साडे नाल रहोगे ते योगा करोगे

यूँ तो योग तन , मन और आत्मा सबके लिए बहुत लाभदायक है इसलिए ही इसे पूरे विश्व ने न केवल अपनाया है बल्कि इसे बढ़ावा देने के लिए 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस भी घोषित कर दिया | लेकिन जरा सोचिये इसे योग में अगर हास्य योग भी जुड़ जाए तो …. फिर तो मन भी चंगा हो जाएगा | व्यंग -साडे नाल रहोगे ते योगा करोगे  अपने दुनीचंद जी लोक-संपर्क विभाग में काम करतें हैं। ‘पब्लिसिटी’ में विश्वास रखते हैं। वे सरकारी मशीनरी का एक पुर्जा जो हैं। जब तक उनका एक आध फोटू या लेख कुछेक समाचार पत्रों में ना लग जाये तब तक उनके “आत्माराम” को संतुष्टि नहीं होती। कोई सरकारी मौका या दिवस हो या न हो, कम से कम ‘फोटू’ के साथ अख़बारों में उनके नाम से कुछ जरूर लिखा होना चाहिये। अपने दुनीचंद जी उस बहू की तरह हैं जो रोटी तो कम बेलती है लेकिन अपनी चूड़ियाँ खूब खनकाती है ताकि पतिदेव और सासू मां को पता लगता रहे कि बहू किचन में है तो घर का काम-काज ही कर रही होगी। दुनीचंद जी इतने सनकी हैं कि अगर इनको अपने बारे में जनता को कुछ बताने का मौका न मिले तो इनको बदहजमी और पेट में गैस की शिकायत हो जाती है। इस समस्या से निवारण के लिये वे जंगलों की तरफ निकल पड़ते हैं फिर वहां चाहे बकरियां मिले या भेड़ें, उनके साथ अपना ‘फोटू’ खिचवाते हैं। है क्या, गडरिये का डंडा खुद पकड़ लेते हैं और उसे अपना कैमरा पकडवा देते हैं। जूनून की भी हद होती है, उस दिन अपने मित्र के साथ एक सरकारी दौरे पर कहीं जा रहे थे. रास्ते में सड़क के किनारे जनाब को कंटीली, लाल फूलों वाली झाड़ियाँ दिखी। ड्राईवर को आदेश देकर जनाब दुनीचंद जी ने गाड़ी रुकवा दी, इनका तर्क था -“मैंने आज तक इतने सुंदर फूल काँटों वाली झाड़ियों पर लगे पहले कभी नहीं देखे, यह मौका हाथ से निकल गया तो फिर यह मौका अगले साल अगले मौसम में ही मिलेगा। जनाब ने दो फोटू लिये- एक अपना और एक अपने ड्राईवर का। अपने ड्राईवर का ‘फोटू’ क्यूं लिया, भला? बदला लेने के लिये क्योंकि ड्राईवर ने दुनीचंद जी का पहले फोटू ‘खेंचा’ था चाहे इसका आग्रह खुद दुनीचंद जी ने किया था। अख़बार में इनकी तस्वीर या लेख लगे न लगे, इससे क्या फर्क पड़ता है? खुद ही अपने ‘फेसबुक’ पेज पर लगा लेते हैं. बस, फोटू होनी चाहिये, फिर चाह दस्ताने डालकर झाड़ू ही क्यों न मारना पड़े। घर में बेगम झाड़ू पकड़ाने का निवेदन करती है तो जनाब को कुछ सुनाई नहीं देता, मेरा मतलब ऊँचा सुनाई देता है– ‘ओ मैं कहेया, मैनू नहीं सुनया, भागवाने!” भनाती हुयी बेगम को इनका स्पष्टीकरण होता है. बेगम भी थोडा-बहुत रौला–रप्पा कर के खुद ही झाड़ू उठा लेती है! जिले में कहीं भी डिप्टी कमिश्नर या चीफ मिनिस्टर आ जा रहे हों तो बिना-किसी के ‘दस्से-बताये’ सबसे पहले वहाँ पहुँच जाते हैं! भला क्यूं? एक तो इनकी नौकरी का सवाल और दूसरा, वहाँ फोटू खिचने होते हैं। दुनीचंद जी का मानना है कि अखबार में एक आध लेख फोटो के साथ छपवा देने से लोगो को विश्वास हो जाता है और उन्हें सबूत मिल जाता है कि देश में विकास हो रहा है, प्रगति हो रही है। मेरे विचार से यह प्रगति के नाम पर धोखा हो रहा है, दिखावेबाज़ी हो रही है. ड्रामेबाजी है, एन्वें ई शोशे-बाज़ी। यह वैसी ही तरक्की है जैसे उस दिन नेता जी ने मुझे मेरे पूछने पर बताई – जनाब आपके मंत्री बनने के बाद क्या हुयी है प्रगति? जोश में आकर बड़े गर्व से बोले -“मेरे मंत्री बनने के बाद काफी प्रगति हुयी है: आम के पौधे पेड़ हो गये हैं,गल्ली के पिल्लै शेर हो गये हैं!” यह सब करना पड़ता है जी। अपने दुनीचंद जी का योगा दिवस मिलकर मनाने का न्योता था। मैं कैसे मना करता। फोन पर दूनीचंद जी कहने लगे –“कल अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस है, समय पर आ जाना, ‘रल्ल मिल’ कर योगा-दिवस मनायेंगे..” मैंने मिलने की जगह पूछी तो कहने लगे – “वही, अपने गुरूद्वारे के पिछवाड़े वाले मैदान में, सुबह के नों बजे।” मैंने भी दुनीचंद जी का निमंत्रण स्वीकार कर लिया. फिर इतना कौन सा फासला था। दुनीचंद जी का बताया हुआ गुरुद्वारा मेरे घर से दो-तीन मोहल्ले छोड़ कर ही तो था। कोई सात समंदर की दूरी थोडा ही थी हमारे बीच में। दिलों में बस मुहब्बतें बरकरार होनी चाहिये और मन में कुछ करने का इरादा। फिर चाहे फासला विलायत तक का हो या अमेरिका तक का। इन्शाह अल्लाह…बाकी सब खैर सल्लाह! अच्छा खायें, अच्छा पीयें, मस्त रहें, व्यस्त रहें, खुश रहें, आबाद रहें लेकिन योगा जरूर करें. मरना ही है तो स्वस्थ रहते हुए मरे, बीमारी से मरना बड़ा तकलीफदेह है, फिर इलाज कौनसा सस्ता है, यह तो हम भारतवासी खुश किस्मत हैं कि सरकारी अस्पताल में हमारा फ्री उपचार होता है, दवाइयां भी मुफ्त मिलती हैं। सुना है कि अमेरिका में तो जनाब अस्पताल में एक बार का दाखला आपको दिवालिया कर देता है। वहां इतनी महंगी दवाइयां होती हैं कि उनके दाम अदा करने के बाद वे गले से नीचे नहीं उतरती। खैर अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की प्रभात, मैं समय पर उठा, नहा-धोकर धूप-बत्ती की और फिर गुरूद्वारे के पीछे वाले मैदान तक पहुँचाने वाले रास्ते पर हो लिया। गुरूद्वारे के पास पहुँच कर मुझे कुछ दाल में काला लगा। सोच रहा था कि अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है, मैदान के बाहर और अन्दर भीड़ –भड़क्का होगा, कुछ तांगे, कुछ गाड़ियां, कुछ रिक्शे वाले शहर की सवारियां ढो रहे होंगे, कुछ चहल-पहल होगी लेकिन जनाब वहाँ तो खामोशी का वातावरण था, न कोई बंदा दिखा और न ही कोई परिंदा, मेरा मतलब वहां न कोई बंदा था और न बन्दे की जात। मैदान के मुख्य द्वार से अन्दर घुसकर मैं यह क्या देखता हूँ, इतने बड़े मैदान में बस दो ही बन्दे थे, मुझे मिलाकर तीन। एक अपने दुनीचंद जी और दूसरा वहां कैमरे वाला मौजूद था जो ध्यान में लीन होने और योग मुद्रा का ड्रामा कर रहे दुनीचंद जी की तस्वीरे अपने कैमरे से भिन्न भिन्न ‘एंगेल’ से कैद कर … Read more

अंतिम इच्छा

(कहानी)अंतिम इच्छा मोहन लाल जी मृत्यु शैया पर थे! उनके परिवार के सदस्य भी उनकी आखरी साँसे गिन रहे थे! मोहन लाल जी के नजदीकी सगे-संबंधी और दोस्त-यार समाचार सुनकर अपनी-अपनी साहूलियत के मुताबिक पिच्छले कुछ दिनों से उनके यहाँ आ-जा रहे थे। उनके घर में खूब गहमा-गहमी लगी थी! न चाह कर और सब-कुछ भूल-भुलाकर भी उनके सभी मिलने-मिलाने वाले दुनियादारी निभा रहे थे!     मोहन लाल जी के बारे में उनके अपनों और परायों, दोनों की ही कोई अच्छी राय नही थी। उन्होने अपने जीते-जीते सभी को किसी न किसी ढंग से कष्ट दिया था और ठेस पहुंचाई थी! समाज में उनकी इस बुरी आदत की अक्सर खुली चर्चा होती थी और उन्हें खुद भी इसका पूरी तरह से आभास था! लेकिन, वे आदत से मजबूर थे! जब तक किसी का बुरा न कर लेते उनकी रोटी हज़म नही होती थी! वे अपने इन कर्मो का इस दुनिया को छोड़ने से पहले प्रायश्चित करना चाहते थे और इस उदेश्य से उन्होने अपने सभी करीबी अपने सिरहाने ईकट्ठे कर लिए थे!  उनकी आँखें नम थी और कहते-कहते उनका गला रूँध गया था –“मैं जानता हूँ कि मैं एक बुरा इंसान हूँ…मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में कभी किसी का कोई भला नही किया…हरेक को कोई न कोई ठेस या हानी पहुंचाई है…उन्हे दुख पहुंचाया है और अपने इन दुष्कर्मों के लिए मैं शर्मिंदा हूँ…और आज जब मेरे जाने का…समय नजदीक आ गया है…मैं अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहता हूँ। मैं हाथ जोड़कर आप सब से विनती करता हूँ कि आप मुझे मेरी सभी कुताहियों और गलतियों के लिए क्षमा दें!” अपनी कमजोर सांस को पकड़ते हुये, मोहन लाल जी पुन: बोले,“मैं अपने आप को सज़ा देना चाहता हूँ…मेरी एक अंतिम ईच्छा है…!”             “वह क्या पिता जी? बतायें, हम आप के लिये क्या कर सकते हैं?” पास खड़े उनके सबसे बड़े बेटे रमेश ने उनका हाथ अपने हाथों में लेते हुए पूछा! “बेटा,मैं चाहता हूँ कि जब मेरे प्राण पंखेरू हों, तब मेरा अंतिम-संस्कार करने से पहले एक बड़ा कील मेरी छाती में ठोक दिया जाये! ऐसा करने से मुझे मेरे किए की सज़ा मिल जाएगी!” “नही, नही बाबू जी, यह आप क्या कह रहे हैं…यह सब हमसे नही हो पाएगा…” कहते कहते उनके बेटे रमेश की आँखें भर आई! “हाँ,बेटा!तुम सबमिलकर यह वादा करो,मुझे वचन दोकि तुम मेरी अंतिम ईच्छा पूरी करोगेऔर तभी मैं इस दुनिया से शांति के साथ जा सकूँगा!” “पिता जी…!” “…” और यह कहकर मोहन लाल जी खामोश हो गये, उनकी आँखें मुंद गई और उनका दम निकल गया! परिवार वालों ने अंतिम संस्कार से पहले उनकी अंतिम ईच्छा पूरी कर दी और अब उन्हें अंतिम संस्कार के लिए शमशान-घाट ले जाया जा रहा था! सूचना पाकर पुलिस ने रास्ते में शव-यात्रा को रोका और परिवार वालों को शरीर से कफन हटाने का आदेश दिया! सभी हताश थे और पसीना-पसीना हो गये। पुलिस वालों ने सभी को पकड़कर जेल में डाल दिया! “भगवान तुम्हारा भला करे,जीते जी तो तुमने किसी को सुख की सांस नही लेने दी, मरने के बाद भी देखो क्या कर गये?”     पूरे शहर में मोहन लाल जी की बस यही चर्चा थी जिसके लिये वेसदैव जाने जाते थे! लोगों की हालत यह थी कि न तो वे रो पा रहे थे और न ही हस ही सकते थे  अशोक परुथी‘मतवाला’ यह भी पढ़ें ………. उसकी मौत ममत्व की प्यास घूरो चाहें जितना घुरना है                                              दूरदर्शी दूधवाला  आपको आपको  व्यंग कहानी  “ अंतिम इच्छा“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

आज मै शर्मिंदा हूँ?

आज मैं शर्मशार हूँ …लानत है, नेताओं को … एक सर्वे के मुताबिक भ्रष्टाचार के क्षेत्र में भी मेरा भारत चीन से पिछड़ गया है। आबादी में तो हम चीन से पीछे थे ही …लेकिन अब भ्रष्टाचार के क्षेत्र में भी चीन ने भारत को खदेड़ दिया है! रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 18 वर्षों में पहली बार भारत चीन से कम भ्रष्टाचारी है, लेकिन इसका यह अभिप्राय नही कि भारत से भ्रष्टाचार का विनाश हो गया है बल्कि इसका मतलब यह है कि चोर तो दोनों देश हैं बस इस मामले में चीन थोड़ा ज्यादा लुच्चा  है! सन 2006 और 2007 में दोनों देशों का इस क्षेत्र में एक ही दर्जा था। दोनों बड़ी टक्कर के खिलाड़ी थे लेकिन अब हमारे हलक से यह बात नही उतर रही कि चीन हमसे आगे कैसे निकल गया है! क्या हो गया है हमारे निकम्मे राजनीतिज्ञों को? विश्व में कम से कम भ्रष्टाचार वाले देशों में आस्ट्रेलिया, कनाडा, सिंगापुर और डेन्मार्क जैसे देशो के नाम मुख्यता हैं!  भ्रष्टाचार में चीन से पिछड़ने के लिए भारतीय जनता में जागरूकता के आने और अन्ना-हज़ारे के जन आंदोलन को मुख्यता रूप से दोषी ठहराया जा रहा है ! मोदी जी ने भ्रष्टाचार को दाल समझकर अपने चुनाव के बाद झट से नारा लगा दिया है ‘न खाऊँगा और न किसी को खाने दूँगा!‘ मोदी जी की नीतियाँ उन्ही की अपनी बनाई नीतियों का प्रतिरोध करती है. मोदी जी अगर लोगों को खाने नहीं देंगे तो भला शोचालय क्या ‘शो” के लिए बनवाये जा रहे हैं!  बाज़ार में ऐसी दाले जिसे खाने से बकरी भी अपना मुंह बनाती है के भाव आजकल आसमां छू रहे हैं ! बेचारा, गरीब बाज़ार जाता तो दाल लेने के लिए है लेकिन उससे उसकी हैसियत से बाहर -महंगी दाल खरीदने की हिम्मत नहीं हो पाती. बस, दाल को सूंघकर ही वह अपने मन को तसल्ली दे लेता है! पति को हाथ में खाली झोले के साथ मुंह लटकाए देख कर पत्नी भी यह कहकर सब्र कर लेती है …आप भी न …! सुना है, आजकल भारत में प्याज़ का भी यही हाल है और लोगों ने उसे ओषधि की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।  हरेक चीज़ के भाव को आग लगी हुई है। लोगों ने मिर्च – मसालों का इस्तेमाल करना कम कर दिया है या छोड़ दिया है. मेरे इस कथन की पुष्टि फ़ेस-बूक पर आए दिन हल्दी, अदरक, अजवाइन, लस्सन, प्याज़ आदि के फ़ायदे बताने वाले नुसखों से होती है।  सोशल मीडिया और पत्र-पत्रिकाओं में आजकल पाक-विद्या (तरह – तरह के भोजन बनाने की कला) की कोई बात करता नही दिखता, लेकिन खाली पेट में मरोड़ पड़ने से बचने के लिये घरेलू नुसख़ों की भरमार लगी दिखती है। हरेक ऐरा – गेरा हकीम और पंसारी बना लगता है! तरह तरह के जानलेवा सुझाव दिए जाते हैं जैसे हार्ट-अटैक हो रहा हो तो पीपल का पत्ता  खाओ, अस्पताल नहीं जाओ …अपनी मौत घर पर ही बुलाओ !  उम्मीद तो नहीं लेकिन, मैं भी मरने के लिये अगर भारत लौटा तो उससे पहले ‘टाइम -पास ‘ के लिये पंसारी की एक दुकान खोलने की तमन्ना रखता हूँ क्योंकि अमेरिका में जीने के लिये अमेरिका के एक-दो डालरों में एक किलो दाल का मिलना सस्ता तो लगता है, मगर यकीन करें यहाँ मरना बहुत महंगा है और मरने से पहले इलाज भी बहुत महंगा है! दवाईयों की भारी कीमतें भरकर गोलियां हलक से नीचे नहीं उतरती ! (व्यंग्य -लेख) अशोक परूथी ‘मतवाला’ यह भी पढ़ें …….. सूट की भूख न उम्र की सीमा हो हाय GST ( वस्तु एवं सेवाकर ) दूरदर्शी दूधवाला  आपको आपको  व्यंग लेख “आज मै शर्मिंदा हूँ? “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

उसकी मौत

आजएक बार फिर हम सब दोस्त सोहन के घर एकत्रित हुये थे – मयपान के लिये नहीं अपितु उसकी शव-यात्रा में शामिल होकर उससे अंतिम विदा लेने के लिये! उसके घर के बाहर गली में शोक सभा के लिये लगाये गयेशामियाने के नीचे एक तरफ गली-मोहल्ले व रिश्ते की औरतें ‘स्यापा‘ कररही थीं और दूसरी तरफ कुछ शोकग्रस्त मर्द बैठे थे जिनमें से कुछ तोबिल्कुल ख़ामोश थे तो कुछ आपस में वार्तालाप कर रहे थे। हम चारों दोस्तभी अपने सिर झुकाये इस शोक सभा में शामिल थे! सहसा, सभा में मौजूद एक सज्जन ने मौत का कारण जानतेहुये भी अपने पास बैठे दूसरे सज्जन से औपचारिकतावश अपनी सहानुभूतिदर्शाते हुये वार्तालाप शुरू किया, “वाकई ही बड़ा ज़ुल्म हुआ है भाईसाहिब, इस परिवार के साथ… बेचारे के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बड़ाशायद लड़का है और दूसरा बच्चा लड़की है, सोहन की उम्र भी कोई ख़ास नहींथी, यही कोई बत्तीस-पैंतीस साल मुश्किल से …पिछले हफ्ते ही मैं ख़ुदअपने सैक्टर की मार्किट में उनसे मिला हूँ, शाम का ‘टाइम‘ था … कोनेमें सब्जी वाले की दुकान के साथ वाली पान-सिगरेट की दुकान पर खड़े थे, शायद पान तैयार होने की इंतज़ार में थे… पान खाने का उन्हें बड़ा शौकथा …मैं ज़रा जल्दी में था, उनसे कोई ज़्यादा गल-बात तो नहीं कर पाया, पर मुझे क्या पता था कि यह मेरी अंतिम मुलाक़ात होगी… क्या भरोसा हैज़िंदगी का? है कोई, भला …?” अविश्वास की मुद्रा में अपना सिर हिलाते हुए उन्होंने कहा। उनके प्रत्युतर में वार्तालाप में उनके साथ लिप्त सज्जन जो रिश्ते में शायद सोहन के काफी नज़दीकी थे, आखिर फफक ही पड़े, “यही सुना है, कल रात अपने दोस्तों के साथ खाने-पीने के बाद अपने घरस्कूटर पर रवाना हुये हैं कि उस रिक्शे वाले चौंक पर, एक ‘थ्री-व्हीलर‘ वाले के साथ टकराकर सिर के भार सड़क पे गिरे हैं कि बस वहीं पर दम तोड़दिया …!” “हेल्मेट नहीं था डाला हुआ सोहन लाल जी ने …?” “ओह जी, यह सब बातें हैं …हेल्मेट भी डाला हुआ था, पर सड़क पर गिरने के बाद हेल्मेट किधर का किधर जा गिरा, सर जाके उधरकंक्रीट से टकराया…बस जी…. बुरी घड़ी आई हुई थी…होनी को कौन टालसकता है…?” पढ़िए – साडे नाल रहोगे तो योगा करोगे वार्तालाप को सुनकर हमें लगा जैसे हम चारों दोस्त हीअपने दोस्त की मौत के ज़िम्मेवार हैं और लोग हमें ही कोस रहे हैंक्योंकि घटना की शाम हर रोज़ की तरह हम सभी दोस्त मिलकर जशन मना रहे थे।उस दिन सोहन ने कुछ ज़्यादा ही पी ली थी और फिर वह नशे की हालत में घरजाने का हठ करने लगा था। उसकी हालत को देखकर हम सभी दोस्तों ने उसेस्कूटर चला कर घर न जाने का आग्रह भी किया था, लेकिन वह हमारी बात कबमाना था। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, इससे पूर्व भी तो हममें से कोई न कोई नशे की हालत में घर जाता रहा था। ख़ुशक़िस्मती से हममें से किसी के साथ कोई बुरी घटना नहीं घटी थी। हमारे बीच ऐसी पार्टियाँ अक्सर होती रहती थीं, कभी सोहन के घर, कभी मोहन के घर, कभी मेरे यहाँ तो कभी हम किसी क्लब में जा धमकते थे। अब तो हम सब को मय की लत ऐसी लगी थी कि पीने के लिये हमें कोई बहाना भी नहीं चाहिए होता था, बस ऑफिस में ही तयहो जाता था कि कब और कहाँ शाम को मिल रहे हैं। ऑफिस में एक-दूसरे केसाथ काम करने के इलावा हम चारों-पाँचों दोस्त लगभग एक उम्र के भी थे।ताश खेलने बैठते तो घर-वर सब भूल जाते। पढ़िए –एक लेखक की दास्तान लेकिन सोहन की अचानक मौत हम सबके लिये एक बहुत बड़ासदमा थी। इस हादसे से सबक लेकर या फिर इसके डर से कुछ दिन तो हममें सेकिसी ने भी पीने का नाम नहीं लिया लेकिन पीने की यह लत अगर किसी को अगरएक बार लग जाये तो मय पीने वाले इन्सानों को अंत में बिना पिये कबछोड़ती है! हमारी यह लत “मैं कम्बल तो छोड़ता हूँ मगर कम्बल मुझे नहींछोड़ता” कहावत जैसी कटु सच थी! सोहन को छोडकर आज सभी दोस्त एक बार फिर पीने के लिये मोहन के घर एकत्रित हुए थे। सब कुछ वही था, मय की बोतल, पुराने दोस्तऔर खाने का सामान जो हमारे सामने ‘टेबल‘ पर रखा था। अगर किसी चीज़ की कमी थी तो वह थी – हमारे दोस्त सोहन की! सोहन की अनुपस्थिति हम सबको बार-बार झँझोड़ रही थी, उसकी मौत रह-रहकर हमारी आत्मा को कचोट रही थी।आज फिर हमने पीने की कोशिश की मगर लाख यत्न करने के बाद भी पी न सकेथे। कहतेहैं – सुबह का भूलाअगर शाम को घर लौटआये तो उसे भूला नहीं कहते,हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही थी।क्या ग़लत हैऔर क्या ठीक है, संगत में रहकर हम शायद यह भूले हुये थे और भटक भी गए थे, लेकिन उसकी मौत ने हमारीआँखें खोलदी थीं! अशोक परूथी “मतवाला” पढ़िए अशोक परूथी की दो प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षा  काहे करो विलाप (व्यंग संग्रह ) अंतर – कहानी संग्रह

हाय GST (वस्तु एंव सेवा कर)

(हास्य-व्यंग्य) अशोक परूथी ‘मतवाला’ आजकल जी. एस. टी.  यानि वस्तु एंव सेवा कर को लेकर भारत में जनता ने दंगा-फसाद किया हुआ है औरकुछ लोग  समाज में तरह-तरह की भ्रांतियां फैला रहे हैं! इस कर को लेकर पानी के गिलास के साथ भी लोगों की रोटी इनके हलक से नीचे नहीं उतर रही ! सरकार ने इस कर का नाम सोच समझ कर रखा है – वस्तु एंव सेवा कर. वस्तु श्रेणी में कफ़न आता है और सेवा की श्रेणी में कफन को कन्धा देने वाले सब! इसलिए तो सयानो ने कहा है – आजकल किसी की कोई सेवा, मदद या भला करना भी जुर्म है!  मोदी जी को भी पता था कि इस कर को लेकर लोग रोष व्यक्त करेंगे और हो सकता है देश-भर में दंगा फसाद और तरह तरह के आन्दोलन शुरू हो जायें। लेकिन, लगता है आजकल मेरे भारत- वासी सभ्य हो गये है। अभी तक भारत के किसी कौने से बसों, रेलगाड़ियों या इमारतों के जलने की कोई खबर ‘इस-पार‘ नहीं आई है! मोदी जी को इस बात का पूरा डर था कि ‘कुछ ‘बावली-बूच‘ कुछ न कुछ तो तहस -नहस करेंगे। राष्ट्रीय सम्पति की पवित्र -अग्नी को आहूति देंगे, इसीलिये वे अपना ‘कटोरा‘ लेकर अमेरिका के दौरे पर निकल आये हैं! लोग तरह तरह के भड़काऊ सवाल किये जा रहे हैं! नये कर को लेकर किसे मुर्दे ने अभी तक कोई गिला नहीं किया लेकिन,.उसे कन्धा देने वालों की नींद कई दिनों से उडी पडी है !  सभी लोग तरह तरह की सुविधाएं चाहते है लेकिन कर कोई भरना नहीं चाहता! कर भरने की लोगों को आदत नहीं है इसलिए इस नये कर ककी खबर उनसे सही नहीं जा रही! विकसित देशों में भी ऐसे टैक्स हैं, भारत में भी था लेकिन अब उसमे कुछ बदलाव किया गया है ताकि कर न देने वाले या कर-चोर व्यापारी अपने हिस्से का टैक्स अदा करें! उन्होंने टैक्स कभी नहीं भरा उन्हें नियमों के अनुसार अब देना पड़ेगा इसलिए थोडा मुश्किल हो रही है! ऐसा होना स्वाभाविक ही है! कुछ साल पहले क्या हम आयकर देते थे? उस वक्त भी टेक्स-भरने पर दम घुटता था अब शायद सबको आदत हो गयी है! कोई ‘खाट‘ नहीं खड़ी करता अपनी या किसी दुसरे की क्यूंकि इससे देश का निर्माण हुआ है, देश का विकास हुआ है! जन-साधन और सुविधाओ में बढोतरी हुयी है! हुयी है कि नहीं? देश की ज़रूरते बड़ी हैं तो खर्चे के लिए सरकारों को भी समय समय पर नये कर लगाने पढ़ते हैं! ‘आप मरा जग परलो होई!‘ इसके अर्थ आप सब जानते हैं – जब आप इस संसार के लिए मर जायेंगे तो यह सारे संसार वाले भी आप के लिए मर जायेंगे! फिर काहे की टेंशन लेते हो, बंधू? गीता में लिखा है – “क्या लेकर आये थे जो खो दिया है। ..काहे को रोते हो…?”  जो हो अपने माता-पिता की बदोलत ही हो, उन्होंने ही आपको पाल-पोस कर बड़ा किया और अपना पेट काट कर भी आपको अच्छी शिक्षा और अन्य सुविधाएँ दी, आपके उज्जवल भविष्य के लिए अपना सुख-चैन तक गवायाँ! आपके पास जो है उनकी वजह से ही है! अब अगर उनके लिए कुछ करना पड़ रहा है तो काहे को रोते हो? हाँ, एक बात यह भी याद रखें, बड़ा पैसे से नही बनता, उड़द की दाल से बनता है! इसलिए जब तक आप में सांस हैं और आपके हाँथ-पांव और दिमाग चलता है तब तक अपनी ज़िन्दगी का खूब आनंद लें ! अपनी कमाई और बचाई हुयी बचत से देश भ्रमण करें या वह गतिविधियाँ करें जो आपको स्वस्थ्य और आनंद देती हों! अपनी सेहत और खुशी का सबसे पहले ख्याल करें उसके बाद ही ‘दूजी‘ चीजें और रिश्ते आते हैं! इश्वर ने इसीलिये सबको दो हाथ देकर इस धरती पर भेजा है ! क्या आप नही चाहते कि आप की संतान आप के जाने के बाद शांति और अमन के साथ अपनों के साथ मिलजुलकर स्नेह-प्यार से रहेे या कि आप चाहते है कि वे आपकी पूंजी के लिए एक दुसरे से “डांगो-सोटा” करती रहे और एक-दुसरे से बोल-चाल भी बंद कर बैठे! अगर आपके किर्या -क्रम का भी कोई जिम्मा लेने वाला नहीं तो अभी से किसी शमशान घर से प्रबंध करवा लें (अगर ऐसी आजकल भारत में ऐसी व्यवस्था है तो? विदेशों में तो यह सुविधा है, भारत में भी हो जायेगी) अन्यथा, अपने ‘आत्मा राम ‘ की शांति के लिए पूरे खर्चे की राशी अपने किसी विश्वशनीय रिश्तेदार या किसी मित्र को थमा दें! हाँ, अपनी पसंद के फूलों और संगमरमर के पत्थर जड्वाने की तमन्ना रखते हों तो इस खर्चे की भी अभी से कीमत उन्हें थमा दें! अब उपरलिखित प्रश्न का उतर सीधा-सा है ! १८ प्रतिशत का कर ‘लाश को कन्धा देने वाला‘ क्यूं देगा। ..वही देगा जो मृतक की पूँजी का अपने आप को हकदार मान रहा है ! हाँ , आपकी तरह बस मेरा भी एक डर है, उस शराबी की तरह जिसे उसके एक मित्र ने सुझाव दिया – ” यार, तूं शराब छोड़ने की बात कर रहा है। …ऐसा कर तूं बची हुयी अपनी सारी शराब की बोतलें अपने दोस्तों को दे दे !” शराबी का जवाब था – “अपने दोस्तों को मैं शराब दे तो दूं, मगर उन पर मुझे विश्वास नहीं….साले पी जायेंगे !” हाँ , इस साली सरकार और राजनीतिज्ञों का भी कोई भरोसा नहीं कि इस कर को जनता के भले के लिए लगायेंगे या अपने पौते -पौतियों या रिश्ते -नातियों पर! दोस्तों है क्या , मरने वाले ने भी कौनसा रोज़-रोज़ मरना है, एक बार ही तो मरना है उसने ! फिर आपने कौनसा अपनी जेब से कर भरना है. उसी की पूंजी से तो भरना है…आपके बाप का क्या जाता है… एक बार ‘टैक्स/‘ भरके ‘पासे‘ करो! यह भी पढ़ें …….. सूट की भूख न उम्र की सीमा हो आइये हम लंठों को पास  करते हैं दूरदर्शी दूधवाला 

ममत्व की प्यास

अशोक परूथी शांति का मन आज बहुत अशांत था. रो-रोकर उसने अपनी आंखें सुजा ली थी! वह अपनी किस्मत को भी रो-धो बैंठी थी. अपने मन का बोझ हल्का करने के लिये गुस्से में उसने अपनी बगल वाली पड़ोसिन लक्ष्मी के लिये बुरा-भला कहा और चाहा भी! आखिर, बरामदे की फर्श से उठकर उसने अपना हाथ मुंह ठन्डे पानी से धोया, तोलिये से पौंछा, फिर अपने घर के सामने वाली पड़ोसिन कृष्णा के घर जाने के लिये अपनी चप्पलें ढूँढने लगी.उसने अपने घर के जंगले की कुंडी लगाई और अपनी गली की सड़क पार करके कृष्णा के मुख्य द्वार पर दस्तक दी! कृष्णा ने शांति का हाल देखकर उसकी परेशानी का कारण जानने की जिज्ञासा प्रकट की. शांति कुछ जवाब न दे सकी, भरी पडी थी, बस सुबक पड़ी. उसकी आँखों से अश्रुओं की एक धारा फूट पड़ी! भावुक होकर, दुखी मन से पूछने लगी, “बहिन जी, अभी तक मेरी गोद खाली है तो इसका क्या यह मतलब है मैं एक पापिन हूँ, दूसरों के बच्चों को तकलीफ पहुँचाना चाहती…हूँ?” क्या मैंने ऐसा कुछ किया है?…क्या मेरी नियत इतनी खराब हो सकती है? नहीं…मेरा इश्वर जानता है कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया.” फफक-फफक कर रोते हुए शांति, कृष्णा के कंधे लग गयी!“हुआ क्या है, शांति बहिन? आज किसने तेरा दिल दुखाया है? ऐसे ही दिल छोटा नहीं करते…भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं!” बरामदे में अंदर लेजाकर एक चारपाई पर शांति को बिठाते हुये कृष्णा पुनः बोली, “यहाँ बैठो, इधर, मैं पहले आपको एक ग्लास पानी दूं, फिर बैठकर सुनती हूँ, आपकी …!” कृष्णा ने अपनी बिटिया मिनी को आवाज़ लगाते हुये उसने कहा, “बेटा, शांता आंटी के लिये एक कप चाय तो बना दे!” “सच कहती हूँ… मेरा दिल दुखाने के लिये भगवान चुड़ैल लक्ष्मी बाई को सजा जरूर देगा, कसम उठा कर कहती हूँ कि आज के बाद चाहे लक्ष्मी जितनी जरूरतमंद या फसी में क्यूं न हो, उसके बच्चे को नहीं रखूँगी…आप भली-भांति जानती हैं कि मेरे मन में कभी कोइ द्वेष या खोट नहीं आया…आज मेरी देखभाल में उसकी पिंकी को थोड़ी सी क्य (उल्टी) क्या आ गयी कि बिना सोचे समझे उसने मुझ पर इलज़ाम लगा दिया. कहने लगी, “खुद तो बाँझ हो, इसलिए तुमसे दूसरों की खुशी बर्दास्त नहीं होती! जानबूझकर तुमने पिंकी को कुछ अंत-शंट खिला दिया है!” माँ की लाश घर पहुंची तो उसकी बच्ची महक ने, अपने नन्हे हाथों से अपनी मां के होंठो का स्पर्श किया…उसकी छाती पर अपना सर रख पहली बार ‘मां – मां’ पुकारा! माँ वहाँ होती तो अपनी बच्ची की आवाज़ को सुनती और उसका जवाब देती!कितनी विडंबना है एक मां अपने जिगर के टुकड़े से ‘मां’ शब्द सुनने के लिये बरसों तड़फती और तरसती रही और फिर एक दिन जब उसके जिगर का टुकड़ा उसे ‘मां’ पुकारने के काबिल हुआ तो ‘मां’ शब्द सुनने वाली वह ‘मां’ न रही! शांति फिर सिसक पडी, “इतना बड़ा इलज़ाम किसी पर, बता नहीं सकती मेरे दिल को कितनी गहरी ठेस पहुँची है लेकिन, मैं किसे दोष दूं? इंसान कुछ तो, थोड़ा सा तो अपना मुंह खोलने से पहले सोचता है… बस, सारा दोष तो मेरी किस्मत का है, मेरी शादी हुये अब पूरे दस साल होने को आये हैं लेकिन मेरी कोख आज तक खाली है…”“तूं फ़िक्र न कर, शांति! लक्ष्मी की बात का भी बुरा मत मना! ईश्वर की कृपा से तुम्हारी गोद बहुत जल्द ही ‘हरी’ होगी! प्रभु बहुत ही जल्द तुम्हारे मन की मुराद पूरी करेंगे. बोल हरी!”कृष्णा से वार्तालाप के बाद शांति के मन का काफी बोझ हल्का हो गया था! कृष्णा का शुक्रिया कर वह फिर अपने घर लौट चली थी. कृष्णा उसकी एक विश्वश्नीय सलाहकार और पड़ोसिन ही नहीं थी बल्कि उसकी एक सुलझी हुई अच्छी मित्र भी थी. बिना किसी झिझक, आये – गए शांति अपना सुख दुःख साँझा कर लेती थी!शाम को पति घर आये तो शांति ने उनसे भी अपनी राम-कहानी सांझी की. शांति के पति का नाम रोशनलाल था जो बिजली के महकमें में काम करते थे. शांती के मन की व्यथा को वह अच्छी तरह से जानते थे! उन्होंने उससे हमदर्दी के कुछ शब्द कहे ओर बातचीत का विषय बदल दिया, “आज के दिन का काम और उसके ऊपर जलती दोपहरी…उफ़ …! एक कप चाय बना लो तो बैठ कर इकठे पीते हैं!” फिर संयोगों से हुआ यूं कि पडौस की मुनिया के घर आठवीं संतान का जन्म हुआ और यह खबर पड़ोस में फ़ैली. दुर्भाग्य से पुत्री को जन्म देने के बाद मुनिया चल बसी थी. मुनिया का पति मुश्किल से ही घर का खर्चा चलाता था. वह फलों की रेहडी लगाता था. उसकी आठों की आठों संताने लडकियां थी. अपने परिवार का नाम आगे चलाने और एक लड़के की ख्वाईश का ही यह नतीजा था. मुनिया का पति यह अच्छी तरह जानता था कि वह अपनी नयी संतान की परवरिश तो छोडो उसे मां के बिना जीवित भी न रख पायेगा. शांति भी इस खबर से अनभिज्ञ न थी, लेकिन कई प्रश्नों से वह भयभीत थी जिसके उतर उसके पास नहीं थे! उसने सुन रखा था कि गोद लिये बच्चे बड़े होने पर अपने असली माता-पिता के पास जाना चाहते हैं! लेकिन, कृष्णा ने शांति और उसके पति रोशन लाल जी से बातचीत करके उन्हें मुनिया की बिटिया को कानूनी कारवाही करने के बाद गोद लेने के लिये राजी कर लिया था. अंधे को जैसे दो आँखें मिल गयी हों. दो दिन बाद ही कचहरी जाकर शांति और रोशनलाल जी ने नवजात शिशु को गोद ले लिया था. इस शुभ घड़ी के स्वागत में उन्होंने एक ‘हवन’ कराया और उसके बाद एक छोटी सी पार्टी का आयोजन भी किया!क्या संयोग बना था – एक नवजात शिशु था जिसे जिन्दा रहने, अपनी परवरिश के लिये एक मां की ज़रुरत थी और उधर एक मां थी जिसे एक बच्चे की जरूरत थी, उसमें ‘ममत्व की प्यास’ थी, जिसे बुझाने के लिये कई वर्षों से वह प्रयत्न-रत थी. अपनी गोद भरने को तरस रही थी और इस इच्छापूर्ति के लिये उसने क्या-क्या नहीं किया था. अपने मन की व्यथा और जीवन का खालीपन बस शांति ही जानती थी और उसकी इस रिक्ति को दुनिया की … Read more

हाँ, उस युग का वासी हूँ मैं

व्यंग्य –लेख अशोक परूथी “मतवाला“ मेरे युग में, {व्हट्सअप ओर सोशल मिडिया के जन्म से पहले), भी खबरें ‘वेरी फ़ास्ट‘ मिलती और पहुँचती थी. अंतर बस इतना है कि उस समय जीवन और लोग दोनों बड़े साधारण, सरल-से और खुश-मिजाज़ हुआ करते थे. जनसंचार सुविधा के कोई बिल-विल नहीं होते थे. अब तो किसी के पास अपने मरने का भी समय नहीं है. जिन्दगी और जिन्दगी के मसले जटिल हो गये हैं. दूसरों की कुछ मदद करने की तो आप बात ही न छेड़े. ऐसा करना, मधुमखियों के छते को छेड़ने जैसी बात ही होगी. आज लोग और जिंदगियां व्यस्त ही नही बल्कि बहुत ही अस्त-व्यस्त भी हैं! है,ना? सहमत हो तो अपने हाथ खड़े करो या फिर अपना सर ऊपर-नीचे करके मेरे साथ अपनी सहमती दर्शाओ, बस,इतना करने का तो आपका कर्तव्य बनता ही है ! “सरला, भैन जी, मेरा दिल ते बड़ा करदा कि तुहानू मिलन आवां पर कि करां मरनेजोगी, हब्बे-मोई फेसबुक ते व्हट्सअप तू व्हेल ही नहीं मिलदा!“ हालाँकि, उन दिनों जन-संचार के गिने चुने ही साधन होते थे. जैसे, गाँव का नाई, मोहल्ले की पंडिताइन (जो जलती दोपहरी में भी बिना नागा किये घर से हंदा लेने आती थी और यह बता जाती कि कब संग्रांद है या पूर्णमासी होगी, या फलां फलां के बेटे की कब शादी है या मोहल्ले में किसकी बिटिया के पाँव भारी हो गये है – सब की सब सूचना रूंगे में घर बैठे-बिठाये मिलती थी, मुफ्त, बिलकुल मुफ्त). दूर-दराज़ की ख़बरों के लिये पास के गाँव में बसी फूफो सुमित्रा होती थी जो मिलने समय–असमय घर पर आती-जाती रहती थी. इस सब के ईलावा ख़बरों का एक अन्य साधन भी होता था – रेडियो. उन दिनों रेडियो तो आम थे, मगर ट्रांसिस्टर (बैटरी वाले चलते-फिरते) विरले-विरले के पास ही होते थे! दादी मां का कहना था डिब्बे में भूत बंद है जो गाने गाता है और आवाजे बदल बदलकर बोलता है (विभिन्न कार्यक्रम पेश करने वाले) गुल्ली-डंडा या क्रिकेट लडको के, स्टापू या रस्सी -टपना लड़कियों के और लूकन-मिटी (हाईड एंड सीक) दोनों के सांझे ‘गेम‘ हुआ करते थे! गर्मियों में तंदूर की गर्मा-गर्म रोटी और लस्सी के बड़े गिलास का अपना ही लुत्फ़ होता था. पंखे और वातानुकूलित कमरों के न होने का कोई गिला नहीं करता था. अपने घर की ड्योढी या घने पीपल पेड़ तले ही निंदिया रानी आ जाती थी और अपने आगोश में ले लेती थी! चौमासे में कभी जब बारिश की झाड़ी लगी होती थी तो तले हुये पकोड़े या फिर बेसन के पूड़े महबूब की तरह प्रिय हुआ करते थे. फिर सर्दियां जब आती थी तो मक्की की रोटी और सरसों का साग या फिर मक्खन के पेड़े के साथ उंगलियाँ चाटने का भी अपना ही मज़ा होता था. सोने के समय ठंडी रजाई में, सिरहानो के साथ ऐसे लिपटते थे जैसे शादी की पहली रात नई-नवेली दुल्हन संग हो! पुरुषों के लिये कीकर, नीम और महिलाओं के लिये रंगीले दातुन आम हुआ करते थे जिससे हम-सब अनार के दानो की तरह अपने दांतों को चमकाते थे, दांतों के डाक्टर और टूथपेस्ट कहाँ होते थे, उन दिनों? घर के काम – रोटी पकाना, कपडे धोना, बर्तन मांजना, कढ़ाई -सिलाई करना और घर में चक्की -चलाकर जो अनाज या आते पीसे जाते थे, उसी से लड़कियों का स्वास्थ्य बरक़रार और चेहरा खूबसूरत रहता था, उन दिनों स्लिमिंग सेंटर या “जिम‘ भला कहाँ होते थे. यह नहीं खाना, वह नहीं खाना के कब टंटे होते थे, एक बार तो पहले खा लेते थे, बाद में ही जो भी होता था उससे निपटते थे लेकिन,आज हम सब ‘लेबल‘ पढ-पढ़कर ही परेशान और हैरान हैं. अम्मी जान इतनी निपुण होती थी कि घर में ही बड़े भाईयों की फटी-पुरानी पेंटो को काट-छांट कर मेरी नयी पेंटे और निक्करें तैयार कर लेती थी. याद है, ऐसी भी पेंटे खुशी-खुशी डाली जिसमे नाला होता था और ‘फ्लाई‘ होती थी! स्वेटर का डिजाइन तो अम्मी-जान बस में सफ़र करते हुये या स्कूल में बच्चों को पढाते हुये ही डाल लेती थी. और हैं, गली के कोने पर भट्टी वाली और तंदूर वाली एक ‘एक्स्ट्रा’ मासी हुआ करती थी जो पंक्ति काट कर पहले दाने भून देती थी या फिर चपातियां लगा देती थी. हाँ, मैं बहुत पुराना हूँ, हाँ मैं उसी युग का हूँ, जब यह सब चीज़े होती थी. हाँ, वह युग जिसमे भाई-बहिन, मां-बाप, गली-मोहल्ले वाले सब, अपने होते थे, लोग कितने इश्वर के शुक्रे (शुक्रगुज़ार) होते थे. हाँ, कोई लौटा दे मुझे – मेरी वो गलियां, मेरा मोहल्ला, मेरा गाँव, मेरा बचपना और मेरे वो दिन! यह भी पढ़ें … राम नाम सत्य है दूरदर्शी दूधवाला मेरी बत्तीसी जाएँ तो जाएँ कहाँ

राम नाम सत्य है

मेरी मौत 9 जून 2051 को होगी? यह तारीख एक ‘वेब-साइट’ वालों ने मेरे लिये निकाली है! है, भगवान, तेरे घर में भी आज इन ‘आईडेंटिटी थेफ्ट’ वालों ने कुछ सुरक्षित नही छोड़ा! साँठ-गांठ करके अब यह लोग हमारी मौत का रिकॉर्ड भी तुम्हारे यहाँ से ले आये हैं! एक रहस्य था और उसमे भी कितना रोमांच था कि एक दिन मेरी डार्लिंग, मेरे सपनो की रानी, मेरी मौत, मेरे पास आएगी और मुझे सजनी की तरह आकर अपने आगोश में भर लेगी और मैं आनंदित होकर सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लूँगा। अब कर लों बात…यह रहस्य और रोमांस भी गया! सन दो हज़ार इक्वञ्जा के जून महीने के नौवें दिन 24 घंटे के अंदर किसी भी वक्त मुझे मौत आ सकती है! अगर यह कमबख्त मेरे मरने का समय भी बता देते तो मैं उस दिन थोड़ा और सकून से मर जाता..। नहा-धोकर धूप-बती कर लेता .अपनी दाढ़ी-शेव बनाकर समय पर तैयार हो जाता। मेरे घर वाले भी चैन से अपना नाश्ता-लंच कर लेते या फिर अपना खाना-पीना उस घड़ी से कुछ आगे-पीछे कर लेते जब यमदूत अपना वाहन मुझे ढोने के लिए लाने वाले थे! अपने घर वालों से सफर में भूख लगने पर खाने के लिए कुछ ‘टिफन’ में ‘पेक’ करने का आग्रह कर लेता …न जाने कितना लंबा सफर हो…और न जाने कब जाकर किस पहर मुंह के रास्ते पेट में कोई निवाला जाये? कौन जानता है की ऊपर वाले के उधर भी कोर्ट-कचहरी जैसा ही होता हो और घर से अपनी रोटी बांध कर ले जानी होती हो? या फिर क्या उधर भी कचहरी की तरह अहाते में पीपल के पेड़ के नीचे कोई कुल्चे-छोले वाला मिल जाता है? भई, इन ‘वेब-साइट’ वालों पर अब मेरा पूरा विश्वास हो चला है, उन्होने मेरी मौत का कारण हृदय-रोग बताया है। पता नही इनको मेरे इतिहास और ‘सेहत -रेकॉर्ड’ के बारे मैं कैसे पता चला है…मुझे यह जानकार ताज्जुब हो रहा है…हाँ, मुझे अपनी इकलोती जवानी में ही शिमला की एक मृग-नयनी, कमसिन और बाली-उमरिया की एक छोकरिया से… हो गया था ! खुदा की मर्ज़ी थी या संजोगों की बात… हमारी नही हुई… और हो सकता है वह आज भी कहीं गोलगप्पों और चाट का मज़ा ले रही हो और हम समझदार आज भी उसके लिए अपना खाना छोड़े बैठे हैं! खैर, जो भी जानकारी उपलब्ध है उसके मुताबिक तब मेरी उम्र 93 वर्ष से कुछ दिन कम होगी। पता नही इतने साल और जिंदा रहकर मैंने किस के बाप का कर्ज़ चुकाना है जो अब तक मैं चुका नही पाया! उस दिन शुक्रवार होगा, जुम्मे का दिन ! अल्हा के कर्म से आप में से तब तक कोई बाकी बचा (जीवित रहा) तो सप्ताहांत के कारण आपको आने जाने में सुविधा रहेगी। यह दिन 2051 वर्ष का 160वां दिन होगा और और लुट्टीयां डालने के लिए आपके पास साल में अभी भी 205 दिन शेष बचेंगे! याद रहे, 2051 का वर्ष लीप वर्ष नही है, इसलिये लुट्टीयां डालने के लिये आपका एक दिन और कम हो गया ! यह पूर्व जानकारी इसलिये तांकि आप कोई बहाना न बनाये कि आपको समय पर सूचना नही दी, अभी से अपनी ‘स्मार्ट वाच’ को बता दें, पता नही इस कागची कलेंडर का प्रचलन उस समय हो या न हो ! पता नही आपको याद भी रहे या न रहे, आपके पास भी तो ‘टाइम नही है…टाइम नही है…मरने का भी टाइम नही है …!’ हमारी ‘सोशल सेकुरिटी’ तब तक रहे या न रहे, हम भी रहे या न रहे लेकिन यह बात तो निश्चत हो गई है कि उस दिन तक दुनिया रहेगी। उसके बाद क्या होगा आपमें से ही कोई बता सकता है ! कहते हैं, आप मरा, जग परलो होई, अर्थात जब मैं मरा तो…मेरी ब्लाँ से…यानि जब मैं आपके लिये मरा तो आप सब भी, सब के-सब, मेरे लिये मर जायेंगे…’चैप्टर क्लोज्ड’ ! तब, ‘न काहू से दोस्ती, न काहू से वैर।’ खैर, जो भी होगा, ठीक ही होग, ऐसा मेरी पवित्र धार्मिक पुस्तक गीता कहती है! हाँ, मेरी एक ख्वाईश । मुझे ‘चमेली’ और उसकी सुगंध से काफी लगाव है । अपने पैसों से खरीद कर लाना क्योंकि मेरे मरने के बाद किसी ने मुझ पर एक पैसे के उधार का भी विश्वास नही करना! अपनी मौत का दिन जानकार एक बात की खुशी कि मैं अब तब तक चाहे जो मर्ज़ी आए करता फिरूँ …मुझे लाइसेंस मिल गया है… किसी का बाप भी अब मेरा कुछ नही उखाड़ सकता मेरा मतलब बिगाड़ सकता, चाहे मैं किसी ईमारत की पाँचवी मंज़िल से भी नीचे क्यों न कूद पड़ूँ । मुझे, कोई आंच नही आ सकती! लेकिन, यह सब जानते हुए भी मेरा मन डरता है और प्रभु से मेरी यह विनम्र प्रार्थना है, “बस, उतने ही दिन देना, भगवन, जो मैं किसी अपने या पराये पर निर्भर हुए बगैर चलते-फिरते, खुशी-वुशी के साथ बिता सकूँ, नही तो इस विदेश में एक भी नही सगा मेरा जो बिना मतलब के एक पानी का ग्लास भी पीने को दे दे …! ए खुदा, मुझे किसी से ऐसी कोई उम्मीद न रखने के लिए समर्थ बनाये रखना! तूँ सब की देखभाल करने वाला है, और बड़ी रहमतों वाला है, मुझे भी अपनी छत्रछाया में रखना! जय बजरंग बली, करना सब की भली, लेकिन मेरा बुरा चाहने वालों की तोड़ना गर्दन की नली ! अशोक  के  परुथी “मतवाला”

जाएँ तो जाएँ कहाँ

ज्यों ही मकान मालिक ने हमें मकान खाली करने का सुप्रीम ‘ऑर्डर दिया, हमारी तो बोलती ही बंद हो गई। नए सिरे से मकान ढूँढने की फिर से नई समस्या! उफ, नये मालिक अपना मकान किराये पर देने से पहले क्या-क्या शर्ते रखते हैं और कैसे-कैसे सवाल करते हैं। तौबा, मेरी तौबा, मैं बाज़ आया किराये के लिए खाली मकान ढूंढने से! मकान किराए पर देने से पहले यह नामुराद लोग ‘हम छड़ो’ को ऐसे देखते है जैसे ‘हम’ कोई उग्रवादी हों या फिर उनकी जवान लड़की ले उड़ेंगे! जब से मकान मालिक ने एक महीने में मकान खाली करने का ‘नोटिस’ दिया है तब से मैं तो ठीक से खाना भी नही खा पाया। सब कुछ भूल बैठा हूँ। मेरी ‘लुक’ ऐसी हो गई है जैसे मेरी गाय चोरी हो गई हो! सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि मेरे पास दो हफ्ते का समय रह गया है और अभी तक कोई मनपसंद मकान किसी मनपसंद मोहल्ले में नही दिखा। ‘रंडी के जवाई की तरह’ फिर से घूमना पड़ेगा, मकान की तलाश में! – बस यही एक सौच मुझे खाये जा रही है! मकान मालिक से थोड़ा और समय इसी मकान में रहने की मोहलत मिलने के भी आसार नही दिखते थे क्योंकि अगले माह की दस तारीख को मकान मालिक की “बिटिया रानी” की शादी थी। खुदा कसम अगर मकान ढूंढने से पहले मैं वाकिफ होता कि क्या-क्या मुश्किले झेलनी पड़ेंगी तो मकान मालिक से साफ-साफ कह देता कि मकान मिलने तक खाली नही करूंगा – उखाड़ लो जो चाहे तुम्हारे मन में आये! पर क्या करें, अब सिर पर आ ही पड़ी है तो सब-कुछ झेलना तो पड़ेगा ही। ‘नाचने लगे तो घूँघट कैसा?’ कहावत को चरितार्थ करते हुये हम मैदान में कूद पड़े, मकान की खोज में। इसी बहाने हमे अपने शहर की कई गलियाँ, चौबारे और उनमे बसने वाली कलियां ते कलहीयां (अकेलियाँ), दोनों को देखने का मौका मिला। हमने अपने दोस्त मिस्टर चोपड़ा को अपने साथ लिया और मकान ढूंढने के लिए घर से निकल पड़े। ‘मित्र वही जो मुसीबत में काम आये’ वाली कहावत को सार्थक करते हुये चोपड़ा जी ने रविवार का दिन चुना था! पहले से निर्धारित तलाश किये जाने वाले ईलाके में प्रवेश करते ही दायें हाथ की पहली गली में बाएँ हाथ पर, दूसरे घर के बाहर एक ‘टू लेट’ की पट्टी लटकती दिखायी दी। हमारी आँखों में आशा की एक लहर दौड़ गई जैसे प्यासे की आँखों में पानी की मटकी को देखकर दौड़ती है! मिस्टर चोपड़ा जो मेरी दायीं तरफ़् थे, ने गेट के दाहिनी तरफ ‘लेटर बाक्स’ के ऊपर लगी ‘काल बेल’ को दबाया। इसके बाद हम दोनों दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगे। अगले ही क्षण गैलरी में से हमारी और आती हुई एक वृद्धा दिखाई दी जो हमसे सुरक्षित दूरी आ कर रूकते हुये हमसे तशरीफ लाने का कारण पूछने लगी। जवाब देने से पहले ‘माता जी’ पर अपना ‘इम्प्रैशन’ बनाने के लिए मैंने अपनी मुस्कराहट से लिपटा हुआ उन्हें प्रणाम किया। मेरे मित्रवर चोपड़ा जी को भी विवश होकर, मेरी खातिर हाथ जोड़कर ‘माता जी’ को प्रणाम करना पड़ा, चाहे उसने अपने माता-पिता को भी इससे पहले कभी हाथ जोड़कर प्रणाम नही किया था! “छड़े हो या ‘फ़ैमिली’ वाले?” माता जी का पहला प्रश्न सुनकर ही हमारे चेहरे से मुस्कराहट विदा हो गई! मैंने हिम्मत करके जवाब दिया, “जी, अभी तो छड़े ही हैं…!” “जी लड़का बड़ा ‘हैंडसम’ है, शादी का क्या है… समय आने पर वह भी हो जाएगी।“ मेरे दोस्त चोपड़ा जी ने मेरे लिये आगे की बात संभाली। “अस्सी छड़ेया नूँ मकान नी देना, बुरा ना मनाना मेरी गल्ल दा, छ्ड़े बड़ा गंद पादें ने…!” “एक बात कहूँ, आंटी जी, यह लड़का बड़ा शरीफ है – खानदानी शरीफ – अच्छी नौकरी पेशे वाला है…!” मेरे हक में मिस्टर चोपड़ा ने माता जी को जवाबी दलील दी! “मैंने कहा न, हमारा छड़ों को किराये पर मकान देने का पिछला तजुर्बा ठीक नही रहा…!” “लेकिन आपको मैं विश्वास दिलाता हूँ, इस बार आपको निराशा नही होगी…!” चोपड़ा जी ने मेरी गारंटी लेते हुये कहा! “पड़ोस में कई मकान और भी हैं जो किराये के लिए खाली हैं…मैं चाहूँ भी तो भी मेरा मन नही मानता…” माता जी ने कहा और अपने ईरादे से उनको जरा सा भी ईधर-उधर न होते देख कर एक बार फिर हम दोनों गली में थे! “तूँ अपनी कुड़ी देनी ए?… “अस्सी छड़ेया नूँ मकान नी देना…” चोपड़ा जी ने माता जी की नकल करते हुये कहा! मेरा भी हस्ते-हस्ते बुरा हाल हो गया! एक बार फिर हम अपना-सा मुंह लिये गली में थे। दो – तीन गलियां घूम गये लेकिन किसी घर पर लगी ‘टू लेट’ की पट्टी ने हमारा स्वागत नही किया या फिर हमारा मुंह ही चिढ़ाया। सहसा, चोपड़ा जी को एक और किराये के लिए खाली मकान दिखा तो वे लगभग चिल्ला पड़े, “वह देखो…!” मैं समझा जैसे चोपड़ा जी मुझे किसी लड़की को देखने के लिए कह रहे हों (कमबख्त, मिस्टर चोपड़ा किसी कमसिन हसीना को देखकर ही ऐसा ही करता है) मेरी तो उस भूखे वाली हालत थी जो ‘दो और दो कितने होते हैं’ के जवाब में कहता है – चार रोटियाँ। इस घर के बाहर दीवार पर काले रंग की ‘काल बेल’ का सफ़ेद बटन जैसे अपने सफ़ेद दाँत निकाल कर हमारा मुंह चिढ़ा रहा था। चोपड़ा जी ने उसके दाँत पर एक घूसा दे मारा और घंटी चीख पड़ी! यह मकान मालकिन थोड़ा खुश-मिजाज सी लगी। अपने बेटे को आवाज लगाते हुये बोली, “पप्पू बेटा, जरा अंकल को उपर का कमरा-सैट दिखा दे… आजा बेटा !” उनके संदेश को सुनकर मैंने अपनी सारी ऊमीदें सँजो ली! इससे पहले कि ‘उनका पप्पू’ आता, और हमे कुछ दिखाता, उनका पहला सवाल था, “नौकरी करते हो या ‘बिजनेस’ वाले हो?” “ जी…नौकरी करता हूँ…!” जवाब में मैंने अपनी प्रतिष्ठित ‘फर्म’ के कंधे पर रख कर बंदूक चला दी और मन ही मन कहा, “तुस्सी मेरे नाल अपनी धी दा वियाह करना जां किराये ते अपना मकान देना…हद हो गई यार शराफत दी…?” फिर उन्होने कई और सवाल किये। उनका अगला प्रश्न मेरे कलेजे में तीर की भांती आ लगा, वही सवाल जो … Read more

दूरदर्शी दूधवाला

दूध में पानी बहुत होता है, इसके लिए अपने दूधिये को गालियां मत दें बल्कि उस का शुक्रिया करें कि उसने आपको आज तक हृदय-रोग से कुछ हद तक बचाये रखा! विकसित देशों में भी लोग स्वस्थ्या कारणो से एक प्रतिशत या दो प्रतिशत दूध का ही इस्तेमाल करते हैं, बाकी पानी ही होता है। विदेशों में खालिस दूध (100 प्रतिशत) दूध का इस्तेमाल हम देसी लोग दही बनाने या नहाने (बालों में लगाने) के लिए ही इस्तेमाल करते हैं! अब समझ में आया आपको कि हमारा ग्वाला इन गौरों से कितना ज्यादा समझदार है या था! वर्षों से वह अपनी इस सामाजिक कल्याण की ज़िम्मेवारी को बखूबी निभा रहा है! आपके पूछने पर वह दूध में पानी मिलाकर दूध बेचने की बात को हमेशा नकारता है … आपके फायदे के लिए वह झूठी कसमें खाता है…भला क्यूँ? …क्योंकि वह इस बात में विश्वास करता है — नेकी कर कूएं में डाल! विदेश में भी आजकल दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोई जरूरत नही पड़ती क्योंकि एक प्रतिशत, दो प्रतिशत या फिर “फैट फ्री’ दूध पानी ही की तरह होता है! दो प्रतिशत फैट वाले दूध को एक प्रतिशत करने के लिए खरीद दारों को सिर्फ यह करना होता है कि घर आकर दो प्रतिशत वाले दूध के एक गेलन के दूध वाले डिब्बे के साथ एक गेलन पानी और मिला लिया जाये! लेकिन, हम वह भी नही करते। दुकानदार यह काम हमारे लिए सरेआम दूध के डिब्बों पर लिख कर करते हैं और हम उन्हें ऐसा करने के लिए खुशी खुशी उनके द्वारा निर्धारित दाम देते हैं ! यहाँ लोग (विदेश में) इस बात पर एतराज़ नही करते कि दूध में पानी है क्योंकि दूध वाली कंपनिया दूध के डिब्बों पर लिख देती हैं कि उसमे क्रीम की कितनी मात्रा है (एक प्रतिशत/दो प्रतिशत दूध) इसके विपरीत भारतियों को दुख और गिला इस बात का होता है कि ग्वाला उनसे धोखा करता है , वह उन्हे यह नही बताता कि उसने उसमे कितना पानी मिलाया है ! मैं शर्त लगा कर कहता हूँ कि अपना एक भी भारतीय एतराज़ नही करेगा अगर ग्वाला आकर उन्हे बता दे कि दूध में आधा हिस्सा पानी है और दूध-पानी के मिश्रण का रेट पचास या साथ रूपये लीटर है – दूध लेना हो तो लो नही तो अपनी भैंस रख लो या बकरी!… लोगों को स्प्रेटा दूध से भी काम चलाने का सुझाव वह दे सकता है ! आप समझदार हैं – देश में दूध पीने वालों की संख्या हर दिन बढ़ती जा रही है। उनकी अपेक्षा, दूध देने वाले जानवरों की संख्या दिन-प्रतिदिन घट रही है …ऐसी दशा में ग्वाला पानी न मिलाये तो क्या करे? दूध में आपके लिए अंगूरों का जूस तो वह मिलाने से रहा! यकीन करें आप उसे तब भी नही बॅकशेंगे! हाँ, विदेश में इतना ज़रूर है कि अगर किसी का हाजमा खालिस दूध का हो तो खालिस दूध मिल ज़रूर जाता है! वहाँ खालिस और पानी समान दूध का एक ही भाव होता है लेकिन अपनी मर्ज़ी से यहाँ का उपभोक्ता पानी वाले (कम क्रीम वाले) दूध को खरीदता है! अपने देशियों का अपने देश में ही ग्वालों के प्रति दुर्व्यवहार है, विदेशों में चूँ तक नही करते! वे अपनी मर्ज़ी से पानी वाला दूध खरीदतें हैं और दुकानदार को उसकी मर्ज़ी के दाम देतें हैं! अपने भारतियों का यह जुल्म है कि नही? विदेश में देसियों की आदतें भी बिगड़ गई हैं । आज की तारीख में बिनोले खाने वाली दूध देती भैंस का अगर मुझे एक तीन-पावा पीतल का दूध से भरा ग्लास पीने को मिल जाये तो उसे हजम करने में मुझे तकलीफ होती है ! अगर ऐसे खालिस दूध को मैं कभी पचा लूँ तो मुझे खुद को चाँदी के तगमे से ज़रूर सम्मानित करना पड़ेगा और अपने पेट की भी दाद देनी पड़ेगी! वह भी एक ज़माना था जब दादा जी को कहते सुना था, जो खाना खाने के समय संदेशा भिजवाते थे – “माँ रन्न को कहना, रोटी को मखण से अच्छी तरह चोपड़ कर दे!” यकीन करें यदि ग्वाले ने आपको ‘फैट वाला खालिस दूध पिलाया होता तो अपोलो के डाक्टरों की चाँदी अब तक प्लैटिनम हो गई होती – सुना है वहाँ के डाक्टर आप ही की टाँगो में से आपकी नाड़ियाँ निकाल कर दिल को रक्त से सींचने के लिए जो टाका-पन्ना करतें हैं, उसके पाँच से दस लाख ले लेतें हैं। मुझे कोई शक नही कि भारत में गरीब को हार्ट अटैक मारे या न मारे, इन डाक्टरों की फीस तो ज़रूर उन्हे गश खिलाकर धूल चटाती होगी! खैर, भारत में सस्ता तो आजकल मौची भी नही है! इन डाक्टरों को रोने से कोई फायदा? किसको किसको रोये, बस आवा ही खराब है! कितना दूरदर्शी था हमारा पिछले कल का ग्वाला और आज का भी है जिसने अपने इस उपकार की कभी किसी से कोई इच्छा नही की! जय हो दूधिये, तुस्सी बहुत ग्रेट हो, जी! … आपके अगले-पिछले सबों को नमन! सदियों से आपके इस परोपकार का मैं कृतज्ञ हूँ! मुझे आपके दूध में पानी मिलाने का कोई एतराज़ नही परंतु उसमें से जब कभी कोई मेंडक निकलता है तो आपका दूध मेरी हलक से नीचे नही उतरता…! अशोक परुथी “मतवाला”