चलती ट्रेन में दौड़ती औरत

कुछ ही मिनट विलंब के कारण ट्रेन छूट गयी । कानोँ तक आवाज आई, पीरपैँती जानेवाली लोकल ट्रेन पाँच नंबर प्लेटफार्म पर खड़ी है । गणतव्य तक पहुँचने की नितांत आवश्यकता ने मतवाली गाड़ी के पीछे दौड़ लगाने को कहा । हाँफते हुए उस डब्बे के करीब पहुँचा जहाँ भीड़ कम दिखाई पड़ी । देखते ही आँखेँ झिलझिला गई, आदमी तो कम लेकिन बड़े गठ्ठर से लेकर छोटी बोड़िया की ढेर लगी हुई । किसी तरह अंदर प्रवेश किया । सीट पर तो दो–चार महिलाएँ ही बैठी हुई थीँ, ज्योँही उसकी नजर मुझपर पड़ी और सीट पर पसर कर बैठ गयी । कुछ देर यूँ ही टुकूर–टुकूर देखता रहा, भला कोई मर्द रहे तब तो अपने हिस्से की बात कही जाए । मन मेँ वेवकुफाना सोच भी उत्पन्न हुआ, ऐसा तो नहीँ महिला बोगी मेँ आ गया । एक महिला पास बैठी महिला से बोली, “बोयल दहो न आगु चैल जैतेय, यहाँ खड़ा–खड़ा टटुआय जैतेय।“ आपस मेँ खिलखिलाती हुई बोली, “आगु चैल जा न खालिये छैय…।“ बोल ही रही थी कि मुखर्जी आके बढ़ा, वहाँ भी जस–के–तस । समझ से परे हो चला । एक अधेर महिला ठिठोली मेँ मग्न थी । देखते ही बोली, कहाँ जाएगा , बैठ जाईये । थोड़ा–थोड़ा खिसक कर जगह बना दी । मुखर्जी भी बैठ गया, वही टुकूर–टुकूर वाला स्टाईल मेँ । अगला स्टेशन मेँ कल्याणपुर मेँ दो महिला आ धमकी । चाल–चलन, पहनावा–ओढ़ावा से थोड़ी पढ़ी–लिखी मालूम पड़ रही थी । हिम्मत नहीँ हुआ कि बोल पाऊँ बैठ जाईये । दोने खड़े–खड़े बातेँ करती जा रही थी । पास मेँ बैठी महिलाओँ मेँ एक बोली, “नरसिनिया होते – कहो आगु जाय ले…।“ दूसरी बोली, “अरे नाय–नाय ! यहाँ के नेतवा की कैल कैय नाय जाने छो, सब घसघरहनिया के हाथो मेँ कलमोँ थमाये देलकैय और ई सब देखैय नैय छो– एक कखनी मेँ बैगवा लटकाय के दौड़ा–दौड़ी करैत रहल छैय …।“ वह दोनोँ महिला अनसुनी करती हुई आगे बढ़ गई । ठीक बगल वाला सीट पर बैठ गई । कभी बुनाई की बात तो सिलाई की….। विद्यालय के बच्चोँ की शिकायत ट्रेन पर करती रही । एक शिक्षिका महोदया चर्चा छेड़ी, क्या बतावेँ दीदी, एक बार मैँ मुंबई गई थी, अपने मालिक के संग । वे पहले वहीँ काम करते थे । समय पर रुपया–पैसा भी नहीँ भेजते थे । मैँ भी घरनी बन आस लगाए ताकती रहती थी । कब डाक बाबू आवे ? रुपया–पैसा का टांट बना ही रहता था । सोची जब तक पुरुष को कसके नहीँ पकड़ा जाए तो, छुट्टा घोड़ा बन जाएगा । गाँव–गिराम मेँ भी सुनती आ रही थी, परदेश मेँ वे लोग बिगर जाते हैँ । बात भी सही है ।मैँ चली गई । वहाँ की हालात देखकर तो हँसी भी आती है और घूटन भी कम नहीँ । एक दिन बाजार घूमने निकली, देखकर तो मेरी आँखेँ चकरा गई। अधनंगी छोरी तो थी ही, मेरी मां की उम्र की भी महिला आधे कपड़े मेँ खुद को बेढ़ंग दिख रही थी। मेरे पति उस ओर दिखाकर कहने लगे। देखो, यही है शहर । तुमलोग खामखाह बदनाम करती रहती हो। “देख रही हो न!” मैँ कुछ नहीँ समझ पाई । झट से उसके आँखोँ पर हाथोँ से ढ़क दी और बोली , आप उधर मत देखिये । दूसरी महिला ठहाका मार कर हँसने लगी …..। अरे आप तो कमाल कर दिया, तब क्या हुआ ? आपको हँसी आती है ? मेरा तो प्राण ही निकला जा रहा था। घर मेँ तो वे कुछ समझते ही नहीँ थे। डर के मारे कुछ बोल भी नहीँ पाती थी। फिर भी हिम्मत करके बोली, आज के बाद इस रास्ते से नहीँ गुजरेँगे। वे हकचका कर बोले, तब तो ठीक है। गंधारी के तरह आँखोँ पर पट्टी बांध दो, तुम आगे–आगे और मैँ पीछे–पीछे चलता रहुँगा। कुटिल मुस्कान नारी मन मेँ बदबू भी उत्पन्न कर रही थी। पल भर के लिए मैँ उधेर बुन मेँ विचरण करने लगी। भला मैँ क्या करुँ? रास्ते भर चलती रही। जहाँ कहीँ अधोवस्त्र का दर्शन होता, मैँ उनके आँखोँ पर हाथ रख देती। आगे बढ़ती गई। बंबईया चकाचौंध से लड़ते हुए अपनी मरैया तक पहुँच गई जहाँ ढेर सारे बच्चोँ की भीड़ टुकड़े पुरजे से बने बसेरा जो क्षण भर मेँ गाँव की याद ताजा कर गई। सरकार तो हम महिलाओँ के लिए भगवान बन उतर आये, न तो भला नौकरी मिलती? कितना पढ़े–लिखे दिल्ली–ढ़ाका खाक छान रहा है। यहाँ भी लफुआ–लंगा बन चोरी–डकैती पर उतारु है, उससे तो हम भला हैँ। साथी महिला बोली, अभी कहाँ हैँ आपके —? अब भला मैँ साथ छोड़ूँ। वह कठमर्दवा भी आशा मेँ ही था, छोअन–भोजन साथ चले। मैँ भी सोची सोने पे सोहागा। अब तो बस दिनभर घर के काम मेँ इधर–उधर मंडराते रहता है। मैँ अपनी डयूटी मेँ मगन रहती हूँ। अचानक गाड़ी की सीटी बजी और आगे बढ़ गई। चिल्लाई, लो जी! तुम्हारे चक्कर मेँ गाड़ी भी खुल गई । क्षण मेँ चुप्पी ने अपना दबदबा बना दिया। चिँतित स्वर मेँ बुदबुदायी। ट्रेन भी कोई गाड़ी है, ऑटो से आती तो रुकवा कर उतर भी जाती, इसे कौन कहने वाला? इधर एक महिला ठहाके के साथ ताने दी, “हम्मे कहलियो नै कि घसगरहनी सब मास्टरनी बैन गेलैय– पढ़ल–लिखल रहैय तब नै नामो पैढ़के उतैर जाये। औकरा से अच्छा हमसब छियै, अगला स्टेशन कोन अयतैय पता छैय….।“ मुखर्जी चुप–चाप सुनता जा रहा था।धीरे–धीरे भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। डब्बे की यह हालात कि हर कोई चढ़ने वाले रिश्ते मेँ बंधे हो, मानो एक दूसरे से पारिवारिक संबंध हो। कोई संकोच नहीँ, आना और बैठ जाना। बातचीत भी जारी। पसीने से तरबतर एक महिला आई, अपने गट्ठर को उपरी सीट पर फेँक कुछ बोलना चाही तब तक मेँ मुखर्जी थोड़ा खिसक गया। वह बैठ गई। तभी पहले से बैठी महिला बोली, “आंय हे बरियारपुर वाली तोहर मर्दवा कारी माय संग फंसल छौ की…..।“ मैले कुचैले साड़ी का आंचल मेँ ही पसीना पोँछी और राहत की सांस ली। किसी तरह की सकुचाहट नहीँ, न ही घृणा। बोली, “आजो कल भतरा अपने क शेर समझी रहल छै। बिलाय नियर घौर मेँ बैठलो रहल और गुरकी देखायव मेँ आगु। अपने फुसुर–फुसुर कनचुसकिया मशीनमा से करैत रहल औअर घरनी पर … Read more

लो भैया ! हम भी बन गये साहित्यकार

कहते हैं की दिल की बात अगर बांटी न जाए तो दिल की बीमारी बन जाती है और हम दिल की बीमारी से बहुत डरते हैं ,लम्बी -छोटी ढेर सारी  गोलिया ,इंजेक्शन ,ई सी  जी ,टी ऍम टी और भी न जाने क्या क्या ऊपर से यमराज जी तो एकदम तैयार रहते हैं ईधर दिल जरा सा चूका उधर प्राण लपके ,जैसे यमराज न हुए विकेट  कीपर हो गए….. तो इसलिए आज हम अपने साहित्यकार बनने  का सच सबको बना ही देंगे।ईश्वर को हाज़िर नाजिर मान कर कहते है हम जो भी कहेंगे सच कहेंगे अब उसमें से कितना आपको सच मानना है कितन झूठ ये आप के ऊपर निर्भर है।                    बात पिछले साल की है ,हम नए -नए साठ  साल के हुए थे , सठियाना तो बनता ही था। बात ये हुई कि एक दिन चार घर छोड़ के रहने वाली मिन्नी की मम्मी आई ,उन्होंने हमें बताया की कि इस पुस्तक मेले में उनके काव्य संग्रह ( रात रोई सुबह तक ) का विमोचन है …. उन्होंने  इतनी  देर तक अपनी कवितायें सुनाई कि पूछिए  मत, ऊपर से एक प्रति हमारे लिए एक हमारे पति के लिए ,एक बेटे के लिए ,एक बहु के लिए उपहार स्वरुप दे गयी।इस उम्र में वो अचानक से  इतनी महान  बन गयी और हम हम अभी तक करछुल ही चला रहे हैं.हमारे अहंकार की इतनी दर्दनाक हत्या  तरह से हत्या हो गयी  कि खून भी नहीं निकला। हमें अपने जवानी के दिन याद आने लगे जब हम भी कविता लिखते थे। आह !क्या कविता होती थी।  क्लास के सब सहपाठी वाह -वाह करते नहीं अघाते थे ,वो तो घर -गृहस्थी में ऐसे उलझे कि … खैर आप भी मुलायजा  फरमाइए …… “तेरी याद में हम दो मिनट में ऐसे सूख गए जैसे जेठ की दोपहर में कपडे सूख जाते  हैं “ और जैसे दोपहर  के बाद शाम का मंजर नज़र आया हमें तेरे मिलने के बाद जुदाई का भय सताया                                             अब मोहल्ले की मीटिंगों  में  मिन्नी की मम्मी साहित्यकार कहलाये और हम.……… हमारे जैसी  प्रतिभाशाली नारी सिर्फ मुन्ना की मम्मी कहलाये ये बात हमें बिलकुल हज़म नहीं हुई। हमने आनन -फानन में मुन्ना को अल्टीमेटम दे दिया “मुन्ना अगले पुस्तक मेले में हमारी भी कविताओ की किताब आनी  चाहिए।हमने जान बूझ कर मुन्ना के बाबूजी से कुछ नहीं कहा ,क्योंकि इस उम्र तक आते -आते पति इतने अनुभवी हो जाते हैं कि उन पर पत्नी के साम -दाम ,दंड ,भेद कुछ भी काम नहीं करते। पर हमारे मुन्ना ने तो एक मिनट में इनकार कर दिया ” माँ कहाँ इन सब चक्करों में पड़ी हो। पर इस बार हमने भी हथियार नहीं डाले मुन्ना से कह दिया “देखो बेटा ,अगर तुम नहीं छपवा सकते हो तो हम खुद छपवा लेंगे ,पर हमने भी तय कर लिया है अपना काव्य संग्रह लाये बिना हम मरेंगे नहीं।हमारी इस घोषणा को बहु ने बहुत सीरियसली लिया ( पता नहीं सास कितना जीएगी )तुरंत मुन्ना के पास जा कर बोली देखिये ,आप चाहे मेरे जेवर बेंच दीजिये पर माँ का काव्य संग्रह अगले पुस्तक मेले तक आना ही चाहिए।                                                    काव्य संग्रह की तैयारी शुरू हो गयी एक प्रकाशक से बात हुई ,उसने रेट बता दिया ,बोला देखिये नए कवियों के काव्य संग्रह ज्यादा बिकते तो नहीं हैं ,आप उतनी ही प्रति छपवाईए जितनी बाँटनी हो। हमने घर आकर गिनना शुरू किया पहले नियर एंड डिअर फिर ,एक बिट्टू ,बिट्टू की मम्मी ,उसके पापा ,गाँव वाला ननकू , मिश्राइन चाची ,मंदिर के पंडित जी ,दूध वाला ………अरे काम वाली को कैसे भूल सकते हैं वो भले ही पढ़ न पाए पर चार घरों में चर्चा  तो जरूर करेगी  …………कुल मिला कर १०० लोग हुए ,उस दिन हमें अंदाजा लगा कि एक आम आदमी कितना आम होता है की उसे फ्री में देने के लिए भी १०० -१५० से ज्यादा लोग नहीं मिलते। खैर वो शुभ दिन भी आया जब हमारा काव्य संग्रह (घास का दिल ) छप  कर आया।  हमारा दिल ख़ुशी से हाई जम्प लगाने लगा।                                 हम अपने मित्रों ,रिश्तेदारों को लेकर पुस्तक मेले पहुचे। वहां पहुच कर पता चला कि अगर कोई बड़ा साहित्यकार विमोचन करे तो हम जल्दी महान  बन सकते हैं।  हमने लोगों से कुछ बड़े साहित्यकारों  के नाम पूंछे ,पता लगाने पर मालूम हुआ कि एक बड़े साहित्यकार पुस्तक मेले में आये हुए थे। बहु ने मोर्चा संभाला तुरंत उनके पास पहुची “सर मेरी सासु माँ की अंतिम ईक्षा है आप जैसे महान  व्यक्ति के हाथो उनके संग्रह का  विमोचन हो ,अगर आप कृपा करे तो मैं आपकी आभारी रहूंगी। एक खूबसूरत स्त्री का आग्रह तो ब्रह्मा भी न ठुकराए तो वो तो बस साहित्यकार थे।  तुरंत मंच पर आ गए ,एक के बाद एक पुस्तकों का विमोचन हो रहा था ,जिनका विमोचन चल रहा था वो मंच पर थे , नीचे नन्ही सी भीड़ में कुछ वो थे जिनका कुछ समय पहले विमोचन हुआ था ,वो बधाईयाँ व् पुस्तके समेत रहे थे ,कुछ वो थे जिनका अगला विमोचन था। हमारी भी पुस्तक का विमोचन। …………… लाइट ,कैमरा एक्शन ,कट की तर्ज़ पर हुआ। मिनटों में हम अरबों की जन्संसंख्या वाले भारत वर्ष में उन लाखों लोगो में शामिल हो गए जिनके काव्य संग्रह छप चुके  है।                                                    खुशी से हमारे पैर जमीन पर नही  पड  रहे थे ,अब मिन्नी की मम्मी ,चिंटू की दादी , दीपा की मौसी के सामने हमारी कितनी शान हो जाएगी। दूसरे दिन बहु  ने अपना फेस बुक प्रोफाइल खोला “हमारी तो ख़ुशी के मारे चीख निकल गयी बहु  ने हमारी विमोचन की पिक डाली थी ,५७ लोगों को टैग किया … Read more

स्टीफन हॉकिंग: हिम्मत वाले कभी हारते नहीं

महान वैज्ञानिक स्टीफन विलियम हाकिंग  का जन्म 8 जनवरी 1942 को हुआ था | एक सामान्य स्वस्थ बच्चे के रूप में जन्म लेंने वाले हाकिंग का जन्म का दिन खास था क्योंकि उसदिन महान  वैज्ञानिक गैलिलियो का भी जन्म हुआ था | शायद सितारों ने पहले ही उनकी विज्ञान के प्रति रुझान की  भविष्यवाणी कर दी थी | हॉकिंग अपने परिवार की सबसे बड़ी संतान थे | उनके परिवार में उनके पिता फरक जो की डॉक्टर थे , माँ  गृहणी व् पिता द्वारा गोद लिए गए दत्तक पुत्र व दो बहिने थीं | बचपन से वो मेधावी छात्र थे और हमेशा  क्लास में अव्वल आते रहे | उनकी बुद्धि से प्रभावित लोग बचपन से ही उन्हें आइन्स्टीन कह कर बुलाते थे | गणित  उनका प्रिय विषय था , और सितारों से बात करना उनका प्रिय शगल | वो बड़े हो कर अन्तरिक्ष और ब्रह्माण्ड के रहस्यों को जानना  चाहते थे | उनकी प्रतिभा और लगन काम आई मात्र 20 वर्ष की आयु में उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविध्यालय में कॉस्मोलोजी विषय में रिसर्च करने के लिए चुन लिया गया |   स्टीफन हॉकिंग :हिम्मतवाले कभी हारते नहीं                       २१ वर्ष की आयु तक हॉकिंग  भी सामान्य मेधावी बालक थे जिसकी आँखों में सैकड़ो सपने थे  एक दिन वो घटना घट गयी जिसने उन्हें एक अलग कैटेगिरी में धकेल दिया ।  जब वो 21 साल के थे तो एक बार छुट्टियाँ  मनाने के लिए अपने घर पर आये हुए थे , वो सीढ़ी से उतर रहे थे की तभी उन्हें बेहोशी का एहसास हुआ और वो तुरंत ही नीचे गिर पड़े।उन्हें डॉक्टर के पास ले जाया गया, शुरू में तो सब ने उसे मात्र एक कमजोरी के कारण हुई घटना मानी पर बार-बार ऐसा होने पर उन्हें विशेषग्य डॉक्टरर्स  के पास ले जाया गया , जहाँ ये पता लगा कि वो एक अनजान और कभी न ठीक होने वाली बीमारी से ग्रस्त है जिसका नाम है न्यूरॉन मोर्टार डीसीज।इस बीमारी में शारीर के सारे अंग धीरे धीरे काम करना बंद कर देते है,और अंत में श्वास नली भी बंद हो जाने से मरीज घुट घुट के मर जाता है।  डॉक्टरों ने कहा हॉकिंग बस 2 साल के मेहमान है। लेकिन हॉकिंग ने अपनी इच्छा शक्ति पर भरोसा था और उन्होंने कहा की मैं 2 नहीं २० नहीं पूरे ५० सालो तक जियूँगा । उस समय सबने उन्हें दिलासा देने के लिए हाँ में हाँ मिला दी थी, पर आज दुनिया जानती है की हॉकिंग ने जो कहा वो कर के दिखाया ।  अपनी इसी बीमारी के बीच में ही उन्होंने अपनी पीएचडीपूरी की और अपनी प्रेमिका जेन वाइल्ड से विवाह किया | विवाह के समय तक हाकिंग का दाहिना हिस्सा पूरी तरह से लकवाग्रस्त हो गया था और वे छड़ी के सहारे चलते थे |  जैसे -जैसे वो विज्ञानं के क्षेत्र में आगे बढ़ते जा रहे थे , उनकी बीमारी उनके शरीर को और घेरती जा रही थी | उनके शरीर का बायाँ हिस्सा भी मंद पड़ गया , पर शारीरिक अक्षमता उनका हौसला न रोक सकी और उन्होंने अपने अनुसन्धान जारी रखे | कुछ समय बाद उन्हें व्हील चेयर की जरूरत महसोस हुई | उन्हें तकनिकी रूप से सुसज्जित व्हील चेयर उपलब्द्ध करायी गयी | हॉकिंग मृत्यु को मात देते हुए अपना काम करते रहे | वो तीन बच्चों के पिता बने | वो शारीरिक रूप से अक्षम थे पर उन्होंने अपनी मानसिक शक्ति को पूरी तरह से अन्तरिक्ष के रहस्यों की खोज में लगा दिया | उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि इच्छा शक्ति से कुछ भी किया जा सकता है | 1995 में उनकी पहली पत्नी जेन ने उन्हें तलाक दे दिया| बाद में उन्होंने अपनी नर्स इलियाना मेसन से शादी की | जिससे उनका तलाक सन 2006 मैं हो गया | कहा जाता है कि जेन एक धार्मिक महिला थी और हॉकिंग ने अपने प्रयोगों से भगवान् के अस्तित्व को चुनौती दी थी | इस कारण बहुत से लोग उनसे खफा हुए थे| पर हॉकिंग ने उनकी परवाह नहीं की वो लगातार अपने प्रयोगों में आगे बढ़ते रहे, और अपनी मानसिक क्षमता से शारीरिक अक्षमता को जीत लिया | स्टीफन हाकिंग का योगदान –              स्टीफन हॉकिंग का आई क्यू १६० है जो जीनियस से भी ज्यादा है | दरअसल, जिस क्षेत्र में योगदान के लिए उनको याद किया जाता है, वह कॉस्मोलॉजी ही है। कॉस्मोलॉजी, जिसके अंतर्गत ब्रह्माण्ड  की उत्पत्ति, संरचना और स्पेस-टाइम रिलेशनशिप के बारे में अध्ययन किया जाता है। और इसीलिए उन्हें कॉस्मोलॉजी का विशेषज्ञ माना जाता है, जिसकी बदौलत वे थ्योरी ऑफ ‘बिग-बैंग और ‘ब्लैक होल्स की नई परिभाषा गढ़ पाने में कामयाब हो सके हैं। पढ़िए –महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग के २१ अनमोल विचार आइये जाने  दुनिया के महान वैज्ञानिक हॉकिंग से बात की बीबीसी संवाददाता टिम मफ़ेट ने। पछताने से अच्छा है वो करो जो कर सकते  हैं :- अपने जीवन पर बन रही इस फ़िल्म के बारे में पूछने पर हॉकिंग कहते हैं ”यह फ़िल्म विज्ञान पर केंद्रित है, और शारीरिक अक्षमता से जूझ रहे लोगों को एक उम्मीद जगाती है। 21 वर्ष की उम्र में डॉक्टरों ने मुझे बता दिया था कि मुझे मोटर न्यूरोन नामक लाइलाज बीमारी है और मेरे पास जीने के लिए सिर्फ दो या तीन साल हैं। इसमें शरीर की नसों पर लगातार हमला होता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इस बीमारी से लड़ने के बारे में मैने बहुत कुछ सीखा”। हॉकिंग का मानना है कि हमें वह सब करना चाहिए जो हम कर सकते हैं, लेकिन हमें उन चीजों के लिए पछताना नहीं चाहिए जो हमारे वश में नहीं है। किस उपलब्धि पर है सबसे ज्यादा गर्व :- हॉकिंग को अपनी कौन सी उपलब्धि पर सबसे ज्यादा गर्व है? हॉकिंग जवाब देते हैं ”मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है कि मैंने ब्रह्माण्ड को समझने में अपनी भूमिका निभाई। इसके रहस्य लोगों के लिए खोले और इस पर किए गए शोध में अपना योगदान दे पाया। मुझे गर्व होता है जब लोगों की भीड़ मेरे काम को जानना चाहती है। ” परिवार और दोस्तों के बिना कुछ नहीं‘ यह पूछने पर कि क्या अपनी शारीरिक अक्षमताओं की वजह से … Read more

प्रेम कविताओं का गुलदस्ता

                     प्रेम जितना सरल उतना कठिन ,जितना सूक्ष्म उतना विशाल ,जितना कोमल उतना जटिल। …. पर प्रेम के भावों से कोई अनछुआ नहीं ,प्रेम के लिए एक दिवस क्या एक जन्म भी काफी नहीं हैं। … तभी तो मान्यता है की प्रेमी  बार -बार जन्म लेते है ,ये कोई एक जन्म का खेल नहीं ………फिर भी हमारी भारतीय संस्कृति में वसंत ऋतु को प्रेम की ऋतु कहा गया है। ……… और क्यों न कहाँ जाए प्रकृति भी तो स्वेत  कफ़न हटा कर बदलती है सारी  करती है श्रृंगार ,तभी तो चारो और हर्ष उल्लास का वातावरण छा  जाता है  …………. ऐसे में अटूट बंधन परिवार अपने पाठकों के लिए लाया है-  विशेष तोहफा … एक गुलदस्ता प्रेम कविताओं का                                   बिहारी            प्रेम पर लिखे काव्य की बात होती है तो सबसे पहले बिहारी का नाम याद आता है संयोग और वियोग श्रृंगार दोनों पर उनकी कलम चली है कविवर बिहारी ने अपनी एकमात्र रचना सतसई (सात सौ दोहों का संकलन) अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह से प्रेरणा प्राप्त कर लिखी थी। प्रसिद्ध है कि महाराज ने उनके प्रत्येक दोहे के भावसौदर्य पर मुग्ध होकर एक -एक स्वर्ण मुद्रा भेट की थी।  संयोग का  उदाहरण देखिए – 1)बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय। सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय।। 2)कहत ,नटत,रीझत ,खीझत ,मिळत ,खिलत ,लजियात । भरे भौन में करत है,नैनन ही सों बात । वियोग का उदाहरण देखिये  वियोग  की आग से नायिका का शरीर इतना गर्म है कि उस पर डाला गया गुलाब जल बीच में ही सूख जाता है – औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात। बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात।। बिहारी का वियोग, वर्णन बड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण है। – इति आवत चली जात उत, चली, छसातक हाथ। चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ।।  कबीर दास –                              कबीर दस का प्रेम लौकिक न हो कर पारलौकिक था। आत्मा नायिका है परमात्मा नायक ……. पर प्रेम का सच्चा अनोखा वर्णन जो शुद्ध  है सात्विक है और वास्तव में प्रेम के सारे गूढ़  रहस्य खोलने में सक्षम। १ )प्रेम-गली अति सांकरी, तामें दो न समाहिं।    जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि है मैं नाहिं। २ )कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ।    अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ। ३ )पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।    ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय। ४ )अकथ कहानी प्रेम की, कछू कही न जाय।   गूंगे केरी सरकरा, खाइ और मुसकाय।  सूरदास –            कौन कह सकता है की सूरदास जन्मांध थे जहाँ उन्होंने कृष्ण के बाल रूप का सुन्दर वर्णन किया किया है वाही उनके कृष्ण प्रेम में डूबी गोपिकाओं और ऊधो के संवाद को भला कौन पाठक भूल सकता है। गोपिकाओं के प्रेम के आगे उधो का सारा ज्ञान बेकार है। …. उधो मन न भये दस -बीस कहती हुई गोपिकाओं के सरल , कोमल प्रेम भावो पर कौन न वारि – वारि जाये  तुलसी दास –                   तुलसी के आराध्य मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम भी प्रेम के इस कोमल भाव से अपरिचित नहीं है। ……… अपनी पत्नी अपनी प्रिया माँ  जानकी के प्रति एकनिष्ठ श्री राम उनके वियोग में तड़प उठते है , अपनी भावनाओं को पवनपुत्र हनुमान के माध्यम से माता जानकी तक पहुचाते हैं  सुन्दरकाण्ड में इसका बड़ा मार्मिक वर्णन है।  कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥ नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥ कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥ जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥ कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥ तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥ सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं॥ प्भु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥ मीरा बाई –                बात प्रेम की हो और प्रेम दीवानी मीरा का जिक्र न हो तो प्रेम कुछ अधूरा -अधूरा सा लगता है। कंहाँ की दीवानी मीरा ,एक तार उठा कर चल पड़ती है जोगन बन गली -गली ,नगर -नगर। अरे !जिसे प्रेम का धन मिल गया उसे और चाहिए भी क्या ?   मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई। जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।। छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई। संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई। अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई। दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।- भगत देखि राजी भइ, जगत देखि रोई। दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई। हज़रत अमीर खुसरो-                           अमीर खुसरो अपने पीर हजरत  निजामुद्दीन औलिया देहलवी के अनन्य भक्त थे | इन्होने अपने पीर के लिए कई सारी रचनाएँ लिखीं | जब हज़रात निजामुद्दीन औलिया इस दार-ए-फानी से बिदा हुए तो इन्होंने उनकी याद में ये मशहूर रचना लिखी |प्रेम का एक रूप यह भी है। …………जो ईश्वर  के लिए है आत्मा विरहणी है। … छटपटा रही है पिया बावरे से मिलने के लिए ,  जरा गौर करिये भावो में डूबिये कितनी सच्चाई है इस प्रेम में ,कितनी शुद्धता कितनी सात्विकता ..आह ! महादेवी वर्मा-                                प्रियतम का इंतजार कितना कठिन कितना दुष्कर होता है यह विरह का भोगी ही जान सकता है महादेवी के विरह गीतों को पढ़ कर बरबस आँखें छलक जाती है। प्रेम में पूरी तरह  निमग्न  ,प्रियतम के इंतज़ार से टूटी नायिका ही कह सकती है। ……………… जो तुम आ जाते एक बार.…………… पाठक सोच में पड़ जाता है आखिर कौन है इतना निष्ठुर ,क्यों नहीं आया ?  –                        जो तुम आ जाते एक बार  जो तुम आ जाते एक बार कितनी करूणा कितने संदेश … Read more

“वैलेन्टाइन दिवस” को” पारिवारिक एकता दिवस “के रूप में मनाये

संत वैलेन्टाइन को सच्ची श्रद्धाजंली देने के लिए 14 फरवरीको “वैलेन्टाइन दिवस” को” पारिवारिक एकता दिवस “के रूप में मनाये (1) ‘वैलेन्टाइन दिवस’ के वास्तविक, पवित्र एवं शुद्ध भावना को समझने की आवश्यकताः- संसार को ‘परिवार बसाने’ एवं ‘पारिवारिक एकता’ का संदेश देने वाले महान संत वैलेन्टाइन के ‘मृत्यु दिवस’ को आज भारतीय समाज में जिस ‘आधुनिक स्वरूप’ में स्वागत किया जा रहा है, उससे हमारी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता प्रभावित हो रही है। संत वैलेन्टाइन ने तो युवा सैनिकों को विवाह करके परिवार बसाने एवं पारिवारिक एकता की प्रेरणा दी थी। इस कारण अविवाहित युवा पीढ़ी का अपने प्रेम का इजहार करने का ‘वैलेन्टाइन डे’ से कोई लेना-देना ही नहीं है। आज वैलेन्टाइन डे के नाम पर समाज पर बढ़ती हुई अनैतिकता ने हमारे समक्ष काफी असमंज्स्य तथा सामाजिक पतन की स्थिति पैदा कर रखी है। (2) विवाह के पवित्र बन्धन को ‘वैलेन्टाइन दिवस’ पूरी तरह से स्वीकारता एवं मान्यता देता है:- ‘वैलेन्टाइन डे’ विवाह के पवित्र बन्धन को पूरी तरह से स्वीकारता एवं मान्यता देता है। आज महान संत वैलेन्टाइन की मूल, पवित्र एवं शुद्ध भावना को भुला दिए जाने के कारण यह महान दिवस मात्र युवक-युवतियों के बीच रोमांस के विकृत स्वरूप में देखने को मिल रहा है। वैलेन्टाइन डे को मनाने के पीछे की जो कहानी प्रचलित है उसके अनुसार रोमन शासक क्लाडियस (द्वितीय) किसी भी तरह अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह संसार की सबसे ताकतवर सेना को बनाने के लिए जी-जान से जुटा था। राजा के मन में स्वार्थपूर्ण विचार आया कि विवाहित व्यक्ति अच्छे सैनिक नहीं बन सकते हैं। इस स्वार्थपूर्ण विचार के आधार पर राजा ने तुरन्त राजाज्ञा जारी करके अपने राज्य के सैनिकों के शादी करने पर पाबंदी लगा दी। (3) महान संत वैलेन्टाइन के प्रति सच्ची श्रद्धा प्रकट करने के लिए मनाया जाता था ‘वैलेन्टाइन दिवस’:- रोम के एक चर्च के पादरी महान संत वैलेन्टाइन को सैनिकों के शादी करने पर पाबंदी लगाने संबंधी राजा का यह कानून ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध प्रतीत हुआ। कुछ समय बाद उन्होंने महसूस किया कि युवा सैनिक विवाह के अभाव में अपनी शारीरिक इच्छा की पूर्ति गलत ढंग से कर रहे हैं। सैनिकों को गलत रास्ते पर जाने से रोकने के लिए पादरी वैलेन्टाइन ने रात्रि में चर्च खोलकर सैनिकों को विवाह करने के लिए प्रेरित किया। सम्राट को जब यह पता चला तो उसने पादरी वैलेन्टाइन को गिरफ्तार कर माफी मांगने के लिए कहा अन्यथा राजाज्ञा का उल्लघंन करने के लिए मृत्यु दण्ड देने की धमकी दी। सम्राट की धमकी के आगे संत वैलेन्टाइन नहीं झुके और उन्होंने प्रभु निर्मित समाज को बचाने के लिए मृत्यु दण्ड को स्वीकार कर लिया। संत वैलेन्टाइन की मृत्यु के बाद लोगों ने उनके त्याग एवं बलिदान को महसूस करते हुए प्रतिवर्ष 14 फरवरी को उनके ‘शहीद दिवस’ पर उनकी दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थनायें आयोजित करना प्रारम्भ कर दिया। इसलिए ऐसे महान संत के ‘शहीद दिवस’ पर खुशियां मनाकर उनकी भावनाओं का निरादर करना सही नहीं है। (4) वैलेन्टाइन डे को ‘आधुनिक’ तरीके से मनाना भावी पीढ़ी के प्रति अपराध:- ‘वैलेन्टाइन डे’ मनाने को तेजी से प्रोत्साहित करने के पीछे ‘वैलेन्टाइन डे’ कार्डो एवं महंगे उपहारों की ब्रिकी के लिए एक बड़ा बाजार विकसित करना एवं मंहगे होटलों में डिनर के आयोजनों की प्रवृत्तियों को बढ़ाकर अनैतिक ढंग से अधिक से अधिक लाभ कमाने वाली शक्तियां इसके पीछे सक्रिय हैं। विज्ञापन के आज के युग में वैलेन्टाइन बाजार को भुनाने का अच्छा साधन माना जाता है। मल्टीनेशनल कंपनियां अपने उत्पादों को बेचने के लिए अपना बाजार बढ़ाना चाहती हैं और इसके लिए उन्हें युवाओं से बेहतर ग्राहक कहीं नहीं मिल सकता। अतः ‘वैलेन्टाइन डे’ आधुनिक तरीकांे से मनाने को प्रोत्साहित करना भावी पीढ़ी एवं मानवता के प्रति अपराध है। अन्तिम विश्लेषण यह साफ संकेत देते हैं कि ‘वैलेन्टाइन डे’ के आधुनिक स्वरूप का भारतीय समाज एवं छात्रों में किसी प्रकार का स्वागत नहीं होना चाहिए क्योंकि यह मात्र सस्ती प्रेम भावनाओं को प्रदर्शित करने की छूट कम उम्र में छात्रों को देकर उनकी अनैतिक वृत्ति को बढ़ावा देता है। (5) परिवार, स्कूल एवं समाज को ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित करें:- हम संत वैलेन्टाइन के इन विचारों का पूरी तरह से समर्थन करते हैं कि विवाह के बिना किसी स्त्री-पुरूष में अनैतिक संबंध होने से समाज में नैतिक मूल्यों में गिरावट आ जाएगी और समाज ही भ्रष्ट हो जाएगा। इस समस्या के समाधान का एक मात्र उपाय है, बच्चों को बचपन से ही भौतिक, सामाजिक, मानवीय तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार की संतुलित शिक्षा देकर उनका सर्वागीण विकास किया जाए। किसी भी बच्चे के लिए उसका परिवार, स्कूल तथा समाज ये तीन ऐसी पाठशालायें हैं जिनसे ही बालक अपने सम्पूर्ण जीवन को जीने की कला सीखता है। इसलिए यह जरूरी है कि परिवार, स्कूल तथा समाज को ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित किया जाये। एक स्वच्छ व स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए हमारा कर्तव्य है कि हम विश्व के बच्चों की सुरक्षा व शांति के लिए आवाज उठायें और पूरे विश्व के बच्चों तक संत वैलेन्टाइन के सही विचारों को पहुँचायें जिससे प्रत्येक बालक के हृदय में ईश्वर के प्रति, अपने माता-पिता के प्रति, भाई-बहनों के प्रति और समाज के प्रति भी पवित्र प्रेम की भावना बनी रहे। (6) परिवार, विद्यालय तथा समाज से मिली शिक्षा ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती हैः- किसी भी मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को तीन प्रकार के चरित्र निर्धारित करते हैं। पहला प्रभु प्रदत्त चरित्र, दूसरा माता-पिता के माध्यम से प्राप्त वांशिक चरित्र तथा तीसरा परिवार, स्कूल तथा समाज से मिले वातावरण से विकसित या अर्जित चरित्र। इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण चरित्र तीसरा अर्थात् ‘अर्जित चरित्र’ होता है। बालक को जिस प्रकार की शिक्षा परिवार, विद्यालय तथा समाज से मिलती है वैसा ही उसका चरित्र निर्मित हो जाता है। इसलिए आज संसार में बढ़ते अमानवीय कृत्य जैसे हत्या, बलात्कार, चोरी, भ्रष्टाचार, अन्याय आदि शैतानी सभ्यता इन्ही तीनों क्लासरूमों से मिल रही उद्देश्यविहीन शिक्षा के कारण ही है। (7) ‘वैलेन्टाइन डे’ को ‘पारिवारिक एकता दिवस’ के रूप में मनाने की प्रतिज्ञा लें:- आइये, वैलेन्टाइन डे पर हम सभी लोग यह प्रतिज्ञा ले कि हम अपने मस्तिष्क से भेदभाव हटाकर सारी मानवजाति … Read more

सिर्फ अहसास हूँ मैं…….. रूह से महसूस करो

फिर पद चाप  सुनाई पड़ रहे  वसंत ऋतु के आगमन के  जब वसुंधरा बदलेगी स्वेत साडी  करेगी श्रृंगार उल्लसित वातावरण में झूमने लगेंगे मदन -रति और अखिल विश्व करने लगेगा मादक नृत्य सजने लगेंगे बाजार अस्तित्व में आयेगे अदृश्य तराजू जो फिर से तोलने लगेंगे प्रेम जैसे विराट शब्द को उपहारों में अधिकार भाव में आकर्षण में भोग -विलास में और विश्व रहेगा अतृप्त का अतृप्त फिर सिसकेगी प्रेम की असली परिभाषा क्योकि जिसने उसे जान लिया उसके लिए हर मौसम वसंत का है जिसने नहीं जाना उसके लिए चार दिन के वसंत में भी क्या है ?                 मैं प्रेम हूँ ….. चौक गए …सच! मैं वहीं प्रेम हूँ जिसे तुम सदियों से ढूंढते आ रहे हो ,कितनी जगहों पर कितने रिश्तों में कितनी जड़ और चेतन वस्तुओं  में तुमने मुझे ढूँढने का प्रयास किया है…..यहाँ वहाँ इधर –उधर सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी मैं सदा तुम्हारे लिए एक अबूझ पहेली ही रहा जिसको तुम तरह –तरह से परिभाषित करते रहे और जितना परिभाषित करते रहे उतना उलझते रहे ये लुका –छिपी मुझे दरसल भाती  बहुत है मैं किसी  कमसिन अल्हड नायिका की तरह मुस्कुराता हूँ  जब तुम  मुझे पा के अतृप्त , भोग कर अभोगे ,जान कर अनजान रह जाते हो  …आश्चर्य  जितना तुम मुझे परिभाषाओं से बाँधने का प्रयास करते हो उतना ही मैं परिभाषा से रहित हो जाता हूँ क्योकि बंधन मुझे पसंद नहीं |मैं तुम्हारे हर रिश्ते में हूँ कहीं माता –पिता का प्यार ,कहीं बहन –भाई का स्नेह ,कहीं बच्चों की किलकारी तो कहीं पति –पत्नी का दाम्पत्य |इतने रिश्तों में होते हुए भी तुम अतृप्त हो क्यों ?उत्तर सरल है जब भी तुम किसी रिश्ते में अधिकार और वर्चस्व की भावना ले आते हो ,मेरा दम घुटने लगता है ,बस सतह पर अपना प्रतिबिम्ब छोड़ मैं निकल कर भाग जाता हूँ ,और सतह के जल से तुम तृप्त नहीं होते | फिर तुम मुझे प्रकृति में सिद्ध करते हो कि मैं झरनों  की झम –झम में नदियाँ की कल –कल में फूलों की खुश्बूँ में हूँ तो मैं पाषाण प्रतिमा में  प्रवेश कर साक्षात् ईश्वर बन जाता हूँ ,जब तुम  मुझे सुख –सुविधाओं में  सिद्ध करते हो तो मैं अलमस्त कबीर की फटी झोली बन जाता हूँ ….तुम हार नहीं मानते तुम मुझे देह को भोगते हुए देहातीत होने को सिद्ध करते हो |मैं फिर मुस्कुरा कर कहता हूँ अरे ! मैं तो वो राधा हूँ,जो प्रेम की सम्पूर्णता में  पुकारती है “आदि मैं न होती राधे –कृष्ण की रकार पे ,तो मेरी जान राधे –कृष्ण “आधे कृष्ण” रहते “ राधा  किसी दूसरे की पत्नी बच्चों की माँ , अपने कृष्ण हजारों मील दूर ,कहाँ है देह ?यहाँ तो देह का सानिध्य नहीं है ….राधा के लिए कृष्ण देह नहीं हैं अपतु राधा  के लिए कृष्ण के अतिरिक्त कोई दूसरी देह ही नहीं है ,न जड़ न चेतन |तभी तो जब एक चाकर ने  कृष्ण के परलोक पलायन का दुखद समाचार  राधा को दिया ,हे राधे कृष्ण चले गए … मुस्कुरा  कर कह उठी राधा “परिहास करता है ,कहाँ गए कृष्ण ,कहाँ जा सकते हैं वो तो कण –कण में हैं ,पत्ते –पत्ते  में हैं ,उनके अतिरिक्त कुछ है क्या ? राधा के लिए कृष्ण ,कृष्ण नहीं हैं ,अपितु कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ,स्वयं राधा भी राधा नहीं रहीं वो कृष्ण हो गयी …. सारे  भेद ही मिट गए…. लोक –काल से परे हो गया ,पूज्य हो गया ये प्रेम |  पर ठहरो नहीं, यहीं पर मत अटको अभी मेरे पिटारे में बताने को और भी बहुत कुछ है ….. मैं तुलसी का वो पत्ता हूँ जो कृष्ण के वजन से भी गुरु हो गया ,हाँ !उस कृष्ण के वजन से जिनके पलड़े को  सत्यभामा का अभिमान व् अहंकार मिश्रित प्रेम अपने व् सारे द्वारिका के स्वर्ण आभूषणों के भार  से जरा भी न झुका सका |                                         विज्ञान ने भी मुझे जानने  समझने की कोशिश की है…कभी कहता है मैं मष्तिष्क के हाइपोथेलेमस में हूँ तो कभी कहता है मैं मात्र एक रसायन हूँ ….मैं फिर मुस्कुरा उठता हूँ ….जनता हूँ विरोधाभास मेरा स्वाभाव है …. जितना गूंढ उतना सुलभ  , जितना सूक्ष्म उतना व्यापक, जितना जटिल उतना सरल …. तभी तो लेने में नहीं देने में बढ़ता हूँ ….. इतना कि व्यक्ति में क्या समष्टि में न समाये …. ज्ञानी जान न पाए मुझे पर कबीर गा उठते हैं “पोथी पढ़ी –पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय ,ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय “|ये ढाई अक्षर समझना ही तो दुष्कर है क्योंकि इसके बाद ज्ञान के सारे द्वार खुल जाते हैं ,आनद के सारे द्वार खुल जाते हैं |कितने विचारक तुम्हे मेरा अर्थ समझाने का प्रयास करते हैं …. पर मैं गूंगे का गुड हूँ जिसने जान लिया उसके लिए समझाना आसान नहीं ….  फिर भी प्रयास जारी रखे गए क्योंकि जिसने पा लिया उसने जान लिया प्रेम को पाना मतलब आनंद को पाना उसे बांटने में आनन्द आने लगा …. अरे ! मैं ही तो वो प्याला हूँ जो एक बार भर जाए तो छलकता रहता है युगों –युगों तक कभी रिक्त नहीं होता |रिश्तों के बंधन हैं मर्यादाएं पर मैं कोई बंधन नहीं मानता …. अपने शुद्ध रूप में जो सात्विक है मैं सबके लिए एक सामान हूँ रिश्तों –नातों के लिए ही नहीं समस्त सृष्टि के लिए |कभी अनुभव किये हैं अपने आंसूं ,सुख के मीठे से ,दुःख के जहरीले ,कडवे से और तीसरे स्नेह के ,कुछ अबूझ से जो आत्मा को तृप्त करते हैं एक विचित्र सा आनंद प्रदान करते हैं जैसे किसी ने आत्मा को छू  लिया है…. क्योकि यहाँ सिर्फ देना ही देना है लेने की भावना नहीं |मेरे इस शुद्ध  सात्विक रूप को ही ऋषि मुनियों ने जाना है ,आनंद का अनुभव किया है  किसी ने तुम्हे यह कह कर  समझाने का प्रयास  किया है सबमें स्वयं को देखो तभी परस्पर झगडे –फसाद ,सीमाओं को तोड़ कर मुझे पा सकोगे |तो किसी ने यह कह कर समझाने का प्रयास किया है अपने अन्दर गहरे उतरो ,सबको खुद में देखो …उस बूँद की तरह जो सागर का हिस्सा भी है ,और स्वयं सागर भी …. क्योकि असली … Read more

गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें

अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस गिरीश चन्द्र पाण्डेय जी की कवितायें मैं तक सीमित नहीं हैं उनकी  कवितायों में सामाजिक भेद भाव के प्रति गहरी संवेदनाएं हैं ….. कवि मन कई अनसुलझे   सवालों के उत्तर चाहता है …. कहीं निराश होता है कहीं आशा का दामन थामता है…. आज के सन्दर्भ में स्त्री मुक्ति आन्दोलन है उसे वो भ्रमित करने वाला बताते हैं ….भ्रम में दोनों हैं स्त्री भी ,पुरुष भी  ………. कही बुजुर्ग माता -पिता की विवशता दिखाती हैं …. कुल मिला कर गिरीश जी की कवितायें अनेकों प्रश्न उठाती हैं और  हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं  गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें                           ●●असमान रेखाएँ●● एक रेखा खींची है हमने अपने मनोमस्तिष्क में नाप लिया है हमने इंच दर इंच अपने पैमाने से क्या नापा और कैसे नापा हमने ये बताना मुश्किल है अगम ही नहीं अगोचर भी है वो रेखा जो खिंच चुकी है हजारों वर्ष पहले उसको मिटाने की जद्दो जहद आज कल खूब चल रही है बड़े बड़े लोग उनकी बड़ी बड़ी बातें पर काम वही छोटे सोच वही संकीर्णता के दल-दल में फँसी और धँसी हुई रेखा जस की तस और गहरी और विभत्स होती हुई और लम्बाई लेते हुए दीवार को गिराना आसान है पर दिलों में पड़ी दरार को पाटना बहुत मुश्किल जातियों वर्गों के बीच की काली रेखाएं अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस अपनी जगह पर हाँ कुछ वर्षौ से एक छटपटाहट देखी गयी है रेखा के आर-पार मिटाने की कवायद जारी है वर्षौ से खिंची रेखा को मिटाने लगेंगे वर्षौ ये कोई गणित के अध्यापक की रेखागणित नहीं जिसे जब चाहो वर्ग बनालो जब चाहो आयत बना लो जब कब चाओ त्रिभुज बनालो जब चाहो वृत बनालो ये तो अदृश्य है समाज के इस छोर से उस छोर तक अविकसित से विकसित तक हर जगह व्याप्ति है इसकी ये रेखाएं जल,जमीन,जंगल सब जगह इसको मिटाना ही होगा हम सबको अपने दिलों से दिमाग से समाज से आओ सब मिल संकल्प लें इस नये वर्ष में दूरियाँ कुछ कम करें                                              ●गत को भूल स्वागत है तेरा● मुश्किल है समेटना हर पल विपल को और उस बीते हुए कल को घड़ी की सुई ही दे सकती है हिसाब और परिभाषित कर सकती है हर क्षण को मुझमें तो क्षमता है नहीं कि में लिख सकूँ उन अँधेरी रातों की आहट जिन्दगी की छटपटाहट ख्वाबों से लड़ता नौजवान इंसान को काटता इन्सान कैसे लिखूँ उस विभीषिका को जिसने लूट लिया उस विश्वास को जो था उस परम आत्मा पर उस इन्सान को इन्सान कह पाना मुश्किल है जिसने हैवानियत की हद पार कर दी हो कैसे बांचा जा सकता है सत्ता के गलियारों का स्याह पहलु कौन उकेर पायेगा उस माँ का दर्द जिसने खो दिया हो अपने लाल को और अपने सुहाग को कैसे पिघलेगा मोम सा दिल जब रौंद दिया गया हो दिल के हर कोने को बना दिया गया हो नम आंखों को सूखा रेगिस्तान कैसे होगा संगम दिलों का,सीमाओं का,जातियों का उन भावों को जो सरस्वती सी लुप्त हो चुकी नदि से हैं बहुत कुछ चीख रहा है उन पाहनों के नीचे दबा कुचला बचपन सिसक रही हैं आत्माएं अनगिनत दुराचारों की काल कोठरियों में कैसे कहूँ की में शिक्षित हो गया हूँ अभी भी अशिक्ष असंख्य मस्तिष्क हैं यहाँ डिग्रियां छप रहीं है होटलों के कमरों में बिक रहा है ईमान कौड़ी के मोल कैसे परिभाषित करूँ खुद को एक पुरुष के रूप में एक मानव के चोले में बहुत कुछ लुट चूका है वजूद भाग रहा हूँ पैसों की अंधी दौड़ में न जाने क्या पा जाऊंगा और कितनी देर के लिए कुछ पता नहीं है कुर्सी महंगी ही नहीं मौत का आसन भी है फिर भी दौड़ रहा हूँ खाई की तरफ दौड़ रहा हूँ मरुस्थल की ओर जानता हु ये मृगमरीचिका है फिर भी दौड़ रहा हूँ बुला रहा हूँ सामने खडी मौत को कैसे लिखूं उस सुबह को जिसने मुझे जगाने का प्रयास किया उस हर किरण को जिसने तमस को दूर किया उस उर्जा के पुंज को जिसने एक नव ऊर्जा का संचार किया ओह उस भविष्य को पकड नहीं सकता जो मेरे कदम से एक कदम आगे है बस उसके पीछे चल रहा हूँ रास्ते के हर मोड़ को जीते हुए जरा सम्हाल कर जरा सम्हल कर चलना है इंतजार है उस सुबह का जो एक नए उत्साह को लायेगी जिसके सहारे वक्त को जी पाऊंगा वक्त पर जो थोडा मुश्किल होगा पर ना मुमकिन नहीं                                                  ●नदी से भाव● बह रही थी नदीपाहनों से टकराते हुए,छलकते हुएकुछ ऐसे ही थे मेरे भावजो टकरा रहे थेउन बिडंबनाओं सेउन रुढियों सेजो मुझे मानव होने से रोकती हैंदेखता हूँ इस नदी की गतीजो बह रही हैअपनी चाल परपर कुछ किनारे बदल रहे थेउसकी ढालमजबूर कर रहे थेरास्ता बदलने कोजैसे मुझसे कोई कह देतेरा रास्ता तू नहींकोई और बनाएगानदी चली जा रही है।बिना किसी की परवाह करेअगले पड़ाव को पार करने की होड़हर जल बिंदु मचल रही हो जैसेसागर में समा जाने को।उस सागर मेंजहां उसका अस्तित्व ,ना के बराबर होगा।फिर भी चाहिए उसे मंजिलअपने को समर्पित कर देनाआसान नहीं हैमेरे लिए तो बिल्कुल नहींनदी का वेग बढ़ता चला गयाज्यो ज्यों घाटी नजदीक आने लगीकुछ यों ही मेरे भाव भी उतावले थेउस समतल को पाने के लिएजहाँ सब समान होंजहाँ कोई … Read more

तौबा इस संसार में …… भांति- भांति के प्रेम

                    वसन्त ऋतु तो अपनी दस्तक दे चुकी है , वातावरण खुशनुमा है ,पीली सरसों से खेत भर गए है, कोयले कूक रहीं हैं पूरा वातावरण सुगन्धित और मादक हो गया है ….उस पर १४ फरवरी भी आने वाली है …. जोश खरोश पूरे जोर –शोर पर है ,सभी बच्चे बच्चियाँ ,नव युवक –युवतियाँ नव प्रौढ़ –प्रौढ़ाये ,बाज़ार ,टी .वी चैनल ,पत्र –पत्रिकाएँ आदि –आदि प्रेम प्रेम चिल्लाने में मगन हैं | हमारे मन में यह जानने  की तीव्र इक्षा हो रही है कि ये प्रेम आखिर कितने प्रकार होते  है ,दरसल जब हम १७ ,१८ के हुए तभी चोटी पकड़ कर मंडप में बिठा दिए गए …. बाई गॉड की कसम जब तक समझते कि प्रेम क्या है तब तक नन्हे बबलू के पोतड़े बदलने के दिन आ गए फिर तो बेलन और प्रेम साथ –साथ चलता रहा ….( समझदार को ईशारा काफी है ) हां तो मुद्दे की बात यह है  रोमांटिक  फिल्मे देख –देख कर और प्रेम –प्रेम सुन कर हमारे कान पक गए हैं और हमने सोचा की मरने से पहले हम भी जान ले की ये प्रेम आखिर कितने प्रकार का  होता है इसीलिए अपना आधुनिक इकतारा (  मोबाइल )उठा कर निकल पड़े सड़क पर (आखिर साठ  की उम्र में सठियाना तो बनता ही है) |सड़कों पर हमें तरह –तरह के प्रेम देखने को मिले ,प्रेम के यह अनेकों रंग हमें मोबाईल की बदलती रिंग टोन  की तरह कंफ्यूज करने वाले लगे …. सब वैसे का वैसा आप के सामने परोस रही हूँ ……………… १ )छुपाना भी नहीं आता ,जताना भी नहीं आता  :–                                        ये थोडा शर्मीले किस्म का प्रेम होता है इसमें प्रेमी ,प्रेमिका प्यार तो करते पर इजहार करने में कतराते हैं पहले आप ,पहले आप की लखनवी गाडी में सवारी करने की कोशिश में अक्सर वो प्लेटफार्म पर ही रह जाते हैं |ये तो बिहारी के नायक –नायिका से भी ज्यादा कच्चे दिल के होते हैं “जो कम से कम भरे भवन में नैनों से तो बात कर लेते थे “खैर आपको ज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं है ….आजकल ऐसा प्रेम ढूढना दुलभ है आप चाहे तो www.google.प्रेम आर्काइव पर जा कर इसके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं | २ )हमारे सिवा तुम्हारे और कितने दीवाने हैं :-                       ये कुछ ज्यादा समझदार  वाले प्रेमी /प्रेमिका होते हैं …  इनको इस बात की इतनी खबर  रहती है कि भगवन न करे कोई दिन ऐसा आजाये की इन्हें बिना पार्टनर के रहना पड़े  इसलिए ये सेफ गेम खलने में विश्वास करते हैं …. इनकी इन्वोल्वमेंट  इक साथ कई के साथ रहती है तू नहीं तो तू सही  की तर्ज पर |इसके लिए ये काफी मेहनत  भी करते हैं इनके खर्चे भी बढ़ जाते हैं …. पर अपनी घबराहट दूर करने के लिए ये हर जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं |पर बहुधा इनके मोबाईल व् खर्चों के बिल देखकर इनके माता –पिता का दिल साथ देना छोड़ देता  है |सुलभ दैनिक द्वारा कराये गए सर्वे के अनुसार युवा बच्चों के माता –पिता को हार्ट अटैक आने का कारण अक्सर यही पाया गया है | ३ )तुम्हारा चाहने वाला खुदा की दुनियाँ में मेरे सिवा भी कोई और हो खुदा न करे :-                                 ये थोडा पजेसिव टाइप के होते हैं “अग्निसाक्षी के नाना पाटेकर की तरह “इन्हें बिलकुल भी बर्दास्त  नहीं होता कि उनके साथी को कोई दूसरा पसंद करे … इन्हें दोस्त तो दोस्त माता –पिता भाई –बहन भी अखरते हैं किसी ने भी अगर साथी की जरा सी भी तारीफ कर दी तो हो गए आग –बबूला और शुरू हो गयी ढिशुम –ढिशुम |ये अपने साथी को डिब्बे में बंद करने में यकीन करते हैं ,सुविधानुसार निकाला ,प्रेम –व्रेम किया वापस फिर डब्बे में बंद |अफ़सोस यह है कि इतना प्यार करने के बाद भी इन प्रेम कहानियों का अंत ,हत्या ,आत्महत्या या अलगाव से ही होता है ४ )मिलो न तुम तो हम घबराए :-                     ये थोडा शक्की किस्म का प्रेम होता है |इसमें बार –बार मोबाइल से फोन कर इनफार्मेशन ली जाती है अब कहाँ हो ,अब कहाँ हो ?मिलने पर कपडे चेक किये जाते हैं कपड़ों पर पाए जाने वाले बाल ,बालों की लम्बाई उनका द्रव्यमान ,घनत्व आदि शोध के विषय होते हैं …. तकरार ,मनुहार और  प्यार इसका मुख्य हिस्सा होते हैं ,साथ ही साथ इस प्रकार प्रेम करने वाले इंटेलिजेंट  भी होते हैं कभी –कभी अपने साथी पर नज़र रखने के लिए अपनी सहेलियों ,दोस्तों आदि का सहारा भी लेता हैं आजकल तमाम जासूसी संस्थाएं यह सेवा उपलब्ध  करा रही हैं ………जैसे महानगर साथी जासूसी निगम  आदि कुछ मोबाइल कम्पनियां साल में दो बार जासूसी करवाने पर तीसरी सेवा मुफ्त देती हैं                           ५ )जो मैं कहूंगा करेगी …. राईट :-                           ये थोडा डिक्टेटर टाइप के होते हैं |इन्हें लगता है की ये सही हैं और अगला गलत ,इनसे कितनी भी बहस कर लो अंत में अपनी ही बात मनवा लेते हैं ,उस पर तुर्रा यह कि कहते हैं कि प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ है |प्रेमी –प्रेमिका का रिश्ता बिलकुल ग्रेगर जॉन  मेंडल (पहला नियम ) की पीज (मटर ) की तरह डोमिनेंट व् रेसिसिव की तरह चलता है और खुदा न खास्ता इनकी शादी करवा दी जाए तो इनके बच्चे भी ३ :१ के अनुपात में डोमिनेंट व् दब्बू पाए जाते हैं | ६ )खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों :                            यह नए ज़माने का प्यार आजकल बहुतायत से पाया जाता है |महानगरों में पार्कों ,सडको के किनारे ,माल्स ,रेस्त्रों आदि में आप यह आम नज़ारा देख सकते है |आप की वहां से गुजरते समय भले शर्म  से आँखें झुक जाए पर यह निर्भीक  युगल अपने सार्वजानिक  प्रेम प्रदर्शन में व्यस्त ही रहते हैं | वैधानिक चेतावनी :ऐसे प्रेमी युगलों को देख कर पुराने ज़माने के बुजुर्गों की सचेत करने वाली खांसी की तरह खासने का प्रयास न करे ….. ईश्वर गवाह है खांसते –खांसते टेटुआ बाहर निकल आएगा पर इनकी कान पर जूं भी न रेंगेगा | ७ )ना उम्र की सीमा हो ना … Read more

गणतंत्र दिवस पर विशेष – भारत की गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ाना होगा

गणतन्त्र दिवस यानी की पूर्ण स्वराज्य दिवस ये केवल एक दिन याद की जाने वाली देश भक्ति नही है बल्कि अपने देश के गौरव ,गरिमा की रक्षा के लिए मर  मिटने की उद्दात भावना है | राष्ट्र हित में मर मिटने वाले देश भक्तों से भारत का इतिहास भरा पड़ा है अपने राष्ट्र से प्रेम होना सहज-स्वाभाविक है। देश का चाहे राजनेता हो योगी हो सन्यासी हो रंक से लेकर रजा तक का सबसे पहला धर्म रास्त्र की रक्षा के लिए अपने प्राणों को आहूत करने के लिए तत्पर रहना ही है | देशप्रेम से जुड़ी असंख्य कथाएं इतिहास के पन्नों में दर्ज है। भारत जैसे विशाल देश में इसके असंख्य उदाहरण दृषिटगोचर होते हैं।  जानिये गौरवशाली राष्ट्र का गौरवशाली गणतांत्रिक इतिहास हम अपने इतिहास के पन्नों में झांक कर देखें तो प्राचीन काल से ही अनेक वीर योद्धा हुए जिन्होंने भारतभूमि की रक्षा हेतु अपने प्राण तक को न्योछावर कर दिए। पृथ्वीराज चौहाण, महाराणा प्रताप, टीपू सुल्तान, बाजीराव,झांसी की रानी लक्ष्मीबार्इ, वीर कुंवर सिंह, नाना साहेब, तांत्या टोपे, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरू, खुदीराम बोस, सुभाषचंद्रबोस, सरदार बल्लभ भार्इ पटेल, रामप्रसाद विसिमल जैसे असंख्य वीरों के योगदान को हम कभी नहीं भूल सकते। इन्होंने मातृभूमि की रक्षा हेतु हंसते-हंसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए। विदेशियों को देश  से दूर रखने और फिर स्वतंत्रता हासिल करने में इनका अभिन्न योगदान रहा। आज हम स्वतंत्र परिवेश में रह रहे हैं। आजादी ही हवा में हम सांस ले रहे हैं, यह सब संभव हो पाया है अनगिनत क्रांतिकारियों और देशप्रेमियों के योगदान के फलस्वरूप। लेखकों और कवियों, गीतकारों आदि के माध्यम से समाज में देशप्रेम की भावना को प्रफुल्लित करने का अनवरत प्रयास किया जाता है।रामचरित मानस में राम जी जब वनवास को निकले तो अपने साथ अपने देश की मिट्टी को लेकर गये जिसकी वो नित्य प्रति पूजा करते थे | राष्ट्रप्रेम की भावना इतनी उदात और व्यापक है कि राष्ट्रप्रेमी समय आने पर प्राणों की बलि देकर भी अपने राष्ट्र की रक्षा करता है। महर्षि दधीचि की त्याग-गाथा कौन नहीं जानता, जिन्होंने समाज के कल्याण के लिए अपनी हड्डियों तक का दान दे दिया था। सिख गुरूओं का इतिहास राष्ट्र की बलिवेदी पर कुर्बान होने वाली शमाओं से ही बना है। गुरू गोविंद सिंह के बच्चों को जिंदा दीवारों में चिनवा दिया गया। उनके पिता को भी दिल्ली के शीशगंज गुरूद्वारे के स्थान पर बलिदान कर दिया गया। उनके चारों बच्चें जब देश-प्रेम की ज्वाला पर होम हो गए तो उन्होंने यही कहा-चार गए तो क्या हुआ, जब जीवित कई हज़ार।ऐसे देशप्रेमियों के लिए हमारी भावनाओं को माखनलाल चतुर्वेदी ने पुष्प के माध्यम से व्यक्त किया है– मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक,मातृभूमि पर शीश चढ़ने, जिस पथ जाएँ वीर अनेक। देश  प्रति हमारा स्वाभाविक कर्तव्य जिस मिट्टी का हम अन्न खाते हैं, उसके प्रति हमारा स्वाभाविक कर्तव्य हो जाता है कि हम उसकी आन-बान-मान की रक्षा करें। उसके लिए चाहें हमें अपना सर्वस्व भी लुटाना पड़े तो लुटा दें। सच्चे प्रेमी का यही कर्तव्य है कि वह बलिदान के अवसर पर सोच-विचार न करे, मन में लाभ-हानि का विचार न लाए, अपितु प्रभु-इच्छा मानकर कुर्बान हो जाए।  सच्चा देशभक्त वही है, जो देश के लिए जिए और उसी के लिए मरे। ‘देश के लिए मरना‘ उतनी बड़ी बात नहीं, जितनी कि ‘देश के लिए जीना‘। एक दिन आवेश, जोश और उत्साह की आँधी में बहकर कुर्बान हो जाना फिर भी सरल है, क्योंकि उसके दोनों हाथों में लाभ है। मरने पर यश की कमाई और मरते वक्त देश-प्रेम का नशा। किंतु जब देश के लिए क्षण-क्षण, तिल-तिल कर जलना पड़ता है, अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं की नित्य बलि देनी पड़ती है, रोज़-रोज़ भग़तसिंह बनना पड़ता है, तब यह मार्ग बहुत कठिन हो जाता है।   आज का युवा चाहे तो क्या नही क्र सकता परन्तु पश्चिम की बयार में खोया हुआ युवा अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन नज़र आता है |आज दुर्भाग्य से व्यक्ति इतना आत्मकेंद्रित हो गया है कि वह चाहता है कि सारा राष्ट्र मिलकर उसकी सेवा में जुट जाए। ‘पूरा वेतन, आधा काम‘ उसका नारा बन गया है। आज देश में किसी को यह परवाह नहीं है कि उसके किसी कर्म का सारे देश के हित पर क्या प्रभाव पड़ेगा। हर व्यक्ति अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगा हुआ है  यही कारण है कि भारतवर्ष नित्य समस्याओं के अजगरों से घिरता चला जा रहा हैं। जब तक हम भारतवासी यह संकल्प नहीं लेते कि हम देश के विकास में अपना सर्वस्व लगा देंगे, तब तक देश का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता, और जब तक देश का विकास नहीं होता, तब तक व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता। अतः हमें मिलकर यही निश्य करना चाहिए कि आओ, हम राष्ट्र के लिए जियें।  हमारा देश भारत अत्यन्त महान् एवं सुन्दर है यह देश इतना पावन एवं गौरवमय है कि यहाँ देवता भी जन्म लेने को लालायित रहते हैं। विश्व मव इतना गौरवशाली इतिहास किसी देश का नही मिलता जितना की भारत का है हमारी यह जन्मभूमी स्वर्ग से भी बढ़कर है। कहा गया है – ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी‘ अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। हमारे देश का नाम भारत है, जो महाराज दुष्यंत एवं शकुंतला के प्रतापि पुत्र ‘भरत‘ के नाम पर रखा गया। पहले इसे ‘आर्यावर्त‘ कहा जाता था। इस देश में राम, कृष्ण, महात्मा बुद्ध, वर्धमान महावीर आदि महापुरूषों ने जन्म लिया। इस देश में अशोक जैसे प्रतापी सम्राट भी हुए हैं। इस देश के स्वतंत्रता संग्राम में लाखों वीर जवानों ने लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरोजिनी नयाडू आदि से कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। हिमालय हमारे देश का सशक्त प्रहरी है, तो हिन्द महासागर इस भारतमाता के चरणों को निरंतर धोता रहता है। हमारा यह विशाल देश उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पुर्व में असम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ है। इस देश की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कवि रामनरेश त्रिपाठी लिखते हैं-”शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनके दिव्य देश का मस्तक। गूँज रही हैं सकल दिशाएँ, जिनके जयगीतों से अब तक।”हमारे देश में ‘विभिन्नता में एकता‘ की भावना निहित है। … Read more