मेरी बत्तीसी

चौराहे पर दो लड़के लड़ रहे थे। एक ने दूसरे को धमकी दी , “ओये, चुप कर जा…नही तां इक ऐसा घुसुन्न दऊँ कि तेरे छती-दे-छ्ती दंद बाहर आ डिगन गे!” वही खड़े एक तमाशखोर ने जब यह सुना तो उसने आग में घी डाला, “ओये मुरखा तेनु एह वी नही पता कि साडे बती दंद होनदे ने, छत्ती नही …!” तो पहला बोला, “मेनू एह पता है…नाले मैनू पता सी, तू वी मेरे नाल पंगा लेंगा…एस करके मैं ‘चार दंद तेरे वी गिन के उसनू दस्से ने!” दाँतो के डाक्टर के पास जाने का समय बेगम ने ही लिया था। डॉक्टर ईलाज के लिए चार सौ डालर मांग रहा था लेकिन रामदुलारी फीस कम करवाने के लिये उससे सक्रिय रूप से बातचीत कर रही थी! वह उसे पचास डालर लेने के लिये रज़ामंद कर रही थी। लेकिन डाक्टर 75 डालर पर अटका पड़ा था। डाक्टर का कहना था,” मेम, एक शर्त पर मैं पचास डालर ले सकता हूँ …दाँत निकालने से पहले दर्द की कोई दवा नही दूँगा …फिर उसने व्याख्या की – दर्द की दवा बहुत महंगी है, इतने पैसों में तो मैं मरीज को दाँतो को सुण करने वाली दवा की एक बूंद भी नही दे सकता। मरीज दर्द से चीखेगा, चिलायेगा, तड़फेगा, पीड़ा के मारे ‘डेंटल चेयर’ से उठ उठ कर बाहर आयेगा, बिना धड़ वाले मुर्गे की तरह छटपटायेगा… यह तो मरीज के साथ ज़ुल्म होगा और हाँ मेरी सेक्रेटरी मंजु दाँत निकालेगी जिसने इससे पहले कभी किसी का दांत नही निकाला …अब पीड़ा का आप खुद अंदाज़ा लगा लें!” “मंजूर है, दर्द की बिल्कुल परवाह नही…. क्या आप मेरे पति को कल सुबह आठ बजे का टाईम दे सकते है?” यह तो था मज़ाक… और अब यह वास्तविकता। सुनयार, वकील और पुलिस वाले, यह ऐसे तीन पेशे वाले है जो किसी को नही बकशते। कहते हैं जब धंधे की बात आती है तो अपने बाप को भी नही छोडते और उन्हे भी थूक या चूना लगा देते हैं! इनकी श्रेणी में मैं अपने तजुर्बे के आधार पर ‘डेंटिस्ट्स’ को भी जोड़ना चाहूँगा! सन 1987-88 की बात है! उस वक़्त मैं यहाँ के (अमेरिका) के एक दूसरे शहर में रहता था। अभी नया नया ही भारत से यहाँ आया था! अपनी नौकरी वाली कंपनी से मैंने दांतों की बीमा-योजना खरीद ली थी जिसके तहत मैं साल में दो बार जाकर,अपनी जेब से बिना एक पैसा दिये अपने दाँत साफ करवा सकता था! राम दुलारी की कसम इससे पहले तो मैं भी आपकी तरह किसी डेन्टिस्ट के पास नही गया था! उन दिनो सुबह के वक़्त खुले में ही जंगल-पानी जाने का रिवाज़ और नियम हुआ करता था और आदत भी! लोग रास्ते में से किसी एक कीकर की एक टहनी से दातुन बना कर अपने दांत चमका लिया करते थे! उस वक़्त मेरी बत्तीसी ऐसी चमकती थी जैसे अनार के दाने हो! नही तो घर में नीम का एक बड़ा पेड़ भी था जो छाया और निमोलियां देने के ईलावा हमे दाँतो के डाक्टरों से भी दूर रखता था! लेकिन इनके पास जाना तो आजकल ‘स्टेटस सिंबल’ सा हो गया है। मेरी बाली-उमरिया में न तो यह डेंटिस्ट्स ही होते थे ओर न ही उनकी जात! हाँ, नाई, हलवाई, मौची और पंसारी आदि तो आम हुआ करते थे लेकिन इन दांत साफ करने वालों के बारे में मैंने तो कभी नही सुना था! जब अपने हाथ-पाँव मौजूद हैं तो किसी से दाँत साफ करवाने की क्या ज़रूरत? और हाँ, लोग शेर होते थे, उनके दाँत बहुत मजबूत होते थे। मैंने भी अपने जमाने में बांस और काने अपने दाँतो से गन्ने की तरह छीले हैं! …और फिर शेरां दे दंद किन्हे धोते? बस, यही तो होता था न? मर्द कीकर या नीम के दातुन से और औरतें रँगीले दातुन से (क्योंकि वह दाँतो को साफ करने के ईलावा उनके होंठो को भी रंग देता था) अपने दांत साफ करते थे। किसी दिन कुछ न मिला तो हैंड-पम्प के पानी के साथ खाली उंगली से भी दाँत साफ करने का काम चला लिया जाता था ! अगर यह बात सच है और आपने भी इस हकीकत का समय देखा और झेला है तो ईमानदारी से अपने हाथ खड़े करें! खैर, मेरा दाँतो का डाक्टर बड़ा हैरत में पड़ गया जब मैंने उसे 29 साल की उम्र में बताया कि मैं उससे पहले किसी दूसरे, मेरा मतलब पहले, डाक्टर के पास नही गया। इसके बावजूद भी उसे मेरे मुंह में एक ‘केविटी’ नही मिली। जब मैंने उसे बताया कि मैं पेड़ की एक लक्कड़ से अपने दांत साफ करता था तो वह विस्मित हो उठा! बाज़ार में ब्रुश और पेस्ट होती होगी लेकिन मुझे इसका इल्म नही क्योंकि मेरे पास यह सब कुछ नही था! मैंने अपने दौर में दूसरों को कच्चे कोयले में थोड़ा सा नमक मिलाकर और फिर उसे पीस कर ‘होम-मेड’ मंजन से भी अपने दाँत साफ करते देखा है। छह महीने के बाद मैं फिर अपने डेन्टिस्ट के पास अपनी दूसरी ‘विजिट’ के लिए गया तो उसे फिर मेरे मुंह में थूक के इलावा कुछ नही मिला, मेरा मतलब दाँतो में कोई ‘कीड़ा-वीड़ा’ नही मिला जिसे यह अंग्रेज़ लोग ‘केविटी’ कहते हैं। पहली बार यह शब्द सुना था लेकिन इससे पहले खड्डे और खाई तो बहुत बार मैंने सुन रखे थे क्योंकि बचपन में मेरा आधा दिन इन्ही में बितता था। मिट्टी के ढेले, टूटे घड़े के ठीकरे, ईंट, रोड़े और पत्थर मेरे खिलौने हुआ करते थे! गुल्ली डंडा, लुक्कन मिटी, गली मोहल्ले में बंदरों की तरह पेड़ो से ऊपर-नीचे लपकना तो कभी स्टापू की गेम जो लड़कियां खेलती थी, मेरे पसंदीदा खेल हुआ करते थे! इन डाक्टरों से भी मेरा अल्हा ही बचाये! शायद इनको भी हमारी तरह अपने बिल देने पड़ते हैं। मेरा डेन्टिस्ट एक्सरे को देखते हुये कहने लगा, “मुझे तुम्हारा ‘विज़डम टूथ’ निकालना पड़ेगा…!” “वह क्यूँ, भाई?” “मेरा भी नही है…!” “आपकी अक्कल…जाड़ नही है लेकिन मेरी भी बाहर निकालने का यह कोई अच्छा तर्क नही है!” मैंने उसे जवाबी तर्क दिया था! अपनी ‘विज़डम’ …टूथ ….निकालने के बाद मेरी भी निकालने पर लगे हो …पहले पूरी तरह अक्कल ……की जाड़ .. आने तो दो…!” मैंने अपने मन … Read more

“अंतर “- अभिव्यक्ति का या भावनाओं का – ( समीक्षा – कहानी संग्रह : अंतर )

सही अर्थों में पूछा जाए तो स्वाभाविक लेखन अन्दर की एक बेचैनी है जो कब कहाँ कैसे एक धारा  के रूप में बह निकलेगी ये लेखक स्वयं भी नहीं जानता | वो धारा तो  भावनाओं  का सतत प्रवाह हैं , हां शब्दों और शैली के आधार पर हम उसे कविता कहानी लेख व्यंग कुछ भी नाम दें | ये सब मैं इस लिए लिख रही हूँ क्योंकि अशोक परूथी जी से मेरा पहला परिचय एक व्यंग के माध्यम से हुआ था | “ राम नाम सत्य है “ नामक व्यंग  उन्होंने हमारी पत्रिका “ अटूट बंधन “ के लिए भेजा था | रोचक शैली में लिखे हुए व्यंग को हमने प्रकाशित भी किया था | हमें पाठकों की प्रसंशा  के कई ई मेल मिले | उसके बाद एक सिलसिला शुरू हो गया | और अशोक जी के व्यंग मासिक पत्रिका “ अटूट बंधन “ व् हमारे दैनिक समाचार पत्र “ सच का हौसला “ में नियमित अंतराल पर प्रकाशित होने लगे | उन्हें  व्यंग विधा में एक बडे  पाठक वर्ग से सराहना मिली | उसके बाद परूथी जी की हास्य कविताओं से रूबरू होने का मौका मिला और अब ये कहानी संग्रह “ अंतर  “ | मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है की परूथी जी लेखन की हर विधा में प्रयोग करते हैं और अपनी एक खास शैली में भावों का खाका खींच देते हैं | ठीक वैसे ही जैसे किस चट्टान को काटकर भावनाओं की ये धारा  किस रूप में निकलेगी यह नदी भी नहीं जानती | अंतर कहानी संग्रह में विभिन्न भावों को दर्शाती कहानियों का समावेश किया गया है | कुछ कहानियों में जहाँ हास्य का पुट है वहीँ कुछ कहानियाँ एक अजीब कसमसाहट ,बेचैनी और वेदना से घिरी हुई हैं | विशेष रूप से मैं उल्लेख करना चाहूंगी कहानी अंतर , पिंजरे का पंक्षी व् उसकी मौत का जहाँ अंतस की बेचैनी पाठक स्पष्ट रूप से महसूस करता है | संग्रह की पहली व्  मुख्य कहानी ” अंतर ” पति व् प्रेमी के अंतर ती तुलना करती स्त्री के मनोभावों को ख़ूबसूरती से उकेरती है | उसका मुख्य केंद्र बिंदु है प्रेम की अभिव्यक्ति के अंतर पर , भावनाओं के अंतर पर और उसके हिस्से में आया अंतहीन इंतज़ार , जिसे वो पहले कर न सकी परन्तु बाद में विधाता ने यही उसके भाग्य में लिख दिया | जिस पर रेंगते हुए ही उसे जीवन काटना है | मैं  विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगी कहानी ” उसकी मौत ” का जिसे हमें अपने दिनक समाचार  पत्र ” सच का हौसला ” में प्रकाशित किया है |ये कहानी नशे की लत से जूझती युवा पीढ़ी के इर्द – घूमती है | जहाँ नशे की लत से साथी की मृत्यु के उपरान्त  अन्य दोस्त अपने नशे की आदत को छोड़ देते हैं | ” उसकी मौत ” उन्हें हिला कर रख देती है | कहानी जहाँ समस्या उठती है वहीँ समाधान के साथ बहुत भावुक भी कर देती है | यह ही नहीं  संग्रह की अधिकतर कहानियाँ समाज की किसी समस्या या मनोवैज्ञानिक पहलू को उठाती हैं व् उसमें डूबते उतराते पाठक को कुछ सोचने में विवश अवस्था में छोड़ देती हैं | वहीँ कुछ कहानियों में हास्य का पुट दे  कर परूथी जी पाठक को निराशा में डूबने से भी उबार लेते हैं | सभी कहानियाँ हमारे आस –पास के परिवेश से उठायी गयी हैं इसलिए उनके पात्र अपने जाने पहचाने से लगते  हैं | साथ ही कहानियों का ताना – बाना सरल –सहज भाषा में बुना गया है | हालांकि यह परूथी जी का पहला कथा संग्रह है पर जिस तरह से उन्होंने कहानियों को उकेरा  है व् उनमें संवेदनाओं का संप्रेषण किया है उसको पढ़कर उनके लेखन के क्षेत्र में सफल होने का सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है | और जैसा की परूथी जी के जीवन परिचय से मुझे ज्ञात हुआ की उन्होंने छोटी उम्र से लिखना प्रारंभ कर दिया था जिसे जीवन की व्यस्ताओं के कारण स्थगित करना पड़ा और  एक लम्बे अंतराल के बाद पुन : लेखन प्रारंभ किया | पर उनके लेखन से  सिद्ध होता है की प्रतिभा कभी मरती नहीं , उसको  जब सही जमीन मिलती है , अंकुर फूट ही पड़ते हैं मुझे विश्वास है की उनका यह संग्रह लोगों को पसंद आएगा | मैं लेखन के क्षेत्र में उनके उज्जवल भविष्य के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ |                              वंदना बाजपेयी                          कार्यकारी संपादक                                                         अटूट बंधन 

चलो चले जड़ो की ओर : अशोक परूथी

                                                                                  माँ देश में बेटे के बिछोड़े में अकेली रोती तो है लेकिन इसका हल क्या है। उसे अपने साथ विदेश भी ले जाओ लेकिन उसका मन वहाँ नही लगता। अपने बेटों या बेटियों के पास भी उसका दिल नही लगता, उसका मन तो बस उसी मिट्टी में बसा रहता है जहां वह पल्ली और बड़ी हुयी होती है …जिसे वह अपना देश और अपना घर कहती है …उससे अपनी सभ्यता, अपनी भाषा, अपनी गालियां, अपना घर, एक एक पाई इकठी कर जुटाई चीज़े से लगाव …अमिट रहता है। अपनी संतान से जुदाई भी उससे सहन नही होती और अपने वतन की मिट्टी में भी वह मिट्टी होकर रह जाना चाहती है। यह कैसी विडम्बना है – एक तरह अपनी संतान का प्यार, मोह, सुख और लगाव और दूसरी और अपने वतन की मिट्टी जो उसे न इधर का छोडती है न उधर का! यह तो था किस्सा उन माता पिता का जिनके बच्चे विदेश रहते है, उनके बच्चे अपनी रोज़ी-रोटी के कारण विदेश तो छोड़ नही सकते और अपने माँ-बाप को भी अपने पास बुला लेते हैं लेकिन माँ-बाप का वहाँ दिल नही लगता ! लेकिन, मुद्दा भारत में रहने वाले बजुर्गों का है । आज सयुंक्त परिवार नही रहे – कारण वित्य (financial) हो सकते हैं या बहू -बेटियों की निजी आज़ादी का मसला हो सकता है या इसे हम पश्चमी सभ्यता का प्रभाव भी कह सकते हैं। यही हाल विदेशियों का भी है उन्हें अपने माँ-बाप तभी याद आते हैं जब उन्हें अपने बच्चो को रखने के लिए ‘माई’ की याद आती है – यह बड़े दुख की बात है !मेरे पिता कहा करते थे- देखो, एक माँ-बाप का जोड़ा अपने पाँच -या छह (संतान) को पालने -पोषने में क्या क्या कुरबानिया देता है, उनकी पढ़ाई , उनके लालन-पालन में अपना सब सुख-आराम और धन सब कुछ वार कर देता है । यही नही उन्हें अच्छी शिक्षा देने के ईलावा अपने सुखी भविष्य की परवाह न करते हुये अपने बचे-खुचे धन को भी उनकी शादियों पर खर्च कर देता है और फिर यह नतीजा – यह सारे स्मारिद्ध बच्चे – जो आज डाक्टर, इंजनीयर, वकील या किसी सफल व्यवसाय में ही क्यूँ न हों – सारे के सारे, सब के सब , मिलकर भी अपने एक माता-पिता का उनकी वृद्धावस्था में दायित्व नही लेते या ले सकते!मेरे बच्चो, मेरे भाईयो अपने माँ-बाप के लिए कुछ न करो एक्सट्रा करो, अगर उनसे दूर भी रहते हो तो थोड़ा समय निकाल कर उन्हे मिल ज़रूर आया करो और अगर यह भी मुमकिन नही तो उन्हें कभी -कभार फोन ही कर उनका हल-चाल पूछ लिया करो , बस इस्सी में माँ-बाप खुश हो जाते हैं – बस इतना तो हम सबका फर्ज़ बंता है ….भगवान हमसबको सतबुद्धि दे और इस दिशा में ठोस कदम उठाने का साहस दे …नही तो कल हम भी बूढ़े होंगे …हमारा भी यही अशर होगा जो आज हमारे जीवन देने वालों का हो रहा है । बदनसीब, हैं वह लोग जिंहे अपने माता-पिता का आशीर्वाद नही मिलता ! ताकि समय निकाल जाने के बाद आपका यह गि”ला न रहे –मामा -पापा , प्लीज़ मुझे एक बार और अपने गले लगा लो!” अशोक परूथी  

“एक दिन पिता के नाम “….कुछ भूली बिसरी यादें (संस्मरण -अशोक के.परुथी

“त्वदीयवस्तुयोगींद्र,  तुम्यमेवसम्पर्य               धर्मप्रेमी, नियमनिष्ठ, साहित्यरसिक!” पिता-दिवस सभी को मुबारक। वह सभी लोग खुशनसीब हैं जिनके सिर पर उनके पिता का साया है और उन्हें उनका आशीर्वाद प्राप्त है! पिता का वर्ष में सिर्फ एक ही दिन क्यूँ, बल्कि  हर दिन आदर और सत्कार होना चाहिये।          व्याखान की सामग्री के रूप में श्लोकों, दोहों, टोटकों, व्यंग्य, कथा–कहानियोंआदिको संग्रह करने की रूचि मुझे प्रारम्भ से ही रही है।  इसका सारे का सारा श्रेय मेरे पूज्य पिताजी को जाता है, उन्होने जो ज्ञान–दान मुझे दिया, वह जीवन में मेरे लिए अविस्मरणीयऔरअमूल्यहै। कुछ भूली बिसरी यादें        मुझे ही नही बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों के कण–कण में भी उन का यह उपकार छिपा है!  पिताजी के स्नेह तथा वात्सल्य से लाभान्वित होकर ही मैं लेखन की दिशा मेंअग्रसर हो सका हूँ! पिताजी असूलोंकेबड़ेपाबंदथे, एक ईमानदारऔरमेहनतीइंसानथे।उन्होने  हमारी माताजी, जो पेशे से एक अध्यापिका थी, के सहयोग से हम पाँचभाई बहिनो का अपनी हैसियत से बढ़कर लालन–पालनकिया । उन्होने हमें एक सफल जीवन जीने के लिये जो मूलमंत्र दिये उनको अपना कर ही हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं जहांआज हम सब हैं!            पिताजी कुटुम्भ–प्रेमी, सत्यप्रिय, और बड़े उदार प्रतिभा वाले व्यक्ति थे।  एक बात तो मैं आज भी बड़े गर्व के साथ जो उनके बारे में कह सकता हूँ वह यह है कि वे रिश्वत लेनेऔर देने वाले दोनों के ही दुश्मन थे!  घर में सिर्फ उनका मासिक वेतन हीआता थाऔर वह अपनी चादर देख कर ही पाँव फैलाते थे।  पिताजी जबसरकारी नौकरी से निवृत हुये तो उन्होनेअपनाअधिकांश समय जरूरत–मंदों की मदद करने में लगाया। मुझेआजभीबहुतअच्छी तरह याद हैकि पिताजी पेट की गैस से छुटकारा पाने के लिये चूर्ण की गोलियां बनाकर हर जरूरतमंद को मुफ्त वितरित किया करते थे!  लोगों को उनसे कितना स्नेहथा यह उनके दाहसंस्कार के लिए उमड़ –आये लोगो की भीड़ को देखकर ही बनता है!       मेरे संस्कारों एवं शिक्षा निर्माण में उन्होने जो अपना समय मेरे लिए बिताया उनकायहउपहारअमूल्यहैऔरउसकेलिए मैंउनकाऋणीहूँ!  पिता जी केबहुआयामी अध्ययन–अनुभव से ही मेरा ज्ञान एवं अध्ययन भी व्यापक हो सका है।      पिता जी किसी भी बात कोकहावतों, चुट्क्लों–टोटकोंऔरशायरी–दोहों के माध्यम से बड़ी सरलता से कह देते थे।वेअपने तीखे व्यंग्यात्मक और अप्रत्याशित ढंग से किसी भी बात को कहने के लिए बड़े निपुणऔरकुशलथे।  एकबार जो भी व्यक्ति उनके कटाक्ष का शिकार हो जाता वह फिर न तो हंस ही पाताऔर नही रो पाता था।  पिताजी के यह गुण कुछ मुझे भी धरोहर में मिले हैं, ऐसा मेरा मानना है! घिनौनी बात अथवा कार्य करने वाला कोई भी व्यक्ति उनके सम्मुख टिकन ही पाता था, चाहे वहअपने परिवार का कोई सदस्य था या बाहर का।  ऐसे व्यक्तियों को वे निजी–तौरपर बार–बार लज्जित करने में विश्वास रखते थे।  इसके विपरीत, अच्छे कार्य करने वालों कीसराहना और बढ़ाई करने में भी वे कभी पीछे नही रहते थे।        पिताजी का मिजाज बहुरंगा था और वे बहुरस–भोजीथे।  वे एकही बैठक में एक साथअनेक रसों तथा उनके उपरसों का मान करना पसंद करते थे।  वे जब रँगीले मूड में होते थे तो उनकी मजलि सेघंटों ठहाकों सेगूँजती रहती थीं।इस बीच उन्हें समय का तनिक भ आभास न रहताथा और इसी बात को लेकर माँ उनसे अक्सरअपनी नाराजगी दर्शाती थीं                           पिताजी का जन्म खाकी–लखी, जिलाझंग, पाकिस्तान, मेंहुआ।भारत विभाजन के बाद उनका पहला गृह–स्थान कुरुक्षेत्र में रिफ़ूजियों के लिए लगायेग एटेंटों में से एक था।  माँ–बापकीसबसेबड़ीसंतानहोनेकेनाते, यही से उन्होनेअपने सभी परिवार जनों – भाई–बहिन, माता–पिता, पत्नीऔरअपनी संतान का दायित्व संभाला। इसी दौरान नौकरी के ईलावा पिता जीनेअपनी पढ़ाई भी जारी रखी औ रपंजाब युनिवर्सिटीसे स्नातक की डिग्री प्राप्त की जो कि उन दिनो एक बहुत बड़ी बात हुआ करती थी देश बंटवारे से पहले पिता जी एफ.ए.(ग्यारवीं के समकक्ष) थे।  पिताजी ने दसवीं क्लास प्रथम श्रेणी में पास कीऔर उनके प्रमाण–पत्र पर गवर्नमेंट हाईस्कूल, शोरकोट, पंजाबयुनिवर्सिटी, लाहौर – सत्र 1936- अंकित है।  पिताजी नेअपने 28-30 वर्ष का सेवा काल, नाभा, पटियाला, लुधियाना, जालंधर, चंडीगढ़ आदि शहरों में पूरा किया औरअंत का समय उन्होने हरियाणा केशहर रोहतक में बिताया।       इन विभिन्न प्रदेशों के प्रवासऔर हिन्दी, पंजाबी, अ्ग्रेज़ी तथा उर्दू–फारसी के विभिन्न साहित्यों काअनुशीलन करने के अतिरिक्त, समाज के विभिन्न दौर से गुजरने केअपने अनुभवोंका एक विशाल संग्रह पिताजी के पासथा जिसकी एक छाप कुछ हद तक मुझमें भी झलकती है जो शायद पाठकों को मेरी कुछ रचनाओ में भी देखने को मिले।अंत में बस मैं इतना ही कहूँगा कि पूज्य–पिताजी की बदौलत जो संस्कार, संयम, ईमानदारी तथा व्यंगात्मक स्वभाव मुझे विरासत में मिला है उसके लिए मैं सदैव उनका ऋणी हूँ/रहूँगा। सबसे बड़ा उपहार जो ईश्वर ने हम सब को दिया है वह है पिता! अशोक परुथी “मतवाला“   अटूट बंधन ………. हमारा फेसबुक पेज