला उसका खुद का लिया होता है | एक ऐसी कहानी जिसमें कोई खलनायक नहीं है| सब कुछ अच्छा है | फिर भी … कदम -कदम पर संधियाँ हैं संधिपत्र है उपन्यास पर चर्चा आप यहाँ सुन सकते हैं –यू ट्यूब लिंक 2019 में एक सुंदर आवरण से सजा  राजकमल द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी का पहला उपन्यास “मेरे संधिपत्र” वो उपन्यास है जो स्त्री जीवन के त्याग, समर्पण, सुख-दुख  और दर्द और उपलब्धियों सब को निरपेक्ष भाव  से प्रस्तुत करता है | पात्र को शब्दों में ढालते हुए लेखिका सहज जीवन प्रस्तुत करती जाती हैं | और जीवन के तमाम दवंद आसानी से चित्रित हो जाते हैं | अगर आप अपने आस -पास के आम जीवन की घटनाओं को कहानी में बदल सकते हैं तो आप एक बड़े लेखक है |~चेखव  मेरे संधिपत्र -समझौते हमेशा दुख का कारण नहीं होते मेरे संधिपत्र  उपन्यास  एक आम स्त्री के मल्टीलेयर  जीवन की अंत: परतों को खोलता है | कॉम्प्लेक्स ह्यूमन इमोशन्स के जरिए ये उपन्यास स्त्री मन के दवंद और उसके द्वारा लिए गए फैसलों की बात करता है | ये संधिपत्र एक स्त्री द्वारा लिए गए वो फ़ैसलें हैं जो वो समझौते के रूप में अपने परिवार की खुशहाली के लिए करती है, पर कहीं ना कहीं इससे वो अपने लिए भी  सुंदर दुनिया का सृजन करती है | आज के दौर में जब विद्रोह ही स्त्री कथाकारों की कलम की शरण स्थली बनी हुई है, ऐसे समय में इसका नए दृष्टिकोण से पुन:पाठ आवश्यक हो जाता है |और यह उपन्यास कई प्रश्नों पर फिर से विचार करने का आग्रह करता है … क्या स्त्री का  माय चॉइस हमेशा परिवार के विरोध में है ? अपने घर परिवार के हक में फैसला करती स्त्री को हम सशक्त स्त्री के रूप में क्यों नहीं देखते जब की हम पुरुष से ऐसी ही आशा करते हैं ? क्या इस पार स्व विवेक से लिया गया फैसला स्त्री को सशक्त स्त्री नहीं घोषित करता है ? ये कहानी है एक लड़की शिवा की .. पढ़ाई में तेज, विभिन्न प्रतिभागी परीक्षाओं में तमाम पदक जीतने वाली गरीब लड़की शिवा का कम उम्र में विवाह एक लखपति व्यवसायी से हो जाता है |शिवाय उसकी दूसरी पत्नी और दो नन्ही बछियों की माँ  बन कर घर में प्रवेश करती है | उपन्यास की शुरुआत ही “मम्मी आ गई, मम्मी आ गई” के हर्षित स्वर के साथ स्वागत कति बच्चियों से होती है | सद्ध ब्याहता माँ  के आँखों में मोतियों कीई झालर देखकर बच्ची पानी ला कर मुँह धुलाने की कोशिश करती है | यहीं से सौतेली माँ और बच्चों का एक नया रिश्ता शुरू होता है | एक बेहद खूबसूरत रिश्ता, जहँ सौतेला शब्द ना दिल में है ना जेहन में | सौतेली माँ की तथाकथित खल छवि को तोड़ता है यह उपन्यास | उपन्यास तीन भागों में बांटा गया है | पहले दो भागों में दोनों बच्चियों के अपने अपने दृष्टिकोण से माँ और जीवन को देखती हैं | मेरी क्षणिकाएँ ऋचा उपन्यास के पहले भगा में बड़ी बेटी ऋचा का माँ के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास है | वो अपनी माँ के गरिमामाई व्यक्तित्व से प्रभावित है |  वो माँ के जीवन को उनकी खुशियों, उनके दर्द को उसी तर्ज पर समझती है | धीरे धीरे वो उन्हीं में ढलती जाती है |समय -समय पर वो माँ की ढाल बनती है पर मौन मूक स्वीकार भव के साथ | रिंकी मेरा विद्रोह इस भाग में छोटी बेटी रिंकी का माँ के साथ जीवन को समझने का दृष्टिकोण है | रिंकी विद्रोही स्वभाव की है | वो माँ की ढाल नहीं बनती अपनी वो विद्रोह कर माँ के लिए सारी खुशियाँ जीतना चाहती है | मेरे संधिपत्र ये हिस्सा शिवा के दृष्टिकोण का है | इसमें वो तमाम संधिपत्र.. वो समझौते हैं जो वो अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए करती है | वो बेमेल विवाह जहाँ मेंटल मैच नहीं मिलता उसे स्वीकारती है साथ ही ये भी स्वीकारती है कि  उसका पति  जीवन पर्यंत उसे बहुत प्रेम करता रहा | भले ही उसका प्यार उस तरह से नहीं ठा जिस तरह से वो कहती थी पर उसने प्यार किया है | हर सफलता पर वो उसे जेवरों से लादता है |उसके लिए रबड़ी के कुल्ले लाता है | गरीब मायके जाने पर कोई रोक टोंक नहीं यही | वो स्वीकारती है कि सौतेली माँ होने का उस पर दवाब है कि वो अपनी बच्ची से दूर रहे पर साथ ही ये भी कि दोनों बच्चियों ने उसे निश्चल प्रेम और विश्वास की अथाह संपत्ति दी है | जिसने उसके जीवन को खुशियों से भर दिया है | सास उस अपेक्षाकृत छोटे घर की बेटी को बड़े राइस खानदान की बहु के साँचे में ढालती हैं | पर उन्हें समझ है की इसे यह सब करने में समय लगेगा | इस उपन्यास की शुरुआत में लेखिका लिखती हैं .. मेरे संधिपत्र बनाम शिवाय के संधिपत्र उसकी जिंदगी के नाम … जिंदगी है भी यही संधियों का अटूट सिलसिला, निरंतर प्रवाहित, जीवन की इस निसर्ग, निर्बाध धारा में एक चीज बस शिवाय की अपनी थी -इस धारा की गहराई | जीवन भर डूब -डूब कर वह अपने को थहाती रही, यही उसकी नियति थी |छप्पर फाड़ कर मिले सुख- सौभाग्य, ऐश्वर्य-मातृत्व सबकी दुकान लगाए बैठी रही |सब अपने -अपने बाँट लेकर आए और जो जिसने चाहा, तौलती बांटती चली गई |और अंत में दुकान बंद करने का समय आने तक उसके पास बचे रहे जिंदगी के नाम लिखे कुछ संधिपत्र, बस पाठक भी इसे अपने -अपने बाँट के हिसाब से पढ़ सकता है | क्योंकि इस कहानी की खूबसूरती ही जीवन के बाह्य और अंतर्मन के बहुपरतीय  आयाम को खोलना है | इंसान  के फैसले … Read more

बिछोह

बिछोह

वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियों की खास बात होती है उनके शीर्षक, और कथ्य को कहने का वो ढंग जहाँ पाठक एक बात पढ़ते समझते आगे बढ़ता है पर अचानक कहानी के मूल से उसका साम्य स्थापित हो जाता है |इसलिए अंत चमृतकृत  करता है | जीवन जीने के दो तरीके हैं एक तो कुछ पाने की खातिर स्वाभिमान को दाँव पर लगा देना और दूसरा स्वाभिमान की खातिर तकलीफें झेल लेना | ये कहानी गडुलिया लुहारों की कथा कहते -कहते उन लोगों पर भी प्रहार करती है जिन्हें स्वाभिमान के नाम पर बस स्त्री पर नकेल कसना आता है | आइए पढ़ें , दीपक शर्मा जी की कहानी .. बिछोह   बहन मुझ से सन् १९५५ में बिछुड़ी| उस समय मैं दस वर्ष का था और बहन बारह की| “तू आज पिछाड़ी गयी थी?” एक शाम हमारे पिता की आवाज़ हम बहन-भाई के बाल-कक्ष में आन गूँजी| बहन को हवेली की अगाड़ी-पिछाड़ी जाने की सख़्त मनाही थी| अगाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ अजनबियों की आवाजाही लगी रहती थी| लोकसभा सदस्य, मेरे दादा, के राजनैतिक एवं सरकारी काम-काज अगाड़ी ही देखे-समझे जाते थे| और पिछाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ हमारा अस्तबल था, जहाँ उन दिनों एक लोहार-परिवार घोड़ों के नाल बदल रहा था| “मैं ले गया था,” बहन के बचाव के लिए मैं तत्काल उठ खड़ा हुआ| “उसे साथ घसीटने की क्या ज़रुरत थी?” पिता ने मेरे कान उमेठे| “लड़की ही सयानी होती तो मना नहीं कर देती?” दरवाज़े की ओट सुनाई दे रही चूड़ियों की खनक हमारे पास आन पहुँची| पिछले वर्ष हुई हमारी माँ की मृत्यु के एक माह उपरान्त हमारे पिता ने अपना दूसरा ब्याह रचा डाला था और हमारी सौतेली माँ उस छवि पर खरी उतरती थीं जो छवि हमारी माँ ने हमारे मन में उकेर रखी थी| रामायण की कैकेयी से ले कर परिकथाओं की ‘चुड़ैल-रुपी सौतेली माँ के’ हवाले से| “भूल मेरी ही है,” बहन पिता के सामने आ खड़ी हुई, “घोड़ों के पास मैं ही भाई को ले कर गयी थी…..” “घोड़ों के पास या लोहारों के पास?” नई माँ ठुनकीं| उस लोहार-परिवार में तीन सदस्य थे : लोहार, लोहारिन और उनका अठारह-उन्नीस वर्षीय बेटा| “हमें घोड़ों के नाल बदलते हुए देखने थे,” मैं बोल पड़ा, “और वे नाल वे लोहार-लोग बदल रहे थे…..” “वही तो!” नई माँ ने अपनी चूड़ियाँ खनकायीं, “टुटपुंजिए, बेनाम उन हथौड़ियों के पास जवान लड़की का जाना शोभा देता है क्या?” “वे टुटपुंजिए नहीं थे,” मैं उबल लिया, “एक बैलगाड़ी के मालिक थे| कई औज़ारों के मालिक थे| और बेनाम भी नहीं थे| गाडुलिया लोहार थे| हमारी तरह चित्तौरगढ़ के मूल निवासी थे…..” “लो,” नई माँ ने अपनी चूड़ियों को एक घुमावदार चक्कर खिलाया, “उन लोग ने हमारे संग साझेदारी भी निकाल ली| हमारी लड़की को अपने साथ भगा ले जाने की ज़मीन तैयार करने के वास्ते…..” “आप ग़लत सोचती हैं,” मैं फट पड़ा, “वे लोग हम से रिश्ता क्यों जोड़ने लगे? वे हमें देशद्रोही मानते हैं क्योंकि हम लोग ने पहले मुगलों की गुलामी की और फिर अंगरेज़ों की…..” “ऐसा कहा उन्होंने?” हमारे पिता आगबबूले हो लिए| “यह पूछिए ऐसा कैसे सुन लिया इन लोग ने? और यही नहीं, सुनने के बाद इसे हमें भी सुना दिया…..” “यह सच ही तो है,” पहली बार उन दोनों का विरोध करते समय मैं सिकुड़ा नहीं, काँपा नहीं, डरा नहीं, “जभी तो हम लोग के पास यह बड़ी हवेली है| वौक्सवेगन है| दस घोड़े हैं| एम्बैसेडर है| तीन गायें हैं| दो भैंसे हैं…..” “क्या बकते हो?” पिता ने एक ज़ोरदार तमाचा मेरे मुँह पर दे मारा| “भाई को कुछ मत कहिए,” बहन रोने लगी, “दंड देना ही है तो मुझे दीजिए…..” “देखिए तो!” नई माँ ने हमारे पिता का बिगड़ा स्वभाव और बिगाड़ देना चाहा, “कहती है, ‘दंड देना ही है तो…..’ मानो यह बहुत अबोध हो, निर्दोष हो, दंड की अधिकारी न हो…..” “दंड तो इसे मिलेगा ही मिलेगा,” हमारे पिता की आँखें अंगारे बन लीं “लेकिन पहले भड़कुए अपने साईस से मैं उन का नाम-पता तो मालूम कर लूँ| वही उन्हें खानाबदोशों की बस्ती से पकड़ कर इधर हवेली में लाया था…..” “उन लोहारों को तो मैं भी देखना चाहती हूँ,” नई माँ ने आह्लादित हो कर अपनी चूड़ियाँ खनका दीं, “जो हमारे बच्चों को ऐसे बहकाए-भटकाए हैं…..” “उन्हें तो अब पुलिस देखेगी, पुलिस धरेगी| बाबूजी के दफ़्तर से मैं एस.पी. को अभी फ़ोन लगवाता हूँ…..” हमारे पिता हमारे बाल-कक्ष से बाहर लपक लिए| बहन और मैं एक दूसरे की ओर देख कर अपनी अपनी मुस्कराहट नियन्त्रित करने लगे| हम जानते थे वह लोहार-परिवार किसी को नहीं मिलने वाला| वह चित्तौरगढ़ के लिए रवाना हो चुका था| (२) उस दोपहर जब मैं पिछली तीन दोपहरों की तरह अस्तबल के लिए निकलने लगा था तो बहन मेरे साथ हो ली थी, “आज साईस काका की छुट्टी है और नई माँ आज बड़े कमरे में सोने गयी हैं…..” बड़ा कमरा मेरे पिता का निजी कमरा था और जब भी दोपहर में नई माँ उधर जातीं, वे दोनों ही लम्बी झपकी लिया करते| अपने पिता और नई माँ की अनभिज्ञता का लाभ जैसे ही बहन को उपलब्ध हुआ था, उसे याद आया था, स्कूल से उसे बग्घी में लिवाते समय साईस ने उस दोपहर की अपनी छुट्टी का उल्लेख किया था| पुराना होने के कारण वह साईस हमारे पिता का मुँह लगा था और हर किसी की ख़बर उन्हें पहुँचा दिया करता| और इसी डर से उस दोपहर से पहले बहन मेरे संग नहीं निकला करती थी| वैसे इन पिछली तीन दोपहरों की अपनी झाँकियों की ख़ाका मैं बहन को रोज़ देता रहा था : कैसे अपनी कर्मकारी के बीच लोहार, लोहारिन और लोहार-बेटा गपियाया करते और किस प्रकार कर्मकारी उन तीनों ने आपस में बाँट रखी थी; लोहार-बेटा मोटी अपनी रेती और छुरी से बंधे घोड़े के तलुवे और खुर के किनारे बराबर बनाता, लोहार अपने मिस्त्रीखाने के एक झोले में से अनुमानित नाप का यू-आकृति लिए एक नया नाल चुनता और उसे सुगठित रूप देने के लिए पहले झनझना रही चिनगारियों से भरी भट्टी में झोंकता और फिर ठंडे पानी में| लोहारिन अपनी धौंकनी से भट्टी में आग दहकाए रखती और जब नाल तैयार हो जाता तो उसे … Read more

भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी

भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी

संसार अपनी धुन में लगातार चलते हुए मारक पदचिह्न छोड़ता चलता है। जिस रास्ते को वह तय कर लेता है, उस पर कभी मुड़कर नहीं देखता। न ही किसी चट्टान पर बैठकर ये प्रतीक्षा करता है कि कोई प्रबुद्ध-समृद्ध व्यक्ति आकर उसके पाँव की छाप लेकर धरोहर के रूप में सुरक्षित कर ले। लेकिन इस सबके बावजूद भी सब कुछ लिखा जाता है। कोई है, जिसके इशारे पर हवा चलती है और सूरज दहकता है। उसके यहाँ जितना हाथी का मोल है, उतना ही चीटीं का। जितनी बरगद की आवश्यकता है, उतनी ही छुईमुई की ज़रूरत है। कहने का मतलब जो कुछ भी पृथ्वी पर क्रियात्मकता के साथ घट रहा होता है, उसको कलमबद्ध करने का काम लिपिक स्वयं करता चलता है। तो फिर इस संसार का लिपिक है कौन ? जब सवाल उठा तो पता चला कि संसार का लिपिक और कोई नहीं काल स्वयं है। वही उसके निहोरा घूमता है, या हो सकता है कि संसार स्वयं अपने लिपिक के प्रति निहोरा हो! कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। लेकिन एक बात पक्की है कि कला और काल को कोई मात देकर यदि बाँध लेता है, वह और कोई नहीं, जाग्रत चेतना का लेखक ही होता है। लेखक अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और संवेदना से लबालब हृदय की कलम से बाह्य और अंतर जगत को लिख डालता है। लेखक की कलम में आकाश-पाताल, सागर-गागर, नदियाँ-कुँए,सूरज-चाँद-सितारे और समस्त प्रकृति एक साथ और एक समय में छिपकर रहते हैं और साथ में रहती है उसकी अपनी मौलिक तार्किकता,समाज को समझने की समझ और सही बात कहने की छटपटाती दृढ़ता। उसी की दम से एक जगा हुआ लेखक सात कोने के भीतर की घटनाओं-दुर्घटनाओं को घसीटते हुए संसार के सम्मुख शब्दों में लपेटकर रख देता है। भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी मैं जिसकी बात कहने जा रही हूँ, वे भी बेहद निर्भीक तटस्थ लेखिका थीं। उनका नाम ‘मन्नू भंडारी’ लेते हुए मन श्रद्धा से भर जाता है। अभी हाल ही में भारत की प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित कथा लेखक मन्नू भंडारी जी का निधन हो गया है। साहित्य सरोवर के महान तट से उनका तम्बू उखड़ जरूर गया है लेकिन उनके अनेक पाठक हैं, जिनके मन में उनकी अमिट छाप अभी भी अंकित है और बनी रहेगी। मन्नू जी के गोलोक धाम जाने की खबर जिसने सुनी उसकी आँखें नम हो गयीं। लेखिका के प्रति भावुक होने के सभी के पास दो कारण हैं। एक तो उनका भावनात्मक समृद्ध-सुदृढ़ रचना संसार जिसमें मानव-पीड़ा की कहानियाँ भरी पड़ी हैं। दूसरे उनके विशालकाय एकाकीपन की जंगम नीरवता का लगा उनके कोमल मन पर दंश था। वे जितनी बड़ी और महान लेखिका थीं उतनी ही बड़ी मानवीय पीड़ा की भोग्या भी रहीं। लेखकीय जीवन के विस्तार के बाद उनके हिस्से आया उनका अवसादीय जीवन जो घट-घटकर भी कभी घट न सका। अन्ततोगत्वा उनको इस निस्सार संसार को उसके हवाले छोड़कर जाना ही पड़ा। हालाँकि सुनने में ये भी आया कि मन्नू जी ‘मरने’ के नाम पर कहती थीं कि “मेरे पास मौत के लिए वक्त नहीं, अभी लिखना बहुत बाकी है।” लेकिन काल के गाल से कौन बच सका है। ईश्वर उनकी आत्मा को चिर शांति प्रदान करें। उन्हें उनके अगले जन्म में अपनों का बेहद स्नेह मिले। वैसे तो जो बात मैं लिखने जा रही हूँ, कोई नई नहीं है; फिर भी आपको बता दूँ कि हिंदी की प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार मन्नू भंडारी का जन्म 3 अप्रैल 1931 को मध्य प्रदेश में मंदसौर ज़िले के भानुपुरा गाँव में हुआ था। उनका बाल्यकाल भानुपुरा की मिट्टी ने ही सिरजा था। आज जब लेखिका हमारे बीच नहीं हैं तो हम सबके साथ-साथ उनकी जन्मभूमि भी कितनी उदास होगी क्योंकि उसने भी तो अपनी लाड़ली बेटी को खोया है। दिल्ली की हवा ने मंदसौर भानुपुरा की हवा को जब उनके जाने की चिट्ठी सुनाई होगी तो सारे वायु मंडल में कैसा शोक व्याप्त गया होगा। कभी वहाँ की आबोहवा को अपने होने की महक से मन्नू जी ने ही महकाया था। वह स्थान भी महान होता है जिस पर महान आत्माएँ जन्म लेती हैं। ऐसा सुना जाता है कि मन्नू जी के बचपन का नाम ‘महेंद्र कुमारी’ था। उनके पिता का नाम सुख संपत राय था। सुख संपत राय जी उस दौर के विचारवान व्यक्ति थे। जब स्त्रियों को सात कोठे के भीतर उनकी खाल सड़ने के लिए बंद रखा जाता था। सीधे मुँह स्त्रियों से कोई बात नहीं करना चाहता था। उस समय के जाने-माने लेखक और समाज सुधारक संपत राय ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए लड़कियों को ये चेताया कि उनकी जगह रसोई नहीं विद्यालय में है। उनकी दृष्टि में लडकियाँ सिर्फ वंश-बेल बढ़ाने का माध्यम न होकर शिक्षा की अधिकारिणी भी हैं, बताया गया। ये बातें सुनते-समझते हुए तो यही लगता है कि मन्नू जी के दबंग और प्रखर व्यक्तित्व निर्माण में उनके पिता का भरपूर योगदान रहा होगा। वहीं मन्नू जी की माता का नाम अनूप कुँवरी था। जो धीर-गम्भीर स्त्रीगत स्वाभाव की धनी महिला थीं। उदारता, स्नेहिलता, सहनशीलता और धार्मिकता जैसे गुण जो लेखिका के अंतर्मन को हमेशा सहेजते रहे, उन्हें अपनी माँ से ही मिले होंगे। इस सब के अलावा मन्नू जी के परिवार में उनके चार-बहन भाई थे। बचपन से ही उन्हें, प्यार से ‘मन्नू’ पुकारा जाता था इसलिए उन्होंने अपनी लेखनी के लिए जो नाम चुना वह ‘मन्नू’ था। पुस्तकें ऐसा बताती हैं कि मन्नू भंडारी ने अजमेर के ‘सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल’ से शिक्षा प्राप्त की और कोलकाता से बी.ए. की डिग्री हासिल की थी। उन्होंने एम.ए.तक शिक्षा ग्रहण की और वर्षों-वर्ष तक अध्यापनरत रहते हुए कितनी ही महिलाओं को स्त्री की अपनी भूमिका में सशक्त रहने की प्रेणना दी है। अंगेज़ी हुकूमत के बाद देश आज़ाद तो हुआ था लेकिन रूढ़ीवादी सोच के साथ आंतरिक रूप से जकड़ता चला गया। स्त्री दुर्दशा की झंडे गढ़ गये। जाति-धर्म और लैंगिक असमानता जैसे चंगुल में फँकर शारीरिक स्वतंत्र समाज फिर से कराहने लगा। शारीरिक गुलामी से ज्यादा मानसिक दासता खटकती है। और भयाभय मानसिक दैन्यता से उबरने का साधन यदि कुछ है तो वह है साहित्य। उस कठिन रूढ़िवादी समय में जब क्रांतिकारी लेखकों ने अपनी कलमें उठाईं और समाज की अंधी दम घोंटू … Read more

गांधारी – आँखों की पट्टी खोलती एक बेहतरीन किताब

सुमन केशरी दी की की नई किताब “गांधारी” आई और प्रिय अनुप्रिया के बनाए कवर में ही ऐसी कशिश थी कि तुरंत सैनिटाइज़ कर पढ़ना शुरू किया  | फिर किताब ने ऐसा जकड़ा की रात में 12 बजे खत्म करके ही रुकी | बहुत दिनों बाद ऐसी किताब पढ़ी जिससे नशा सा हुआ, एक बेचैनी भी और कुछ अच्छा पढ़ लेने की संतुष्टि भी | सुमन केशरी दी के लेखन की गहनता को कविताओं के माध्यम जानती हूँ | उनके कथा नटी के रूप में बेहतरीन कथा पाठ की भी मुरीद हूँ पर इस तरह का लेखन पहली बार पढ़ा और पढ़कर बंध गई | ये किताब समर्पित है उन सभी स्त्रियों को ये समझती हैं कि आँख -कान मूँद लेने से जीवन सुखी व शांतिपूर्ण हो जाता है | ये एक वाक्य ही बहुत कुछ कह देता है | समझा देता है | गांधारी के विषय में अब तो जो कुछ भी लिखा -पढ़ा गया उससे बिल्कुल अलग दृष्टि लेकर आई है सुमन दी | और पढ़कर कर लगा बिल्कुल ऐसा ही हुआ होगा .. यही सच है | ऐसा पहले क्यों नहीं सोचा गया? काल की सीमाओं को लाँघ कर एक स्त्री के मन को, उसके दर्द को दूसरी स्त्री पढ़ रही है .. पन्ना दर पन्ना | सहज स्त्रियोचित दृष्टि, सहज स्त्री विमर्श की मन गांधारी के लिए चीत्कार कर उठा, मन हुआ की गले लगा लें उस गांधारी को प्रेम की लौह समान मजबूत बाजुओं में कैद इतनी अच्छी थी ..कि उसके साथ सब कुछ बुरा होता चला गया | यूँ तो किताब गांधारी के बचपन से शुरू होती है पर ये किताब केवल गांधारी की ही बात नहीं करती| महाभारत काल के हर पात्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण करती है | किस तरह से भीष्म पितामह गांधार नरेश को उन्हीं के राजमहल में लगभग कैद कर गांधारी और धृतराष्ट्र का विवाह कराते है| साथ ही उसके भाई शकुनि को भी अपने साथ ले आते हैं ताकि भविष्य में भी गांधार अपने को मुक्त ना करा सके | हम प्राचीन भारत में राज कन्याओं के स्वयंवर की बात करते हैं पर चाहे अम्बा, अंबिका , अंबालिका हों या गांधारी सभी के विवाह जबरन हुए और माद्री के पिता को भी अपार धनराशि दे कर उसका पांडु के साथ विवाह कराया गया | इसमें उसकी इच्छा शामिल थी या नहीं इसका जिक्र नहीं है | सीधी सी बात है स्वयंबर का वास्तविक अधिकार उन्हीं कन्याओं को प्राप्त होता था जिनके पिता बलशाली राज्यों के राजा हों | एक स्थान पर गांधार नरेश अपनी पत्नी से कहते हैँ कि “इतने शक्तिशाली साम्राज्य से शत्रुता घातक होगी | देखो! मैं भी तो मन पर पत्थर रख रहा हूँ |” वहीं धृतराष्ट्र में अपने अंधेपन की वजह से हीन भावना है | वो हीन भावना इतनी है की वो जब -तब अपनी माँ को भी कोसते हैं कि अगर उन्होंने नेत्र ना बंद किये होते तो कदाचित वो अंधे ना होते | वो अपने दर्द को बार -बार पत्नी से साझा करते हैं.. फिर भी उन्हें पितृसत्ता की डिजाइन करी हुई पत्नी चाहिए | उन्हें क्या चाहिए इसका अपने पास बड़ा तार्किक आधार है पर पत्नी को क्या चाहिए इसका ना उन्होंने कभी प्रश्न पूछा और ना ही कभी सोचा | स्त्री जीवन का यह सत्य तब से लेकर आज तक यथावत है | वहीं पांडु को गांधारी जैसी स्त्री के धृतराष्ट्र को मिल जाने की ईर्ष्या है | एक नेत्रहीन व्यक्ति जो अपनी पत्नी का सौन्दर्य देख ही नहीं सकता उसका इतनी सुंदर स्त्री से विवाह का क्या लाभ ? कुंती सामान्य सुंदर स्त्री हैं और यही ईर्ष्या मद्र नरेश से वहाँ की प्रथा के अनुसार बहुत मूल्य चुका कर अतीव सुंदरी माद्री से विवाह की वजह बनती है | नाटक का अंत कारुणिक होते हुए भी उसका मजबूत पक्ष है.. महाभारत के युद्ध का अंत , महाविनाश कर बाद महाविलाप करता हर पात्र | स्त्रियों का हाहाकार | हर पात्र को अपने -अपने हिस्से की गलतियाँ समझ में आ रही है | ऐसे में भीष्म गांधारी संवाद बहुत महत्वपूर्ण है .. जो एक स्त्री के लिए ही नहीं पति-पत्नी के रिश्ते के लिए भी महत्वपूर्ण है | अपनी गलतियों को स्वीकारते भीष्म का एक महत्वपूर्ण बिन्दु ये भी उठाया है की उन्होंने राज्य और प्रजा के प्रति अपनी निष्ठा को राजा के प्रति निष्ठा मान कर बहुत बड़ी गलती की है| गांधारी का चरित्र भी सखियों के साथ मस्ती करती खेलती गांधारी से, पति से अनन्य प्रेम करती गांधारी, अपने शयन कक्ष में रोती-विलाप करती गांधारी, सहज ईर्ष्या भाव और इतना सब कुछ हो जाने के पीछे द्रौपदी के प्रति क्रोध भाव रखती गांधारी से अपनी गलती को स्वीकारती गांधारी से लेकर परीक्षित को गोद में ले उसका नामकरण करती गांधारी तक विकास की एक यात्रा पूरी करता है | मानवीय कमजोरियों को भी लेखिका ने साफ साफ दिखाया है | एक दृश्य में द्रौपदी के दर्द को महसूस करती गांधारी के ऊपर माँ की ममता हावी है जो उसे श्राप देने से रोकती है और अपने पुत्रों को स्वयं भी कोई ऐसी सजा नहीं देती, जिससे उन्हें पछतावा हो | क्रोध में कृष्ण को वंश नाश का श्राप देती गांधारी को जब कृष्ण कहते हैँ कि वहाँ भी रोएगी तो स्त्रियाँ ही .. तो वो अपने ही दिए गए श्राप पर पश्चाताप करती है | युद्ध कभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं होते | वहीं स्त्रियों के दुख साझा होते हैँ | जो स्त्रियाँ सामान्य समय में एक दूसरे से ईर्ष्या करती हैं, हावी होना चाहती है वही दुख में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर सहारा देती हैं | ये बिन्दु भी विचारणीय है कि किस तरह से पितृसत्ता स्त्रियों को स्त्रियों के विरुद्ध खड़ा करती है | क्योंकि ये किताब नाटक विधा में लिखी गई है | इसलिए इसके संवाद बहुत सधे और कसे हुए हैं| दृश्य चित्रण प्रभावित करता है | भाषा बहुत सरल व सहज है, जो सीधे पाठक के दिल में उतरती है | अंत में आँखे खोलने वाली इस किताब के लिए सुमन दी को बहुत बहुत बधाई समीक्षा -वंदना बाजपेयी