अंधी मोहब्बत

अंधी मुहब्बत

“अंधी मोहब्बत” कहानी का शीर्षक ही अपने आप में किसी प्यार भरे अफ़साने की बात करता है l यूँ तो अंधी मुहब्बत उसे कहते हैं जब इंसान दिल के हाथों इतना मजबूर हो जाए कि दिमाग को ताक पर रख दे l परंतु ये कहानी शुरू होती है एक व्यक्ति की जिसके पति की तेराहवीं हुई है l लेकिन ये कहानी अतीत की ओर नहीं जाती, ये भविष्य की ओर चलती है l अशोक कुमार मतवाला जी व्यंगकार और कथाकार दोनों  के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं l और उनके इन्हीं दोनों रूपों को मिलाते हुए कहानी का अंत व्यंग्य का पुट लिए हुए है l जहाँ गंभीर पाठक चौंकता है और फिर एक बार व्यंग्य को समझ मुसकुराता है l   अंधी मोहब्बत  सुनीता डयोढी में पड़ी चारपाई पर औंधी पड़ी थी। सोकर जब उठी तो उसने चारपाई पर पड़े दर्पण में खुद को निहारा. उसे अपनी आँखें लाल सुर्ख और थकी – हारी सी लगी। कुछ पल यूँही वह दर्पण को पथराई दृष्टि से तकती रही। मेहरा साहिब का तेरहवां पिछले बुध को था! पति का साथ छूटने के बाद उसके सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. अचानक ऐसा हादसा होने की संभावना तक नहीं थी, उसे! अब क्या होगा, कैसे संभाल पाऊंगी सब कुछ अकेले, मैं? मेहरा साहिब थे तो सब कुछ खुद ही संभालते थे. अनगिनत सवाल सुनीता के दिमाग को उथल – पुथल कर रहे थे. बेवश, फफक पड़ी वह! सहसा, बेटे प्रतीक की आवाज उसके कानों में पड़ी, मम्मा, उठो, कुछ खाने को दे दो, प्लीज़. जोरों से भूख लगी है…और खुद तुम भी कुछ खा लो…मम्मा, तुम सुबह कह तो रही थी खाऊंगी, मगर पता नही अभी तक तुमने कुछ खाया भी है या नहीं? तुम भीतर चलो, मैं मुंह धोकर आती हूं! निशा को भी खाने के लिए बुलाले, बेटा, खाने का टाइम तो हो गया है, वह भी गर्म – गर्म खा लेगी! अच्छा, मम्मा!कहकर प्रतीक भीतर आ गया! खाने के बाद, सुनीता ड्राइंग रूम में आई और प्रतीक को टीवी बंद करने का इशारा कर कहने लगी, बेटा, सुन, तूं जिद्द मत कर, अब जब भी तेरा जर्मनी जाने का वीज़ा लगता है, तूं बिना देर किए निशा और अपने बच्चों को लेकर चल… मैं भी इधर कुछ कामों को निपटाकर आती हूं! मैंने कहा है न मम्मा, मैं तुम्हे यहां अकेला छोड़कर जर्मनी नहीं जाऊंगा! तूं पागल मत बन, बेटा, तूं इतना स्याना होता तो अभी से अपनी नौकरी छोड़ कर घर बैठ नही जाता और निशा की भी नौकरी ना छुड़वाता. अब जब तक तेरा वीज़ा नही लगता, क्या करेगा खाली घर बैठ कर? मम्मा, मेरी जर्मनी जाने की बारी तो आई पड़ी थी लेकिन किसी कारणों से जर्मनी सरकार ने  प्रवासियों के  कोटा  पर टेंपरेरी रोक लगा दी है! बेटा, तूने जर्मनी जाना है तो जा, मैने नही अब जाना, वहां! सुनीता अनमने से कहने लगी। “वह कयूं ?” “प्रतीक बेटा समझा कर, मैं और तेरे पापा अभी तो तुम्हारी बहिन सीमा के पास जर्मनी में चार महीने लगा कर आए हैं. बेटी सीमा की जगह अगर तुम वहां होते, बेटा, तो अलग बात थी लेकिन, बिटिया के घर में मेरा रहना ठीक नही। बेटा, सीमा के घर रहने वाली भी बात नहीं. सच कहूं तो जर्मनी में मेरा दिल नही लगा….वहां बहुत बर्फ और ठंड पड़ती है। बेटा, मेरे तो गोडे जुड़ जाते हैं…हाल ही में में जब वहां थी तो सीमा और तुम्हारे जीजा सोम तो अपने-अपने काम पर चले जाते थे और मैं या तो चूल्हे चौके में व्यस्त रहती या उनके बच्चों के सारा दिन डायपर बदलती! न बेटा न, मैं तो अपने घर ही अच्छी, यहां मेरा अपना घर है, घर में सब कुछ है…! जरूरत पड़ी तो काम के लिए मैं एक  को भी रख सकती हूं.” “मम्मा, सुनो…तुमने सीमा के पास थोड़ा ही रहना है…तुम्हें तो मेरे पास रहना है….” “तुमने तो वही बात की बेटा जैसे कहावत है – शहर बसा नहीं और लुटेरे पहले आ गए. तूं अभी जर्मनी पहुंचा नही, नौकरी तेरे पास नही, तेरे अपने रहने का जर्मनी में कोई अता पता नही…आया बड़ा मुझे अपने पास रखने वाला!” “इसीलिए तो कहता हूं, मम्मा, तुम साथ चलो. मैं और निशा काम करेंगे और तुम अंशु बेटे और बिटिया सरिता का घर पर खयाल रखना…बहुत जल्दी ही हमारे पास अपने रहने का इंतजाम भी हो जायेगा…” बेटे का जवाब सुनकर सुनीता खामोश रही! देखा, तुम्हारा स्वार्थ तुम्हारे मुख पर आ ही गया कि तुम मुझे अपने पास अपने बच्चों की आया बनाकर रखोगे. मन ही मन यह कहकर सुनीता सुबक पड़ी! मैं आऊंगी बेटा तेरे पास. तूं खुद तो जर्मनी पहले पहुंच! कहकर सुनीता अपने सोने के कमरे की और बढ़ गई. कमरे में प्रवेश करने के बाद भीतर से उसने दरवाजे की चिटखनी लगा दी और सिरहाने में अपना मुंह छिपाकर फूट-फूट कर रोने लगी थी! सहसा, पास रखा फोन बज उठा. अपने आंसू पोंछते हुए सुनीता ने फोन उठाया. आनंद का कनेडा से फोन था! दोनों की अलग अलग शादियां हुई मगर दोनों एक दूसरे से ऐसे बिछड़े थे जैसे दो दोस्त बचपन में किसी मेले में कही गुम हो गए हों. खैर, विधाता ने सुनीता और आनंद को मिलाने का एक और तरीका निकाला। फेसबुक के जरिए एक बार फिर दोनो आपस में मिल गए थे! सैकड़ों मील दूर होने पर भी दोनों एक अच्छे मित्र की तरह एक-दूसरे के नजदीक बने रहे! समय बदलता गया…दोनो अपने अपने कर्म करते और भुगतते हुए जिंदगी के अपने अपने सफर पर आगे बढ़ रहे थे! सुनीता आनंद को अपने पति मिस्टर मेहरा से अपनी शादी के पहले से जानती थी. मां -बाप के स्तर पर एक गलतफहमी की वजह से दोनों की मंगनी होकर टूट गई थी! दोनों की राहें जुदा हो गई थीं। सुनीता को आज आनंद के फोन का भी इंतजार था! उन्होंने पहले से बात करने का समय तय कर रखा था! काफी देर तक दोनों बातचीत करते रहे थे! दुनियादारी के डर और घर में व्यस्क बच्चों की शर्म ने जैसे सुनीता की खवाइशों का गला घोट दिया हो. उसकी रूह तक कांप उठी थी। “नही, आनंद मुझसे अब यह … Read more

एनी एर्नाक्स (साहित्य नोबल विजेता 2022)ने खोले हैं अपनी जिंदगी के पन्ने

नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी लेखिका एनी एर्नाक्स ने खोले हैं अपनी जिंदगी के पन्ने

इस साल का साहित्य का नोबेल पुरस्कार फ्रांसीसी लेखिका एनी एर्नाक्स को मिलते ही साहित्य प्रेमियों में खुशी की लहर दौड़ गई l खासकर महिलाओं ने इसे एक स्त्री के गुमनाम संघर्षों को सार्वजनिक कर देने के साहस की की विजय माना l कितनी कलमों को उन्होंने खुद का दर्द कह देने की प्रेरणा दी है l क्योंकि उन्होंने वो लिखा है जिसमें तुरंत लेखों और पाठकों की दुनिया में हाहाकार मच जाने वाले तत्व नहीं है l उन्होंने बस देहरी के अंदर होने वाली अनकही कहानियों का रेशा-रेशा खोल दिया है l आम ही बहुत खास बन गया है l नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी लेखिका एनी एर्नाक्स ने खोले हैं अपनी जिंदगी के पन्ने   82 वर्षीय एर्नाक्स सारा लेखन बहुत आसान भाषा में गंभीर मुद्दों पर अपनी बात रखता है l उनके लेखन में केवल साहस ही नहीं संवेदना की महीन बुनावट है l उन्होंने हर वर्ग और तबके को अपने लेखन में समेटा है। हालंकी उनके लेखन के मुख्य विषय रहे है अवांछित गर्भ, गर्भपात, उनके कई सारे लव अफेयर्स, खराब शादी, उनके परिवार से उनके संबंधों खासकर पिता से संबंधों पर कलम चलाई है l बचपन में गाँव में पालने और बड़े होने के कारण उनके लेखन में सहज रूप से गाँव आया है l   एनी एरनॉक्स ने अपने लेखन की शुरुआत 1974 में एक आत्मकथात्मक उपन्यास लेस आर्मोइरेस वाइड्स (Les Armoires vides) यानी क्लीन्ड आउट (Cleaned Out) से की थी. 1984 में उन्होंने अपनी एक अन्य रचना ला प्लेस (ए मैन्स प्लेस) के लिए रेनाडॉट पुरस्कार (Renaudot Prize) जीता था l उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकों का कथानक इस प्रकार है…     क्लीन्ड आउट (1974) एनी द्वारा लिखी गई ये पहली किताब है, जो उनके खुद के जीवन अनुभवों पर आधारित है l उनकी प्रेग्नेंसी, इलीगल अबॉर्शन, उनके बचपन की यादें जो भी उन्होंने जीवन में फैसले लिए वो  इसकी कथा वस्तु में शामिल है l   शेम (1997) शेम बारह वर्षीय लड़की की जांच कहानी बताती है जो एक लेखक बनती है l क्योंकि एक दर्दनाक स्मृति जो उसके पूरे जीवन में गूंजती रहती है। कहीं ना कहीं ये उससे छुटकारा पाना है l एनी अर्नॉक्स अनुभव को एक शक्तिशाली बिम्ब के रूप में इस्तेमाल करती हैं l वो हिंसक स्मृतियों के खौफ को भावनात्मक रूप से दर्ज करती हैं l   हैपनिंग (2000)   हैपनिंग एनी कि खुद की कहानी है l ये 1963 की 23 साल की ऐसी लड़की की कहानी है जो अविवाहित है पर उसे गर्भ ठहर जाता है l ये बच्चा समाज के हिसाब से उसके व उसके परिवार के लिए बहुत  शर्म की बात है l इससे उनकी सामाजिक स्थिति पर बट्टा लग सकता है l इस किताब पर बाद में एक फिल्म भी बनी थी l   गेटिंग लॉस्ट (2001) गेटिंग लॉस्ट वह डायरी है जिसे एनी अर्नॉक्स ने डेढ़ साल के दौरान रखा था, उसका एक छोटे, विवाहित व्यक्ति के साथ गुप्त प्रेम संबंध था, जो पेरिस में सोवियत दूतावास से संबंधित था। यह प्यार, चाहत और निराशा की चपेट में आई एक महिला का दर्दनाक दस्तावेज है।   द इयर्स (2008) यह पुस्तक फ्रांस के बाहर के कई पाठकों के लिए अर्नॉक्स का एक लेखक के रूप में पहचान दिलाने वाला महत्वपूर्ण काम था, जिसे अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए चुना गया था। आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया ये उपन्यास युद्ध के बाद के फ्रांस के एक पीढ़ीगत संस्मरण के रूप में है l   एक लड़की की कहानी (2016) इस पुस्तक में, अर्नॉक्स एक पचास वर्षीय जेवण को खोलती हैं, ये एक लड़की की पहली दर्दनाक यौन संबंधों और उसके जीवन पर उसके स्थायी प्रभाव के बारे में है। एर्नॉक्स अपने 18 वर्षीय स्व को देखती है, जो एक वृद्ध व्यक्ति के साथ ऐसे मुठभेड़ से बिखर गई थी  और मानती  है कि उस घटना ने एक लेखक और एक महिला के रूप में उसकी पहचान कैसे बनाई। वह इसे इस तरह कहती है: “मेरे पास शर्म का बड़ा स्मृति कोश है, जो किसी भी अन्य की तुलना में अधिक विस्तृत और अडिग है और लेखक को मिला दर्दभरा एक उपहार है जो उसकी कलम की स्याही बँटा है l यह  वाकई शर्म की बात है।” लेखन है चाकू की तरह और चलते चलते बता दें कि नोबेल पुरस्कार 2022 की विजेता एनी एरनॉक्स का कहना है कि लेखन एक राजनीतिक कार्य है, जो सामाजिक असमानता के लिए हमारी आंखें खोलता है. उन्होंने कहा कि जागरुकता के लिए के लिए वह भाषा का प्रयोग “चाकू” के रूप में करती हैं l   आपको लेख ” एनी एर्नाक्स ने खोले हैं अपनी जिंदगी के पन्ने ” लेख कैसा लगा ? अगर आप को अटूट बंधन के लेख पसंद आते हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें l  

पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं-पिता पर महेश कुमार केशरी की 9 कविताएँ

पिता पुराने दरख्त होते हैं

अगर माँ धरती है तो  पिता आसमान, माँ घर है की नीव है तो पिता उसकी छत, माँ धड़कन है तो पिता साँसे l माता और पिता से ही हर जीव हर संतान आकार लेता है और आकार लेती हैं भावनाएँ l ऐसे में माँ के लिए व्यक्त उद्गारों में पिता कैसे अछूते रह सकते हैं l अटूट बंधन में पढिए महेश कुमार केशरी जी की  पिता पर लिखी ऐसी ही भावप्रवण 9 कविताएँ … पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं-पिता पर महेश कुमार केशरी की 9 कविताएँ   पिता दु:ख को समझते थें ! “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” पिता गाँव जाते तो पुराने समय में घोड़ेगाड़ी का चलन था l स्टेशन के बाहर प्राय: मैं इक्के वाले और उसके साथ खड़े घोड़े को देखता लोग इक्के से स्टेशन से अपने गाँव तक आते -जाते थें इन घोड़ों की आँखें किचियाई होतीं घोड़वान के चेहरे पर हवाईयाँ उड़तीं पिताजी के अलावे अन्य सवारियों को देखकर ही इक्के वाले की आँखें खुशी से चमकने लगती l घोड़े को लगता कि आज उसे खूब हरी घास खाने को मिलेगी l इक्के वाला हफ्तों से उपवास चूल्हे में आग जलती देखता उसकी आँखों में नूमायाँ हो जाती रोटी और तरकारी जरूर उसने आज किसी भले आदमी का चेहरा देखा होगा तभी तो दिख रहीं हैं सवारियाँ पिता साधारण इंसान थें मरियल घोड़े पर सवार होना उन्हें , यातना सा लगता लगता उन्हें सश्रम कारावास की सजा मिल रही है वो , परिवार के सारे लोगों को इक्के पर बैठने को कहते लेकिन , वो खुद घोड़े के बगल से पैदल – पैदल ही चलते माँ , बार -बार खिजती कि कैसा भोंभड़ है मेरा बाप लेकिन , पिता घोड़े के दु:ख को समझते थें तभी तो समझते थे , वो रिक्शेवाले के दु:ख को भी परिवार के सारे लोग रिक्शे पर चढ़ते लेकिन पिता पैदल ही रिक्शे के साथ चलते .. चाहे दूरी जितनी लंबी हो कभी – कभी दु:ख को समझने के लिये घोड़ा या इक्के वाला नहीं होना पड़ता बस हमें नजरों को थोड़ा सीधा करने की जरूरत होती है l लोगों का दु:ख हमारे साथ – साथ चल रहा होता है l ठीक हमारी परछाई की तरह ही लोगों का भोंभड़ या मूर्ख संबोधन पिता को कभी विचलित नहीं कर सका था l वो जानते थें कि मूर्ख होने का अर्थ अगर संवेदन हीन होना नहीं है तो , वो मूर्ख ही ठीक हैं मूर्ख आदमी कहाँ जानता है दुनिया के दाँव पेंच ! इससे पिता को कोई फर्क नहीं पड़ता था लोग पिता के बारे में तरह – तरह की बातें करते कहतें पिता सनकी हैं लेकिन , मैं हमेशा यही सोचता हूँ कि पिता , घोड़े और रिक्शेवाले का दु:ख समझते थें l मुझे ये भी लगता है कि हर आदमी को जानवर और आदमी के दु:खों को पढ़ लेना चाहिये या कि समझ लेना चाहिये जो इस दुनिया में सबसे ज्यादा दु:खी हैं l पिता समझते थे या सोचते थें घोड़े की हरी घास की उपलब्धता के बारे में इक्के वाले के बिना धु़ँआये चूल्हे के बारे में हमें भी समझना चाहिये सबके दु:खों को ताकि हम बेहतर इंसान बन सकें l “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (2)कविता-परिणत होते पिता ‘”””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” जीवण की तरूणाई वाली सुबह पिता हट्टे- कठ्ठे थे। गबरू और जवान उनकी एक डाँट पर हम कोनों में दुबक जाते उनका रौब कुछ ऐसा होता जैसे तूफान के बाद का सन्नाटा दादा जी और पिताजी की शक्ल आपस में बहुत मिलती थी l जहाँ दादाजी , सौम्य , मृदु भाषी थें वहीं..पिता , कठोर .. कुछ , समय बाद दादाजी नहीं रहे .. अब , पिता संभालने लगे घर जो , पिता बहुत धीरे से हँसते देखकर भी हमें डपट देते थे वही पिता , अब हमारी , हँसी और शैतानियों को नजर अंदाज करने लगे धीरे – धीरे पिता कृशकाय होने लगे वो ,नाना प्रकार के व्याधियों से ग्रसित हो गये… बहुत , दुबले -पतले और कमजोर पिता कुछ- ज्यादा ही खाँसनें लगे बहुत- बाद में हमेशा हँसते- मुस्कुराते रहनेवाले पिता और घर के सारे फैसले अकेले लेने वाले पिता अब खामोश रहने लगे वे अलग -थलग से अपने कमरे में पड़े रहते उन्होंने अब निर्णय लेने बंद कर दिये थे… अपनी अंतिम अवस्था से कुछ पहले जैसे दादा जी को देखता था ठीक , वैसे ही एक दिन पिताजी को मोटर साइकिल पर कहीं बाहर जाते हुए पीछे से देखा हड्डियों का ढ़ाँचा निकला हुआ आँखों पर मोटे लेंस का चश्मा मुझे पता नहीं क्यों ऐसा ..लगा दादाजी के फ्रेम में जड़ी तस्वीर में धीरे – धीरे परिणत होने लगें हैं..पिता .. “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (3) तहरीर में पिता.. “””””””””””””””””‘””””””‘””””””””””””””””””””””””””””””” ये कैसे लोग हैं ..? जो एक दूधमुँही नवजात बच्ची के मौत को नाटक कह रहें हैं… वो, तहरीर में ये लिखने को कह रहे हैं कि मौत की तफसील बयानी क्या थी…? पिता, तहरीर में क्या लिखतें… ? अपनी अबोध बच्ची की , किलकारियों की आवाजें… या… नवजात बच्ची… ने जब पहली बार… अपने पिता को देखा होगा मुस्कुराकर… या, जन्म के बाद जब, अस्पताल से बेटी को लाकर उन्होंने बहुत संभालकर रखा होगा… पालने.. में… और झूलाते… हुए… पालना… उन्होंने बुन रखा होगा… उस नवजात को लेकर कोई…. सपना.. वो तहरीर में उन खिलौनों के बाबत क्या लिखते..? जिसे उन्होंने.. बड़े ही शौक से खरीदकर लाया था.. वो तहरीर में क्या लिखतें…. ? कि जब, उस नवजात ने दम तोड़ दिया था बावजूद… इसके वो अपनी नवजात बेटी में भरते रहे थें , साँसें… ! मैं, सोचकर भी काँप जाता हूँ कि कैसे, अपने को भ्रम में रखकर एक बाप लगातार मुँह से भरता रहा होगा अपनी बेटी में साँसें…! किसी नवजात बेटी का मरना अगर नाटक है… तो, फिर, आखिर एक बाप अपनी तहरीर में बेटी की मौत के बाद क्या लिखता…? “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (4)कविता..किसान पिता.. “”””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” पिता, किसान थे वे फसल, को ही ओढ़ते और, बिछाते थे.. बहुत कम पढ़े- लिखे थे पिता, लेकिन गणित में बहुत ही निपुण हो चले थे या, यों कह लें कि कर्ज ने पिता को गणित में निपुण बना दिया था… वे रबी की बुआई में, टीन बनना चाहते घर, के छप्पर के लिए.. या फिर, कभी तंबू या , तिरपाल, … Read more

कितने गांधी- महात्मा गांधी को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करता नाटक 

कितने गांधी

व्यक्ति अपने विचारों के सिवा कुछ नहीं है. वह जो सोचता है, वह बन जाता है. महात्मा गांधी इस वर्ष जबकि आजादी का अमृत महोत्सव मनाया गया है, तमाम लेखक और साहित्यकार ढूंढ-ढूंढ कर हमें स्वतंत्रता दिलाने वाले उन शहीदों पर लिख रहें हैं जिन के नाम या गुमनाम रह गए या हमने कृतघ्न वंशज की तरह उन्हें भुला दिया | ऐसे समय में जब वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार चिकित्सक अजय शर्मा जी की का नाटक “कितने गांधी“ मेरी नज़रों के सामने से गुजरा तो नाम पढ़ते ही मन में पहला प्रश्न यही आया कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी, हमारे प्रिय बापू के योगदान को कौन नहीं जानता | गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों की जगह लेखक ने इन्हें क्यों चुना ? परंतु जैसे-जैसे किताब के पन्ने पलटती गई तो पाया कि लेखक ने गाँधी जी के प्रति नई दृष्टि और दृष्टिकोण को पुस्तक में समाहित किया है | विचार कभी ऐकांगी नहीं होते | वो हर दिशा में उठते हैं | प्रश्नों की तलवार और उत्तरों की ढाल के साथ सिद्ध हो जाने तक अपनी यात्रा करते है | व्यक्ति की हत्या हो सकती है, विचारों की नहीं | परंतु क्या ये प्रश्न नहीं उठता है कि किसी एक विचार का महिमामंडन किसी दूसरे विचार की अपरोक्ष रूप से हत्या होती है ? शायद इसीलिए आज कल इतिहास को नए दृष्टिकोण से लिखा जा रहा है | सवाल ये भी उठता है कि ये नया दृष्टिकोण क्या होता है ? बहुत सारी महिला कथाकार स्त्री दृष्टिकोण से इतिहास को खंगाल रही है, तो चुन-चुन कर उनके साथ पुरुष लेखकों द्वारा किये गए अन्याय की गाथाएँ सामने आ रही हैं | कितनी सशक्त स्त्रियाँ केवल भावों के मोती बहाती अबलाएँ नजर आती हैं | तो क्या ये पुरुष विरोध है? नहीं ! ये न्याय है उन चरित्रों के साथ जिन् के साथ पितृसत्तात्मक समाज और उससे पोषित लेखकों ने न्याय नहीं किया | कितने गांधी- महात्मा गांधी को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करता नाटक  इन पर सवाल उठाने से पहले सवाल ये भी है कि निष्पक्ष तो उन्होंने भी नहीं लिखा, जिन्होंने पहले लिखा था | अभिव्यक्ति की आजादी कलम को वर्जनाओं में बांधने के विरुद्ध यही | समझना ये भी होगा कि इतिहास लिखने में क्या कोई ऐसा नियम है कि हमें इतना ही पीछे जाना चाहिए ….क्या पचास साल पीछे नहीं जाया जा सकता, साथ साल, सत्तर साल ….क्या समय घड़ी प्रतिबंधित है? शायद नहीं | क्योंकि जब हम कहते हैं कि सूरज डूब रहा है तो कहीं ना कहीं ये भी सत्य होता है कि वो कहीं उग रहा होता है | और सूरज डूबता ही नहीं है ये जानने के लिए ये दोनों पक्ष जानना जरूरी होता है | इस किताब को पढ़ने के बाद कुछ ऐसा ही महसूस हुआ | “ये विश्व एक रंगमंच है, और सभी स्त्री-पुरुष सिर्फ पात्र हैं, उनका प्रवेश और प्रस्थान होता है, और एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में कई किरदार निभाता है”…विलियम शेक्सपियर इस किताब को पढ़ते हुए शेक्सपीयर का ये कथन बार-बार मेरे दिमाग में आता रहा | हर व्यक्ति कितने सारे किरदारों को निभाता है| एक अच्छा बेटा बुरा पति हो सकता है या ये भी बुरा भाई अच्छा दोस्त हो सकता है | पर किसी किरदार का महिमा मंडन करते हुए या उसके प्रति नकारात्मकता रखते हुए हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है | हम उस किरदार के अन्य पहलूओं पर बात नहीं करते | इस नाटक में अजय शर्मा जी गांधी जी के व्यक्तित्व को तीन भागों में बाँट कर देखते हैं | उनका सामाजिक व्यक्तित्व, राजनैतिक व्यक्तित्व और नैतिकता की परिभाषा में स्वयं को सिद्ध करने वाला हठीला व्यक्तिव | महात्मा गांधी जी के सामाजिक व्यक्तित्व की लेखक द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है | महात्मा नाम भी उनके साथ इसीलिए जुड़ा क्योंकि उन्होंने गरीबों, वंचितों, असहायों में सदा परमात्मा को देखा | उनके हित के लिए समाज में महती भूमिका निभाई | अहिंसा और सत्य जिनके जीवन का अवलंबन था, ये नाटक जाति-पात के भेदभाव मिटाने की उनकी कोशिशों की सराहना करता है | अलबत्ता नैतिकता के दृष्टिकोण से वो स्वयं को सिद्ध करने की धुन में हठी साबित होते हैं | अपने ब्रह्मचर्य को साबित करने के लिए वो मासूम बच्चियों के मन में जीवन पर्यंत रह जाने वाले मानसिक ट्रॉमा की परवाह भी नहीं करते का भी मुद्दा उठाया गया है | कुछ अन्य मुद्दे नैतिकता की परिभाषा के उठाते हुए मुख्य रूप से नाटक गांधी जी के राजनैतिक व्यक्तित्व पर बात करता है | लेखक के अनुसार राजनैतिक व्यक्ति के रूप में गांधी जी उस समय की लोकप्रिय पार्टी का प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे | जो गरम दल और नरम दल में बँटी थी | स्वतंत्रता में दोनों ही दलों की भूमिका थी परंतु एक विचार को आगे बढ़ाने के लिए दूसरे को दबाना जरूरी था | लेखक राजनैतिक उठापटक के उसी आधार पर मूल्यांकन करते हुए अपनी बात रखते हैं | ये राजनीति ही है जिसने बहुत खूबसूरत शब्द सेकुलरिज्म को भी सिलेक्टिव चुप्पियों और सेलेक्टिव विरोध के पिंजरे में कैद कर दिया | फिर निष्पक्ष कौन है ? आम जन मानस का ये सवाल नाटक में लेखक ने बार-बार उठाया है | अब प्रश्न ये उठता है | महात्मा गांधी हमारे राष्ट्र पिता है, क्या उनको किसी नए दृष्टिकोण से देखा जा सकता है ? उत्तर “नहीं” भी हो सकता है और ये भी हो सकता है आज नेहरू पर बात होती है सिकंदर पर बात होती है राम और कृष्ण पर बात होती है | पुराण के हर पात्र को नए दृष्टिकोण से देखा जा रहा है | तो महात्मा गांधी को क्यों नहीं ?लेखक ने कई जगह प्रश्न उठाया है कि इतिहास हमेशा जीतने वाले के पक्ष में लिखा जाता है | जो सिकंदर को विश्व विजेता कहता है और अंग्रेजों को तानाशाह | जब भी किसी प्रसिद्ध व्यक्ति, राजा या नेता या साहित्यकार का हम उसके जीवल काल में मूल्यांकन करते हैं तो निष्पक्ष नहीं रह जाते | उसका प्रभा मण्डल निष्पक्ष होने नहीं देता | किसी का असली मूल्यांकन उसके बाद ही होता है जब उसके प्रभा मण्डल के प्रभाव … Read more

महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया ?

अब रोती नहीं कानुप्रिया

  असली जिंदगी में अक्सर दो सहेलियों की एक कहानी विवाह के बाद दो अलग दिशाओं में चल पड़ती हैl पर कभी-कभी ये कहानी पिछली जिंदगी में अटक जाती है l जैसे रामोना और लावण्या की कहानी l कहानी एक सहेली के अपराध बोध और दूसरी के माध्यम से एक धोखा खाई स्त्री के चरित्र को उसके स्वभावगत परिवर्तन को क्या खूब उकेरा है । “अब रोती नहीं कनुप्रिया”  कहानी पाठक को रुलाती है। प्रेम पर भावनाओं पर लिखे  कई वाक्य किसी हार की तरह गुथे हुए बहुत प्रभवशाली व कोट करने लायक हैं । तो आइए पढ़ें महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया    पंद्रह साल बहुत ज्यादा होते हैं। लावण्या मेरी बचपन की साथिन। उसे कितने सालों से ढूढ़ती रही हूँ। कहाँ है ?कैसी है? उसकी जिंदगी में क्या चल रहा है। कितने सवाल हैं मेरे ज़हन में। । फेसबुक प्रोफाइल बनने के पहले दिन से ले कर आज तक उसे अलग-अलग सरनेम के साथ कितनी बार ढ़ूढ़ चुकी हूँ।   मॉल में एस्केलेटर से नीचे उतरता सायास मुझे वह पहचाना चेहरा दिखा।जिसकी तलाश में मेरी आँखे रहती हैं। हॉल में उस भरी देहवाली स्त्री को देखते ही मैं चहकी। मैंने अपने आपसे कहा- हाँ- हाँ वही है मेरी बचपन की सहेली लावण्या।मैंने एस्केलेटर पर से  ही आवाज लगाई लावण्या आ आ…….। वह  सुंदर गोलाकार चेहरा आगे ही बढ़ता जा रहा था। मेरा मन आशंकित हो उठा कहीं वह भीड़ में गुम न हो जाये।   इसबार  मैंने जोर से आवाज लगाई लावण्या..आ आ…   कई चेहरे एकसाथ मुड़ कर मुझे देखने लगे।मैंने किसी की परवाह नहीं की। बस लावण्या गुम न हो जाये।इसलिए आशंकित हो रही थी।   लावण्या ने मुड़ कर देख लिया। उसकी आँखों में भी पहचान की खुशी झलक उठी थी।मेरा दिल जोरो से धक -धक कर रहा है।मेरी अभिन्न सखी लावण्या। उसकी चिरपरिचित मुस्कान ने मुझे आशवस्त कर दिया।   हाँ वही है। मैं किसी अजनबी का पीछा नहीं कर रही थी। मेरा अनुमान सही निकला। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा है।आखिर मैंने उसे ढ़ूढ निकाला।   आज मेरी आँखों के सामने वह साक्षात खड़ी है।वही हँसता -मुस्कुराता चेहरा।चंचल आँखों में थोड़ी स्थिरता आ गई है। कोमल सुडौल शरीर में चर्बी यहाँ-वहाँ झांकने लगी है।पर वही है। मेरी प्यारी सखी लवण्या  ।   मैं तेजी से सामने आकर लगभग उसे अपने अंक में भिंच ही लिया।कुछ देर के लिए भूल गई कि मॉल के अंदर भीड़-भाड़ के बीच में हूँ। मैं भावूक हुई जा रही हूँ।   “कहाँ थी यार? कितना तुम्हें याद किया। कितना तुम्हें ढ़ूढ़ा।अब भी तू वैसी ही सुंदर है। बस थोड़ी मोटी हो गई है।क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आई। तू तो लगता है भुल ही गई थी मुझे।देख मैं तो तुझे देखते ही पहचान लिया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।“   लावण्या हल्की स्मित लिए खड़ी रही। वह मेरी हर सवाल पर एक मुस्कान दे रही है।लोग आते-जाते हमें देख रहे हैं।लोगो का क्या है। कुछ देर गिले शिकवे कहने के बाद मैं थोड़ी शांत हो गई।मैंने महसूस किया लावण्या मुझे देखकर उतनी भावूक नहीं हुई।जितनी मैं उसके लिए अभी महसूस कर रही हूँ। या फिर सार्वजनिक स्थान होने के कारण उसने अपनी भावूकता को दबा लिया।आखिरकार एक अभिनेत्री जो ठहरी।   मुझे कुछ सोचता देख उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया। मुझे थोड़ा सुकून मिला। चलो एकतरफा लगाव तो नहीं रह गया।   फिर  लावण्या ने अपने साथ खड़े  पुरुष से परिचय करवाया।   “रमोना! ये मेरे मेरे पति विनीत ।   विनीत ये मेरी सहेली  है। हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक साथ थे।“   फिर से मुझे उसकी आवाज में एक ठंढेपन की तासिर नजर आई। मैंने अपने दिमाग को झटक कर। आँखे पूरी खोल दी।   विनीत। मैंने मन में इस नाम को दोहराया।वे एक मध्यम कद, मध्यम आयु के मोटे थोड़े थुलथुल से व्यक्ति हैं। पहली नजर में वे लावण्या से उन्नीस क्या सत्तरह ही नजर आये।फैब इंडिया का कुर्ता-पायजामा । गले में सोने का चेन और ऊंगलियों में हीरे और माणिक जड़ी अँगुठियाँ।एक हाथ में महँगा लैटेस्ट आई फोन।बायें हाथ की कलाई में रैडो की घड़ी। अमीरी की एक विशेष चमक उनके बॉडी लैंगवेज में झलक रही है।   “नमस्ते।“ “नमस्ते। आईये कभी हमारे गरीबखाने पर।“ विनीत ने अपनी अँगुठियों भरे दोनों हथेलियों को जोड़कर कहा। “आप दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। और एक ही शहर में । कमाल का इत्तिफाक है।ऐसी मुलाकात तो नसीबवालों की ही होती है।“ जी । मेरी आँखों में हजारों प्रश्न चिन्ह एक साथ कौंध गए।लावण्या समझ गई।उसने अपना मोबाइल नम्बर दिया।साथ में अपने घर आने का आमंत्रण भी।   मेरी बेचैनी अपने चरम पर है ।मैं घर पहुँच अपने सारे काम निपटा कर लावण्या से बात करना चाहती हूँ। पंद्रह वर्षों की सारी बातें एक दिन में ही कर लेना चाहती हूँ। अपने मन में घुमड़ते प्रश्नों का हल भी चाहती थी। मन बार-बार अतीत में लौट रहा था ।लावण्या से पहले मेरी शादी हो गई थी ।मेरी शादी के बाद  पापा का भी ट्रांसफर हो गया। जिसके कारण मेरा  उस शहर उससे जुड़े लोग भी छूट गये । शादी के बाद  लड़कियों की जिंदगी ही बदल जाती है।यहाँ तो मेरा  मायका का शहर भी बदल गया था। घर –गृहस्थी में ऐसी उलझी की सहेलियों की याद आती मगर उनसे जुड़ने का माध्यम न मिलता। आज पता चला हमदोंनो सहेलियाँ तो कई वर्षों से एक ही शहर में रह रही हैं । 2   लावण्या का मतलब जिंदगी लाइव।जिंदगी के हर रंग उसके व्यक्तिव में समाया था।वह हर वक्त किसी न किसी रंग में रमी रहती।लवण्या का मतलब लाइफ फुल ऑफ पार्टी। स्कूल-कॉलेज का हर फंक्शन उसके बिना फीका लगता।खेल , नृत्य, नाटक, पाक-कला , सिलाई-बुनाई, बागबानी, साहित्य-इतिहास, बॉटनी जुआल्जी सभी में बराबर दखल रखती।वह हर काम में आगे रहती। किसी से न डरती और हमें भी मोटीवेट करती रहती।उसका दिमाग और पैर कभी शांत नहीं रहते।हमेशा कुछ न कुछ योजना बनाते रहती। फिर उसे पूरा करने में जुट जाती। हमें भी ना ना कहते शामिल कर ही लेती।   लावण्या  हमारी  नायिका जो थी।जिस बात को करने के लिए हम लाख बार सोचते, डरते। वह बेझिझक कर आती।हो भी क्यों … Read more

मनोहर सूक्तियाँ -जीवन को बदलने वाले विचरों का संग्रह

मनोहर सूक्तियाँ

क्या एक विचार जिंदगी बदल सकता है ? मेरे अनुसार “हाँ” वो एक विचार ही रहा होगा जिसने रेलवे स्टेशन पर गाँधी जी को अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत दी .. और मोहन दास करमचंद महात्मा गाँधी बन गए | Willie Jolley अपनी किताब It Only Takes a Minute to Change Your Life में कहते हैं .. वो विचार ही होता है जब हम कोई ऐसा निर्णय लेते हैं जो हमारी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट होता है | अगर निजी तौर पर बात कहूँ तो एक लोकोक्ति के रूप में मेरे नाना जी ने मन की गीली मिट्टी पर एक विचार रोप दिया था “चटोरी खोए एक घर बतोडी खोए चार घर ” अर्थात जिसे अच्छे अच्छे खाने का शौक होता है वो अपने घर के ही पैसे बर्बाद करता है | लेकिन जिसे फालतू बात करने का शौक होता है वो अपने साथ चार लोगों का समय बर्बाद करता है | कयोकि बात करने के लिए चार लोग चाहिए | यहाँ समय की तुलना सीधे -सीधे धन से की गई है | इस बात को समझ कर मैंने हमेशा समय को बर्बाद होने से बचाने की कोशिश की | निश्चित तौर पर आप लोगों के पास भी ऐसे किस्से होंगे जहाँ एक विचार आपके जीवन का उसूल बन गया | ऐसी ही एक किताब “हीरो वाधवानी ” जी की उपहार स्वरूप मेरे घर में आई | 246 पेज की इस किताब में 180 पेज में सूक्तियाँ या जीवन संबंधी विचार हैं ,जो हमें प्रेरणा देते हैं या सोचने पर विवश करते हैं | बाकी पेज में समीक्षात्मक लेख हैं | कुछ सूक्तियाँ साझा कर रहीं हूँ .. ईश्वर ने हमें एक मुँह और दो हाथ -पैर इसलिए दिए हैं ताकि हम कहें कम करें अधिक | क्रोध और अहंकार करने वाले बाहर से भले द्रण लगें अंदर से कमजोर होते हैं | मित्रता तोड़ना आईने तोड़ने जैसा है | तेज आँधी नहीं घर का क्लेश नींव को हिला देता है | ईश्वर ने सबसे अधिक हड्डियाँ इंसान के पैरों में रखीं हैं ताकि वो अपने पाँव से चले दूसरे के कंधे पर सवार ना हो | ईर्ष्यालू अंधा होता है क्योंकि वो जिससे ईर्ष्या करता है उसके परिश्रम व प्रयत्नों को नहीं देखता | ऐसी बहुत सारी जीवन उपयोगी सूक्तियाँ हैं जिन्हे एक झटके में न पढ़ कर रोज एक पेज पढ़ कर मनन करने से जीवन में अवश्य परिवर्तन आएगा | एक अच्छी व अलग किताब के लिए “हीरो वधवानी जी को बधाई व शुभकामनाएँ | समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ गांधारी – आँखों की पट्टी खोलती एक बेहतरीन किताब मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”  आपको मनोहर सूक्तियाँ -जीवन को बदलने वाले विचरों का संग्रह कैसा लगा l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें l

प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव

प्रज्ञा की कहानी पटरी की समीक्षा

कुछ कहानियाँ अपने कलेवर में इतनी बड़ी होती हैं जिन पर विस्तार से चर्चा होना जरूरी हो जाता है l कई बार कहानी संग्रह की समीक्षा में उनके साथ न्याय  नहीं हो पाता इसलिए किसी एक कहानी की विस्तार से चर्चा हेतु अटूट बंधन में समय समय पर कहानी समीक्षा का प्रकाशन होता रहा है l इसी कड़ी में आज सुपरिचित साहित्यकार प्रज्ञा जी की कहानी पटरी पर बात करेंगे l ये कहानी बाल मनोविज्ञान को साधते हुए अपने कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान को बनाए रखने का आदर्श प्रस्तुत करती है l प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव   “कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता” “हर काम को बराबर की नजर से देखना चाहिए” अपना स्वाभिमान बेचने या किसी के आगे हाथ फैलाने से बेहतर है अपना काम करना” काम को ले कर कहे गए कितने सूत्र वाक्यों के दिमाग में कौंधने  के दौरान ये प्रश्न भी बराबर दिमाग में चलता रहा कि क्या वाकई ऐसा होता है ? समाज ऐसा सोचने देता है ? क्या समाज उस दोषी के कटघरे में नहीं खड़ा है जहाँ हम लोगों को उनके काम के आधार पर उनकी औकात जैसे शब्दों से नवाजते हैं l इससे किसी के मनोविज्ञान पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ? खासकर बाल मनोविज्ञान पर l इस सारे चिंतन का कारण था  प्रज्ञा जी किस्सा पत्रिका में प्रकाशित कहानी “पटरी l   अभी हाल में अटूट बंधन में प्रकाशित दीपक शर्मा जी की कहानी सिर माथे भी  …तथाकथित औकात के तिलिस्म में फंसे दांव पेंच में उलझे मन के जुगाड़ू  प्रयोजन और मासूम मन की कुलबुलाहट एक ही बिन्दु के दो विस्तार हैं l एक कहानी विद्रुप सच्चाई पर पड़े परदे को हटाती है तो दूसरी मन की ग्रंथियों में जा कर उसे समझने और खोलने का प्रयास करती है l   रात के अंधेरे को चीरने के लिए सूरज की एक किरण ही काफी है l और अगर ये समाज का दमित शोषित वर्ग हो तो .. तो ये किरण उगते सूरज का संदेश बन जाती है l अगर ये बात प्रज्ञा जी की कहानियों के लिए कही जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी l “बुरा आदमी” इस संदर्भ में खास तौर से मेरे मन के पन्नों पर दर्ज है l जैसे की पिता पुत्र पर आधारित उन्हीं की कहानी “उलझी यादों के रेशम” जो बुजुर्गों की उपेक्षा को दर्शाती है l तो ‘परवाज’  कहानी पिता के दोस्ताना व्यवहार की बात करती है l लेकिन “पटरी कहानी उनसे अलहदा है, जो एक मासूम बच्चे और उसके पिता की कहानी है l जिसकी नज़रों में अचानक से उसके पिता नायक से खलनायक बन जाते हैं l इसका कारण है उसके दोस्तों द्वरा उसके पिता की औकात की बात करना lबच्चे  उसे “कचौड़ी के” कह कर  चिढ़ाते हैं l अपना काम करने का पिता का स्वाभिमान उसकी क्लास में उस समय दम तोड़ता हुआ लगता है जब बच्चे को सुनने को मिलता है … “उल्टी छोड़ी, सीधी छोड़ी, तेरे बाप की…गरम कचौड़ी”   और बाल मन में प्रश्न अकुलाने लगते हैं ? लोग डॉक्टर, इंजिनीयर बनते हैं l अच्छी-अच्छी दुकाने भी चलाते हैं…फिर उसके पिता ने यही काम क्यों चुना ? बड़ी दुकान  में काम करते तब भी बात अलग होती पर पिता तो विवाद होने पर अपना स्वाभिमान बचाने के लिए काम छोड़कर  हनुमान मंदिर के पीछे वाली गली की पटरी पर बैठ कर कचौड़ी तलने लगे l तभी दोस्तों ने देख लिया l   बाल मनोविज्ञान के साथ आगे बढ़ती कहानी बच्चों के साथ झगड़े-मारपीट, खाना छोड़कर पिता को दवाब में लेने और पढ़ाई में पिछड़ने तक पहुँचती l और पिता ? क्या बीतती होगी उस पिता के दिल पर जब उसे महसूस होता ही कि उसका स्वाभिमान, वो धन जिससे वो अपने बच्चों और परिवार की जरूरतें पूरी कर रहा है  उसके बच्चे की नज़रों में अपमान है l क्या होता है  उस पर इसका असर ? एक पिता अपने अपमान की हीनता  बोध से बाहर आकर पुत्र की उंगली थाम कर उसे स्वाभिमान और हुनर कि सच्चाई से रूबरू कराता है l उसे साथ ले जाता है और अपने काम में हाथ बँटवाता है l बेमन से ही सही बीटा सहयोग करता है  और एक दिन उसके स्कूल में पिता के आने पर चिप जाने वाले बेटे के मन में उनके काम की भूरि-भूरि प्रशंसा सुन कर उनके प्रति सम्मान जागता है l   प्रज्ञा जी की कलम समस्या उठा कर उसे छोड़ नहीं देती बल्कि समाधान तक ले जाती है l इस कहानी  में भी अपमान के भाव में डूबते  उतराते पिता का संबल बन कर उभरती हैं माँ और कुछ हद तक स्कूल के प्रिंसिपल भी l जिसे मैं प्रज्ञा जी की कहानियों में हमेशा देखती हूँ l एक बुरी दुनिया के साथ एक अच्छी दुनिया भी उनकी नजर में है .. जहाँ बिगड़ती बातें बन जाती हैं l उनकी कहानियाँ जीवन का स्याह पक्ष दिखा कर सूर्य की उजास भी दिखाती है l ये दुनिया इन्हीं अच्छे लोगों के दम पर चलती है l आज ऐसी ही कहानियों की जरूरत है जो मात्र न्यूज रिपोर्टिंग ही बनाकर ना रह जाएँ बल्कि समाज को दिसँ भी दिखाएँ l   पिता -पुत्र के रिश्तों को आधार बना कर लिखी गई ये कहानी उन तमाम प्रश्नों का उत्तर है जो मैंने शुरू में उठाए, ये स्वाभिमान की कहानी है, और  प्रतिभा और हुनर की स्थापना की कहानी है जो “औकात” के इस जुमले से कहीं ऊपर है या जिसे अंगुलियाँ जला कर सीखना पड़ता है …पैसे के दम पर नहीं l अच्छी कहानी के लिए बधाई प्रज्ञा जी समीक्षा वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो  आपको लेख “प्रज्ञा जी की कहानी पटरी की समीक्षा” कैसा लगा अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन के लेख पसंद आते हैं तो साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को फॉलो करें l 

दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे

दीपक शर्मा की कहानी सिर माथे

दीपक शर्मा की कहानी-सिर माथे” पढ़कर मुझे लगा कि  तथाकथित गेट टुगेदर में एक  साथ मौज-मजा, खाना-पीना, डिनर-शिनर के बीच असली खेल होता है कॉन्टेक्ट या संपर्क बढ़ाने का l बढ़े हुए कॉन्टेक्ट मतलब विभाग में ज्यादा सफलता l कॉन्टेक्ट से मिली सफलता का ये फार्मूला रसोई में पुड़ियों  के साथ छन कर आता है तो कभी मोरपंखी साड़ी और लिपस्टिक कि मुस्कुराहट में छिपी बीमार पत्नी के अभिनय में l लाचारी बस अभिनय की एक दीवार टूट भी जाए तो तमाम दीवारे यथावत तनी हैं,जहाँ  अस्पताल में भी नाम पुकारने,हाथ बढ़ाने और हालचाल पूछने में भी वरिष्ठता क्रम की चिंता है l लजीज खाने की चिंता बीमार से कहीं ज्यादा है, और खुद को किसी बड़े के करीब दिखा देने की ललक उन सब पर भारी है l अस्पताल सड़क घर यहाँ  तक डाइनिंग टेबल पर भी गोटियाँ सज जाती है l हालांकि कहानी एक खास महकमे की बात करती है  पर वो कहानी ही क्या व्यक्ति में समष्टि ना समेट ले, खासतौर से वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कलम से, जो कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने का माद्दा रखती हैं l  शुरुआत में कहीं भीष्म सहानी की कहानी “चीफ की दावत” की याद दिलाती इस कहानी में आगे बढ़ते हुए गौर से देखेंगे तो इसमें शतरंज के खेल का ये बोर्ड काले-सफेद गत्ते के टुकड़े तक नहीं रहता, हर विभाग, हर शहर, हर सफलता इसमें शामिल है l इसमें शामिल हैं  सब कहीं चाले चलते हुए तो कहीं प्यादा बन पिटते हुए l साधारण सी दिखने वाली इस कहानी के की ऐंगल देखे जा सकते हैं l जिसे पाठक खुद ही खोजें तो बेहतर होगा l बड़ी ही बारीकी से रुपक के माध्यम से  एक बड़ी बात कहती कहानी… दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे   ’’कोई है?’’ रोज की तरह घर में दाखिल होते ही मैं टोह लेता हूँ। ’’हुजूर!’’ पहला फॉलोअर मेरे सोफे की तीनों गद्दियों को मेरे बैठने वाले कोने में सहलाता है। ’’हुजूर!’’ दूसरा दोपहर की अखबारों को उस सोफे की बगल वाली तिपाई पर ला टिकाता है। ’’हुजूर!’’ तीसरा मेरे सोफे पर बैठते ही मेरे जूतों के फीते आ खोलता है। ’’हुजूर!’’ चौथा अपने हाथ में पकड़ी ट्रे का पानी का गिलास मेरी तरफ बढ़ाता है। ’’मेम साहब कहाँ हैं?’’ शाम की कवायद की एक अहम कड़ी गायब है। मेरे दफ्तर से लौटते ही मेरी सरकारी रिवॉल्वर को मेरी आलमारी के सेफ में सँभालने का जिम्मा मेरी पत्नी का रहता है। और उसे सँभाल लेने के एकदम बाद मेरी चाय बनाने का। मैं एक खास पत्ती की चाय पीता हूँ। वेल ब्रू…ड। शक्कर और दूध के बिना। ’’उन्हें आज बुखार है,’’ चारों फॉलोअर एक साथ बोल पड़ते हैं। ’’उन्हें इधर बुलाओ….देखें!’’ पत्नी का दवा दरमन मेरे हाथ में रहता है। मुझसे पूछे बिना कोई भी दवा लेने की उसे सख्त मनाही है। सिलवटी, बेतरतीब सलवार-सूट में पत्नी तत्काल लॉबी में चली आती है। थर्मामीटर के साथ। ’’दोपहर में 102 डिग्री था, लेकिन अभी कुछ देर पहले देखा तो 104 डिग्री छू रहा  था….’’ ’’देखें,’’ पत्नी के हाथ से थर्मामीटर पकड़कर मैं पटकता हूँ, ’’तुम इसे फिर से  लगाओ…’’ पत्नी थर्मामीटर अपने मुँह में रख लेती है। ’’बुखार ने भी आने का बहुत गलत दिन चुना। बुखार नहीं जानता आज यहाँ तीन-तीन आई0जी0 सपत्नीक डिनर पर आ रहे हैं?’’ मैं झुँझलाता हूँ। मेरे विभाग के आई0जी0 की पत्नी अपनी तीन लड़कियों की पढ़ाई का हवाला देकर उधर देहली में अपने निजी फ्लैट में रहती है और जब भी इधर आती है, मैं उन दोनों को एक बार जरूर अपने घर पर बुलाता हूँ। उनके दो बैचमेट्स के साथ। जो किसी भी तबादले के अंतर्गत मेरे अगले बॉस बन सकते हैं। आई0पी0एस0 के तहत आजकल मैं डी0आई0जी0 के पद पर तैनात हूँ। ’’देखें,’’ पत्नी से पहले थर्मामीटर की रीडिंग मैं देखना चाहता हूँ। ’’लीजिए….’’ थर्मामीटर का पारा 105 तक पहुँच आया है। ’’तुम अपने कमरे में चलो,’’ मैं पत्नी से कहता हूँ, ’’अभी तुम्हें डॉ0 प्रसाद से पूछकर दवा देता हूँ….’’ डॉ0 प्रसाद यहाँ के मेडिकल कॉलेज में मेडिसिन के लेक्चरर हैं और हमारी तंदुरूस्ती के रखवाल दूत। दवा के डिब्बे से मैं उनके कथनानुसार पत्नी को पहले स्टेमेटिल देता हूँ, फिर क्रोसिन, पत्नी को आने वाली कै रोकने के लिए। हर दवा निगलते ही उसे कै के जरिए पत्नी को बाहर उगलने की जल्दी रहा करती है। ’’मैं आज उधर ड्राइंगरूम में नहीं जाऊँगी। उधर ए0सी0 चलेगा और मेरा बुखार बेकाबू हो जाएगा,’’ पत्नी बिस्तर पर लेटते ही अपनी राजस्थानी रजाई ओढ़ लेती है, ’’मुझे बहुत ठंड लग रही है…’’ ’’ये गोलियाँ बहुत जल्दी तुम्हारा बुखार नीचे ले आएँगी,’’ मैं कहता हूँ, ’’उन लोगों के आने में अभी पूरे तीन घंटे बाकी हैं….’’   मेरा अनुमान सही निकला है। साढ़े आठ और नौ के बीच जब तक हमारे मेहमान पधारते हैं, पत्नी अपनी तेपची कशीदाकारी वाली धानी वायल के साथ पन्ने का सेट पहन चुकी है। अपने चेहरी पर भी पूरे मेकअप का चौखटा चढ़ा चुकी है। अपने परफ्यूम समेत। उसके परिधान से मेल खिलाने के उद्देश्य से अपने लिए मैंने हलकी भूरी ब्रैंडिड पतलून के साथ दो जेब वाली अपनी धानी कमीज चुनी है। ताजा हजामत और अपने सर्वोत्तम आफ्टर सेव के साथ मैं भी मेहमानों के सामने पेश होने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुका हूँ। पधारने वालों में अग्निहोत्री दंपती ने पहल की है। ’’स्पलैंडिड एवं फ्रैश एज एवर सर, मैम,’’ (हमेशा की तरह भव्य और नूतन) मैं उनका स्वागत करता हूँ और एक फॉलोअर को अपनी पत्नी की दिशा में दौड़ा देता हूँ, ड्राइंगरूम लिवाने हेतु। इन दिनों अग्निहोत्री मेरे विभाग में मेरा बॉस है। छोनों ही खूब सजे हैं। अपने साथ अपनी-अपनी कीमती सुगंधशाला लिए। अग्निहोत्री ने गहरी नीली धारियों वाली गहरी सलेटी कमीज के साथ गहरी नीली पतलून पहन रखी है और उसकी पत्नी जरदोजी वाली अपनी गाजरी शिफान के साथ अपने कीमती हीरों के भंडार का प्रदर्शन करती मालूम देती है। उसके कर्णफूल और गले की माला से लेकर उसके हाथ की अँगूठी, चूड़ियाँ और घड़ी तक हीरे लिए हैं। वशिष्ठ दंपती कुछ देर बाद मिश्र दंपती की संगति में प्रवेश लेता है। वशिष्ठ और उसकी पत्नी को हम लोग सरकारी पार्टियों … Read 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फिर भी-केंट एम कीथ की दार्शनिक कविता ऐनीवे का हिंदी अनुवाद

कविता

सुप्रसिद्ध लेखक kent m keith की दार्शनिक कविता Anyway में जीवन दर्शन समाया है l समस्त मानवीय वृत्तियों जैसे ईर्ष्या, क्रोध, जलन , सफलता, खुशियाँ आदि में हम दूरों की राय से सहजता से प्रभावित हो जाते हैं l  अक्सर झगड़ों की वजह और खुल कर ना जी पाने की वजह भी यही होती हैं l  कई बार प्रेम भरे रिश्तों में भी शीत युद्ध की दीवार खींची रहती है l परनातू ये युद्ध हमारे  और उनके बीच होता ही नहीं, ये होता है … कविता का हिंदी अनुवाद किया है वंदना बाजपेयी ने l आइए पढ़ें कविता फिर भी…   फिर भी.. होते हैं लोग अक्सर समझ से परे चिड़चिड़े और आत्मकेंद्रित करना क्षमा उन्हें फिर भी… अगर बह रहा हो दया का सागर हृदय में तुम्हारे तब भी नवाजे जा सकते हो तुम स्वार्थी मतलबी के उपालंभों से करते रहना दया फिर भी… अगर कहूं रही है सफलता कदमों को तुम्हारे तो मिलेंगे राह में कुछ घटक शत्रु और कुछ विश्वास घाती मित्र भी होना सफल फिर भी… अगर हो तुम अटल और ईमानदार चले जाओगे कदम-कदम पर अपने और बेगानों के द्वारा रहना ईमानदार फिर भी… जीवन के बरसों-बरस लागाने के बाद हुआ होगा दृश्यमान तुम्हारी रचनात्मकता से जो कुछ सकते हैं गिर कुछ आओने और बेगाने लोग उसे बने रहना रचनात्मक फिर भी… अगर जीवन के अरण्य में खोजने पर मिल जाए तुम्हें शांति और  खुशियाँ तो ईर्ष्या की कनाते साज जाएगी कुछ मनों में रहना खुश फिर भी… जो किया है आज तुमने अच्छा वो भूल दिया जाएगा कल तलक करते रहना अच्छा फिर भी… बोते रहना अच्छाई के बीज मनों की धरती पर जानते हुए कि तृप्त नहीं होगी धरा मात्र कुछ छींटों से देते रहना फिर भी… देखना, अपने आखिरी भी खाते में थोड़ा झांक कर एक बार ये सारा खेल तो ठा बस तुम्हारे और ईश्वर के मध्य ये नहीं था तुम्हारे और उनके मध्य कभी भी… अनुवाद वंदना बाजपेयी   मूल कविता  पाठकों के लिए यहाँ पर प्रस्तुत है मूल कविता anyway Anyway  “People are often unreasonable, irrational, and self-centered. Forgive them anyway. If you are kind, people may accuse you of selfish, ulterior motives. Be kind anyway. If you are successful, you will win some unfaithful friends and some genuine enemies. Succeed anyway. If you are honest and sincere people may deceive you. Be honest and sincere anyway. What you spend years creating, others could destroy overnight. Create anyway. If you find serenity and happiness, some may be jealous. Be happy anyway. The good you do today, will often be forgotten. Do good anyway. Give the best you have, and it will never be enough. Give your best anyway.” You see, in the final analysis, it is between you and your God. It was never between you and them anyway. Anyway Poem was written by Kent M Keith यह भी पढ़ें … माँ से झूठ मंदिर-मस्जिद और चिड़िया जन्माष्टमी पर 7 काव्य पुष्प आपको “फिर भी-केंट एम कीथ की दार्शनिक कविता ऐनीवे का हिंदी अनुवाद” कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए l  अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें l

सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत

सैन फ्रांसिस्को

“यात्राएँ एक ही समय में खो जाने और पा लेने का सबसे अच्छा तरीका हैं”   कितनी खूबसूरत है ये प्रकृति  कहीं कल-कल करते झरने, कहीं चारों तरफ रेत ही रेत, कहीं ऊँचे पर्वत शिखर तो कहीं  धीर गंभीर समुद्र अथाह जलराशि को अपने में समेटे हुए | प्रकृति के इस सुरम्य शीतल, शांत कर देने वाले अनुभव के अतरिक्त मानव निर्मित कॉक्रीट के आश्चर्यजनक नमूने .. चाहे वो भवन हों, पुल हों, सड़कें हों या अन्य कलाकृतियाँ |   पर क्या भौगोलिक सीमाएँ ही किसी देश, शहर या गाँव का आधार होती हैँ | शायद नहीं, कोई भी  स्थान जाना जाता है वहाँ के लोगों से, उनकी सभ्यता उनकी संस्कृति से, उनके खान-पान पहनावे से, उस शहर के बार-बार बनने-बिगड़ने के इतिहास से | शायद इसीलिए हर यात्रा हमें समृद्ध करती है, हमें बदल देती है, हमारे अंदर कुछ नया जोड़ देती है, कुछ पुराना घटा देती है | इसीलिए शायद हर यात्रा के बाद हम भी वो नहीं रहते जो पहले थे |   हर देश की,  शहर की, स्थान की  अपनी एक धड़कन होती है | अपना एक पहनावा होता है, संस्कृति होती है | वही उसकी पहचान है | कितने लोगों को जब-तब उनकी बोली से पहचाना, “अच्छा तो इटावा के हो, मेरठ के लगते है, आपकी बातचीत के तरीके में मथुरा के पेडे  सी मिठास है | पर इसके लिए शहर के बाहरी और पोर्श कहे जाने वाले इलाकों से काम नहीं चलता | इसके लिए तो शहर के दिल में उतरना होता है | उसके वर्तमान से लेकर इतिहास तक की गहन पड़ताल करनी पड़ती है तब जा के कहीं उस शहर जगह का खास रंग हम पर चढ़ता है |   तमाम यात्रा वृतांत   ऐसी ही कोशिश होती है उन जगहों से लोगों को जोड़ने की जो वहाँ नहीं जा पाए और गए भी ओ बस ऊपरी चमक-धमक देख कर लौट आए | ऐसा ही एक यात्रा वृतांत है वरिष्ठ लेखिका “जयश्री पुरवार” जी का जो अपनी पुस्तक अमेरिका ओ अमेरिका भाग -1,  “सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को” के माध्यम से शहर के इतिहास की रंगत, मिट्टी की खुशबू और हवाओं की चपलता से ही नहीं लोक जीवन से भी परिचय कराती हैँ |  किताब पकड़े-पकड़े पाठक का मन  सैन फ्रांसिस्को घूम आता है | सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत     इस पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार  सूर्यबाला जी लिखती हैँ  कि जयश्री जी ने अमेरिका की प्रकृति समाज और रुचि को समझने की कोशिश की है | जहाँ उन्होंने कुछ विरल विशेषताओं को सराहा है वहीं विकसित सभ्यता के कुछ दुर्भाग्य पूर्ण पक्षों पर अपनी चिंता व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाई हैँ | जयश्री जी अपनी भूमिका “मेरे अनुभव की गुल्लक” में लिखती हैँ, “ किसी भी देश को चार दिन के लिए घूमकर वहाँ की संस्कृति के बारे में जानना आसान नहीं होता है | कुछ समय वहाँ लोगों के साथ बिताना पड़ता है | दोनों बच्चों के अमेरिका में बसने  के बाद हम निरंतर वहाँ आते  जाते रहे | आज जब वो वहाँ स्थायी रूप से बस गए हैँ, तब हमारा इस देश के साथ स्थायी संबंध जुड़ चुका है |”   कहने की जरूरत नहीं है कि इस यात्रा वृतांत में आप लेखिका की नजर से ही समृद्ध नहीं होते वरन  उनके परिवार के साथ बिताए गए खट्टे-मीठे अनुभवों के भी साक्षी होते हैँ | कहीं बोझिल ना हो जाए इसलिए किसी यात्रा वृतांत को पाठकों से जोड़ने के लिए सहज जीवन की कथा से जोड़ना उसे कितना रुचिकर बना देता है यह इसे पढ़कर जाना जा सकता है | पूरी पुस्तक को उन्होंने 14 खंडों में बाँटा है, फिर उसे अपनी सुविधानुसार कम या ज्यादा उपखंडों में बाँटा है | और उनकी यह यात्रा विमान यात्रा से लेकर “मुझे सैन फ्रांसिस्को से प्यार हो गया तक चलती है | पुस्तक की शुरुआत वो इतिहास से करती हैँ | जहाँ  वो बताती हैँ कि अमेरिका की सभ्यता प्राचीन माया सभ्यता थी जो ग्वाटेमाला मेक्सिको आदि जगहों में प्रचलित थी | यह एक कृषि आधारित सभ्यता थी जो 250 ईस्वी से 900 ईस्वी के मध्य अपने चरम  पर रही | इसके अलावा को 1942 में भारत को खोजने निकले कोलंबस द्वारा वाहन के मूल नागरिकों को रेड इंडियंस कहे जाने यूरोपीय कॉलोनियों के बनने और अमेरिका के स्वतंत्र होने का इतिहास बताती हैँ | इस देश का आप्त वाक्य है “इन गॉड वी ट्रस्ट” और विचारों से उन्मुक्त और प्रगतिशील होने के बावजूद यहाँ के अधिकांश लोग आस्तिक हैँ | साथ ही अमेरिका संस्कृति के यूरोपयन  संस्कृति से प्रभावित  होने के कारण कहा जाता है की  अमेरिका की कोई संस्कृति ही नहीं है | पर कुछ विशेष बातें का भी उन्होंने जिक्र किया जिन्हें आम अमेरिका मानते हैँ जो उन्हें अलहदा बनाती है | खासकर उनका मेहनत करने का जज्बा जिसने अमेरिका को यूरोप से ऊपर विश्व शक्ति घोषित करवा दिया |   एक जगह लेखिका जनसंख्या को भारत के  अपेक्षाकृत कम विकास का कारण मानते हुए लिखती हैं कि अमेरिका की सीमा लगभग 12000 किलोमीटर है और जनसंख्या लगभग 35 करोंण |   अपनी अमेरिका  यात्रा की शुरुआत वो विमान से पहले ही मन की उड़ान से करती हैँ | और अमेरिका पहुँचने से पहले ही उन्हें साथ बैठने वाली आरती से भौतिकता के पीछे भागते अमेरिका का परिचय हो जाता है | जो बताती है कि अमेरिका में चीटिंग एक अलग तरह की पोलिश्ड  चीटिंग होती है | जिसका कारण भौतिकता को और व्यक्तिगत सफलता को बहुत ऊंची नजर से देखना है | वहीं अनुशासन यहाँ के जीवन की स्वाभाविक विशेषता है | किसी कार्यक्रम  या निर्धारित काम के लिए 5 मिनट भी देर से पहुंचना गलती मानी जाती है | एक अशक्त वृद्ध स्त्री के काम पर जाने को देखकर जीवन के प्रति अमेरिका लोगों के सकारात्मक नजरिये  को लेखिका सराहती हैं |   मन ही मन में भारत से तुलना करते हुए अमेरिका के समृद्ध होने का एक और राज उन्होंने खोला कि अमेरिका विकासशील देशों से छोटी -छोटी चीजें मँगवाता है और बड़ी छीजे खुद बना कर उसे … Read more