जया आनंद की लघुकथा आम्ही सक्सेसफुल आहोत 

जया आनंद की लघुकथा आम्ही सक्सेसफुल आहोत 

  सफलता की परिभाषा क्या है ? वास्तव में सफलता को किसी एक परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता |  किसी के लिए सफलता का मानक पैसा है, किसी के लिए नाम और किसी के लिए काम की संतुष्टि | हर कोई सफलता के पीछे दौड़ रहा है पर ये तय करना जरूरी है की ये परिभाषा उसकी खुद की बनाई हुई है या किसी दूसरे की | शायद इसीलिए हर कोई मृगतृष्णा में फँसा हुआ है |कब ऐसा होता है की व्यक्ति खुद को सक्सेस फुल मानता है | आइए जानते हैं जया आनंद जी की  प्रारनाडेक लघुकथा  आम्ही सक्सेसफुल आहोत से …. आम्ही सक्सेसफुल आहोत    नीरजा प्रिंसिपल के केबिन से निकलकर बहुत तनावग्रस्त थी प्रिंसिपल की अपेक्षाओं पर खरा उतरना कितना मुश्किल है  ।कितनी जी-जान से कोशिश करती है वो, चाहे  विद्यार्थियों  को  पढ़ाना हो या कॉलेज  का कोई भी साँस्कृतिक  कार्यक्रम पर फिर भी आलोचना सुननी ही पड़ जाती।     घर गृहस्थी के झंझावातों से निकलकर अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद में नीरजा ने नासिक में  यह नौकरी की थी। उसकी डिग्री की तुलना में य़ह नौकरी उसके लिए छोटी थी पर कुछ नहीं से तो कुछ बेहतर यही सोचकर वह अपने मन को समझा लेती थी। कभी -कभी उसे लगता कि वह न तो घर गृहस्थी में पूरी तरह सफल है और न करियर में। उसके साथ  की सहेलियां डॉक्टर बन गयीं, इंजीनियर बन गयी और वह एक छोटे से कॉलेज में पढ़ा रही है…….और इस छोटे से कॉलेज में भी सुकून  नहीं। यह सब सोचते हुए हाथ में फाइल पकड़े उसके कदम स्टाफ रूम की ओर मुड़ गए। पास की कक्षा से दीपा ठाणेकर का  स्वर गूंजा।  दीपा आईटी की टीचर है,पढ़ाई में बहुत अच्छी ,छात्र बड़े ध्यान से सुनते हैं  उसे  । “स्टूडेंट्स आप आईटी विषय लेकर क्या करना चाहते हो  ? ” दीपा छात्रों से पूछ रही थी।  किसी ने उत्तर दिया “आईटी प्रोफेशनल” ,” बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करना चाहता हूं” ,” फॉरेन जाकर सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहता हूं”…. सब के अलग-अलग उत्तर आ रहे थे । “आप जो भी बनो उस काम को बहुत अच्छे से करने का ….चांगला काम  करनार पाहिजेत तभी आप सक्सेसफुल होंगे। मैं चाहती तो बड़ी आईटी कंपनी में नौकरी कर लाखों कमाती पर  मेरी सिचुएशन ऐसी नहीं थी ।मै  ये नौकरी  कर के खुश हूँ  ,मी मह्णते आम्ही सक्सेसफुल आहोत ” ।                          नीरजा के कानों में दीपा ठाणेकर कर का स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ रहा था पर  नीरजा कुछ अनसुना  करते  हुए स्टाफ रूम में आकर  निढाल हो कर बैठ गयी । टेबुल  रखी पानी की बोतल से  एक  घूंट पानी पिया और मोबाइल देखने लगी। तभी मैसेंजर  पर  एक संदेश आया  । “हैलो  मैम मैं राजीव आपका पुराना विद्यार्थी ..” “राजीव …… !! ” नीरजा ने  उसकी फोटो को गौर से  देखा   “…..अच्छा-  अच्छा राजीव कश्यप …कैसे  हो?”      हाल- चाल लेने के बाद नीरजा ने राजीव से पूछा  ” हिन्दी पढ़ते हो या  नहीं ?” “हाँ  मैम !पढ़ता हूँ कभी- कभी और आपको याद भी करता हूँ….सच पूछिये तो मैम !आपने जो पढ़ाया वो कभी भूला ही नहीं और इस कॉलेज से पास होने वाला हर विद्यार्थी आपको याद करता है ,आपकी पहचान तो  हम  विद्यार्थियों के दिलों में है। “      नीरजा की आँखों से दो बूंद मोबाइल पर ही टपक गयीं और कानो में दीपा ठाणेकर की आवाज गुंजित होने लगी  ‘आप जो भी बनो उस काम को अच्छे से करने का…..मैं ये नौकरी कर  के खुश हूँ  आम्ही सक्सेसफुल आहोत ….’    नीरजा की आंखे राजीव के संदेश पर टिकी थीं और उसके मन की तरंगो पर  तरंगायित हो रहा था  आम्ही सक्सेसफुल आहोत….  हाँ मैं सफ़ल हूँ ‘          लेखिका  डॉ जया आनंद  परिचय जया आनंद  प्रवक्ता  स्वतंत्र लेखन    स्वतंत्र लेखन -विवध भारती, मुम्बई आकाशवाणी,दिल्ली आकाशवाणी, लखनऊ दूरदर्शन अहा जिंदगी, समावर्तन, पुरवाई,  अभिदेशक, रचना उत्सव , विश्वगाथा,अटूट  बंधन,अरुणोदय ,परिवर्तन, हस्ताक्षर,साहित्यिकडॉट कॉम ,matrubharti, प्रतिलिपि  ,हिंदुस्तान  टाइम्स  आदि में  रचनाओं  का प्रकाशन    अनुवाद -‘तथास्तु’ पुस्तक (गांधी पर आधारित) ,संस्थापक – विहंग एक साहित्यिक उड़ान (हिंदी मराठी भाषा  संवर्धनाय)। प्रकाशित कहानी संग्रह- पाती प्रेम की  प्रकाशित साझा उपन्यास–  हाशिये का हक   प्रकाशित  साझा  कहानी संग्रह– ऑरेंज  बार पिघलती रही  maipanchami@gmail.com  लघु कहानी — कब तक ? लघुकथा -कलियुगी संतान सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएं लघुकथा – एक सच यह भी आपको “जया आनंद की लघुकथा आम्ही सक्सेसफुल आहोत”  कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराएँ | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें |

बहुत बुरी हो माँ

बहुत बुरी हो मां

“बहुत बुरी हो मां” कौन सी माँ होगी जो अपने बच्चे के मुँह से ये शब्द सुनना चाहेगी | हर माँ अपने बच्चे की नजर में दुनिया कि सबसे बेहतर माँ बनना चाहती है | पर अच्छी माँ के दवाब में उससे भी कहीं ना  कहीं कुछ कमी रह जाती है या रह सकती है, तो क्या उसे बुरा कह दिया जाए ? या बुरी माँ की कोई अलग परिभाषा है ? क्या नरम दिल माँ ही अच्छी है ? क्या बच्चों के हित के लिए थोड़ा कठोर हो जाना, बुरा होने का पर्याय है | क्या माँ भी एक इंसान नहीं है, जिसके अपने आग्रह और पूर्वाग्रह हो सकते ? अपने देखे सुने इतिहास का भय हो सकता है ? ये कहानी ऐसे तमाम प्रश्नों से जूझती है | और इन प्रश्नों का उत्तर भी देती है | कहीं नया कहीं ये कहानी  कहती है कि  माँ बनना केवल नौ महीने का उतरदायित्व नहीं है ये पूरे 21 साल का प्रोजेक्ट है .. और कभी कभी उससे भी ज्यादा | वो अच्छी है या बुरी, ये बच्चों का भविष्य तय करता है | आइए पढ़ें एक माँ को अपने बच्चों के  प्रश्नों  के कटघरे में खड़ा करती डॉ . पूनम गुज़रानी की कहानी बहुत बुरी हो माँ  कितनी अजीब है दुनिया…. निरन्तर चलती रहती है…. अपने-अपने क्रम से…. दिन आता है, ढल जाता है, रात आती है, चली जाती है…. पूरी प्रकृति चलती रहती है बिना विश्राम के….कोई नहीं रुकता किसी के लिए….पर मानव हरदम रुक-रुक कर चलता है… अतीत कभी उसका पीछा नहीं छोङ़ता और भविष्य के खुशहाल, मघुर सपने देखने से वो बाज नहीं आता। जानता है सपने पूरे नहीं होते फिर भी देखता है दिवास्वप्न….ये भ्रम कि आने वाला कल अच्छा होगा उसकी आज की कङ़वाहट कम नहीं कर पाते पर च्यूंगम पर लगी मिठास के तरह दो पल ही सही मुँह  के कसैलेपन को चांद को रोटी बताकर बहलाने वाली मां की तरह बहला फुसलाकर आगे की जिंदगी जीने के लिए तैयार तो कर ही देती हैं। हर सुख के साथ दुख बिना बुलाए चला आता है  और दुख के बाद सुख की प्रतिक्षा जीने की जिजीविषा जागाए रखती है। वक्त आगे बढ़ता रहता है, घङ़ी की सूई घूमती रहती है…. पर कभी-कभी गाज गिराने के लिए वक्त की सुई  पीछे भी घूम जाती है। रत्ना ‌के वक्त की  सूई आज पीछे की ओर घूम गई…जब बरसों बाद फिर से उसे सुनने को मिला वही डायलाग…. “तुम बहुत बुरी हो मां….”। कितना कुछ उधङ गया इस एक वाक्य की कैंची से…. उसकी तमाम मजबूत सिलाई धङ़धङ़ाकर निकल गई और रंगीन कवर के नीचे से झांकने लगी पेबंद लगी जिंदगी….। अतीत के झरोखे से जब  झांकने लगी रत्ना… तो लगा कि उसका पूरा बचपन बहुत शानदार था। खुशकिस्मत थी रत्ना….प्रतापगढ़ राजधराने में जन्मी थी। रियासत अब नहीं थी पर रहन-सहन में ताम-झाम,शाही शानौ-शोकत आज भी कायम थी, महल नहीं था पर उसकी हवेली भी महल से कम नहीं थी,अदब वाले नौकर-चाकर भी हर समय अपनी हाजरी देने के लिए तत्पर रहते थे, उसकी कोई भी फरमाइश और ख्वाहिश हर हाल में पूरी की जाती थी। भाई वीरसेन और रत्ना हमेशा फूलों की बिस्तर पर सोये, सोने-चांदी की थाली में भोजन किया, बिन मांगे इतना कुछ मिला था कि मांगने की जरूरत ही नहीं पङ़ी। स्कूल-कॉलेज की गलियों में उछलते-कूदते, किताबों और नोट्स का आदान-प्रदान करते, एनवल फंक्शन के नाटकों में अपना किरदार निभाते, कॉफी हाउस में कॉफी की चुस्कियों के बीच सोमेश के साथ कब इश्क परवान चढ़ा पता ही नहीं चला। कितना विरोध सहन किया….. कितनी बंदिशों का सामना किया….. लगभग चार साल मनाती रही बापूसा को….. बहुत उकसाया सहेलियों ने भागकर शादी करने के लिए पर न वो राजी थी न सोमेश….. शादी जब भी होगी बङ़ो के आशीर्वाद के साथ होगी, यही ख्वाहिश थी दोनों की….. । जब बापूसा राजी हुए तभी हुई उन दोनों की शादी। बस खालिस एक साङ़ी में लिवा लाए थे स्वाभिमानी सामेश उसे। बापूसा बहुत कुछ देना चाहते थे पर सोमेश ने इंकार कर‌ दिया। रत्ना राजमहल से निकलकर साधारण से परिवार की बहू बन गई। वो खुश थी। सुदर्शन कद काठी, ऊंचे सपने, सादा जीवन-उच्च विचार का आदर्श सहेजे, शांति प्रिय युवक था उसका जीवनसाथी सोमेश। उसे गर्व था अपने निर्णय पर।सोमेश पढ़ने में बहुत अच्छा था और दूसरों को पढ़ाने में भी,  उसने टीचर की जॉब कर ली। शुरुआत में जीवनयापन की भी बहुत समस्याएं आई।पाई- पाई को दांत से पकड़ कर रखना रत्ना के वश की बात नहीं थी। कभी-कभी उसे थोङ़े से खर्च के लिए कई महीनों का इंतजार करना पङ़ता … महंगी साङ़ियां और ज्वेलरी सपना बनकर रह गई थी….  छोटी-छोटी बातों पर रत्ना के यहां आये दिन पार्टी का आयोजन होता था पर अब रत्ना को जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर भी सिर्फ मंदिर जाकर संतोष करना पङ़ता….. । कभी-कभी झुंझला जाती वो….अपनी झुंझलाहट में सोमेश की साधारण नौकरी पर तीखे व्यंग्य करने से भी बाज नहीं आती…. उसे गुस्सा आता सोमेश पर…. क्यों दहेज नहीं लिया…. अगर लिया होता तो  सुख- सुविधाओं से युक्त शानदार घर से लेकर महंगी ज्वैलरी तक सब कुछ होता उसके पास…. पर सोमेश का शांत-संतुलित  व्यवहार उसकी हर नादानी को मुस्कराहट की हवा में उड़ा देने  की कला जानता था। वक्त के साथ धीरे-धीरे सोमेश के प्रेम ने हर रिक्तता को भर दिया। वो खुद भी सोमेश के रंग में रंगती चली गई। जब प्रेम सर चढ़कर बोलता है तो कमियां ही खूबियां बन जाती है।अब जरुरतें इतनी ही थी जितनी पूरी हो जाती। आगे चलकर सोमेश कॉलेज के प्रोफेसर हो गया। बहुत शानौ-शौकत न  सही पर  बंधी हुई आमदनी जीवन की जरुरतें पूरी करने के लिए प्रर्याप्त थी।अब दो बच्चों की मां रत्ना का पूरा ध्यान बच्चों की परवरिश पर था। रत्ना ने बचपन से लेकर जवानी तक जाने कितने बच्चों को ग़लत संगत में पङ़ते देखा था, कितने बच्चों को आवारा होकर उजङ़ते देखा था, जाने कितनी बार पढ़ा, कितनी बार सुना की बच्चे सही परवरिश के अभाव में शराब-सिगरेट पीने लगते हैं और अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। उसके भाई वीरसेन को भी तो नशे की ऐसी लत लगी कि … Read more

डॉ. रंजना जायसवाल की कहानी डिनर सेट

डिनर सेट

  डॉ. रंजना जायसवाल जी की कहानी डिनर सेट आम परिवार की आम घटनाओं में आने वाले भविष्य का संकेत देती है | वैसे भी बड़ी जगहों पर तो ज्यादातर लोग अभिनय कर लेते हैं पर कई बार छोटी-चोटी चीजें हमारी सोच की पोल खोल देती हैं | जैसे नायिका निर्मला का ये कहना की, ““अरे ध्यान से उपहार खोलो,पैकिंग पेपर कितना सुंदर है।गड्ढे के नीचे दबाकर रख दूँगी सब सीधे हो जाएंगे।किसी को लेने-देने में काम आ जाएंगे।” आम मध्यम वर्गीय गृहणी की एक-एक रुपये बचाने कि जुगत को खोल देता है | अब ये   डिनर सेट .. किस ओर इशारा कर रहा है | और निर्मला किस खूबसूरती से उसे निर्मूल करने की परिवार को बांधे रखने वाली स्त्री कि तरह प्रयास कर रही है ?  आइए पढे  डॉ. रंजना जायसवालजी की कहानी    डिनर सेट   मेहमान सब चले गए थे,घर समेटते-समेटते हाथ दुखने लगे थे। पारुल को इस घर में आये चार ही दिन तो हुए थे,नई-नवेली दुल्हन से कुछ काम कहते बनता भी नहीं था।तभी सक्सेना जी ने आवाज लगाई।  “निर्मला! काम होता रहेगा,लगे हाथ शादी में आये उपहारों को भी देख लो।कल हमें भी तो देना होगा।” ये काम निर्मला को सबसे ज्यादा खराब लगता था।सक्सेना जी को बातों का पोस्टमार्टम करने में बड़ी मजा आता था।अरे भाई किसी से उपहार लेने के लिए थोड़ी आमंत्रित करते हैं।आदमी की अपनी श्रद्धा और सोच जैसा चाहे वैसा दे।कोई रिश्तेदार या जान-पहचान वाला सस्ता उपहार दे दे तो सक्सेना जी हत्थे से उखड़ जाते। “ऐसे कैसे दे दिया कम से कम हमारी हैसियत तो देखनी चाहिए थी।लोग एक बार भी सोचते नहीं कि किसके घर दे रहे हैं।” और अगर कोई अच्छा उपहार दे दे तो…? “इसमें कौन सी बड़ी बात है भगवान ने दिया है तो दे रहे हैं।” निर्मला कहती, “हमें भी तो उन्हें देना पड़ेगा सिर्फ लेना ही तो संभव नहीं है।” “हमारा उनसे क्या मुकाबला वह चाहे तो इससे भी अच्छा दे सकते थे खैर…” सक्सेना जी ने अपने बेटे आयुष और बहू पारुल को आवाज लगाई। “आयुष!मम्मी का लाल वाला पर्स अलमारी से निकाल लाओ और वहीं बगल में गिफ्ट्स भी रखे हैं। पारुल बेटा ये डायरी और पेन पकड़ो और लिखती जाओ।” “जी पापा!” “आप भी न हर बात की जल्दी रहती है आपको…घर में इतने सारे काम पड़े हैं।अरे हो जाता ऐसी भी क्या जल्दी है।” निर्मला ने बड़बड़ाते हुए कहा, रंग-बिरंगों कागजों में लिपटे उपहार कितने खूबसूरत लग रहे थे।ये उपहार भी कितनी गजब की चीज़ हैं, कुछ के लिए भावनाओं के उदगार को दिखाने का माध्यम बनते हैं तो कुछ के लिए सिर्फ औपचारिकता…पुष्प गुच्छ उसे कभी समझ नहीं आते थे।कभी-कभी लगता सामान देने का मन नहीं, लिफाफा बजट से ऊपर जा रहा तो इसे ही देकर टरका दो। खुशियों की तरह इनकी जिंदगी भी आखिर कितनी होती है। “अरे ध्यान से उपहार खोलो,पैकिंग पेपर कितना सुंदर है।गड्ढे के नीचे दबाकर रख दूँगी सब सीधे हो जाएंगे।किसी को लेने-देने में काम आ जाएंगे।” निर्मला ने हाँक लगाई, “क्या मम्मी तुम भी न यहाँ लाखों रुपये शादी में ख़र्च हो गए और तुम वही दस-बीस रुपये बचाने की बात करती हो।” नई-नवेली पारुल के सामने आयुष का यूँ झिड़कना निर्मला को रास नहीं आया पर क्या कहती…हम गृहणियाँ इन छोटी-छोटी बचतों से ही खुश हो जाती हैं। उनकी इस खुशी का अंदाजा पुरुष नहीं लगा सकते। लाखों के गहने खरीदने में उन्हें उतनी खुशी नहीं होती जितनी उसके साथ मिलने वाली मखमली डिबिया, जूट बैग या फिर कैलेंडर के मिलने पर होती है। चार सौ रुपये की सब्जी के साथ दस रुपये की धनिया मुफ्त पाने के लिए वे दो किलोमीटर दूर सब्जी बेचने वाले के पास जाने में भी वे गुरेज नहीं करती। दाँत साफ करने से शुरू होकर ,कुकर के रबड़ साफ करने तक  वे एक ही टूथब्रश का इस्तेमाल करती हैं।उनकी यह यात्रा यहाँ पर भी समाप्त नहीं होती,ब्रश के एक भी बाल न बचने की स्थिति में वो पेटीकोट और पायजामें में नाड़ा डालने में उसका सदुपयोग करती हैं। ये आजकल के बच्चे क्या जानेंगे कि एक औरत किस-किस तरह से जुगाड़कर गृहस्थी को चलाती है। नींबू की आखिरी बूंद तक निचोड़ने के बाद भी उसकी आत्मा तृप्त नहीं होती और वो नींबू के मरे हुए शरीर को भी तवे और कढ़ाही साफ करने में प्रयोग में लाती हैं। निर्मला चुप थी नई-नवेली बहू के सामने कहती भी तो क्या…? तभी निर्मला की नजर पारूल पर पड़ी,वो न जाने कब रसोईघर से चाकू ले आई थी और सर झुकाए अपने मेंहदी लगे हुए हाथों से सावधानी से धीरे-धीरे सेलोटेप को काट रही रही थी।बगल में ही उपहारों में चढ़े रंगीन कागज तह लगे हुए रखे हुए थे।पारुल की निगाह निर्मला से टकरा गई,निर्मला की आँखों मे चमक आ गई।दिल में एक भरोसा जाग गया,उसकी गृहस्थी सही हाथों में जा रही है।उसे अब इस घर की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। पारुल पढ़ी-लिखी लड़की है वो अच्छे से उसकी गृहस्थी सम्भाल लेगी। “ये जो इतना रायता फैला रखा पहले इसे समेटो। ऐसा है पहले ये सारे उपहार खोलकर नाम लिखवा दो,फिर लिफाफे देखना।” निर्मला ने आयुष से कहा ,किसी में बेडशीट, किसी में गुलदस्ता,किसी में पेंटिंग तो किसी में घड़ी थी।  “जरा संभालकर!शायद कुछ काँच का है।कहीं टूट न जाये।” निर्मला के अनुभवी कानों ने आवाज से ही अंदाजा लगा लिया। “माँ!देखो कितना सुंदर डिनर सेट है।” आयुष ने हुलस कर कहा,निर्मला ने डिनर सेट की प्लेट पर प्यार से हाथ फेरा। “निर्मला जरा इधर तो दिखाओ,किसने दिया है भाई बड़ा सुंदर है।” “मथुरा वाली दीदी ने दिया है, कितना सुंदर है न?” “हम्म!पर इसमे तो सिर्फ चार प्लेट और चार कटोरियाँ है। ये कौन सा फैशन है।आजकल की कंपनियों के चोंचले समझ ही नहीं आते।” “समझना क्या है ठीक तो है।माँ-बाप और बच्चे ।” “और हम?” सक्सेना जी ने दबे स्वर में कहा,सक्सेना जी का चेहरा उतर गया था,निर्मला कुछ-कुछ समझ रही थी।आखिर तीस साल  साथ बिताए थे ।निर्मला ने हमेशा की तरफ बात को संभाला, “वो भी तो वही कह रहा है, माँ-बाप और बच्चे।” सक्सेना जी ने दबे स्वर में बड़बड़ाते हुए कहा कौन से माँ-बाप और कौन से बच्चे… … Read more

माँ से झूठ

माँ से झूठ

  माँ ही केवल अपने दुखों के बारे में झूठ नहीं बोलती, एक उम्र बाद बच्चे भी बोलने लगते है | झुर्रीदार चेहरे और पोपले मुँह वाली माँ की चिंता कहीं उनकी चिंता करने में और ना बढ़ जाए |इसलिए अक्सर बेटियाँ ही नहीं बेटे भी माँ से झूठ बोलते हैँ | मदर्स डे के अवसर पर एक ऐसी ही लघुकथा .. माँ से  झूठ  ट्रेन ठसाठस भरी हुई जा रही थी | हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था | जनरल डिब्बे में बैठना तो क्या, खड़ा रहना भी मुश्किल था | ऑफिस से बुलावा ना आ गया होता तो वो भी तयौहार के मौसम में यूँ बिना रिजर्वेशन जाने के मूड में नहीं था | पर नौकरी जो ना करवाए सो कम | पसीने से लथपथ किसी तरह से जगह बना कर खड़ा हुआ तब तभी मोबाइल की घंटी बजी | अपनी ही जेब से मोबाइल निकालने की मशक्कत करने के बाद देखा माँ का फोन था | फोन उठाते ही माँ बोलीं, “बेटा गाड़ी में जगह मिल गई?” “हाँ! माँ, मिल गई, उसने आवाज में उत्साह लाते हुए कहा | “तू ठीक से तो बैठ गया ना?” माँ तसल्ली कर लेना चाहती थी | हाँ, बिल्कुल, काफी जगह है आराम से बैठा हूँ| “ तुम चिंता मत करो | उसने इस बार अपनी आवाज का उत्साह थोड़ा और बढ़ाया | “ठीक है बेटा, भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हें जगह मिल गई, मैं तो डर रही थी |” माँ के स्वर में तसल्ली थी और उसके चेहरे पर इत्मीनान | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … लघुकथा -कलियुगी संतान झूठा –(लघुकथा ) तोहफा (लघुकथा) एक लघु कहानी —–सम्मान

love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं

love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं

ऐ मौसम तुमने हमे क्या-क्या गम ना दिए .. ये तो भला हो हमारी भुल्लों बुआ यानि अर्चना चतुर्वेदी जी का जिन्होंने इस गर्मी में जब पसीने बहाते और पानी -पानी की पुकार लगाते हुए लोग एक दूसरे से सात गज की दूरी बना कर चलते हैं, उन्होंने लव की हैप्पी एन्डिंग करा कर पाठको को ही नहीं प्रेम को भी जीवन दान दे दिया | मौसम की मार, कोरोना की चौथी लहर की बेसुरी दस्तक की खबर, रूस और यूक्रेन युद्ध की भयावाह तस्वीरें और उस पर महंगाई की मार ने माहौल कुछ ऐसा बना दिया है की आप चीख -चिल्ला सकते हैं, गुस्सा कर सकते हैं, चाहें तो रो भी सकते हैं पर हँसी बहुत जल्दी विलुप्त प्रजाति में जा रही है | नासा ( नासा जोड़ देने से बौद्धिकता की लू की चपेट में पाठक जल्दी आता है) की रिपोर्ट में कहा गए है की आज कल हाल हुए बच्चे भी पहले टेंशन करना सीखते हैं बाद में मुसकुराना सीखते हैं | ऐसे समय में व्यंग्यकार लोग बिना किसी सरकारी सहायता के हँसी की फसलों को फिर से हरियाते हुए देखेने का प्रयास कर रहे हैं | ये किसी पुण्य से कम नहीं है | और हमारी प्यारी व्यंग्यकार अर्चना जी ने भावना प्रकाशन से प्रकाशित अपनी नई किताब “ love की हैप्पी ending” के माध्यम से हँसी मुक्त होते हुए भरत को फिरसे “हँसी युक्त भरत बनाने का संकल्प लिया है | अब किताब के नाम को ही देखिए, “मतलब आप हिंदी और अंग्रेजी दोनों सीख सकते हैं | वैसे भी लोगों को रुलाने की अपेक्षा हँसाना कठिन काम है | रोने को तो जैसे आदमी तैयार ही बैठा है | क्योंकि किसी की दुख भरी दास्तान सुन कर कौन कब अपना भूला दुख याद कर रो पड़ा, सुनाने वाला भी नहीं जान पाता | पर हँसने के लिए विशुद्ध अपना कारण होना चाहिए, और नया भी | इंसान एक ही दुख पर सौ बार रो सकता है पर हँसने के लिए उसे हर बार नया चाहिए | love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं देश की सुपरिचित व्यंग्यकारा अर्चना जी अपने मन की बात में लिखती हैं की उन्होंने कोरोना के समय की उदासी को दूर करने के लिए व्यंग्य लिखे जिससे पहले तो वो खुद हँसी और बाद में उनके पाठक भी हँस रहे हैं | और माहौल थोड़ा सकारात्मक हो रहा है | अर्चना जी की हास्य कहानियों की खास बात ये होती है वो अपने आस -पास के चरित्र लेती हैं, और बोली बानी , हाव -भाव से बिल्कुल वैसा उतार देती हैं की पढ़ने वाले को लगे अरे वही पड़ोस वाले मिश्रा जी की बात हो रही है, राधा काकी तो ऐसी ही बोलती हैं, हमारे चाचा के समधी के जीजा तो बिल्कुल ऐसी ही हैं | जब पाठक चरित्र से खुद को जोड़ लेता है तो जो हँसी की कली होंठों पर खिल रही थी वो बत्तीसी फाड़ कर दर्शन देती है | अब गुल्लू मियां को ही लें आज के फास्ट फूड जमाने में बाबा आदम के जमाने का प्रेम पाले हैं, वो भी उससे जो देखने सुनने में भी उनसे कमतर है पर कहा गया है न, “दिल लगा सड़ी से तो परी क्या चीज है |” अपनी भी शादी की उम्र निकल गई और लड़की की निकलवा दी .. क्या क्या तरीके आजमा के | देर से ही सही पर जब किस्मत का सितारा चमका तो जो हड़बड़ी मचाई की “लव की हैप्पी एन्डिंग” भले ही हो गई हो पर सात पुश्ते उनकी ये कहानी याद करेंगी | “हाउस हेल्प बनाम हाउस वाइफ” में कामवाली लगाने की जिद पर अड़े मिस्टर वर्मा को लेने के देने तब पड़ गए जब कामवाली उन पर कुछ ज्यादा ही नजरे इनायत करने लगी | बकौल वर्मा जी, “ क्या मुसीबत रख ली है जिधर जाता हूँ उधर ही घूमती है | इसकी वजह से बाथरूम से ही कपड़े पहन कर आने लगा हूँ | कमबख्त ऐसे घूरती है मानो इज्जत लूट लेगी |” अब जब हाउस हेल्प जब हाउस वाइफ बनने के के सपने पालने लगे तो क्या क्या होता हिय या क्या -क्या हो सकता है .. कुछ इश्क कहीं दर्ज नहीं होते, उन पर कोई फिल्में नहीं बनती,लोग किससे नहीं सुनाते पर वो इश्क, वाकई में इश्क होता है | ऐसा ही एक इश्क होता है एक लड़की का दहेज में मायके से दी गई गोदरेज की अलमारी का.. बाकी आप “हमारी सच्ची मुहब्बत” में जान जाएंगे | वो जमाना गया जब बच्चे बड़ों की नकल करते थे, अब बड़े बच्चों की नकल करते हैं | जैसी की “बाबूजी का हनीमून” में दादाजी करना चाहते हैं | बढ़ते हुए दहेज को देखते हुए मन्नों सही तो कह रही हैं “दरकार है, एक चायनीज दूल्हे की” अब यहाँ के लोग तो दहेज के बिना शादी करने को तैयार नहीं तो क्यों ना सस्ते दूल्हे चाइना से ही लिए जाए | ये अलग बात है की चाइना का माल टिकाऊ नहीं होता पर यहाँ के रिश्ते ही कौन से टिकाऊ हैं | बुआ की बात वाकई गौर करने लायक है क्योंकि हे लड़के वालों चाइना की जनसंख्या भी बहुत है अगर देश की लड़कियाँ “मेड इन चाइना” दूल्हा माँगने लगीं तो आपके बेटे का तो नंबर ही नहीं आएगा | आया है सो जाएगा राजा रंक फकीर कोई वसीयत कर मरे कोई मरे अधीर वैसे यूँ तो कोई मरना नहीं चाहता और ना ही अपनी कमाई का एक पैसा कौड़ी भी किसी को देना चाहता है |पर मरना तो पड़ता ही है और जो कमाया है वो दे कर भी जाना पड़ता है | इसलिए लंबा -नाटा, पतला-मोटा, पैसे वाला और सम्मान वाला हर व्यक्ति मरने से पहले अपनी वसीयत करना चाहता है | अब लेखक क्या वसीयत करेगा | येन -केन प्रकारेण जुटाए गए सम्मान के साथ मिली शॉल और श्रीफल का क्या करेगा ? जिसमें पत्नी की रुचि नहीं, किताबें खुद के बच्चों ने भी नहीं पढ़ीं | ये तो आप पढ़ कर ही जान पायेगे पर साहित्य की दुनिया पर जबरदस्त तंज है | अकेले औरत का सफर हाय रब्बा”हो या रज्जो बुआ या फिर गाँव … Read more

स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ

स्टैपलेड पर्चियाँ

    जीवन अनगिनत समझौतों का नाम है | कुछ दोस्ती के नाम पर, कुछ प्रेम की परीक्षा में खरे उतरने के नाम पर,  कुछ घर गृहस्थी चलाने के नाम पर और कुछ घर गृहस्थी बचाने के नाम पर .. हर पर्ची एक समझौता है और  “स्टेपल्ड पर्चियाँ” उन समझौतों का पूरा दस्तावेज .. जीवन का दस्तावेज हमारा आपका सबका मन कभी ना कभी तो करता है की खोल दें उस पूरे गट्ठर को, खोल दें  पर्चियों वाली इस रवायत को और  जी के देखें जिंदगी जिसमें किसी कपड़ों की अलमारी में साड़ियों की तहों में छिपाई गई स्टेपल्ड पर्चियाँ की कोई जगह ना हो | पर क्या अतीत को बदला जा सकता  है? खासकर उस अतीत को जिसकी पर्चियों को रंग हल्के पड़ गए हैं | कब वो रंग पर्चियों से निकलर हमारे मन को इस कदर रंग देते हैं की हमें पता ही नहीं चलता की इससे इतर हमारा भी कोई रंग है ?इस संग्रह के माध्यम से उन्होंने गंभीर सवाल उठाए हैं |   “स्टेपल्ड पर्चियाँ” भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्रगति गुप्ता जी के कहानी संग्रह की ज्यादातर कहनीनियाँ इन्हीं पर्चियों को खोलने की कोशिश है | कुछ में खुली हैं, कुछ  में फाड़कर फेंक दी गई हैं और कुछ पढ़कर वापस वैसे ही रख दी  गई है | सबकी अपनी लड़ाई है, उलझने हैं, फिर सबका अपना -अपना मन है, कन्डीशनिंग भी है | “विधोतमा सम्राट सम्मान”से सम्मानित इस पुस्तक में 11 कहानियाँ हैं जिनमें लेखिका प्रगति गुप्ता जी ने, जो की मरीजों की कॉउनसिलिंग भी करती हैं मन की कई गिरहों को खोलने का प्रयास किया है | स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ   हालांकि अपनी बात में वो लिखती हैं की “सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों का चयन करते समय मर्यादाओं को भी साधना होता है | यही वजह है की घटित पूर्णतःअन्वेषित नहीं हो पाता | तभी तो एक ही घटना पर विभिन्न दृष्टिकोणों से कई कहानियाँ व उपन्यास रचे जाते हैं |पुन: कुछ ना कुछ छूटता है और नवीन दृष्टि के साथ कुछ नया रचा जाता है |”   कहनियों में लेखिका ने ये खास  बात रखी है की स्त्री पुरुष का भेद भाव  नहीं रखा है | परंतु ज्यादातर समझौते स्त्री के हिस्से आते हैं तो वो कहानियों में परिलक्षित होते हैं, परंतु पुरुष की पीड़ा को कहने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया है |   “घर उसका, रुपया पैसा उसका पर वो अपने माता-पिता को हक से अपने घर नहीं रोक सकता | .. उस रोज अंकित को अपनी बेबसी पर बहुत अफसोस हुआ |” “तमाचा” कहानी आज की बदली हुई स्त्री और बदले हुए पुरुष के मुद्दे को सामने लाती  है | परदेश में अपने माता -पिता से दूर रहने वाला पुरुष भी क्या उतना ही असहाय नहीं है ? यहाँ विमर्श का एक दूसरा कोण  सामने आता है | पुरुष के घर में भी उसके माता-पिता के लिए जगह नहीं है | अच्छी पोस्ट, तनख्वाह,  पर शादी से पहले कैजुअल ड्रिंक कहने वाली लड़की जब पत्नी बन कर पार्टियों में नशे में धुत हो जाए, पति की सार्वजनिक निंदा करे और तमाचा भी मारे तो उसे विमर्श के किसी खांचे में नहीं रखा जा सकता | भले ही उसके पीछे उसका परिवार और पालन -पोषण रहा हो | अवगुण अगर स्त्री पुरुष नहीं देखते तो शोषण भी नहीं देखता |इस बारे में बात होनी चाहिए |  नए समाज के नए यथार्थ का दरवाजा खोलती अच्छी कहानी |     शीर्षक  कहानी “स्टेपल्ड पर्चियाँ” एक तथाकथित सुखी कहे जाने वाले परिवार के मृतप्राय संबंधों की दास्तान  है | जहाँ  पति पत्नी के बीच प्रेम के नाम पर एक चुप्पा समझौता है बच्चों को अच्छी परवरिश देने के लिए | जहाँ कोई बातचीत मन मुटाव सहमति असहमति नहीं होती .. ना ही विवेचना करने के लिए कुछ “की हम कहाँ  गलत थे” जो कुछ  था वो सब बस स्वीकार करना था और भरती जानी थी अलमारी की दराजे  “स्टेपल्ड पर्चियों” से  | लेकिन एक दिन ये पर्चियाँ खुलती हैं | और समझ में आता है की दो लोगों के मध्य मौन भी दो तरह का हो सकता है |एक वो जहाँ दोनों एक दूसरे में मानसिक स्तर पर समाए हों और एक वो जहाँ सन्नाटा हो |   एक परिपक्व उम्र में जब  इंसान अपने बच्चों को दुनिया से, चालाकियों से  आगाह करता है ठीक उसी  वक्त स्वयं का स्नेहापेक्षी मन किसी के शब्दों के फरेब में फँस रहा होता है | “काश” कहानी मानसिक स्तर पर मन के बातों में आ जाने का शोकगीत है |   अभी हाल ही में डॉ. अर्चना शर्मा की आत्महत्या की दुखद घटना सामने आई है | कहानी “गलत कौन” में लेखिका यही मुद्दा उठाती हैं | जिस डॉक्टर को मौका पड़ने पर भगवान का दर्जा दिया जाता है उसके साथ मार -पिटाई करने से भी लोग बाज नहीं आते |   “अदृश्य आवाजों का विसर्जन” कोख  में मारी गई बेटियों की का सामूहिक मार्मिक  रुदन है | “सोलह दिनों का सफर” मृत्यु से पहले के तीन दिन व बाद के तेरह दिन की  आत्मा की वो यात्रा है जिसमें वो अपनों का ही स्वार्थ भरा चेहरा देख स्वयं ही उस घर से मुक्त होना चाहती है | एक तरफ बी प्रैक्टिकल, गुम  होते क्रेडिट कार्ड्स, माँ ! मैं जान गई हूँ, खिलवाड़, आम रिश्तों की उलझती सुलझती कहानियाँ हैं तो दूसरी तरफ “अनुत्तरित प्रश्न “ में एक ऐसे जोड़े का दर्द है जिनके संतान भी है पर पिता समलिंगी है | और एक दिन सारे परदों से बाहर आकर अपनी पहचान घोषित करता है | आखिर क्यों समाज हर व्यक्ति को उसकी तरह से नहीं अपनाता | जिंदगी को दाँव पर लगाने वाले ये अनुत्तरित प्रश्न पति  के भी हैं, पत्नी के भी और उस मासूम बच्ची के भी जो बार -बार जानना चाहती है की उसके पापा कहाँ हैं ?  एक अच्छी कहानी |   अंत में मैं यही कहूँगी की सारी कहानियाँ खोखले होते संबंधों की कहानियाँ हैं जो बाहर से भले ही चमकीले दिखते हों पर अंदर से दरके  हुए हैं | और प्रेम में देह  की भले ही भूमिका हो पर मन से … Read more

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

  लगभग दो साल से लोग घरों में कैद रहें और सिनेमा हाल बंद प्राय रहें, फिर एक हिन्दी मूवी रिलीज होती है “द कश्मीर फाइल्स”। इसने रिलीज के साथ ही पहले ही शो से टिकट खिड़की पर आग लगा दी। कम बजट की इस फिल्म पर वितरकों को जरा भी विश्वास नहीं था तभी तो शुक्रवार को पूरे देश में सिर्फ 500 स्क्रीन पर लाया गया। अन्य बड़ी मूवीज की तरह न ही इसका कोई खास प्रचार हुआ और न शुरुआत में कोई चर्चा। कुछ लोगो ने महज मौखिक रूप से सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा की, पर करोड़ों खर्च कर भी जो सफलता नहीं हासिल होती है इस फिल्म ने सिर्फ मौखिक और जबरदस्त कंटेन्ट की वजह से झंडे गाड़ दिए। एक मामूली बजट और लो स्टारकास्ट मूवी का बॉक्स ऑफिस, निश्चित ही ट्रेंड सर्किल को हैरान करने वाला माना जाएगा। रिलीज के चौथे दिन 4 गुना से ज्यादा शोज बढ़ने का उदाहरण इससे पहले कभी नहीं देखा। ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक केस स्टडी हो सकती है, क्योंकि आज के समय 3 दिनों की कमाई पर निर्माता फ़ोकस करते हैं, यानी ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन पर (4000+) स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज किया जाए। धुआंधार प्रचार से दर्शकों को खींचते हैं, फिर सोमवार से शोज कम हो जाते हैं। इस फ़िल्म में ठीक इसका उल्टा हुआ, यानी शुक्रवार से 4 गुना शोज सोमवार को हो गए।   नब्बे की दशक की शुरुआत में हुई भीषण नर संहार की खबर को महज एक पलायन के रूप में खबरों में स्थान मिली थी। कश्मीर के आधे-अधूरे उस वक़्त की प्रसारित की गई सच – झूठ की सच्चाई को निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने पूरी बेबाकी से उधेड़ कर रख दिया है इस फिल्म के जरिए। सच हमेशा कड़वा ही होता है। ये मूवी वाकई एक दस्तावेज है जो कश्मीरी पंडितो के दुखद नरसंहार (सिर्फ पलायन नहीं) की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। ये फिल्म कई परतों में एक साथ चलती है। आज जब अनुच्छेद 370 हट चुका है की चर्चा के साथ साथ 1990 की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन है। मुझे तो सबसे बढ़िया फिल्म का वो हिस्सा लगा जिसमें कैसे कश्मीर सदियों से अखंड भारत का हिस्सा रहा है का जिक्र है।   एक प्रशासनिक अफसर, एक पत्रकार, एक डॉक्टर और एक आम जन – को बिम्ब की तरह प्रस्तुत किया गया है दोस्तों के रूप में, जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उस वक़्त के इन चारों की भूमिका और असहायता को दर्शाने हेतु। एक आज का brainwashed युवा भी है और है JNU भी। बहुत गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है, कई राज खुलते हैं तो कई फ़ेक न्यूज़ और चलते आ रहे प्रोपैगैंडा की धज्जियाँ उड़ती है। बहुत जरूरी है इस तरह की फिल्मों का भी बनना जो परिपक्व और गंभीर दर्शक मांगते हैं। ये एक Eye opener और बेबाक मूवी है जिसकी सभी घटनाओं को सत्य बताया गया है। तत्कालीन सरकारों की उदासीनता दिल को ठेस पहुँचाती है। टीवी पर अफगानिस्तान और यूक्रेन से बेघर होते लोगो को देख आँसू बहाने वालों को शायद मालूम ही नहीं कि अपने ही देश में लाखों लोग बेहद जिल्लत और तकलीफों के साथ शरणार्थी बनने को मजबूर किये गए थें, जिस पर यदा-कदा ही चर्चा हुई। लेखिका रीता गुप्ता  कई लोग सवाल उठा रहें हैं कि 32 वर्षों के बाद इस वीभत्स घटना पर से पर्दा उठाना अनावश्यक है। तो वहीं कुछ लोग इस की गांभीर्य कथ्य में मनोरंजन के अभाव के कारण विचलित हो रहे हैं। फिर ऐसे लोगो की भी कमी नहीं है जो इस मूवी को राजनीति से जोड़ रहें हैं। कुछ लोग इसे डार्क व अवसादपूर्ण बता रहें। उन लोगो को भारी निराशा हुई होगी जो इसे एकपक्षीय मान दंगा और दुर्भावना की आशंका कर रहे थे। किसी समस्या का निदान उसे छिपाने, नज़रंदाज़ करने या उस पर चुप्पी साधने यानि शुतुरमर्ग बन जाने से नहीं होता। पहले हम स्वीकार करें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा। बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना करके अब यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस फ़िल्म में भी कई कमियां होंगी मगर इस फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि इसने कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन पर जो सालों से रुकी बहस, चर्चा थी उसे पूरे विश्व में आरंभ कर दिया है।       दुनिया भर में इस तरह की हिंसा पर काफी फ़िल्में बनी हैं। रवांडा में हुए नरसंहार पर ‘100 Days (2001)’ से लेकर ’94 Terror (2018)’ तक एक दर्जन फ़िल्में बनीं। हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार पर तो ‘The Pianist (2002)’ और ‘Schindler’s List’ (1993) जैसी दर्जनों फ़िल्में बन चुकी हैं। कंबोडिया के वामपंथी खमेर साम्राज्य पर The Killing Fields (1984) तो ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया में कत्लेआम पर Ararat (2002) और ‘The Cut (2014)’ जैसी फ़िल्में दुनिया को मिलीं। holocaust Holocaust (1978) एक अमेरिकन सीरीज है जो जर्मनी के द्वारा यहूदियों की नर संहार की कहानी है।   बहरहाल “द कश्मीर फाइल्स” फिल्म की सफलता इस बात का द्योतक है कि बॉलीवुड फिल्मों के शौकीन सिर्फ नाच-गाना और कॉमेडी से इतर मुद्दों पर आधारित गंभीर कथानक भी पसंद करते हैं। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है जनमानस तक पहुँचने का और ये फिल्म इसमें पूरी तरह सफल होती दिख रही है। इस फिल्म की सफलता भविष्य में भी गंभीर मुद्दों पर फिल्मांकन की राह प्रशस्त करती है। रीता गुप्ता Rita204b@gmail.com ये लेख प्रभात खबर की पत्रिका सुरभि में भी प्रकाशित है |   यह भी पढ़ें … राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म आपको “द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्ष” लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबू पेज को लाइक करें |  

लकीर-कहानी कविता वर्मा

लकीर

कोयल के सुत कागा पाले, हित सों नेह लगाए, वे कारे नहीं भए आपने, अपने कुल को धाए ॥ ऊधो मैंने —                                             जब भी माँ की बात आती है | यशोदा और देवकी की बात आती है | परंतु जब यशोदा कृष्ण को पाल रहीं थीं तब उन्हें पता नहीं था की वो उनके पुत्र नहीं देवकी के पुत्र हैं, ना ही कृष्ण को पता था .. परंतु यह बात पता होती है तो रिश्ते में एक लकीर खिचती है | क्या पुत्र के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाती  माँ को सारे अधिकार मिल जाते हैं या पुत्र अधिकार  दे पाता है ? हर प्रश्न एक लकीर है जो एक सहज रिश्ते को रोकती है | कौन बनाता है ये लकीरे और क्या होता है इनका परिणाम | आइए इसी विषय पर पढ़ें सुपरिचित कथाकार कविता वर्मा की कहानी .. लकीर  जिसने भी इस खबर को सुना भौंचक रह गया। कुछ लोगों ने तो एकदम से विश्वास ही नहीं किया, तो कुछ ने विश्वास कर इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि ऐसा ही कुछ होना था, हम तो पहले से जानते थे। शुभचिंतकों ने पूछा कि अब उनका क्या हाल है, तो अति शुभचिंतकों ने कहा कि ऐसा करना ही नहीं था। पराये को अपना बना ले इतना बड़ा दिल नहीं होता किसी का।शायद उन्हें यही अफ़सोस था कि हम तो इतना बड़ा दिल कभी न कर पाते उन्होंने कैसे कर लिया? कुछ लोग ये कयास लगाते नज़र आये कि आखिर हुआ क्या होगा? कुछ सयाने यहाँ तक कहते दिखे कि बेकार में बात बिगाड़ी। जितने मुँह उतनी बातें। वैसे अब तक जो कुछ देखा सुना समझा वह इस घटना की नींव तो नहीं थी, फिर उसकी परिणिति इस तरह क्यों हुई? उस चाल से थोड़े ऊपर के स्तर की बड़ी सी बिल्डिंग में रहने वाले दस-बारह परिवार अपनी स्तरीयता को कायम रखते हुए स्वतंत्र भी थे और साथ में एक दूसरे से जुड़े हुए भी। इसलिए कभी कभी घर के राज़ साझा दीवारों से रिस कर दूसरे घर तक पहुँच जाते थे। . इसी बिल्डिंग के दो कमरों में रहता था वह परिवार या कहें पति-पत्नी। शादी के कई साल बाद भी गोद सूनी थी और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया था। ऊपरी तौर पर तो कर ही लिया था लेकिन मन में बहती ममता की नदी को सुखा पाना कहाँ संभव होता है वह बहती थी और कभी-कभी तो तटबंध तोड़ बहती थी। यह उनका बरसों का प्रयास ही था कि वे इस उफान को थाम लेतीं और वहाँ से हट जातीं। उस नदी का प्रवाह मोड़ने के लिए खुद को किसी काम में या अपने कृष्ण कन्हैया की सेवा में व्यस्त कर देतीं। तब मन के रेगिस्तान में रह जाती एक लकीर सुगबुगाती सी। उनकी दिनचर्या बड़ी सुनियोजित थी। ठीक छह बजे उनके घर के दरवाजे खुल जाते। सात बजे घंटी की आवाज़ आती और सब अपनी घडी मिला लेते। तभी उनके बगल के तीन कमरों में वह परिवार रहने आया। पति-पत्नी और दो प्यारे से बच्चे। परिवार के वहाँ आकर रहने के कुछ ही दिनों बाद इस दिनचर्या में सिर्फ इतना अंतर आया कि घंटी की आवाज़ से पहले चिंटू के नाम की पुकार होने लगी। जिस घर में बिना स्नान किये कोई रसोई में नहीं घुस सकता था वहाँ चिंटू जी बिना नहाये पूजा की आरती में शामिल होते, ताली बजाते, आरती की लय पर झूमते और उनकी हथेली को सहारा दे कर उस पर न सिर्फ प्रसाद दिया जाता बल्कि उसके बाद उनका मुँह भी साफ किया जाता। चिंटू के आने से उनकी पूजा को एक सार्थकता मिलने लगी। उन्होंने तो जिंदगी को इसी रूप में स्वीकार कर लिया था। भगवान से जितनी मनौतियाँ मानी जा सकती थीं माँग ली गयीं थीं। भगवान उनकी आशा पूरी नहीं करेंगे इसका भी उन्हें विश्वास हो गया था। उनकी गोद न भरने के लिए भगवान से जितनी शिकायतें की जा सकती थीं कर ली गयीं थीं। और अब सारी मान-मनौतियों, शिकवे शिकायतों को भूला कर पूरे श्रध्दा भाव से सुबह की पूजा, आरती,भोग से लेकर तीज त्यौहार तक मनाये जाते थे। पता नहीं मन से शिकायतें ख़त्म हुई या नहीं लेकिन ये उनके जीवन की लय को बनाये रखने के लिए जरूरी थे और ये उसी का पुण्य प्रभाव था कि ममत्व की धारा जीवन की कठोर धूप की परवाह किये बिना भी उनके मन में प्रवाहमान थी। उस चिलचिलाती धूप में जब सभी घर बंद किये गरम हवा फेंकते पंखों के नीचे पसरे पड़े थे और किसी बच्चे के रोने की आवाज़ को सुनकर भी अनसुना कर रहे थे वे घर से बाहर आ कर हर घर की आहट भाँप चुकीं थीं। उस पर भी मन न माना तो छत पर जाकर अडोस पड़ोस के हर घर आँगन में झाँक आयीं। कहीं कोई न दिखा लेकिन बच्चे के रोने चीखने की आवाज़ बदस्तूर सुनाई देती रही। उनका मन भर आया शिकायत होंठों पर आने को हुई उस माँ की बेपरवाही पर झुँझलाती सी सोने की कोशिश करती रहीं लेकिन वह आवाज़ तो उनकी ममता को ही पुकार रही थी उन्हें सोने कैसे देती? वे फिर उठ बैठीं और कुछ सतर्क सी आवाज़ का पीछा कर छत पर पहुँच गयीं। धूप की तपिश में भी वात्सल्य की नदी हरहरा रही थी सतर्क आँखें छत पर पड़े कबाड़ की टोह सी लेती लकड़ी की पेटी पर आकर रुक गयी। पास ही रजाइयों का ढेर सूख रहा था। उनकी आहट में ही प्रेम का स्पर्श पा कर वह रोने की आवाज़ बंद हो गयी। उन्होंने एक बार फिर चारों ओर देखा। नज़र फिर पेटी पर टिकी उसे बंद देख कर वे पलटीं और सीढ़ियों की ओर बढ़ गयीं। लेकिन मन को अभी भी बच्चे के रोने की आवाज़ व्यथित कर रही थी। प्रेम पूरित मन के साथ लौटते क़दमों ने अपनी सारी शक्ति कानों को दे दी और बंद पेटी के ढक्कन के धीरे से खटके को पकड़ वे फिर उस तक पहुँच गयीं। किसी और की पेटी को नहीं खोले जाने का … Read more

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

  समकाल में अपनी कविताओं के माध्यम से पाठकों, समीक्षकों का ध्यान खींचने वाली कवयित्रियों में विशाखा मूलमुले एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में उभरी हैं | विशाखा जी की कविताएँ गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति हैं |विशाखा जी की कविताओं में तीन खासियतें  जो मुझे दिखी | उन को क्रमवार इस तरह से रखना चाहूँगी |   कविताओं  को बौद्धिक  होना चाहिए या भाव सागर में निमग्न इस पर समय -समय पर विमर्श होते रहे हैं | बौद्धिक कविताओं का एक खास पाठक वर्ग होता है पर अक्सर आम पाठक को भाव  छूते हैं | वो कविता भावों की वजह से पढ़ना चाहता है |  मेरे विचार से कविता में बौद्धिकता तभी सहज लगती है जब वो अनुभव जगत की हांडी पर पककर तरल हो जाए | यानि ठोस पानी बन जाए .. सघन विरल हो जाए | लेकिन कई बार  बैदधिक कविताओं से गुजरकर ऐसा लगता है.. कि सघनता शब्दों में ही रह गई वो भाव  जगत को आंदोलित नहीं कर पाई | बोधि प्रकाशन के माध्यम से   विशाखा जी केवल “पानी का पुल” कविता संग्रह ही नहीं लाती बल्कि उनकी कविताएँ भी जीवन दर्शन की बर्फ को पिघला पाठक के हृदय में  पानी की तरह प्रवाहित करती  हैं | वो शब्दों का जादुई वितान नहीं तानती और आम भाषा और शब्दों में बात करती हैं |     वैसे तो मुक्त छंद कविता में कई प्रयोग हो रहे हैं पर विशाखा जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित की है | वो छोटे-छोटे संवादों के माध्यम से कविता सहज ढंग से अपनी बात रखती चलती हैं | अगर कहें कि उन्होंने कविता के लिए निर्धारित किये  गए ढांचे को तोड़कर उस जमीन पर  एक नए और  बेहतर शिल्प का निर्माण किया है तो अतिशयोक्ति ना होगी | इस तरह से वो छंद मुक्त कविताओं के शिल्प में आई एकरसता को दूर कर पाठकों को एक नया स्वाद देती हैं |   तीसरी  बात जो उनकी कविताओं में मुझे खास लगी कि वो जीवन के प्रति दृष्टिकोण या जीवन की  को विद्रूपताओं को एक रूपक के माध्यम से पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं | वो रूपक  आम जीवन से इतना जुड़ा  होता है की पाठक उसका को ना सिर्फ आत्मसात कर लेता है बल्कि चमत्कृत भी होता है | कभी वो पानी के पुल का बिम्ब लेती हैं तो कभी घास का या घूँघरू का | पाठक बिम्ब के साथ जुडते हुए कविता से जुड़ जाता है |   पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति   इस संग्रह पर बात करने से पहले एक महत्वपूर्ण बात साझा करना चाहूँगी की ये संग्रह बोधि प्रकाशन द्वारा “दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना के छठे वर्ष” में चयनित व प्रकाशित किया गया है | भूमिका में सुरेन्द्र सुंदरम जी लिखते हैं, “विशाखा मूलमुले की कविताओं में उम्मीद का हरापन है, विरोध की रचनात्मकता है, ठहराव और शनशी के बीच अजीब सी गति है जो उनकी रचनधर्मिता को बड़ा बनाती है |”   शीर्षक कविता “पानी का पुल” एक संवेदनात्मक बिम्ब है | जिस तरह से पुल दो किनारों जो जोड़ता है | खारे, नमकीन आंसुओं की ये भाषा संवेदना और संवाद का एक पुल बनाती है जहाँ से एक का दर्द दूसरे को जोड़ता है | “रक्त संबंधों से नहीं जुड़े हम पानी का पुल है हमारे मध्य और दो अनुरागी साध लेते हैं पानी पर चलने की सबसे सरलतम कला”   कविता “पुनर्नवा” में वो घास की तुलना जिजीविषा से करती हैं |घास तो हर जगह उग जाती है .. मन ? मन तो मुरझा जाता है तो जल्दी खिलता ही नहीं | जब शुरू में वो लिखती हैं की अच्छे दिनों के बीच घास की तरह जड़े जमा लेते  हैं बुरे दिन .. अनचाहे, तो भले ही इन  पंक्तियों में नैराश्य चमके पर अंततः वो निराशा का दामन झटक कर घास को पुनर्नवा की उपमा देती हैं की जो हर विपरीत परिस्थिति में उगती है और मृत्यु के बाद किसी नीड़ के निर्माण में सहायक होती है | क्या एक हारा हुआ  मन घास से प्रेरणा नहीं ले सकता |   “मरकर अमर होती है घास जब चिड़िया करती है उससे नीड़ का निर्माण पुनर्नवा हो जाती तब प्रीत धरती से उठ रचती नव सोपान”     स्त्रियों पर  भले ही  बेवजह रोने के इल्जाम लगें या चिकित्सकीय भाषा में उन्हें मूड स्विंग का शिकार माना जाए पर इसके पीछे के मनोविज्ञान के सूत्र को विपाशा जी “प्रकृति, स्त्री और बारिश”में पकड़ती हैं | वो स्त्री के आंसुओं की बारिशों से तुलना करते हुए कहती हैं की स्त्रियाँ बारिशों को रोकती है .. कपड़े सूख जाए, आचार बर्नी अंदर कर लें या बच्चे  स्कूल से घर आ जाए | उनकी बात मानती हुई बारिशें बरसना मुल्तवी कर देती हैं पर जमा पानी रोकना एक समय के बाद मुश्किल हो जाता है | तब बात मानना बंद कर देती हैं और फिर जो बरसती हैं कि रोके रुकती नहीं | और स्त्री के रुदन  से साम्य मिलाते हुए कहती हैं ..   ठीक इसी तर से रोकती हैं स्त्रियाँ अपने -अपने हिस्से की बारिशें आँखों की कोरों  में अचानक कभी ये बारिशें कारण बिना कारण बीती  किसी बात पर मौसम बेमौसम, बिना किसी पूर्वानुमान के असल, मुद्दल, सूद समेत  बरस पड़ती हैं” कविता घूँघरू में वो घुँघरू को जीवन की विभीषिकाओं से लड़ने के मन हथियार के रूप में देखती हैं .. कोल्हू के बैल  में लगा हो, घोड़ा -गाड़ी के रहट में या फिर गन्ने की पिराई की मशीन में ..  रस से रसहीन हो जाने की यात्रा सुरीली तो नहीं हो सकती पर उस दर्द भरे गीत से विलग कर घूंघरुओं की धुन से मन तो बहलाया जा सकता है | “ताकि भटका रहे मन और चलता रहे जीवन” एक बहुत ही खूबसूरत कथन है “अगर आप अपने बच्चों को कुछ देना चाहते हैं तो उन्हें स्मृतियाँ दीजिए|” और राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी जब लिखते है, “यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे” तो शायद उनकी कल्पना में यह महानगरीय काल आया होगा | “मनुष्य मकान और महानगर की व्यथा” कविता  जिसने मेरा  विशेष रूप से ध्यान खींचा, महानगरीय जीवन … Read more

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

  शब्द संधान प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय रमेश उपाध्याय जी के कहानी संग्रह  “शहर सुंदर है”  के 250 पेज में समाई 19 कहानियों में  आम जीवन में हाशिये पर रहने वाले दलित,  शोषित, वंचित तबके के जीवन की वो गाथाएँ हैं जिन्हें सुनने का अमूमन किसी के पास वक्त नहीं होता है | पर ये कहानियाँ हमारी पूंजीवादी व्यवस्था के मखमली कालीन के उन छिद्रों को  दिखाती हैं जो असमान  विकास का वाहक है | जहाँ अमीर और.. और अमीर और गरीब और गरीब हो हाशिये पर छूटता जाता है | कमजोर नींवों पर खड़ी विकास की अट्टालिकाओं का भविष्य क्या हो सकता है ? पर लेखक हतोत्साहित नहीं है | वह  एक यथार्थवादी लेखक के तौर पर उस  यथार्थ की सीवन खोल कर दिखाते हुए भी  एक सुंदर भविष्य का सपना देखते हैं और  इस सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष पर जोर देते हैं | इस संग्रह की कहनियाँ  बहुत ही सरल सहज भाषा में हैं, इसमें शामिल हर कहानी में शिल्पगत प्रयोग हैं, पर वो ऐसे नहीं हैं की दुरूह हो और पाठकों को अति बौद्धिकता के जंगल में  भटका दें बल्कि वो कहानी की सहजता और प्रवाह में वृद्धि करने वाले है |   संग्रह की भूमिका में संज्ञा उपाध्याय जी लिखती हैं कि यथार्थवादी साहित्य का काम होता है, अपने समय और समाज के मुख्य अंतर्विरोधों को सामने लाकर सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन करना|”   यथार्थ को उद्घाटित करती इस संग्रह  की कहानियाँ  जैसे “दूसरी आजादी”  में वैचारिक जकड़बंदी से आजादी की, “अग्निसम्भवा” में समाज में स्त्री के ऊपर लगाए गए पहरों की, “शहर सुंदर है” में ऐशियाई खेलों के दौरान चमकती दिल्ली में गंदे गुमनाम इलाकों की तो “राष्ट्रीय राजमार्ग” में पूरे सरकारी तंत्र में फैले भ्रस्टाचार की बात करती हैं | इन सारी बड़ी कहानियों में गंभीर मुद्दों के साथ भले ही पात्रों के नाम हों पर संग्रह की छोटी कहानियाँ उन नामों से भी मुक्त हैं | यहाँ मौसम विभाग का वैज्ञानिक है, नल की लाइन खोलने वाला नलसाज है | मिट्टी खोदने वाला है, बिजली के बल्ब बदलने वाला एक कर्मचारी है | यहाँ वो उन पात्रों के नाम नहीं देते हैं बल्कि मिट्टी खोदने वाला एक आदमी आदि कह कर पूरे वर्ग की पीड़ा संप्रेषित करते हैं | शिल्प के लिहाज से अलहदा ये छोटी परंतु मारक कहानियाँ हैं | जो सीधे -सीधे व्यवस्था पर तंज करती हैं |   शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ वैसे तो सभी कहानियाँ सर्वहारा वर्ग को केंद्र में रख कर लिखी गयी है| फिर भी संग्रह  की कहानियों को मैं तीन भागों में बाँट कर देख रही हूँ | मुख्य रूप से स्त्री अधिकारों की बात करती कहनियाँ भ्रस्टाचार का मुद्दा उठाती कहानियाँ वर्ग चेतना को जागृत करती कहानियाँ   सबसे पहले बात करते हैं स्त्री अधिकारों की बात करती  हुई कहानियाँ  दो कहनियाँ प्रमुख हैं “दूसरी आजादी और अग्निसंभवा   संग्रह की पहली ही कहानी “दूसरी आजादी” ही इस मामले में खास है |  यह  कहानी दलित वर्ग की एक ग्रामीण स्त्री मँगो की कहानी है | मँगो खुली जेल में है,  वो भी उसके यहाँ  जिस ठाकुर फूल सिंह ने उसके परिवार के चारों सदस्यों को  पूरी चमार टोले  में आग लगवा कर भस्म किया था | बेगार करती मँगो को दिन भर मेहनत के बदले में रूखा-सूखा खाना मिलता है | जेल इतनी सख्त की उसे अपनी टोले  में जाने की, अपनी बेटी से मिल आने की इजाजत नहीं है | इस कहानी में इमरजेंसी और उसके बाद की स्थिति भी दिखाई गई है | जहाँ इमरजेंसी के दिनों में  उसके टोले के सभी लोगों को कानून का डर दिखा कर चुप करा दिया जाता है, वहीं इमर्जेंसी हटने पर उसकी टोली के किसान फिर जुडने लगते हैँ | किसान  यूनियन उसे  “भारत माता” के नाम से संबोधित करती है | वो उसे आजाद कराना चाहते हैँ | पाठक को लगता है कि गाँव में शारीरिक शोषण से आजादी ही संभवत : दूसरी आजादी होगी, पर कहानी आगे बढ़ती है | उसको उस जेल से आजादी मिलती है पर उसको दूसरी जेल में डाल दिया जाता है | यहाँ भावनात्मक शोषण है | जहाँ  तनख्वाह नहीं मिलती | आप तो हमारे घर का सदस्य हैं कह कर  इज्जत तो दी जाती है, पर कामवाली मानकर काम पूरा करवाया जाता है | दरअसल  वो इज्जत असली इज्जत नहीं है वो इज्जत रुपये ना देने का एक बहाना है | देखा जाए ये भावनात्मक शोषण हर स्त्री का होता है, खासकर माँ के रूप में | माँ को देवी कहा जाता है पर उसका शोषण घर-घर में होता है | यहाँ मँगो मालिक की माँ से अपनी तुलना करती रहती है .. वही काम तो माँ करती थी अब वो करती है | यानि वो माँ की ऐवजी है उसकी नौकरी स्थायी  नहीं है | जब माँ कहती है की मँगो यहाँ है तो अब वो इस रसोई का पानी भी नहीं पी सकती तो मँगो मन में सोचती है, “धौंस किस बात की देती है | बड़ी बामनी बनी फिरती हो | काम करेगी तो दो रोटी डाल देंगे | नहीं तो कहीं भी जा कर मर | यहाँ पानी देने वाला बैठा  ही कौन है| इमोशनल शोषण जो हमारे घरों में होता है उस का एक रूप तब दिखाई देता है, जब विश्वकान्त घर में जितना जेवर था सब निकाल लाते हैं |और मँगो से कहते हैं, “लो सब रख लो, सब तुम्हारा है |” मँगो भी गुलाम बनाए जाने के इस इस ट्रैप में फँसती है | और ये उसे का परिवार है सोच कर  तनख्वाह माँगने के अपने जायज हक का ख्याल छोड़ देती है | लेकिन मालिक पति-पत्नी की बातों से उसे अंदाजा होने लगता है, और वो इसके विरोध में अपनी आवाज उठाती है |   इस कहानी के अंत में मँगो जब कहती है, नाम बदल देने से असलियत थोड़ी ही बदल जाती है बाबूजी |  अपनी अम्मा को तुम मँगो जैसी नौकरानी मानो तो  मानो पर मैं तुम्हारी अम्मा कैसे हो सकती हूँ | मँगो द्वारा अपने श्रम का मूल्य हासिल करना कहानी को एक न्यायोचित सकारात्मक अंत … Read more