इंजिनियर का वीकेंड और खुद्दार छोटू

आज कल हम आईटी. वालो को भले ही दिहाड़ी मजदूर जैसे तख्ते ताज़ो से नवाज़ा जाता है लेकिन इस घनचक्कर आईटी जॉब का एक बहुत बड़ा फ़ायदा  है,हमारा वीकेंड 2 दिन का होता है , जिसमे शुक्रवार की रात हमारी वैसे ही निकलती है जैसी स्कूल की गर्मी की छुट्टियों के पहले का आखरी दिन होता था|  छुट्टी मे ये कर देंगे, वो कर देंगे और ना जाने कितने कितने बेफ़िज़ूल वायदे जो हम अपने से कर लेते थे फिर कुछ लड़के थोड़ी रंग बिरंगी बोतलों और बातो से पूरी रात निकाल  देते है और कुछ रंग बिरंगी फ़िल्मो से| ऐसी ही किसी एक  शुक्रवार की रात मै कुछ 3-4 बजे कोई 1990 की टिपिकल बॉलीवुड फिल्म देख के सोया था और शनिवार को चौड़े हो कर दिन के 12 बजे उठा.हुमारा लिए वो शनिवार की सुबह किसी रिटायर्ड  आदमी से कम नही होती , अख़बार के पहले पेज से आखरी पेज तक मैने कुछ दो  घंटे ले लिए थे और साथ मे ब्रश और नित्य क्रियाएं निपटा ली थी. इंजिनीयर्स का नहाने से कुछ वैसा ही संबंध है जैसा की बॉलीवुड फ़िल्मो मे रंजीत का अच्छाई से होता था. सो हमने उस दिन भी इसी परंपरा को जीवंत रखा और अख़बार समेट के चल दिए 2 बजे नाश्ता करने, या यूँ कह लीजिए लंच करने.मै बंगलोर मे रहता हूँ, दक्षिण भारत के इस शहर मे कानपुर से ले कर मुंबई और गुजरात से ले कर तमिलनाडु तक हर प्रजाति के लोग पाए जाते है| बहराल मै अपनी भूख मिटाने एक  मुंबइया ढाबे पर  जा पहुँचा| भाई वाह , क्या  माहौल था वहाँ का, मालिक ने नौकरो के नाम गाँधी, मनमोहन और अटल रखे हुए थे, मतलब ठीक उनकी प्रवत्ति के अनुसार. मैने भी वहाँ भीड़ मे एक  स्टूल पकड़ लिया और आवाज़ दी ‘छोटू‘. वैसे आपने कभी महसूस किया है की “ये जो छोटू होते है, ये अक्सर अपने घर के बड़े होते हैं”.बाल -श्रम निश्चित तौर पर दुखद है|  पर दर्दनाक सच्चाई ये भी है कि हमारे समाज में गरीबी और भुखमरी के चलते तमाम छोटूओ को चाहते न चाहते हुए अपने परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है | गरीब परिवारों के खाली पेट मात्र कानून से नहीं भरते | खैर ! अगले ही पल छोटू मेरे सामने खडा था | उस छोटू ने मुझे ढाबे का मेनू वैसे ही सुना दिया जैसे उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों  को हनुमान चालीसा मुँह  ज़बानी याद होती है. मैने भी अपने नाश्ते और लंच को जोड़ते हुए कुछ आलू के पराठे और चाय ऑर्डर कर दी|               गौरतलब  बात ये है की कई बार साउथ  इंडिया मे आपको वो स्वाद मिल जाता है जो की नॉर्थ इंडिया मे भी नही मिला होता है. इस मुंबइया के यहाँ भी कुछ ऐसी ही बात थी. चार  पराठे, बटर और चाय के साथ डकार मारते हुए मैने छोटू को दुबारा आवाज़ दे कर बिल माँगाया. वो छोटू कुछ 12-13 साल का रहा होगा. मैने उसे अपने बटुए से कुछ 5 रुपये एक्सट्रा दिए और बैठ के पानी पीने लगा. मुझे लगा लड़का पाँच रुपये अपनी जेब मे डालेगा और बाकी का बिल पैसो सहित मालिक को पकड़ा देगा. लेकिन उस छोटू की खुद्दारी देख के मुझे अपने उपर शर्म आ गयी जब उसने वो सारे पैसे मालिक को दिए और बोला साहब ने टिप भी दी है. मालिक को उससे क्या, उसने उसे एक  रुपया भी नही दिया और पूरा अपने गल्ले मे डाल लिया. मैने उस समय तो कुछ नहीं कहा और अपना बाकी का दिन आगे बढ़ाया. चूँकि मै उस एरिया मे ही रहता था , इसलिए मै अक्सर उस ढाबे पर  ही जा के वीकेंड का जायका लिया करता था. धीरे धीरे उस छोटू की आँखो से भी दोस्ती हो गयी और मेरे आते ही वो चाय तो अपने आप ला के रख देता था|                       उस साल मुझे कंपनी के काम से विदेश जाना पड़ा एक  लंबे प्रॉजेक्ट के लिए|उन 4-5 सालो मे मै युरोप के कई देश घूमा , वापस बंगलोरे आ के मैने दोबारा रूम देखा लेकिन इस बार एरिया दूसरा था| खैर धीरे धीरे वहाँ भी जिंदगी सेट्ल हो गयी. हमारी इंजिनीयरिंग  प्रजाति मे ये चीज़े अडॉप्ट कर लेने की बड़ी अच्छी आदत होती है | जगह कोई भी हो, कुछ चाय और सिगरेट पर  बड़े गहरे दोस्त बन जाते हैं और आप खुद को उस एरिया का बादशाह समझने लगते हैं|. विदेश से थोड़ी सेविंग कर के मैने बंगलोरे मे घर खरीदने का प्लान किया और जगह जगह खोज शुरू हो गयी. संयोगवश मै वापस उसी मुंबइया ढाबे पर  आ पहुँचा , सब कुछ वैसे का वैसा ही था. बाहर कुछ लड़के सिग्रेट फूँकते हुए रोहित शर्मा को गाली दे रहे थे और अंदर वैसी ही भीड़ थी. उस पराठे की खुश्बू मे मैने वापस एक  स्टूल पकड़ लिया और फिर वही आवाज़ लगा दी ‘छोटू‘.| इस बार एक नया छोटू था लेकिन ऑर्डर वही पुराना था और चाय भी वही पुरानी मलाई वाली| खा पी के बिल देने मै खुद ही काउंटर की ओर बढ़ चला. जब वहाँ मैने टोटल ऑर्डर वग़ैरह बताते हुए जैसे ही पर्स निकाला और सामने देखा.                  अरे ये तो वही लड़का था जो 4-5 साल पहले मेरे आते ही चाय ला देता था, छोटू अब बड़ा हो गया था. रिश्ता थोड़ा पुराना ज़रूर था हमारा लेकिन थोड़ी बातचीत के बाद वो भी मुझे पहचान गया| वो अब 18 साल का नौजवान हो गया था और खुद ही ढाबा चला रहा  था. बातो बातो मे उसने बताया की मालिक ने कई और ढाबे खोल लिए हैं और इस ढाबे की ज़िम्मेदारी उसे दे दी है| वो 18 साल का लड़का अभी एक  पूरी दुनिया चला रहा था उस ढाबे के अंदर , सामान से लेकर ग्राहक तक, हर ज़ुबान पे उसका ही नाम था फिर भी वो सब कुछ बड़े आराम से संभाल रहा था|  ये बताते समय उसकी आँखों में गर्व था और मेरी आँखों में सम्मान का भाव | ये वो मैनेजमेंट  है ,जो किसी भी आई आई एम  या आई आई टी से नहीं आता, ये जिंदगी की ज़रूरतो से लड़ते हुए खुद बखुद आ जाता … Read more

अम्बरीश त्रिपाठी की कवितायें

                       कहते हैं साहित्य सोचसमझकर  रचा नहीं जा सकता  बल्कि जो मन के भावों को कागज़ पर आम भाषा में उकेर  दे वही साहित्य बन जाता है …… कई नव रचनाकार अपनी कलम से अपने मनोभावों को शब्दों में बंधने का प्रयास कर रहे हैं …… उन्हीं में से एक हैं अम्बरीश त्रिपाठी जो पेशे से सॉफ्टवेर इंजिनीयर हैं पर पर उनका  मन साहित्य में भी सामान रूप से रमता है | उन के शब्दों में उनके मासूम भाव जस के तस बिना किसी लाग लपेट के कागज़ पर उतरते हैं  …. और पाठक के ह्रदय को उद्वेलित करते हैं | अटूट बंधन का प्रयास है की नयी प्रतिभाओ को सामने लाया जाए इसी क्रम  में आज अटूट बंधन ब्लॉग पर पढ़िए …….. अम्बरीश त्रिपाठी की कवितायें  आज थोडा परेशान हूँ मैं आज थोड़ा परेशान हूँ मैं कहीं अंधेरो मे निकलते हुए पाया की अभी भी बाकी कहीं थोड़ा इंसान हूँ मैं सुबह की दौड़ मे भागती कोई जान हूँ मैं अपने ही बीते हुए कल की छोटी सी पहचान हूँ मैं कभी अपनो के दिल मे बसा सम्मान हूँ मैं तो कभी किसी का रूठा हुआ कोई अरमान हूँ मैं देखता हूँ आज जब जिंदगी को मुड  के पीछे तो पाता हूँ बस इतना की कागज के टुकड़ो से बना कोई भगवान हूँ मैं गिरता संभलता हाथो मे पड़ता किसी भिक्षा मे दिया हुआ कोई दान हूँ मैं कभी बच्चे की कटी पतंग के जैसे आकाश मे लहराती कोई उड़ान हूँ मैं खुदा को समझने मे बिता के पूरी ज़िंदगी आख़िर मे है बस इतना पाया की मस्जीदो मे गूँजती अज़ान हूँ मैं पेडो से पत्तो से पौधो से उगते कुछ महकते हुए फूलो की मुस्कान हूँ मैं तारो सितारों के जहाँ से कई आगे ब्रह्मांड मे चमकता कोई वरदान हूँ मैं लिख के इतने अल्फ़ाज़ जो वापस मैं आया तो पाया की वापस वीरान हूँ मैं माँ  जब भी उठता था सुबह,चाय ले के मेरे सामने होती थी रात में मुझे खिला के खाना,सबको सुला के ही सोती थी बीमार जो होता कभी मै,तो घंटो गीली पट्टियां मेरे सिर पे रखती थी मेरी हर उलटी सीधी जिद को बढ़ चढ़ के पूरा करती थी बचपन में स्कूल जाते वक़्त ,मै उससे लिपट के रोया करता था रात को अँधेरे के डर से,उसके हाथ पे सिर रख के सोया करता था छुट्टी के दिन भी कभी उसकी छुट्टी नही हो पाती थी पूछ के हमसे मनपसंद खाना,फिरसे किचन में जुट जाती थी सरिद्यों में हमे अपने संग धूप में बिठा लेती थी अलग अलग रंग के स्वेटर हमारे लिए बुना करती थी सुबह के नाश्ते से रात के दूध तक बस मेरी ही चिंता करती है ऐसी है मेरी माँ,जो हर दुआ हर मंदिर में बस मेरी ख़ुशी माँगा करती है कहने को बहुत दूर आ गया हूँ मै,पर हर वक्त उसका दुलार याद आता है खाना तो महंगा खा लेता हूँ बाहर,पर उसके हाथ का दाल चावल याद आता है घूम लिए है देश विदेश,पर उसके साथ सब्जी लेने जाना याद आता है स्कूल से आ के बैग फेक के उसके गले लग जाना बहुत याद आता है आज भी जब जाता हूँ घर,फिरसे मेरी पसंद के पराठे बना देती है मेरे मैले कपड़ो को साफ़ करके ,फिरसे तहा देती है जब जा रहा होता हूँ वापस,फिर से उसकी आंखे नम हो जाती है सच कहता हूँ माँ ,अकेले में रो लेता हूँ पर मुझे भी तू बहुत याद आती है सच को मैंने अब जाना है एक फांस चुभी है यादो की , हर राह बची है आधी सी  कुछ नज्मे है इन होठो पर,आवाज़ हुई है भरी सी  सांसो में ये जो गर्मी है ,आँखों में ये जो पानी है  है रूह भी मेरी उलझी सी,राहे भी मेरी वीरानी है  इस चेहरे पे एक साया है,जो खुद से ही झुंझलाया है  मुड़ के देखा है जब भी वो,कुछ सहमाया घबराया है  फिर से उठना है मुझको अब,शायद फिर से कुछ पाना है  एक आइना है साथ मेरे,बस खुद से नज़रे मिलाना है  बचपन के कुछ चर्चे भी है,यौवन के कुछ पर्चे भी है है साथ मेरे अब भी वो पल,कुछ मासूम से खर्चे भी है कुछ सपने है इन पलकों पर,वो अपने है फिर फलको पर दौलत ओहदे सब ढोंग ही है,जीवन चलते ही जाना है खोजा है सच को मैंने जब,पाया है खुद को तब से अब वो आज दिखा है आँखों में,उसको मैंने पहचाना है अल्ला मौला सब एक ही है,ना राम रहीम में भेद कोई जाती पाती में पड़ना क्या,ये मुद्दा ही बचकाना है मंदिर मस्जिद जा कर भी तो,बस दौलत शोहरत मांगी है जो दिया हाथ किसी बेबस को,तो खुद से क्या शर्माना है कहता है ये ‘साहिल‘ भी अब,कुछ देर हो गयी जगने में जाने से पहले दुनिया में,एक हस्ती भी तो बनाना है इतना कहूंगा दोस्तों तुम्हारे बिना आज भी रात नहीं होती ये तो न सोचा था कभी कि इतना आगे आ जाऊंगा मै सोच कर पुराने हसीँ लम्हे,अकेले में कहीं मुस्कुराऊंगा मै याद आते है सारे पल उस शहर के,उनमे क्या फिरसे खो पाउँगा मै वो छोटी से पटरी पे प्लास्टिक कि गाड़ी,अब न कभी उसे चला पाउँगा मै वो गर्मी कि छुट्टी , वो भरी हुई मुठ्ठी  वो पोस्टमैन का आना और गाँव कि कोई चिठ्ठी मोहल्ले के साथी और क्रिकेट के झगड़े वो बारिश के मौसम में कीचड वाले कपड़े वो पापा का स्कूटर और दीदी कि वो गाड़ी वो छोटे से मार्केट से माँ लेती थी साड़ी भैया कि पुरानी किताबो में निशान लगे सवाल वो होली कि हुडदंग  में उड़ता हुआ गुलाल दीवाली के पटाखे और दशहरे के मेले काश साथ मिल कर हम फिर से वो खेले स्कूल के वो झगड़े और कॉलेज के वो लफड़े वो ढाबे की चाय और लड़कियों के कपड़े सेमेस्टर के पेपर और रातों की पढाई आखिर का सवाल था बंदी किसने पटाई हॉस्टल के किस्से और जवानियों के चर्चे वो प्रक्टिकल में पाकेट में छुपाये हुए पर्चे वो सिगरेट का धुआं और दारू की वो बस्ती आज भी चल रही है उधर पे ये कश्ती आज … Read more