क्यों बदल रहे हैं आज के बच्चे ?

                                                     बचपन ………… एक ऐसा शब्द जिसे बोलते ही मिश्री की सी मिठास मुँह में घुल जाती है ,याद आने लगती है वो कागज़ की नाव ,वो बारिश का पानी,वो मिटटी से सने कपडे ,और वो नानी की कहानियाँ। बचपन……. यानी उम्र का सबसे खूबसूरत दौर ………माता –पिता का भरपूर प्यार ,न कमाने की चिंता न खाने की ,दिन भर खेलकूद …विष –अमृत ,पो शम्पा , छुआ –छुआई ,छुपन –छुपाई।या यूँ कह सकते हैं…… बचपन है सूरज की वो पहली किरण जो धूप बनेगी ,या वो कली जिसे पत्तियों ने ढककर रखा है प्रतीक्षारत है फूल बन कर खिलने की ,या समय की मुट्ठी में बंद एक नन्हा सा दीप जिसे जगमग करना है कल। कवि कल्पनाओं से इतर…… बच्चे जो भले ही बड़ों का छोटा प्रतिरूप लगते हों पर उन पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है क्योकि वो ही बीज है सामाजिक परिवर्तन के, कर्णधार है देश के भविष्य के।  क्यों बदल रहे हैं आज के बच्चे ? वैसे परिवर्तन समाज का नियम है…जो कल था आज नहीं है जोआज है कल नहीं होगा और हमारे बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। परिवर्तन सकारात्मक भी होते हैं नकारात्मक भी। इधर हाल के वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के असर ,भौतिकतावादी दृष्टिकोण ,तेज़ी से बदलते सामाजिक परिवेश के चलते बच्चों के सोच -विचार ,भाषा ,मनोविज्ञान आदि में वांछित -अवांछित अनेकों बदलाव हुए हैं। जहाँ बच्चों के सामान्य ज्ञान में वृद्धि हुई है वही मासूमियत में कमी हुई है। अगर मैं आज के बच्चों की तुलना आज से बीस -पच्चीस साल पहले के बच्चों से करती हूँ तो पाती हूँ की आज के बच्चों में तनाव , निराशा अवसाद के लक्षण ज्यादा हैं ,जो एक चिंता का विषय है। दूसरी तरफ मोटापा ,डायबिटीस ,उच्च रक्तचाप जैसी तथाकथित बड़ों की बीमारियाँ बचपन में अपने पाँव पसार रहीं हैं। साथ ही साथ बच्चों में हिंसात्मक प्रवत्ति बढ़ रही है। यह निर्विवाद सत्य है की बचपन में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। जहाँ शिक्षित माता -पिता ,एक -दो बच्चों पर सीमित रह कर अपने बच्चों को पहले से ज्यादा सुविधायें ,उच्च शिक्षा आदि देने में समर्थ हुए हैं वहीँ बहुत कुछ पाने की होड़ में कुछ छूट रहा है ,कुछ ऐसा जिसे संरक्षित किया जाना आवश्यक है। क्योकि बच्चे ही कल का भविष्य है ,हमारी सोच ,सभ्यता व् संस्कृति के वाहक हैं ,इसलिए यह एक गंभीर विवेचना का विषय है। तो आइये इसके एक -एक पहलू पर विचार करे………………. सच ही कहा गया है “बच्चों को समझना कोई बच्चों का खेल नहीं है “ ठहरिये मम्मी ! रोबोट नहीं हैं बच्चे……….  पार्क में ,गली मुहल्लों में अडोस -पड़ोस में अक्सर आप को छोटे बच्चों की माताएं बात करती हुई मिल जाएँगी………… ‘”मेरा बेटा तो ६ महीनें में बैठने लगा था ,आपकी बिटिया तो शायद सात महीने की हो गयी ,अभी बैठती नहीं “……. आप डॉक्टर को दिखा लो क्या पता कुछ समस्या हो। बस हो गयी मम्मी तनावग्रस्त ………… दादी ,नानी के समझाने से समझने वाली नहीं, …………. हर बच्चे का विकास का एक अपना ही क्रम होता है ,कोई बैठना पहले सीखता है कोई चलना। शुरू हो जाते है डॉक्टरों के यहाँ के चक्कर पर चक्कर। धीरे -धीरे वो अपना यह तनाव दूध के साथ बच्चों को पिला देती हैं…………… शायद यहीं से शुरू होता बच्चों के रक्त में बहने वाले तनाव और उससे उन की मनोदशाओं पर असर। अकेला हूँ मैं………. यह सत्य है की जनसँख्या हमारे देश की एक बहुत बड़ी समस्या रही है। पर आज़कल के शिक्षित माता -पिता के “हम दो हमारा एक ” के चलते बच्चे घर में अकेले हो गए हैं, ना भाई ना बहन………. ना राखी ,ना दूज…………… हर त्यौहार फीका ,हर मज़ा अधूरा। बचपन में साथ -साथ पलते बढ़ते भाई -बहन लड़ते -झगड़ते ,खेलते -कूदते एक खूबसूरत रिश्ते के साथ दोस्ती के एक अटूट बंधन में भी बंध जाते है। कितनी समस्याएं माता -पिता को भनक लगे बिना भाई -बहन आपस में ही सुलझा लेते हैं। अकेले बच्चों के जीवन में बहुत ही सूनापन रहता है। साथ के लिए घर में कोई हमउम्र नहीं होता। यह अकेलापन या तो अन्तर्मुखी बना देता है या विद्रोही। कहाँ है दादी -नानी? …………  बचपन की बात हो और दादी के बनाये असली घी के लड्डू या नानी की कहानियों की बात ना हो तो बचपन कुछ अधूरा सा लगता है। पर दुखद है आज के बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं हैं। दो जून रोटी की तलाश में अपना गाँव -घर छोड़ कर देश के विभिन्न कोनों में बसे लोगों के बच्चे दादी और नानी के स्नेहिल प्यार से वंचित ही रह जाते हैं …………… और उस पर यह कमर तोड़ महंगाई जिस की वजह से घर का खर्च चलाने के लिए माँ -पिता दोनों को काम पर जाना होता है. ………और मासूम बच्चे सौप दिए जाते हैं किसी आया के हांथों या आँगन वाडी में। यह सच है की पैसे के दम पर सुविधायें खरीदी जा सकती हैं पर अफ़सोस माँ का प्यार , परिवार के संस्कार , घर का अपनापन यह दुकान पर बिकता नहीं है। क्या कहीं न कहीं इसी वजह से बच्चे अधिक चिडचिडे ,बदमिजाज व् क्रोधी हो रहे है ?इसका एक दुखद पहलू यह भी है की आंगनवाडी में पले यह बच्चे वृधावस्था में अपने माता -पिता का महंगे से महंगा ईलाज तो करा देते है……………. पर उनका अकेलापन बांटने के लिए समय………समय हरगिज़ नहीं देते। क्यों दोष दे हम उन्हें भी ?सीखा ही नहीं है उन्होंने समय देना। सीखा ही नहीं है उन्होंने कि घर बंधता है ,परस्पर विचारों के आदान -प्रदान से ,प्रेम से और समय देने से। मोबाईल कंप्यूटर………. “सौ सुनार की एक लुहार की…”……  बचपन को बदलने सबसे बड़ा हाथ अगर किसी का है तो वह है मोबाईल और कंप्यूटर। अक्सर बच्चों के हाथों में मोबाईल देख कर मुझे एक दोहा याद आ जाता है। ………… “देखन में छोटे लगे ,घाव करें गंभीर “. इसका सकारात्मक ,और नकारात्मक दोनों प्रकार का असर होता है…………… सकारात्मक असर यह है की ,बच्चों को घर बैठे दुनिया भर का … Read more

जस्ट लाइक &कमेंट

                           फेस बुक पर आने के बाद देखा तो हमने भी था कि कुछ लोग इसे विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम समझते हैं और कुछ अपनी तस्वीरों की |खैर जिसकी जैसी इक्षा सोच कर हमने तो चुप रहने में ही भलाई समझी पर  आज शाम को घर आते वक्त मिसेज चावला मिल गयी |बड़ा उदास सा मुँह बना रखा था |हम तो टमाटर और भिन्डी खरीदने के बाद उनके  दामों में हुई वृद्धि और उससे घर के  बजट बिगड़ने कि गणित में उलझे हुए थे तभी मिसेज चावला हमारी आँखों के आगे आ गयी उनका चेहरा तो हमारी सस्ती भिन्डियों  से भी ज्यादा मुरझाया हुआ था |घबरा कर हमने पूंछा क्या हुआ ,बीमार हो क्या ? ये क्या हाल बना रखा है ,कुछ लेती क्यों नहीं? हमारे इतने सारे प्रश्नो के उत्तर में बुरा सा  मुँह बना कर बोली “क्या बताएं मेरे तो ५००० रुपये पर पानी फिर गया | ५००० रुपये  सुन कर हमारा तो कलेजा मुँह को आगया |कितना कुछ आ सकता है ५००० रुपये में ४ किलो चावल ,३ किलो अरहर दाल ,आशीर्वाद का आटा ,जो गेंहू की एक -एक बाली चुन -चुन कर पीसा जाता हैं …. पंसारी का बिल …. हां ! सच में बात तो दुखी होने कि ही है |फिर भी हिम्मत करके हमने पूँछ ही लिया “कैसे हुआ ये गजब “ मिसेज चावला आँखों में आंसू भर कर बोली “अरे वो ५००० की साड़ी पहन कर जो फोटो एफ बी पर डाला था उस पर केवल ७०० लाइक और ५० कमेंट आये इससे  पहले  जो ५७५ रुपये कि साड़ी पहन कर फोटो डाली थी उस पर तो पुरे २००० लाइक आये थे और कमेंट तो पूछो मत | मैं हतप्रभ थी |सुना तो मैंने भी था की अब वो जमाने लद  गए  जब औरतें नयी साडी पहन कर अपने पति को दिखाते हुए पूछती  थी “सुनो जी कैसी लग रही हूँ “|अब शाम तक पति का इंतज़ार कौन करे |फोटो खीचा डाला …. राय हाज़िर | इंस्टेंट राय का जमाना है | कहते हैं परिवर्तन समाज का नियम है “ओनली चेंज इस अनचेंजेबल |                  उस दिन तो बड़ा दुःख लगा कि बेचारी …………. पर मिसेज चावला जरा कम समझदार थी ये पता हमे उस दिन चला जब अपनी सहेली मीता   से मिले| मीता चहक कर बोली अरे मैं तो इतने पैसे वेस्ट करती ही नहीं….. सीधे दुकानदार से कह देती हूँ  एक घंटे के लिए साड़ी ले जा रही हूँ एफ बी पर फोटो डाल कर लोगों का रिस्पोंन्स देखूंगी |अगर ज्यादा लाइक ,कमेंट मिले तो ठीक वर्ना साडी वापस |अब तुम ही बताओ ५००० फ्रेंड्स और १०,००० फोल्लोवर्स इतनी सटीक राय और कहाँ मिलेगी | और तो और कई  बार दुकानदार डिस्काउंट भी दे देता है आखिर कार लोकल सहेलियां पूछेंगी “कहाँ से ली,तो उसकी दूकान का मुफ्त में प्रचार होगा | मैं बड़े श्रधा भाव से  मीता कि बातें सुन रही थी ,कितनी ज्ञानी हो गयी है ये |                                   मेरी एक और सखी मधु  हर समय किसी रीता के बारे में बताती रहती है ….. रीता का ये ,रीता का वो ,एक दिन हमने पूछ ही लिया कि आखिरकार ये रीता है कौन ?प्रश्न सुन कर कंधे उचकाते हुए बोली  रीता मेरी परिचित नहीं है पर मैं उन्हें अच्छे से जानती हूँ क्या है कि वो रोज  अपनी ४-६ फोटो तो डालती ही हैं। ये खाना बनाते हुए ,ये पानी भरते हुए ,ये सोफे का कवर बदलते हुए….. और कभी कभी तो यह पहला कौर खाते हुए ,ये दूसरा कौर खाते हुए ,ये तीसरा ….. |रीता के घर में क्या –क्या है सबको  पता है | वो क्या खाती है सबको पता है,उसके घर का कुत्ता क्या खाता है सबको पता है ,उसके वार्ड रोप में कितनी साडियाँ  हैं सबको पता है |लोग सुबह ४ बजे से रात के पौने चार बजे तक रीता के घर में दिलचस्पी लेते हैं |रीता को जरा भी फुर्सत नहीं हैं अपने बच्चों से बात करने की ,पति का हाल –चाल पूछने ने की |और मुहल्ले वाले…..उनसे तो रीता कभी सीधे मुँह बात ही नहीं करती ………….. पेज-३ कि सेलीब्रेटी जो हो गयी है|                        पर आप ये मत समझिएगा की इस मामले में औरतों कि मोनो पोली है |मिस्टर जुनेजा ने कल बताया  कि अक्सर वो भीड़ भरे स्थानों पर जाने से घबराते हैं |क्यों भला ,कहीं दिल का रोग तो नहीं हो गया अब ६५ कि उम्र में धमनियों में कोलेस्ट्रोल तो जम ही जाता है |छूटते ही बोले “अरे नहीं ,वो फेस बुक पर जवानी कि तस्वीर जो डाल रखी है |क्यों भला ?न चाहते हुए भी हम पूछ ही बैठे। अब इस उम्र की तस्वीर पर कोई लाइक -कमेंट तो देगा नहीं ,बड़ा ईगो हर्ट होता है हम दिन भर सब पर लाइक कमेंट करते रहे और हमारी फोटो पर ……ऐसा लगता है किसी भिखारी के कटोरे में रेजगारी पड़ी हो। आखिरकार फेसबुक पर लाइक कमेंट स्टेटस सिंबल जो होता है। हमने बमुश्किल अपनी हंसी रोकते हुए कहा “तो फिर डर कैसा ? डर तो सारी  मेहनत  पर पानी फिरने का ही है। अब लड़कियों का सिक्स्थ सेन्स तो मजबूत होता ही है कहीं उनकी पुलिसिया निगाहें सारा भेद न जान ले |फिर तो …………               उस दिन बातों -बातों में हमारी सखी रेहाना  ने बड़ी  ज्ञान कि बात बतायी अगर पति –पत्नी दोनों फेस बुक पर हैं तो एक –दूसरे कि तस्वीर को कभी लाइक नहीं करते |उस पर तुर्रा यह कि घर पर तो लाइक करते ही हैं और दो बार लाइक करने से अनलाइक हो जाता है                अभी कल ही की तो बात है सड़क पर दो बच्चे झगड़ रहे थे। एक ने दूसरे का कॉलर पकड़ कर कहा “अरे ! १० लाइक  पाने वाले तेरी हिम्मत कैसे हुई ५० लाइक पाने वाले के सामने अपना मुंह खोलने की।  इतना सुनने के बाद हमारी तो बोलती ही बंद हो गयी अब तो … Read more

आपकी अपनी माँ …… देवी माँ का ही प्रतिबिम्ब है

                                                नवरात्र के दिन चल रहे हैं |ये नौ दिन देवी दुर्गा को समर्पित होते हैं। इन दिनों देवी दुर्गा के नौ रूपोंकी अराधना कि जाती है। घर ,मंदिर सब स्वक्ष रखे जाते हैं। धूप दीप ,मंत्रोच्चार ,पुष्प व् घंटा ध्वनियों से सारा वातावरण पवित्र हो उठता है। आरती और मंगल गान ,देवी गीत हर जगह मधुर स्वरलहरियां उत्पन्न करते हैं। और क्यों न हो यह शक्ति कि उपासना का पर्व है।  शक्ति जो जीवन का आधार है,शक्ति जो जैविक ही नहीं वरन आध्यात्मिक विकास का आधार है.… मानव जीवन अनेकों आध्यात्मिक तलों से होता हुआ   अंततः अपनी सतत खोज मोक्ष को प्राप्त होता है।  इसलिए यह नौ दिन मनोकामना पूर्ति की दृष्टि से ,शारीरिक शुद्धि की दृष्टि से व् आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। आपकी अपनी माँ …… देवी माँ  का ही प्रतिबिंब हैं  इन दिनों  जन समुदाय  अपनी अलग -अलग मनोकामना की पूर्ति के लिए देवी माँ की आराधना में लगा रहता है  । पूजा -पाठ , मंत्रोच्चार ,व् जगह -जगह भंडारों का आयोजन होता है।  इन दिनों कन्या पूजन का भी विधान है।  पर इन सब विधानों के बीच हम अक्सर उस माँ को भूल जाते हैं जो हमारे घर में साक्षात देवी माँ का प्रतिबिम्ब है। ………… हमारी अपनी माँ जिसने हमें जन्म दिया , अपने दूध और  रक्त से पालन पोषण किया,जिंदगी की डगर पर चलना सिखाया। जिसने जीवन की हर धूप  में अपने आँचल की छाँव दी। हमारे जन्म के पहले से लेकर माँ हमारे हर सुख दुःख में हमारे साथ खड़ी होती है। किसी ने खूब कहा है.……… गुजरना भीड़ से हो या  सड़क भी पार करनी हो  अभी भी आदतन माँ  हाथ मेरा थाम लेती है                   कभी आपने सोचा है की आप देवी माँ की इतनी आराधना करते हैं ,इतने नेम -नियमों का पालन करते हैं।  पूजा -पाठ ,आदि में इतने रूपये खर्च करते हैं फिर भी आप देवी माँ को प्रसन्न नहीं कर पाते। और आप को उनका पूरा आशीर्वाद प्राप्त नहीं हो पाता। कारण स्पष्ट है आपकी अपनी माँ देवी माँ का ही प्रतिबिम्ब हैं अगर वो उपेक्षित हैं तो देवी माँ कैसे प्रसन्न हो सकती हैं।  कहते हैं बच्चा कभी भी माँ के ऋण से उऋण नहीं हो सकता।  यह भी सच है कि दुनियाँ भर कि दौलत से भी ममता का एक क्षण भी नहीं खरीदा जा सकता।कहीं ऐसा न हो कि अपनी माँ के प्रति प्रेम ,सेवा और श्रद्धा व्यक्त करने में देर हो जाए और आपके पास केवल पछतावा रहे जैसा कि किसी ने कहा है …………                     कमाकर इतने सिक्के भी तो  माँ को दे नहीं पाया  कि जितने सिक्कों से माँ ने  मेरी नजरें उतारी हैं                   बेहतर यही होगा कि नव्ररात्रों में हम देवी मैया कि पूजा के साथ -साथ अपनी माँ के प्रति भी आदर ,प्रेम व् स्नेह प्रकट करे।  बुजुर्ग माँ की बस इतनी इच्छा  होती है कि  थोडा समय उनके साथ गुज़ारे।  उनके स्वास्थ्य  कि देखभाल करे। कभी उनके मन का कुछ ला कर दे।  यहाँ वस्तु  कि कीमत नहीं होती जज्बात कि कीमत होती है देखिएगा स्नेह से चार आँखे छलक ही पड़ेंगी। और सबसे ख़ास बात हमारी उम्र कितनी भी हो गयी हो माँ ,माँ ही होती हैं।  एक बार  माँ के चरणों में बालक बन कर लोट जाइए जन्नत कि सारी खुशियाँ आपको फीकी लगेंगी। माँ प्रसन्न होगी तो देवी माँ भी प्रसन्न होगीं।  अपने घर में देवी माँ का प्रतिबिम्ब अपनी माँ का निरादर करने वालों पर देवी माँ कैसे प्रसन्न होगी । माँ कि दुआओं में बहुत असर होता है।  तो  देर कैसी …………                                                                आपके घर में देवी माँ का प्रतिबिम्ब साक्षात आपकी माँ के रूप में आप कि प्रतीक्षा कर रहा।  जाइए अपनी श्रधा ,स्नेह व् आदर प्रकट कर  परम शक्ति देवी माँ को प्रसन्न करिये   atoot bandhan हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे यह भी पढ़ें ………..  सेंध गुडिया माटी और देवी         यूँ चुकाएं मात्री ऋण दोगलापन

मायके आई हुई बेटियाँ

मायके आई हुई बेटियाँ , फिर से अपने बचपन में लौट आती है , और जाते समय आँचल के छोर में चार दाने चावल के साथ बाँध कर ले जाती है थोडा सा स्नेह जो सुसराल में उन्हें साल भर तरल बनाये रखने के लिए जरूरी होता है |  कविता -मायके आई हुई बेटियाँ  (१ ) बेटी की विदाई के बाद  अक्सर खखोरती है माँ  बेटी के पुराने खिलौनो के डिब्बे  उलट – पलट कर देखती है  लिखी -पड़ी  गयी  डायरियों के हिस्से  बिखेरकर फिर  तहाती है पुराने दुपट्टे  तभी तीर सी  गड जाती हैं  कलेजे में   वो  गांठे  जो बेटियों के दुप्पटे पर   माँ ही लगाती आई हैं  सदियों  से  यह कहते हुए  “बेटियाँ तो सदा पराई होती हैं ”   (२ ) बेटी के मायके आने की  खबर से  पुनः खिल उठती है   बूढी बीमार माँ  झुर्री भरे हाथों से  पीसती है दाल  मिगौड़ी -मिथौरी  बुकनू ,पापड ,आचार  के सजने लगते हैं मर्तबान  छिपा कर दुखों की सलवटे  बदल देती हैं  पलंग की चादर  कुछ जोड़ -तोड़ से  खाली कर देतीं है  एक कोना अलमारी का  गुलदान में सज जाते है  कुछ चटख रंगों के फूल  भर जाती है रसोई  बेटी की पसंद के  व्यंजनों की खशबू से  और हो जाता है  सब कुछ पहले जैसा  हुलस कर मिलती चार आँखों में  छिप जाता है  एक झूठ  (३ ) मायके आई हुई बेटियाँ  नहीं माँगती हैं  संपत्ति में अपना हिस्सा  न उस दूध -भात  का हिसाब  जो चुपके से  अपनी थाली से निकालकर  रख दियाथा भाई की थाली में  न दिखाती हैं लेख -जोखा  भाई के नाम किये गए व्रतों का  न करनी होती है वसूली  मायके की उन चिंताओं की  जिसमें काटी होती हैं  कई रातें  अपलक  आसमान निहारते हुए  मायके आई हुई बेटियाँ  बस इतना ही  सुनना चाहती है  भाई के मुँह से   जब मन आये चली आना  ये घर   तुम्हारा अपना ही है  (४ ) अकसर बेटियों के  आँचल के छोर पर  बंधी रहती है एक गाँठ  जिसमें मायके से विदा करते समय माँ ने बाँध दिए थे  दो चावल के दाने    पिता का प्यार  और भाई का लाड  धोते  पटकते निकल जाते है ,चावल के दाने  परगोत्री घोषित करते हुए   पर बंधी रह जाती है  गाँठ  मन के बंधन की तरह  ये गाँठ  कभी नहीं खुलती  ये गाँठ  कभी नहीं खुलेगी  (५ ) जब भी जाती हूँ  मायके  न जाने कितने सपने भरे आँखों में  हुलस कर दिखाती हूँ  बेटी का हाथ पकड़  ये देखो  वो आम का पेड़  जिस पर चढ़कर  तोड़ते थे कच्ची अमियाँ  खाते थे डाँट  पड़ोस वाले चाचा की  ये देखो  बरगद का पेड़  जिसकी जटाओं  पर बांधा था झूला  झूलते थे  भर कर लम्बी -लम्बी पींगें  वो देखो खूँटी पर टँगी  बाबूजी की बेंत  जिसे अल -सुबह हाथो में पकड़  जाते थे सैर पर  आँखें फाड़ -फाड़ कर देखती है बिटियाँ  यहाँ -वहाँ ,इधर -उधर  फिर झटक कर मेरा  हाथ  झकझोरती है जोर से  कहाँ माँ कहाँ  कहाँ है आम का पेड़ और ठंडी छाँव  वहां खड़ी है ऊँची हवेली  जो तपती  है धूप  में  कहाँ है बरगद का पेड़  वहां तो है  ठंडी बीयर की दुकान  जहाँ झूलते नहीं झूमते हैं  और नाना जी की बेंत  भी तो नहीं वहां टंगी है एक तस्वीर  पहाड़ों की  झट से गिरती हूँ मैं पहाड़ से  चीखती हूँ बेतहाशा  नहीं है ,नहीं है  पर मुझे तो दिखाई दे रही है साफ़ -साफ़  शायद नहीं हैं  पर है …. मेरी स्मृतियों में  इस होने और नहीं होने की कसक  तोड़ देती है मुझे  टूट कर बिखर जाता है सब  फिर समेटती हूँ  तिनका -तिनका  सजा देती हूँ जस का तस  झूठ ही सही  पर !हाँ  … अब यह है  क्योंकि इसका होना  बहुत जरूरी है  मेरे होने के लिए  वंदना बाजपेयी   atoot bandhan…… हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे  कैंसर कच्ची नींद का ख्वाब ये इंतज़ार के लम्हे सतरंगिनी आपको “ मायके आई हुई बेटियाँ  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- maaykaa, Poetry, Poem, Hindi Poem, Emotional Hindi Poem, girl, 

तुम धरती हो…तुम्हे सहना होगा

तुम धरती हो…तुम्हे सहना  होगा वह खटती रही प्रताड़ित होती रही लुटती रही बार बार….लगातार उससे कहा गया तुम धरती हो…तुम्हे सह्ना होगा उससे कहा गया तुम ममता हो…तुम्हे पलना होगा उससे कहा गया तुम कोख हो….तुम्हे इसी से जन्मना …..तो कभी इसी मे मरना होगा           औरत का जन्म किसी तपस्या से कम नहीं है। उसे हर परिस्थिति मे खुद को साबित करना होता है। खटती रह्ती है पूरे दिन, बिना अवकाश। उसकी पूरी ज़िंदगी तीन भागो मे बंटी रहती है। पहला हिस्सा पिता के घर, दूसरा पति के घर तो तीसरा पुत्र के घर बीतता है। एक जीवन में तीन घर संवारने वाली का अपना घर कौन सा है? पिता के घर सुनती रही- ‘तुम्हे पराए घर जाना है।‘ पति के यहाँ कहा गया- ‘पराए घर से आई है न, हमारे घर के तौर-तरीके सीखने में थोडा टाइम लगेगा।‘ बेटे के घर- ‘कुछ सालो की मेहमान, न जाने कब अंतिम बुलावा आ जाए।‘ प्रश्न वही कि उसका अपना घर कौन-सा है? उसका पूरा जीवन किसी चुनौती से कम नहीं है। उसके लिए दुनिया मे आना ही अपने आप मे एक संघर्ष है, एक ऐसा संघर्ष जो माँ की कोख से ही प्रारम्भ हो जाता है। वहाँ भी ख़तरा मंडराता रहता है,यदि वह कन्या-भ्रूण का रूप ले लेती है तो…..न जाने कब कोई तेज़ रौशनी कौंधेगी, कुछ तीखे और धारदार औज़ार उसे ज़ख्म देंगे और वह खून में तब्दील कर दी जाएगी।  जन्म मिलते ही प्रताड़ित प्रारम्भ, संघर्ष प्रारम्भ। उसका लडकी होना बचपन पर भारी पडा । सयानी होने पर एक जिस्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा गई। कभी जिस्म पर चोट मिली , तो कभी आत्मा पर । कभी सम्मान लूटा गया, तो कभी सपने। कभी आकांक्षाएँ छलनी हुई तो कभी आत्मसम्मान । वह पीटी गई, घर से निकाली गई , किंतु फिर भी वह लौट आई । उसके शहर में रेलवे ट्रैक भी रहा होगा , नदी भी रही होगी , मगर फिर भी वह लौट-लौट कर आती रही । वह हर बार मार खाकर भागती है, मगर फिर भी लौट आती है और लौटने पर भी मार ही खाती है ।                       (चित्र गूगल से साभार )        हमारी संस्कृति में स्त्री को पूजनीय कहा तो गया है लेकिन जब कभी भी औरत की मान-मर्यादा और सम्मान की रक्षा की बात आती है तो सभी बिदक जाते हैं । इस दोहरेपन का श्रेय बहुत हद तक मनुस्मृति और आज इसी तरह के शास्त्रो को जाता है, जिसमे नारी को घर की सजावट की वस्तु या दैहिक सुख के लिए खिलौन-मात्र माना जाता है । अगर ऐसा न होता तो द्रौपदी पतियो द्वारा ही दांव पर ही न लगाई जाती । सत्यवादी हरिशचंद अपनी दक्षिणा को चुकाने हेतु अपनी ही स्त्री को किसी वस्तु के समान बेचते नहीं । राम द्वारा सीता की अग्नि परीक्षा न ली जाती । ये सभी घटनाये हमारे समाज की सच्चाई को उजागर करती हैं । आज हम हर क्षेत्र में विकास का दावा करते हैं । हमारी दिनचर्या और प्रत्येक गतिविधि में आधुनिकता देखने को मिलती है । लेकिन फिर भी आज की स्त्रिया पुरुषों का उत्पीडन झेलती हैं । घर नाम की ऊंची-ऊंची और सख्त दीवारो के भीतर उनका कोमल तन और मन प्रताडना सहता है । वह अपने बच्चो को जीना सिखाते-सिखाते खुद हंसना भी भूल जाती है । अपने पति को खुश रखने के लिये उसके आगे झूठी मुस्कान का लिहाफ ओढे , नज़रे नीचे किए खडी रहती है जबकी हमारा समाज उसे पूजनीय मानता है । उसे देवी का स्वरूप कहता है , ‘यत्र नार्येस्तु पूज्यते रमंते तत्र देवता‘ यह सूक्ति गहरे अर्थ रखती है । इसे समझ कर हम सम्पूर्ण मानवता को समझ सकते हैं । जिस घर-परिवार में नारी को सम्मान दिया जाता है वहा देवता भी निवास करते है । यदि हर परिवार में नारी को सम्मान करने वाले सदस्य हो तो वे पुरुष स्वय ही देवतुल्य हो जाएंगे । ऐसे सुखद परिवारो से मिलकर एक सुखद समाज का निर्माण होगा और अंततः समूचा विश्व ही सुखद हो उठेगा । यदि कोई मनुष्य अपने घर की स्त्रियो का सम्मान नहीं कर सकता तो वह बाहर की स्त्रियो का तो कतई सम्मान नहीं  कर पाएगा । नारी और समाज का घनिष्ठ सम्बंध है क्योंकि नारी के बगैर समाज और परिवार की कल्पना भी नहीं की जा सकती । सृष्टि के रचयिता ने सृष्टि-सृजन में स्त्री और पुरुष दोनो की महत्वपूर्ण सहभागिता रखी है । एक के बिना दूसरा अधूरा है । फिर क्या कारण है कि पुरुष स्त्री को कमज़ोर समझ कर उसका शोषण करने से पीछे नहीं हटता । आज हर क्षेत्र में स्त्रियो के प्रति अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं । यह   बात सच  है कि स्त्रियां नित नया इतिहास रच रही  हैं , हर क्षेत्र  में अपना सिक्का जमा चुकी हैं लेकिन यह भी सत्य है कि उसी अनुपात  में उनके प्रति  होने वाले अपराधो की संख्या और विविधता में भी वृद्धि हुई है । उसे दिन-प्रतिदिन अपराध और अत्याचार द्वारा दबाया जा रहा है । स्त्री वर्ग इस अपराधिक चुनौती का सामना करने में असमर्थ नज़र आ रहा है । वह भी उड्ना चाहती है….स्वप्न देखना चाह्ती है…उन्हे पूरा करना चाह्ती है लेकिन वक्त के क्रूर हाथो में अपनी सभी आकाँक्षाओं का गला घोंट देती है । उसकी आंखो में पलने वाले सपने….उसके परवाज़….सब अपने बच्चो की आंखो से देखने लगती है। वह जिस खूंटे से बंधी है उसे उखाड़ देना चाह्ती है। वह उखाड़ नहीं पाती फिर भी संघर्ष करती है…उसकी गर्दन ऐंठ जाती है । इस संघर्ष में वह खूंटे को न भी उखाड़ पाए मगर वह टूटेगा ज़रूर। बार-बार हर रात एक ही ख्वाब बुनती है मुक्ति का…वज़ूद का। मुक्ति ना भी मिले, वज़ूद न भी बने… तब भी बना रहे साथ मुक्ति का, वज़ूद का। जीवन न भी बचे, बचा रहे यत्न बदलने का।  चलो ….उठो ….शुरूआत करो कहीं से भी क्यूँ न अभी …यहीं से माना बहुत गीले हैं पंख मगर एक बार तबियत से फड़फड़ाके तो देखो अपनी हथेलियों की मुठ्ठी बना भींच लो जोर से सारे गम मूंद लो पलकें कि अब इनमें कोई आँसू न पले बहुत अनमोल है तुम्हारे सपने यहाँ अब इन्हें पलना होगा        रश्मि  शिक्षा – पी-एच. डी. (कबीर काव्य का भाषा शास्त्रीय अध्ययन) संप्रति – लेखन व अध्यापन  विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ, कहानियाँ, पुस्तक-समीक्षाएं प्रकाशित  नवभारत टाइम्स और आज समाज … Read more

*मोह* ( साहित्यिक उदाहरणो सहित गहन मीमांसा )

कृष्ण

वंदना बाजपेयी  कोई इल्तजा कोई बंदगी न क़ज़ा से हाथ छुड़ा सकी किये आदमी ने कई जतन  मगर उसके काम न आ सकी न कोई दवा न कोई दुआ ………………                                                        यू  कहने को तो यह गीत की पंक्तियाँ  हैं पर इसके पीछे गहरा दर्शन है ………………मृत्यु  अवश्यम्भावी है ……………हम रोज देखते हैं पर समझते नहीं या समझना नहीं चाहते है ………….. मृत्यु  हर चीज की है|बड़े -बड़े  पर्वत समय के साथ   रेत  में बदल जाते है .|नदियाँ विलुप्त हो जाती हैं ,द्वीप गायब हो जाते हैं |सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं|किसी का आना किसी का जाना जीवन का क्रम है .परंतू मन किसी के जाने को सहन नहीं कर पता है .जाने वाला विरक्त भाव से चला जाता है ,कहीं और जैसे कुछ हुआ ही न हो बस समय का एक टुकड़ा था जो साथ -साथ जिया था |परंतू जो बच  जाता है उसकी पीड़ा असहनीय होती है ,ह्रदय चीत्कारता है ,स्मृतियाँ जीने नहीं देती ……..यह मोह है जो मन के दर्पण को धुंधला कर देता है |जो अप्राप्य को प्राप्त करने की आकांक्षा करने लगता है | मोह ( साहित्यिक उदाहरणो  सहित गहन मीमांसा ) ………….. दुर्गा शप्तशती में राजा  सुरथ जो  अपने अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा जंगल में भेजे जाने पर भी निरंतर अपने राज्य के बारे में चिंतन करते रहते हैं वो  विप्रवर मेधा के आश्रम में वैश्य को भी अपने सामान पीड़ा भोगते हुए पाते हैं जो पत्नी व् पुत्र के ठुकराए जाने पर भी निरंतर उन्हीं की चिंता करता है .वैश्य कहता है “हे महामते ,अपने बंधुओं के प्रति जो इस प्रकार मेरा चित्त प्रेम मगन  हो रहा है .इस बात को मैं जान कर भी नहीं जान पाता ,मैं उनके लिए लम्बी साँसे ले रहा हूँ जिनके मन में प्रेम का सर्वथा आभाव है .|. मेरा मन उनके प्रति निष्रठुर  क्यों नहीं हो पता? ऋषि समझाते हैं “मनुष्य ही नहीं पशु -पक्षी भी मोह से ग्रस्त हैं ….. जो स्वयं भूखे होने पर भी अपने शिशुओ की चोंच में दाना डालते हैं(दुर्गा शप्तशती -प्रथम अध्याय -श्लोक -५०) यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिम्रिगाद्य : ज्ञानं  च तन्मनुश्यांणा यत्तेषा मृगपक्षीणाम .मोहग्रस्त शूरवीर निद्राजित अर्जुन के हाथ से धनुष छूटने लगता है वो कहते हैं “इस युद्ध  की इच्छा  वाले स्वजन समुदाय को देख कर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है मेरे हाथ से धनुष गिरता है ,त्वचा जल रही है मेरा मन भ्रमित है मैं खड़ा रहने की अवस्था  में नहीं हूँ (गीता अध्याय -१ श्लोक ३० ) स्वयं प्रभु राम जो माता सीता से बहुत प्रेम करते हैं कि उनके अपहरण होने पर होश खो बैठते हैं ……दुःख में पशु -पक्षियों ,लता पत्रों से भी सीता का पता पूछते हैं (अरण्य कांड (२९ -४ ) “हे खग -मृग हरी मधुकर श्रेणी ,तुम देखि  सीता मृगनयनी खंजन सुक कपोत मृग मीना ,मधुप निकर कोकिला प्रवीणा वही स्वयं   बाली के वध पर उसकी पत्नी तारा को ईश्वर द्वारा निर्मित  माया का ज्ञान देते हैं …………….(किष्किन्धा कांड -चौपायी ११ -२ ) “तारा विकल देख रघुराया ,दीन्ह ज्ञान हर लीन्ही माया चिति जल पावक गगन समीरा ,पञ्च रचित अति अधम शरीरा प्रगट सो तन तव आगे सोवा ,जीव नित्य को लगी तुम रोवा उपजा ज्ञान चरण तब लागी ,लीन्हेसी परम भागती वर मांगी                                      उपनिषदों में में आत्मा के नित्य स्वरुप की व्यख्या करते हुए मोह को बार -बार जन्म लेने का कारण बताया है। यह मोह ही है जो समस्त पीड़ा का केंद्र बिंदु है ,जिसके चारों ओर प्राणी नाचता है। ………. “साधकको शरीर और मोह की  की अनित्यता और अपनी आत्मा की नित्यता पर विचार करके इन अनित्य भोगो से सुख की आशा त्याग करके सदा अपने साथ रहने वाले नित्य सुखस्वरूप परमब्रह्म पुरुषोतम को प्राप्त करने का अभिलाषी बनना चाहिए (कठोपनिषद -अध्याय १ वल्ली दो श्लोक -१९ )                                     परन्तु फिर भी ये प्राणी के बस में नहीं है,कि वो मोह को अपने वष में कर ले।                                                          मोह एक ऐसा पर्दा है जो  ज्ञान ,विवेक पर आच्छादित हो जाता है जब देवता व् अवतारी ईश्वर भी इससे  नहीं बचे तो साधारण मनुष्य की क्या बिसात है | दरसल जब मनुष्य समाज में रहता है तो एक -दूसरे के प्रति शुभेक्षा या सद्भाव  और प्रेम होना होना स्वाभाविक है .|परन्तु मोह और प्रेम में अंतर है ……… मोह वहीँ उत्पन्न होता है  जहाँ प्रेम की पराकाष्ठा  हो जाये …………दशरथ का पुत्र प्रेम कब पुत्र मोह में परिवर्तित हो गया स्वयं दशरथ भी नहीं जान पाए ….और पुत्र के वियोग में तड़पते -तड़पते उन्होंने प्राण त्याग दिए ……………….. जहाँ प्रेम स्वाभाविक है वहीँ मोह घातक .|समझना ये है कि प्रेम आनन्द देता है मोह पल -पल पीड़ा को बढ़ाता  है ,जहाँ प्रतीक्षा है वहीँ तड़प है .|अगर हम हिंदी काव्य साहिय में बात करे तो  हरिवंश राय  बच्चन मोह वश  कहते हैं …………………. तिमिर समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी  न कट सकी न घट सकी विरह घिरी विभावरी कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की …………. इसीलिए खड़ा रहा की तुम मुझे दुलार लो इसीलिए खड़ा रहा की तुम मुझे पुकार लो …………                             वही जब माया  का पर्दा हटता है तो वो खुद ही गा उठते है,जीवन -म्रत्यु ,प्रेम और मोह के अंतर को समझते हैं  …………..तो कह उठते हैं …………….. अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई                                 अपनी … Read more

ॐ क्या परमात्मा निराकार निर्गुण हैं या साकार सगुण–

ॐ क्या परमात्मा निराकार निर्गुण हैं या साकार सगुण————– परमात्मा सिर्फ यदि ज्योति स्वरूप ही रहते,निर्गुण,निराकार ही होते ,तो इतने सृष्टि में जो रूप दृष्टिगोचर हो रहें हैं वे ना होते,हम सब रूप भी ना होते।क्योंकि हम सब भी तो परमात्मा के अंश ही तो हैं ।ऐसी कल्पना भी व्यर्थ की है।वो ज्योति को धारण करने के लिये कोई ना कोई आवरण,आकार तो बहुत जरूरी ही है।इसीलिये अपनी शक्ति अपने ऐश्वर्य के साथ परमात्मा सगुण रूप भी हैं और निर्गुण रूप भी हैं। ऐसे समझिये जब आपके अन्दर कोई विचार चल रहा है तो वह निराकार है,अप्रत्यक्ष है,और जब आप उस विचार के अनुसार कार्य करेंगें,तो कोई आकार,कोई आवरण ,कोई सहारा तो चाहियेगा ही।फिर उसका आकार के अनुसार नाम भी।तो ये ही रूप तो सगुण-साकार रूप हैं,जो समय-समय पर अपनी विविध-विविध शक्तियों के साथ आते रहें हैं धरा-धाम पर परमात्मा।                                            चित्र गूगल से साभार  पाॅवरहाउस की बिजली अथवा ऊर्जा का उपयोग तभी सम्भव होता है,जब तारों के द्वारा जगह-जगह आकार बनाकर खम्भों में डाली जाती है और फिर जगह-जगह वितरित की जाती है,।तरह-तरह के उपकरण बनाकर फिर संचारित की जाती है और घर-घर में भिन्न-भिन्न तरह के उपकरण जैसे—पंखा ,वल्व,फ्रिज,हीटर आदि अनेकों प्रकार के बिजली के यन्त्र हम सब प्रयोग में लाते हैं दिन-प्रतिदिन।अतः दोनो ही रूपों को मानना है और दोंनो ही रूप एक-दूसरे के पूरक हैं।पर जो प्रत्यक्ष में है,हम जिसको देख रहें हैं उससे तरह-तरह से व्यवहार भी कर सकते हैं,और उपयोग भी।इसलिये हमें तो सगुण रूप ही अति प्यारा हैं। सुमित्रा गुप्ता atoot bandhan हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे 

सफलता के मार्ग पर आलोचना,निंदा अपरिहार्य है

सफलता के मार्ग पर आलोचना,निंदा अपरिहार्य है सफलता के मार्ग पर आलोचना अपरिहार्य है। दुनिया में ऐसा कौन है,जिसकी आलोचना या निंदा नहीं हुई.इन्सान तो इन्सान,लोग तो भगवान् तक की आलोचना से नहीं आते.आलोचना और निंदा एक तरह से सफलता का मापदंड भी है.आलोचना और निंदा सफल लोगो की ही होती है.आखिर 30 साल पहले कौन नरेन्द्र मोदी की आलोचना या निंदा करता था. आलोचना सदैव दूसरे व्यक्ति की राय होती है। विफलता सहानुभूति लाती है,लेकिन सफलता आलोचकों और निंदको की भीड़ भी अपने साथ लाती है.यदि आप उनकी धारणासे सहमत हैं, तो उनकी आलोचना आपको स्वयं में सुधार लाने के लिए प्रेरित कर सकती है। परंतु यदि आप सहमत नहीं हैं, तो संभवतः आप नकारात्मकता को अंगीकार कर रहे हैं। नकारात्मक भावनाएं आप को दुर्बल बनाती हैं । कभी कभी आलोचना का सामना करना कठिन हो सकता है, विशेषकर जब आलोचना अपने प्रिय लोगों से आती है। जब दूसरे आप पर अपनी नकारात्मकता और राय थोपते हैं, उस क्षण ये निर्णय आप पर है कि आप उस आलोचना को अस्वीकार करते हैं, त्याग देते हैं या जाने देते हैं। यदि आप ऐसा करें तो आप शांतिपूर्ण रहेंगे और आपके ह्रदय को अधिक ठेस भी नहीं पहुंचेगी।सदैव दूसरों में दोष ढूंढते रहना मानवीय स्वभाव का एक बड़ा अवगुण है। दूसरों में दोष निकालना और खुद को श्रेष्ठ बताना कुछ लोगों का स्वभाव होता है। इस तरह के लोग हमें कहीं भी आसानी से मिल जाएंगे। प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग दृष्टिकोण एवं स्वभाव होता है। दूसरों के विषय में कोई अपनी कुछ भी धारणा बना सकता है।                                           (चित्र गूगल से )  हर मनुष्य का अपनी जीभ पर अधिकार है और निंदा करने से किसी को रोकना संभव नहीं है।लोग अलग-अलग कारणों से निंदा रस का पान करते हैं। कुछ सिर्फ अपना समय काटने के लिए किसी की निंदा में लगे रहते हैं तो कुछ खुद को किसी से बेहतर साबित करने के लिए निंदा को अपना नित्य का नियम बना लेते हैं। निंदकों कोसंतुष्ट करना संभव नहीं है। जिनका स्वभाव है निंदा करना, वे किसी भी परिस्थिति में निंदा प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर सकते हैं। इसलिए समझदार इंसान वही है जो उथले लोगों द्वारा की गई विपरीत टिप्पणियों की उपेक्षा कर अपने काम में तल्लीन रहता है। किस-किस के मुंह पर अंकुश लगाया जाए, कितनों का समाधान किया जाए!प्रतिवाद में व्यर्थ समय गंवाने से बेहतर है अपने मनोबल को और भी अधिक बढ़ाकर जीवन में प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते रहें। ऐसा करने से एक दिन आपकी स्थिति काफी मजबूत हो जाएगी और आपके निंदकों को सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।जो सूर्य की तरह प्रखर है, उस पर निंदा के कितने ही काले बादल छा जाएं किन्तु उसकी प्रखरता, तेजस्विता और ऊष्णता में कमी नहीं आ सकती। ओमकार मणि त्रिपाठी  atoot bandhan हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे 

आदतें बदलें,जिन्दगी बदल जाएगी

आदतें बदलें,जिन्दगी बदल जाएगी आदतें चाहे अच्छी हों या बुरी, हमारी जिंदगी में इनका असर बहुत पड़ता है। कुछ आदतें ऎसी भी होती हैं, जो हमारे अंदर सकारात्मक बदलाव ला सकती हैं। ऎसी आदतों को हमें विकसित करने की जरूरत होती है, क्योंकि यह तो सत्य है कि गंदी आदतें तुरंत पड़ जाती हैं और अच्छी आदतों के लिए हमें मशक्कत करनी पड़ती है। अगर आपको अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है तो अपने अंदर अच्छी आदतें विकसित करनी ही पड़ेंगी. प्राथमिकता सोच लें कई बार आप अपने लक्ष्य को प्राप्त इसलिए भी नहीं कर पाते हैं कि आप अपना यह निर्णय ही नहीं कर पाते कि जिंदगी में आपकी प्राथमिकता क्या है? इसलिए कई बार आप भ्रमित भी हो जाते हैं कि आपको कौन से समय में क्या करना है. प्राथमिकता तय करने के बाद लक्ष्य प्राप्त आसान होगी। चुनौती का सामना करें  यह व्यक्तिगत दृष्ठिकोण है ,अर्थात अपनी सोच तथा कार्यो के लिए स्वयम उत्तरदायी हों,उत्तरदायित्व स्वीकार करें.पहल करें तथा कार्य करने की जिम्मेदारी उठाये. जल्दी उठने की आदत डालें रोजाना देर से उठना यानी जरूरी कार्यो के लिए कम समय। यदि आप रोजाना दस मिनट जल्दी उठते हैं तो ये दस मिनट बहुत उपयोगी साबित होते हैं। इनमें आप ऎसी चीजें कर सकते हैं जो देखने में छोटी लगती हैं लेकिन बहुत खुशी और संतोष देती हैं। खुद को समझें  इससे पहले कि लोग आप को समझें,आप खुद को समझें.दूसरो की बात सुनने और समझने का कौशल विकसित करें. आरी की धार तेज करते रहें आप अपने सद्गुणों को निरंतर निखारते रहें.स्व का संरक्षण तथा संवर्धन आपका प्रथम कर्तव्य है.अपनी शारीरिक,मानसिक सामाजिक और भावनात्मक क्षमताओ को निरंतर बढ़ाते रहें. ज़माने को नहीं ,खुद को बदले  लोगो को बदलने में अपना समय और उर्जा बर्बाद न करें.जंहा जरूरत हो ,लोगो को बदलने के बजाय खुद को बदलने की कोशिश करें. दूसरो से नहीं ,खुद से तुलना करें  तुलना करना मानव स्वभाव का अभिन्न अंग है ,लेकिन स्वयं की दूसरो लोगो से कदापि तुलना न करें.खुद की खुद से तुलना करें वचन निभाने की आदत  सफलता के लिए यह बेहद जरूरी है कि लोग आप पर विश्वास करें और आप यह विश्वास तभी अर्जित कर पाएंगे,जब वचन निभाने की आदत डालेंगे,वचन,रिश्ते और विश्वास बनाये रखें. न कहने की और न सुनने की आदत डालें  अगर आप सफलता चाहते हैं,तो असहमति व्यक्त करने की आदत जरूर डाले.जिस बात से असहमत हों,वंहा न कहें और यदि कोई आपको न कहे तो उसे भी धैर्यपूर्वक स्वीकार करे. अच्छी आदतों को डालने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।यदि आप 21 दिन तक कोई अच्छा या बुरा कार्य करते हैं तो वह आपकी आदत बन जाती है. इसलिए आप अगर अंदर सकारात्मक बदलाव चाहते हैं तो एक हफ्ते से लेकर तीन हफ्ते तक अपने लिए एक टार्गेट फिक्स कर दें। हर बार जब आप अपना टार्गेट पूरा कर लें तो आप खुद को इनाम दें। इससे आप खुद को मोटीवेट भी कर पाएंगे।एक बार जब आप एक अच्छी आदत अपने अंदर विकसित कर लेते हैं तो फिर इसके बाद कोई अन्य आदत विकसित करने का टार्गेट रखें। ओमकार मणि त्रिपाठी atoot bandhan .…..फेस बुक पेज पर भी पधारे 

अब मॉफ भी कर दो

स्वीकारती हूँ  सींच रही थी मैं  अंदर ही अंदर  एक वट वृक्ष  क्रोध का  कि चुभने लगे थे कांटे  रक्तरंजित  थे पाँव   कि हो गया था असंभव चलना  नहीं ! अब और नहीं  अब बस …………. आज से, अभी से   मैं क्षमा करती हूँ उन्हें  जिन्होंने मुझे आहत किया  मैं क्षमा करती हूँ उन्हें  जिन्होंने मेरा पथ रोक लिया  पर उससे पहले मैं  क्षमा करती हूँ  अपने आप को  तमाम अपराध बोधों से  कि ऐसा वैसा किया होता  तो कुछ और होता जीवन  या ………  ये ,वो राह पकड़ी होती  तो कुछ और दिखाता दर्पण  हां ! अब मैं  सहज ,सरल हूँ  उतर गया है टनो बोझ क्रोध का  मिट  गयी हैं कालिख  मन दर्पण की  अब  दिख रहा है भविष्य पथ  उजला सा दूर तक   नए हौसलों के साथ  अब बढ़ाउंगी कदम ……….                                              क्या आपने कभी सोचा है की हँसते -बोलते ,खाते -पीते भी हमें महसूस होता है टनो बोझ अपने सर पर। एक विचित्र सी पीड़ा जूझते  रहते हैं हम… हर वक्त हर जगह। एक अजीब सी बैचैनी। ………… किसी अपने के दुर्व्यवहार की ,या कभी किसी अपने गलत निर्णय की हमें सदा घेरे रहती है। प्रश्न उठता है आखिर क्या है इससे निकलने का उपाय ? ऐ  विधाता ऐ खुदा हमें मॉफ कर,हमें मॉफ कर   हमें क्या पता कहाँ जा रहे क्या है रास्ता हमें मॉफ कर ,हमें मॉफ कर …………                                         आज भी किसी फिल्म का यह गीत मेरा ध्यान बरबस अपनी ओर खीच लेता है। हम हर रोज ईश्वर से हाथ जोड़ कर मॉफी मांगते हैं और उम्मीद करते हैं कि उन्होंने हमें मॉफ कर दिया है। इसके बाद हम हल्का महसूस करते हैं।                                         परन्तु यह बात केवल ईश्वर से हमें क्षमा मिल जाने तक सीमित नहीं है बहुत जरूरी है कि हम अपने को मॉफ करना सीखें। मेरे आपके समाज के और देश के आपसी रिश्तों को तरोताज़ा रखने के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम अतीत की गलतियों को भूल कर ,उन गलतियों को मॉफ कर आगे बढे। अतीत चाहे रिश्तों की कड़वाहट से भरा हो चाहे अपने प्रति नाराज़गी भरी हो। कोई ऐसा कदम जो नहीं उठाया या कोई ऐसा कदम जो उठा लिया उन सब को सोच -सोच कर हम अपना वर्तमान खराब करते रहते हैं। सीखे मॉफ करना :-                            कड़वाहट भूलने के लिए सबसे जरूरी है मॉफ करना। कभी -कभी हम किसी बात को पकडे हुए न सिर्फ रिश्तों का मजा खो देते हैं बल्कि अंदर ही अंदर स्वयं भी किसी आग में जलते रहते हैं।                                                      मेरी एक परिचित हैं उनके यहाँ पिता -पुत्र में झगड़ा हो गया ,गुस्से में बेटा अपनी पत्नी को लेकर घर छोड़ कर चला गया। पिता दिल के मरीज थे ,बर्दाश्त नहीं कर सके उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी मृत्यु हो गयी। एक अकेली मध्यमवर्गीय स्त्री पर अपनी ५ अनब्याही कन्याओं के विवाह की जिम्मेदारी आ गयी। उन्होंने बहुत हिम्मत के साथ एक -एक करके ४ लड़कियों का विवाह किया। उनका बेटा बार -बार मॉफी मांगने आता माँ का दिल पसीजता पर एक पत्नी अपने बेटे को ही अपने पति का हत्यारा समझती रही ,और अपने ही बेटे के प्रति भयंकर कड़वाहट से भरी रही। इस तीस ,इस पीड़ा से वो मुक्त नहीं हो पा रही थी। अंततः उन्होंने अपने बेटे को मॉफ करने का फैसला किया। बेटे ने अपनी बहन की शादी करायी। और अब श्रीमती उपाध्याय (परिवर्तित नाम )अपने बेटे -बहु , पोते -पोतियों के साथ वृद्धावस्था का आनंद उठा रही हैं। पूछने पर कहती हैं “काश मैंने अपने बेटे को पहले ही मॉफ कर दिया होता तो आज इतनी बीमारियों से न घिरी होती।              क्या कहते हैं मनोवैज्ञानिक ;-                               मनोवैज्ञानिक सुधा अग्रवाल कहती हैं कि अगर कोई मनुष्य अपने अंदर क्रोध ,नफरत की भावना ज्यादा लम्बे समय तक पनपने देता है तो उसे तमाम तरह की बीमारियां घेर लेती हैं जैसे हाई ब्लड प्रेशर ,हाइपर टेंशन ,डिप्रेशन आदि। अपने गुस्से पर काबू रखने की कोशिश में व्यक्ति ईष्यालु ,झगडालू और क्रोधी हो जाता है। ऐसी सोच वाला व्यक्ति अपने जीवन में ज्यादा आगे नहीं जा सकता है। मनोवैज्ञानिक डॉ अतुल नागर कहते हैं ,अगर हम हर छोटी -छोटी बात पर लोगों से किनारा करते रहे तो कुछ समय बाद हम अपने में सिमट जायेंगे और हमारे सरे रिश्ते ख़त्म हो जायेंगे। पर्सनाल्टी एवं साइकोलॉजिकल रिव्यू के अनुसार मॉफ करने की आदत हमारे जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाती है रिश्ते बहुत कीमती हैं :-                                                  हम छोटा सा जीवन ले कर आये हैं। हमें अपने रिश्तों की कद्र  करनी चाहिए।  रिश्तों में आपसी प्रेम और ताल-मेल न सिर्फ हमें भावनात्मक मजबूती प्रदान करता है बल्कि हमारे विकास के मार्ग को भी प्रशस्त करता है। मनुष्य एक सामजिक प्राणी हैं और एक सुखद जीवन जीने के लिए उसे रिश्तों की आवश्यकता है। जरा -जरा सी बात पर रिश्ते तोड़ने से हम अलग -थलग पड़  जाएंगे। रिश्तों को बनाने में बहुत म्हणत पड़ती है उन्हें तोडा नहीं जा सकता ,वैसे भी जितने लोग हमारे साथ जुड़े होते हैं हमारा मनोबल उतना ही ऊंचा होता है।                       “जिंदगी के कैनवास पर जितने रंग होंगे ,तस्वीर उतनी ही सुन्दर बनेगी “                                                 इसका मतलब यह नहीं कि हम हर किसी के बुरे व्यवहार … Read more