कलर ऑफ लव – प्रेम की अनूठी दास्तान

कलर ऑफ लव

  प्रेम जो किसी पत्थर हृदय को पानी में बदल सकता है, तपती रेत में फूल खिला सकता है, आसमान से तारे तोड़ के ला सकता है तो क्या किसी मासूम बच्चे में उसकी उच्चतम संभावनाओं को विकसित नहीं कर सकता | क्या माँ और बच्चे का प्रेम जो संसार का सबसे शुद्ध, पवित्र, निश्चल प्रेम माना जाता है, समाज की दकियानूसी सोच, तानों -उलाहनों को परे धकेलकर ये करिश्मा नहीं कर सकता है?  एक माँ का अपनी बेटी के लिए किया गया ये संघर्ष ….संघर्ष नहीं प्रेम का ही एक रंग है | बस उसे देखने की नजर चाहिए |    ऐसे ही प्रेम के रंग में निमग्न वंदना गुप्ता जी का  भारतीय ज्ञानपीठ/वाणी से प्रकाशित उपन्यास “कलर ऑफ लव” समस्या प्रधान एक महत्वपूर्ण उपन्यास है| ये उपन्यास “डाउन सिंड्रोम” जैसी एक विरल बीमारी की सिर्फ चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसके तमाम वैज्ञानिक और मानसिक प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए एक दीप की तरह निराशा के अंधकार में ना डूब कर कर सकारात्मकता की राह दिखाता है | अभी तक हिंदी साहित्य में किसी बीमारी को केंद्र में रख कर सजीव पात्रों और घटनाओं का संकलन करके कम ही उपन्यास लिखे गए है | और जहाँ तक मेरी जानकारी है “डाउन सिंड्रोम” पर यह पहला ही उपन्यास है |  कलर ऑफ लव -डाउन सिन्ड्रोम पर लिखा गया पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास   Mirrors should think longer before they reflect. – Jean Cocteau           अगर कोई ऐसा रोग ढूंढा जाए जो सबसे ज्यादा संक्रामक है औ पूरे समाज को रोगग्रस्त करे हुए है तो वो है तुलना | जबकि हर बच्चा, हर व्यक्ति  प्रकृति की नायाब देन है, जो अपने विशेष गुण के साथ पैदा होता है बस जरूरत होती है उसे पहचानने की, उसे उसके हिसाब से खिलने देने की |  ऐसा ही एक विशेष गुण है “डाउन सिंड्रोम” .. ये कहानी है एक ऐसी ही बच्ची पीहू की जो इस विशेष गुण के साथ पैदा हुई है |    शब्दों का हेर-फेर या  समझने का फ़र्क  कि जिसे विज्ञान की भाषा “सिन्ड्रोम” का नाम देती है, प्रकृति प्रयोग का नाम देती है | ऐसे ही प्रयोगों से निऐनडेरथल मानव से होमो सैपियन्स बनता है और होमो फ्यूचरिस की संभावना प्रबल होती है | इसलिए प्रकृति की नजर में “डाउन सिन्ड्रोम” महज एक प्रयोग है .. जिसमें बच्चे में 46 की जगह 47 गुणसूत्र होते है | इस एक अधिक गुणसूत्र के साथ आया बच्चा कुछ विशेष गुण के साथ आता है | जरूरत है उस विशेष गुण के कारण उसकी विशेष परवरिश का ध्यान रखने की, तो कोई कारण नहीं कि ये बच्चे खुद को सफलता के उस पायदान पर स्थापित ना कर दें जहाँ  तथाकथित तौर पर सामान्य कहे जाने वाले बच्चे पहुंचते हैं|  यही मुख्य उद्देश्य है इस किताब को लिखे जाने का |    “कलर ऑफ लव”  उपन्यास मुख्य रूप से एक शोध उपन्यास है जिसे उपन्यास में पत्रकार सोनाली ने लिखा है |  छोटे शहर से दिल्ली तबादला होने के बाद सोनाली की मुलाकात अपनी बचपन की सहेली मीनल और उसकी बेटी पीहू से होती है | पीहू “डाउन सिन्ड्रोम” है| दोनों सहेलियाँ मिलती है और मन बाँटे जाने लगते हैं | संवाद शैली में आगे बढ़ती कथा के साथ सोनाली  पीहू और उसकी माँ मीनल के संघर्ष की कहानी  जान पाती है| पन्ना दर पन्ना जिंदगी खुलती है और अतीत के अनकहे दर्द, तनाव, सफलताएँ सबकी जिल्द खुलती जाती है | पर पीहू और मीनल के बारे में जानने  के बाद सोनाली की रुचि “डाउन सिन्ड्रोम के और शोध में बढ़ जाती है | और जानकारी एकत्र करने के लिए वो विशेष स्कूल के प्रिन्सपल ऑफिस में जाकर केसेस डिस्कस करती है | इन बच्चों के विकास में लगे फ़ेडेरेशन व फोरम जॉइन करके जानकारियाँ और साक्ष्य जुटाती है | एक तरह से नकार, संघर्ष, स्वीकार  और जानकारियों का  कोलाज है ये उपन्यास | जो काफी हद तक  असली जिंदगी और असली पात्रों की बानगी को ले  कर बुना गया एक मार्मिक पर सकारात्मक दस्तावेज है |   इस उपन्यास के चार  महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बात करना पाठकों के दृष्टिकोण से सुविधाजनक रहेगा|  समाज में व्याप्त अशिक्षा  रोगग्रस्त बच्चे के परिवार, विशेषकर माँ का का घर के अंदर और बाहर का संघर्ष  उन बच्चों की चर्चा जिन्होंने “डाउन सिंड्रोम” जैसी बीमारी के बावजूद सफलता के परचम लहराए | जीवन दर्शन जो व्यक्ति को सहज जीवन को स्वीकारने का साहस देता है|    कोई भी अवस्था समस्या तब बनती  है जब समाज में उसके  बारे में पर्याप्त जानकारी ना हो | जैसे बच्चे के जन्म के समय ही यह बातें होने लगती हैँ, “की उसके हाथों में एक भी  लकीर नहीं है, ऐसे बच्चे या तो घर छोड़ देते है या फिर बड़े सन्यासी बन जाते हैं |”   “देख सोनाली, मेरे पीहर में मेरी चाची के एक चोरी हुई थी| जिसकी बाँह के साथ दूसर बाँह भी निकलने के लिए बनी हुई थी |पीर बाबा है, उन्होंने जैसे  ही निगाह डाली वो माँस का लोथड़ा टूट कर गिर गया | तब से आज तक बच्ची बिल्कुल मजे से जी रही है|”      इस अतिरिक्त भी लेखिका ने कई उदाहरण दिए है  जहाँ गरीबी अशिक्षा के चलते लोग  डॉक्टर या विशेष स्कूल की तरफ ना जाकर किसी चमत्कार की आशा में अपनी ही बगिया के फूल के साथ अन्याय करते है | दरअसल अशिक्षा ही नीम हकीम और बाबाओं की तरफ किसी चमत्कार की आशा में भेजती है और इसी के कारण ना तो बच्चे का विकास सही ढंग से हो पाता है ना समाज का नजरिया बदल पाता है|    आज जब की पूरे विश्व में “प्रो. लाइफ वर्सिज प्रो चॉइस” आंदोलन जोर पकड़ रहा है | लेखिका एक ऐसी माँ  की जीवन गाथा लेकर आती है जो डॉक्टर द्वारा जन्म से पहले ही बच्चे को “डाउन सिंड्रोम” घोषित करने के बावजूद अपने बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के साथ खड़ी  होती है | यहाँ जैसे दोनों तर्क मिल जाते हैं | क्योंकि ये भी एक चॉइस है जो लाइफ के पक्ष में खड़ी है| एक माँ के संघर्ष के अंतर्गत लेखिका वहाँ से शुरू करती हैं  जहाँ एक माँ को … Read more

लापता लेडीज- पहचान गुम हो जाने से लेकर अस्तित्व को खोजती महिलाएँ

लापता लेडीज

  हालांकि मैं फिल्मों पर नहीं लिखती हूँ, पर बहुत दिनों बाद ऐसी फिल्म देखी जिस पर बात करने का मन हुआ l लापता लेडीज ऐसी ही फिल्म है, जिसमें इतनी सादगी से, इतने करीने से, एक ‘स्त्री जीवन से जुड़े” महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया जा सकता है, ये फिल्म देखकर पता चलता है l फिल्म देखकर आपको कहीं नहीं लगता कि कोई फिल्म देख रहे हैं l एक सहज जीवन जो आपके सामने परदे पर घट रहा है, कभी आप उसका पात्र हो जाते हैं तो कभी पात्रों को रोक कर गपियाने का मन करता है l जी हाँ ! फिल्म लेकर आई है एक टटका लोक जीवन, बोली और परिवेश के साथ और साथ में सस्पेंस और हास्य l फिल्म की खास बात है कि इसमें कोई नायक नहीं, कोई खलनायक नहीं, अगर कोई खलनायक है तो परिस्थितियाँ l कहानी के केंद्र में है घूँघट, पति का नाम ना लेना, और  पढ़ी लखी होने के बावजूद अकेले कहीं आने- जाने में असमर्थता l यही कहानी का कारण हैं, यही विलेन भी है l ‘घूँघट मात्र चेहरा नहीं छुपाता, बल्कि वो पहचान और व्यक्तित्व भी छीन लेता है l लापता लेडीज- पहचान गुम हो जाने से लेकर अस्तित्व को खोजती महिलाएँ यूँ तो कहानी 2001 की है l पर सच कहें तो अभी भी देश के सारे गाँव रेलवे लाइन से जुड़े हुए नहीं हैं l ऐसे ही एक गाँव में एक लड़की फूल की शादी दीपक से होती है l शादी के बाद मायके वाले फूल और दीपक को किसी देवी की पूजा के लिए रोक देते हैं और बारात वापस लौट जाती है l अब दो दिन बाद फूल की विदा होती है, तो लंबा घूँघट किए, और हाथों में सिधौरा पकड़े फूल, दीपक के साथ बस से, टेम्पो से, नदी पार करके,  ट्रेन में सवार होती है l पर वहाँ वैसा ही लाल जोड़ा पहने तीन और नई दुल्हने हैं l क्योंकि सुपर सहालग का दिन था l हम लोग पढ़ते रहते हैं न कि आज के दिन इस शहर में इतनी शादियाँ  हुई l खैर अब  जगह बना कर फूल को तो बैठा दिया जाता है पर दीपक बाबू खड़े ही रह जाते हैं l ट्रेन का दृश्य बड़ा शानदार है l  सब अपने -अपने को मिले दहेज के बारे में शान से बता रहे हैं , और जिसको दहेज नहीं मिला, मने लड़के में कुछ खोंट है l खैर सुबह 4 बजे अंधेरे में एक बैठे -बैठे सो रही अपनी पत्नी को जगाता है और घर पहुंचता है l घर में स्वागत आरती के समय जब दुल्हन घूँघट उठाती है तो … वो तो कोई और है l वो एक दूसरे जोड़े की दुल्हन  पुष्पा है l जिसे अपने पति का नाम तो पता है पर उसके गाँव का नाम नहीं पता l मायके के गाँव का नाम पता है, फोन नंबर भी पता है … पर और कुछ नहीं पता l शुरुआती रुलाई धुलाई के बाद फूल को खोजने की कोशिशे होती हैं l पुष्पा को उसके ससुराल भेजने की भी l दीपक पुष्पा को लेकर जब थाने में रिपोर्ट लिखाने जाता है तो थानेदार को कुछ शक होता है l उसे लगता है कि पुष्पा लुटेरी दुल्हन गैंग का हिस्सा है l और फिल्म देखते हुए हमें भी ऐसा ही लगता है l थानेदार उसका पीछा करता है, पुष्पा के कई एक्शन संदेहास्पद लगते हैं और दर्शक दिल थाम कर बैठे रहते हैं l उधर फूल किसी अनजान स्टेशन पर उतरती है l पति का नाम वो ले नहीं सकती गाँव का नाम उसे मालूम नहीं है, बस इतना पता है कि वो किसी फूल के नाम पर है l थाना उसे जाना नहीं है l क्योंकि पति ने उससे कहा था कि छोटा दुख गहना खोना, और बड़ा दुख थाना l लेकिन यहाँ भी अच्छे लोग मिलते हैं, उसे मिलती है, मंजु माई, भिखारी अब्दुल और छोटू, जो मंजु माई  के चाय पकौड़ों की दुकान पर काम करता है और अपने पैसे घर में भेजता है l चाइल्ड लेबर पर तमाम कानून के बावजूद ये जमीनी हकीकत है l शैलेश लोढ़ा का एक वीडियो है कि… हम भारतीय किसी चाय के टप्पे पर बैठ कर बच्चों से काम कराने वालों को कोसते हैं और फिर अखबार के पन्ने पलटते हुए आवाज़ लगाते हैं, “ए छोटू जरा तीन कप चाय दे जाना l” खैर फूल के मददगार के रूप में छोटू और अब्दुल तो अच्छे लगते हैं ही l सबसे अच्छा करेकतेर है मंजु माई का l स्त्री विमर्श से संबंधित सारे डायलॉग लगभग वही बोलती हैं l जैसे – “अकेले रहना कठिन है, पर एक बार ये आ गया तो कोई नहीं डरा सकता” “जो तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता, उसकी रक्षा तुम चार दान पोटली में बांध कर करोगी ?” “लड़कियों को पढ़ लिखा भले ही दें पर रास्ते पर अकेले चलना नहीं सिखाते, इतना लाचार तो रखते हैं कि अगर खो जाए तो अकेले ढूँढ- ढाँढ़ कर घर ना पहुँच सकें l “औरतें अकेले घर चला सकती हैं, औरतें बाहर जा कर अकेले पैसे भी कमा सकती हैं और बच्चे भी पैदा कर सकती हैं, उन्हें पाल भी सकती हैं… पर ये बात औरतों को नहीं पता है, और उनसे ये बात छिपाई जाती है l क्योंकि अगर औरतों को ये बात पता चल गई तो वो मर्दों की सुनेंगी नहीं l कुछ अन्य डायलॉग जो तंज या हास्य के रूप में आए प्रभावित करते हैं l     “बुड़बक हो जाना बुरी बात नहीं है, बुड़बक हो जाने को अच्छा मान लेना बुरी बात है l” घूँघट में तो केवल जूते ही दिखते हैं …   तो फिर जूते से ही पहचान लेना था l वहीं … “फूल के नाम पर गाँव है l सारे फूल तो गिन डाले एकदम भौरा ही बना दिया है l” “इतनी देर मंदिर में लगा दी, ससुराल जाए का है या स्वर्ग l” वहीं आशा जगाता एक डायलॉग बहुत अच्छा लगा – “ भगवान करे वो अच्छी हो, जो सहेली बन के रह सके l  हम देवरानी जिठानी तो सब बन जाति हैं पर सहेली नहीं बन पाती l” वास्तव में हमें … Read more

पुस्तक समीक्षा -शंख पर असंख्य क्रंदन

संख पर असंख्य क्रंदन

    जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई ओर छोर नहीं है. हरी अनंत हरी कथा अनंता की भांति कविता भी अनंत है. कविता को किसी देश काल में विभक्त नहीं किया जा सकता. ये जानते हुए जब कवि की कलम चलती है तब उसकी कविताओं में न केवल हमारा परिवेश, प्रकृति उसकी चिंताएं समाहित होती हैं बल्कि उसमें हमारा समाज, राजनीति, धर्म, स्त्री, मानव जाति, मनुष्य का व्यवहार और स्वभाव सभी का समावेश होता है. कविता किसी एक देश की बात नहीं करती हैं, ये सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता की बात करती हैं. इनकी कविताओं का भी फलक उसी तरह व्यापक है जिस तरह कहानियों का था. कविताओं में पूरे विश्व की चिंताएं समाहित हैं चाहे इतिहास हो या भूगोल. एक ऐसी ही कवयित्री हैं डॉ सुनीता जिनका पहला कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ अपने व्यापक फलक का दर्शन कराता है. कविता क्या होती है और क्या कर सकती है, दोनों का दर्शन संग्रह में होता है. इनकी कविताओं में केवल देश या अपना समाज ही नहीं है बल्कि एक कविता सम्पूर्ण विश्व की पीड़ा का दर्शन करा देती है इस प्रकार इन्होंने इतिहास भूगोल और संवेदनाओं को कविताओं में पिरोया है.  शंख पर असंख्य क्रंदन- गाँव की पगडंडी से लेकर वैश्विक चिंताओं को समेटे कविताएँ    पहली ही कविता ‘दोपहर का कोरस’ अपनी संवेदना से ह्रदय विगलित कर देती है जहाँ संवेदनहीनता किस प्रकार मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा बन गयी है उसका दर्शन होता है.  अनगिनत लाशें सूख चुकी थीं जिनको किसी ने दफन नहीं किया आज तक/ क्योंकि वहां मानवीयता के लिए मानव थे ही नहीं/ कुछ परिंदे चोंच मार रहे थे उसकी देह पर  रेगिस्तान की त्रासदी और मानवता के ह्रास का दर्शन है ये कविता जहाँ ऐसे भयावह मंज़र नज़रों के सामने होते हैं और आप उन्हें देख कर सिहर उठते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. आप के अन्दर की करुणा आपसे संवाद नहीं करती. एक ऐसे दौर में जी रहा है आज का मानव. संवेदनशील ह्रदय जब भी मानवीय त्रासदी देखता है आहत हो जाता है. आंतरिक घुटन बेचैनी को शब्दबद्ध करने को बेचैन हो जाता है. ऐसे में पहले ही सफ़र में जब ऐसा मंज़र रेगिस्तान में देखता है द्रवीभूत हो जाता है, सोचने को विवश हो जाता है, आखिर किस दौर के साक्षी बन रहे हैं हम? हम सरकारों को कोसते हैं लेकिन क्या हमने कुछ किया? हम भी मुंह फेर आगे बढ़ जाते हैं, त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं. कवि ह्रदय मानवता की त्रासदी पर दुखी हो सकता है और अपनी पीड़ा को शब्दबद्ध कर स्वयं को हल्का करने का प्रयास करता है तो साथ ही समाज के सम्मुख एक कटु यथार्थ सामने लाता है.  ‘प्रेम की बारिश को पत्तियों ने जज़्ब किया’ एक ऐसी कविता जहाँ प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है उसका दर्शन होता है. मानवीय प्रेम नहीं, आत्मिक प्रेम नहीं अपितु प्रकृति का दुलार, प्रकृति का उपहार, बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से बरसता प्रकृति का प्रेम ही इस धरा की अमूल्य निधि है. प्रकृति अपना निस्वार्थ प्रेम इसीलिए बांटती है कि धरती पर जीवन पनपता रहे. प्यार बाँटते चलो का सन्देश देती नदियाँ, पहाड़, बादल, धरती, वृक्ष सभी प्रेमगीत गुनगुनाते हैं. जब भी सभ्यता का क्षरण होता है अर्थात प्रलय आती है, यही रखते हैं मानवता की, प्रेम की नींव ताकि जीवन कायम रहे, उम्मीद कायम रहे. यूं ही नहीं कहा – दरार से प्रेम मिटाता नहीं/ सूरज से तेज चमकने लगता है/ जिस दिन धरती डोलना बंद करेगी उस दिन/ बादल पहाड़ों का चुम्बन अन्तरिक्ष में बाँट देंगे/आकाशगंगा पर लिख देंगे स्थायी इश्तहार/ जब धरती प्रलय की योजना बनाएगी तब हम नए सृजन के नाम/ प्रेम में डूबे देश की नींव रखेंगे  ये है प्रकृति का सन्देश, उसका निस्वार्थ प्रेम जिसे मानव समझ नहीं पा रहा, अपने हाथ अपना दोहन कर रहा है.      ‘सदियों से खड़ी मैं दिल्ली’ इस कविता में कवयित्री दिल्ली के माध्यम से केवल दिल्ली की बात नहीं कर रहीं हैं. दिल्ली क्या है – क्या केवल उतनी जितनी हम देखते हैं? आज की दिल्ली या कुछ वर्षों पहले की दिल्ली की हम बात करते हैं जबकि दिल्ली के सीने में सम्पूर्ण सभ्यता का इतिहास समाया है बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए. यहाँ एक देश की राजधानी की बात नहीं है. दिल्ली एक प्रवृत्ति का आख्यान है. एक इतिहास विश्व का जिसे दिल्ली न केवल देख रही है बल्कि अपने सीने में जज़्ब कर रही है. डॉ सुनीता दिल्ली के माध्यम से वैश्विक फलक तक की बात करती हैं. वर्तमान समाज और समय की चिंताओं का समावेश इस कविता में हो रहा है. मनुष्यता  की चिंता है इन्हें. जहाँ १९१० का काल भी समाहित हो रहा है तो मदर टेरेसा की करुणा भी इसमें समाहित हो रही है, कैसे युगोस्लाविया से कोलकता तक का सफ़र तय करती है. युद्ध की विभीषिका, मालवीय के प्रयास से पहले अखिल भारतीय हिंदी सम्मलेन कैसे संपन्न हुआ, सभी का आख्यान प्रस्तुत कर रही है. दिल्ली के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व की चिंताएं समाहित हो रही हैं. युद्ध हों या सम्मलेन, किसने क्या किया, कैसे सफलता प्राप्त की या असफलता सबकी मूक भाव से साक्षी बनती है.  यहाँ दिल्ली होना सहज नहीं, इतिहास ही नहीं, भूगोल का दर्शन भी होता है. कविता के माध्यम से  सोलहवीं शताब्दी का दर्शन कराती दिल्ली, एक नोस्टाल्जिया में ले जाती हैं और समय की करवट का दर्शन करवा देती हैं. प्राचीनतावाद में डूबे विश्व के बदलते भूगोल को लोमहर्षक नज़रों से देखती/उन सभी पलों में कई सदियों को देख रही होती हूँ   खेती एक सार्वजनिक सेवा है – इनकी कविताओं में प्रतीक और बिम्ब और शैली को समझने के लिए गहराई में उतरना पड़ेगा, विश्लेषण करना पड़ेगा. खेती एक सार्वजनिक सेवा है, इस भाव को वही ग्राह्य कर सकता है जो खेती के महत्त्व को समझता हो, जो अन्न के महत्त्व को जानता हो. जो … Read more

काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी

काव्य कथा -वो लड़की थी कुछ किताबी सी

काव्य कथा, कविता की एक विधा है, जिसमें किसी कहानी को कविता में कहा जाता हैं l काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी में गुड्डो एक किताबी सी लड़की है , जिसे दुनिया की अच्छाई पर विश्वास है l उसकी दुनिया सतरंगी पर उसके प्रेमी को उसके सपने टूट जाने का डर है l सपने और हकीकत की इस लड़ाई में टूटी है लड़की या उसका प्रेमी या कि पूरा माजरा ही अलग है l आइए जाने इस काव्य कथा में …   काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी   दिन रात किताबों में घिरी रहने वाली वो लड़की थी कुछ किताबी सी ऐसा तो नहीं था कि उसके रोने पर गिरते थे मोती और हंसने पर खिलते थे फूल पर उसकी दुनिया थी सतरंगी किसी खूबसूरत किताब के कवर जितनी हसीन उसे भरोसा था परी कथाओं पर भरोसा था दुनिया कि अच्छाई और सच्चाई पर उसे लगता था एक दिन दुनिया सारे अच्छे लोग सारे बुरे लोगों को हरा देंगे शायद वो देखती थी यही सपने में और सोते समय एक मुस्कुराहट तैरती थी उसके ज़रा से खुले गुलाबी होंठों पर उसके चेहरे पर आने-जाने वाला हर रंग पढ़ा जा सकता था किसी सूफियाना कलाम सा किसी मस्त मौला फ़कीर की रुबाइयों सा रामायण की चौपाइयों सा और दिन में, उसकी कभी ना खत्म होने वाली बातों में होती थी जादू की छड़ी होती थी सिंडरेला टेम्पेस्ट की मिरिंडा फूल, धूप, तितलियाँ और बच्चे गुड्डो, गुड़िया, स्वीटी, पिंकी यही नाम उसे लगते थे अच्छे और हाँ! कुछ बेतकल्लुफ़ी के इज़हार से गुड्डो,  नाम दिया था मैंने उसे प्यार से झूठ नहीं कहूँगा मुझे उसकी बातें सुनना अच्छा लगता था घंटों सुनना भी अच्छा लगता था पर… मुझे कभी-कभी डर लगता था उससे उसके सपनों से उसके सपनों के टूट जाने से इसलिए मैं जी भर करता था कोशिश उसे बताने की दुनिया की कुटिलताओं, जटिलताओं की और हमेशा अनसुलझी रह जाने वाली गुत्थियों की ये दुनिया है, धोखे की, फरेब की, युद्ध की मार-पीट, लूट-पाट, नोच-खसोट की कि धोखा मत खाना चेहरों से वो नहीं होते हैं कच्ची स्लेट से कि हर किसी ने पोत रखा है अलग-अलग रंगों से खुद को छिपाने को भीतर का स्याह रंग और हर बार वो मुझे आश्चर्य से देखती अजी, आँखें फाड़-फाड़ कर देखती और फिर मेरी ठुड्डी को हिलाते हुए कहती धत्त ! ऐसा भी कहीं होता है फिर जोर से खिलखिलाती और भाग जाती भागते हुए उसका लहराता आँचल धरती से आसमान तक को कर देता सतरंगी फिर भी हमारी कोशिशे जारी थीं एक दूसरे से अलग पर एक दूसरे के साथ वाली दुनिया की तैयारी थी जहाँ जरूरी था एक की दुनिया का ध्वस्त होना सपनों का लील जाना हकीकत को या हकीकत के आगे सपनों का पस्त होना जानते हैं… पिछले कई महीनों से सोते समय उसके होंठों पर मुस्कुराहट नहीं थिरकी है और एक रात … एक रात तो सोते समय दो बूंद आँसू उसके गालों पर लुढ़क गए थे होंठों को छूकर घुसे थे मुँह में और उसने जाना था आँसुओं का खारा स्वाद शायद तभी… तभी उसने तय कर लिया था सपनों से हकीकत का सफ़र उसकी सतरंगी दुनिया डूब गई थी और उसके साथ डूबकर मेरी गुड्डो भी नहीं रही थी जो थी साथ… मेरे आस-पास वो थी उसकी हमशक्ल सी पुते चेहरे वाली, भीतर से बेहद उदास जी हाँ ! कद-काठी रूप रंग तो था सब उसके जैसा पर ओढ़े अज़नबीयत की चद्दरें बदल गई थी जैसे सर से पाँव तक वो दिन है… और आज का दिन है गुड्डो की वीरान आँखों में नहीं हैं इंद्रधनुष के रंग उसकी बातों से उड़ गए हैं खुशबुएँ और तितलियाँ खेत और खलिहान भी उसकी जगह आ बैठी हैं गगनचुंबी ईमारतें, बड़े-बड़े मॉल और मंगल यान अब हमारी दुनिया एक थी और हम एक-दूसरे से अलग एक अजीब सी बेचैनी मेरे मन पर तारी थी मैंने जीत कर भी बाजी हारी थी और पहली बार… शायद पहली बार ही महसूस किया मैंने कि उस रात मुझसे अपरिचित मेरी भी एक दुनिया डूब गई थी मेरे साथ मैं नहीं किया तैरने का प्रयास जैसे मैंने नहीं किया था उसके विश्वास पर विश्वास आह!! क्यों लगा रहा उसे दिखाने में स्याह पक्ष क्यों नहीं की कोशिश उसके साथ दुनिया को सतरंगी बनाने की क्यों पीड़ा के झंझावातों में नीरीह प्रलापों में अब भी डराते हैं मुझे गुड्डो के नए सपने किसी खूबसूरत ग्रह-उपग्रह के वहाँ बस जाने के अबकी बार… इस ग्रह को उजाड़ देने के बाद आज़ जब गुड्डो में नहीं बची है गुड्डो मेरे भीतर दहाड़े मार कर रोती है गुड्डो अजीब बेचैनी में खुला है ये भेद कि दुनिया का हर व्यावहारिक से व्ययहारिक कहे जाने वाले इंसान के भीतर उससे भी अपरिचित कहीं गहरे धँसी होती है गुड्डो एक अच्छी दुनिया का सपना पाले हुए जो टिकी होती है दो बूंद आँसू पर … बस जीतने ही तो देना होता है भीतर अपनी गुड्डो को और पूरी दुनिया हारती है बाहर से मैंने उठा ली हैं उसकी बेतरतीब फैली किताबें मेरे अंदर फिर से हिलोर मार रही है गुड्डो वो किताबी सी लड़की दुनिया की सच्चाई पर विश्वास करती सतरंगी सपनों वाली… पगली और मैं चल पड़ा हूँ दुनिया को बदलने की कोशिश में और हाँ ! आपको कहीं मिले गुड्डो वो सपनों में पगी लड़की तो बताइएगा जरूर जरूर बताइएगा अबकि मैं उसे जाने नहीं दूँगा वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा   आपको ‘काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी’कैसी लगी ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए l अगर आपको हमारा काम अच्छा लगता है तो कृपया साइट को सबस्कराइब  करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें l

कोई शॉर्टकट नहीं दीर्घकालीन साधना है बाल साहित्य लेखन -भगवती प्रसाद द्विवेदी

  यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने  के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना एक कड़ी चुनौती है l  जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले और बाल साहित्य को दिशा कैसे मिले ? आइए जानते हैं ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से, जिनसे बातचीत कर रही हैं कवि-कथाकार वंदना बाजपेयी l सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से कवि -कथाकार वंदना बाजपेयी की बातचीत कोई शॉर्टकट नहीं गंभीर साधन है बाल साहित्य लेखन  प्रश्न- नमस्कार सर ! मेरा आपसे पहला प्रश्न है कि आप रसायन विज्ञान के छात्र रहे हैं, फिर साहित्य में आपका आना कैसे हुआ ? कहाँ और क्षार की शुष्कता और कहाँ साहित्यिक भावुकता की अनवरत बहती धारा l सुमित्रानंदन पंत की पंक्तियों “आह से उपजा होगा ज्ञान” का आश्रय लेते हुए मेरी सहज जिज्ञासा है कि वो कौन सी घटना थी जिससे आपके मन में साहित्य सृजन का भाव जागा? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी – वंदना जी! मैं विज्ञान का विध्यार्थी  जरूर रहा, क्योंकि वो दौर ही ऐसा था कि शिक्षा के क्षेत्र में मेधावी व प्रतिभाशाली छात्रों को अमूमन अभिवावक विज्ञान ही पढ़ाना चाहते थे l मेरे साथ भी वही हुआ l हालांकि साहित्य और संस्कृति में मेरी बचपन से ही अभिरुचि रही l महज़ डेढ़ साल की उमर में ही मैं अपनी माँ को खो चुका था l दादी मुझे एक पल को भी खुद से दूर नहीं करना चाहती थीं और उन्होंने ही मेरी परवरिश की थी l फिर भी होश संभालने पर मैं आहिस्ता-आहिस्ता अंतर्मुखी होता चला गया था और शिशु सुलभ चंचलता खेलकूद आदि से मैं प्रायः दूर ही रहता था l रात को जब मैं दादी के साथ सोता, वे रोज बिना नागा लोककथाएँ, पौराणिक कथाएँ आदि सुनाया करती थीं और मैं उन कथाओं के अनुरूप जार-जार आँसू बहाने लगता तो कभी प्रसंगानुरूप आल्हादित भी हो उठता l उन कथा- कहानियों से जुड़कर मैं तरह-तरह की कल्पनाएँ किया करता था l संभवतः दादी की इन वाचिक कथाओं से ही मेरे भीतर सृजन का बीजारोपण  हुआ  होगा l   प्रश्न- आज आप साहित्य जगत के स्थापित नाम हैं l जबकि आपने विज्ञान से साहित्य की दिशा में प्रवेश किया है तो जाहिर है कि आपकी यहाँ तक की यात्रा सरल नहीं रही होगी l कृपया अपने संघर्षों से हमें अवगत कराएँ ? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी – मैं तो खुद को आज़ भी विद्यार्थी ही मानता हूँ और बच्चों और बड़ों से कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश करता हूँ l मगर मैंने विज्ञान से साहित्य में प्रवेश नहीं किया l बचपन से ही मैंने साहित्य रचते हुए विज्ञान की पढ़ाई की l छठी कक्षा से ही लेखन और प्रकाशन का सिलसिला प्रारंभ हो गया था l उसी का परिणाम था कि हिन्दी संकाय के छात्र- छात्राओं के बावजूद स्कूल कॉलेज कि पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन में बतौर छात्र संपादक मेरी ही सेवाएँ ली जाती थीं l विज्ञान ने ही प्रगतिशील सोच के साथ ही रूढ़ियों और अंधविश्वास से मुक्त होने की दृष्टि दी l साथ ही लेखन, व्याख्यान में मुझे अनावश्यक विस्तार के स्थान पर “टू द पॉइंट” में विश्वास दृण हुआ l मेरी आस्था स्वाध्याय व सृजन में रही, किसी वाद-विवाद में नहीं l जहाँ तक संघर्ष का सवाल है वो बाल्यकाल से लेकर आज तक अनवरत जारी है l अनेक व्यवधानों के बावजूद अध्ययन और सरकारी सेवा के दौरान भी मैंने इस लौ को मद्धिम नहीं होना दिया l   प्रश्न- आपने लगभग हर विधा में अपनी कलम का योगदान देकर उसे समृद्ध किया है l बच्चों के लिए लिखने यानि बाल साहित्य की ओर आपका रुझान कब और कैसे हुआ ?   भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- मेरा यह मानना है कि बाल साहित्य लेखन की कसौटी हैl अतः हर रचनाकार को बच्चों के लिए जरूर लिखना चाहिए, मगर जैसे -तैसे नहीं, पूरी जिम्मेदारी के साथ l जिन दिनों मेरा दाखिला, जूनियर हाई स्कूल रेवती में हुआ, वहाँ की एक स्वस्थ परिपाटी ने मुझे बहुत प्रभावित किया l प्रत्येक शनिवार को विद्यालय में बाल सभा हुआ करती थी, जिसमें हर बच्चे को कुछ न कुछ सुनाना होता था l कोई चुटकुला सुनाता, तो कोई पाठ्य पुस्तक की कविता सुनाता l रात में मैंने एक बाल कहानी लिख डाली और बाल सभा में उसकी प्रस्तुति कर दी l जब शिक्षक ने पूछा, किसकी कहानी है ये? तो मैंने डरते-डरते कहा, “गुरु जी, मैंने ही कोशिश की है l” तो उन्होंने उठकर मेरी पीठ थपथपाई “अच्छी” है! ऐसी कोशिश लगातार करते रहो l”  फिर तो मेरा हौसला ऐसा बढ़ा कि हर शनिवार को मैं एक कहानी सुनाने लगा और कुछ ही माह में “चित्ताकर्षक कहानियाँ” नाम से एक पांडुलिपि भी तैयार कर दी l मगर गुरुजी ने धैर्य रखने की सलाह दी और पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ भेजने की सलाह दी l आमतौर पर लेखन की शुरुआत कविता से होती है पर मेरी तो शुरुआत ही कहानी से हुई l मेरी पहली कहानी ही प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘बाल भारती’ में प्रकाशित हुई l जब पत्रिका और पारिश्रमिक की प्राप्ति हुई तो मेरी खुशी का पारावार ना रहा l फिर तो समर्पित भाव से लिखने और छपने का सिलसिला कभी थमा ही नहीं l   प्रश्न –4 आज का समाज बाजार का समाज है l पैसे और पैसे की दौड़ में मनुष्य भावनाहीन रोबोट बनता जा रहा है l इससे साहित्यकार भी अछूता नहीं रह गया है l बड़ों की कहानियों में विसंगतियों को खोजना और उन पर अपनी कलम चलाना कहीं सहज है पर ऐसे समय और समाज में बाल मन में प्रवेश करना कितना दुष्कर है ? भगवती प्रसाद द्विवेदी जी-  बहुत ही सही और जरूरी सवाल … Read more

हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति    

हवा का झोंका थी वह

     समकालीन कथाकारों में अनिता रश्मि किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है। हवा का झोंका थी वह अनिता रश्मि का छठा कहानी संग्रह है। इनके दो उपन्यास, छ: कहानी संग्रह सहित कुल 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इस संग्रह में 14 कहानियाँ संग्रहीत हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री विमर्श के विविध आयामों को सरई के फूल तथा हवा का झोंका थी वह संग्रहों की कहानियों के माध्यम से सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत किया हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री पीड़ा को, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं और सपनों को अपनी कहानियों के माध्यम से चित्रित किया हैं। इस संग्रह की कहानियों में स्त्रियों के जीवन की पीड़ा, उपेक्षा, क्षोभ, संघर्ष को रेखांकित किया है और साथ ही समाज की विद्रूपताओं को उजागर किया है। इन कहानियों का कैनवास काफ़ी विस्तृत हैं। ये कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन से लेकर निम्न वर्ग तक के जीवन की विडंबनाओं और छटपटाहटों को अपने में समेटे हुए है। इन कहानियों में यथार्थवादी जीवन, पारिवारिक रिश्तों के बीच का ताना-बाना, आर्थिक अभाव, पुरूष मानसिकता, स्त्री जीवन का कटु यथार्थ, बेबसी, शोषण, उत्पीड़न, स्त्री संघर्ष, स्त्रीमन की पीड़ा, स्त्रियों की मनोदशा, नारी के मानसिक आक्रोश आदि का चित्रण मिलता है। संग्रह की सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती मर्मस्पर्शी, भावुक है। इस संग्रह की कहानियाँ जिंदगी की हकीकत से रूबरू करवाती है। लेखिका अपने आसपास के परिवेश से चरित्र खोजती है। कहानियों के प्रत्येक पात्र की अपनी चारित्रिक विशेषता है, अपना परिवेश है जिसे लेखिका ने सफलतापूर्वक निरूपित किया है। अनिता रश्मि की कहानियों में सिर्फ पात्र ही नहीं समूचा परिवेश पाठक से मुखरित होता है।  हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति     संग्रह की पहली कहानी हवा का झोंका थी वह नारी की संवेदनाओं को चित्रित करती आदिवासी स्त्री मीनवा की एक मर्मस्पर्शी, भावुक कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों में भी हँसते मुस्कराते घरेलु नौकरानी का काम करती है। मीनवा एक बिंदास स्त्री है। आँखें एक मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। पायल और सुमंत लीव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। पायल शादी इसलिए नहीं करना चाहती क्योंकि वह अपने माता-पिता को हमेशा लड़ते-झगड़ते हुए देखती है। लेकिन कुछ ही सालों में पायल अनुभव करती है कि वह अपनी माँ में और सुमंत उसके पापा में परिवर्तित हो रहा है तो पायल सुमंत से शादी करने का फैसला करती है। सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए हम कोल्हू के बैल की तरह जूते रहते हैं लेकिन क्या ये सुविधाएँ हमें खुशियाँ देती है? इस प्रश्न का उत्तर जिस दिन हमें मिल जाएगा उस दिन हम भी इस कहानी के पात्रों मथुरा, जिरगी और कजरा की तरह कोलतार की तपती सड़क पर मुस्कुरा उठेंगे। शहनाई कहानी संगीत की दुनिया में ले जाती है। निशांत अपने बेटे अंकुल की मृत्यु के पश्चात टूट जाता है और उसके हाथ से शहनाई छूट जाती है। निशांत के सैकड़ों शिष्य देश विदेश में निशांत का नाम रोशन कर रहे है लेकिन निशांत अपने बेटे के निधन से उबर नहीं पा रहा था। एक दिन अचानक जब निशांत की मुलाक़ात शहनाई पर बेसुरी तान निकालते हुए प्रकाश पर पड़ती है तो निशांत को प्रकाश में अपना बेटा अंकुल दिखता है और निशांत प्रकाश को शहनाई पर सुर निकालने का प्रशिक्षण देता है और निशांत वापस संगीत की दुनिया में लौट आता है।   एक नौनिहाल का जन्म एक आदिवासी युवक वृहस्पतिया की कहानी है। वृहस्पतिया अमीर बनने के लिए अपने सीधे सादे पिता की ह्त्या कर देता है। वह न तो दूसरों के खेतों पर मजदूरी करता है, न ही अपनी किडनी बेचता है और न ही आत्महत्या करता है। वह अमीर होने के लिए अफीम की खेती करता है और एक बड़ी जमीन का मालिक बन जाता है। लेकिन वह पुलिस के डर से इधर उधर भागता रहता है। उस घर के भीतर एक ऐसे माता पिता की कहानी है जो अपने अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को घर के अंदर बाँध कर रखते है। इनके पडोसी को इस तरह की हरकत अमानवीय लगाती है और वह इनको एक पत्र लिखता है कि आप अपने बेटे को खुले वातावरण में सांस लेने दो, फिर देखो कि तुम्हारा बेटा कैसे खिल उठेगा। वह अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को अपने बेटे के साथ खेलने के लिए भी बुलाता है। किर्चें एक लेडी डॉक्टर की कहानी है जिसका पति दहेज़ का लोभी है। वह अपनी पत्नी की तनखा स्वयं रख लेता है और अपनी पत्नी के द्वारा अपने ससुर से भी पैसे मांगता रहता है। ससुर की मृत्यु के पश्चात वह पत्नी के भाई से भी पैसा मांगता है। पत्नी अपने पति के लालची स्वभाव के कारण परेशान हो जाती है और अपने पति से अलग हो जाती है। वह अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाती है।    एक उदास चिट्ठी एक पत्र शैली में एक युवती द्वारा अपनी माँ को लिखी कहानी है। यह एक भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी आधुनिक युवती के शोषण की कहानी है। जिसे अपनी विदेशी माँ से उपेक्षा मिलती है। वह अपनी जीवन व्यापन के लिए एक रेस्टोरेंट खोलती है जहां उसके जीवन में एक फौजी आता है। वह फौजी एक दिन उसका बलात्कार करता है। तब वह टूट जाती है और कहती है वह मेरी चीख नहीं थी। वह बेबसी की चीख नहीं थी… वह एक औरत की चीख भी नहीं थी। वह एक घायल, मर्माहत संस्कृति की चीख थी ममा।      लाल छप्पा साड़ी गरीब आदिवासी स्त्री बुधनी की कहानी है। बुधनी रोज रात को डॉक्टर निशा के यहाँ पढ़ने के लिए जाती है। बुधनी का पति जीतना दारु पीकर पड़ा रहता है।  एक दिन जीतना शहर जाने के लिए निकलता है तो बुधनी उसे पैसे देकर अपने लिए लाल छप्पा साड़ी लाने के लिए कहती है। क्योंकि बुधनी जहां काम करती है उस घर की मालकिन के पास भी एक लाल रंग की साड़ी है जो की बुधनी को बहुत पसंद है। बुधनी का पति शहर से नहीं लौटता है। गाँव में लोग बुधनी को डायन समझने लग जाते है। वह विक्षिप्त सी हो जाती है और बुधनी अपने पुत्र को लेकर अपने पति को ढूंढने शहर जाती है। शहर में उसे पता … Read more

वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर

हमारे प्रेम का अबोला दौर

  आजकल हमारी बातचीत बंद है, यानि ये हमारे प्रेम का अबोला दौर है l  अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय प्यार का एक रंग रूठना और मनाना भी है l प्यार की एव तक्ररार बहुत भारी पड़ती है l कई बार बातचीत बंद होती है , कारण छोटा ही क्यों ना हो पर अहंकार फूल कर कुप्पा हो जाता है जो बार बार कहता है कि मैं ही क्यों बोलूँ ? लेकिन दिल को तो एक एक पल सालों से लगते हैं l फिर देर कहाँ लगती है बातचीत शुरू होने में …. इन्हीं भावों को पिरोया है एक कविता के माध्यम से l सुनिए … वंदना बाजपेयी की यह कविता आप को अपनी सी लगेगी l हमारे प्रेम का अबोला दौर ——————————– आजकल हमारी बातचीत बंद है अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय माने गृहस्थी की जरूरी बातें नहीं होती हैं इसमें शामिल ना ही साथ में निपटाए जाने वाले वाले काम-काज रिश्तेदारों के आने का समय नहीं जोड़ा जाता इसमें ना ही शामिल होता है डायरी से खंगाल कर बताना गुड्डू जिज़्जी की बिटिया की शादी में दिया था कितने रुपये का गिफ्ट या फिर अखबार वाले ने नहीं डाला है तीन दिन अखबार हाँ, कभी पड़ोसन के किस्से या ऑफिस की कहानी सबसे पहले बताने की तीव्र उत्कंठा पर भींच लिए जाते हैं होंठ पहले मैं क्यों ? अलबत्ता हमारे प्रेम के इस अबोले दौर में हम तलाशते हैं संवाद के दूसरे रास्ते लिहाजा बच्चों के बोलने कि लग जाती है डबल ड्यूटी ‘पापा’ को बता देना और ‘मम्मी’ से कह देना के नाम पर आधी बातें तो कह-समझ ली जाती हैं बर्तनों की खट- खट या फ़ाइलों कि फट- फट के माध्यम से ऐसे ही दौर में पता चलता है कौन कर रहा था बेसब्र इंतजार कि दरवाजे की घंटी बजने से पहले ही मात्र सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पैरों की आहट से खुल जाता है मेन गेट और रसोई में मुँह से जरा सा आह-आउच निकलते ही पर कौन चला आया दौड़ता हुआ और पास में रख जाता है आयोडेक्स या मूव पढ़ते-पढ़ते सो जाने पर चश्मा उतार कर रख देने, लाइट बंद कर देने जैसी छोटी-छोटी बातों से भी हो सकता है संवाद बाकी आधी की गुंजाइश बनाने के लिए मैं बना देती हूँ तुम्हारा मनपसंद व्यंजन और तुम ले आते हो मेरी मन पसंद किताबें तुम्हारे घर पर होने पर बढ़ जाता है मेरा राजनीति पर बच्चों से डिस्कसन और तुम उन्हें सुनाने लगते हो कविताएँ रस ले-ले कर नाजो- अंदाज से गुनगुनाते हुए किसी सैड लव सॉन्ग का मुखड़ा ब्लड प्रेशर कि दवाई सीधा रखते हो मेरी हथेली पर और मैं अदरक और शहद वाला चम्मच तुम्हारे मुँह में ऐसे में कब कहाँ शुरू हो जाती है बातचीत याद नहीं रहता जैसे याद नहीं रहा था बातचीत बंद करने का कारण हाँ ये जरूर है कि हर बार इस अबोले दौर से गुजरने के बाद याद रह जाते हैं ये शब्द यार, कुछ भी कर लो पर बोलना बंद मत किया करो ऐसा लगता है जैसे संसार की सारी आवाजें रुक गई हों l वंदना बाजपेयी #lovesong #love #lovestory #poetry #hindisong #valentinesday #valentine यह भी पढ़ें – जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप प्रेम कभी नहीं मरेगा आपको वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो कृपया अटूट बंधन की साइट को सबस्करीब करें व अटूट बंधन फ़ेसबुक पेज लाइक करें l