अटूट बंधन
रूचि भल्ला की कवितायेँ
जब मुझे लगता है कि किसी बात पर अपने तरीके से कुछ कहना चाहिए तो मेरी लेखनी चल जाती है और कोरे कागज़ पर कविता की सूरत में बदल जाती है।मेरे लिए कविता दुखों से साक्षात्कार और सुखों से अनुभव है।सांसारिक, राजनैतिक, प्राकृतिक और मानसिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से शब्द पुंज का सृजन करना ही मेरे लिए कविता लिखना है।…. रूचि भल्ला रूचि भल्ला की कवितायेँ 1) महानगर में हाईटेक सोसायटी में 11वें माले पर एक मौत हो जाती है और खबर दिखती है लिफ़्ट के दरवाज़े पर लिखे एक नोटिस में न रोना-धोना न चीख-चिल्लाहट राम नाम सत्य की कोई गूँज नहीं चार कंधों की भी दरकार नहीं शव-वाहिका चुपचाप आती है और लाश बिना किसी को डिस्टर्ब किए सोसायटी से बाहर हो जाती है। २.…… आदमी जब तलक जंगल में रहा आदमी रहा जंगल से बाहर क्या निकला उसने खो दी अपनी आदमीयत और अब वो पहचाना जाता है सभ्य-शिष्ट समाज में हिन्दू -मुस्लमां के तौर पर दूर खड़ा जंगल ये सब देख कर मुस्कराता है और इतराने लगता है अपने जंगली पंछी -जानवरों की मासूमियत पर 3) आई जब मेरी विदा की बेला मेरी थाली – मेरी कुर्सी को मैंने सूनी होते हुए देखा मनी -प्लांट मेरी बेगनवेलिया को खुद से लिपटते देखा जाते-जाते जो भाग कर गयी मिलने गंगा-जमुना से उन आँखों में उतर आया एक और दरिया देखा चौक की गलियां सिविल लाइन्स की सड़कें स्कूल का चौराहा मेरा मोहल्ला सबको मैंने खूब पुकारा मैं रोती रही बेतरह कभी माँ के गले लग कभी सहेलियों के संग जो मुड़ कर देखा शहर को दूर तलक मैंने हाथ हिलाते देखा 4) कैंसर के साथ हुई लड़ाई के बाद ——————————————– श्रद्धांजलि में लोग बहुत थे हाॅल चहल-पहल से भरा हुया रंग-बिरंगे फूलों से सजा हुया हर चेहरे पर मुस्कुराहट थी खास तौर से वो एक चेहरा अपने फ़ोटो- फ़्रेम में सबसे ज़्यादा मुस्कराहट बिखेरता हुया पत्नी व्यस्त थी मिलने-जुलने वालों के स्वागत में बच्चे सब से कह रहे थे मेरे पिता की मृत्यु नहीं हुई उनका Transition हुया है हाॅल भी सब देख रहा था सुन रहा था और सबसे हाथ जोड़ कर विनती कर रहा था मुस्कराते रहिए ये शोक सभा नहीं है। 5) जीसस ————- काश ! कि कोई अपना तुम्हें भी मिल जाता जो उतारता घड़ी भर को तुम्हारे कंधे से सलीब रख देता उतार कर तुम्हारे सर से काँटों का ताज करता तुम्हारे ज़ख्मों की मरहम-पट्टी और पूछता प्यार से तुम्हारा भी हाल काश ! इतनी बड़ी दुनिया में कहीं किसी कोने में मिल जाता तुम्हें तेरी फ़िक्र में डूबा बैठा एक अदद आदमी 6) दीवार पर छिपकली देखते ही एक भय हममें उतर आता है खूब जानते हैं हम हमें इससे कोई खतरा नहीं बस घृणा ही है और इस खातिर इस निरीह जीव को मार दिया जाता है नाहक इसके जीवन का अंत कर दिया जाता है। 7) जब वो आती है सुबह -सवेरे मुझे दिक्कत होने लगती है चाय – नाश्ता बनाने में उसकी निगाह नहीं होती है गैस के चूल्हे की तरफ़ जूठे बर्तनों में ही उलझी रहती है पर मैं बचती रहती हूँ उससे मिलाने में अपनी नज़र कभी तवे पर अंडा फ्राई करते हुए परांठे पर घी ……….. दूध में बॉर्नवीटा मिलाते हुए नहीं मिला सकती उससे नज़र और जल्द से जल्द निकल आती हूँ रसोई से उसे नाश्ते की प्लेट थमा कर 8) उम्र की सीढ़ी जो नीचे उतरती तो दौड़ कर मिल आती अपने बचपन से खरीदती रंग-बिरंगे पाॅपिन्स उड़ाती हवा में गुब्बारे तैराती पानी में कागज़ की नाँव रटती ज़ोर से पहाड़े सहेजती काॅपी – किताबें जाती फ़िर से स्कूल पहन कर अपनी यूनिफ़ाॅर्म 9) फुटपाथ पर सो जाते हैं थक- हार कर वे मैले -कुचैले जो दिन भर लिए हाथ में कटोरे दौड़ती-भागती गाड़ियों के पीछे देते हैं अपनी गूंगी दस्तक वे हर बार वहीं लाल बत्ती चौराहे पर मिल जाते हैं वे पात्र हैं हमारी नई-पुरानी कवितायों के हम उन पर लिखते हैं खूब छपते हैं और वे हमें देने के लिए अनगिनत कवितायें खुद चौराहे पर खड़े रह जाते हैं 10) राजपथ को गयी लड़की…… पीपल का पेड़ रहता होगा उदास तेरे घर की खिड़की को रहती होगी तेरे आने की आस छत पर टूट-टूट कर बिखरती होगी धूप की कनी जहाँ तुम खेला करती थी नंगे पाँव चाँद को आती होगी तुम्हारी याद घर का कोना होगा खाली तुम्हारे होने के लिए एक रात मेरी नींद में उतर कर मेरे राष्ट्राध्यक्ष ने बतलाया तारकोल का काला – कलूटा राजपथ रोता रहा कई दिन कई रात तुम्हें निगलने के बाद – रुचि भल्ला नाम :रुचि भल्ला जन्म :25 फरवरी 1972 प्रकाशन: विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित प्रसारण : इलाहाबाद -पुणे आकाशवाणी से कवितायें प्रसारित ई. मेल ruchibhalla72@gmail.com आपको ” रूचि भल्ला की कवितायें “ कैसे लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita
दोगलापन (लघुकहानी)
सविता मिश्रा =============“कुछ पुन्य कर्म भी कर लिया करो भाग्यवान, सोसायटी की सारी औरतें कन्या जिमाती है, और तू है कि कोई धर्म कर्म है ही नहीं|”“देखिये जी लोग क्या कहते है, करते है इससे हमसे कोई मतलब ……”बात को बीच में काटते हुए रमेश बोले- “हाँ हाँ मालुम है तू तो दूसरे ही लोक से आई है, पर मेरे कहने पर ही सही कर लिया कर|” नवमी पर दरवाजे की घंटी बजी- -सामने छोटे बच्चों की भीड़ देख सोचा रख ही लूँपतिदेव का मन| जैसे ही बिठा प्यार से भोजन परोसने लगी तो चेहरे और शरीर परनजर गयी किसी की नाक बह रही थी, तो किसी के कपड़ो से गन्दी सी बदबू आ रही थी, मन खट्टा सा हो गया| किसी तरह शिखा ने दक्षिणा दे पा विदा कर अपने हाथ पैर धुले|“देखो जी कहें देती हूँ इस बार तो आपका मन रख लिया, पर अगली बार भूले से मत कहना……..| इतने गंदे बच्चे जानते हो एक तो नाक में ऊँगली डालने के बाद खाना खायी| मुझसे ना होगा यह….ऐसा लग रहा था कन्या नहीं खिला रही बल्कि…..भाव कुछ और हो जाये तो क्या फायदा ऐसी कन्या भोज का| अतः मुझसे उम्मीद मत ही रखना|”“अच्छा बाबा जो मर्जी आये करो, बस सोचा नास्तिक से तुझे थोड़ा आस्तिक बना दूँ|”“मैं नास्तिक नहीं हूँ जी. बस यह ढोंग मुझसे नहीं होता समझे आप|”“अच्छा-अच्छा दूरग्रही प्राणी|”…पूरे घर में खिलखिलाहट गूंज पड़ीपड़ोसियों ने दूजे दिन कहा -यार तेरी मुराद पूरी हो गयी क्या ? बड़ी हंसी सुनाई दे रही थी बाहर तक| हम इन नीची बस्ती के गंदे बच्चो को कितने सालो से झेल रहे है, पर नवरात्रे में ऐसे ठहाके नहीं गूंजे ..बता क्या बात हुई|”शिखा मुस्करा पड़ी ….. सविता मिश्रा का परिचय पति का नाम ..श्री देवेन्द्र नाथ मिश्र पिता का नाम …श्री शेषमणि तिवारी माता का नाम ….श्रीमती हीरा देवी जन्म तिथि …१/६/७३ शिक्षा …बैचलर आफ आर्ट …(हिंदी ,रजिनिती शास्त्र, इतिहास) अभिरुचि ….शब्दों का जाल बुनना, नयी चीजे सीखना, सपने देखना यह भी पढ़ें ………. सेंध गुडिया माटी और देवी दुर्गा शप्तशती के प्रमुख मन्त्र आपकी अपनी माँ भी देवी माँ का प्रतिबिम्ब हैं
काहे को ब्याही …. ओ बाबुल मेरे
विवाह जन्म -जन्मान्तर का रिश्ता होता है ………पर गरीबी दहेज़ की कुप्रथा और कहीं न कहीं कन्या को बोझ मानने की प्रवत्ति विवश कर देती है बाबुल को अपनी लाडली का हाथ उन हांथों में………..जहाँ विवाह के बाद नहीं लिखी जाती है प्रेम की स्वर्ण -गाथा अपतु समझोता दर समझौता जीवन जिया जाने लगता है मात्र जीने के लिए ……………..बेटियाँ जानती है पिता की विवशता ,चढ़ती हैं डोलियाँ आँखों के आंसूओं में छिपाए यक्ष प्रश्न ……….मात्र हाथ पीले करने के किये “काहे को ब्याही विदेश “और पिता अपने आँखों में आंसूओं में छिपा लेते है ………..ज़माने भर के दर्द काहे को ब्याही—–ओ बाबुल मेरे बाबुल मैं ही तो थी तुम्हारे आँगन की चिरइया फुदकती मुंडेर पर चुगती दाना ची -ची की सरगम छेड़ कर गुंजायमान करती उस घर का हर कोना -कोना जहाँ मेरे जन्म के साथ ही तय कर दिया था समाज ने किसको मिलेगा मुझे डोली और अर्थी में बिठाने का अधिकार आज विदाई की बेला में लाल साडी लाल चुनर एडी महावर और हांथों की मेहँदी में अपना बचपन समेटे जा रही हूँ आखों के आँसूंओ में छिपाए एक यक्ष प्रश्न मुझे बोझ समझ येन केन प्रकारेण केवल हाथ पीले करने के लिए काहे को ब्याही ………ओ बाबुल मेरे ? १ बाबुल मैं ही तो थी तुम्हारी मुनमुन उम्र ही क्या थी मेरी खड़ी किशोरावस्था की देहरी पर देखे थे मात्र पंद्रह वसंत अपरिपक्व तन ,अपरिपक्व मन नहीं जानती विवाह का अर्थ हर ले गए मेरा बाल मन मात्र नए गहने व् कपडे जब आप ने सौप दिया मेरा हाथ चालीस वर्षीय विधुर के हाथ जिसे नहीं चाहिए थी जीवन संगिनी चाहिए थी कच्ची कली मात्र रौंदने को पवित्र अग्नि और मंत्रोच्चार के मध्य बन बैठी मैं दो किशोर संतानों की माँ और पड गए बचपन से सीधे अधेडावस्था में कदम आज विदा हो रही हूँ आँखों में आँसूओ में छिपाए यक्ष प्रश्न ? २………. बाबुल मैं ही तो थी तुम्हारी नफीसा अपनी छ :बहनों में सबसे बड़ी पाक जिस्म में समेटे पाक रूह जली थी तिल -तिल गरीबी की आँच में सबके साथ फांके कर काटे थे मुफलिसी के दिन नहीं की थी उफ़ ! टाट -पट्टी पर सोकर पैबंद लगे फ्रॉक पहनकर जब सौप दिया तुमने मेरा हाथ दूर देश में अरब के शेख के हाथ जिसकी कई बीबियों के मध्य बन कर रह जाऊँगी बस एक संख्या जो तालाशेगा मुझमें खजुराहो का बेजान सौन्दर्य और सिसकेगी मेरी पाक रूह तुम भले ही छिपा लो नोटों की गड्डी में गरीबी ,लाचारी से उपजी बेरहमी पर मैं आज विदा हो रही हूँ आँखों में आँसूओ में छिपाए यक्ष प्रश्न ? ३ बाबुल मैं ही तो थी तुम्हारी लाडो जिसके मन में बोये थे तुमने अनगिनत सपने समझाया था असंभव नहीं है इन्द्रधनुष को छू लेना फिर क्यों कुंडलियों के फेर में राहू ,केतू और मंगल बिठाते -बिठाते जब पड़ गए तुम्हारे पैर में छाले तो थक हार कर सौप दिया मेरा हाथ वहाँ जहाँ गुनाह है स्त्री -शिक्षा परम्पराओं और वर्जनाओं की कब्रों में दफ़न है औरतों के स्वप्न जहाँ घूँघट में ही देखना है आसमान घर का मुख्य द्वार है लक्ष्मण -रेखा जिसको पार करके कभी वापस नहीं आ पाती है सीता विवाह के अग्नि -कुंड में जला अपने स्वप्नों की चिता आज विदा हो रही हूँ आँखों में आँसूओ में छिपाए यक्ष प्रश्न ? ४ बाबुल मैं ही तो थी तुम्हारी चंदनियां जिसके स्यामल मुख चन्द्र पर बचपन की महामारी ने सजा दिए थे कई सितारे जिन्हें धोने के लिए मैं इकठ्ठी करती रही डिग्रियों पर डिग्रियाँ और गृहकार्य -दक्षता के प्रमाण पत्र सुनती रही समाज के ताने सत्ताईस बरस की “लड़की घर बैठी है “ झेलती रही एक के बाद एक अपने रंग -रूप की अवहेलना के दंश मुझ वस्तु को देखने आने वाले भावी वर -परिवारों द्वारा तभी किंचित अपनी बैठी नाक को खड़ा करने के लिए तुमने सौप ही दिया मेरा हाथ एक अंगूठा छाप के हाथ जिसकी रगीन शामें कटती हैं पान की दुकानों पर पीक थूकते चौराहों पर गुंडागर्दी करते जिसे चाहिए ऐसी पत्नी जो ना करे कोई प्रश्न अपनी काली छाया समेटे बस निभाये कर्तव्य अपने रूप -रंग के तिरिस्कार के साथ आज विदा हो रही हूँ आँखों में आँसूओ में छिपाए यक्ष प्रश्न ? ५ बाबुल मैं ही तो थी तुम्हारी रूपा यथा नाम तथा गुण मासूम सा था मेरा मन अपने पंखों को देने के लिए विस्तार अर्जित कर रही थी उच्च शिक्षा जब एक वहशी ने धर -दबोचा दुःख की गठरी बन आई तुम्हारे पास तो तुम्हें मेरी दुर्दशा से ज्यादा सताई नाक की चिंता किये भागीरथी प्रयत्न जल्दी से जल्दी सडांध आने से पहले हटाने को मेरी लाश आखिरकार मिल ही गया तुम्हें झूठा -भात खाने को तैयार एक मानसिक विकलांग जिसे चाहिए थी पत्नी नहीं एक सेविका और मैं भिक्षा में मिले सिन्दूर दूसरे के अपराध की सजा में मिली डोली में आज विदा हो रही हूँ आँखों में आँसूओ में छिपाए यक्ष प्रश्न ? … Read more
अनामिका चक्रवर्ती की कवितायें
एक स्त्री कितना कुछ भोगती है जीवन में ……….. बहुत जरूरी है उस पीड़ा उस कसक को सामने लाना ,आज साहित्य में इसे स्त्री विमर्श का नाम दिया गया है ,जिस पर पुरुष भी लिख रहे हैं ……..परंतू जब स्त्री लिखती है तो वो उसका भोगा हुआ सच होता है ,जो मात्र शब्दों तक सीमित नहीं रहता अपितु मन की गहराइयों में उतरता है ……..कुछ हलचल उत्पन्न करता है और शायद एक इक्षा भी की कुछ तो बदले यह समाज ……..इन विषयों पर अनामिका चक्रवर्ती जी जब कलम चलाती हैं तो वह दर्द महसूस होता है ……… अपनी कविता घूंघट में वो परदे के पीछे छिपी स्त्री के दर्द के सारे परदे हटा देती हैं, कहीं वो याचना करती है मैं माटी जब रिश्तों की नदी में बह जाऊ तो दरख्त बन अपनी जड़ों में समां लेना ………लेकिन उनकी यात्रा यहीं तक सीमित नहीं है वो किसान के दर्द को भी महसूस करती है ……….आज अनामिका जी को पढे और जाने उनके शब्दों में छिपे गहरे भावों को हर बार कुछ नई बनती गई, प्रकृति थी जो सर्वशक्ति थी। जो अबला ना थी । हर वक़्त जीती रही औरत होने का सच पर जी ना पाई कभी औरत होने को । अनामिका चक्रवर्ती की कवितायें 1- ” घूँघट ” दाँतो तले दबाये रखती, कई बार छूटता जाता । पर सम्भाल लेती । अब तक सम्भाल ही तो रही है। सर पर रखे घूँघट को । याद नहीं पहली बार कब रखा। पर खुद को आड़ में रख लिया हमेंशा के लिये। कभी बालो को हवा से खेलने न दिया। ना कभी गालो पर धूप पड़ने दी। आँखो ने हर रंग धुंधलें देखे । देखा नहीं कभी बच्चे को खिलखिलाते , हाँ सुनती जरूर थी। माथे से आँखो तक खींचती रहती, गोद से चाहे बच्चा खिसकता रहा। साँसे बेदम होती सपने बैचेन। इच्छाये सिसकती रहीं, दिल किया कई बार, बारिश में खुद को उघाड़ ले, बूंदो को चूम ले, ये पाप कर न सकी। घूँघट का मान खो न सकी। चौखट पर चोट खाती, उजालो के अंधेरे में रहती। बालो की काली घटा, जाने कब चाँदी हो गई, मगर घूँघट टस से मस ना हुआ। 2- औरत हर वक़्त जीती रही औरत होने का सच पर जी ना पाई कभी औरत होने को रिस्तों के साँचे में, हर बार, कितनी बार ढाला गया। हर बार कुछ नई बनती गई, प्रकृति थी जो सर्वशक्ति थी। जो अबला ना थी । हर वक़्त जीती रही औरत होने का सच पर जी ना पाई कभी औरत होने को । 3 -”किसान” जल मग्न पाँव किये कुबड़ निकालें सुबह से साँझ किये। गीली रहीं हाथो की खाल हरदम। दाने दाने का मान किये। धूप सर पर नाचती रहीं। गीली मिट्टी तलवो को डसती रहीं। भूख निवाले को तरसती रहीं। धँसे पेट जाने कितनो के निवाले तैयार किये। धान मुस्काती रहीं लहलहाती रहीं। साँसे कितनी उखड़ती रहीं। हरा सोना पक कर हुआ खाटी। पर दरिद्र किसान ताकता रहा दो जून की रोटी आत्ममुग्ध सरकार से। 4- दरख़्त जब रिश्तों की नदीं में बह जाऊँ फ़र्ज़ की आँधी में , मिट जाऊँ। बन जाना तब तुम एक दरख़्त जिससे लिपट के मैं सम्भल जाऊँ बहने न देना ,मिटने न देना बस मिट्टी बना कर समा लेना , खुद की जड़ो में, मै जी जाऊँगी सदा के लिये 5- नियती है बहना शायद मैं सुन सकती तुम्हारी आवाज़ अंधेरे से निकलती हुई एक आह बनकर मेरे अंतस में उतरती हुई जबकी ये जानती हूँ मैं , प्रेम यथार्त में नहीं बस एक तिलिस्म है । खत्म होने के डर के साथ, नियती है बहना । बनकर धारा बह रही हूँ। 6- मील का पत्थर लम्बी सड़कों के तट पर, सदियों से खड़ा है। सीने में अंक और नाम टाककर , कि मुसाफिर भटक न जाये। पर मुसाफिर भटकते है फिर भी, क्योंकि भटकने से पहले , नहीं दिखता उन्हें कोई मील का पत्थर। या देखने से बचना चाहते है, उठाना चाहते है भटकने का आनंद। उन्हें ठोकर का एहसास ही नहीं होता, बड़े बेपरवाह होते है ये मुसाफिर। मील के पत्थर की आवाज, उसके भीतर पत्थर में ही तब्दील हो जाती है। मुसाफिर और मील के पत्थर का रिश्ता , आँखों का होता है। इशारों ही इशारों में कर लेते है बातें नहीं आती उन्हें कोई बोली। मगर होती है उनकी भी आवाज़, जो दिशाएँ बताती है। रास्तों को मंजिल तक ले जाती है। अनामिका चक्रवर्ती ”अनु” –परिचय अनामिका चक्रवर्ती ‘अनु‘ जन्म स्थान : सन् 11/2/1974 जबलपुर (म.प्र.) प्रारंभिक शिक्षा : भोपाल म.प्र. स्नातक : गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर छत्तीसगढ़ एवं PGDCA प्रकाशन : विभिन्न राज्यों के पत्र पत्रिकाओ में रचनाएँ और लेख प्रकाशित। एवं एक साझा म्युज़िक एलवम प्रतिति के लिये गीत लिखे संप्रति : स्वतंत्र लेखन संपर्क : अनामिका चक्रवर्ती अनु वार्ड न.- 7 नॅार्थ झगराखण्ड मनेन्द्रगढ़ कोरिया छत्तीसगढ़ – 497446 ई-मेल : anameeka112@gmail.com यह भी पढ़ें …. पिंजड़े से आज़ादी बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय आपको ” अनामिका चक्रवर्ती की कवितायें “ कैसे लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita
वीरू सोंनकर की कवितायेँ
कानपुर निवासी वीरू सोनकर जी आज किसी परिचय के मोहताज़ नहीं है। कम उम्र में ही उन्होंने कविता की गहन समझ का परिचय दिया है। उनकी लेखनी विभिन्न विषयों पर चलती है.………… पर मुख्यत :वो समाज की विसंगतियों व् विद्रूपताओं पर प्रहार करते हैं। …………… मानवीय भावनाओं को वो सूक्ष्मता से पकड़ते हैं.………। उनकी कलम आम आदमी की पीड़ा को बहुत सजीवता से रेखांकित करती है ,कही वो शब्दों के मकड़जाल में न फंस कर समाधान को वरीयता देते हैं। …………. उनकी लम्बी कविता प्रतिशोध सताई गयी लड़कियों के प्रति सहानभूति जागाते हुए भयभीत भी काराती है “सामाज अभी भी सुधर जाओ वो लडकियां वापस आयेगी प्रतिशोध लेने ……… हमारे और आपके घरों में …………. – तीनो लडकियाँ मरने के बाद, ऊपर आसमानों पर मिलती है और वह अब पक्की सहेलियाँ बन गयी है वह फिर से जन्मना चाहती है एक साथ— फिर से किसी इस्लामिक देश में, लेनिनग्राद वाली लड़की का फैसला है वह देश इस्लामिक ही होगा ! तीनो लड़कियों के लड़ने का फैसला अटल है और शायद जीत जाने का भी—————– तैयार रहिये ! वह लडकियाँ वापस आ रही है शायद हमारे और आपके ही घरो में ! शब्द मैंने कहा “दर्द” संसार के सभी किन्नर, सभी शूद्र और वेश्याएँ रो पड़ी ! मैंने शब्द वापस लिया मैंने कहा “मृत्यु” सभी बीमार, उम्रकैदी और वृद्ध मेरे पीछे हो लिए ! मैंने शर्मिन्दा हो कर सर झुका लिया मैंने कहा “मुक्ति” सभी नकाबपोश औरते, विकलांग और कर्जदार मेरी ओर देखने लगे ! अब मैं ऊपर आसमान में देखता हूँ और फिर से, एक शब्द बुदबुदाता हूँ “वक्त” ! कडकडाती बिजली से कुछ शब्द मुझ पर गिर पड़े— “मैं बस यही किसी को नहीं देता !” मैं अब अपने सभी शब्दों से भाग रहा हूँ आवाजे पीछे-पीछे दौड़ती है— अरे कवि, ओ कवि ! संसार के सबसे बड़े भगोड़े तुम हो ! उम्मीदों से भरे तुम्हारे शब्द झूठे है ! मैं अपने कान बंद करता हूँ ! मैं अपने समूचे जीवन संघर्ष के बाद, सबके लिए बोलना चाहूँगा, बस एक शब्द—- “समाधान” अब से, अभी से, यही मेरी कविताओ की वसीयत है ! अब से, अभी से, मेरी कविताये सिर्फ समाधान के लिए लड़ेंगी ! मैंने मेरी कविताओ का वारिस तय किया— सबको बता दिया जाये…………………………………….. . २। ……… रेहाना अपनी इस फ़ासी पर, रेहाना कतई नहीं रोती है ! वह जागती है और इंतज़ार करती है—— वह अपने माँ-पिता या भाई को नहीं सोचती, भविष्य के सपने भी नहीं याद करती, रेहाना अपने अंगूठे से जमीन भी नहीं कुरेदती, खुद की आजादी के लिए तो वह सोचती तक नहीं— बहुत ही शांत चेहरे के साथ, जैसे रेत में घिरी कोई पहाड़ी धुप में चमकती है वैसे ही रेहाना जल्दी में रहती है ! चाहती है उस पर कुछ न लिखा जाये, वह अपनी फाँसी पर दुनिया के देशो के महासम्मलेन भी नहीं चाहती, संयुक्त राष्ट्र संघ के विरोध पत्र, या नारी मुक्ति की बहस में भी उसको नहीं पड़ना, रेहाना को किसी से शिकवा नहीं रेहाना किसी से गुस्सा भी नहीं ! रेहाना सोचती है ! वह गलत जगह आ गयी थी, ये दुनिया उसकी गलती ठीक कर रही है ! फ़ासी पर चढ़ती रेहाना ! दुनिया की शुक्रगुजार रहती है और चाँद सितारों के पार देखती है वही, जहाँ उसे जाना है————————- ३। ………… .सुनी -सुनाई हम– एक अंधी गहरी गुफा में, बढ़ाते है कुछ सामूहिक कदम ! और लड़खड़ाते है गिरते है फिर-फिर सँभलते है—- और आगे बढ़ते है ! हमने सुन रखा है आगे ! बहुत आगे जा कर, जहाँ / गुफा ख़त्म होती है वहाँ रौशनी मिलती है हमने सुन रखा है______ ४। …………। प्रतिशोध 1— लेनिनग्राद की पक्की सड़क पर एक बच्ची तेज़ी से जाती है अपने स्कूल की ओर,वह बिलकुल लेट नहीं होना चाहतीऔरवह नहीं जानती isis क्या होता है— हाँ , उसने मलाला युसुफजई का नाम सुना है टीचर कहती है उसे उसके जैसा ही बहादुर बनना है ! 2— एक तालिबानी लड़की भी चलती है गॉव की कच्ची सड़क पर, और उसे कोई जल्दी नहीं स्कूल पहुचने की, वह देखती है रोज के रोज अपनी सोचो में बुनी खुद की एक सहेली, जो बिलकुल, उस जैसी दिखती है वह लड़की रोज स्कूल तक जाती है झूट मुठ की अपनी सहेली को वहीँ छोड़ आती है लड़की को सपने वाली सहेली के भविष्य की बहुत चिंता होती है— 3—- एक इराकी-यहूदी लड़की अब स्कूल नहीं जाती ! वह अब यहूदी भी नहीं रही, और लड़की भी नहीं रही, वह 3 बार बिक चुकी है अपने ही स्कूल के बाहर के औरत-बाजार में, लड़की कोशिश करती है हालात समझने की— बस एक महिना पहले, जब वह रोज स्कूल जाती थी अपने पिता के संग, और स्कूल के गेट पर थमा देती थी अपनी फरमाईशों की लिस्ट पापा भूलियेगा नहीं ! और पिता कभी नहीं भूलता था अब लड़की, अपने पिता को नहीं भूलती ! वह खुद के हर खरीदार में अपना पिता तलाशती है फिर से किसी स्कूल तक जाने के लिए— और उसका सपना हर रात तोड़ दिया जाता है ! ———————— तीनो लडकियाँ मरने के बाद, ऊपर आसमानों पर मिलती है और वह अब पक्की सहेलियाँ बन गयी है वह फिर से जन्मना चाहती है एक साथ— फिर से किसी इस्लामिक देश में, लेनिनग्राद वाली लड़की का फैसला है वह देश इस्लामिक ही होगा ! तीनो लड़कियों के … Read more
कोबस -कोबस
महानगरों में रहने वालों की त्रासदी – कंक्रीट के जंगल में ,छोटे – छोटे फ्लैट्स में गुजर बसर करना .यह कहानी ऐसी ही एक महानगरीय सभ्यता को व्याख्यायित करती है .रोजमर्रा की भाग – दौड़ के बीच अपने और अपनों के लिए समय निकाल पाना महानगरों में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए मुश्किलों से भरा काम होता है .पर ,बचपन के संस्कार और कुछ अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण आधुनिकता का चोला पहन उन रीति – रिवाजों के प्रति ये भी अत्यंत सचेत होते हैं जिनका औचित्य वे भले ही जानते – समझते न हों . अपने पूर्वजों के प्रति जुड़े रहने की गारंटी देने के लिए ऎसी ही एक परम्परा को निभाने की बात को लेकर एक मुहल्ले के सभी नागारिकों की मीटिंग चल रही थी .मुद्दा था – पितृ –पक्ष में घर की छत पर कौवों का न मिलना .जाहीर सी बात है पम्परा के अनुसार अगर श्राद्ध के अन्न को कौवे ने नहीं खाया तो श्राद्ध मान्य नहीं होगा .पर ,इस कंक्रीट के जंगल को कौवों ने अपने अनुकूल न जान अब लगभग त्याग ही दिया था . लोगों की चिंता धीरे – धीरे बहस का रूप लेती जा रही थी कि एक सज्जन ने सुझाया –‘क्यों न हम मुहल्ले से थोड़ा हटकर बने पार्क में श्राद्ध के लिए जाएँ ? मुहल्ले के पार्क में तो यह संभव नहीं क्योंकि वहाँ कई महंगे पेड़ और करीने से सजा – धजा लॉन है जहाँ हमारे बच्चे खेलते हैं या हम कभी वहाँ घूमने ही चले जाते हैं .अत: वहाँ गंदगी फैलाना उचित नहीं ‘ दूसरे ने उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा – ‘ बिलकुल सही कह रहे हैं आप मुहल्ले के बाहर वाला पार्क ही ठीक रहेगा .वहाँ बेतरतीब पेड़ – पौधे भी खूब हैं और आसपास झुग्गियां ही हैं तो कौवे तो मिलेंगे ही गंदगी फैले या न फैले इस बात से भी कोई फर्क नहीं पडेगा ‘ इस बात से हर किसी ने सहमती जताई .नतीजतन ,फैसला हुआ कि कमीटी द्वारा अगले दो दिनों के अन्दर पितृ –पक्ष शुरू होते से पहले पार्क के एक छोटे से हिस्से की साफ़ – सफाई करा दी जाए ताकि लोग अपनी सुविधानुसार या श्राद्ध की तिथि के अनुसार वहाँ जाकर कौवों को अन्न खिला पितरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें .. उस पार्क के पास बड़ी संख्या में झुग्गियाँ थीं .सब की सब अवैध रूप से बनी हुई उस में रहने वाले सभी या तो ऑटो चालक थे या ठेले पर फल – सब्जी बेचने वाले या फिर ऐसे ही कोई छोटा – मोटा रोजगार करने वाले .कुछ मजदूर – वर्ग के लोग भी यहाँ झुग्गी बना रहते थे .कई बार सत्ता की और से उन झुग्गियों को हटाने की कोशिश हुई पर हमेश विपक्ष की और से ऐसा बखेड़ा खडा कर दिया जाता कि सत्ता पक्ष चुप हो जाता और शहर के बीचो – बीच गगनचुम्बी इमारतों को चिढाती वे झुग्गियाँ पूरी शान से सर उठाये खडी थीं .आसपास के लोगों को उन झुग्गियों से कुछ ख़ास शिकायत नहीं थी क्योंकि वहाँ की महिलायें उन के घरों के काम करती थीं .अत: यह सभी भली – भांती जानते थे कि अगर यह झुगी – बस्ती यहाँ से हट गई तो कामवालियों का अकाल पड जाएगा .इस तरह परस्पर समन्वय और सहजीवन की प्रतीक ये झुग्गियां निश्चिन्त थीं .इन्हीं झुग्गियों में एक झुग्गी बस अभी – अभी बनी ही थी . रमेश ,उस की पत्नी और एक पाँच वर्ष का उनका बेटा – अभी कुछ दिनों पूर्व ही गाँव से आ कर रोजगार की तलाश में यहाँ बस गए थे .रमेश झुगी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बन रहे एक विशाल शौपिंग – माँल में मजदूरी करने लगा था और उसकी पत्नी अंजू अन्य महिलाओं की तरह एक घर में चौका – बर्तन ,साफ़ – सफाई आदि .करने लगी थी .बेटा गोकुल – जब तक माँ दूसरे घरों के काम निबटाती पास – पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता रहता .उस की झुग्गी पार्क से बिलकुल सटी हुई थी .अत: वह अक्सर पार्क में बेतरतीब उगे वृक्षों पर भी चढने की कोशिश करता .इस क्रम में कई बार गिरा भी और माँ से इस के लिए डांट भी खूब सुनी लेकिन वह कभी अपनी इस आदत से बाज न आता था . ऎसी ही दिनचर्या के साथ एक सुबह गोकुल अपनी झुग्गी के पास बैठा हुआ था .अभी पास – पड़ोस के बच्चे खेलने आये नहीं थे .तभी उसकी आँखें गहरे आश्चर्य से फ़ैल गईं .उस के पास ही कुछ दूरी पर एक बड़ी सी चमचमाती कार आकर हच से रुकी और वह कुछ समझ पाता इस से पहले ही उस कार से एक भारी – भरकम डील – डौल वाले रेशमी कुरते – पायजामे में सजे – धजे एक सज्जन निकले .उन के एक हाथ में एक बड़ा सा कई खानों वाला टीफिन था तथा दूसरे में एक प्लास्टिक की थैली में कुछ सामान .महानगरीय सभ्यता का आदी हुआ जा रहा गोकुल न तो बड़ी गाड़ी से आश्चर्यचकित था और न ही उन सज्जन के पहनावे से .उस के आश्चर्य का कारण था सज्जन का गाड़ी में बैठ कर वहाँ पार्क तक आना .बालक – मन कौतुहल से भर उठा .उसे वह सज्जन रहस्यों से भरे लगे .खासकर उन के हाथ में टंगा वह टीफिन .वह अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उन सज्जन के पीछे – पीछे पार्क में पहुँच गया .सज्जन ने पार्क की थोड़ी सी साफ़ जगह पर टीफिन रख अभी प्लास्टीक की थैली को खोलने का उपक्रम ही किया था कि उन की नजर पास खड़े गोकुल पर पद गई .गंदे कपडे में लिपटे बच्चे को अपनी और उत्कंठा से देखते हुए देख उन्हों ने उसे जोर से डांटते हुए कहा – ‘ अबे ,चल भाग यहाँ से .खडा – खडा क्या देख रहा है ‘ फटकार सुन गोकुल डर से न चाहते हुए भी उन सज्जन की नज़रों से ओझल होने के लिए पास की झाड़ी के पीछे चला गया और वहीं से उन्हें देखने लगा . सज्जन ने कागज़ के बने चमकीले प्लेट्स निकाले तथा टिफीन खोल उस में एक – एक कर खीर ,पूड़ी और सब्जी रखने लगे .इतना बढ़िया खाना देख गोकुल के मुँह में पानी आ गया .उस पर सब्जी से उठती गरम मसाले की सुगन्ध से उस का अपने पर से नियंत्रण … Read more