अटूट बंधन अंक -१२ सम्पादकीय -सपनों के चाँद पर पहला कदम
आसान होता है मन की धरती के चारों ओर परिक्रमा करने वाले सपनों के चाँद को परात भर पानी में उतार कर मन बहला लेना पर आसान नहीं होता सपनों के चाँद पर रखना पहला कदम जूझना पड़ता है असीमित निराशाओ से हर दिन लिखनी पड़ती है संघर्ष की दास्ताने तोड़ना पड़ता है गुरुत्वाकर्षण के माया जाल को पर जब उद्देश्य हो जाते है वृहत सपने बन जाते है प्राण सम्पूर्ण मानवता में उजास फैलाने की ईक्षा बन जाती है ईधन तब केवल तब कुछ भी असंभव नहीं रहता जैसे चाँद खुद उतर आता है मन की धरती पर फैलाने को उजियारा दिश –दिगंत में …… सुबह के साढ़े ४ बजे है मैं हमेशा की तरह किसी विषय की तलाश में अपनी बालकनी का दरवाज़ा खोलती हूँ | बाहर ठंडी हवा चल रही है | आसमान पर भोर का तारा अभी भी विराजमान है ,कुछ प्रतीक्षारत सा | वहीँ क्षितिज पर एक युद्ध चल रहा है धीरे धीरे ,चुपके –चुपके , किसी की नींद में खलल न पड़े | ये युद्ध चल रहा है …अंधेरों और उजाले के मध्य | अँधेरा लाख कोशिश करेगा अपने साम्राज्य को बचाए रखने की पर उजाला उसे चीर कर निकलेगा | तभी मेरे दृष्टि अपनी बालकनी में रखे गमले पर पड़ती है | ये क्या ! नन्हे –नन्हे अंकुर मिटटी का सीना चीर कर छोटी –छोटी छतरी तान कर विजेता की मुद्रा में खड़े हैं | मन ख़ुशी से नाच उठता है| कितना संघर्ष किया हुआ होगा इन बीजों ने … पहले अपने कठोर आवरण के विरुद्ध , फिर मिटटी की पर्तों के विरुद्ध , फिर प्रकृति के विरुद्ध | न जाने किसने कहा होगा इनके कान में “ बीजों तुम सोये मत रहो , संघर्ष करो , बाहर आओ | शायद किसी ने नहीं | जब प्रेरणा स्वस्फूर्त हो , इरादे नेक हों तो परिणाम अपना आरंभ स्वयं चुन लेता है | जब ये भाव आत्मा में तिरोहित हो जाता है तो संघर्ष ,संघर्ष नहीं रह जाता वो प्राण बन जाता है | मुझे मेरा विषय मिल गया था | कुछ लिखने की आस में जैसे ही मैंने अपना लैपटॉप खोला | वाल पेपर ने मेरा ध्यान खींच लिया | शायद बच्चों ने रात में बदला होगा | चाँद पर पहला कदम रखते हुए नील आर्मस्ट्रांग , नीचे तारीख अंकित थी २१ जुलाई १९६९ | एक तारीख जो पूरे विश्व के लिए अविस्मर्णीय हो गयी | भविष्य में चाँद पर शायद मानव बस्तियाँ बसे , गेंहू और चावल की फसले लहलहाए ,पर उस पहले कदम का अपना ही एक सुख है ,अपना ही एक आनंद है | | कहते हैं चाँद पर कदम रखते ही नील आर्मस्ट्रांग ने अपना वजन बहुत हल्का अनुभव किया | विज्ञान कहता है यह गुरुत्वाकर्षण के अंतर के कारण होता है | पर मेरा कवि मन न जाने क्यों एक अलग ही परिभाषा गढ़ता है | पराजय ,दुःख और निराशा भारी होते हैं | गहरे बैठ जाते हैं ,अंतस के किसी कोने में , स्वयं ही स्वयं को गुरुतर प्रतीत होता है | सफलता , विजय बोध और खुशियाँ हलकी होती हैं , फूल सी ,जो तैरती हैं मन के ऊपर , आत्मा के ऊपर | मुंशी प्रेम चन्द्र रंगभूमि में लिखते है “ अफलता में अनंत सजीवता होता होती है और विफलता में असह्य अशांति | पर ये सफलता स्वयं चल कर तो नहीं आती | कैसा विचित्र संयोंग है | जो प्रत्यक्ष है वो कल्पना में बहुत पहले जन्म ले चुका होता है | फिर शुरू होता है कल्पना को हकीकत में बदलने का सफ़र |एक जिद्द , एक धुन ,एक संघर्ष ,एक जूनून | ऐसे ही कोई न कोई चाँद हमारे मन के चारों ओर चक्कर लगा रहा होता है | वो होता है हमारे सपनों का चाँद | हर रात झिलमिलाता अपने पास बुलाता सा , मन ललचाता सा | जिसे देखते तो हैं हम रोज पर दूर से |कभी –कभी यूँ ही मन बहलाने के लिए उसे परात भर पानी में उतार देते हैं | क्योंकि हम जानते उस चाँद पर कदम रखना इतना आसान नहीं हैं | ये एक संघर्ष का रास्ता है | जिसमें बहुत ईधन की ,बहुत त्याग की ,बहुत समर्पण की आवश्यकता है | पर कुछ बिरले ही होते हैं जो उस सपने के चाँद पर कदम रखनेका संकल्प लेते हैं | फिर शुरू होता है सपनों को हकीकत में बदलने का संघर्ष भरा सफ़र | कितना बड़ा यथार्थ कह देता है डॉ अबुल कलाम का ये कथन “ सपने वो नहीं होते जो आप रात में देखते हैं | सपने वो होते हैं जिनके लिए आप सोना ही छोड़ दे “| जिस ने भी सपनों को हकीकत में बदलने का सफ़र किया है ,वो ही जानता है संकल्प लेने के बाद भी पहले की तरह सेकंड मिनट में, मिनट घंटों में ,घंटे दिनों में और दिन महीनों में बदलते हैं पर समय ठहर जाता है | सोते –जागते , खाते –पीते , हँसते रोते केवल एक ही लक्ष्य ,केवल एक ही जूनून ,केवल एक ही धुन सपने को हकीकत में बदलने की , शुरुआत एक संघर्ष की | मैं टाइप करती हूँ अंक -१२ सम्पादकीय ……. सपनों के चाँद पर पहला कदम | मेरे सामने “अटूट बंधन “ के पिछले ११ अंक रखे हैं | सपने संघर्ष और जीत का पूरा एक वर्ष | मन भावुक हो जाता है और आँखे नम | जीवन में ऐसे बहुत कम मौके आते हैं जब इंसान की आँखों में ख़ुशी के आँसूं होते हैं | बेहद कीमती होते हैं ये आँसू | बस चले तो इंसान किसी नक्काशी दार डिब्बी में लाल कपडे के अन्दर मोती की तरह सहेज कर रख ले | पर इतना तो है ही कि ये स्मृतियों की डिब्बी में बड़ी खूसुरती से संग्रहित हो जाते हैं | सुबह हो गयी है | पास के मंदिर से शंख और घंटियों की आवाज़े आ रही हैं | प्रात : कालीन आरती हो रही हैं | मेरे हाथ स्वत : ही जुड़ जाते हैं और कदम बालकनी की ओर मुड जाते हैं| बहुत बार सुना था जब किसी चीज को दिल से चाहो ,तो पूरी … Read more