व्यंग :तीन बन्दर -अरविन्द कुमार खेड़े

बंदरों के सरदार ने आपात बैठक बुलाई थी । जंगल के सारे बंदर अपने-अपने हाथों का काम छोड़कर दौड़े-दौड़े चले आ रहे थे । सभी चिंता में, ऐसी क्या बात हो गयी कि, आपात बैठक बुलानी पड़ी ? कहीं भगवान श्रीराम ने फिर से जन्म तो नहीं ले लिया ? कहीं श्री राम को फिर से वनवास तो नहीं हो गया ? कहीं रावण ने फिर से सीताजी का हरण तो नहीं कर लिया ? कहीं फिर से श्रीराम को बंदरों की जरूरत तो नहीं पड़ गयी ? मन में कईं तरह की आषंकाएं/कुषंकाएं लेकर चले आ रहे थे । बंदरों का सरदार चिंताग्रस्त होकर चहल-कदमी कर रहा था । इधर मंच की ओर षिलाखंडों पर बूढ़े बंदर विराजमान थे, जो सरदारी करते हुए रिटायर्ड हुए थे । सामने बंदरों का विषाल समुदाय बैठा था, जो सरदार के बोलने का इंतजार कर रहा था । सरदार ने आष्वस्त होकर कि, अब सारे बंदर आ चुके होगें, और जो नहीं आये होगे, उन्हें बंदरियों ने परमिषन नहीं दी होगी । सरदार को ऐसे कायर बंदरों की कोई परवाह नहीं जिनका अपनी जाति की अस्मिता के सवार पर खून न खौले । प्रारंभिक उद्बोधन के बाद सरदार ने कहना प्रारंभ किया, ‘‘आज भले ही मनुष्य सृष्टि का सिरमौर हो, लेकिन वह भूल रहा है कि हम उनके पूर्वज रहे हैं । ’’ सरदार के उद्बोधन में मनुष्य का जिक्र आते ही बंदरों मे खलबली मच गयी । मतलब मामला मनुष्य से संबंधित है । मतलब मनुष्यों की गलती की सजा हमें फिर भुगतनी पड़ेगी । हमे फिर मनुष्यों के लिए लड़ाई लड़नी होगी । षोर बढ़ गया था । वरिष्ठ बंदरों ने खड़े होकर ‘‘षांत हो जाओ’’ की अपील की, फिर सरदार से समवेत स्वरों मे पूछा, ‘‘क्या बात है सरदार ? ’’ ‘‘बात हमारी वानर जाति की गरिमा और अस्मिता की है । आखिर कब तक हमारा मजाक उड़ाया जायेगा ? कब तक हम उपहास के पात्र बने रहेगें ? ’’ फिर षोर मच गया । वरिष्ठ सरदारों को एक बार फिर षांत रहने की अपील करनी पड़ी । सरदार से खुलकर मामला बताने को कहा । ‘‘बापू के तीन बंदर । हमने सोचा था कि, बापू के साथ ही बापू के तीन बंदरों का किस्सा खत्म हो जायेगा । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । बापू के तीन बंदरों के नाम पर आज भी हमें षर्मिन्दगी झेलनी पड़ रही है । ’’ वरिष्ठ बंदरों को बीच में टोकना पड़ा, ‘‘साफ-साफ कहो, क्या कहना चाहते हो ? ’’ ‘‘जब भी मनुष्य को कोई नैतिक षिक्षा देनी हो, नैतिक पाठ पढ़ाना हो, नैतिक सबक देना हो, बात हमसे षुरू की जाती है-बापू के तीन बंदर, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो । आज हम तीन बंदर बापू के संदेष के ट्रेडमार्क बन गये हैं । मेरा सवाल है, बंदर ही क्यों ? जंगल में और भी तो जानवर है , फिर हमें  ही क्योें मजाक बनाया जा रहा है ? ’’ कुछ पल रूककर सरदार ने फिर कहना प्रारंभ किया, ‘‘ये सरासर हमारा अपमान है । नैतिकता की व्याख्या और उदाहरण के लिए ढेरों किस्से हैं, ढेरों कहानियां हैं । फिर हम ही क्यों ? ये चलन बदलना होगा, नहीं तो हमारी आने वाली पीढि़यां इसी तरह अपमानित होती रहेगी । ’’ सरदार कहते-कहते रूक गये थे । सभा में सन्नाटा छा गया था । सरदार सही कह रहा है । बात धीरे-धीरे समझ में आ रही है । अचानक एक साथ आवाजे आयी, ‘‘अब क्या होगा ? हमें क्या करना होगा ? ’’ ‘‘सरकार के खिलाफ विद्रोह ।’’ सरदार ने कहा । सभा में फिर से सन्नाटा छा गया । विद्रोह ? सरकार के खिलाफ ? ‘‘हां, विद्रोह’’ सरदार ने अपनी बात दृढ़तापूर्वक दोहराई थी । एक वृद्ध बंदर ने कहा,‘‘चूंकि, हम बापू के अनुयायी रहे हैं । यह बात बापू के आदर्षो के खिलाफ होगी । ’’ एक साथ कई बंदरों ने इस वृद्ध बंदर के पक्ष में अपनी गर्दने हिलाई । देर तक मंत्रणा चलती रही । निर्णय हुआ कि, बुजुर्ग बंदरों के साथ सरदार के प्रतिनिधित्व में एक प्रतिनिधि मंडल सरकार से मिलने जाएगा । इस बारे में सरकार से चर्चा की जाएगी । और इस श्राप से बंदरों को मुक्ति दिलाई जाएगी । अगले दिन सरदार के नेतृत्व में बंदरों का प्रतिनिधि मंडल सरकार से मिला । पूरी वस्तुस्थिति बतायी और और इस अभिषाप से मुक्त करने के लिए अनुरोध किया । सरकार ने अकेले-अकेले विचार करना और निर्णय लेना उचित नहीं समझा । सरकार ने कहा था कि, इस संबंध में अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई जाएगी । गहराई से विचार किया जाएगा । और उम्मींद करते हैं कि, समस्या का सकारात्मक हल निकलेगा । साझा निर्णय लेने का यह ज्ञान मुझे सरकार से मिला । जब सिर फुड़वाने का मौका आये तो, हम अकेले ही क्यों ? इसलिए सरकार अकेले-अकेले निर्णय नहीं लेती है । निर्णय लेने के लिए मसले को सदन में रखा जाता है । सरकार आंकलन करना चाहती है कि, कितने सिर फूटेगें ? सिर फूटना अब सर्वसम्मति का प्रतीक बन गया है । नियत तिथि पर मंत्रिमंडल की बैठक आहूत हुई, जिसमें एक बार फिर बंदरों का प्रतिनिधिमंडल भी उपस्थित हुआ । सरदार ने अपनी बात रखी । अपना पक्ष रखा, अपना मत रखा । सरकार ने ध्यान से सुना, मंत्रिमंडल में इस मुद्दे के हर पहलू पर बहस की । गहन विचार विमर्ष के बाद सरकार ने कहा, ‘‘बापू के तीन बंदर, लोग इस जुमले के अभ्यस्त हो चुके हैं । एकदम से बंदर के स्थान पर किसी दूसरे को प्रतिस्थापित किया तो समझिए, समस्या सुलझने के बजाए और उलझ जाएगी । ’’ सरकार ने ‘‘जो जैसा है, वैसा ही चलने दे’’ का अनुरोध किया । लेकिन सरदार टस से मस नहीं हुआ । फिर सरकार ने लालच देनी चाही । सरदार ने अस्वीकार कर दी । मामला संगीन हो गया था । और अंततः सरकार ने अपने मंत्रिमंडल से सलाह-मषविरा करने के बाद कहा, ‘‘देखिए, एकदम से बदलाव संभव नहीे, एक-एक करके तीनों बंदरों को मुक्त किया जाएगा । इसमें समय लग सकता है । यदि प्रतिकूल परिस्थतियां निर्मित नहीं होती है तो, एक-एक करके तीनों … Read more

अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ

                    अरविन्द जी की कविताओं में एक बेचैनी हैं ,जहाँ वो खुद को व्यक्त करना चाहते हैं।  वही उसमें एक पुरुष की समग्र दृष्टि पतिबिम्बित होती है ,”छोटी -छोटी खुशियाँ “में तमाम उत्तरदायित्वों के बोझ तले  दबे एक पुरुष की भावाभिव्यक्ति है. बिटिया में  सहजता से कहते हैं की बच्चे ही माता -पिता को  वाला सेतु होते हैं। ………कुल मिला कर अपनी स्वाभाविक शैली में वो  कथ्य को ख़ूबसूरती से व्यक्त कर पाते हैं। आइये आज “अटूट बंधन” पर पढ़े अरविन्द खड़े जी की कविताएं ……………   अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ    1-कविता–पराजित होकर लौटा हुआ इंसान —————————————— पराजित होकर लौटे हुए इंसान की कोई कथा नहीं होती है न कोई किस्सा होता है वह अपने आप में एक जीता–जागता सवाल होता है वह गर्दन झुकाये बैठा रहता है घर के बाहर दालान के उस कोने में जहॉ सुबह–शाम घर की स्त्रियां फेंकती है घर का सारा कूड़ा–कर्कट उसे न भूख लगती न प्यास लगती है वह न जीता है न मरता है जिए तो मालिक की मौज मरे तो मालिक का शुक्रिया वह चादर के अनुपात से बाहर फैलाये गए पाँवों की तरह होता है जिसकी सजा भोगते हैं पांव ही.                        2-कविता–तुम कहती हो कि….. ——————————— तुम कहती हो कि तुम्हारी खुशियां छोटी–छोटी हैं ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं जिनकी देनी पड़ती हैं मुझे कीमत बड़ी–बड़ी कि जिनको खरीदने के लिए मुझे लेना पड़ता है ऋण चुकानी पड़ती हैं सूद समेत किश्तें थोड़ा आगा–पीछा होने पर मिलते हैं तगादे थोड़ा नागा होने पर खानी पड़ती घुड़कियां ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि मुझको पीनी पड़ती है बिना चीनी की चाय बिना नमक के भोजन और रात भर उनींदे रहने के बाद बड़ी बैचेनी से उठना पड़ता है अलसुबह जाना पड़ता है सैर को ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि तीज–त्योहारों उत्सव–अवसरों पर मैं चाहकर भी शामिल नहीं हो पाता हूँ और बाद में मुझे देनी पड़ती है सफाई गढ़ने पड़ते हैं बहानें प्रतिदान में पाता हूँ अपने ही शब्द ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि बंधनों का भार चुका  नहीं पाता हूँ दिवाली आ जाती है एक खालीपन के साथ विदा देना पड़ता है साल को और विरासत में मिले नए साल का बोझिल मन से करना पड़ता है स्वागत भला हो कि होली आ जाती है मेरे बेनूर चेहरे पर खुशियों के रंग मल जाती है उन हथेलियों की गर्माहट को महसूसता हूँ अपने अंदर तक मुक्त पाता हूँ अपने आप को अभिभूत हो उठता हूँ तुम्हारे प्रति कृतज्ञता से भार जाता हूँ शुक्र है मालिक कि तुम्हारी खुशियां छोटी–छोटी हैं                                               3-कविता–जब भी तुम मुझे ————————- जब भी तुम मुझे करना चाहते हो जलील जब भी तुम्हें जड़ना होता है मेरे मुंह पर तमाचा तुम अक्सर यह कहते हो– मैं अपनी हैसियत भूल जाता हूँ भूल जाता हूँ अपने आप को और अपनी बात के उपसंहार के ठीक पहले तुम यह कहने से नहीं चुकते– मैं अपनी औक़ात भूल जाता हूँ जब भी तुम मुझे नीचा दिखाना चाहते हो सुनता हूँ इसी तरह उसके बाद लम्बी ख़ामोशी तक तुम मेरे चेहरे की ओर देखते रहते हो तौलते हो अपनी पैनी निगाहों से चाह कर भी मेरी पथराई आँखों से निकल नहीं पाते हैं आंसू अपनी इस लाचारी पर मैं हंस देता हूँ अंदर तक धंसे तीरों को लगभग अनदेखा करते हुए तुम लौट पड़ते हो अगले किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में. 4-कविता–उस दिन…उस रात…… ——————————– उस दिन अपने आप पर बहुत कोफ़्त होती है बहुत गुस्सा आता है जिस दिन मेरे द्वार से कोई लौट जाता है निराश उस दिन मैं दिनभर द्वार पर खड़ा रहकर करता हूँ इंतजार दूर से किसी वृद्ध भिखारी को देख लगाता हूँ आवाज देर तक बतियाता हूँ डूब जाता हूँ लौटते वक्त जब कहता है वह– तुम क्या जानो बाबूजी आज तुमने भीख में क्या दिया है मैं चौंक जाता हूँ टटोलता हूँ अपने आप को इतनी देर में वह लौट जाता है खाली हाथ साबित कर जाता है मुझे कि मैं भी वही हूँ जो वह है उस दिन अपने आप पर…… उस रात मैं सो नहीं पाता हूँ दिन भर की तपन के बाद जिस रात चाँद भी उगलता है चिंगारी खंजड़ी वाले का करता हूँ इंतजार दूर से देख कर बुलाता  हूँ करता हूँ अरज– ओ खंजड़ी वाले आज तो तुम सुनाओ भरथरी दहला दो आसमान फाड़ दो धरती धरा रह जाये प्रकृति का सारा सौंदर्य वह एक लम्बी तान लेता है दोपहर में सुस्ताते पंछी एकाएक फड़फड़ा कर मिलाते है जुगलबंदी उस रात…….                          ५ बिटिया ——– बिटिया मेरी, सेतु है, बांधे रखती है, किनारों को मजबूती से, मैंने जाना है, बेटी का पिता बनकर, किनारे निर्भर होते हैं, सेतु की मजबूती पर.                            –अरविन्द कुमार खेड़े. ——————————————————————————————— 1-परिचय… अरविन्द कुमार खेड़े  (Arvind Kumar Khede) जन्मतिथि–  27 अगस्त 1973 शिक्षा–  एम.ए. प्रकाशित कृतियाँ– पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित सम्प्रति–प्रशासनिक अधिकारी लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग मध्य प्रदेश शासन. पदस्थापना–कार्यालय मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी, धार, जिला–धार म.प्र. पता– 203 सरस्वती नगर धार मध्य प्रदेश. मोबाईल नंबर– 9926527654 ईमेल– arvind.khede@gmail.com  आत्मकथ्य– ”न मैं बहस का हिस्सा हूँ…न मुद्दा हूँ….मैं पेट हूँ….मेरा रोटी से वास्ता है….” ……………………………………………………………………………………………………………. आपको    ”  अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita