मजबूत हैं हौसले ……….. की मंजिल अब दूर नहीं

आधुनिक और बदलते दौर ने जहाँ एक ओर हमें कई विसंगतियां दी है ,वहीँ हमें अपने तरीके से जीवन जीने की आजादी भी दी है | हमारे इसी बदलाव और लाइफस्टाइल से हमें कई सुविधाएँ भी मिली हैं ,इसमें कोई संशय नहीं | आज हमारे समाज में अगर सबसे ज्यादा बदलाव या क्रांति आई है तो वो है महिलाओं की स्थिति में ,जिसे नकारा नहीं जा सकता | इस अचानक हुए परिवर्तन से महिलाओं में एक सुखद अनुभूति का एहसास हुआ है , साथ ही समाज की सोच में हुए सकारात्मक बदलाव से उनकी छवि में निखार व् स्पष्टता दिखाई देती है | आज हमारे समाज में स्त्री व् पुरुष दोनों को सामान अधिकार मिले हैं | अब महिलाएं भी उच्च शिक्षा की अधिकारी हो गई हैं ,उन्हें भी वोट देने का अधिकार प्राप्त है | सबसे ज्यादा जो परिवर्तन देखने में आया है वो यह है कि आज लड़का-लड़की दोनों को पैतृक सम्पति में बराबर का हक है | लड़की जब चाहे अपने संपति के लिए दावा कर सकती है | आज स्त्री किसी पर बोझ नहीं है ,उसे नौकरी करने की पूरी आजादी है और वह अपने पसंद का कैरियर चुनकर एक बेहतर जिन्दगी बसर कर रही है | मजबूत हैं हौसले ……….. की मंजिल अब दूर नहीं                                              पहले जब किसी लड़की की शादी होती थी तो उसके सारे निर्णय उसका पति और उसके ससुराल वाले लेते थे नतीजा क्या होता था एक औरत बेटे की उम्मीद में कई -कई बच्चे की माँ बन जाती थी जिससे उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता था और बेहतर स्वास्थ्य सेवा के आभाव में कभी-कभी उसकी मौत तक हो जाती थी | पर अब ऐसा नहीं है ,अब उसके पास कम बच्चे पैदा करने का निर्णय लेने का भी अधिकार है | हालाँकि यह सारे अधिकार उन्हें पहले ही मिल चुके थे , लेकिन आज जो सबसे बड़ा परिवर्तन महिलाओं के जीवन में हुआ है वह है ,उनके खुद के सोच में आया व्यापक एवं परिपक्व  बदलाव |अब हर महिला अपने प्रति बेहद सजग एवं दृढ प्रतिज्ञ हो गई है जो उनके आत्मविश्वासी होने को दर्शाता है | अगर दिल में एक जोश हो ,कुछ कर गुजरने की चाहत हो तो आपके आगे बढ़ने के सारे रास्ते साफ़ नजर आते हैं ,फिर वो कोई भी क्षेत्र हो खुद-बखुद रस्ते बनते जाते हैं और उपलब्धियां मिलती जाती है | बस जरुरत है एक जुनून की,एक संकल्प की फिर सारे अरमानों ,सारे हौसलों को उड़ान मिलने लगती है |                                 दृढ प्रतिज्ञ की एक अलख अपने अन्दर जन जग जाता है तो पूरी कायनात उसे हासिल करवाने में जुट जाती है | आज महिलाएं भारत के शहरों से ही नहीं बल्कि गाँव और छोटे शहरों से भी बड़ी भारी तादाद में मल्टीनेशनल कंपनियों से जुड़ रही हैं | आज पूरे  विश्व में महिलाओं की भूमिका में  एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है | आज हर क्षेत्र में महिला पुरुष समकक्ष खड़ी है , फिर वो किचेन हो या राजनीति ,हर जगह अपने जीत का पताका फहरा रही हैं | आज बड़ी भारी संख्या में महिलाएं राजनीति की ओर भी रूख कर रही हैं जबकि पहले कोई दिग्गज महिला ही राजनीति में कदम बढाती थी | पहली महिला आईपीएस ‘किरण वेदी ‘जी आज अनगिनत महिलाओं की आदर्श हैं | हालाँकि यहाँ तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं है , पर पहुँच जाने के बाद का आनंद ही कुछ और है | ग्रामीण क्षेत्रों में भी महिलाओं की सक्रियता को देखकर लगता है जैसे आत्मविश्वास की लहर वहां भी चल चुकी है | आज महिलाएं एक ओर तो आत्मनिर्भर बन गई पर उन्हें नित् नये भावनात्मक एवं  शारीरिक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है , इसके बावजूद भी वे निरंतर अपनी पहचान को बुलंद कर रही हैं | घर बाहर दोनों के बीच तालमेल बैठाकर  अपने सपनों को एक नया उड़ान देना ,वास्तव में एक महिला के लिए ही संभव है | कहते हैं किसी के दोनों हाथों में लड्डू नहीं होते पर स्त्री ने अपनी इक्षा शक्ति से सिद्ध कर दिया है की वो दोनों मोर्चों पर सफल है |एक माँ जल्द्दी –जल्दी बच्चे का लंच पैक कर रसोई के बर्तन निपटा कर कार्यालय जाती है ………. वहां एक बॉस बन कर फैसले लेती है पुनः घर आ कर एक प्रिय पत्नी ,माँ और बहू में परिवर्तित हो जाती है |हां ! कठिन जरूर है पर असंभव नहीं ,आज की कामकाजी महिला के पैरों के नीचे जमीन भी है और मुट्ठी में सपनों का आसमान भी |ऊपर से जब महिलाएं अपने कर्म के क्षेत्रों में तरक्की करती हैं तो उनके अन्दर गजब का आत्मविश्वास बढ़ता है और यही आत्मविश्वास उन्हें सतत कर्मशील बनाता है | महिलाओं के प्रति आए इसी परिवर्तन ने उनके हाथों में नेतृत्व की कमान थमाई है ,जिसके कारण वे एक नई दुनियां में कदम बढ़ा रही हैं ,जहाँ सफलताएँ उनका बाहें फैलाकर इन्तजार कर रही है | आज उनके पास आजादी है,नाम है,शोहरत है तथा हसरतों की ऊँची उड़ान है |     आज महिलाएं अपने तथा अपने परिवार के प्रति ज्यादा सजग एवं प्रयत्नशील है ताकि उन्हें किसी किस्म की दिक्कत व् परेशानी का सामना न करना पड़े | महिलाओं के अन्दर ईश्वर प्रदत जबरदस्त संतुलन है जिसकी वजह से वह अपने परिवार तथा करियर के बीच सामंजस्य बिठाकर अपने सपनों को साकार कर रही है | बीते कुछ वर्षों में महिलाओं ने जिस तेजी से अपनी कामयाबी का परचम लहराया है उसका सीधा असर उनके कार्यक्षेत्र एवं जीवनशैली में दिख रहा है | आज महिलाएं इंटरनेट के जरिये पूरी दुनियां से अपना जुड़ाव बनाई हैं ,जिसका शाश्वत रूप फेसबुक जैसे सोशल साईट पर बखूबी देखा जा सकता है | महिलाओं की जिन्दगी में बढ़ता हुआ सकारात्मक बदलाव ने मुझे एक कविता लिखने पर बाध्य कर दिया …… आँखों में असंख्य हसरतें हैं  ख्वाब भी अब हकीकत में बदलें हैं  हौसलों की उड़ान है,और है एक ऐसा जहान, जहाँ अरमानों की एक अलग दुनियां अंगड़ाई लेती है  बांहें फैलाए हैं मेरी अनगिनत चाहतों का आसमान जहाँ न बंदिशें हैं और न ही कोई … Read more

बोझ की तरह

एक स्त्री का जब जन्म होता है तभी से उसके लालन पालन और संस्कारों में स्त्रीयोचित गुण डाले जाने लगते हैं | जैसे-जैसे वो बड़ी होती है, उसके अन्दर वो गुण विकसित होने लगते है | प्रेम, धैर्य, समर्पण, त्याग ये सभी भावनाएं वो किसी के लिए संजोने लगती है और मन ही मन किसी अनजाने अनदेखे राज कुमार के सपने देखने लगती है फिर उसी अनजाने से मन ही मन प्रेम करने लगती है | किशोरा अवस्था का प्रेम यौवन तक परिपक्व हो जाता है, तभी दस्तक होती है दिल पर और घर में राजकुमार के स्वागत की तैयारी होने लगती है |  गाजे बाजे के साथ वो सपनों का राजकुमार आता है, उसे ब्याह कर ले जाता है जो वर्षों से उससे प्रेम कर रही थी, उसे ले कर अनेकों सपने बुन रही थी | उसे लगता है कि वो जहाँ जा रही हैं किसी स्वर्ग से कम नही, अनेकों सुख-सुविधाएँ बाँहें पसारे उसके स्वागत को खड़े हैं, इसी झूठ को सच मान कर वो एक सुखद भविष्य की कामना करती हुई अपने स्वर्ग में प्रवेश कर जाती है | कुछ दिन के दिखावे के बाद कड़वा सच आखिर सामने आ ही जाता है | सच कब तक छुपा रहता और सच जान कर स्त्री आसमान से जमीन पर आ जाती है, उसके सारे सपने चकनाचूर हो जाते हैं फिर भी वो राजकुमार से प्रेम करना नही छोड़ती | आँसुओं को आँचल में समेटती वो अपनी तरफ़ से प्रेम समर्पण और त्याग करती हुई आगे बढ़ती रहती है; पर आखिर कब तक ? शरीर की चोट तो सहन हो जाती है पर हृदय की चोट नही सही जाती | आत्मविश्वास को कोई कुचले सहन होता है पर आत्मसम्मान और चरित्र पर उंगुली उठाना सहन नही होता, वो भी अपने सबसे करीबी और प्रिय से | वर्षों से जो स्त्री अपने प्रिय के लम्बी उम्र के लिए निर्जला व्रत करती है, हर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे मत्था टेकती है, हर समय उसके लिए समर्पित रहती है, उसकी दुनिया सिर्फ और सिर्फ उसी तक होती है | एक लम्बी पारी बिताने के बाद भी उससे वो मन चाहा प्रेम नही मिलता है ना ही सम्मान तब वो बिखर जाती है, हद तो तब होती है जब उसके चरित्र पर भी वही उंगुली उठती है जिससे वो खुद चोटिल हो कर भी पट्टी बांधती आई है | तब उसके सब्र का बाँध टूट जाता है और फिर उसका प्रेम नफरत में परिवर्तित होने लगता है, फिर भी उस रिश्ते को जीवन भर ढोती है वो, एक बोझ की तरह |                          दूसरी तरफ़ क्या वो पुरुष भी उसे उतना ही प्रेम करता है, जिसके लिए एक स्त्री ने सब कुछ छोड़ कर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया ? वह उसे जीवन भर भोगता रहा, प्रताड़ित करता रहा, अपमानित करता रहा और अपने प्रेम की दुहाई दे कर उसे हर बार वश में करता रहा | क्या एक चिटकी सिन्दूर उसकी मांग में भर देना और सिर्फ उतने के लिए ही उसके पूरे जीवन उसकी आत्मा, सोच,उसकी रोम-रोम तक पर आधिकार कर लेना यही प्रेम है उसका ? क्या किसी का प्रेम जबरजस्ती या अधिकार से पाया जा सकता है ? क्या यही सब एक स्त्री एक पुरुष  के साथ करे तो वो पुरुष ये रिश्ता निभा पायेगा या बोझ की तरह भी ढो पायेगा इस रिश्ते को ? क्या यही प्रेम है एक पुरुष का स्त्री से ?  नही, प्रेम उपजता है हृदय की गहराई से और उसी के साथ अपने प्रिय के लिए त्याग और समर्पण भी उपजता है | सच्चा प्रेमी वही है जो अपने प्रिय की खुशियों के लिए समर्पित रहे ना कि सिर्फ छीनना जाने कुछ देना भी जाने | वही सच्चा प्रेम है जो निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे के प्रति किया जाए नही तो प्रेम का धागा एक बार टूट जाए तो लाख कोशिशो के बाद भी दुबारा नही जुड़ता उसमे गाँठ पड़ जाता है और वो गाँठ एक दिन रिश्तों का नासूर बन जाता है, फिर रिश्ते जिए नही जाते ढोए जाते हैं एक बोझ की तरह  | शायद इसी लिए रहीम दास जी ने कहा है –                रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय |                टूटे से फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय || मीना पाठक ********************************************************************* कृपया हमारे  atoot bandhan फेस बुक पेज पर भी पधारे 

महिला दिवस और नारी मन की व्यथा

                           युग बदल गए, सदिया गुजर गयीं, बदलते दौर और जमाने के साथ-साथ बहुत कुछ बदल गया,लेकिन अगर कुछ नहीं बदला तो वह है नारी की नियति. कहीं परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ी, तो कहीं भेदभाव के कारण दासता व पराधीनता के बंधनों में उलझी नारी आज भी अपनी मुक्ति के लिए छटपटा रही है.वह हौसलो की उड़ान भर कर अपने सपने पूरे करना चाहती है,लेकिन कदम-कदम पर तय की गयीं मर्यादा की लक्ष्मण रेखाये,पारिवारिक- सामाजिक राह में बाधाये बन कर खड़ी हो जाती हैं|                                                                                                           हर साल 8 मार्च आता है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की रस्म अदा की जाती है. बड़े-बड़े मंचों से नारी उत्थान के संकल्प दोहराये जाते हैं.लेकिन नारी की दशा नहीं बदलती. दुनिया के किसी न किसी कोने में हर दिन कहीं वासना के भूखे भेड़िये किसी नारी की अस्मत पर डाका डालते है,तो कहीं गर्म-गोश्त की मंडी में नीलाम होने के लिए उसे मजबूर किया जाता है. कहीं वह चंद रूपयो के लिए आपने जिगर के मासूम टुकड़ों को     बेचने के लिए मजबूर होती है,तो कहीं दहेज की लपटें उसे निगल लेती हैं.                      कहने का आशय यह है कि सिर्फ़ नारी उत्थान का नारा देने भर से ही शोषण की चक्की में पिस रही नारी मुक्त नहीं होगी, इसके लिए ठोस और सार्थक पहल करनी होगी. बदलते समय के हिसाब से समाज की मानसिकता बदलनी होगी.नारी को समान अधिकारों की जरूरत है.जरूरत इस बात की भी है कि उसकी भावनाओ और अरमानो को भी सम्मान दिया जाए |                                              नारी मन की व्यथा यही है कि क्यों…आखिर क्यों अपने सपने देखने तथा प्रयास करके उन सपनों को हक़ीक़त में बदलने का अधिकार उसके पास क्यों नहीं है.आज के आधुनिक दौर में भी वह अपने जीवन के फैसले ख़ुद लेने के अधिकार से वंचित क्यों है. ऐसा क्यों होता कि जब वह अपने सपनों के आकाश में उड़ना चाहती है,तो रूढ़ियों की आड़ में उसके पर कतर दिए जाते हैं.उसे उन कामों की सजा क्यों दी जाती है,जिसमे उसका कोई दोष नहीं होता.                                                                        यदि कोई औरत विधवा हो जाती है,तो उसमें उसका कोई दोष नहीं होता,लेकिन परिवार,समाज उसके लिए नए मापदंड तय कर देता है.कोई विधुर पुरुष अपनी मनमर्जी के हिसाब से जीवन जी सकता है,लेकिन विधवा औरत ने यदि ढंग के कपड़े भी पहन लिए तो उस पर उंगलिया उठनी शुरु हो जाती हैं.किसी के साथ बलात्कार होता है,तो उसमें बलात्कार की शिकार बनी महिला का क्या दोष है.यह कैसी विडंबना है कि बलात्कारी मूँछों पर हाथ फेरकर अपनी मर्दानगी दिखता घूमता है और बलात्कार का शिकार बनी महिला या युवती को गली-गली मुँह छिपाकर जिल्लत झेलनी पड़ती है. घर-संसार बसाना किसी युवती का सबसे अहम सपना होता है,इसलिये महिलाये बहुत मजबूरी में ही तलाक के लिए पहल करतीं हैं.लेकिन तलाक होते ही तलाकशुदा महिला के बारे में लोगों का नज़रिया बदल जाता है. उसकी मजबूरिया समझने के बजाय मजबूरी का फायदा उठाने वालों की संख्या बढ़ जाती है.यदा-कदा कुछ ऐसे लोग भी मिलते हैं जो तलाकशुदा या विधवा महिला को सार्वजनिक संपत्ति मान कर व्यवहार करते हैं. क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि जिन घरों में महिलाये नौकरी या कारोबार कर रही हैं,घर के पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आर्थिक योगदान दे रही है,उन घरों में भी महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे नौकरी या कारोबार भी करती रहें और चूल्हा चक्की के काम में भी किसी तरह की कमी न आने पाने पाए. उलाहने- तानें दिए जाते हैं कि हमारे खानदान में औरतें अमुक-अमुक घरेलू कामों में दक्ष थी,लेकिन उस समय यह ध्यान नहीं दिया जाता कि उस समय महिलाये सिर्फ़ घरेलू काम ही करती थी,नौकरी या कारोबार नहीं करती थी. नारी का उत्थान तभी संभव है,जब उसे समान अधिकार दिए जाए.नारी के प्रति देहवादी सोच को समूल रुप से नष्ट करना होगा.नारी सिर्फ़ देह तक ही सीमित नहीं है.उसके भी सीने में दिल धड़कता है, भावनाएँ स्पंदित होती हैं,आंखो में भविष्य के सपने तैरते हैं, आकाक्षाओं के बादल आते हैं. नारी की महिमा को समझते हुए उसकी गरिमा को सम्मान देना होगा. नारी माँ के रुप में बच्चे को सिर्फ़ जन्म ही नहीं देती,अपने रक्त से सींच कर उसे जीवन भी देती है.बहन के रुप में दुलार देती है,तो बेटी के रुप में आपने बाबुल के घर में स्नेह की बरसात करती है. जीवनसंगिनी के रुप में जीवन में मधुरता के रस का संचार करती है.करुणा,दया,क्षमा,धैर्य आदि गुणों की प्रतीक है नारी.त्याग और ममता की मूर्ति है नारी. भारतीय संस्कृति में नारी को शुरु से ही अहम दर्जा दिया गया है.इस देश की मान्यता रही है कि नारी भोग्या नहीं,पूज्या है.नारी को देवी का दर्जा देने वाले इस देश में जरूरत है एक बार फिर उन्हीं विचारों का प्रचार करने की.यह भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि यहाँ स्वयम्वर होते रहे हैं.नारियों को आपने जीवन के फैसले करने का अधिकार रहा है.उसी संस्कृति को ध्यान में रखते हुए नारियों  को समान अधिकार व अवसर देने होंगे,अपने विकास का रास्ता और मंज़िल वे ख़ुद तलाश लेगी | ओमकार मणि त्रिपाठी  प्रधान संपादक :अटूट बंधन एवं सच का हौसला ओमकार मणि से साभार  कृपया हमारे  atoot bandhan फेस बुक पेज पर भी पधारे 

किसी भी बालक के व्यक्तित्व निर्माण में ‘माँ’ की ही मुख्य भूमिका:-

विश्व में शांति की स्थापना के लिए  महिलाओं को सशक्त बनायें! किसी भी बालक के व्यक्तित्व निर्माण में ‘माँ’ की ही मुख्य भूमिका:- कोई भी बच्चा सबसे ज्यादा समय अपनी माँ के सम्पर्क में रहता है और माँ उसे जैसा चाहे बना देती है। इस सम्बन्ध में एक कहानी मुझे याद आ रही है जिसमें एक माता मदालसा थी वो बहुत सुन्दर थी। वे ऋषि कन्या थी। एक बार जंगल से गुजरते समय एक राजा ने ऋषि कन्या की सुन्दरता पर मोहित होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर उन ऋषि कन्या ने उस राजा से कहा कि ‘‘मैं आपसे शादी तो कर लूगी पर मेरी शर्त यह है कि जो बच्चे होगे उनको शिक्षा मैं अपने तरीके से दूगी।’’ राजा उसकी सुन्दरता से इतनी ज्यादा प्रभावित थे कि उन्होंने ऋषि कन्या की बात मान ली। शादी के बाद जब बच्चा पैदा हुआ तो उस महिला ने अपने बच्चे को सिखाया कि बुद्धोजी, शुद्धोजी और निरंकारी जी। मायने तुम बुद्ध हो। तुम शुद्ध हो और तुम निरंकारी हो। आगे चलकर यह बच्चा महान संत बन गया। उस जमाने में जो बच्चा संत बन जाते थे उन्हें हिमालय पर्वत पर भेज दिया जाता था। इसी प्रकार दूसरे बच्चे को भी हिमालय भेज दिया गया। राजा ने जब देखा कि उसके बच्चे संत बनते जा रहंे हैं तो उन्होंने रानी से प्रार्थना की कि ‘महारानी कृपा करके एक बच्चे को तो ऐसी शिक्षा दो जो कि आगे चलकर इस राज्य को संभालें।’ इसके बाद जब बच्चा हुआ तो महारानी ने उसे ऐसी शिक्षा दी कि वो राज्य को चलाने वाला बन गया। बाद में हिमालय पर्वत से आकर उसके दोनों भाईयों ने अच्छे सिद्धांतों पर राज्य को चलाने में अपने भाई का साथ दिया। प्रत्येक बच्चे के हृदय में बचपन से ही ‘ईश्वरीय गुणों’ को डालें:- प्रत्येक बच्चे का हृदय बहुत कोमल होता है। यदि हम किसी पेड़ के तने पर कुदेर कर ‘राम’ लिख दें तो पेड़ के बड़े होने के साथ ही साथ ‘राम’ शब्द भी बढ़ता हुआ चला जाता है। इसलिए हमें अपने बच्चों में बचपन से ही ईश्वरीय गुणों को डाल देना चाहिए। बचपन में बच्चों के मन-मस्तिष्क में डाले गये गुण उसके सारे जीवन को महका सकते हैं। सुन्दर बना सकते हैं। वास्तव में बचपन में डाले गये जिन विचारों के साथ बच्चा बड़ा होता जाता है धीरे-धीरे वह उन विचारों के करीब पहुँचता जाता है। इस प्रकार बच्चा एक पेड़ के तने के समान होता है। पतली टहनी को जितना चाहो उतना मोड़ सकते हों, लेकिन यही टहनी यदि मोटी डाल बन गई तो फिर हम उसे मोड़ नहीं सकते और अगर हमने उसे जबरदस्ती मोड़ने की कोशिश की तो उसके टूटने की संभावना ज्यादा हो जाती है। इसलिए हमें प्रत्येक बच्चे के हृदय में बचपन से ही गुणों को डाल देना चाहिए। बड़े होने पर बच्चों में इन गुणों को नहीं डाला जा सकता। विश्व में ‘एकता’ एवं ‘शांति’ की स्थापना में महिलाओं की ही मुख्य भूमिका:- आज महिलाओं को चाहिए कि न वे केवल अपनी दक्षता, सहभागिता व नेतृत्व क्षमता को सिद्ध करें बल्कि उन सभी भ्रांतियों और कहावतों को भी मुँह तोड़ जवाब दें, जो उनका कमजोर आँकलन करती हैं क्योंकि:- नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे। धैर्य, दया, ममता बल हंै विश्वास तुम्हारे। कभी मीरा, कभी उर्मिला, लक्ष्मी बाई। कभी पन्ना, कभी अहिल्या, पुतली बाई। अपने बलिदानों से, युग इतिहास रचा रे। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे। अबला नहीं, बला सी ताकत, रूप भवानी। अपनी अद्भुत क्षमता पहचानो, हे कल्याणी। बढ़ो बना दो, विश्व एक परिवार सगा रे। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे। महिला हो तुम, मही हिला दो, सहो न शोषण। अत्याचार न होने दो, दुष्टांे का पोषण। अन्यायी, अन्याय मिटा दो, चला दुधारे। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे।। इस प्रकार धैर्य, दया, ममता और त्याग चार ऐसे गुण हैं जो कि महिलाओं में पुरुषों से अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘जब आदमियों में स्त्रियोंचित्त गुण आ जायेंगे तो दुनिया में ‘रामराज्य’ आ जायेगा।’’ आज अमेरिका की आर्मी में बहुत सारी औरतें भी हैं। माँ ही बच्चों की सबकुछ होती है। वह जिस तरह से चाहेगी दुनिया को चलायेगी। अगर उसके हाथ में साइन करने की ताकत आ जायेगी तो कभी भी दुष्टों का पोषण नहीं होने पायेगा। लड़ाई सस्ती होती है या शांति? निःसंदेह शांति सस्ती होती है। इसलिए शांति को लाने के लिए हमें बच्चों को प्रेम, दया, करुणा, न्याय, भाईचारा, एकता एवं त्याग आदि सिखाना है। और चूंकि सारी मानवजाति एक समान है इसलिए विश्व से भेदभाव को दूर करने के लिए हमें प्रत्येक बच्चे को एक समान शिक्षा दी जानी चाहिए। आज सारे विश्व की शिक्षा में एकरुपता लाने की आवश्यकता है। दुनिया के घावों को भरने के लिए हमें शांति रुपी मलहम का प्रयोग करना चाहिए। विश्व में शांति की स्थापना के लिए महिलाओं को सशक्त करना जरूरी:- अब्दुल बहा ने कहा है कि विश्व में शांति आदमियों के द्वारा नहीं लायी जायेगी बल्कि महिलाओं के द्वारा लाई जायेगी। यह शांति तभी आयेगी जब कि महिलाओं के पास निर्णय लेने की शक्ति या क्षमता आ जायेगी। कोई भी महिला कभी भी लड़ाइयों के दस्तावेज पर साइन नहीं करेंगी क्योंकि उसे पता है कि उस लड़ाई से उसके पुत्र की, उसके पति की हत्या हो सकती है। एक बच्चे को जो वह पैदा करती है उसे पहले वह 9 महीने तक अपने पेट में पालती है। उसमें वह बहुत कष्ट उठाती है। उसके बाद उस बच्चे को 20 सालों तक पालती-पोषती है। इसमें उसको बहुत सी यातनायें सहनी पड़ती है। इसमें उसको बहुत त्याग करना पड़ता है। बहुत से कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसलिए उस बच्चे के जीवन को खत्म करने के लिए वह कभी भी लड़ाई के दस्तावेज पर कभी भी साइन नहीं करेगी। इसलिए हमें महिलाओं को सशक्त बनाना है। उन्हंे अच्छी शिक्षा देनी है। उन्हें अच्छी नौकरी देनी है। उन्हें ऊँचे ओहदों पर बैठाना है। -जय जगत्- भवदीया डाॅ. भारती गाँधी संस्थापिका-निदेशिका सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस् पर विशेष : कुछ पाया है …….. कुछ पाना है बाकी

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस् पर विशेष       कुछ पाया है …….. कुछ पाना है बाकी सदियों से लिखती आई हैं औरतें सबके लिए चूल्हे की राख पर  धुएं से त्याग द्वारे की अल्पना पर रंगों से प्रेम तुलसी के चौरे पर गेरू से श्रद्धा  अब लिखेंगी अपने लिए आसमानों पर कलम से सफलता की दास्ताने अब नहीं रह जाएगा आरक्षित उनके लिए पूरब के घर में दक्षिण का कोना बल्कि बनेगा  एक क्षितिज जहाँ सही अर्थो में  स्थापित होगा संतुलन शिव और शक्ति  में  ८ मार्च अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस …. ३६५ दिनों में से एक दिन महिलाओं के लिए ….पता नहीं क्यों  मैं कल्पना नहीं कर पाती किसी ऐसे दिन ऐसे घंटे या ऐसे मिनट की जिसमें स्त्री न हो ,या जो स्त्री के लिए न हो तो फिर ये  महिला दिवस क्या है ? माँ ,बहन बेटी ,सामान्य नारी के लिए सम्मान या मात्र खानापूरी  ,भाषण बाज़ी चर्चाएँ ,नारे बाजी जो यह सिद्ध कर देती है कि वो कहीं न कहीं कमजोर है ,उपेक्षित है ,पीड़ित है , क्योंकि समर्थ के कोई दिन नहीं होते ,दिन कमजोर लोगो के ऊपर करे गये अहसान है कि एक दिन तो कम से कम तुम्हारे बारे में सोचा गया | क्या स्त्री को इसकी जरूरत है ? क्या ये मात्र एक फ्रेम से निकल कर दूसरे फ्रेम में टंगने  के लिए है | इस उहापोह के बीच में मैं पलटती हूँ एक किताब  राहुल संस्कृतायन  “वोल्गा से  गंगा ”  | जिसमें राहुल संस्कृतायन  नारी के बारे में  लिखते हैं  …. देह के स्तर पर  बलिष्ठ ,नेतृत्व  करने की क्षमता के  साथ वह युद्ध करने में और  शिकार करने में   भी पुरुष की सहायक   हुआ करती थी।  राहुल सांकृत्यायन के अनुसार नारी में सबको साथ लेकर चलने की शक्ति थी, वह झुण्ड में आगे चलती थी ,वह अपना साथी खुद चुनती थी ।” वोल्गा से  गंगा ” में वे  एक जगह लिखते हैं ” पुरुष की भुजाएं भी ,स्त्री की भुजाओं की  तरह बलिष्ठ थीं ” अतार्थ स्त्री की भुजाएं तो पहले से ही बलिष्ठ थी |आखिर समय के साथ क्या हुआ की वो बलिष्ठ भुजाओं वाली स्त्री इतनी कमजोर हो गयी कि उसके लिए दिवस बनाने की आवश्यकता पड़ी |                           मैं महिलाओं के मध्य पायी जाने वाली  समस्याए और उनका समाधान खोजना चाहती हूँ |मुझे सबसे पहले याद आती है गाँव की  धनियाँ , जो ढोलक की थाप पर नृत्य करती है “मैं तो चंदा ऐसी नार राजा क्यों लाये सौतानियाँ | नृत्य करते समय वो प्रसन्न है चहक रही है परन्तु वास्तव में उसका पूरा जीवन इसी धुन पर नृत्य कर रहा है | धनियाँ घुटने तक पानी में कमर झुका कर दिन भर धान  रोपती है ,७-८ बच्चे पैदा करती है ,चूल्हा चकिया करती है ,शराबी पति से डांट  –मार खाती है फिर भी सब सहती है उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है ,कभी सोचा ही नहीं है उसकी धुरी उसका पति है ,जो स्वतंत्र है ….ये औरते रोती हैं लगातार ,बात –बिना बात पर ,ख़ुशी में गम में  सौतन का भय उसे सब कुछ सहने को और एक टांग पर दिन भर नृत्य करने को विवश करता है चक्की चलती है ,धनियाँ नाचती है , बच्चा रोता है धनियाँ नाचती है ,ढोलक बजती है धनियाँ नाचती है … धनियाँ नाचती है अनवरत ,लगातार ,बिना रुके बिना थके |                        मुझे याद आती हैं पड़ोस के मध्यमवर्गीय परिवार वाली  भाभी जो स्कूल में अध्यापिका हैं , बैंक में क्लर्क हैं या  घर के बाहर किसी छोटे मोटे काम में लगी हुई कमाऊ बहु का खिताब अर्जित किये हैं…. भाभी दुधारू गाय हैं , समाज में इज्ज़त है  पर ये अंत नहीं है शुरुआत है उनकी कहानी का |  भाभी दो नावों पर सवार हैं एक साथ , समाज़ की वर्जनाओं रूपी विपरीत धारा  में बहती नदी, जिसे उन्हें पार करना है हर हाल में ज़रा चूके तो गए ….. मीलों दूर नामों निशान भी नहीं मिलेगा | एक बहु घर का खाना बना छोटे बड़े का ध्यान रख  सर पर पल्ला करके घर से बाहर  निकलती है ,चौराहे के बाद पल्ला हटा कर वह एक कामकाजी औरत है ,शाम को फिर रूप बदलना है ,महीने के आखिर में अपनी मेहनत  की कमाई को घर वालों को सौप देना है , क्यों न ले आखिर उन्होंने ही तो दी है घर के बाहर ऐश करने की इजाज़त ….. भाभी इंसान नहीं हैं मशीन हैं ,या घडी के कांटे जिन्हें चलना हैं समाज की टिक –टिक के बीच जो कोई अवसर जाने नहीं देना चाहता “कण देखा और तलवार मारी का “भाभी अक्सर छुप  कर रोती हैं ,या कभी अपने आँसू को चूल्हे के धुए में छिपा लेती हैं … भाभी जानती हैं माध्यम वर्गीय औरत और आँसू …. जैसे शरीर और प्राण |                   मुझे याद आती हैं डॉक्टर ,इंजीनियर , बड़ी कंपनियों की मालिक औरतें ,जिन्होंने खासी मेहनत के बाद अपना एक मुकाम बनाया है |आज बड़े –बड़े ऊंचे  पदों पर बैठी हैं…. अक्सर फाइलों पर दस्तखत करते हुए जब दिख जाते हैं अपने हाथ तो भर जाता है निराशा से मन, एक सहज स्वाभाविक प्रश्न से “क्यों स्त्री के दोनों हाथों में लड्डू नहीं होते “ क्यों कुछ पाने कुछ खोने का नियम हैं |ये औरते बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स की मीटिंग में जाती हैं ,माइक सभालती हैं ,सफलता पर घंटों लेक्चर देती हैं पर खो देती हैं जब बेटी नें पहली बार माँ कहा था ,जब बेटा पहली बार चलना सीखा था ,युवा होते बच्चों को देना चाहती  हैं समय पर नहीं, कहाँ हैं समय ?पेप्सिको की इन्द्रा नुई कहती हैं ऊँचे पदों पर बैठी औरत हर दिन जूझती है इस प्रश्न से आज किसे प्राथमिकता देना है एक माँ को या एक सी .ई .ओ को |ये औरतें रोती  नहीं,…. समय ही नहीं हैं पर हर बार दरक जाती हैं अन्दर से ,बढ़ जाती है एक सलवट माथे पर ,जिसे छुपा लेती हैं मेकअप की परतों में ,पहन लेती हैं समाजिक मुखौटा … और  हो जाती हैं तैयार अगली मीटिंग के लिए                   मुझे दिखाई देती है महिलाओं की एक चौथी जमात जो सभ्यता के लिए बिलकुल नयी है| ये हाई सोसायटी की मॉड औरते … Read more

होली पर इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स मुफ्त :स्टॉक सीमित

होली केवल रंगों का त्यौहार ही नहीं है , हंसने खिलखिलाने का भी त्यौहार है | हँसने –हँसाने का ये सिलसिला जारी रहने के लिए लाये हैं एक हास्य रचना  होली पर इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स मुफ्त :स्टॉक सीमित होली और गुझियाँ का चोली दामन का साथ है |”सारे तीरथ बार –बार और गंगा सागर एक बार “की की तर्ज पर गुझियाँ ही वो मिठाई है जो साल में बस एक बार होली पर बनती है |जाहिर है घर में बच्चों –बड़ों सबको इसका इंतज़ार रहता है,और गुझियाँ का नाम सुनते ही बच्चों के मुँह में व् महिलाओं के माथे पर पानी आ जाता है |    कारण  यह है कि गुझियाँ खाने में जितनी स्वादिष्ट लगती है पकाने में उतनी ही बोरिंग| एक –एक लोई बेलो ,भरो ,तलो …. बिलकुल चिड़िमार काम |अकसर होली के आस –पास महिलाएं जब एक दुसरे से मिलती हैं तो पहला प्रश्न यही होता है “आप की गुझियाँ बन गयी? और अगर उत्तर न में मिला तो तसल्ली की गहरी साँस लेती है “एक हम ही नहीं तन्हाँ न बना पाने में तुझको रुसवा“ पर बकरे की माँ कब तक खैर बनाएगी ,बनाना तो सबको पड़ेगा ही ….. शगुन जो ठहरा |          एक सवाल मेरे मन में अक्सर आता है कि पिट्स,,वी टी आर , फादर्स  रेसेपी … जैसी तमाम कंपनियों ने जब रसगुल्ले ,ढोकले ,दहीबड़े यहाँ तक की जलेबी के इंस्टेंट मिक्स बना कर हम हम महिलाओं को पकाने के काम से इतनी आज़ादी दी कि हम आराम से पड़ोस में किसकी बेटी का ,बेटे का ,सास –बहु ,नन्द –भौजाई का आपस में क्या पक रहा है जान सके ,तो किसी को यह ख़याल क्यों नहीं आया कि इंस्टेंट गुझिया मिक्स बनाया जाए |ऐसी निराशा के आलम में जब होली  से ठीक एक दिन पहले “आज गुझियाँ बना ही लेंगे की भीष्म प्रतिज्ञा करते हुए हमने अखबार खोला, तो हमारी तो ख़ुशी के मारे चीख निकल गयी | साफ़ –साफ़ मोटे –मोटे अक्षरों में लिखा था “ हमारी माताओं –बहनों की तकलीफ को देखते हुए होली पर महिलाओं के लिए इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स बिकुल फ्री| जल्दी करिए स्टॉक सीमित है |केवल महिलाएं अपने एरिया की अधिकृत दुकान तक पहुंचे |विज्ञापन सरकारी था |शक करने का कोई सवाल ही नहीं था |वैसे भी हम दिल्ली वालों  फ्री चीजों की आदत हो चुकी है | और अब तो फ्री -फ्री के खेल को एन्जॉय करना भी शुरू कर दिया है | हमने तुरंत अपना मोबाइल उठाया और अपनी सहेलियों को फ्री की यह शुभ सूचना देने के में २०० रूपये खर्च कर दिए | मीना ,रीना ,टीना  ,मुन्नी ,दिव्या सुधा सब दस मिनट में तैयार हो कर हमारे घर आ गयी |हमने दुकान की तरफ  कदम बढ़ाये |रास्ते भर हम यही गुणगान करते रहे “क्या सरकार है जिसने हम महिलाओ  के दर्द को समझा ,इतना तो हमारे पतियों नें नहीं समझा | दुकान पर पहुँच कर देखा करीब ५ -७ सौ महिलाओं की भीड़ है| खैर हम सभी सभ्य  जनता की तरह लाइन में लग गए और अपनी –अपनी सास –बहुओं की बुराई कर सहृदयता पूर्वक  टाइम काटने लगे| तभी अचानक से खबर आई इस ईलाके के लिए पैकेट केवल ५० हैं |कहीं हम ही न रह जाए यह सोच कर महिलाओं में भगदड़ मच गयी |सब  अपनी –अपनी साडी के पल्ले कमर पर बाँध  योद्धा की तरह आगे बढ़ने लगी |कुछ  ने दूसरों को गिराया, कुछ स्वयं ही गिरी  , सास –बहु की बुराई की जगह एक दूसरे की बुराई होने लगी |कैसी सहेली हैं रे तू (दिल्ली में तू भाषा में आम चलन में  है)मेरी जॉइंट फैमिली है तुझे दया नहीं आती |दूसरी आवाज़ आई अरे मैं तो काम पर जाती हूँ ,मुझे मिलना चाहिए |तभी कुछ आवाज़े आई “सीनियर सिटीजन का पहला हक है | मौके की नाजुक हालत देख कर दुकान दार भाग गया | विकराल छीना –झपटी मच गयी |             इसी छीना – झपटी में सारे के सारे पैकेट फट गए,पर ये क्या उसमें गुझियाँ मिक्स की जगह अबीर –गुलाल निकला| हम सारी महिलाएं रंगों से सराबोर थी |एक –दूसरे की हालत देखकर हमें हंसी आने लगी |सारा गुस्सा काफूर हो गया | फटे हुए पैकेट को खंगाला गया तो उसमें मिली पर्चियों पर बड़ा –बड़ा लिखा था  “बुरा न मानो होली है”  हम लोगो कि हंसी छूट गयी…होलीके माहौल में बुरा क्या मानना।हम सब हँसते –मुस्कुराते घर की तरफ चल पड़े। इस बात का अफ़सोस तो जरूर था की घर जा कर गुझियाँ बनानी पड़ेगी। पर इस बात का संतोष भी था पहली बार सरकार ने जनता के साथ होली खेली। जनता रंगों से सराबोर हुई और अबीर -गुलाल तो मिला ही बिलकुल मुफ्त।  खैर हमने तो होली खेल ली अब गुझियाँ भी बना ही लेंगे पर अगर आप के शहर में ऐसा कोई विज्ञापन आता है .तो जरा संभल कर ….बड़े धोखे हैं इस राह हैं …..फिर भी अगर मुफ्त के चक्कर  में आप भी फंस जाए और होली के रंगों में रंग जाए तो भी कोई गम नहीं क्योंकि…………….. “बुरा न मानो होली है” वंदना बाजपेयी  अटूट बंधन परिवार की ओर से आप सभी को होली की हार्दिक शुभ कामनाएं  यह भी पढ़ें ..                             सूट की भूख न उम्र की सीमा हो … किरण आर्य हमने भी करी डाई – ईटिंग एक लेखक की दास्ताँ       आपको  व्यंग लेख “ होली पर इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स मुफ्त :स्टॉक सीमित “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |        

सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ

सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ  1. खो गई चीज़ें                                वे कुछ आम-सी चीज़ें थींजो मेरी स्मृति में सेखो गई थींवे विस्मृति की झाड़ियों मेंबचपन के गिल्ली-डंडे कीखोई गिल्ली-सी पड़ी हुई थीं वे पुरानी ऐल्बम में दबेदाग़-धब्बों से भरेकुछ श्वेत-श्याम चित्रों-सी दबी हुई थींवे पेड़ों की ऊँची शाखाओं मेंफड़फड़ाती फट गईपतंगों-सी अटकी हुई थींवे कहानी सुनते-सुनते सो गएहम बच्चों की नींद मेंअधूरी-सी खड़ी हुई थींकभी-कभी जीवन की अंधी दौड़ मेंहम उनसे यहाँ-वहाँ टकरा जाते थेतब हम अपनी स्मृति केकिसी ख़ाली कोने कोफिर से भरा हुआ पाते थे …खो गई चीज़ेंवास्तव में कभी नहीं खोती हैंदरअसल वे उसी समयकिसी और जगह पर मौजूद होती हैं                           ———-०———-                             2.  स्वप्न                            ————-                                               वह एक स्वप्न थामेरी नींद मेंआना ही चाहता था किटूट गई मेरी नींदकहाँ गया होगा वह स्वप्न —भटक रहा होगा कहींया पा ली होगी उसनेकिसी की नींद में ठौरडर इस बात का है कियदि किसी की भी नींद मेंठिकाना न मिला उसे तोकहीं निराश हो करआत्म-हत्या न कर लेआज की रातएक स्वप्न                               ———-०———-                                  3. वे जो वग़ैरह थे                                ———————                                                                वे जो वग़ैरह थेवे बाढ़ में बह जाते थेवे भुखमरी का शिकार हो जाते थेवे शीत-लहरी की भेंट चढ़ जाते थेवे दंगों में मार दिए जाते थेवे जो वग़ैरह थेवे ही खेतों में फ़सल उगाते थेवे ही शहरों में भवन बनाते थेवे ही सारे उपकरण बनाते थेवे ही क्रांति का बिगुल बजाते थेदूसरी ओरपद और नाम वाले हीसरकार और कारोबार चलाते थेउन्हें भ्रम था कि वे ही संसार चलाते थेकिंतुवे जो वग़ैरह थेउन्हीं में सेक्रांतिकारी उभर कर आते थेवे जो वग़ैरह थेवे ही जन-कवियों कीकविताओं में अमर हो जाते थे …                            ———-०———-                                  4. जब तक                                —————                                                        – जब तक स्थिति परक़ाबू पानेपुलिस आती हैजल चुके होते हैंदर्जनों घर आगज़नी मेंजब तकफ़्लैग-मार्च के लिएसेना आती हैमर चुके होते हैंदर्जनों लोग दंगों मेंजब तकशांति-वार्ता कीपहल की जाती हैआ चुकी होती हैएक बड़ी दरार मनों मेंजब तकसूरज दोबाराउगता हैअँधेरा लील चुका होता हैइंसानियत को … प्रेषकः सुशांत सुप्रिय          A-5001,          गौड़ ग्रीन सिटी ,          वैभव खंड ,           इंदिरापुरम ,           ग़ाज़ियाबाद -201010          ( उ. प्र. ) मो: 8512070086 ई-मेल: sushant1968@gmail.com समस्त चित्र गूगल से                              ———-0——-––atoot -bandhan हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे  आपको    “सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ      “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

सूर्योदय में सूर्य दर्शन :स्वाथ्य का खजाना

सूर्य पृथ्वी के लिए उर्जा का केंद्र है।  सूर्य के कारण  ही पृथ्वी पर जीवन संभव हुआ इसी कारण सूर्य को देवता भी मानते हैं वनस्पतियाँ सौर उर्जा को अवशोषित कर जो भोजन (फल ,सब्जियां ,अनाज ) बनाती हैं उसी से धरती पर सारा इकोसिस्टम चलता है। पर सूर्य का महत्व यहीं तक सीमित नहीं है। कहा जाता है की जिस तरह पेड़ पौधों में क्लोरोफिल सूर्य प्रकाश से क्रियाशील हो कर भोजन निर्माण करता है , उसी तरह मनुष्य की आँखों में एक तत्व होता है जो सूर्य प्रकाश को ग्रहण कर के मष्तिष्क तक पहुचाता है और मष्तिष्क  क्रियाशील हो कर ऊर्जा का निर्माण करता है और शरीर को आरोग्य प्रदान करता है.सूर्योदय के समय लगभग एक घंटे तक वातावरण में अदृश्य पराबैगनी किरने (अल्ट्रा वायलेट रेज ) का विशेष प्रभाव होता है यह विटामिन डी का अच्छा श्रोत होती हैं। नेत्रों के माध्यम से सूर्य की उर्जा हमारे मष्तिस्क में पहुँचती है और हमारी  मानसिक क्षमता को बढ़ाती है। इसके लिए प्रतिदिन सूर्य दर्शन की अवधि बढाकर आँखों  को सूर्य दर्शन के लिए अभ्यस्त किया जा सकता है व् इस ऊर्जा का अधिकाधिक लाभ उठाया जा सकता है। . सूर्य दर्शन का समय :-                            सूर्योदय के बाद लगभग एक घंटे तक सूर्य दर्शन का सही समय होता है ,इससे आँखों को क्षति नहीं पहुँचती है ,इसके बाद करे गए सूर्य दर्शन में जैसे संध्या वंदन (सूर्यास्त से एक घंटा पहले ) सूर्य दर्शन दोनों हाथों से एक मुद्रा बना कर उसमे से किया जाता है। साथ ही जल से अर्घ देने का भी विधान है जिससे सूर्य की किरने अपवर्तित हो कर आँखों पर पड़े और ज़्यादा रौशनी से आँखों पर बुरा असर ना हो. सूर्य दर्शन की विधि ;-                            प्रारंभ में धरती मिटटी पर खड़े होकर सूर्य को मात्र २ -३  सेकंड तक देखना चाहिए। धीरे -धीरे यह अवधि बढानी चाहिए।क्रम से अवधि बढाने से व् नियमित अभ्यास से आश्चर्य जनक्  परिणाम सामने आते हैं  ऐसा अधिकतम 45 मि. तक किया जा सकता है. यह समय धीरे धीरे नौ महीनों में पहुंचा जा सकता है. समय दस सेकण्ड रोज़ बढाते जाए. एक ही दिन में समय अधिक बढ़ाना सही नहीं है. सूर्य दर्शन के शारीरिक लाभ ;-                                      -सूर्य को निहारने से सभी रंग मष्तिषक ग्रहण करता है जिससे हर प्रकार के शारीरिक रोग दूर होते हैं। जिस प्रकार दवाइयां पेट के माध्यम से सारे शरीर में जाती हैं उसी प्रकार ,सौर उर्जा मष्तिष्क के माध्यम से सारे शरीर में जाती हैऔर शरीर के समस्त न्विकार दूर कर उसे पूर्ण स्वस्थ बनाती है   – रोज़ सूर्य दर्शन करने से , आँखों के रोग आदि ठीक होते हैव् नेत्र ज्योति बढती है।  -मानसिक क्षमता बढती है।  -आत्मविश्वास बढ़ने लगता है ,नकारात्मक सोच ,भय ,निराशा आदि समाप्त हो जाते हैं  – दुश्प्रव्त्तियाँ ,व् दुर्व्यसन छूट जाते हैं  – रक्त में कैल्सियम ,फोस्फोरस व् लोह की मात्रा बढती है। -स्वेत रक्त कणिकाओ के बढ़ने से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है।  -पराबैगनी किरने ,हिस्टीरिया मधुमेह व् महिलाओं के मासिक धर्म सम्बन्धी रोगों में बहुत लाभदायक होती हैं।  -स्नायु दुर्बलता कम होती हैं।  -एंडोक्राइन ग्लांड्स की सक्रियता बढ़ जाती है। -नियमित अभ्यास से मष्तिषक सोलोरियम (सौर उर्जा ग्रहण करने वाले कुकर ) की तरह व्यवहार करने लगता है। साथ ही मानसिक व् शारीरिक शक्ति में अभूत पूर्व वृद्धि होती है    -धीरे -धीरे हाइपोथेलेमस के सक्रीय हो जाने पर भूख कम लगने लगती है। मोटापा कम हो जाता है। –  सूर्य दर्शन का समय बढ़ाते जाने से क्रमबद्ध लाभ:- -एक महीने में 5 मि का समय हो जाएगा , यह आँखों के लिए लाभदायक है. चश्मे छूट जाते है. – मानसिक क्षमता बढाने के लिए 3 महीनो में १५ मि तक पहुँच कर फिर रोजाना 5 मि सूर्य दर्शन करे.– शारीरिक क्षमता के लिए 30 मि तक पहुँच कर फिर धीरे धीरे समय कम करते हुए रोजाना दस मि तक सूर्य दर्शन कर लाभ बनाए रखे.– आध्यात्मिक लाभ के लिए नौ महीनों में 45 मि तक पहुँच कर फिर धीरे धीरे समय कम कर के रोजाना १५ मि तक सूर्य दर्शन करे. सह प्रयोग ;- – साथ ही सूर्य की रौशनी में रखा हुआ पानी पियें. – सूर्योदय काल में थोड़े समय नंगे पैर ज़मीन पर चाहिए  अध्यात्मिक लाभ के लिए सूर्य मन्त्र ;- कनकवर्ण महातेजम रत्नमालाविभूषितम् । प्रात : काले रवि दर्शनं सर्व पाप विमोचनम् ।

दिल्ली:जहाँ हर आम आदमी है ख़ास

                                        बचपन की याद आती है जब माँ सुबह -सुबह हमें उठाते हुए कह रहीं थी “जरा  जल्दी उठ कर ठीक -ठाक कपडे पहन लो दिल्ली वाली चाची आने वाली हैं “वैसे तो हमारे घर मेहमानों का आना .-जाना लगा रहता था। उसमें कुछ ठीक -ठाक करने जैसा नहीं था ,पर चाची दिल्ली की थी।  चाची  पर इम्प्रैशन डालने का अर्थ सीधे संसद तक खबर।  हालाँकि   हम उत्तर प्रदेश के एक महानगर में रहते थे पर दिल्ली हमारे लिए दूर थी।  दिल्ली वो थी जहाँ की ख़बरों से अखबार पटे रहते थे। हमें अपने शह र की जानकारी हों न हो पर दिल्ली की हर घटना की जानकारी रहती थी गोया की हमारा शहर  दीवाने आम हो  और दिल्ली दीवाने ख़ास।  दिल्ली ,दिल्ली का विकास और दिल्ली के लोग हमारी कल्पना का आयाम थी।  बरसों बीते हम बड़े हुए ,हमारा विवाह हुआ और पति के साथ तबादले का शिकार होते हुए देश के कई शहरों का पानी पीते हुए आखिर कार दिल्ली पहुँच  ही गए। और दिल्ली आकर हमें पता चला की कितने भी आम हो अब हम आम आदमी /औरत नहीं रहे हैं। अब हम भी उन लोगों में शुमार हो गए हैं जो खबरे पढ़ते ही नहीं बल्कि ख़बरों का हिस्सा हैं।                                                  पहला अनुभव हमें दिल्ली प्रवास के  दूसरे दिन ही हो गया जब हमारी प्रिय सखी का फोन दिल्ली पहुँचने की बधाई देने का आया।  बधाई  देने के बाद बोली ”  बड़ी परेशानी होगी ,पानी नहीं आ रहा न तुम्हारे घर “अच्छा हमने सकपकाते हुए कहा ,पता नहीं नल खोल कर देखते हैं ,तुम्हें कैसे पता चला ? अरे सुबह से क क क  चैनल पर दिखा रहे हैं  , दिल्ली में तुम्हारे एरिया में पानी नहीं आ रहा हैं लोग खाली बोतलें लेकर सड़कों पर हैं … टी वी नहीं देखा क्या तुमने ? पहली बार हमें बड़ा अटपटा लगा हमारे घर में पानी नहीं आ रहा है इसका पता हमसे पहले पूरे देश को है। हमारी निजी स्वतंत्रता का  कोई स्थान नहीं ? फिर तो यह रोज का सिलसिला हो गया।  हमने भी आपने आस -पास की बातों  पर ध्यान देना शुरू कर दिया क्योकि ,अडोस -पड़ोस में क्या हो रहा है इसकी खबर जाते ही सुदूर बसे परिवार के सदस्यों के लिए घटना की  आधिकारिक पुष्टि हमें ही करनी होती थी अन्यथा हमारे समान्य ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह लगने का पूरा ख़तरा था।                                                                     एक बार तो हमारी कश्मीर वाली बहन हमसे  कई दिन तक इस बात पर नाराज रही कि सर्दियाँ होते ही सारे रिश्ते दारों के हमारे घर में “अपना और बच्चों का धयान रखना “के हिदायत भरे फोन आने लगते  जबकि वो -१० डिग्री से नीचे जम रही होती पर  उसके यहाँ कोई फोन नहीं पहुँचता, इस पारिवारिक भेदभाव में हमारा कोई हाथ नहीं था। ये तो टी वी  चैनल वाले २४ घंटे दिल्ली की सर्दी का आँखों देखा हाल बताते रहते ,,सर्दी की भयावता को देख दूसरे शहरों के लोग रजाई में किटकिटाते हुए भाग्य को सराहते “भैया दिल्ली की सर्दी से राम बचाए “.|  एक बार कानपुर  में एक रिश्तेदार की शादी में जाने पर हम चर्चा का केंद्र बन गए”बताओ क्या दिन आ गए हैं  दिल्ली में अबकी गर्मी में दो -दो घंटे बिजली काट रहे हैं।  जब सुनते -सुनते हम हम थक गए तो पूँछ ही लिया “कानपुर में कितने घंटे आती है  ?कोई ठीक नहीं पर २४ घंटे में १० -११  घंटे तो आ ही जाती है।  उत्तर प्रदेश की औद्यौगिक राजधानी बिजली की किल्लत से बुरी तरह जूझ रहीं है ,उद्योग -धंधे चौपट हैं ,भीषण बेरोजगारी  ने लूट पाट  को बढ़ा दिया है. पर दिल्ली में २ घंटे बिजली गुल होना खबरों का शहंशाह  बन कर तख्ते  ताऊस पर बैठा है।                                               एक बार तो हद हो गयी रात को ११ बजे माँ का फोन आया। उन्होंने कांपती आवाज़ में कहा “बिटिया अपना ,दामाद  जी का बच्चों का ध्यान रखना “क्यों माँ क्या हुआ इतनी घबराई हुई क्यों हो ?मैं उल्टा प्रश्न दागा। अभी -अभी टी वी चैनल में दिखा रहे हैं दिल्ली भूकंप से ज्यादा प्रभावित होने वाली जोंन  में आता हैं  ,हम तो घबरा गए। देखो ज्यादा बेख्याली में मत सोना। टंकी पूरी ना भरना … गमले………… माँ ने हिदायतों की पूरी लम्बी लिस्ट सुनानी शुरू कर दी। हमने बीच में ही माँ को रोकते हुए कहा माँ ठहरों जिस सेस्मिक जोंन  में दिल्ली  है उसी में आप का शहर भी है। चिंता न करिए।   माँ ने लगभग डांटते  हुए कहा “हमारा जी इतना घबरा रहा है ,और तुम्हे मजाक सूझ रहा है ,तुम्हे ज्यादा पता है या चैनल वालों  को.…  हम निरुत्तर हो गए हम बचपन में सुना चुटकुला याद आ गया “एक आदमी का परिक्षण कर रहे डॉक्टर ने नर्स से कहा ,ये मर चुका है तभी आदमी उठ कर बोला मैं जिन्दा हूँ ,मैं ज़िंदा हूँ , नर्स उसे टोंकते हुए बोली चुप राहों तुम्हें ज्यादा पता है या डॉक्टर को  “                                  खैर अब तो हमें  ख़बरों में रहने की आदत हो गयी है दूसरे शहर तकलीफे आपदाए झेते रहे ,…………पर.  खबर है तो दिल्ली की , …………  यहाँ हर आम घटना ,हर आम आदमी खबर का हिस्सा है चर्चा का विषय है इसीलिये यहाँ का हर आम आदमी ख़ास है।  और देखिये तो अब तो आम आदमी पार्टी भी चुनाव जीत कर ख़ास हो गयी है।  वंदना बाजपेयी