ढ़ेर सेर चाँदी -सारांश व समीक्षा

ढ़ेर सेर चाँदी

अंत हीन दुख, निराशा, पीड़ा अवसाद की ओर धकेलते हैं और अगर घनघोर निराशा की बीच आस की अंतिम किरण भी डूब जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन कैसे संभाले l नईका के साथ भी यही हुआ l मैं बात कर रही हूँ अभी हाल में घोषित हुए रमाकांत स्मृति पुरुस्कार से सम्मानित आशा पांडे जी की कहानी ‘ढ़ेर सेर चाँदी’ की l कहानी पढ़ते हुए मुझे रहीम दास जी का एक दोहा याद आ रहा था l रहिमन चुप बैठिए, देख दिनन के फेर नीके दिन जब आत हैं बनत ना लगिहे देर मतलब ये जीवन सुख-दुख से बना है l दुख के बाद सुख, सुख के बाद दुख आना ही आना है तो जब दुख हो, धैर्य के साथ प्रतीक्षा करनी चाहिए l   ढ़ेर सेर चाँदी सारांश व समीक्षा  परंतु कहानी में नईका के जीवन में जब दुख एक बार दस्तक देता है, तो उजास के लिए कोई छेद नहीं छोड़ता l क्योंकि उसका दुख ईश्वर प्रदत्त नहीं है, उसका दुख अपनों द्वारा दिए जाने वाले धोखे का दुख है, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले धोखे का भी l मनुष्यता के पतन का दुख है l जिसकी पृष्ठभूमि में दुख और अवसाद में बौराए इंसान को पागल करार देने वाला समाज है l ग्राम्य समाज और सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं की चितेरी आशा जी की कहानी हमें गाँव समाज के पुराने दौर में ले जाती है l कहानी की नायिका नईका जब मायके से विदा होती है तो उसकी माँ उसे ढ़ेर सेर चाँदी देती है l उस समय और समाज के लिए ये बहुत बड़ी बात थी, जहाँ आधे सेर से ज्यादा चाँदी लेकर कोई बहु नहीं आती थी l ससुराल भी ठीक-ठाक था l डेढ़ बीघा ज़मीन को जोत सास-ससुर और पति भग्गू करके घर में अनाज की कमी नहीं होने देते l घर के पीछे की ज़मीन में साग-भाजी उग जाती l जिंदगी यू टर्न तब लेती है जब चिकित्सा विभाग द्वारा, अपनी रिपोर्ट्स में नसबंदी के ऑपरेशन की निश्चित संख्या दिखाने के लिए जबरन पकड़ कर किया गया अत्याचार भग्गू को ऐसे भयंकर अवसाद में ले लेता है कि उसके मुँह से आवाज़ निकलना बंद हो जाती है और नईका के जीवन में आस-औलाद की सारी उम्मीदें खत्म l   एक मुसीबत हज़ार मुसीबत लेकर आती है l नईका के जीवन में जहाँ अगली पीढ़ी को लाने की उम्मीद का दिया बुझ चुका है l वहीं सास-ससुर अपने बेटे की आवाज़ वापस लाने के लिए गले बराबर लगे हुए हैं l पड़ोस में चचेरे भाई अंत हीन दुख, निराशा, पीड़ा अवसाद की ओर धकेलते हैं और अगर घनघोर निराशा की बीच आस की अंतिम किरण भी डूब जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन कैसे संभाले l नईका के साथ भी यही हुआ l मैं बात कर रही हूँ अभी हाल में घोषित हुए रमाकांत स्मृति पुरुस्कार से सम्मानित आशा पांडे जी की कहानी ‘ढ़ेर सेर चाँदी’ की l कहानी पढ़ते हुए मुझे रहीम दास जी का एक दोहा याद आ रहा था l रहिमन चुप बैठिए, देख दिनन के फेर नीके दिन जब आत हैं बनत ना लगिहे देर मतलब ये जीवन सुख-दुख से बना है l दुख के बाद सुख, सुख के बाद दुख आना ही आना है तो जब दुख हो, धैर्य के साथ प्रतीक्षा करनी चाहिए l परंतु कहानी में नईका के जीवन में जब दुख एक बार दस्तक देता है, तो उजास के लिए कोई छेद नहीं छोड़ता l क्योंकि उसका दुख ईश्वर प्रदत्त नहीं है, उसका दुख अपनों द्वारा दिए जाने वाले धोखे का दुख है, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले धोखे का भी l मनुष्यता के पतन का दुख है l दुख और अवसाद में बौराए इंसान को पागल करार देने वाला समाज है l ग्राम्य समाज और सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं की चितेरी आशा जी की कहानी हमें गाँव समाज के पुराने दौर में ले जाती है l   कहानी की नायिका नईका जब मायके से विदा होती है तो उसकी माँ ने ढ़ेर सेर चाँदी देती है l उस समाज के लिए ये बहुत बड़ी बात थी, जहाँ आधे तोले से ज्यादा चाँदी लेकर कोई बहु नहीं आती थी l ससुराल भी ठीक-ठाक था l डेढ़ बीघा ज़मीन को जोत सास-ससुर और पति भग्गू करके घर में अनाज की कमी नहीं होने देते l घर के पीछे की ज़मीन में साग-भाजी उग जाती l जिंदगी यू टर्न तब लेती है जब चिकित्सा विभाग द्वारा, अपनी रिपोर्ट्स में नसबंदी के ऑपरेशन की निश्चित संख्या दिखाने के लिए जबरन पकड़ कर किया गया अत्याचार भग्गू को ऐसे भयंकर अवसाद में ले लेता है कि उसके मुँह से आवाज़ निकलना बंद हो जाती है और नईका के जीवन में आस-औलाद की सारी उम्मीदें खत्म l एक मुसीबत हजार मुसीबत लेकर आती है l नईका के जीवन में जहाँ अगली पीढ़ी को लाने की उम्मीद का दिया बुझ चुका है l वहीं सास-ससुर अपने बेटे की आवाज वापस लाने के लिए गले बराबर लगे हुए हैं l पड़ोस के भाई रामअंजोर के पास खेत गिरवी रख इलाज करवाने का भी कोई फायदा नहीं मिलता l असमय सास-ससुर की मृत्यु, पड़ोसी रामअंजोर का धोखा और नायिका सुनी गोद सूनी देह की व्यथा-कथा, जिससे लड़ते हुए नईका मजूरी कर अपना व पति का पेट पालती है l लेखिका -आशा पाण्डेय उसकी आँखों में अतीत के मधुमास रह-रह कर उभरते हैं और झूठी आशा जीवन को सहेजती है कि शायद कभी पति के प्रेम भरे बोल ही उसके जीवन में लौटे l जब वो देखती है कि उसकी मालकिन के रामायण करवाने की मनौती मान लेने से उनकी मनोकामना पूरी हो गई तो उसे याद आती है डेढ़ सेर चाँदी, जो उसने जमीन में गाड़ रखी है l उसकी एक ही कामना है भग्गू की आवाज़ वापस आ जाए l लेकिन ज़मीन खोदने पर वहाँ कुछ नहीं मिलता है l उसके सिर पर चंडी सवार हैं l जो अभी पति के लिए डेढ़ सेर चाँदी वारने को तैयार थी, वही अब उसका गला दबा कर पूछती है कि तुमने किसी को इशारा किया कि यहाँ चाँदी गड़ी है l भग्गू का इशारा रामअंजोर की पत्नी की तरफ़ है पर बिना बोले … Read more

डेढ़ सेर चाँदी

डेढ़ सेर चाँदी

  अंत हीन दुख, निराशा, पीड़ा अवसाद की ओर धकेलते हैं और अगर घनघोर निराशा की बीच आस की अंतिम किरण भी डूब जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन कैसे संभाले l नईका के साथ भी यही हुआ l मैं बात कर रही हूँ अभी हाल में घोषित हुए रमाकांत स्मृति पुरुस्कार से सम्मानित आशा पांडे जी की कहानी ‘ढ़ेर सेर चाँदी’ की l कहानी में नईका के जीवन में जब दुख एक बार दस्तक देता है, तो उजास के लिए कोई छेद नहीं छोड़ता l क्योंकि उसका दुख ईश्वर प्रदत्त नहीं है, उसका दुख अपनों द्वारा दिए जाने वाले धोखे का दुख है, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले धोखे का भी l मनुष्यता के पतन का दुख है l जिसकी पृष्ठभूमि में दुख और अवसाद में बौराए इंसान को पागल करार देने वाला समाज है l आशा जी ग्रामीण जीवन और आम मानवीय  मनोभावों की बारीकियों को, सच्चाईयों को इस तरह से सहजता के साथ उकेरती हैं उनकी  कहानी अपने व्यापक संदर्भ में याद रह जाती है l एक अच्छी कहानी और पुरस्कार के लिए आशा जी को बधाई डेढ़ सेर चाँदी किवाड़ उढगा था। नइका कोहनी से किवाड़ ठेल कर अँगनाई में पहुँची। अँगनाई के कोने में बंधी दोनों बकरियां उसे देख कर मिमियाने लगीं। दिन भर से अकेला पड़ा भग्गू भी उठकर खटिया पर बैठ गया। नइका का हाथ घास और बबूल की टहनियों से भरा था। मिसिर के यहाँ से आते-आते उसने रास्ते से बकरियों के लिए टहनियाँ तोड़ी थीं। बकरियाँ पिछले दो-चार दिन से खूँटे पर ही बंधी हैं बेचारी। संझा-सबेरे बाहर ले जाकर चराने का मौका नहीं मिल रहा है नइका को। अभी दो दिन और ऐसे ही चलेगा। घास और टहनियों को बकरियों के आगे डाल कर नइका ने पंजीरी-बताशे की गठरी को पीढ़े पर रखा और बाल्टी रस्सी लेकर कुँए पर हाथ-मुँह धोने चली गई। ठंडे पानी से छीटे मार-मार कर मुँह धोया, हाथ-पैर धोए,भरी बाल्टी आँगन में लाकर रखी और आँचल से मुँह पोछते हुए ओसारे में आकर बैठ गई। अँगनाई में ही छान उठाकर दो ओसारे निकाल लिए हैं नइका ने। दो कच्ची कोठरी और दो छनिहर ओसारे का उसका ये घर भीतर घुसते ही उसे सुकून से भर देता है। कितना भी थककर चूर हो गई हो पर अपनी  अँगनाई में आते ही उसकी आधी थकान खुद-ब-खुद चली जाती है। सुबह जब से गई थी, तब से एक मिनट की भी फुर्सत नहीं मिली थी उसे। इतना बड़ा कार्यक्रम आने-जाने वालों की इतनी भीड़! बैठती भी तो कैसे ? मिसिर काका बहुत भरोसा कर उसे बुलाते हैं,अगर वह भी बैठ जायेगी तो काम कैसे चलेगा? खड़े-खड़े दोना भर पंजीरी-बताशा फाँक कर पानी पी लिया था उसने और लगी रही बासन माँजने में, झाड़ू लगाने में। वहीं पुरबहिन और चमेला जांगर चुरा-चुराकर इधर से उधर भाग रहीं थीं। पाँच-छह दोना पंजीरी फाँक गईं। जो भी उधर से प्रसाद बाँटते हुए  निकलता, उसी के सामने हाथ पसार देतीं। अखंडरामायण पाठ के बैठक से पहले सत्यनारायण की कथा हुई थी। उसी का प्रसाद बंट रहा था। दिन भर लोग आते रहे। प्रसाद कम पड़ जाता तो! किसी की इज्जत की जरा-सी परवाह नहीं है इन लोगन को, अगला भरोसा किये बैठा है और ये लोग उसकी इज्जत लेने पर उतारू हुई हैं। भगवान से भी नहीं डरतीं ये लोग– नइका का मन वितृष्णा से भर गया। साँझ धुंधलाने लगी। संझबाती की बेला में बैठकर सुस्ताने से काम नहीं चलेगा- नइका ने मन ही मन सोचा और घुटने पर हाथ रखकर उठी, चूल्हे के पास काँच की एक ढिबरी पड़ी थी। उसमें तेल आधी शीशी से भी कम था। नइका ने शीशी को उठाकर देखा- आज का काम किसी तरह से चल जायेगा। कल के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी। रामअजोरवा को कितनी बार कहा था कि बचवा, खम्भे से तार खींच कर एक लट्टू मेरे आँगन में भी लटका दो। मिट्टी के तेल का खर्चा तो कुछ बचता पर मुए ने नहीं सुना। नइका मन ही मन बड़बड़ाते हुए ढिबरी जलाकर अँगनाई के गौखे पर रख आई। वहाँ से दोनों ओर ओसारे में उजियारा फ़ैल गया। भग्गू फिर ‘गों-गों’ करने लगा। नइका ‘गों-गों’ के अलग-अलग सुरों को पहचानती है। समझ गई कि उसका पति भूखा है। वह पंजीरी-बताशा,हलुवा-पूड़ी की गठरी उठा लाई। भग्गू की खटिया पर बैठकर  खोलने लगी। उस धुंधलके में भी नइका ने भग्गू की आँखों की चमक को देख लिया, मन-ही मन मुस्कराई- इसी चमक को देखने के लिए ही तो उसने वहाँ कौर-भर भी कुछ नहीं खाया था। सब उठा लाई थी। मिसिर काका ने हलुवा ज्यादा दिलवा दिया था। काकी तो देने में कुछ आना-कानी कर रहीं थीं पर काका ने डपट दिया। ‘दे दो उसे भरपूर,गुंगवा (भग्गू) के लिए ले जाएगी’। नइका धन्य हो गई थी। इसीलिए तो मिसिर काका की एक आवाज पर दौड़ी चली जाती है। गुंगवा को पूड़ी के साथ अचार अच्छा लगता है। नइका ने हिम्मत की– ‘काकी फाँक दो फाँक अचार भी दे देतीं।’ काकी ने मुस्कुराते हुए बिना उसे झिड़के तीन-चार फांक अचार लाकर पूड़ी के ऊपर रख दिया। नइका खाने की गठरी खोल रही थी। भग्गू ने सिरहाने से आधा प्याज और नमक निकाल लिया। नइका सबेरे उसे प्याज रोटी देकर गई थी। उसी में से कुछ बचा लिया था भग्गू ने। नइका मुस्कराई—‘रक्खो उसे,अचार लाई हूँ पूड़ी के साथ।’ भग्गू गों-गों करके हंसने लगा। भग्गू की हंसी नइका के कलेजे में धंस गई। इकलौता भग्गू माँ-बाप का बहुत दुलारा था। दोनों जून उसे थाली में दाल-भात, रोटी- तरकारी, सब चाहिए थी। जब नइका इस घर में ब्याह कर आई थी तब इस घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। डेढ़ बीघा खेत का मालिक था उसका ससुर। माँ,बाप,बेटा तीनों जुट कर खेती करते। बाहर भी मजूरी करते। घर में अनाज भरा रहता। भाजी-तरकारी तो भग्गू घर के अगवारे-पिछवारे की जमीन में ही बो देता। लौकी, तरोई , करेला आँगन की छान पर खूब लदे रहते। सास खुश होकर कहतीं, “मेरे बेटे के हाथ में बहुत बरक्कत है, ऊसर-पापड़ में भी बीज छीट देता है तो धरती सोना उगलने लगती है।” अब यही भग्गू …! नइका ने थाली में पूड़ी,अचार और हलुवा रख कर भग्गू के आगे … Read more

गीत अटपटे-बड़े चटपटे

गीत अटपटे बड़े चटपटे

लगभग 50 वर्षों पूर्व हिन्दी के बालसाहित्यकारों का एक बड़ा जमावड़ा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ था। जमावड़ा शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ कि तब बालसाहित्य भी जमने के लिए निरंतर प्रयत्नशील था, ऐसे में इस अधिवेशन को मुझे वास्तव में जमावड़ा कहना ही अधिक प्रासंगिक लगा। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें उन सभी बालसाहित्यकारों की विशेष रूप से उपस्थिति थी, जो आगे चलकर बालसाहित्य में मानक बने। कुछ नाम छूटने के डर से यहाँ नामोल्लेख करना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है। पूरे कार्यक्रम में लखनऊ के तत्कालीन बालसाहित्यकारों ने एक पाँव पर खड़े होकर जो सहयोग किया था, उसकी कल्पना से ही मन आह्लादित हो उठता है। जब मैं यह टिप्पणी लिख रहा हूँ तो उनमें से अधिकांश का स्मरण करते हुए मेरा माथा श्रद्धा से झुका जा रहा है, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। हुआ यह कि किसी को भी बालसाहित्य पर केन्द्रित ऐसे सफल अधिवेशन की न तो कल्पना थी, और न ही बालसाहित्य की गंभीरता को लेकर उठाए गए सवालों पर गंभीर विमर्श की उम्मीद थी। यह अच्छा रहा कि आज बालसाहित्य के नाम पर चहलकदमी करने वाले लोग तब तो इस क्षेत्र में आए ही नहीं थे। कुछ लोग जरूर दूर से ही तमाशा देख रहे थे। विष्णुकांत पांडेय : गीत अटपटे-बड़े चटपटे इस पूरे कार्यक्रम को लेकर दिनमान में एक रिपोर्ट छपी —–चमकदार अस्तबल: कमज़ोर घोड़े। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस रिपोर्ट को जिसने लिखा था, वह कोई छोटा- मोटा साहित्यकार नहीं था, साहित्य जगत में उसके नाम की तूती बोलती थी। तीसरा सप्तक का वह कवि बालसाहित्य में भी बराबर की दखल रखता था। आगे चलकर उसने पराग जैसी बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन भी किया। उसका नाम था —-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना , और वे दिनमान में नियमित चरचे और चरखे स्तंभ लिखा करते थे। (पाठक इस स्तंभ में छपी सामग्री सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ग्रंथावली के भाग 8-9 में पढ़ सकते हैं)। इसके छपते ही पहले दबी जुबान से फिर मुखर रूप में हंगामा शुरू हो गया। मोतिहारी बिहार के साहित्यकार विष्णुकांत पांडेय उस समय परिकल्पना पत्रिका निकालते थे। उन्होंने इसका मुख्य रूप से विरोध किया, तथा आगामी बालसाहित्य की क‌ई संगोष्ठियों में भी यह चर्चा मुखर रही। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे विष्णुकांत पांडेय की पांडुलिपि बालसाहित्य विवेचन पढ़ने को सन् 1982-83 में निरंकारदेव सेवक के घर पर बरेली में मिली थी। उस पांडुलिपि को बिहार सरकार ने पुरस्कृत भी किया था, मगर पांडुलिपि पुस्तक के रूप में कभी छप नहीं सकी। इसकी चर्चा मैंने सन् 1992 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हिन्दी बाल पत्रकारिता: उद्भव और विकास में किया है। कुछ लोग विष्णुकांत पांडेय को बालसाहित्य का दुर्वासा भी कहते थे, लेकिन सही अर्थों में वे दुर्वासा इसलिए थे कि उन्हें गलत बात किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं थी। उनके शिशुगीतों की खूब चोरी हुई है। ऐसे क‌ई लेखकों पर उन्होंने कानूनी कार्रवाई भी की थी, वकील की नोटिस भिजवाई थी। उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ के कार्यक्रम में जब वे लखनऊ आए थे, तो मेरी उनसे क‌ई मुद्दों पर बात हुई थी। एक लेखक ने उनके शिशुगीतों की पूरी पुस्तक ही अपने नाम से छपवा ली थी। इसकी जानकारी मुझे थी। जब चर्चा चली तो वे आगबबूला हो गए थे। उनका गुस्सा जायज़ था। उन्हें पेसमेकर लगा था, इसलिए उन्हें ज़्यादा छेड़ना मैंने उचित नहीं समझा। दरअसल, इस भूमिका की पीछे असली तथ्य यह था कि पहले विष्णुकांत पांडेय की साहित्यिक रचनात्मकता, मान्यताओं और प्रवृत्तियों को समझ लिया जाए, फिर उनके शिशुगीतों पर चर्चा की जाए,ताकि पाठक समझ जाएँ कि वैसे साहित्यकार संवेदनशील होता है, मगर जब बात आत्मसम्मान की आ जाए तो फिर वह किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करता है। ऐसे गुणी, आत्मसम्मानी और बालसाहित्य के लिए प्राणप्रण से लगे रहने वाले साहित्यकार विष्णुकांत पांडेय ने वैसे तो बालसाहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है, मगर उनके शिशुगीतों का कोई सानी नहीं है। यह कहना बड़ा कठिन है कि हिन्दी का पहला शिशु गीत कौन सा है, परन्तु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दी में शिशु गीतों का आरंभ स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही हो गया था और छठवें दशक तक आते-आते अनेक रोचक और महत्त्वपूर्ण शिशु गीत लिखे ग‌ए। शिशु गीतों को एक सफल मंच प्रदान करने का श्रेय बच्चों की सुप्रसिद्ध पत्रिका पराग को है। पराग में पूरे दो पृष्ठों में शिशु गीत आकर्षक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित किए जाते थे। शिशुगीतों के सृजन और चयन के पीछे संपादक की अपनी गहरी सूझबूझ होती थी। संपादक आनंदप्रकाश जैन की यह टिप्पणी बड़ी महत्त्वपूर्ण है:—– “पिछले कई वर्षों से पराग में शिशुगीत छापे जा रहे हैं। इन शिशुगीतों के चयन में बड़ी सावधानी बरती जाती है क्योंकि शुद्ध शिशुगीत लिखना उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है। इसलिए अच्छे शिशु गीत बहुत कम लिखे जा रहे हैं। शिशुगीत ऐसे होने चाहिए कि इन्हें 4 से 6 साल तक के बच्चे आसानी से ज़बानी याद कर लें और अन्य भाषा-भाषी बच्चे और बड़े भी इनका आनंद ले सकें। इनसे मुहावरेदार हिन्दी सरलता से जु़बान पर चढ़ जाती है।” – पराग: अक्टूबर 1996: पृष्ठ 52 शिशुगीतों के सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें कुछ ऊलजलूलपन (नॉनसेंस) हो। उनकी यही विशेषता शिशुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। शिशु गीतों में एक और महत्त्वपूर्ण बात है-भाषा के चयन की, परंतु पराग के भूतपूर्व संपादक आनंदप्रकाश जैन कहते हैं —शिशुगीतों की भाषा कोई भी हो, उनकी पहली शर्त यही है कि उनमें कुछ ऐसा अटपटापन हो जो बरबस ही गुदगुदाए, खास तौर पर बच्चों के सरल बोध को और उन बड़ों को भी ,जिनकी प्रवृत्ति बच्चों के समान हो। वास्तव में अटपटे शिशुगीतों का अपना चटपटा संसार होता है। इतना तो तय है कि शिशुगीतों को बहुत शाश्वत बंधन में बाँधकर नहीं लिखा जा सकता है। अटपटेपन के साथ-साथ, खट्टे-मीठे चटपटेपन का स्वाद देने वाले शिशुगीतों की अपनी ही परिभाषा है और अपनी ही विशेषता। इनसे बच्चे बिना रोक-टोक के आनंद लें, यही शिशु गीतों का मूल-मंतव्य भी है। हिन्दी में लगभग सभी बालसाहित्यकारों ने शिशुगीतों का सृजन किया है, परंतु जो बात विष्णुकांत पांडेय के शिशुगीतों में … Read more