उर्मिला शुक्ल के उपन्यास बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन का अंश

बिन ड्योढ़ी का घर भाग -3

यूँ  तो अटूट बंधन आगामी पुस्तकों  के अंश प्रस्तुत करता रहा है l इसी क्रम में आज हम आगामी पुस्तक मेले में में लोकार्पित एक ऐसे उपन्यास का अंश प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो हिन्दी साहित्य जगत में एक इतिहास बना रहा है l ये है एक उपन्यास का तीन भागों  का आना l  अंग्रेजी में “उपन्यास त्रयी हम सुनते रहे हैं पर हिन्दी में ऐसा पहली बार हो रहा है l विशेष हर्ष की बात ये हैं कि  इस द्वार को एक महिला द्वारा खोला जा रहा है l ‘बिन ड्योढ़ी का घर’ के पिछले दो भागों की विशेष सफलता के पश्चात छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों के लोक को जीवित करती ये कहानी आगे क्या रूप लेगी ये तो कहानी पढ़ कर ही जाना जा सकेगा l फिलहाल उर्मिला शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ के साथ उपन्यास का एक अंश “अटूट बंधन” के पाठकों के लिए बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन उपन्यास अंश   भाऊ अब अतीतमुखी हो गये थे | सो वर्तमान को भूलकर ,अपने किशोरवय और यौवन में टहल रहे थे | अब वे भाऊ नहीं सखाराम थे | बालक और युवा सखाराम | सो कभी उन्हें अपना गाँव याद हो आता ,तो कभी युवा जलारी | बचपन की यादों में याद आती वह नदी ,जो बारिश में तो इस कदर उफनती कि सामने जो भी आता, उसे बहा ले जाती ,पर बारिश के बीतते ही वह रेत का मैदान का बन जाती | नदी स्कूल के पीछे बहती थी | सो छुट्टी होते ही सखाराम की बाल फ़ौज वहाँ जा पहुँचती फिर शुरू हो जाती रेत दौड़ | लक्ष्य होती वह डाल ,जिसकी शाखें नदी में झुक आयी थीं | रेत में दौड़ना आसान नहीं होता फिर भी बच्चे दौड़ते, गिरते फिर उठते | वह डाल बहुत दूर थी | हर कोई उसे छू नहीं पाता ,बस सखाराम और सखु ही वहाँ तक पहुँचते | दोनों घंटो डाली पर लटक – लटककर झूला झूलते | सखु बहुत अच्छी लगती थी उसे | वह उसके लिए थालीपीठ (मोटी रोटी ) लाया करती | सखा को जुवारी ( ज्वार ) की थालीपीठ बहुत पसंद थी | खेलने के बाद दोनों थालीपीठ खाते और घंटों बतियाते | उनकी बातों में सखु की आई (माँ ) होती ,उसके भाई बहन होते और होतीं उसकी बकरियाँ | सखाराम की बातों में परिवार नहीं होता | परिवार को याद करते ही सबसे पहले आई ( सौतेली माँ ) का चेहरा ही सामने आता और याद हो आतीं उसकी ज्यादतियाँ और पिता की ख़ामोशी ,जिसे याद करने का मन ही नहीं होता | सो उसकी बातों में उसके खेल ही होते | सखा भौंरा चलाने में माहिर था | भौंरा चलाने में उसे कोई हरा नहीं पाता | उसका भौंरा सबसे अधिक देर तक घूमता | इतना ही नहीं वह भौंरे में डोरी लपेट , एक झटके से छोड़ता और उसके जमीन पर जाने के पहले ,उसे अपनी ह्थेली पर ले लेता | भौंरा उसकी हथेली पर देर तक घूमता रहता | सखु को उसका भौंरा नचाना बहुत पसंद था | वह नदी के किनारे के पत्थर पर अपना भौंरा नचाता और सखु मुदित मन देखा करती |   फिर उनकी उम्र बढ़ी ,बढ़ती उम्र के साथ उनकी बातों का दायरा भी उनके ही इर्द गिर्द सिमटने लगा | सो एक दिन सखा ने पूछा – “सखु तेरे कू भौंरा पसंद है |” “हो भोत पसंद |” “मय इस बार के मेला से बहुत सुंदर और बड़ा भौंरा लायेंगा | लाल,हरा और पीला रंग वाला |” “वो भौंरा बहुत देर तलक नाचेंगा क्या?” कहते सखु की आँखों में ख़ुशी थिरकी | “हाँ जेतना देर तू कहेगी वोतना देर |” कहता सखा उस थिरकन को देखता रहा | उस दिन उसने पहली बार गौर से देखा था | सखु सुंदर थी और उसकी आँखें तो बहुत ही सुंदर |जैसे खिलते कँवल पर झिलमिल करती सुबह की ओस | सो देर तक उसकी आँखों को देखता रहा | उसकी आँखों की वह झिलमिल उसके मन में उतरती चली गयी | अब सखा को मेले का इंतजार था | वह चाहता था कि मेला जल्दी आ जाए ,पर मेला तो अपने नियत समय पर यानी माघ पुन्नी को ही भरना था, पर सखा के दिलो दिमाग में तो मेला ही छाया हुआ था | सो वह सपने में भी मेला जाता और भौंरों के ढेर से सबसे सुंदर भौंरा ढूँढ़ता | अब खेल के समय ,वे खेलते कम बातें ज्यादा करते | बातें भी सखा ही करता | वह भी मेले और भौंरे की बातें | ऐसे ही एक दिन – “ क्यों रे सखु अपुन संग – संग मेला घूमें तो ?” “तेरे संग ? नको आई जानेच नई देगी |” “हव ये बात तो हय | पन तू मेला देखने जाती न ?” “हो पिछला बरस तो गया | आई ,भाऊ, ताई सब गया था |” सखु पिछले मेले के बारे में बता रही थी और सखा आने वाले मेले की कल्पना कर रहा था | वह सोच रहा था ‘अगर मेले में सखु मिल जाय तो ? पन कैसे?’ कुछ देर सोचता रहा फिर –“सुन तू जब मेले को निकलेंगी न ,मेरे कू बताना | मय संग – संग चलेंगा |” “ये पगला है क्या रे ? भाऊ देखेंगा तो मारेंगा तेरे कू |” सखा का दिमाग सटक गया -“काहे ? डगर उसके बाप की है क्या?” फिर उसे याद हो आया ,ऐसे तो वह सखु के बाप तक चढ़ रहा है | सो तुरंत ही मिश्री घोली –“ तू ठीक कहती | अइसे संग – संग जाने से पंगा होयेंगा | पन मैं तुम लोग के पीछू – पीछू चले तो ?” “हव ये सही रहेंगा |” सो उनके बीच तय हो गया कि मेले वाले दिन वे सुबह नदी पर मिलेंगे | सखु उसे मेला जाने का समय बताएगी और वह उनके पीछे चल पड़ेगा | सो उनका समय मेले की कल्पनाओं में बीतने लगा | सखा मेले की ही बातें करता | एक दिन उसने पूछा –“बता तू मेले से क्या लेंगी |” “मय ? लाल रंग का फीता और जलेबी | मेरे … Read more

कानपुर के अमर शहीद -शालिग्राम शुक्ल

शालिग्राम शुक्ल

“ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी” जब-जब भारत रत्न लता मंगेशकर जी का यह गीत हमारे कानों में पड़ता है, हम में से कौन होगा, जिसकी आँखों से भावों का दरिया ना बरस पड़ा हो | ये आजादी जिसका जश्न हम हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं | वो आजादी ऐसे ही तो नहीं मिल गई होगी ? कितनी कुर्बानियाँ दी होंगी हमारे देश के युवाओं ने, अपने जीवन की, अपने सपनों की, अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों की |  कितनी माताओं की कोख उजड़ी होगी, कितनी नव ब्याहताओं की चूड़ियाँ टूटी होंगी | ज्ञात नामों के बीच ऐसे असंख्य नाम हैं जिनके हम ऋणी हैं | क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम अपने शहर के ऐसे गुमनाम क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों  के जीवन के बारे में बात करें जिन्होंने अपना जीवन तो कुर्बान कर दिया पर गुजरते वक्त के साथ हम किसी अहसान फ़रामोश बेटे की तरह उनकी त्याग तपस्या और बलिदान को भूल गए | ऐसे में मैं आपको सुनाने जा रही हूँ समय के साथ बिसराये गए  कानपुर के  शहीद शालिग्राम शुक्ल  के बलिदान की अमर कहानी l कानपुर के अमर शहीद -शालिग्राम शुक्ल वो 1918  की गर्मी की दोपहर थी | इटावा जनपद के सीढ़ी ग्राम में जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल अपने खेत में काम कर रहे थे | सूरज सर पर चढ़ आया था | दोपहर के भोजन का समय हो गया है, ये सोच कर काम रोक दिया | पसीने से लथपथ बदन को अंगोछे से पोछ  बरगद के पेड़ के नीचे छाया में जरा विश्राम कर रहे थे कि उनकी पत्नी रूपा देवी अपने 6 वर्ष के पुत्र शालिग्राम के साथ दोपहर का खाना ले कर आई | पिता खाना खाते हुए माँ को अंग्रेजों की गुलामी के बारे में बता रहे थे और नन्हा बालक उनकी बाते सुन रहा था |उसे स्वतंत्रता भले ही ना समझ आ रही हो पर गुलामी जरूर समझ आ रही थी|  माँ ने घी बुकनू लगा  रोटी का एक चुँगा बना कर कर पुत्र को पकड़ाना चाहा पर पुत्र भाग कर खेत के खर-पतवार उखाड़ने लगा | माँ ने आवाज दी, “अरे लला खेलन में लाग गए? चुँगा रोटी तो  खाए लियो|” “नहीं अम्मा, अबै नाहीं, पहले अंग्रेजन को अपनी माटी से उखाड़ कर फेंक दें|” उसकी बात पर माता -पिता हँस दिए पर वो क्या जानते थे की उनका प्यारा लाल एक दिन अंग्रेजों को उखाड़ने में अमर हो जाएगा | इटावा के शालिग्राम शुक्ल की बचपन से ही देश को स्वतंत्र कराने की इच्छा बलवती होने लगी | नन्हा बच्चा गाँव में निकलने वाली प्रभात फ़ेरियों में शामिल हो जाता, कभी जय हिंद कहता तो कभी वंदे मातरम | जिस उम्र में बच्चे खेल-खिलौनों के लिए आकर्षित होते हैं उसे गाँधी, नेहरू, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह  के किस्से  लुभाने लगे थे| गाँव में ही मन की माटी में देश को आजाद कराने का अंकुर फुट चुका था | परिस्थितियाँ इच्छाओं की गुलाम होती है| संयोग बनने लगे | किशोर शालिग्राम जब  पढ़ाई करने के लिए कानपुर के डी. ऐ. वी हाईस्कूल (वर्तमान समय में डी. ऐ. वी. कॉलेज )  में आए तो इच्छा को खाद-पानी मिलने लगा| ऐसे समय में चंद्रशेखर आजाद से मिलना हुआ | उम्र कम थीं पर देश भक्ति का जज्बा मन में हिलोरें मार रहा था | सहपाठी ही एक गुप्त सभा में मिलाने ले गया था | देखा तो देखते रह गए, सुना तो अपने मन का संकल्प निडर हो कर चंद्रशेखर आजाद को बता दिया |   चंद्रशेखर आजाद ने नजर भर देखा, “एक किशोर, देश पर अपने प्राण उत्सर्ग करने की अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहता है |” उसके उत्साह के आगे नत हुए चंद्रशेखर ने मन ही मन भारत माता को प्रणाम किया, “माँ तू ही ऐसे वीरों को जन सकती है” | कुछ ही मुलाकातों में वो शालिग्राम की वीरता और निडरता को समझ गए |शायद यही वजह थी की चंद्रशेखर आजाद जिन्होंने देश को आजादी दिलाने के लिए “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” बनाई थी उसमें उन्हें भर्ती कर लिया |दरअसल उन्हें उस बालक का उत्साह भा गया, जिसके अभी मूँछों की रेख भी नहीं आई थी |   उन्हें बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी आजाद ने ही दिया | इसके लिए कभी बिठूर में सुनसान जगह चुनी जाती, कभी नवाब गंज का वो इलाका जहाँ अभी चिड़ियाघर है, तो कभी बिल्हौर का कोई कम आबादी वाला गाँव | धाँय -धाँय, केवल बंदूक की आवाज  ही नहीं थी वो निशाना  साधने, चकमा देने, ध्यान  बँटाने और कभी भाग कर सुरक्षित हो जाने का पर्याय भी थी | अंग्रेजों को मार गिराना ही नहीं, पकड़े जाने पर कुछ ना बताना और अगर संभव हो तो अपनी जान  देकर भी साथियों को बचाना जैसे हर सदस्य का धर्म था | उनकी योग्यताओं को देखते हुए  पार्टी का कानपुर  चीफ भी बना दिया गया | शुरू में उनका काम सूचनाओं को इधर -उधर पहुंचाना था | इस काम के लिए संदेशों में बातें करना और संदेशों को पहुंचना इसमें इन्होंने महारत हासिल कर ली |   देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का जुनून जब सर चढ़ कर बोलता तो खाली समय में अपनी कॉपी से कागज फाड़कर वंदे मातरम लिखा करते | कई बार खून से भी लिख देते | अक्सर माता -पिता से मिलने गाँव आना -जाना लगा रहता | माँ सांकेतिक भाषा में पत्र लिखते बेटे को देख पत्र पढ़  तो ना पाती पर  निश्चिंत हो जातीं की बेटा पढ़ाई में लगा है |  कभी-कभी, ऐसे ही खूब मन लगा कर पढ़ने की हिदायत भी देतीं तो माँ से लाड़ में कहते, “माँ एक दिन तुम्हारे लिए वो तोहफा लाऊँगा, तब तुम बलैया लोगी अपने लाल की | बेटे का ऊँचा लंबा कद देखकर कर इतराती माँ एक संस्कारी बहु के सपने सँजोने लगती | तब उन्हें अहसास भी नहीं था कि उनका बेटा, बहु को नहीं देश की स्वतंत्रता को लाने की राह में प्राण उत्सर्ग करने वाला बाराती है | वापस लौटते समय पिता जीवन की ऊँच-नीच समझाते … Read more

पुस्तक समीक्षा -भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह

पुस्तक समीक्षा

  सीमा वशिष्ठ जौहरी जो कि वरिष्ठ साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा की पोती हैं, ने अपने दादाजी भगवतीचरण वर्मा की स्मृति में समकालीन कहानी संग्रह का संपादन कर पुस्तक भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह का प्रकाशन संस्कृति, चेन्नई से करवाया है। सीमा जौहरी बाल साहित्य के क्षेत्र में लेखन में सक्रीय हैं। सीमा वशिष्ठ जौहरी ने इस संकलन की कहानियों का चयन और संपादन बड़ी कुशलता से किया हैं। इस संग्रह में देश-विदेश के सोलह  कथाकार शामिल हैं। संग्रह के 16 कथाकारों में भगवतीचरण वर्मा, ममता कालिया, ज़किया ज़ुबेरी, सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, तेजेन्द्र शर्मा, डॉ. हंसा दीप, सुधा ओम ढींगरा, अलका सरावगी, प्रहलाद श्रीमाली जैसे हिंदी के प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों के साथ नयी और उभरते कथाकारों की कहानियाँ भी सम्मिलित हैं। इस संग्रह की कहानियाँ पाठकों के भीतर नए चिंतन, नई दृष्टि की चमक पैदा करती हैं। भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार भगवतीचरण वर्मा की वसीयत कहानी बेहद रोचक है। कहानी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि में लिखी गई है। कहानी में संवाद चुटीले और मार्मिक हैं। इस कहानी के द्वारा भगवती चरण वर्मा ने समाज की आधुनिक व्यवस्था पर करारा कटाक्ष किया गया है। इस कहानी में हास्य है, व्यंग्य और मक्कारी से भरे चरित्र हैं। भगवतीचरण वर्मा की किस्सागोई का शिल्प अनूठा है। भगवतीचरण वर्मा की कहानियों में घटनाएँ, स्थितियाँ और पात्रों के हावभाव साकार हो उठाते हैं। वसीयत कहानी एक कालजयी रचना है। भगवतीचरण वर्मा की रचनाएँ युगीन विसंगतियों पर प्रहार करते हुए नवयुग के सृजन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहानी दो गज़ की दूरी कोरोना काल की त्रासदी को केंद्र में रख कर लिखी है। कहानी में सहजता और सरलता है। यह नारी अस्मिता की कहानी है। यहां समिधा को सशक्त किरदार में दर्शाया गया है। ममता कालिया ने समिधा की सूक्ष्म मनोवृत्तियों, जीवन की धड़कनों, मन में चलने वाली उथल पुथल को इस कहानी में सहजता से अभिव्यक्त किया है। ममता कालिया विडम्बना के सहारे आज के जीवन की अर्थहीनता को तलाशती हैं। इस कहानी में संबंधों के नाम पर समिधा का पति वरुण झूठ, धोखा, अविश्वास, छल-कपट और बनावटीपन का मुखौटा लगाये संबंधों को जीना चाहता है। ज़कीया ज़ुबैरी की गरीब तो कई बार मरता है अमीना की कहानी है। ज़किया जुबैरी स्त्रियों की ज़िन्दगी में आहिस्ता से दाख़िल होकर उनके मन की परतों को खोलती हैं। भीतरी तहों में दबे सच को सामने लाती हैं। ज़किया जुबैरी की कहानियाँ उनकी बेचैनी को शब्द देती है। ज़कीया ज़ुबैरी हिन्दी एवं उर्दू दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखती हैं। ज़कीया ज़ुबैरी की भाषा में गंगा जमुनी तहज़ीब की लज़्ज़त महसूस होती है। अमीना का विवाह समी मियाँ से होता है। अमीना का प्रत्येक दिन समी मियाँ की चाकरी में गुजर जाता है। अमीना चार बच्चों की माँ बन जाती है। समी मियाँ बिज़नेस के सिलसिले में एक महीने के लिए बाहर चले जाते हैं, तब अकेलेपन से बचने के लिए अमीना सत्रह साल की नूराँ को अपने पास बुला लेती है। जब समी मियाँ वापस लौट कर आते है, तब एक दिन सुबह अमीना अपने पति समी मियाँ को उनके बेड रूम में जाकर देखती है कि नूराँ समी मियाँ के बिस्तर पर सोई हुई है। अमीना और नूराँ दोनों चौंक जाती हैं।   सूर्यबाला की गौरा गुनवन्ती एक अनाथ लड़की की कहानी है जो अपनी ताई जी के यहाँ रहती है। सूर्यबाला अपनी कहानियों में व्यंग्य का प्रमुखता से प्रयोग करती हैं। सूर्यबाला की कहानियों में यथार्थवादी जीवन का सटीक चित्रण है। इनके कथा साहित्य में स्त्री के कई रूप दिखाई देते हैं। सूर्यबाला के नारी पात्र पुरुष से अधिक ईमानदार, व्यवहारिक, साहसी और कर्मठ दिखाई देती हैं। कहानीकार पाठकों को समकालीन यथार्थ से परिचित कराती हैं और उसके कई पक्षों के प्रति सचेत भी करती हैं। लेखिका जीवन-मूल्यों को विशेष महत्व देती हैं, इसलिए इनकी इस कहानी की मुख्य पात्र गौरा दुःख, अभाव, भय के बीच जीते हुए भी साहस के साथ उनका सामना करते हुए जीवन में सुकुन की तलाश कर ही लेती है। उसमें विद्रोह की भावना कहीं नहीं है। कथाकार चित्रा मुद्गल की कहानी ताशमहल पुरुष मानसिकता और माँ की ममता को अभिव्यक्त करने वाली है। यह एक परिवार की कहानी है, जिसमें संबंध बनते हैं, फिर बिगड़ते है और अंत में ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। माता-पिता के झगड़ों में बच्चों पर क्या गुजरती है? इस प्रश्न के उत्तर बारे में केवल माँ ही सोच सकती है। कहानी में बाल मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण भी दिखता है। यह एक सशक्त कहानी है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। कथाकार ने इस कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है। रीता सिंह एक ऐसी कथाकार है जो मानवीय स्थितियों और सम्बन्धों को यथार्थ की कलम से उकेरती है और वे भावनाओं को गढ़ना जानती हैं। लेखिका के पास गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ है। साँझ की पीड़ा एक अकेली वृद्ध महिला विमला देवी की कहानी है जो बनारस में अपने घर में रहती है। एक दिन विमला देवी की बेटी और उनका दामाद विमला देवी के यहाँ आकर बनारस के उस घर को बेच देते हैं और विमला देवी को अपने साथ चंडीगढ़ लेकर चले जाते हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद ही बेटी और दामाद विमला देवी के साथ बुरा बर्ताव करते हैं, तब एक दिन विमला देवी दिल्ली में अपने भाई रघुवीर के घर चली जाती है। रघुवीर के घर में भी विमला देवी के लिए जगह नहीं थी, तब रघुवीर विमला देवी को एक विधवाश्रम में छोड़ कर आ जाते हैं। चार दिन बाद ही रघुवीर के पास विधवाश्रम के संचालक का फोन आता है कि विमला देवी को दिल का दौरा पड़ा है। रघुवीर जब आश्रम पहुँचते हैं, तब तक विमला देवी का निधन हो चुका होता है। तेजेन्द्र शर्मा ने बुजुर्गों के अकेलेपन को खिड़की कहानी के द्वारा बहुत मार्मिकता के साथ बयां किया है। कहानी के नायक जो कि साठ वर्ष के हैं और अब परिवार में अकेले रह गए हैं, की ड्यूटी रेलवे की इन्क्वारी खिड़की पर होती है। वे इस इन्क्वारी खिड़की पर लोगों के साथ संवाद स्थापित कर के, उनकी सहायता कर … Read more

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

  1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l   किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा   बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l   निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि   “मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”   मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l “नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”   जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम … Read more

गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

गीता जयंती -करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे   जिस दिन श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था उस दिन मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी, इसीलिए इस दिन को गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन लोग गीता सुनते हैं, सुनाते हैं, और बाँटते हैं | उनका उद्देश्य होता है कि गीता के ज्ञान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए| ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है, जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि, सफलता, रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |गीता की यात्रा अततः तो आध्यात्मिक ही होती है पर शुरुआत में ही ये चमत्कार हो जाए ऐसा नहीं होताl पढ़ने वाला जिस अवस्था या मानसिक दशा में होता है उसी के अनुसार उसे समझता है l यह गलत भी नहीं है, क्योंकि बच्चों कि दवाइयाँ मीठी कोटिंग लपेट के दी जाति है l  पर जरूरी है जिज्ञासु होना और उसे किसी धर्मिक ग्रंथ की तरह ना रट कर नए नये अर्थ विस्तार देना l गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान   गीता की शुरुआत ही प्रश्न से होती है | प्रश्न और उत्तर के माध्यम से ही जीवन के सारे रहस्य खुलते जाते हैं | यूँ तो बचपन से ही मैंने गीता पढ़ी थी, पर पर गीता से मेरा विशेष अनुराग मेरे पिताजी के ना रहने पर शुरू हुआ | उस समय एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि आप अपने पिता ने निमित्त करके गीता का १२ वां अध्याय रोज पढ़िए उससे आप को व् आपके पिता को उस लोक में शांति मिलेगी | उस समय मेरी मानसिक दशा ऐसी थी कि चलो ये भी कर के देखते हैं के आधार पर मैंने गीता पढना शुरू किया | मैंने केवल १२ वां अध्याय ही नहीं शुरू से अंत तक गीता को पढ़ा | बार –बार पढ़ा | कुछ मन शांत हुआ | जीवन के दूसरे आयामों के बारे में जाना | लेकिन जैसे –जैसे मैं गीता बार –बार पढ़ती गयी, हर बार कुछ नयी व्याख्या समझ में आयीं| दरअसल गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो पाठक के अंदर चिंतन कि प्रक्रिया प्रारंभ करती है l खुदी से ही खुदा मिलता है l एक आम समझ में गीता पुनर्जन्म की बात करती द्वैत दर्शन का ग्रंथ है पर आचार्य प्रशांत उसे अद्वैत से जोड़कर बहुत सुंदर व्याख्या करते हैं l जैसे जब कृष्ण कहते हैं, “इन्हें मारने का शोक मत करो अर्जुन ये तो पहले से मर चुके हैंl तो द्वैत दर्शन इसकी व्याख्या सतत जीवन में इस शरीर के निश्चित अंत की बात करता है, परंतु आत्मा अमर है वो अलग- अलग शरीर ले कर बार -बार जन्म लेती है l पर अद्वैत इसकी व्याख्या चेतना के गिर जाने से करता है l  जिसकी चेतना गिर गई, समझो उसकी मृत्यु ही हो गई l उसे जीवित होते हुए भी मारा समझो l ऐसे के वाढ से या मर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता l द्वैत और अद्वैत दोनों ही भारतीय दर्शन के सिद्धांत हैं, जैसे रुचिकर लगे समझ सकते हैं l दोनों की मंजिल एक ही है l आजकल संदीप माहेश्वरी / विवेक बिन्द्रा विवाद वाले विवेक जी ने इसकी व्याख्या कोरपेरेट जगत के अनुसार की थी lउनकी “गीता इन एकशन”  जितनी लोकप्रिय हुई उसकी आलोचना भी कुछ लोगों ने यह कह कर की, कि गीता की केवल एक और एक ही व्याख्या हो सकती है l पर मेरे विचार से जैसे भूखे को चाँद भी रोटी दिखता है, तो उसे रोटी ही समझने दो l लेकिन वो चाँद की सुंदरता देखना सीखने लगेगा l जब पेट भर जाएगा तो चाँद की सुंदरता को उस नजरिए से देखने लगेगा जैसा कवि चाहता है l लेखक, गुरु, ऋषि को हाथी नहीं होना चाहिए l जरूरी है जोड़ना जो जिस रूप से भी पढ़ना शुरू कर दे, अगर चिंतन करता रहेगा तो आगे का मार्ग खुलता रहेगा l कुछ उद्धरणों के अनुसार इसे देखें, हम जिसे लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन कह कर अंग्रेजी पुस्तकों में पढ़ते हैं | हजारों साल पहले कृष्ण ने गीता में कहा है …. यं यं वापि स्मरण भावं, त्यजयति अन्ते कलेवरं जैसा –जैसा तेरा स्मरण भाव होगा तू  वैसा –वैसा बनता जाएगा | यही तो है लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन … आप जैसा सोचते हो वैसा ही आपके जीवन में घटित होता जाता है | जो कहता है कि आप की सोच ही आप के जीवन में होने वाली घटनाओं का कारण है l जैसे आप ने किसी की सफलता देख कर ईर्ष्या करी  तो आप की सोच नकारात्मक है और आप को सफलता मिलेगी तो भी थोड़ी l लेकिन अगर किसी की सफलता देखकर दिल खुश होकर प्रेरणा लेता है तो मन में उस काम को करने के प्रति प्रेम होगा नाकि जीतने का भाव l फिर तो उपलबद्धियाँ भी बेशुमार होंगी l इसी को तो फिल्म सरल लहजे में रणछोड़ दास छाछण उर्फ फुनशूक वाङडू समझाते हैं l कहने का अर्थ है विदेशी बेस्ट सेलर हों या देशी फिल्में … आ ये सारा ज्ञान गीत से ही रहा है l अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः संशय से बड़ा कोई शत्रु नहीं है क्योंकि ये हमारी बुद्धि का नाश करता है | आज कितने लोग जीवन में कोई भी फैसला ले पाने में संशय ग्रस्त रहते हैं | असफलता का सबसे बड़ा कारण संशय ही है | मैं ये कर पाऊंगा या नहीं की उधेड़ बुन  में काम आधे मन से शुरू किये जाते हैं या शुरू ही नहीं किये जाते | ऐसे कामों में असफलता मिलना निश्चित है | अब जरा इस श्लोक को देखिये … व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन | बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् || ४१ || किसी लक्ष्य को पाने के लिए इससे बेहतर ज्ञान और क्या … Read more

पूर्वा- कहानी किरण सिंह

“जिस घर में भाई नहीं होते उस घर कि लड़कियाँ मनबढ़ होती हैंl” उपन्यासिक कलेवर समेटे चर्चित साहित्यकार किरण सिंह जी की  कहानी ‘पूर्वा’  आम जिंदगी के माध्यम से रूढ़ियों की टूटती बेड़ियों की बड़ी बात कह जाती है l वहीं  बिना माँ की बेटी अपूर्व सुंदरी पूर्वा का जीवन एक के बाद एक दर्द से भर जाता है, पर हर बार वो जिंदगी की ओर बढ़ती है l  जीवन सुख- दुख का संयोग है l दुख तोड़ देते हैं पर हर दुख के बाद जिंदगी को चुनना ही हमारा उद्देश्य हो का सार्थक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है ये कहानी l वहीं  ये कहानी उन सैनिकों की पत्नियों के दर्द से भी रूबरू कराती है, जो सीमा पर हमारे लिये युद्ध कर रहे हैं l सरल – सहज भाषा में गाँव का जीवन शादी ब्याह के रोचक किस्से जहाँ पाठक को गुदगुदाते हैं, वहीं भोजपुरी भाषा का प्रयोग कहानी के आस्वाद को बढ़ा देता है l तो आइए मिलते हैं पूर्वा से – पूर्वा- कहानी किरण सिंह प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर संदूक से तिरंगा को निकालते हुए पूर्वा के हृदय में पीड़ा का सैलाब उमड़ आया और उसकी आँखों की बारिश में तिरंगा नहाने लगा । पूर्वा तिरंगा को कभी माथे से लगा रही थी तो कभी सीने से और कभी एक पागल प्रेमिका की तरह चूम रही थी ।ऐसा करते हुए वह अपने पति के प्रेम को तो महसूस कर रही थी लेकिन लग रहा था कलेजा मुह को आ जायेगा। यह तिरंगा सिर्फ तिरंगा ही नहीं था। यह तो उसके सुहाग की अंतिम भेंट थी जिसमें  उसके पति  लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर  लिपटकर आया था। तिरंगा में वह अपने पति के देह की अन्तिम महक को महसूस कर रही थी जो उसे अपने साथ – साथ अतीत में ले गईं । पूर्वा और अन्तरा अपने पिता ( रामानन्द मिश्रा) की दो प्यारी संतानें थीं। बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद उन दोनों का पालन-पोषण उनकी दादी आनन्दी जी ने किया था। बहु की मृत्यु से आहत आनन्दी जी ने अपने बेटे से कहा – “बबुआ दू – दू गो बिन महतारी के बेटी है आ तोहार ई दशा हमसे देखल न जात बा। ऊ तोहार बड़की माई के भतीजी बड़ी सुन्नर है। तोहरा से बियाह के बात करत रहीं। हम सोचली तोहरा से पूछ के हामी भर देईं।” रामानंद मिश्रा ने गुस्से से लाल होते हुए कहा – “का माई – तोहार दिमाग खराब हो गया है का? एक बात कान खोल कर सुन लो, हम पूर्वा के अम्मा का दर्जा कौनो दूसरी औरत को नहीं  दे सकते। पूर्वा आ अन्तरा त अपना अम्मा से ज्यादा तोहरे संगे रहती थीं। हम जीते जी सौतेली माँ के बुला के आपन दूनो बेटी के  अनाथ नहीं कर सकते ।” आनन्दी जी -” हम महतारी न हईं। तोहार चिंता हमरा न रही त का गाँव के लोग के रही। काल्ह के दिन तोहार दूनो बेटी ससुराल चल जइहें त तोहरा के कोई एक लोटा पानी देवे वाला ना रहिहें। हमार जिनगी केतना दिन के है। ” रामानंद मिश्रा – “माई तू हमार चिंता छोड़के पूर्वा आ अन्तरा के देख।” बेटे की जिद्द के आगे आनन्दी जी की एक न चली। अपनी दादी की परवरिश में पूर्वा और अन्तरा बड़ी हो गईं। अब आनन्दी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। यह बात उन्होंने अपने बेटे से कही तो उन्होंने कहा – “माई अभी उमर ही का हुआ है इनका? अभी पढ़ने-लिखने दो न।” आनन्दी – “बेटा अब हमार उमर बहुते हो गया। अउर देखो बुढ़ापा में ई कवन – कवन रोग धर लिया है। इनकी मैया होती त कौनो बात न रहत। अऊर बियाह बादो त बेटी पढ़ सकत है। का जानी कब भगवान के दुआरे से हमार बुलावा आ जाये। माँ की बात सुनकर पूर्वा के पिता भावनाओं में बह गये और उन्होंने अपनी माँ की बात मान ली। अब वह पूर्वा के लिए लड़का देखने लगे। तभी उनकी रजनी (पूर्वा की मौसी) का फोन आया – “पाहुन बेटी का बियाह तय हो गया है। आप दोनो बेटियों को लेकर जरूर आइयेगा। रामानन्द मिश्रा -” माई का तबियत ठीक नहीं रहता है इसलिए हम दूनो बेटी में  से एकही को ला सकते हैं। ” रजनी -” अच्छा पाहुन आप जइसन ठीक समझें। हम तो दूनो को बुलाना चाहते थे, बाकिर……… अच्छा पूर्वा को ही लेते आइयेगा, बड़ है न। रामानंद मिश्रा – हाँ ई बात ठीक है, हम आ जायेंगे, हमरे लायक कोई काम होखे त कहना। ” रजनी -” न पाहुन, बस आप लोग पहिलहिये आ जाइयेगा। हमार बेटी के बहिन में  अन्तरा अउर पूर्वे न है। रामानंद मिश्रा – ठीक है – प्रणाम। पूर्वा अपने पिता के संग बिहार के आरा जिला से सटे एक गाँव में अपनी मौसेरी बहन शिल्पी की शादी में पहुंच गई । सत्रह वर्ष की वह बाला गज्जब की सुन्दर व आकर्षक थी। तीखे – तीखे नैन नक्स, सुन्दर – सुडौल शरीर, लम्बे – लम्बे घुंघराले केश, ऊपर से गोरा रंग किसी भी कविमन को सृजन करने के लिए बाध्य कर दे। मानो  ब्रम्ह ने उसको गढ़ने में अपनी सारी शक्ति और हुनर का इस्तेमाल कर दिया हो। ऊपर से उसका सरल व विनम्र स्वभाव एक चुम्बकीय शक्ति से युवकों को तो अपनी ओर खींचता ही था साथ ही उनकी माताओं के भी मन में भी उसे बहु बनाने की ललक जगा देता था। लेकिन पूर्वा इस बात से अनभिज्ञ थी। अल्हड़ स्वभाव की पूर्वा चूंकि दुल्हन की बहन की भूमिका में थी इसलिए  विवाह में सरातियों के साथ – साथ बारातियों की भी केन्द्र बिन्दु थी। गुलाबी लहंगा-चोली पर सिल्वर कलर का दुपट्टा उसपर बहुत फब रहा था । उस पर भी सलीके से किया गया मेकप उसके रूप लावण्य को और भी निखार रहा था। ऐसे में किसी युवक का दिल उस पर आ जाना स्वाभाविक ही था। दुल्हन की सखियाँ राहों में फूल बिछा रही थीं और पूर्वा वरमाला के लिए दुल्हन को स्टेज पर लेकर जा रही थी। सभी की नज़रें दुल्हन को देख रही थी लेकिन एक नज़र पूर्वा पर टिकी हुई थी। … Read more

घूरे का हंस – पुरुष शोषण की थाह लेती कथा

मैं खटता रहा दिन रात ताकि जुटा सकूँ हर सुख सुविधा का सामान तुम्हारे लिए और देख सकूँ तुम्हें मुस्कुराते हुए पर ना तुम खुश हुई ना मुस्कुराई तुमने कहा मर्दों के दिल नहीं होता और मैं चुपचाप आँसूँ पिता रहा कविता का यह अंश मैंने लिया है सुपरिचित लेखिका अर्चना चतुर्वेदी जी के उपन्यास “घूरे का हंस” से, जो भावना प्रकाशन से प्रकाशित है और जिसे मैंने अभी पढ़कर समाप्त किया है l   घूरे का हंस – पुरुष शोषण की थाह लेती कथा जैसा की कविता से स्पष्ट है ये उपन्यास पुरुष की पीड़ा को उकेरता है l जो कर्तव्यों  के बोझ तले दब रहा है, पर स्नेह के दो बोल उसके लिए नहीं हैं l उपन्यास सवाल उठाता है,  आज के बदलते सामाजिक परिवेश में जब स्त्रियों को कानून से सुरक्षित किया गया है, जो कि अभी भी जरूरी हैं पर उत्तरोत्तर ऐसी महिलाओं की संख्या में भी इजाफा हो रहा है, जो इनका दुरप्रयोग कर रहीं हैं, और अपने ही घर में पुरुष शोषित हो रहा है l इन महिलाओं को अधिकार तो चाहिए पर कर्तव्य से पीछा छुड़ाना चाहती हैं l तो क्या ऐसे में उस तकलीफ को रेखांकित नहीं किया जाना चाहिए ? समाज के इस बदलते समीकार से साहित्य अछूता रह जाना चाहिए l जबकि ऐसे तमाम दुखड़े आपको आस -पास मिल जायेगे l यू ट्यूब पर तमाम साइट्स पर भी हैं जिन पर पुरुष अपना दर्द साझा कर रहे हैं l फिर भी परिवार या सामाज में आम चलन में हम उस पर बात करने से कतराते रहे हैं, कंधा देने से कतराते हैं l   अर्चना जी उसी दर्द को सामने लाने के लिए एक बिल्कुल देशी , मौलिक कथा लाती हैं l ये कहानी है गाँव के लच्छु पहलवान के घर चार पोतियों के बाद पोता होने की l जिसके जन्म पर थाली पीटी जा रही है, पर उस नवजात को नहीं पता कि ये थाली उसके ऊपर तमाम जिम्मेदारियों का बोझ डालने के कारण पीटी जा रही है l कहानी रघु के जन्म से पहले की दो पीढ़ियों की कथा बताकर आगे बढ़ती है तो जैसे रघु अपने जीवन की व्यथा बताने के लिए पाठक का हाथ पकड़कर आगे चलने लगता है और उसके साथ भ्रमित चकित पाठक उसके दर्द के प्रवाह में बहता चला जाता है और अंत में एक बड़े दर्द को समेट कई प्रश्नों से जूझता हुआ, कई बदलावों की जरूरत को महसूस करता हुआ  विचार मगन रह जाता है l अर्चना जी ने  रघु के साथ पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया है l सबसे पहले माता-पिता जो बेटे के जन्म के लिए 4 बेटियों की लाईन लगाते हैं पर उनकी जिम्मेदारी जन्मते ही बेटे के कंधों पर होती है l  और भाई कितना ही छोटा क्यों ना हो, बहनों को कहीं जाना हो भाई को साथ जाना पड़ता है, चाहे खेल छोड़ कर, चाहे पढ़ाई छोड़ कर, लड़कियों पर पढ़ाई का दवाब नहीं है पर लड़कों पर माता -पिता के सपनों का बोझ है l हॉस्टल गए लड़कों को किस तरह से लड़कियाँ मौन या चालाकी भरे अंदाज आमंत्रण देती हैं और इच्छा पूरी ना होने पर उनपर ही आरोप लगा देती हैं, या उन पर कुछ ऐसे लेबल् लगा देती हैं, जिसमें पुरुष, पुरुषों के मध्य हंसी का पात्र बन जाता है l हमारे पौराणिक आख्यानों  में भी ऐसी स्त्रियाँ रहीं हैं,ये हम सब जानते हैं l रघु के साथ यात्रा करते हुए हम उसकी पारिवारिक कलह से रूबरू होते हैं, अपने घर के अंदर दम घोटू स्थिति से रूबरू होते हैं l कहानी को ना खोलते हुए मैं ये कहना चाहूँगी कि रघु की निरीह दयनीय स्थिति पर करुणा आती हैं l ये वो सच है जो हमने अपने आस -पास जरूर देखा होगा, पर उसके साथ खड़े नहीं हुए जरूरत नहीं समझी, क्यों?   तो क्या ये पुरुष विमर्श का युग है और स्त्री को सब कुछ मिल गया है और अब हमें उसके संघर्षों को ताक पर रख देना चाहिए ? अमूमन पुरुष विमर्श की बात आते ही ये सहज प्रश्न आम उदारवादी जन मानस के मन में आता है, खासकर तब जब वो एनिमल जैसी फिल्म देखकर सकते में हों, जहाँ टाक्सिक अल्फा मेल स्थापित किए जा रहे हैं l इसका उत्तर उपन्यास में बहुत सावधानी और तार्किकता से दर्ज है, वो भी कथा रस को बाधित किए बिनाl जहाँ पुरुष की पीड़ा बताते हुए स्त्रियों की पीड़ा गाथा भी है l जहाँ दहेज के कारण जलाई गई सुमन भी है, तो पढ़ाई बीच में रोक कर शराबी -कबाबी से ब्याह दी गई राधा भी है, नकारा पति को झेलती दादी भी हैं, तो पति से पिटती स्त्रियाँ भी हैं, जिन्हे अपना पति माचोमैँन लगता है l  अर्चना जी कहीं भी शोषित स्त्री के दर्द को कम नहीं आँकती हैं, बल्कि कई स्थानों पर भावुक भी कर देती है, पर इसके साथ ही वो आगाह करती हैं कि पीड़ित स्त्री के साथ हमें पीड़ित पुरुष को सुनना चाहिए l ये आवाज नासूर बन जाए उससे पहले सुनना होगा क्योंकि एक स्वस्थ समाज के लिए सत्ता किसी की  भी हो  सही नहीं है, शोषण किसी का भी हो सही नहीं है l हमें आँसू और आँसू में फर्क करने से बचना होगा l   अब आती हूँ उपन्यास के कथा शिल्प पर, तो 160 पेज की इस कहानी में गजब का प्रवाह है l किताब पाठक को आगे “क्या ?” की उत्सुकता के साथ पढ़वा ले जाती है l भाषा सरल -सुलभ है और कथा- वस्तु के साथ न्याय करती है l कहानी के साथ-साथ  बहते हुए व्यंग्य भी है और अर्चना जी का चुटीला अंदाज भी l दादा -दादी की रंग तरंग जहाँ गुदगुदाती है तो हॉस्टल के दृश्य कॉलेज के जमाने की याद दिलाते हैं l लेकिन इसके बीच कहानी पाठक के मन में प्रश्नों के बीज बोती चलती है, जो उसे बाद तक परेशान करते हैं l यहीं उपन्यास अपने मकसद में सफल होता है l प्रतीकात्मक कवर पेज कहानी का सार प्रतिबिंबित करता है l अंत में यही कहूँगी कि व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी खासी पहचान बना चुकी अर्चना जी का ये संवेदन … Read more

श्राद्ध पक्ष – क्या वास्तव में आते हैं पितर 

श्राद्ध पक्ष - क्या वास्तव में आते हैं पितर

    चाहें ना धन-संपदा, ना चाहें पकवान l पितरों को बस चाहिए, श्रद्धा और सम्मान ll    आश्विन के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष कहा जाता हैl यह वो समय है, जिसमें हम अपने उन पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करते हैं l  पितरों को पिंड व् जल अर्पित करते हैं | मान्यताओं के अनुसार पितृ पक्ष में यमराज सभी सूक्ष्म शरीरों को मुक्त कर देते हैं, जिससे वे अपने परिवार से मिल आये व् उनके द्वरा श्रद्धा से अर्पित जल और पिंड ग्रहण कर सके l  श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को महालया  भी कहा जाता है| इसका बहुत महत्व है| ये दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन्हें अपने पितरों की पुन्य तिथि का ज्ञान नहीं होता वो भी इस दिन श्रद्धांजलि या पिंडदान करते हैं |   क्या बदल रही है श्राद्ध पक्ष के प्रति धारणा    कहते हैं श्राद्ध में सबसे अधिक महत्व श्रद्धा का होता है | परन्तु क्या आज हम उसे उसी भाव से देखते हैं? कल यूँहीं कुछ परिचितों से मिलना हुआ |उनमें से एक  ने श्राद्ध पक्ष की अमावस्या के लिए अपने पति के साथ सभी पितरों का आह्वान करके श्राद्ध करने की बात शुरू कर दी | बातों ही बातों में खर्चे की बात करने लगी | फिर बोलीं की क्या किया जाये महंगाई चाहे जितनी हो खर्च तो करना ही पड़ेगा, पता नहीं कौन सा पितर नाराज़ बैठा हो, और भी रुष्ट हो जाए | उनको भय था की पितरों के रुष्ट हो जाने से उनके इहलोक के सारे काम बिगड़ने लगेंगे | उनके द्वारा किया गया  श्राद्ध कर्म में श्रद्धा से ज्यादा भय था | किसी अनजाने अहित का भय | वहीँ दूसरे परिचित ने कहा कि  श्राद्ध पक्ष में अपनी सासू माँ की श्राद्ध पर वे किसी अनाथ आश्रम में जा कर खाना व् कपडे बाँट देती हैं, व् पितरों का आह्वान कर जल अर्पित कर देती है | ऐसा करने से उसको संतोष मिलता है | उसका कहना है की जो चले गए वो तो अब वापस नहीं आ सकते पर उनके नाम का स्मरण कर चाहे ब्राह्मणों को खिलाओ या अनाथ बच्चों को, या कौओ को …. क्या फर्क पड़ता है | तीसरे परिचित ने बात काटते हुए कहा, “ये सब पुराने ज़माने की बातें है | आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में न किसी के पास इतना समय है न पैसा की श्राद्ध के नाम पर बर्बाद करे | और कौन सा वो देखने आ रहे हैं ? आज के वैज्ञानिक युग में ये बातें पुरानी हो गयी हैं हम तो कुछ नहीं करते | ये दिन भी आम दिनों की तरह हैं | वैसे भी छोटी सी जिंदगी है खाओ, पियो ऐश करो | क्या रखा है श्राद्ध व्राद्ध करने में | तीनों परिचितों की सोच, श्राद्ध करने का कारण व् श्रद्धा अलग – अलग है |प्रश्न ये है की जहाँ श्रद्धा नहीं है केवल भय का भाव है क्या वो असली श्राद्ध हो सकता है? प्रश्न ये भी है कि जीते जी हम सौ दुःख सह कर भी अपने बच्चों की आँखों में आँसू नहीं देखना कहते हैं तो परलोक गमन के बाद हमारे माता –पिता या पूर्वज बेगानों की तरह हमें श्राप क्यों देने लगेंगें? जिनकी वसीयत तो हमने ले ली पर साल में एक दिन भी उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने में हम “खाओ, पियो, ऐश करो की संस्कृति में कहीं अपने और आगामी संतानों को अकेलेपन से जूझती कृतघ्न पीढ़ी की ओर तो नहीं धकेल रहे l   श्राद्ध के बारे में भिन्न भिन्न हैं पंडितों के मत    भाव बिना सब आदर झूठा, झूठा है सम्मान  शास्त्रों के ज्ञाता पंडितों की भी इस बारे में अलग – अलग राय है ……….. उज्जैन में संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रमुख ‘संतोष पंड्या’ के अनुसार, श्राद्ध में भय का कोई स्थान नहीं है। कुछ लोग जरूर भय रखते होंगे जो सोचते हैं कि हमारे पितृ नाराज न हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं होता। जिन लोगों के साथ हमने जीवन के इतने वर्ष बिताएं हैं, वे हमसे नाखुश कैसे हो सकते हैं। उन आत्माओं से भय कैसा? वहीं इलाहाबाद से ‘पं. रामनरेश त्रिपाठी’ भी मानते हैं कि श्राद्ध भय की उपज नहीं है। इसके पीछे एक मात्र उद्देश्य शांति है। श्राद्ध में हम प्याज-लहसून का त्याग करते हैं, खान-पान, रहन-सहन, सबकुछ संयमित होता है। इस तरह श्राद्ध जीवन को संयमित करता है, ना कि भयभीत l जो कुछ भी हम अपने पितरों के लिए करते हैं, वो शांति देता है। क्या वास्तव में आते हैं पितर  जब मानते हैं व्यापी जल भूमि में अनल में तारा  शशांक में भी आकाश में अनल में फिर क्यों ये हाथ है प्यारे, मंदिर में वह नहीं है ये शब्द जो नहीं है, उसके लिए नहीं है प्रतिमा ही देखकर के क्यों भाल  में है रेखा निर्मित किया किसी ने, इसको यही है देखा हर एक पत्थरों में यह मूर्ति ही छिपी है शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया यही है l जयशंकर प्रसाद   पितर वास्तव में धरती पर आते हैं इस बात पर तर्क करने से पहले हमें हिन्दू धर्म की मान्यताओं को समझना पड़ेगा, सगुण उपासना पद्धति को समझना होगा l सगुण उपासना उस विराट ईश्वर को मानव रूप में मान कर उसके साथ एक ही धरातल पर पारिवारिक संबंध बनाने के ऊपर आधारित है l इसी मान्यता के अनुसार सावन में शिव जी धरती पर आते हैं l गणेश चतुर्थी से अनंत चौदस तक गणेश जी आते हैं l नवरात्रि में नौ देवियाँ आती है और देवउठनी एकादशी में भगवान विष्णु योग निद्रा  से उठकर अपना कार्यभार संभालते हैं l तो इसी क्रम में अगर मान्यता है कि अपने वंशजों से मिलने पितर धरती पर आते हैं, तो इसमें तकर्क रहित क्या है ? सगुणोंपासना ईश्वर के मूर्त रूप से, प्राणी मात्र में, फिर अमूर्त और फिर कण-कण में व्याप्त ईश्वर के दर्शन की भी यात्रा हैं l और जब मूर्ति से वास्तविक प्रेम होता है तो यह यात्रा स्वतः ही होने लगती है l कबीर दास जी कहते हैं कि- एक राम दशरथ का बेटा , एक … Read more

वो छोड़कर चुपचाप चला जाए तो क्या करें ?

वो छोड़कर चुपचाप चला जाए

शायरी काव्य की बहुत खूबसूरत विधा है l रदीफ़, काफिया, बहर से सजी शायरी दिल पर जादू सा असर करती है l यूँ तो शायरी में हर भाव समेटे जाते हैं पर प्रेम का तो रंग ही अलग है l प्रेम, प्रीत प्यार से अलहदा कोई और रंग है भी क्या ? प्रेम में सवाल पूछने का हक तो होता ही है l  लेकिन जब प्यार करने वाला ये हक दिए बिना अचानक से छोड़ कर चला जाए, कोई सुध ही ना ले…मन किसी तरह खुद को समझ कर जीना सीख जाए , फिर उसके लौट कर आने के बाद भी जीवन की बदल चुकी दिशा कहाँ बदलती है l कुछ ऐसे ही भावों को प्रकट करती गजल वो छोड़कर चुपचाप चला जाए तो क्या करें ?     वो छोड़ कर चुपचाप चला जाए तो क्या करें ? गुलशन में पल में खार नजर आए तो क्या करें ?   हर शख्स में नजर आता था जो शख्स हर दफा उसमें भी कहीं वो ना नजर आए तो क्या करें?   दिया कब था हमें उसने सवाल पूछने का हक अब जवाबों पर एतबार ना आए तो क्या करें ?   पलकों पर ठहरी नमी की जो पा सका ना थाह अब  समुन्दर भी नाप कर आए तो क्या करें ?   कुछ भी कहा ना जिसने बहुत मिन्नतों के बाद अब लफ्जों का यूँ अंबार लगाए  तो क्या करें?   जब मुड़ ही चुके हों पाँव, गईं बदल हो मंजिलें अब पीछे से आ के पुकार लगाए तो क्या करें ?   वक्त की आँधी में दफन कर-कर  शिकायतें अब ‘वंदना’ खामोश नज़र आए तो क्या करें ?   वंदना बाजपेयी   यह भी पढ़ें मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा प्रियंका ओम की कहानी बाज मर्तबा जिंदगी सुनो घर छोड़ कर भागी हुई लड़कियों बचपन में थी बड़े होने की जल्दी   आपको गजल “वो छोड़कर चुपचाप चला जाए तो क्या करें” कैसी लगी ? अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें अवश्य परिचित कर कराए l अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें l

जीते जी अंतिम संस्कार- पुरवाई संपादकीय पर

जीते जी अंतिम संस्कार

कुछ पढ़ा, कुछ गुना :शीर्षक के अंतर्गत अटूट बंधन में उन लेखों कहानियों पर विस्तार से बात रखी जाएगी जो कहीं न कहीं पढ़ें हैं l आज के अंक   लंदन से प्रकाशित पुरवाई पत्रिका का आ. तेजेंद्र शर्मा जी का संपादकीय, “किराये पर परिवार” पर टिप्पणी l संपादकीय आप यहाँ  से पढ़ सकते हैं l लंदन से प्रकाशित पुरवाई पत्रिका में आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी के संपादकीय “जीते जी अंतिम संस्कार” पर विचार एक बार और मिलने के बाद भी एक बार और मिलने की इच्छा पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी आलोक धन्वा अभी कुछ दिन पहले लंदन से प्रकाशित पत्रिका ‘पुरवाई’ का तेजेन्द्र शर्मा सर का संपादकीय “जीते जी अंतिम संस्कार” पढ़ा था l यह एक अलग तरह की व्यवस्था के बारे में है,जहाँ लोग आगे आकर अपना ‘लिविंग फ़्यूनरल’ करवाने का निर्णय ले रहे हैं l जैसे-जैसे ये निर्णय विस्तार ले रहा है, वैसे-वैसे ही पारंपरिक फ़्यूनरल एजेंट भी ‘लिविंग फ़्यूनरल’ की सेवा अपने मीनू कार्ड में शामिल करने लगे हैं। ये ‘लिविंग फ़्यूनरल’ बिना लाश के होते हैं। लाश का चर्च में होना आवश्यक नहीं। इन्सान चाहे तो स्वयं उपस्थित भी रह सकता है या फिर घर से ज़ूम इत्यादि पर शामिल हो सकता है। संपादकीय के अनुसार दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में ह्योवोन हीलिंग नामक सेंटर है जो फ्यूनरल सर्विस नामक कंपनी की वित्तीय मदद से इच्छुक व्यक्तियों का नकली अंतिम संस्कार से संबंधित कार्यक्रम का आयोजन करता है। बताया जाता है कि अब तक हजारों लोग इस प्रकार अपना अंतिम संस्कार करवा चुके हैं। एक नए विषय पर अनोखा संपादकीय, जिसे पढ़ते समय निराशा, अवसाद, अकेला पन जैसे कई शब्द मन में किसी सितार से बजते रहे l चिंतन-मनन काफी समय तक चलता रहा l तेजेन्द्र शर्मा सर की एक कहानी से लंदन में अपनी कब्र की प्री बुकिंग के बारे में पता चला था, अभी कुछ दिन पहले भारत में भी अकेले रहने वाले लोगों के लिए अंतिम यात्रा बुकिंग जैसी किसी योजना के बारे में पढ़ा तो लगा हम कितने अकेले होते जा रहे हैं l रिश्तों में जीते हुए भी चार कंधे अंतिम समय में नसीब हों, इसकी भी गारंटी नहीं है l मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है और कितनी बार हम यूँही कह देते हैं कि इससे तो अच्छा मर जाते, परंतु जिंदगी भर मृत्यु के भय से ग्रस्त रहते हैं l आध्यात्मिक राह में दैहिक मृत्यु मान ली जाती है, खाते-पीते, सोते जागते देह से परे l अपनी मृत्यु का अभिनय करने वाले कई कलाकारों ने ये बात कही है कि खुद की मृत्यु के अभिनय के बाद ‘जीवन के महत्व’ का एहसास हुआ l कई बार जो व्यक्ति आत्महत्या को आतुर होता है वो अपने जाने के बाद परिजनों का विलाप देख ले तो उसे अपने कृत्य पर पछतावा होगा l इस काल्पनिक मृत्यु पर आने वाले परिजन कैसे साहस जुटाते होंगे ये भी गौर करने लायक है l क्या ये दो देशों की संस्कृतियों का अंतर है ? लेकिन बहुत पहले हमारे देश में भी तीर्थ यात्रा पर जाते हुए लोग पिंड दान कर देते थे, क्योंकि लौट कर आने की संभावना कम होती थी l फिर भी वास्तविकता में अंतर होता ही है l निजी अनुभव से कहूँ तो अपने प्रिय लोगों को कुछ दिन की जद्दो-जहद के बाद दुनिया से विदा होते देखा है l उस समय यही जाना कि जाते हुए प्राणी की प्रशंसा, अपना दुख, उसके प्रति प्रेम जैसी कोई बात नहीं करनी है, हो सके तो उसे मोह से मुक्त कर उसकी अंतिम यात्रा को आसान बनाना हैl कठिन है, पर वास्तविक प्रेम में ये करना पड़ता है l प्रेम स्वयं से ज्यादा दूसरे की फिक्र का नाम है l वहीं ये भी जरूर कहूँगी अवसाद से लड़ने, अतीत को भूल कर नई शुरुआत करने या गंभीर रोगियों को मृत्यु भय से आजाद करने में संभवतः कुछ सहायक हो l कुछ कहना सुनना अनकहा नया रह जाए, जो बाद की गहन पीड़ा की अनुभूति बनता है l परंतु जैसा की संपादकीय में लिखा है कि “पारंपरिक फ़्यूनरल एजेंट भी ‘लिविंग फ़्यूनरल’ की सेवा अपने मीनू कार्ड में शामिल करने लगे हैं” तो इसके बाजार के हाथों पड़ने की पूरी संभावना लगती है l जैसा की बाजार हर सार्थक प्रयास के लिए करता हैl “जीवन का जश्न” मृत्यु का अनुभव कर भय से मुक्ति या जीवन की गहन समझ के लिए होने के स्थान पर एक ‘नया अनुभव’ ले कर पार्टी करने की ओर बढ़ जाने का खतरा भी है l जो भी हो एक अकेलापन, अवसाद, मृत्यु जैसे गंभीर विषय पर जानकारीयुक्त, सुचिंतित संपादकीय के लिए बहुत बधाई वंदना बाजपेयी किराये का परिवार – पुरवाई संपादकीय पर टिप्पणी किराये का परिवार – पुरवाई संपादकीय पर टिप्पणी बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी तेरहवाँ महीना- सुधांशु गुप्त के कहानी संग्रह की समीक्षा आपको लेख “जीते जी अंतिम संस्कार- पुरवाई संपादकीय पर” पर विचर कैसे लगे ? अपनी राय से हमें अवश्य परिचित कराए l अगर आपको अटूट बंधन कि रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो हमें सुबसक्रीब करें और अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें l