ये ख़ुशी आखिर छिपी है कहाँ

कौन है जो खुश नहीं रहना चाहता, पर हम जितना ख़ुशी के पास जाने की कोशिश करते हैं वो उतना ही दूर भाग जाती है | तो क्या ऐसे में मन नहीं करता कि ये जाने ” ये ख़ुशी आखिर छिपी कहाँ है?                                        ———————————————————————— गुडियाँ हम से रूठी रहोगी  कब तक न हंसोगी  देखोजी किरण सी लहराई  आई रे आई रे  हंसी आई                                  आज पुरानी  फिल्म का ये गाना याद आ रहा है|  गाने की शुरुआत में गुड़ियाँ रूठी होती है पर अंत तक खुश हो कर हंसने लगती है …आखिर कोई कितनी देर नाराज या दुखी रह सकता है  दरसल  खुश  रहना  मनुष्य  का जन्मजात  स्वाभाव  होता  है, आखिर  एक  छोटा  बच्चा  अक्सर  खुश  क्यों  रहता  है ? बिलकुल अपने में मस्त ,बस भूख ,प्यास के लिए थोडा रोया ,कुनकुनाया फिर  हँसने खेलने में मगन।  क्यों  हम  कहते  हैं  कि   “बचपन के दिन भी क्या दिन थे “…बचपन  राजमहल में बीते या झोपड़े में वो इंसान की जिंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा होता है।  खुश रहना मनुष्य का जन्मगत स्वाभाव होता है |  जैसे -जैसे  हम  बड़े  होते  हैं  हमारा  समाज ,हमारा ,वातावरण हमारे अन्दर विकृतियाँ बढाने लगता हैं ,और हम अपनी सदा खुश रहने की आदत भूल जाते हैं और तो और हममे से कई सदा दुखी रहने का रोग पाल लेते हैं ,जीवन बस काटने के लिए जिया जाने लगता है.पर कुछ लोग अपनी प्राकृतिक विरासत बचाए रखते हैं ,और सदा खुश रहते हैं| प्रश्न उठता है क्या उनको विधाता ने अलग मिटटी से बनाया है ,या पिछले जन्म के कर्मों की वजह से उनके जीवन में कोई दुःख आया ही नहीं है। उत्तर आसन है …  नहीं , औरों  की  तरह  उनके  जीवन  में  भी  दुःख-सुख  का  आना  जाना  लगा  रहता  है ,  पर  आम तौर  पर  ऐसे  व्यक्ति  व्यर्थ की   चिंता  में  नहीं  पड़ते और  अक्सर  हँसते -मुस्कुराते  और  खुश  रहते  हैं | तो  सवाल  ये  उठता  है  कि  जब  ये  लोग  खुश  रह  सकते  हैं  तो बाकी  सब  क्यों  नहीं ?आखिर उनकी ऐसी कौन सी आदतें हैं जो  उन्हें दुनिया भर की चिंताओं से मुक्त रखती है और दुःख -दर्द  के बीच भी खुशहाल बनाये रखती हैं ? आज  इस  लेख  के  जरिये  मैं  आपके  साथ  खुशहाल लोगों की कुछ  आदतें बताने जा रही हूँ  जो  शायद  आपको  भी  खुश  रहने  में  मदद  करें .तो  आइये  जानते  हैं उन ख़ास  आदतों को :  ख़ुशी का फार्मूला न. 1-जो है सब अच्छा है                                           बड़ी मामूली सी बात है पर है बहुत  उपयोगी|  हम अक्सर अपने आस -पास के लोगों की बुराइयां खोजते हैं। हमने तो इतना किया था पर उसने तो मेरे साथ ये तक नहीं किया , हमने तो उसके सारे  अपशब्द बर्दाश्त कर लिए पर वो तो एक बात में ही बुरा मान कर चला गया आदि -आदि मनोवैज्ञानिक इसे “नकारात्मक पूर्वधारणा “भी कहते  हैं | अधिकतर  लोग  दूसरों  में  जो कमी  होती  है  उसे  जल्दी देख  लेते  हैं  और  अच्छाई  की  तरफ  उतना  ध्यान  नहीं  देते  पर  खुश  रहने  वाले  तो  हर एक चीज  में , हर एक  परिस्थिति  में  अच्छाई  खोजते  हैं , वो  ये  मानते  हैं  कि  जो  होता  है  अच्छा  होता  है .  किसी  भी  व्यक्ति  में  अच्छाई  देखना  बहुत  आसान  है ,बस  आपको  खुद  से  एक  प्रश्न  करना  है , कि , “ आखिर  क्यों  यह  व्यक्ति  अच्छा  है ?” , और  यकीन  जानिये  आपका  मस्तिष्क  आपको  ऐसी  कई  अनुभव और  बातें  गिना  देगा  की  आप  उस  व्यक्ति  में  अच्छाई  दिखने  लगेगी |यहाँ पर ध्यान देने की ब  बात  यह है कि, आपको  अच्छाई  सिर्फ  लोगों  में  ही  नहीं  खोजनी  है , बल्कि  हर एक  परिस्थिति  में  खोजनी है और सकारात्मक  रहना  है  और  उसमे  क्या  अच्छा  है  ये  देखना  है| सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश  राय बच्चन का अपने पुत्र अमिताभ बच्चन को समझाने का एक बहुत विख्यात वाक्य है …. अगर मन की हो रही है तो खुश रहो ,और अगर मन की न हो रही हो तो और खुश रहो क्योंकि वह ईश्वर के मन की हो रही है  ईश्वर अपने बच्चों के साथ कभी अन्याय नहीं करता।  उदाहरण के तौर पर  अगर  आप  को कोई नौकरी या सफलता नहीं मिली   तो  आपको  ये  सोचना  चाहिए  कि  शायद  भागवान  ने  आपके  लिए  उससे  भी  अच्छी  नौकरी या सफलता छुपा कर रखी  है जो आपको देर-सबेर  मिलेगी, और आप किसी अनुभवी व्यक्ति से पूछ भी सकते हैं, वो भी आपको यही बताएगा . ख़ुशी का फार्मूला न.2-कही -सुनी सब मॉफ  करे                                    हम सब अपने सर पर कितना बड़ा पिटारा लिए घूम रहे हैं | लोगों की कही -सुनी बातों का हर रोज़ पिटारा खोलते हैं ,उन बातों को निकालते हैं,सहलाते हैं और फिर पिटारा बंद कर देते हैं और उस पिटारे में बंद कर देते हैं अपनी खुशियाँ  ….  है न सही ,सच तो  यह है कि हर  किसी  का  अपना -अपना अहंकार  होता  है , जो  जाने -अनजाने  औरों  द्वारा  घायल  हो  सकता  है , पर  खुश  रहने  वाले  छोटी छोटी  बातों को  दिल  से  नहीं  लगाते  वो   माफ़  करना  जानते  हैं , सिर्फ  दूसरों  को  नहीं  बल्कि  खुद  को  भी |  इसके  उलट  यदि  ऐसे  लोगों  से  कोई  गलती  हो  जाती  है , तो  वो  माफ़ी  मांगने  से  भी  नहीं  कतराते | वो  जानते  हैं  कि  मिथ्याभिमान  उनकी  जिंदगी की परेशानियां बढ़ा देगा बन इसलिए  वो  अरे मॉफ कर दीजिये या सॉरी  बोलने  में  कभी  कतराते नहीं | माफ़  करना  और  माफ़ी  माँगना  आपके  दिमाग  को  हल्का  रखता   है , आपको  बेकार   की  उलझन  और  परेशान  करने  वाली  नकारात्मक विचारों  से  बचाता  है , और   आप  खुश  रहते  हैं |                                                   ख़ुशी का फार्मूला न.3-तुम मेरे साथ हो                      अकेला हूँ मैं इस दुनियाँ में ,साथी है तो मेरा साया ……ये गाना सुनने में जितना अच्छा लगता है भोगने … Read more

राधा क्षत्रिय की कवितायेँ

      प्रेम मानव मन का सबसे  खूबसूरत अहसास है प्रेम एक बहुत ही व्यापक शब्द है इसमें न जाने कितने भाव तिरोहित होते हैं ये शब्द जितना साधारण लगता है उतना है नहीं इसको समझ पाना  और शब्दों में उतार पाना आसान नहीं है फिर भी यही वो मदुधुर अहसास है  जो  जीवन सही को अर्थ देता है, आज हम अटूट बंधन पर राधा क्षत्रिय जी  प्रेम  विषय पर लिखी हुई कवितायेँ  पढ़ेंगे   फ़र्क  मोहब्बत ओर इबादत में, फ़र्क बस इतना जाना है! मोहब्बत में खुद को खोकर चाहत को पाना है, इबादत में खुद को खोकर, पार उतर जाना है!  तन्हाईयाँ तुमसे मिलने के बाद, तन्हाईयों से, प्यार हो गया हमें—- जहाँ सिवा तुम्हारे, और मेरे ,कोई नहीं आता—— बूँदों का संगीत बारिश का तो, बहाना है, तुम्हारे ओर करीब , आना है! रिम-झिम गिरती, बूंदों का, संगीत बडा, सुहाना है! तुम साथ, हो मेरे, मुझे अंर्तमन तक, भीग जाना है ! ख्वाब  सारी रात वो मुझको  ख्वावों में बुना करता है और हर सुबह एक नयी ग़जल लिखा करता है “निगाहें” जब पहली बार उनसे  निगाहें मिलीं पता  नहीं क्या हुआ हमने शरमा कर पलकें झुका ली जब हमने पलकें उठाई तो वो एकटक हमें ही देखे जा रहे थे और जब निगाहें निगाहों से मिली हम अपना दिल  हार गये पता नहीं क्या जादू कर दिया था उन्होने हम पर हमें तो पूरी दुनीयाँ  बदली-बदली नजर  आने लगी फ़िर महसूस हुआ बिना उनके प्यार  के जिदंगी कितनी अधूरी थी… ” दिल”  जब तन्हाँ बैठे तो तुम्हारा ख्याल आया और दिल आया हमारी नजरों की ओस  से भीगी यादें दर -परत-दर खुलती चली गई और दिल भर आया जो अफ़साने अंजाम  तक न पहूँचें और दिल में दफ़न हो गये जेहन में दस्तक दे उठे वो एहसास फ़िर मचल उठे और दिल भर आया बहुत कोशिश की दिल के बंद दरवाजे न खोलें पर नाकाम रहे जो वादा तुमसे किया था वो टूट गया और दिल भर आया— हमसफ़र  तुम हमसफर क्या बने जहाँ भर की खुशियाँ हमार नसीब बन गयीं जिदंगी फूलों की  खुशबू की तरह  हसीन ,साज पर छिड़े संगीत की तरह सुरीली तितलीयों के पंखों जितनी रंगीन बन गई उस पर तुम्हारी बेपनाह मोहब्बत हमारा नसीब बन गई. रात एक हसीन ख्बाब  की तरह चाँद तारों से सज गई. हवाओं में तुम्हारे प्यार की खुशबू बिखर गई हम पर तुम्हारी  मोहब्बत का नशा इस कदर छा गया हमने खुदा को भी भुला दिया और तुम्हें अपना खुदा बना लिया तुम्हारी चाहत ही  हमारी इबादत  बन गई— रिश्ते  प्यार और रिश्तों का तो, जन्म से ही साथ होता है ! वक्त की आँच पर तपकर, ये सोने की तरह निखर उठता है! पर कुछ रिश्ते , सब से जुदा होते हैं ! इन्हें किसी संबधों में, परिभाषित नहीं किया जा सकता ! इनका संबध तो सीधा , अंर्तमन से होता है ! ये तो मन की डोर से , बँधे होते हैं ! अपनेपन का एहसास इनमें, फूलों सी ताजगी भर देता है ! ऊपर वाले से माँगी हुई, हर दुआ जैसे, जो हौंसलों का दामन , हमेशा थामके रखते हैं ! और उनकी माँगी हुई दुआओं पर, खुदा भी नज़रे -इनायत करता है ! और मांझी विपरीत बहाव में भी, नाव चलाने का साहस कर लेता है !    प्यार के पंख  मेरी ख्वाईशें क्यों , इस कदर मचल रही हैं! जैसे कोई बरसाती नदिया! जो तोड़ अपने तटों को, तीव्र गति से, बहना, चाहती हो! हृदय सरिता , प्यार की बर्षा से तट तक , भर गयी है! सरिता का जल, रोशनी से झिलमिल और हवा से छ्प-छप कर रहा है! अरमानों को पंख, लग गये हैं! मन पूरा अंबर , बाँहों मैं, लेने को आतुर है! दिल की धड़कनें, बेकाबू हो, मचल रही हैं! लगता है मेरी, ख्वाईशों मैं, तुम्हारे प्यार के पंख लग गये हैं! … भूल  हमने उनको इस कदर  टूटकर चाहा कि खुद  को ही भूल गये अगर हमें पता होता  किसी को चाहना हमें हमसे जुदा  कर देगा तो हम भूल से भी ये भूल न करते पर जब भूल  से ये भूल हो गयी तो इस भूल की सजा भी हमको ही मिली अब तो ये आलम हे  कि आईने में भी अपनी पहचान  भूल गये बस उनकी ही सूरत  हमारी आँखों में है और हम उनकी  आँखों में खो गये सर्वप्रथमप्रकाशित रचना..रिश्तों की डोर (चलते-चलते) ।  स्त्री, धूप का टुकडा , दैनिक जनपथ हरियाणा ।  ..प्रेम -पत्र.-दैनिक अवध  लखनऊ । “माँ” – साहित्य समीर दस्तक वार्षिकांक।  जन संवेदना पत्रिका हैवानियत का खेल,आशियाना, करुनावती साहित्य धारा ,में प्रकाशित कविता – नया सबेरा. मेघ तुम कब आओगे,इंतजार. तीसरी जंग,साप्ताहिक ।  १५ जून से नवसंचार समाचार .कॉम. में नियमित ।  “आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह ” भोपाल के तत्वावधान में साहित्यिक चर्चा कार्यक्रम में कविता पाठ ” नज़रों की ओस,” “एक नारी की सीमा रेखा” आगमन बार्षिकांक काव्य शाला में कविता प्रकाशित​.. आपको    “राधा क्षत्रिय की कवितायेँ     “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

पुरुस्कार

    पुरूस्कार  सुबह साढ़े ६ बजे का समय स्नेह रोज पक्षियों के उठने के साथ उठकर पहले बालकनी में जाकर अपने पति विनोद जी के लिए अखबार लाती है और फिर रसोई में जाकर  चाय बनाने लगती है। पति विनोद जी बिस्तर  पर टाँग पसार कर बैठ जाते हैं और फिर आवाज़ लगाते हैं ……….”नेहुुु नेहुउउ जरा मेरा चश्मा तो दे दो। स्नेहा आकर बिस्तर के बगल में रखी मेज से चश्मा उठा कर  दे देती है। विनोद जी चश्मा  लगा कर मुस्कुराते हुए कहते हैं”जानती हो नेहू चश्मे के लिए बुलाना तो बहाना था मैं तो सुबह -सुबह सबसे पहले अपनी लकी चार्म अपनी नेहू  का चेहरा देखना चाहता था अजी पिछले २५ वर्षों से आदत जो है। स्नेहा मुस्कुराकर अपने स्वेत -श्याम बालों को सँवारते हुए रसोई में चली जाती है। ५५ वर्षीय विनोद जी अखबार पढ़ने लगते हैं और स्नेह चाय बनाने लगती है। अरे नेहू !सुनती हो तुम्हारी प्रिय लेखिका” कात्यायनी जी “को उनकी कृति “जीवन” पर साहित्य अकादमी  का  पुरूस्कार मिला है। …. विनोद जी अखबार पढ़ते हुए जोर से चिल्लाकर कहते हैं। खबर सुनते ही स्नेहा के हाथ से चाय का प्याला छूट जाता है। चटाक की आवाज़ के साथ प्याला टूट जाता है चाय पूरी रसोई में फ़ैल जाती है। आवाज़ सुनकर विनोद जी रसोई में आते हैं वहां अवाक सी खड़ी स्नेहा को देखकर पहले चौंकते हैं फिर मुस्कुरा कर कहते हैं “भाई फैन हो तो हमारी नेहू जैसा “सारा घर तो कात्यायनी जी के कथा संग्रहों उपन्यासों से तो भरा हुआ है ही और उनके साहित्य अकादमी पुरूस्कार की बात सुन कर दिल तो दिल कप संभालना  भी मुश्किल हो गया है “                                         नेहू तुम चिंता ना करो इस बार मैं साहित्य अकादमी के पुरूस्कार समरोह में जरूर तुम्हारे साथ जाऊँगा। भाई मैं भी तो देखू हमारी नेहू की कात्यायनी जी लगती कैसी हैं विनोद जी ने चुटकी ली .अच्छा तुम ऐसा करो ये साफ़ करके दूसरी चाय बना लो तब तक मैं “मॉर्निंग वाक “करके आता हूँ कहकर विनोद जी घर के बाहर निकल गए। स्नेहा कप के टुकड़े बीन कर जमीन में फ़ैली चाय के धब्बे मिटाने लगी। आज अचानक उसके सामने उसका अतीत आ कर खड़ा हो गया। माँ -बाप की चौथी  संतान स्नेहा जिसका बचपन मध्यमवर्गीय था पर माँ -बाप और चारों बहनों का आपसी  प्यार अभावों को अंगूठा दिखा ख़ुशी -ख़ुशी जीवन को नए आयाम दे  रहा था।                                     स्नेहा सबसे छोटी वाचाल नटखट सबकी लाड़ली थी। देखने में सामान्य पर ज्ञान में बहुत आगे। स्कूल से लेकर कॉलेज तक उसकी पढाई वाद -विवाद गायन नाटक मंचन आदि के चर्चे रहते थे। कुल मिला कर उसे “जैक ऑफ़ आल ट्रेड्स “कह सकते हैं। प्रशंशा व् वाहवाही लूटना उसकी आदत थी। छोटा सा घर घर में एक से एक चार  प्रतिभाशाली बहनें घर की हालत ये कि जाड़ों में जब दीवान से कपडे बाहर निकालकर अलमारियों  में जगह बना लेते  तो अलमारियों में रखी लड़कियों की किताबें निकल कर जाड़े भर के लिए बंद करी गयी फ्रिज में अपनी जगह बना लेटी। सब खुश बहुत खुश। माता -पिता को अपने बच्चों पर गर्व तो बच्चों की आँखों में कल के सपने। अभावों में ख़ुशी बाँटना जैसे माँ ने उन्हें दूध के साथ पिलाया हो। जैसे सूर्य का प्रकाश छिपता  नहीं है वैसे ही इन बहनों की प्रतिभा के किस्से मशहूर  हो गए। पिता जी भी कहाँ चूकने वाले थे। इसी प्रतिभा के दम  पर उन्होंने तीन लड़कियों की शादी एक से एक अच्छे घर में कर दी। एक बहन शादी के बाद अमेरिका चली गयी और दो कनाडा। रह गयी तो बस छुटकी स्नेहा। उसके लिए वर की खोज जोर -शोर से जारी थी। तभी अचानक वो दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी आ गया। जब स्नेहा के पिता लड़का देख कर घर लौट रहे थे एक तेज रफ़्तार ट्रक नें उनकी जान ले ली। जिस घर में डोली सजनी चाइये थी वहां अर्थी सजी सारा माहौल ग़मगीन था। माँ ,माँ का तो रो रो कर बुरा हाल था उनकी तो दुनियाँ  ही पिताजी तक सीमित थी। अब वह क्या करेंगी ?      मातम के दिन तो कट गए पर जिंदगी का सूनापन नहीं गया। माँ मामा पर आश्रित हो गयी। अकेली जवान लड़की को लेकर कैसे रहती। माँ के साथ स्नेहां  भी मामा के घर में रहने लगी। उस समय जब उन्हें अपनेपन की सबसे ज्यादा जरूरत थी उस समय मिले तानों और अपमान के दौर को याद करके उसका शरीर  आज भी सिहर उठता है. तभी एक और हादसा हुआ मामा की बेटी तुलसी दीदी का देहांत हो गया। तुलसी दीदी की एक पांच वर्ष की बेटी थी उसका क्या होगा ये सोचकर मामा ने उससे दस वर्ष बड़े विनोद जी से उसकी शादी कर दी। माँ कुछ कहने की स्तिथि में नहीं थी वह सर झुका कर हर फैसला स्वीकार करती गयीं। स्नेहा विनोद जी के जीवन में तुलसी दीदी की पांच वर्षीय पारुल के जीवन में माँ की जगह भरने मेहँदी लगा कर इस घर में आ गयी।                                                            धीरे -धीरे ही सही पर पारुल नें उसे अपना लिया। विनोद जी तो उसकी प्रतिभा के बारे में पहले से ही जानते  थे  उसे कहीं न कहीं पसंद भी करते थे उन्हें एक दूसरे को अपनाने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा। पहला वर्ष  नए घर को समझने में लग गया और दूसरा वर्ष स्नेह और विनोद के पुत्र राहुल के आने की ख़ुशी में पंख लगा कर उड़ गया। परन्तु दोनों का विपरीत स्वाभाव कहीं न कहीं अड़चन पैदा कर रहा था। स्नेहा  जो हंसमुख वाचाल और नटखट थी वहीँ विनोद जी अपने नाम के विपरीत बिलकुल भी विनोद प्रिय नहीं थे। ज्यादा बातचीत उन्हें पसंद नहीं थी। बड़ा व्यापार था ज्यादातर व्यस्त रहते थे। स्नेहा से प्रेम उन्हें जरूर था लेकिन स्नेहा का हंसना बोलना बात -बात पर खिलखिलाना उन्हें … Read more

पुदी उर्फ़ दीपू

                                              ‘तुम्हारा नाम क्या है दीपू ?’ – खेलते हुए बच्चे चिल्लाकर पूछते‘पू उ उ उ दि ‘— दीपू हो हो कर हँसते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाता उत्तरसुनकर खेलते – खेलते बच्चों का वह झुंड ताली बजा – बजाकर हंसने लगता.औरउन सबके साथ दीपू भी हो – हो कर हँसता जाता .बिना यह समझे कि वे सभी उसपर ही हँसे जा रहे हैं                                                  दीपू दस वर्ष का मानसिक – मंडित बच्चा था .अभी कुछ दिनों पूर्व हीएक छोटे से शहर से लखनऊ जैसे बड़े शहर में आया था .उस के माता – पितादोनों ही एक सरकारी विभाग में मुलाजिम थे और एक सरकारी कालोनी में रहतेथे .दीपू से किसी बच्चे ने दोस्ती नहीं की थी .वह तो अपने से दो वर्षबड़े भाई विभूति के साथ अक्सर आ जाता था खेलने . शहर में नया होने के कारण अपने नए मित्रों के दीपू के साथ के इस खेल का विभूति कभी विरोध नहीं कर पाता था .बस चुपचाप दीपू और अन्य बच्चों को हँसते हुए देखता रहताथा.बचपन से अपने छोटे भाई की इस त्रासदी को झेलने के कारण विभूति के मन मेंउस के  प्रति सहानुभूति की भावना धीरे – धीरे कम  होती जा रही थी .वह माँ के बहुत कहने पर ही दीपू को खेलने साथ लेकर आता थादीपू के जन्म पर पिता मुकुल सक्सेना ने एक पार्टी रखी थी .सभी नाते –रिश्तेदारों को बुलाला था .खूब धूम – धडाके हुए थे .पार्टी के बाद रिश्तेदारों और दीपू की माँ सुलोचना के आग्रह पर शहर के सबसे बड़े ज्योतिष को भी बुलाया था दीपू की जन्मकुंडली बनवाने के लिए   दीपू का भविष्य जानने की इच्छा से .दीपू की दादी ने उन ज्योतिष जी को ख़ास आग्रह कर कहा था – ‘पंडी जी जैसे हमारे बडके  पोता विभूति की कुण्डली आप ने मनसे बनाई है वैसे ही इन छोटके राजकुमार की भी बनाईये हम मुंहमांगा इनाम देंगे ‘और ,पंडीजी जो कुण्डली बना लाये  उस के मुताबिक़ दीपू का दिमाग बचपन से ही काफी तेज होना था तथा  बड़े होने पर उसे एक विश्व – प्रसिद्ध हस्ती भीबनना था .कुण्डली जोर – जोर से पढ़कर मुकुल  सक्सेना ने सबको सुनाया था.उस दिन एक बार फिर से घर में खुशी ऎसी छिटकी कि उत्सव सा माहौल हो गया ‘दादी ने दीपू की बलैया लेते हुए कहा – मैं न कहती थी यह मेरा पोता हजारों- लाखों में एक है .किसी बहुत बड़े आदमी की आत्मा है इसके अन्दर ‘दादी की बात सुन भला दादा कहाँ चुप रहने वाले थे ‘तुरत ही बोल पड़े–‘पहली बार तुम ने बिलकुल सही बात की है मुकु की अम्मा .यह मेरे कुल का नाम रोशन करेगा इसलिए इसका नाम दीपक रहेगा .’माता –पिता ,दादा –दादी सबके आकर्षण का केंद्र अपने छोटे भाई को बना देख तब दो साल का विभूति मुंह लटकाए चुपचाप एक और बैठा था .उसकी  बाल –बुद्धि ने जब उसे अपनी हीनता का बोध कराया तो वह अचानक जोर – जोर से रो पडा .दादी ने उसे अपने पास खींच प्यार से सर सहलाते हुए रोने  का कारण पूछा तो उस ने बड़ी मासूमियत से कहा – ‘आप सब लोग सिर्फ इस दीपू को प्याल करते हो मुझे तो कोई प्याल  नहीं करता                                                    ‘बच्चे की मासूमीयत पर रीझ दादी ने उसे  अपने से चिपका  माथा चूमते हुए कहा था –‘ अरे तू तो हमारा ही नहीं हमारे पुरे गाँव की विभूति बनेगा ‘ और दादी के प्यार से हँसता हुआ दो वर्ष का नन्हा विभूति दादी की गोद में लेट गया लेकिन ,जैसे –जैसे दीपू बड़ा होता गया सुलोचना और मुकुल के ह्रदय में चिंता घर करने लगी .वह अपने बड़े भाई से अलग था .जिस उम्र में विभूति अपने भावों को माँ को अपनी क्रियाओं से समझा देता था – दीपू ऐसा कुछ न कर पाता. एक साल  का होते – होते चाईल्ड – स्पेशलिस्ट ने भी यह बता दिया कि दीपू का मानसिक विकास एक सामान्य बच्चे की तरह नहीं हो रहा . माँ के गर्भ में ही किसी कारण उस का मस्तिष्क सामान्य रूप से विकसित  नही हो पाया था .सुनकर सुलोचना की आँखों से आंसुओं का सैलाब बह निकला था .मुकुल चाह कर भी कोई दिलासा नहीं दे पा रहा था .तीन  साल का विभूति माँ को चुपचाप पास खडा रोते देखता रहता कभी ,करीब जा अपनी नन्हीं हथेलियों से आँसू पोछ पूछता – ‘ममा क्या हुआ ?क्यों रो रही हो ?’जवाब में सुलोचना उसे अपने पास खींच सीने से चिपटा लेती . इस पूरी प्रक्रिया के दौरान दीपू निर्विकार बैठा रहता .लेकिन ,जब बड़े भाई को माँ से चिपका देखता तो जोर – जोर से रोने लगता .उस की रुलाई से सुलोचना का कलेजा मुंह को आने लगता और वह विभूति को छोड़ झट दीपू को गोद में उठा प्यार करने लगती .माँ के कलेजे से लग दीपू को चैन मिलता और वह तुरत चुप हो जाता .दिन – प्रतिदिन उस की जिद्द भी बढ़ती जा रही थी ‘जिस चीज को पकड़ने या लेने की बात करता अगर वह नहीं मिल पा रही हो तो जब तक उसे पा नहीं लेता लगातार रोता रहता .मानसिक कमजोरियों के बावजूद उस में मानवीय भावों को समझने की अद्भुत क्षमता थी .उसे प्यार करने वाले व्यक्ति के ह्रदय में उस के प्रति सच्चा प्यार पल रहा है या वह सिर्फ  दिखावा कर रहा है – यह बात उसकी समझ में तुरत आ जाती और वह इस अनुसार अपनी प्रतिक्रियाएं भी प्रगट कर देता .दीपू की दादी को जब दीपू के बारे में डॉक्टर की बातों का पता चला तो दादी ने पूरे घर में यह कहते हुए हंगामा खडा कर दिया कि ज्योतिष की कही बात कभी झूठी नहीं हो सकती .जरुर डॉक्टर ने ही गलत बताया है .अत: दीपू को किसी बड़े अस्पताल में ले जाकर बड़े डॉक्टर से दिखाना होगा .दादी की लगातार जिद्द से मुकुल और सुलोचना को भी लगने लगा कि हो न हो इस डॉक्टर से कोई गलती हो गई है .सो उन्हों ने उसे एम्स,नई दिल्ली में ले … Read more

अटूट बंधन अंक -३ सम्पादकीय

                                        चलो थाम लें एक दूसरे का हाथ………. कि  उड़ना है दूर तक ………….. जब धरती पर खोली थी मैंने आँखें  तब थी मेरी बंद मुट्ठियाँ  जिसमें कैद था पूरा आसमान  हुलस कर देखा था मैंने  हवाओं ,घटाओं गिरी कंदराओं को  चमकते सूर्य और बेदाग़ चाँद को उफन कर आती सागर की लहरों को  लहलहाते सरसों के खेत  और मटर की बंद फलियों को  जब चल रही थी डगमगाते हुए   नन्हें -नन्हें क़दमों से  और  बंद थी मेरी मुट्ठी  में  माँ की एक अंगुली  जिसके साथ पूरा जहाँ  तब माँ ने ही  दी थी दृष्टि बताये थे दृश्य और अदृश्य  आसमानों के भेद समझाया था मुट्ठियाँ कभी  खुलती नहीं  मुट्ठियाँ कभी खाली नहीं होती  उसमें भरे होते हैं  सपनों के आसमान मेरी -तुम्हारी ,इसकी –उसकी हथेलियों में  फडफडाते हैं नन्हे पर उड़ने को बेकरार कभी आ जाता है हौसला कभी डर कर समेट लेते हैं पर कि कहीं भटक न जाए राह में या टकरा जाए किसी मीनार से या छू जाये कोई बिजली का तार   तो चलो  बन जाएँ बन जाए एक दूसरे की शक्ति हिम्मत न टूटे हौसला न छूटे थाम लें एक दूसरे का हाथ कि उड़ना है दूर तक ………….. शाम का समय है  मैं अपने घर की बालकनी में खड़ी होकर आकाश को निहार रही हूँ ………कुछ नीला कुछ नारंगी ,कुछ लाल सा आसमान जैसे किसी चित्रकार ने बिखेर दिए हो सुन्दर रंग ………. चुन लो अपने मन का कुछ अलसाया सा सूर्य जो दिन भर काम करने के बाद  थक कर पश्चिम में अपनी माँ की गोद में जाने को बेकरार सा है … थोड़ा आराम करले ,फिर आएगा कल एक नयी ताज़गी नयी रोशनी नयी ऊर्जा के साथ ……कल का सूरज बनकर ………ठीक वैसे ही समय का एक टुकड़ा २०१४ के रूप में थक गया है अपनी जिम्मेदारियां निभाते -निभाते,खट्टे -मीठे अनुभव देते -देते  ……. अब बस … अब जाएगा माँ की गोद में ……….फिर आएगा कल नए रूप में, नयी आशा , नयी ताज़गी के साथ  ………. २०१५ बनकर। बादलों के समूह रंग बदलने लगे ही धीरे -धीरे। ………अन्धकार में चुपके से रंगेंगे कल की उजली सुबह।  पक्षियों के झुण्ड लौट रहे हैं घर की तरफ एक साथ एक विशेष पंक्ति में………. कि  साथ न छूटे                                                     ऐसे में मैं देख रही हूँ पक्षियों के कुछ समूहों को एक विशेष क्रम में उड़ते हुए। अंग्रेजी वर्णमाला का उल्टा v  बनाकर।  सबसे बड़ा पंक्षी सबसे आगे ,उसके पीछे उससे छोटा ,फिर उससे छोटा अंत में सबसे छोटे नन्हे -मुन्ने बच्चे …. उड़ान का एक खास क्रम ……… एक वैज्ञानिक नियम का पालन ……..कि  पक्षी के परों  द्वारा पीछे  हटाई गयी हवा उसे आगे बढ़ा देती है।  सबसे बड़ा पक्षी सबसे ज्यादा  हवा हटाता है ,उसके पीछे वाले को उससे कम ,…. उससे पीछे वाले को उससे कम ……. और सबसे नन्हे मुन्ने को बहुत कम मेहनत करनी पड़ती है ,जिससे वो थकता नहीं व् पूरी उड़ान भर साथ देता है।  ये  मूक से पक्षी परस्पर सहयोग करते हुए कितनी लम्बी -लम्बी उड़ाने पूरी कर लेते है।  प्रकृति ने कितनी समझदारी दी है इन पंक्षियों को।                                                      मुझे याद आ जाती है बचपन  माँ के द्वारा सुनाई गयी एक कहानी,एक बार चिड़ियों को पकड़ने के लिए एक बहेलिये ने जाल बिछाया था, दाना  खाने के लोभ  में बहुत सी चिड़ियाँ उसमें फंस गयी. …. चिड़ियों ने बहुत प्रयास किया पर निकल ना सकी ,फिर सबने मिल कर सामूहिक प्रयास किया ,पूरी शक्ति लगा दी ……… और चिड़ियाँ जाल ले कर उड़ गयी दूर बहुत दूर,  जहाँ उनके मित्र चूहे ने उनका जाल काट दिया ……… और चिड़ियाँ आज़ाद हो गयी।  देखा संघटन में शक्ति होती है कहकर माँ की कहानी समाप्त हो जाती ………पर मेरे मन में एक नयी कहानी शुरू हो जाती ,जो आज तक अधूरी है “क्या ऐसा संघटन मनुष्यों में हो सकता है “                                                                 अचानक मैं फिर आसमान देखती हूँ। …कितना ऊंचा ,कितना विशाल ……… शायद इन्हीं आसमानों के बीच में कोई एक आसमान है …. मेरा अपना ,मेरा निजी ,जिसे पाने का सपना देखा था कभी माँ की लोरियों के साथ नींद के आगोश में जाते हुए ,कभी नन्हा सा बस्ता लेकर स्कूल जाते हुए या सहेलियों के साथ कॉलेज की डिग्री लेते हुए। …… फिर देखती हूँ अपने पर शायद उड़ ना पाऊ ,शायद टकरा जाऊ किसी ऊंची मीनार से , या छू जाए बिजली का तार ,या सहन न हो मौसमी थपेड़े ………समेट  लेती हो अपने पर,  मेरे सपनों का आसमान सपनों में ही रह जाता है उसके ठीक बगल में है ,इसके सपनों का आसमान ,उसके सपनों का आसमान …………और शायद ! तुम्हारे सपनों का आसमान , दुर्भाग्य ,जो अब सपनों में ही रह गया.……………                                यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि “कौन कहता है आसमान में छेद नहीं होता , एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों “ और बहुत से लोगों ने इस राह पर चल कर जोश व् लगन से असंभव को संभव कर दिखाया है। परन्तु यह भी एक सामाजिक सच्चाई है सुदूर गाँवों में कितने बच्चों को शिक्षा का महत्त्व ही नहीं पता , शहरों  में कितने नन्हे मुन्ने बच्चों के हाथों में स्कूल के बस्तों की जगह झाड़ू और बर्तन मांजने का जूना  पकड़ा दिया जाता है। ……… महज अच्छा वर न मिल पाने के भय से कितनी लडकियों  को उच्च शिक्षा का मौका नहीं दिया जाता है.………कितनी लडकियां सपने देखने की उम्र में प्रसूति ग्रहों के चक्कर लगा रही होती हैं ……………जल्दी शादी ,जल्दी बच्चे, और बच्चे और  जल्दी मौत। क्या उनका यही सपना था ,क्या इसके अतिरिक्त  उन्होने कोई और सपने नहीं देखे थे। क्या विधाता ने उनके सपनों का कोई आसमान रचा ही नहीं था ?मैं फिर आसमान की तरफ देखती हूँ ,माँ … Read more

भावनाएं

                                                                     स्त्री या पुरुष दोनों को कहीं न कहीं यह शिकायत रहती है कि अगला उनकी भावनाएं नहीं समझ पा रहा है …… यह भावनाएं कहाँ पर आहत हैं यह समझने के लिए हम दो स्त्री ,दो पुरुष स्वरों को एक साथ लाये हैं ….. आप भी पढ़िए अटूट बंधन पर आज :भावनाएं (स्त्री और पुरुष की )  एक इच्छा  अनकही  सी …. किरण आचार्य  तुम …. दीपक गोस्वामी  तुम मेरे साथ हो …..डिम्पल गौर  ढूढ़ लेते हैं …..डॉ  गिरीश चन्द्र पाण्डेय  एक इच्छा अनकही सी आज फिर गली से निकलाऊन की फेरी वालासुहानें रंगों के गठ्ठर सेचुन ली है मैनेंकुछ रंगों की लच्छियाँएक रंग वो भीतुम्हारी पसंद कातुम पर खूब फबता है जोबैठ कर धूप मेंपड़ोसन से बतियाते हुए भीतुम्हारे विचारों में रतअपने घुटनों पर टिकाहल्के हाथ से हथेली पर लपेटहुनर से अपनी हथेलियों कीगरमी देकर बना लिए हैं गोलेफंदे फंदे में बुन दिया नेहतुम्हारी पसंद के रंग का स्वेटरटोकरी में मेरी पसंदके रंग का गोला पड़ाबाट देखता है अपनी बारी कीऔर मैं सोचती हूँअपनी ही पसंद काक्या बुनूँकोई नहीं रोकेगाकोई कुछ नहीं कहेगापर खुद के लिए ही खुद ही,,,एक हिचक सीपर मन करता हैकभी तो कोई बुनेमेरी पसंद के रंग के गोलेलो फिर डाल दिए हैनए रंग के फंदेटोकरी में सबसे नीचेअब भी पड़ा हैंमेरी पसंद के रंग का गोलालेखिका किरन आचार्यआक्समिक उद्घोषकआकाशवाणीचित्तौड़गढAdd – B-106 प्रतापनगर चित्तौड़गढ (राज.)               तुम जब भी सोचता हूँ तुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है कभी निर्झर हो गिरते है आवेश मेरे तो कभी मुझसे तुम तक तुमसे मुझ तक एक अछूती, अनदेखी शांत सरिता बहती है। जब भी सोचता हूँतुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है अक्सर घंटो बतियाते है आवेग मेरे दिनों तक निर्वात रखता है व्यस्त मुझे महीनों में खुद के हाथ नही आता वर्षो मेरे अस्तित्व की संभावनाएं वनवास सहती है जब भी सोचता हूँतुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है। दीपक गोस्वामी  कविता –तुम मेरे साथ हो —————————–यादों के झरोंखों में देखूं तोतुम बस तुम ही नजर आते होकुछ खोए खोए गुमसुम सेनजर आते होकोलाहल के हर शोर मेंस्वर तुम्हारे सुनते हैंरेत के बने घरोंदों मेंनिशाँ तुम्हारे दीखते हैंहर विशाल दरख्त की छायाअहसास तुम्हारा कराती हैतुम हो मेरे आसपास हीमन में यही आसजगाती है——————————-–—————————डिम्पल गौर ‘ अनन्या ‘  ●●●●●●●ढूँढ़ लेते हैं●●●●●●●●● बहुत कमियाँ हैं मुझमें,आजा ढूँढ लेते हैंबहुत खामियाँ हैं मुझमें,आजा ढूँढ़ लेते हैं कोई चाहिए मुझे, जो बदल दे मेरी जिन्दगीबहुत गुत्थियाँ हैं मुझमें,आजा खोल लेते हैं आज तक जो मिला,बस आधा ही मिला हैबहुत खूबियाँ हैं मुझमें,आजा खोज लेते हैं जो दिखता हूँ मैं,वो अक्सर  होता ही नहींबहुत दूरियाँ हैं मुझमें,आजा कम कर लेते हैं चाँद भी कहाँ पूरा है बहुत दाग देखे हैं मैंनेबहुत कमियाँ हैं मुझमें,प्रतीक मान लेते हैं डॉ गिरीश चन्द्र पाण्डेय प्रतीकडीडीहाट पिथोरागढ़ उत्तराखंडमूल-बगोटी ,चम्पावत09:57am//07//12//14रविबार आपको    ”  भावनाएं    “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

नसीब

                       !!!!!!!! नसीब !!!!!!!!                       (कहानी -उपासना सियाग )                                                  कॉलेज में छुट्टी की घंटी बजते ही अलका की नज़र घड़ी पर पड़ी। उसने भी अपने कागज़ फ़ाइल में समेट , अपना मेज़ व्यवस्थित कर कुर्सी से उठने को ही थी कि जानकी बाई अंदर आ कर बोली , ” प्रिंसिपल मेडम जी , कोई महिला आपसे मिलने आयी है।” ” नहीं जानकी बाई , अब मैं किसी से नहीं मिलूंगी , बहुत थक गयी हूँ …उनसे बोलो कल आकर मिल लेगी।” ” मैंने कहा था कि अब मेडम जी की छुट्टी का समय हो गया है , लेकिन वो मानी नहीं कहा रही है के जरुरी काम है।” जानकी बाई ने कहा। ” अच्छा ठीक है , भेज दो उसको और तुम जरा यहीं ठहरना ….,” अलका ने कहा।     अलका  भोपाल के गर्ल्स कॉलेज में बहुत सालों से प्रिंसिपल है। व्यवसायी पति का राजनेताओं में अच्छा रसूख है। जब भी उसका  तबादला  हुआ तो रद्द करवा दिया गया। ऐसे में वह घर और नौकरी दोनों में अच्छा तालमेल बैठा पायी।नौकरी की जरूरत तो नहीं थी उसे लेकिन यह उनकी सास की आखिरी इच्छा थी कि  वह शिक्षिका बने और मजबूर और जरूरत मंद  महिलाओं की मदद कर सके।        उसकी सास का मानना था कि अगर महिलाये अपनी आपसी इर्ष्या भूल कर किसी मजबूर महिला की मदद करे तो महिलाओं पर जुल्म जरुर खत्म हो जायेगा। वे कहती थी अगर कोई महिला सक्षम है तो उसे कमजोर महिला के उत्थान के लिए जरुर कुछ करना चाहिए।        जब वे बोलती थी तो अलका उनका मुख मंडल पर तेज़ देख दंग  रह जाती थी। एक महिला जिसे मात्र  अक्षर ज्ञान ही था और इतना ज्ञान !        पढाई पूरी  हुए बिन ही अलका की शादी कर दी गयी तो उसकी सास ने आगे की पढाई करवाई। दमे की समस्या से ग्रसित उसकी सास ज्यादा दिन जी नहीं पाई।  मरने से पहले अलका से वचन जरुर लिया कि वह शिक्षिका बन कर मजबूर औरतों का सहारा जरुर बनेगी। अलका ने अपना वादा निभाया भी।अपने कार्यकाल में बहुत सी लड़कियों और औरतों का सहारा भी बनी।अब रिटायर होने में एक साल के करीब रह गया है।कभी सोचती है रिटायर होने के बाद वह क्या करेगी ….!                        ” राम -राम मेडम जी …!” आवाज़ से अलका की तन्द्रा  भंग हुई। सामने उसकी ही हम उम्र लेकिन बेहद खूबसूरत महिला खड़ी थी। बदन पर साधारण – सूती सी साड़ी थी। चेहरे पर मुस्कान और भी सुन्दर बना रही थी उसे। ” राम -राम मेडम जी , मैं रामबती हूँ। मैं यहाँ भोपाल में ही रहती हूँ। आपसे कुछ बात करनी थी इसलिए चली आयी।  मुझे पता है यह छुट्टी का समय है पर मैं क्या करती मुझे अभी ही समय मिल पाया।” रामबती की आवाज़ में थोडा संकोच तो था पर चेहरे पर आत्मविश्वास भी था। ” कोई बात नहीं रामबती , तुम सामने बैठो …!” कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए अलका ने उसे बैठने का इशारा किया। ” अच्छा बताओ क्या काम है और तुम क्या करती हो …?” अलका ने उसकी और देखते हुए कहा। रामबती ने अलका की और गहरी नज़र से देखते हुए कहा , ” मेडम जी  , मैं वैश्या हूँ …! आप मेरे बारे में जो चाहे सोच सकते हो और यह भी  के मैं एक गिरी हुयी औरत हूँ।” ” हां गिरी हुई  तो हो तुम …!” अलका ने होठ भींच कर कुछ आहत स्वर में रामबती को देखते हुए कहा। ” लेकिन तुम खुद  गिरी हो या गिराया गया है यह तो तुम बताओ। तुमने यही घिनोना पेशा  क्यूँ अपनाया।काम तो बहुत सारे है जहान में।अब मुझसे क्या काम आ पड़ा तुम्हें। ” थोडा सा खीझ गयी अलका। एक तो थकान  और  दूसरे भूख भी लग आयी थी उसे। उसने जानकी बाई को दो कप चाय और बिस्किट लाने को कहा। ” पहले मेडम जी मेरे बारे में सुन तो लो …! साधारण परिवार में मेरा जन्म हुआ।पिता चपरासी थे।माँ-बाबा की लाडली थी। मेरी माँ तो रामी ही कहा करती थी मुझे। हम तीन बहने दो भाई ,परिवार भी बड़ा था।फिर भी पिता जी ने हमको स्कूल भेजा।”        “मेरी ख़ूबसूरती ही मेरे जीवन का बहुत बड़ा अभिशाप बन गयी। आठवीं कक्षा तक तो ठीक रहा लेकिन उसके बाद ,मेडम जी.… !  गरीब की बेटी जवान भी जल्दी हो जाती है और उस पर सुन्दरता तो ‘ कोढ़ में खाज ‘ का काम करती है।  मेरे साथ भी यही हुआ।” थोडा सांस लेते हुए बोली रामबती।   इतने में चाय भी आ गयी।  अलका ने कप और बिस्किट उसकी और बढ़ाते हुए कहा , ” अच्छा फिर …!”                            ” अब सुन्दर थी और गरीब की बेटी भी जो भी नज़र डालता गन्दी ही डालता।स्कूल जाती तो चार लड़के साथ चलते , आती तो चार साथ होते। कोई सीटी मारता कोई पास से गन्दी बात करता या कोई अश्लील गीत सुनाता निकल जाता। मैं भी क्या करती। घर में शिकायत की तो बाबा ने स्कूल छुडवा दिया।”     ” कोई साल – छह महीने बाद शादी भी कर दी। अब चपरासी पिता अपना दामाद चपरासी के कम क्या ढूंढता सो मेरा पति भी एक बहुत बड़े ऑफिस में चपरासी था। मेरे माँ-बाबा तो मेरे बोझ से मुक्त हो गए कि  उन्होंने लड़की को ससुराल भेज दिया अब चाहे कैसे भी रखे अगले ,ये बेटी की किस्मत …! मैं तो हर बात से नासमझ थी। पति का प्यार -सुख क्या होता है नहीं जानती थी।बस इतना जानती थी कि पति अपनी पत्नी का बहुत ख्याल रखता है जैसे मेरे बाबा मेरी माँ का रखते थे।कभी जोर से बोले हुए तो सुना ही नहीं। पर यहाँ तो मेरा पति जो मुझसे 10 साल तो बड़ा होगा ही , पहली रात को ही मेरे चेहरे को दोनों हाथों में भर कर बोला …!” बोलते -बोलते रामबती … Read more

अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ

                    अरविन्द जी की कविताओं में एक बेचैनी हैं ,जहाँ वो खुद को व्यक्त करना चाहते हैं।  वही उसमें एक पुरुष की समग्र दृष्टि पतिबिम्बित होती है ,”छोटी -छोटी खुशियाँ “में तमाम उत्तरदायित्वों के बोझ तले  दबे एक पुरुष की भावाभिव्यक्ति है. बिटिया में  सहजता से कहते हैं की बच्चे ही माता -पिता को  वाला सेतु होते हैं। ………कुल मिला कर अपनी स्वाभाविक शैली में वो  कथ्य को ख़ूबसूरती से व्यक्त कर पाते हैं। आइये आज “अटूट बंधन” पर पढ़े अरविन्द खड़े जी की कविताएं ……………   अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ    1-कविता–पराजित होकर लौटा हुआ इंसान —————————————— पराजित होकर लौटे हुए इंसान की कोई कथा नहीं होती है न कोई किस्सा होता है वह अपने आप में एक जीता–जागता सवाल होता है वह गर्दन झुकाये बैठा रहता है घर के बाहर दालान के उस कोने में जहॉ सुबह–शाम घर की स्त्रियां फेंकती है घर का सारा कूड़ा–कर्कट उसे न भूख लगती न प्यास लगती है वह न जीता है न मरता है जिए तो मालिक की मौज मरे तो मालिक का शुक्रिया वह चादर के अनुपात से बाहर फैलाये गए पाँवों की तरह होता है जिसकी सजा भोगते हैं पांव ही.                        2-कविता–तुम कहती हो कि….. ——————————— तुम कहती हो कि तुम्हारी खुशियां छोटी–छोटी हैं ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं जिनकी देनी पड़ती हैं मुझे कीमत बड़ी–बड़ी कि जिनको खरीदने के लिए मुझे लेना पड़ता है ऋण चुकानी पड़ती हैं सूद समेत किश्तें थोड़ा आगा–पीछा होने पर मिलते हैं तगादे थोड़ा नागा होने पर खानी पड़ती घुड़कियां ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि मुझको पीनी पड़ती है बिना चीनी की चाय बिना नमक के भोजन और रात भर उनींदे रहने के बाद बड़ी बैचेनी से उठना पड़ता है अलसुबह जाना पड़ता है सैर को ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि तीज–त्योहारों उत्सव–अवसरों पर मैं चाहकर भी शामिल नहीं हो पाता हूँ और बाद में मुझे देनी पड़ती है सफाई गढ़ने पड़ते हैं बहानें प्रतिदान में पाता हूँ अपने ही शब्द ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि बंधनों का भार चुका  नहीं पाता हूँ दिवाली आ जाती है एक खालीपन के साथ विदा देना पड़ता है साल को और विरासत में मिले नए साल का बोझिल मन से करना पड़ता है स्वागत भला हो कि होली आ जाती है मेरे बेनूर चेहरे पर खुशियों के रंग मल जाती है उन हथेलियों की गर्माहट को महसूसता हूँ अपने अंदर तक मुक्त पाता हूँ अपने आप को अभिभूत हो उठता हूँ तुम्हारे प्रति कृतज्ञता से भार जाता हूँ शुक्र है मालिक कि तुम्हारी खुशियां छोटी–छोटी हैं                                               3-कविता–जब भी तुम मुझे ————————- जब भी तुम मुझे करना चाहते हो जलील जब भी तुम्हें जड़ना होता है मेरे मुंह पर तमाचा तुम अक्सर यह कहते हो– मैं अपनी हैसियत भूल जाता हूँ भूल जाता हूँ अपने आप को और अपनी बात के उपसंहार के ठीक पहले तुम यह कहने से नहीं चुकते– मैं अपनी औक़ात भूल जाता हूँ जब भी तुम मुझे नीचा दिखाना चाहते हो सुनता हूँ इसी तरह उसके बाद लम्बी ख़ामोशी तक तुम मेरे चेहरे की ओर देखते रहते हो तौलते हो अपनी पैनी निगाहों से चाह कर भी मेरी पथराई आँखों से निकल नहीं पाते हैं आंसू अपनी इस लाचारी पर मैं हंस देता हूँ अंदर तक धंसे तीरों को लगभग अनदेखा करते हुए तुम लौट पड़ते हो अगले किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में. 4-कविता–उस दिन…उस रात…… ——————————– उस दिन अपने आप पर बहुत कोफ़्त होती है बहुत गुस्सा आता है जिस दिन मेरे द्वार से कोई लौट जाता है निराश उस दिन मैं दिनभर द्वार पर खड़ा रहकर करता हूँ इंतजार दूर से किसी वृद्ध भिखारी को देख लगाता हूँ आवाज देर तक बतियाता हूँ डूब जाता हूँ लौटते वक्त जब कहता है वह– तुम क्या जानो बाबूजी आज तुमने भीख में क्या दिया है मैं चौंक जाता हूँ टटोलता हूँ अपने आप को इतनी देर में वह लौट जाता है खाली हाथ साबित कर जाता है मुझे कि मैं भी वही हूँ जो वह है उस दिन अपने आप पर…… उस रात मैं सो नहीं पाता हूँ दिन भर की तपन के बाद जिस रात चाँद भी उगलता है चिंगारी खंजड़ी वाले का करता हूँ इंतजार दूर से देख कर बुलाता  हूँ करता हूँ अरज– ओ खंजड़ी वाले आज तो तुम सुनाओ भरथरी दहला दो आसमान फाड़ दो धरती धरा रह जाये प्रकृति का सारा सौंदर्य वह एक लम्बी तान लेता है दोपहर में सुस्ताते पंछी एकाएक फड़फड़ा कर मिलाते है जुगलबंदी उस रात…….                          ५ बिटिया ——– बिटिया मेरी, सेतु है, बांधे रखती है, किनारों को मजबूती से, मैंने जाना है, बेटी का पिता बनकर, किनारे निर्भर होते हैं, सेतु की मजबूती पर.                            –अरविन्द कुमार खेड़े. ——————————————————————————————— 1-परिचय… अरविन्द कुमार खेड़े  (Arvind Kumar Khede) जन्मतिथि–  27 अगस्त 1973 शिक्षा–  एम.ए. प्रकाशित कृतियाँ– पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित सम्प्रति–प्रशासनिक अधिकारी लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग मध्य प्रदेश शासन. पदस्थापना–कार्यालय मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी, धार, जिला–धार म.प्र. पता– 203 सरस्वती नगर धार मध्य प्रदेश. मोबाईल नंबर– 9926527654 ईमेल– arvind.khede@gmail.com  आत्मकथ्य– ”न मैं बहस का हिस्सा हूँ…न मुद्दा हूँ….मैं पेट हूँ….मेरा रोटी से वास्ता है….” ……………………………………………………………………………………………………………. आपको    ”  अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita