मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा

मां की सिलाई मशीन

नारी जीवन बस दर्द का पर्याय है या बाहर निकलने का कोई रास्ता भी है ? बचपन में बड़े- बुजुर्गों के मुँह से सुनती थी,  ” ऊपर वाला लड़की दे तो भाग्यशाली दे ” l और उनके इस भाग्यशाली का अर्थ था ससुराल में खूब प्रेम करने वाला पति- परिवार मिले l नायिका कुंती की माँ तो हुनर मंद थी, आत्म निर्भर भी, फिर उसका जीवन दुखों के दलदल में क्यों धंसा था l  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी ‘मां की सिलाई मशीन’ एक ऐसी कहानी है जिसे मैंने दो-तीन बार बार पढ़ा और हर बार अलग अर्थ निकले l एक आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री का भी आर्थिक शोषण हो सकता है l बाहर से दिखने वाले एक सामान्य संस्कारी परिवार के बीच अनैतिक रिश्ते अपनी पूरी ठसक के साथ चल सकते हैं l मारितयु से परे भी कुछ है जो मोह के धागों संग खींचा चला आता है l आइए पढे एक ऐसी कहानी जो अपने पूरे कहानी पन के साथ पाठक के मन में कई सावाल छोड़ जाती है और दर्द की एक गहरी रेखा भी… मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा   मां की सिलाई मशीन               वरर्र ? वरर्र ? सूनी रात के इस सुस्त अंधेरे में ? डयोढ़ी में सो रही मैं जग गयी। व्हिरर ! व्हिरर्र !! फिर से सुना मैं ने ? मां की मशीन की दिशा से ? धप ! मैं उठ बैठी । गली के खम्भे वाली बत्ती की मन्द रोशनी में मशीन दिख रही थी, लेकिन मां नहीं । वह वहां हो भी नहीं सकती थी। वह अस्पताल में थी। ट्रामा सेन्टर के बेड नम्बर तेरह पर, जहां उसे उस दिन दोपहर में पहुंचाया गया था। सिर से फूट रहे उनके लहू को बन्द कराने के वास्ते। बेहोशी की हालत में। मशीन के पास मैं जा खड़ी हुई। उस से मेरा परिचय पुराना था। दस साल की अपनी उस उम्र जितना। मां बताया करतीं पहले मुझे गोदी में लिए लिए और फिर अपनी पीठ से सटाए सटाए उन्होंने अपनी कुर्सी से कितनी ही सिलाई पूरी की थी। मां टेलर थीं। खूब सिलाई करतीं। घर की, मुहल्ले की, शहर भर की। मां की कुर्सी पर मैं जा बैठी। ठीक मां के अन्दाज़ में। ट्रेडिल पर दाहिना पैर थोड़ा आगे। बायां पैर थोड़ा पीछे। क्लैन्क, क्लैन्क, क्लैन्क……… बिना चेतावनी दिए ट्रेडिल के कैम और लीवर चालू हो लिए। फूलदार मेरी फ़्राक पर। जो मशीन की मेज़ पर बिछी थी। जिस की एक बांह अधूरी सिलाई लिए अभी पूरी चापी जानी थी। और मेरे देखते देखते ऊपर वाली स्पूल के गिर्द लिपटा हुआ धागा लूप की फांद से सूई के नाके तक पहुंचने लगा और अन्दर वाली बौबिन, फिरकी, अपने गिर्द लिपटा हुआ धागा ऊपर ट्रैक पर उछालने लगी। वरर्र……वरर्र…… सर्र……..सर्र और मेरी फ़्राक की बांह मेरी फ़्राक के सीने से गूंथी जाने लगी, अपने बखियों के साथ सूई की चाप से निकल कर आगे बढ़ती हुई…….. खटाखट….. “कौन ?’’ बुआ की आवाज़ पहले आयी। वह बप्पा की सगी बहन न थीं। दादी की दूर-दराज़ की भांजी थी जो एक ही साल के अन्दर असफल हुए अपने विवाह के बाद से अपना समय काटने के लिए कभी दादी के पास जा ठहरतीं और कभी हमारे घर पर आ टपकतीं। “कौन ?’’ बप्पा भी चौंके। फट से मैं ने अपने पैर ट्रैडिल से अलग किए और अपने बिस्तर पर लौट ली। मशीन की वरर्र…..वरर्र, सर्र…..सर्र थम गयी। छतदार उस डयोढ़ी का बल्ब जला तो बुआ चीख उठी, “अरे, अरे, अरे…….देखो…देखो…. देखो…..इधर मशीन की सुई ऊपर नीचे हो रही है और उसकी ढरकी आगे-पीछे। वह फ़्राक भी आगे सरक ली है….’’ जभी पिता का मोबाइल बज उठा। “हलो,’’ वह जवाब दिए, ’’हां। मैं उस का पति बोल रहा हूँ…..बेड नम्बर तेरह….. मैं अभी पहुंच लेता हूं…..अभी पहुंच रहा हूं…. हां- कुन्ती…..कुन्ती ही नाम है….’’ “’मां ?’’ मैं तत्काल बिस्तर से उठ बैठी।                “हां…”बप्पा मेरे पास  खिसक आए। “क्या हुआ ?’’ बुआ ने पूछा। “वह नहीं रही, अभी कुछ ही मिनट पहले। नर्स ग्लुकोज़ की बोतल बदल रही थी कि उसकी पुतलियां खुलते खुलते पलट लीं…’’ “अपना शरीर छोड़ कर वह तभी सीधी इधर ही आयी है, ’’बुआ की आवाज़ दुगुने वेग से लरज़ी, “अपनी मशीन पर….’’ “मुझे अभी वहां जाना होगा,’’ बप्पा ने मेरे कंधे थपथपाए, ’’तुम घबराना नहीं।’’ और उनके हाथ बाहर जाने वाले अपने कपड़ों की ओर बढ़ लिए। अपने कपड़ों को लेकर  वह बहुत सतर्क रहा करते। नयी या ख़ास जगह जाते समय ताजे़ धुले तथा इस्तरी किए हुए कपड़े ही पहनते। वह ड्राइवर थे। अपने हिसाब से, कैज़्युल। अवसरपरक। कुछ कार-मालिकों को अपना मोबाइल नम्बर दिए रहते, जिन के बुलाने पर उनकी कार चलाया करते। कभी घंटों के हिसाब से। तो कभी दिनों के। “अभी मत जाएं,’’ बुआ ने डयोढ़ी की दीवार पर लगी मां की घड़ी पर अपनी नज़र दौड़ायी, “रात के दो बज रहे हैं। सुबह जाना। क्या मालुम मरने वाली ने मरते समय हम लोग को जिम्मेदार ठहरा दिया हो !’’ “नहीं। वह ऐसा कभी नहीं करेगी। बेटी उसे बहुत प्यारी है। नहीं चाहेगी, उस का बाप  जेल काटे और वह इधर उधर धक्का खाए…..’’ मैं डर गयी। रोती हुई बप्पा से जा चिपकी। मां की मशीन और यह डयोढ़ी छोड़नी नहीं थी मुझे। “तुम रोना नहीं, बच्ची,’’ बप्पा ने मेरी पीठ थपथपायी, “तुम्हारी मां रोती थी कभी ?’’ “नहीं,’’ मेरे आंसू थम गए। “कैसे मुकाबला करती थी ? अपने ग्राहक-ग्राहिकाओं से ? पास पड़ोसिनों से ?  मुझ से ? बुआ से ? अम्मा से ?’’ यह सच था। ग्राहिकाएं या ग्राहक अगला काम दें न दें, वह अपने मेहनताने पर अड़ी रहतीं। पड़ोसिनें वक्त-बेवक्त चीनी-हल्दी हाज़िर करें न करें, वह अपनी तुनाकी कायम रखतीं। बप्पा लोग लाख भड़के-लपकें वह अविचल अपनी मशीन चलाए रखतीं। “हां…’’ मैं ने अपने हाथ बप्पा की बगल से अलग कर लिए। “अस्पताल जाना बहुत ज़रूरी है क्या ?’’ बुआ ने बप्पा का ध्यान बटांना चाहा।  “जरूरी है।बहुत जरूरी है।कुन्ती लावारिस नहीं है। मेरी ब्याहता है….’’ इधर बप्पा की स्कूटी स्टार्ट हुई, उधर मैं मशीन वाली कुरसी पर जा बैठी।  मां को महसूस करने। मशीन में मौजूद उनकी गन्ध को अपने अन्दर भरने। उन की छुअन को छूने। “चल उठ,’’ … Read more

कहानी समीक्षा- काठ के पुतले

काठ के पुतले

ऐसा ही होता आया है एक ऐसा वाक्य है जिसके आवरण तले ना जाने कितनी गलत बाते मानी और मनवाई जाती हैं l कमजोर का शोषण दोहन होता रहता है, पर क्योंकि ऐसा होता आया है ये मानकर इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठती l और समाज किसी काठ के पुतले की तरह बस अनुसरण करता चलता है l जमाना बदला और शोषण के हथियार और तरीके भी बदले l गाँव शहर बनते जा रहे हैं और शहर स्मार्ट सिटी l फिर भी नई जीवन शैली में नए बने  नियम कुछ ही दिनों में परंपरा बन गए और उन पर यही ऑर्डर है का मुलम्मा चढ़ गया l अपनी बात कहना अवज्ञा मान लिया गया l लेकिन क्या ऐसा ही होता रहेगा या होते रहने देना चाहिए ? क्या आवाज़ नहीं उठनी चाहिए? ऐसी ही एक आवाज़ उठाती है ललिता अपनी चमक धमक से आँखों को चुँधियाती दुनिया में काठ के पुतले बने खड़े उन लोगों के लिए जिन्हें हम सेल्स मैन /वुमन/पर्सन के नाम से जानते हैं l मैं बात कर रही हूँ परी कथा में प्रकाशित प्रज्ञा जी की कहानी काठ के पुतले की l समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी की कहानियों की विशेषता है कि वो साहित्य को स्त्री- पुरुष, शहरी व ग्रामीण, अमीर-गरीब के खांचों में नहीं बाँटती l उनकी कलम इन सब से परे जाकर शोषण को दर्ज करती है l जहँ भी जिस भी जगह वो नजर आ रहा हो वो उस पर विरोध दर्ज करने की बात का सशक्त समर्थन करती नजर आती है l और समस्या है तो समाधान भी है के तहत वो आवाज़ उठाने पर जोर देती हैं l एक आवाज़ में दूसरी आवाज़ जुड़ती है और दूसरी में तीसरी… हमें काठ के पुतले नहीं जिंदा इंसान चाहिए। जो अपना हक लेना जानते हों l काठ के पुतले कहानी भी शुरू में एक आम युगल की आम कहानी लगती है l थोड़े  आगे बढ़ने पर लगता यही कहानी प्रेम में जाति के मसले को लेकर चलेगी पर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है वो अपना आयाम बढ़ाती जाती है और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती एक बड़े फलक की कहानी बन जाती है l चमचमाते मॉल जिनमें रोज हजारों लोग आते-जाते हैं l जिनकी मदद के लिए अच्छे कपड़े पहने, चेहरे पर मुस्कान चिपकाए सामान खरीदने में हमारी मदद करते सेल्स पर्सन की भी कुछ समस्याएँ है? शहर में है, रोजगार भी है, अच्छे भले कपड़े पहनते है, मुस्कुरा- मुस्कुरा कर बात करते हैं, उनको क्या दुख?  जरा कहानी में लिफ्टमैंन का दर्द देखिए…. ‘‘चैन? कहां बेटा! घर पहुंचते-पहुंचते बेहाल शरीर बिस्तर ढूंढने लगता है। न बीबी-बच्चों की बात सुहाती है न खाना। बीबी रोटी-सब्जी परोस देती है मैं खाकर लेट जाता हूं। कितना समय हो गया खाने में कोई स्वाद नहीं आता…थकान से बोझिल शरीर को मरी नींद भी नहीं आती। सुबह से खड़े -खड़े पैर सूज जाते हैं और सबसे ज्यादा दर्द करते हैं कंधे। कंधों से रीढ़ की हड्डी में उतरता हुआ दर्द जमकर पत्थर हो जाता है।“   क्या हम कभी सोच पाते हैं कि 12 घंटे की ड्यूटी बजाने वाले ये सेल्स पर्सन सारा दिन खड़े रहने को विवश है l टांगें खड़े- खड़े जवाब दे जाएँ , महिलायें गर्भवती हों या उन्हें यूरिनरी प्रॉब्लम हो… उन्हें बैठने की इजाजत नहीं l उस समय भी नहीं जब गरहक ना खड़े हों l लगातार खड़े रहने की थकान पैरों में वेरुकोज वेंस के रूप में नजर आती है तो यूरिन तो टालने के लिए पानी ना पीना कई स्वस्थयगत बीमारियों के रूप में l नौकरी में खड़े रहना एक सजा की तरह मिलता है l जिस पर किसी का ध्यान नहीं है l ललिता आवाज़ उठाती है l शुरू में वो अकेली पड़ती है पर धीरे-धीरे लोग जुडते है l कहानी समाधान तक तो नहीं पहुँचती पर एक सकारात्मक अंत की ओर बढ़ती दिखती है l कहानी इस बात को स्थापित करती है कि शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाना जरूरी है l अधिकार कभी थाली में सजा कर नहीं मिलते l  उनके लिए जरूरी है संघर्ष, कोई पहल करने वाला, संगठित होना ….   तभी बदलती है काठ के पुतलों की जिंदगी l एक अच्छी कहानी के लिए बधाई प्रज्ञा जी वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें नैहर छूटल जाए – एक परिवर्तन की शुरुआत प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ अगर आप को लेख “कहानी समीक्षा- काठ के पुतले” अच्छा लगा हो तो कमेन्ट  कर हमें जरूर बताएँ l  अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद करने वाले कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में

हमारी पौराणिक कथाओं को जब नए संदर्भ में समझने की कोशिश करती हूँ तो कई बार इतने नए अर्थ खुलते हैं जो समसामयिक होते हैं l अब भस्मासुर की कथा को ही ले लीजिए l क्या थी भस्मासुर की कथा  कथा कुछ इस प्रकार की है कि भस्मासुर (असली नाम वृकासुर )नाम का एक असुर दैत्य था l क्योंकि असुर अपनी शक्तियां बढ़ाने के लिए भोलेनाथ भगवान शिव की पूजा करते थे l तो भस्मासुर ने भी एक वरदान की कह में शिव जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की l आखिरकार शिव प्रसन्न हुए l शिव जी उससे वरदान मांगने के लिए कहते हैं l तो वो अमर्त्य का वरदान माँगता है l भगवान शिव उससे कहते हैं कि ये तो नहीं मिल सकता क्योंकि ये प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है l तुम कोई और वरदान मांग लो l ऐसे में भस्मासुर काफी सोच-विचार के बाद उनसे ये वरदान माँगता है कि मैं जिस के भी सर पर हाथ रखूँ  वो तुरंत भस्म हो जाए l भगवान शिव  तथास्तु कह कर उसे ये वरदान दे देते हैं l अब शिवजी ने तो उसकी तपस्या के कारण वरदान दिया था पर भस्मासुर उन्हें ही भस्म करने उनके पीछे भागने लगता है l अब दृश्य कुछ ऐसा हो जाता है कि भगवान भोले शंकर जान बचाने के लिए आगे-आगे भागे जा रहे हैं और भस्मासुर पीछे -पीछे l इसके ऊपर एक बहुत बहुत ही सुंदर लोक गीत है, “भागे-भागे भोला फिरते जान बचाए , काँख तले मृगछाल दबाये भागत जाए जाएँ भोला लट बिखराये, लट बिखराये पाँव लंबे बढ़ाए रे, भागत जाएँ … अब जब विष्णु भगवान ने भस्मासुर की ये व्यथा- कथा देखी l तो तुरंत एक सूदर स्त्री का मोहिनी रूप रख कर भस्मासुर के सामने आ गए l भस्मासुर उन्हें देख उस मोहिनी पर मग्ध हो गया और उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया l मोहिनी  ने तुरंत माँ लिया पर उसने कहा कि तुम्हें मेरे साथ नृत्य करना होगा l भस्मासुर ने हामी भर दी l उसने कहा कि नृत्य तो मुझे नहीं आता पर जैसे-जैसे तुम करती जाओगी मैं पीछे-पीछे करता जाऊँगा l नृत्य शुरू हुआ l जैसे- जैसे मोहिनी नृत्य करती जाती भस्मासुर भी नृत्य करता जाता l नृत्य की एक मुद्रा में मोहिनी अपना हाथ अपने सिर पर रखती है तो उसका अनुसरण करते हुए भस्मासुर भी अपना हाथ अपने सिर पर रखता है l ऐसा करते ही भस्मासुर भस्म हो जाता है l तब जा के शिव जी की जान में जान आती है l   भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में असुर और देव को हमारी प्रवृत्तियाँ हैं l अब भस्मासुर को एक प्रवृत्ति की तरह ले कर देखिए l तो यदि एक गुण/विकार को लें तब मुझे मुझे तारीफ में ये अदा नजर आती है l एक योग्य व्यक्ति कि आप तारीफ कर दीजिए तो भी वो संतुष्ट नहीं होगा l उसको अपनी कमजोरियाँ नजर आएंगी और वो खुद उन पर काम कर के उन्हें दूर करना चाहेगा l कई बार तारीफ करने वाले से भी प्रश्न पूछ- पूछ कर बुराई निकलवा लेगा और उनको दूर करने का उपाय भी जानना चाहेगा l कहने का तात्पर्य ये है कि वो तारीफ या प्रोत्साहन से तुष्ट तो होते हैं पर संतुष्ट नहीं l   परंतु अयोग्य व्यक्ति तुरंत तारीफ करने वाले को अपने से कमतर मान लेता है l उसके अहंकार का गुब्बारा पल भर में बढ़ जाता है l अब ये बात अलग है कि  तारीफ करने वाला भी शिव की तरह भस्म नहीं होता क्योंकि उसे उसकी मोहिनी यानि की कला, योग्यता बचा ही लेती है l   अलबत्ता भस्मासुर के बारे में पक्का नहीं कहा जा सकता l वो भस्म भी हो सकते हैं या कुछ समय बाद उनकी चेतना जागृत भी हो सकती है lऔर वो अपना परिमार्जन भी कर सकते हैं l वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. यह भी गुज़र जाएगा ( motivational story in Hindi ) भविष्य का पुरुष जब राहुल पर लेबल लगा छिपा हुआ आम आपको लेख “भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में “कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन में प्रकाशित रचनाएँ और हमारा प्रयास पसंद आता है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें ताकि हमेंऔर अच्छा काम करने की प्रेरणा मिल सके l

नवल वर्ष में नवल हर्ष में – नव वर्ष की शुभकामनाएँ

नव वर्ष की शुभकामनाएँ

  नया हो या पुराना, हर साल समय का एक टुकड़ा ही तो है l और जाते हुए साल रूपी समय के उस खास टुकड़े का शुक्रिया तो बनता है कि जीवन की धूप, बरसात सर्दी और गर्मी झेलने के बाद खुशियों के पल और दुखों की रातों को काटने के बाद हम आज समय के इस मुहाने पर हैं कि इसे सम्मान पूर्वक विदा कर संभावनाओं के नए कालक्रम में प्रवेश करें l क्योंकि हर संभावना में आशा छिपी है बेहतर परिणामों की l बेशक समय का अगला टुकड़ा भी जीवन के हर मौसम से भरा हो सकता है पर उसे बेहतर तरीके से जी लेने का अनुभव का एक मोती हमारी जीवन माला में और गूँथ गया है l ज्यादा समझदार, ज्यादा परिपककव और ज्यादा बेहतर होने की दिशा में हम आगे बढ़ चुके हैं l प्रार्थना है कि इस नवल वर्ष में ईश्वर आप सब को  जीवन में सुख-शांति, स्नेह, खुशियां स्वास्थ्य और समृद्धि प्रदान करे l नए साल की शुभ कामनाओं के साथ “नवल वर्ष में नवल हर्ष में” एक छोटी सी कविता l नवल वर्ष में नवल हर्ष में – नव वर्ष की शुभकामनाएँ   नवल वर्ष में नवल हर्ष में नव जीवन की ज्योति जलाएँ   आशाओं  से दीप्त उमंगें जीवन रस की सौम्य तरंगें नव लहर संग बढ़ते जाएँ   आरोपों की फुलझड़ियों में रिश्तों की टूटी लड़ियों में नवल प्रेम संगीत बजाएँ   रोग-व्याधि का ताना बाना नैराश्य का छोड़ बहाना नव स्वास्थ्य का संबल पाएँ   मन कारा के भीतर जाकर सभी कलुषता  बैर मिटाकर नवल धवल पावन हो जाएँ   नवल वर्ष में नवल हर्ष में नव जीवन की ज्योति जलाएँ -वंदना बाजपेयी अटूट बंधन से जुड़े सभी मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ यह भी पढ़ें … कैसे न्यू इयर रेसोल्युशन निभाने में मिले सफलता नए साल पर 21 प्रेरणादायी विचार नए साल पर 5 कवितायें -साल बदला है , हम भी बदलें आपको कविता “नवल वर्ष में नवल हर्ष में – नव वर्ष की शुभकामनाएँ” कैसी लगी ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराएँ l  अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें l   आप सभी  को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ   

सुनो घर छोड़ कर भागी हुई लड़कियों

भागी हुई लड़कियाँ

मैं एक कहानी लिखने की कोशिश में हूँ l घरेलू सहायिका किचन में बर्तन साफ कर रही है l  मैं एक सशक्त नायिका गढ़ना चाहती हूँ पर घरेलू सहायिका के बर्तनों की टनटनाहट मेरे सोचने में बाधा डाल रही है l तभी घंटी बजती है l सहायिका की भाभी आई हैl जोर-जोर से बता रही है, “देखो करछी से कैसे मारा है, तुम्हारे भैया नेl” मेरी नायिका की-बोर्ड पर ठिठक कर खड़ी हो जाती है l सहायिका अपने भाई के लिए दो गालियां उछालती है हवा में, उसकी भाभी भी अनुसरण कर दो गालियां उछालती है | फिर दोनों हँस देती है l उनका हँसना मेरी नायिका की तरह अपनी किसी उपलबद्धि पर होने वाली प्रसन्नता नहीं है, ना ही नायक के प्रति प्रेम का कोई सूचक, ना ही जीवन के प्रति अनुराग l उसका हँसना चट्टान फाड़ पर निकले किसी नन्हें अंकुर की सी जिजीविषा है l जीवन के तमाम संघर्षों में उसने हँसने की आदत डाल रखी है…  आखिर कोई कितना रोए? पता नहीं क्यों मैं टोंकती हूँ उसे, “क्यों पिटती हो तुम लोग, क्यों नहीं करती विद्रोह?” जवाब में वो हँसती है, “हम लोगों में ऐसा ही होता है दीदीl मेरे घर से चार घर छोड़ कर रहती है सुनयना, पहला पति पीटता थाl  फिर उसने वो ले लिया… वही, क्या कहते हैं आप लोग…  हाँ! वही डिफोर्स l फिर दूसरी शादी कर ली, अब वो भी पीटता है| अब बताओ कितने लेगी डिफोर्स l मैं बताती हूँ उसे कि मेरी नायिका बढ़ चुकी है विद्रोह के लिए आगे l वो फिर हँसती है, “वो कर सकती है… क्योंकि आप उसके लौटने के दरवाजे खोल देती है l एक ठोस जमीन दिखती है उसे, पर हकीकत में… जो जहाँ जैसे फँस गया है उसे लौटने देते लोग… दूसरी बार तो बिलकुल भी नहीं l हाँ थोड़ा और और खिसक देते हैं पैरों के नीचे से जमीन l उसकी हकीकत और मेरी कल्पना के बीच थमी हुई हैं, की बोर्ड पर थिरकती मेरी अंगुलियाँ l मैं सोचती हूँ, बार- बार सोचती हूँ, फिर टाइप करती हूँ… “ये जमीन हमें ही तैयार करनी होगी हकीकत में” वंदना बाजपेयी   आपको ये राइट अप कैसा लगा हमें अपने विचारों से अवगत कराएँ l  अगर आप को हमारा काम पसंद आता है तो कृपया अटूट बंधन साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन पेज लाइक करें l

सिन्हा बंधु- पाठक के नोट्स

सिंह बंधु

  “जिस तरह जड़ों से कटा वृक्ष बहुत ऊंचा नहीं उठ सकता|उसी तरह समृद्धिशाली भविष्य की दास्तानें अतीत को बिसरा कर नहीं लिखी जा सकती |” “सिन्हा बंधु” उपन्यास ऐसे ही स्वतंरता संग्राम सेनानी “राजकुमार सिन्हा” व उनके छोटे भाई “विजय कुमार सिन्हा” की जीवन गाथा है .. जिनकी माँ ने अपने एक नहीं दो-दो बेटों को भारत माँ की सेवा में सौंप दिया |  बड़े भाई को काकोरी कांड और छोटे को साडर्स कांड में सजा हुई l दोनों ने अपनी युवावस्था के महत्वपूर्ण वर्ष देश को स्वतंत्र कराने में लगा दिये l उपन्यास को 8 प्रमुख भागों में बांटा गया है – कानपुर, कारांचीखाना, मार्कन्डेय भवन, काकोरी कांड, राजकुमार सिन्हा जी का विवाह, अंडमान जेल, बटुकेश्वर दत्त, स्मृतियाँ l   “सिन्हा बंधु”-स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले सिन्हा बंधुओं  के त्याग वीरता और देशभक्ति को सहेजता उपन्यास     उपन्यास की शुरुआत उत्तर प्रदेश के औधयोगिक नगर कानपुर गौरवशाली इतिहास से हुई है | लेखिका लिखती हैं कि, “हाँफते- दाफ़ते शहरों के बीच पूरे आराम और इत्मीनान के साथ चलने वाले कानपुर नगर का अपना ही ठेठ कनपुरिया मिज़ाज है l और ताप्ती गर्मी में गुस्से के बढ़ते पारे को शांत करने वाली माँ गंगा है ना.. जो कनपुरियों का मिज़ाज ही नहीं शांत करती, ब्रह्मा जी को भी संसार की रचना करने के बाद शांति से बिठूर में अपनी गोद में बिठाती हैं l वही बिठूर जहाँ वाल्मीकि आश्रम में रामायण जैसा कालातीत ग्रंथ लिखा गया l माँ सीता ने लव- कुश को जन्म दिया और शस्त्रों से लेकर शास्त्रों तक की शिक्षा दी l अपने पुत्र से यौवन की मांगने वाले राजा ययाति का किला भी गंगा के किनारे जाजमऊ में था l उन्हीं के बड़े पुत्र यदु के नाम से यदुवंश बना l     आज भी उत्तर प्रदेश का प्रमुख  औधयोगिक नगर कानपुर स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में अपने युवाओं की आहुति देने वाले उत्तर प्रदेश का केंद्र था।  कानपुर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ( जिसे अंग्रेज़ों ने ‘सिपाही-विद्रोह’ या ‘गदर’ कहकर पुकारा) के प्रमुख स्थलों में से एक रहा  है। नाना राव और तात्या टोपे के योगदान को भला कौन भूल सकता है | यहां का इतिहास कई तरह की कहानियों को खुद में समेटे हुए है। नाना राव पार्क भी इस इतिहास का गवाह है। वह अपने वीर सपूतों की कुर्बानी पर खून के आंसू रोया था। यहीं पर बरगद के पेड़ से चार जून 1857 को 133 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। तब से  यह पेड़ न भुलाने वाली यादों को संजोए रहा और  कुछ साल पहले ही  जमींदोज हो गया।   भगत सिंह और चंद्रशेखर ‘आजाद’ जैसे वीर सपूतों  की  कानपुर कर्म भूमि रहा है | शहर ने भी इसे अपना अहोभाग्य माना और बड़े सम्मान से कानपुर में इनकी मूर्तियाँ स्थापित की  गई | इनके अतिरिक्त  कानपुर में बड़ा चौराहे पर कोतवाली रोड के किनारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ. मुरारी लाल की प्रतिमा स्थापित है, जिन्होंने आजादी के लड़ाई में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। कानपुर के डीएवी कॉलेज के अंदर क्रांतिकारी “शालिग्राम शुक्ल” की  मूर्ती है। इस मूर्ति को वर्ष 1963 में स्थापित किया गया | “शालिग्राम शुक्ल” हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के कानपुर चीफ थे, और  चंद्रशेखर आजाद के साथी थे। एक दिसंबर 1930 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में वो चंद्रशेखर आजाद की रक्षा करने के दौरान, मात्र 19 वर्ष की आयु में,  शहीद हो गये।   सिन्हा बंधुओं के बारे में बताते -बताते किताब कानपुर के बटुकेश्वर दत्त के बारे में भी बताती है l तो चंद्रशेखर आजाद, गणेश शंकर विध्यार्थी और भगत सिंह के बारे में  भी रोचक किस्से जरूरी  बातों की जानकारी देती है l     अपने देश और गौरव को सहेजने की चाह रखने वाले साहित्यकारों लेखकों को लगा कि इन्हें वर्तमान पीढ़ी से जोड़ना आवश्यक है क्योंकि वर्तमान ही अतीत और भविष्य के मध्य का सेतु है | जाहिर है एक बिसराये हुए इतिहास में, उजड़े हुए शब्द कोश में और विकास की बदली हुई परिभाषाओं में ये काम आसान नहीं था | पर इसे करने का जिम्मा उठाया कानपुर की ही एक बेटी वरिष्ठ लेखिका “आशा सिंह” जी ने | उम्र के इस पड़ाव पर जब बहुओं को घर की चाभी सौंप कर महिलायेँ  ग्रहस्थी के ताम-झाम  से निकल दो पल सुकून  की सांस लेना चाहती हैं तब आशा दी मॉल और मेट्रो  की चमक से दमकते कानपुर की जमीन में दफन गौरवशाली इतिहास को खोजने शीत, घाम और वर्षा की परवाह किए बिना निरंतर इस श्रम साध्य उद्देश्य में जुटी हुई थीं l पर आखिरकार उनका परिश्रम इस किताब के माध्यम से मूर्त रूप में सामने आया | यह किताब एक नमन है, एक श्रद्धा का पुष्प है सिन्हा ब्रदर्स नाम से प्रसिद्ध कानपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को |   हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी

बचपन में थी बड़े होने की जल्दी

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं ...मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  .. बचपन में थी बड़े होने की जल्दी 

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं …मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  ..   बचपन में थी बड़े होने की जल्दी  कभी-कभी ढूंढती हूँ उस नन्हीं सी गुड़िया को जो माँ की उल्टी सीधी-साड़ी लपेट खड़ी हो आईने के सामने दोहराती थी बार-बार “लो हम टो मम्मी बन गए” या नाराज़ हो माँ की डाँट पर छुप कर चारपाई के नीचे लगाती थी गुहार “लो जा रहे हैं सुकराल” माँ के मना करने बावजूद अपनी नन्ही हथेलियों में जिद करके थामती थी बर्तन माँजने का जूना और ठठा कर हँसता था घर हाथों में संभल ना पाए गिरते बर्तनों की झंकार से और अपनी गुड़िया को भी तो पालती थी बिलकुल माँ की तरह करना था सब वैसे ही चम्मच से खिलाने से लेकर डॉक्टर को दिखाने तक दोनों हाथों से पकड़ कर बडी सी झाड़ू हाँफते-दाफ़ते जल्दी-जल्दी बुहार आती थीबचपन घर के आँगन से आज उम्र की किसी ऊंची पायदान पर खड़ी हो लौट जाना चाहती है उस बचपन में जब थी जल्दी बड़े होने की सदा से यही रहा है हम सब का इतिहास कुछ और पाने की आशा में जो है आज इस पल हमारे पास वो कभी नहीं लगता खास वंदना बाजपेयी   आपको कविता “बचपन में थी बड़े होने की जल्दी” कैसी लगी ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व फेसबुक पेज लाइक करें l

प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी

भगोड़ी

लड़कियों के लिए तो माता-पिता की मर्जी से ही शादी करना अच्छा है l प्रेम करना तो गुनाह है और अगर कर लिया तो भी विवाह तो अनुमति लिए बिना नहीं हो सकता और अगर कर लें तो वो उससे भी बड़ा गुनाह है l जिसकी सजा माता-पिता परिवार मुहल्ला- खानदान पीढ़ियाँ झेलती हैं l पर प्रेम को मार कर कहीं और विवाह कर लेने की सजा केवल दो लोग… इसलिए समाज को दो लोगों को सजा देना कहीं ज्यादा उचित लगता है और विवाह के मंत्रों के बीच किसी प्रेम पुष्प की आहुति अक्सर हो ही जाती है l “प्रेम और इज्जत” सदियों से तराजू के दो पलड़ों में बैठा दिए गए हैं l इस नाम से किरण सिंह जी का कहानी संग्रह भी है l प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी ऐसे विचार मेरे मन में आये किस्सा पत्रिका में रंजना जायसवाल की कहानी “भगोड़ी” पढ़कर l कहानी में पिता से कहीं अधिक स्त्री जीवन की विडंबनाएँ खुलती हैं l एक प्रेम में भागी हुई लड़की जब कुछ वर्ष बाद अपने ही शहर वापस आती है तो उसे पता चलता है कि उसके पिता कि मृत्यु हो चुकी है l भाई द्युज की कहानी में सात भाइयों की बहन को भाई की शादी में भी नहीं बुलाया जाता पर घर से भागी हुई लड़की को पिता की मृत्यु की सूचना भी नहीं दी जाती l मायके जाने के लिए पूछने की दीवारे अब भले ही टूट रहीं हो पर पिछली पीढ़ियों ने ये दर्द जरूर झेला है l एक हुक सी उठती है और मन के कोने में मुकेश द्वारा गाया गया गीत बज उठता है …. “नए रिश्तों ने तोड़ा नाता पुराना ना फिर याद करना, ना फिर याद आना” और तंद्रा टूटती है दरवाजे पर खड़ी छोटी बहन के इस आर्त-कटाक्ष से “जो लड़कियां भाग जाती है ना उस घर की और लड़कियों की शादी नहीं हो पाती l केवल उस घर की लड़कियों की ही नहीं मुहल्ले की लड़कियों की भी शादी नहीं हो पाती l” l और उसके बाद शुरू होती है, आरोपों की झड़ी कि घर छूटे लोगों कि क्या दशा होती है l जिस पिता ने माँ-पिता दोनों की भूमिका निभाई l जिनसे मुहल्ला भर अपने बच्चों के लिए राय लेने आता था उन्हें सगी बुआ की बेटी की शादी में बुलाया भी नहीं गया lछोटा भाई नन्ही उम्र में ही वयस्क बन जाता है l जल्दी मुहल्ले की लड़कियों की शादी कर दी जाती है l लेखिका ने जो लिखा वो यथार्थ है l हमारे छोटे शहरों और गांवों का … पर क्या यथार्थ दिखाना ही कहानी का उद्देश्य है को लेखिका अंतिम पैराग्राफ में पलट देती है और एक प्रश्न पाठक के मन में बो देती हैं l और मुझे फिर से दो पलड़े दिखाई देने लगते हैं … एक में स्त्री बैठी है और एक में पुरुष l इन तमाम सामाजिक विडंबनाओं को जब प्रेम के नाम पर तोलने का प्रयास होता है पुरुष और उसके परिवार का पलड़ा फूल सा हल्का होकर उठता चला जाता है और स्त्री का धड़ाम से जमीन छूता है l और प्रश्न उठता है कि प्रेम और इज्जत के इस पलड़े में सिर्फ स्त्री ही क्यों बैठी है? डॉ. संगीता पांडे की एक कविता मुझे बार-बार याद आती है “विकल्प” l इसमें लड़की को माता-पिता बहुत प्यार करते हैं और उसे अपनी मर्जी का विकल्प चुनने देते हैं… तमाम विकल्पों में वो चुनती है नीली आँखों वाला गुड्डा, गुलाबी फ्रॉक, लाल रिबन पर शादी के समय उसे चुनने का विकल्प नहीं होता… बदले में मिलती है मौत…. जहाँ से वापस लौटने का कोई विकल्प नहीं है l क्या आज बेटियाँ अपने पिता से ये विकल्प देने कि इजाजत नहीं मांग रहीं ? ये कहानी यही जवाब मांग रही है l कहानी के लिए रंजना जायसवाल जी को बधाई , शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी आपको लेख “प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी” कैसा लगा ? कृपया अपनी राय दें l अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो अटूट बंधन को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष

जड़खोद

संवेद में प्रकाशित प्रज्ञा जी की एक और शानदार कहानी है “जड़ खोद”l इस कहानी को प्रज्ञा जी की कथा यात्रा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है | जैसा कि राकेश बिहारी जी ने भी अपनी टिप्पणी में कहा है कि ये उनकी कथा यात्रा के नए पड़ाव या प्रस्थान बिन्दु की तरह देखा जाना चाहिए l एक स्त्री के संघर्ष की कहानी कहते हुए ये कहानी समाज में होने वाले राजनैतिक और सामाजिक बदलाव को एक सूत्र में इस तरह से गूथती हुई आगे बढ़ती है कि पाठक जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ता जाता है | राजनैतिक घटनाओं के बावजूद कथारस कहीं बाधित नहीं होता | कहानी की नायिका गंगा, भागीरथी गंगा की ही तरह प्रवाहमान है, जिसे बहना है और बहने के लिए उसे अपने रास्ते में आने वाले पर्वतों को काटना भी आता है और ना काट सकने की स्थिति में किनारे से रास्ता बनाना भी | भागीरथी प्रेत योनि में भटकते राजा सगर के पुत्रों को तारने देवलोक से आई तो ये गंगा अपने पिता का कर्ज उतारने दुनिया में आई है l गंगा जो पहाड़ों से संघर्ष के साथ आगे बढ़ती है पर जमीन को समतल और हरा भरा करना ही उसके जीवन का उद्देश्य है | कहानी की नायिका गंगा भी बचपन से संघर्षों के साथ पलती बढ़ती पितृसत्ता और धर्मसत्ता से टकराती है l और अपनी तरफ से जीवन को समरस बनाने का प्रयास करती है | कहानी चंद्रनगर कि गलियों से निकलकर, देहरादून, भोपाल और ऑस्ट्रेलिया की यात्रा करती है, तो तकरीबन 1980-85 से लेकर 6 दिसम्बर 1992 की घटनाओं का जिक्र करते हुए शहरों और गलियों के नाम बदलने वाले आज के युग का भी | प्रज्ञा जी कहानी में समय काल नहीं बताती पर घटनाओं के मध्यम से पाठक समय को पहचान जाता है | कहानी में पाठक गंगा की उंगली पकड़कर चलता है और उसके सुख दुख में डूबता उतराता हैl उसके गुम हो जाने कि दिशा में पाठक कि बेचैनी भी गंगा कि सहेली सोनू की ही तरह बढ़ती जाती है | बच्चों को स्कूल ले जाने वाले रिक्शे पर पीछे लगे पटरे, रिक्शे बच्चों का शोर और, सोनू का दौड़ कर सीढ़ियाँ चढ़ कर इत्मीनान से बिना नहाई -धोई गंगा को जल्दी करने के लिए कहना, जहाँ बाल सुलभ हरकतों के साथ पाठक को बचपन में ले जाता है l वहीं अन्यायी अत्याचारी पिता का विदोह करती बच्ची का बाल मनोविज्ञान प्रज्ञा जी ने बखूबी पकड़ा है | फिर चाहे वो पुजारी की बेटी होते हुए भी बिना नहाए नाश्ता करना हो या सहर्बी पिता के विरोध में कि गई चोरी या रिक्शे के आगे लेट जाने की धमकी, या जमा हथियारों को नदी में बहा आना | माली के लड़के से प्रेम | धर्म, जाति समाज इतने सूत्रों को एक साथ एक कहानी में पिरोने के बावजूद ना कथारस कहीं भंग होता है और नया ही प्रवाह, ये लेखिका की कलम की विशेषता है | अगर राजनैतिक सूत्र पकड़े तो गंगा में कहीं इंदिरा गांधी नजर आती हैं तो कहीं गांधी जी | इंदिरा शब्द का प्रयोग तो लेखिका ने स्वयं ही किया है | द्रण निश्चयी, अटल, गंगा अपनी उम्र से पहले ही बड़ी हो गई है वो एक अन्य बच्ची टिन्नी के खिलाफ अपने पिता के कुत्सित इरादों को भांप पर उसे बचाती भी है और माँ को बचाने के लिए पिता पर वार करती है | मंदिर और मंदिर के आस -पास का वातवरण का जिक्र करते हुए प्रज्ञा जी कि गंगा धर्म की सही व्याख्या करती है जो अन्याय के खिलाफ अपनों से भी भिड़ जाने में है l गंगा के उत्तरोत्तर बढ़ते चरित्र को देख कर मुझे बरबस राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की पंक्तियाँ याद आती हैं .. अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। कहानी की कुछ पंक्तियाँ देर तक सोचने पर विवश करती हैं … ‘जब मानुस धर्म देखने वाली आँखें फूट जाएं तो रिश्ते की सीखचों में कैद होना ही अंतिम उपाय रहता है।’’ ‘‘ राम के नाम में इस त्रिशूल का क्या काम? ये तो बिल्कुल हथियार जैसा लगता है।’’ ‘‘ तो इस पाप की भागी अकेली मैं नहीं हूं। देख रही है न सामने उस आदमी को, मंगल के पैसे बटोरकर मंहगी शराब पिएगा और रात को माई को मारेगा। इस पापी के सामने मैं क्या हूं? भगवान सब जानते हैं।’’ कहानी में सकारात्मकता बनाए रखना प्रज्ञा जी कि विशेषता है | ऐसा नहीं है कि कहानी में सारे खल चरित्र और उनसे जूझती गंगा ही हो, सार्थक पुरुष पात्रों के साथ कहानी को एकतरफा हो जाने से रोकती हैं | जहाँ प्रभात है, जिसके प्रेम में धैर्य है, संरकांत जी हैं, जो किसी अबला को सहारा देने के लिए समाज यहाँ तक की अपने बेटों से भी भिड़ जाते हैं …. पर नैतिकता का दामन नहीं छोड़ते | सोनू और उसके जीवन में आने वाले सभी लोग सभ्य -सुसंस्कृत हैं l ये वो लोग हैं जिनकी वजह से हमारे घर, समाज, धर्म और राजनीति में बुराइयाँ थोड़ा थमती हैं | कहानी का अंत एक नई सुबह की आशा है …जो रात के संघर्ष के बाद आती है l अपने हिस्से की सुबह के लिए अपने हिस्से का यह संघर्ष हर स्त्री को करना होगा l चाहें इसके लिए जड़खोद ही क्यों ना बनना पड़े | फिर से एक बेहतरीन कहानी के लिए प्रज्ञा जी को बधाई वंदना बाजपेयी आपको “प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष” कहानी कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l  अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें l

जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका – दीपक शर्मा

जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका

लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को अलग-अलग खेमे में रखे जाने पर अब प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हो गए है ? और बीच का रास्ता निकालने की मांग जोर पकड़ने लगी है क्योंकि साहित्य का उद्देश्य अगर जन जीवन में रूढ़ियों को तोड़ एक तर्कपरक दृष्टि विकसित करना है तो उसका जन में पहुंचना बहुत आवश्यक है l परंतु लोकप्रिय साहित्य के दो जॉनर ऐसे हैं जो अपने तबके में अपनी बादशाहत  बनाए हुए हैं … ये हैं हॉरर और जासूसी उपन्यास l जासूसी उपन्यास की बात करें तो इसमें एक बात खास होती है, वो है हत्या l  हत्या मुख्यतः केन्द्रीय भूमिका में रहती है और क्या रहता है खास बता रहीं हैं वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी …. जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका मृत्यु एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई तत्त्वज्ञान, कोई पुराण-विद्या, कोई मिथक-शास्त्र, कोई विज्ञान पूर्ण रूप से समझ नहीं पाया। शायद इसी कारण यह चिरकाल से रूचि का विषय रहा है। अपराध-लेखन की महारानी मानी जाने वाली पी.डी. जेम्ज़ (1920-2014) स्वीकार करती थीं कि मृत्यु में उनकी रूचि बहुत छोटी उम्र ही से रही थी और जब उन्होंने बचपन में हम्पटी-डम्पटी वाला नर्सरी गीत सुना: हम्पटी-डम्पटी सैट औन अवौल, एन्ड हैड आ ग्रेट फौल। औल द किन्गज़ हौर्सिस एन्ड औल द किन्गज़ मेन कुडन्ट पुट हम्पटी टुगेदर अगेन। ( हम्पटी-डम्पटी एक दीवार पर बैठा था और दीवार से नीचे गिर गया। और राजा के घोड़े और राजा के दरबारी सभी उसे वापिस लाने में असफल रहे) तो तत्क्षण उन के दिमाग में प्रश्न कौंधा था: हम्पटी-डम्पटी गिरा था ? या उसे गिराया गया था ? जासूसी उपन्यासों की सब से बड़ी विशेषता व श्रेष्ठता यही है कि मृत्यु वहां हत्या के रूप में आती है और मृत्यु का बोध सरक कर हत्यारे की पहचान में आन निहित होता है। अच्छे-बुरे के प्रथागत विवेक के साथ शुरू हुआ व निर्णायक रूप से हत्यारे को दंड दिलाने पर खत्म हुआ प्रत्येक जासूसी उपन्यास एक ओर जहां पाठक की न्यायपरायणता को संतुष्ट करता है, वहीं दूसरी ओर हत्या की गुन्थी को नीर्ति-संगत निष्कर्ष के साथ परिणाम तक पहुंचा कर उसकी जिज्ञासा को भी शान्त करता है। युक्तियुक्त तर्क-अनुमिति के संग । विचारणा के साथ। जसूसी लेखक रेमण्ड शैण्डलर के अनुसार जासूसी उपन्यास ’आ टैªजिडी विद अ हैप्पी एन्डिग’ है। एक दुखान्त को सुखान्त में बदल देने वाली कृति है। उपन्यास में पहले हम किसी हत्या का सामना करते हैं और बाद में उस के साथ हो लेने के अपराध से स्वयं को मुक्त भी कर लेते हैं। मृत्यु की उपस्थिति से दूर जा कर। कुछ पक्षधर तो यह भी मानते हैं कि जासूसी कथा-साहित्य हमारे अवचेतन मन के अपराध-भाव व सम्भाव्य खटकों के भय को छितरा देने में हमारे काम आता है।  तीन संघटक लिए प्रत्येक जासूसी उपन्यास एक हत्या, उसकी छानबीन व उसका समाधान पाठक के सामने रखता है और प्रत्येक पृष्ठ पर एक ही प्रश्न-हत्यारा कौन-छोड़ता चला जाता है और उसका उत्तर अंतिम पृष्ठ पर जा कर ही देता है। सच पूछें तो पूरा किस्सा ही पाठक को ध्यान में रख कर गढ़ा जाता है। उसे रिझाने-बहलाने के लिए। बहकाने-खिझाने के लिए। आशंका व उल्लास के बीच दूबने-उतराने के लिए। धीमी गति से चल रही नीरस व घटनाविहीन उस की दिन-चर्य्या से उसे बाहर निकाल कर उसे कागज़ी ’हाय-स्पीड, थ्रिल राइड’ देने के लिए। आज़माने-जताने के लिए कि यदि वह लेखक के साथ हत्यारे को चिह्मित करने की होड़ में बंधने का प्रयास करते हुए अंत पर पहुंचने से पहले ही उस तक पहुंच जाता है तो भी हत्या का उत्प्रेरक व परिवाहक तो वह लेखक स्वयं ही रहेगा। क्योंकि वह जानता है पाठक मृत्यु जैसे रहस्य में गहरी रूचि रखता है और उपन्यास में रखी गयी मृत्यु तो हुई भी अस्वाभविक थी, अनैतिक थी, आकस्मिक थी, संदिग्ध थी तो ऐसे में जिज्ञासु पाठक उस के महाजाल में कैसे न खिंचा चला आएगा। लोकप्रिय जासूसी लेखक मिक्की स्पीलैन कहते भी हैं, किसी भी जासूसी पुस्तक का पहला पृष्ठ उस का अंतिम पृष्ठ उस लेखक की अगली लिखी जाने वाली पुस्तक को बिकवाता है। कथावस्तु सब की सर्वसामान्य है। पुर्वानुमानित है। सुख-बोध देने वाली है। सभी में प्रश्न भी एकल। उत्तर भी एकल। जासूस भी एकल। हत्यारा भी एकल। हां, मगर पात्र ज़रूर एक से अधिक हैं। ताकि हर दूसरे तीसरे पृष्ठ पर संदेह की सुई अपनी जगह बदलती रहे और हत्यारे की पहचान टलती चली जाए। और पाठक की उत्सुकता बढ़ती रहे। कहना न होगा सरल-स्वभावी पाठक सनसनीखेज़ इस घात में फिर जासूस के साथ हो लेता है क्योंकि वह भी जासूस की भांति हत्या के घटनाक्रम से बाहर ही रहा था तथा अब उसे भी हत्या के अनुक्रम व उदभावन का पता लगाने हेतु जासूस के साथ साथ समकालिक अपने समय के पार विगत पूर्व व्यापी पृष्ठभाग को बझाना है, पकड़ना है। समय से आगे भी बढ़ना है और पीछे भी जाना है। अचरज नहीं जो सार्वजनिक पुस्तकालयों में जासूसी उपन्यासों की मांग सवार्धिक रहा करती है। फुटपाथों से लेकर बड़े बाज़ारों, रेलवे प्लेटफार्म से ले कर पुस्तक मेलों तक इन की पहुंच व बिक्री उच्चतम सीमा छू लेती है। यह अकारण नहीं। इन उपन्यासों में न तो कोई भाव-प्रधान घटना ही रहती है और न ही कोई दर्शन अथवा चिन्तन।   भाषा भी इनकी प्रचलित व सपाट रहा करती है। घुमावदार अथवा तहदार नहीं। सारगर्मित नहीं। इन्हें पढ़ने के बाद पाठक को लगता है प्रश्न अपने उत्तर रखते हैं, दुष्ट पकड़े जाते हैं और दंडित होते हैं। कानून व व्यवस्था का भंग अल्पकालिक है। अन्ततः सुव्यवस्था का प्रभाव-क्षेत्र ही फलता-फूलता है। यहां यह जोड़ना अत्यावश्यक है कि हत्या की यह उपस्थिति जासूसी किस्सों को लोकप्रियता ही दिलाती है, उन्हें गंभीर साहित्य की श्रेणी में स्थान नहीं। चेखव का कहना था कि लेखक का काम प्रश्न पूछना है, उस का उत्तर देना नहीं। और गंभीर साहित्य में केवल वही प्रश्न नहीं पूछे जाते जिन के उत्तर हमारे पास रहते हैं। वही समस्याएँ नहीं उठायी जातीं जिन के हल हम दे सकें। समाधानातीत समस्याओं तथा अनिश्चित भविष्य से जूझ रहे पात्र गंभीर साहित्य प्रेमियों को अधिक भाते हैं क्योंकि वह पुस्तकों के पास केवल समय काटने नहीं जाते, वहां मनोरंजन ढूंढने नहीं जाते, वहां … Read more