कैसे करें शांति व् आध्यात्म की खोज

परिवर्तन संसार का नियम है। जैसे दिन के बाद रात, वैसे ही एक युग के बाद दूसरा युग आता है। इसी परिवर्तन में परमात्मा के आगमन एवं नई दुनियाँ की स्थापना का कार्य भी सम्मिलित है। वर्तमान समय में बदलता परिवेश, गिरती मानवता, मूल्यों का पतन, प्राकृतिक आपदायें, पर्यावरण बदलाव, हिसंक होती मानवीय चेतना, आतंकवाद सभी घटनाऐं बदलाव का संकेत है। आज पूरा विश्व बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे में परमात्मा की अनुभूति कर जीवन में मानवीय मूल्यों की धारणा कर नई दुनियाँ, नम परिवेश के निर्माण में भागीदारी निभाना चाहिए। वर्तमान में हम सुख-सुविधा सम्पन्न युग में रह रहे हैं। सब कुछ इंसान की मुट्ठी में है, लेकिन मन की शान्ति का अभाव है। हमारे अंदर का अमन चैन  कहीं खो गया है, वो अंतर्मन का प्यार, विश्वास और शान्ति हमें चाह कर भी नहीं मिल सकती है। चाह तो हर व्यक्ति की है हमें दो पल की शान्ति की अनुभूति हो लेकिन अफसोस कि अन्दर खोखलापन ही है। शान्ति एवं आध्यात्म की खोज- वह शान्ति जिसके लिए हमने मंदिर, मस्जि़द, गुरूद्वारें, गिरजाघर दौड़ लगाई है, फिर भी निराशा ही मिली। इसका कारण है कि हम शान्ति के सागर परमपिता शिव के मूल चक्र हैं, जिसके स्मरण से असीम शान्ति मिलती है। यह शान्ति केवल परमात्मा के सच्चे ज्ञान से ही मिल सकती है। यदि हम उस परमात्मा को नहीं जानेंगें तो कैसे शान्ति प्राप्त होगी, कैसे हमारी जीवन नैया पार लगेगी। इस संसार से हम आत्माओं का कौन ले जायेगा यह जान पाने के लिए परमात्मा को जानने के लिए परमात्मा को जानना आवश्यक है। परमात्मा कौन है- हमारे यहाँ 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा होती है, परन्तु सबका केन्द्र बिन्दु शिव को ही मानते हैं। परमात्मा शिव देवों के भी देव सृष्टि रचियता तथा सृष्टि के सहारक हैं, परमात्मा तीनों लोकों का मालिक त्रिलोकीनाथ, तीनों कालों को जानने वाला त्रिकालदर्शी है। परमात्मा अजन्मा, अभोक्ता, अकर्ता है। ज्ञान, आनन्द, प्रेम, सुख, पवित्रता का सागर है। शान्ति दाता है, जिनका स्वरूप ज्योतिस्वरूप है। पढ़ें –मनसा वाचा कर्मणा – जाने रोजमर्रा के जीवन में क्या है कर्म और उसका फल आत्मा व परमात्मा- संसार में प्रत्येक व्यक्ति का कहीं न कहीं कोई रिश्ता होता है। जो जिस प्रकार शरीर को धारण करता है, वो उस शरीर का पिता होता है। इसी तरह परमात्मा-आत्मा का सम्बन्ध पिता-पुत्र का है। जितनी भी संसार में आत्माधारी अथवा शरीरधारी दिख रहे हैं, वे सब परमात्मा निर्मित हैं। इसी कारण हम सभी आत्माओं का परमात्माओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी सम्बन्ध के कारण जब व्यक्ति भौतिक दुनियों में जब चारों तरफ से अशान्त एवं दुखी होता है, तब वह सच्चे दिल से परमात्मा को याद करता है, क्योंकि वही उसका मार्ग प्रदर्शक होता है एवं निस्वार्थ मनुष्यात्माओं को निस्वार्थ प्रेम कराता है। कर्म- इस दुनियाँ का निर्माण ईश्वर करता है, जब व्यक्ति अपने कर्र्मों में निरन्तर तक पहुँच जाता है, तब मनुष्य के रूप में होते हुए भी उसके हाव-भाव, कर्म, सोच सब मनुष्यता के विपरीत हो जाते हैं, एवं दुनियाँ में सर्वश्रेष्ठ प्राणी होते हुए भी ऐसे कर्र्मों को अंजाम देता है, जिसे सिर्फ असुर ही करते हैं। हमारे शास्त्रों में गलत कर्म कर पाश्चात्य की भी बात की गई है, लेकिन हमारे कर्म उससे भी अधिक निम्न स्तर के हो गये हैं। देश और दुनिया में जो भक्तिभाव का भाव बड़ा है, उसमें तम की प्रधानता है। मानव पाप करते-करते इतना बोझिल हो गया है कि मंदिर, मस्जि़द में अपने पाप धोने या स्वार्र्थों की पूर्ति के लिए ही जाता है। इन धार्मिक स्थलों पर मानव अपने लिए जीवनमुक्ति या मुक्ति का आर्शीवाद नही मानता है, बल्कि अनेक प्रकार की मन्नतें मांगता है। सम्बन्धों की निम्नस्तरता इतनी गहरी एवं दूषित हो गयी है कि बाप-बेटी, पिता-पुत्र, भाई-बहन, माँ-बेटे के सम्बन्धों में निम्नतम स्तर की घटनाऐं प्राय: देखने को सुनने को मिलती हैं। सांसारिक प्रवृत्ति- संसार में प्राय: तीन प्रकार के लोग होते हैं, पहले जो विज्ञान को मानते हैं, दूसरे वा जो शास्त्रों को मानते हैं, तीसरे वो जो रूढि़वादी होते हैं। किसी को भी अभास नहीं कि हमारी मंजिल क्या है, विज्ञान ने ही तो विभिन्न अविष्कार कर एट्म बॉम्स बनाये क्या रखने के लिए? ग्लोबल वार्र्मिंग का खतरा बढ़ रहा है। ओजोन परत का क्षय होना। इनकी वजह से विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं एवं रोगों को नियंत्रण मिल रहा है। यह अन्त का ही प्रतीक है, जहाँ शास्त्रों को मानते है उनके अनुसार रिश्तों की गिरती गरिमा, बढ़ती अशान्ति, आपसी मतभेद, अन्याय और भ्रष्टाचार आज स्पष्ट रूप से देखने में आ रहा है। महाभारत में वार्णित गृहयुद्ध तो आज स्पष्ट रूप से दिख रहा है। महाभारत के पात्र जैसे शकुनी आज हर गली के मोड़ पर मिल जायेंगे। धन का दुरूपयोग करने वाले पुत्र मोह में अन्धें माँ-बाप, शास्त्रों का उपदेश मात्र देने वाले और अपने मन के वशीभूत पात्र आज सब मौजूद हैं। ये सब वहीं संकेत है, जो परमात्मा ने अपने आगमन के बताये हैं। जो लोग रूढ़ीवादी हैं, उन्हें ये देखना चाहिए कि हमारा कल्याण कि बात में है, क्या पुरानी मान्यताओं पर चला जा सकता है। जरूरत पडऩे पर उनमें स्वयं की मजबूरी को हवाला देते हुए हेर-फेर तक कर लेते हैं। निष्कर्ष- अत: ये सब बातें विचारणीय हैं, अत: आज समय बदलाव के कगार पर खड़ा है। इन सबका परिवर्तन केवल परमात्मा ही कर सकते हैं, जब भौतिक दुनियाँ में इंसान चारों ओर से दुखी और अशांत हो जाता है। तब वह सच्चे दिल से परमात्मा को याद करता है कि वह उसे सही दिल से मार्ग प्रशस्त करें। . डॉ मधु त्रिवेदी परिचय – डॉ. मधु त्रिवेदी        प्राचार्या,पोस्ट ग्रेडुएट कालेज                     आगरा स्वर्गविभा आन लाइन पत्रिका अटूट बन्धन आफ लाइन पत्रिका होप्स आन लाइन पत्रिका हिलव्यू (जयपुर )सान्ध्य दैनिक (भोपाल ) लोकजंग एवं ट्र टाइम्स दिल्ली आदि अखबारों में रचनायें विभिन्न साइट्स पर ( साहित्यपीडिया, लेखक डॉट काम , झकास डॉट काम , जय विजय आदि) परमानेन्ट लेखिका इसके अतिरिक्त विभिन्न शोध पत्रिकाओं में लेख एवं शोध पत्र आगरा मंच से जुड़ी  यह भी पढ़ें ……… मृत्यु सिखाती है कर्तव्य का पाठ आस्थाएं -तर्क से तय नहीं होती मृत्यु संसार से अपने असली वतन की वापसी यात्रा है आपको लेख  “कैसे … Read more

मृत्यु सिखाती है कर्तव्य का पाठ

                                                                      मृत्यु से ही जीवन  में कर्तव्य निभाने की सीख मिलती है                    जीवन है तो मृत्यु अटल है | जो मृत्यु की इस वास्तविकता को जीवित रहते समझ लेता है | वो जीवन में कर्तव्य के महत्व को समझ लेता है | निरतर अपने कर्तव्य में लगे रह कर मृत्यु का वरण  करना ही सही जीवन जीने का तरीका है | पर हम में से कितने ऐसा कर पाते हैं |          वास्तव में पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पंचतत्वों से इस शरीर की रचना हुई है। शरीर को रोजाना पौष्टिक भोजन देकर तथा पंचतत्वों में संतुलन रखकर हम उसे लम्बी आयु तक हष्ट-पुष्ट तथा निरोग रखते है। इस मानव शरीर की सर्वोच्च मूल आवश्यकताएँ प्रकृति के द्वारा पूरी होती रहें। इसलिए प्रकृति के संपर्क में रहना होगा तथा उसकी रक्षा करनी होगी। शरीर के कनेक्शन प्रकृति से जुड़े हुए हैं। शरीर को जीवनीय शक्ति और पोषण प्रकृति से उपलब्ध होता है। जानिये मृत्यु कैसे सिखाती है कर्तव्य का पाठ   मृत्यु की घटना के कारण जीवनीय शक्ति के शरीर में प्रवेश करने का द्वार बन्द हो जाता है, फिर शरीर प्रकृति से किसी भी प्रकार का पोषण लेने में असमर्थ हो जाता है। इस कारण से मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जब भी किसी अरथी को मनुष्य देखता है तो एक क्षण के लिए ही सही, मनुष्य के मन में यह महसूस होता है कि उसके जीवन का भी एक दिन यही अंत होगा। इसी कारण मनुष्य के शरीर का अंत होने पर अरथी सजाई जाती है। अरथी का मतलब ही है, जो जीवन के अर्थ को बतलाए। जीवन बस यूँ ही जी लेने के लिए नहीं है। जीवन एक कर्तव्य है, जीवन एक अन्वेषण है, जीवन एक खोज है। जीवन एक संकल्प है। जीवन भर व्यक्ति इसी सोच-विचार में उलझा रहता है कि उसका परिवार है, उसकी पत्नी व बच्चे हैं। इनके लिए धन जुटाने और सुख-सुविधाओं के सरंजाम जुटाने के लिए वह हर कार्य करने को तैयार रहता है, जिससे अधिक से अधिक धन व वैभव का अर्जन हो सके। अपने स्वार्थ के लिए व्यक्ति दूसरों को भी नुकसान पहुँचाने के लिए तैयार रहता है।  जबकि हर व्यक्ति का मन रूपी दर्पण हमारे भले-बुरे सारे कर्मों को देखता और दिखाता है। इस उजले दर्पण में प्राणी धूल न जमने पाये। मन की कदर भुलाने वाला हीरा जन्म गवाये। जब व्यक्ति अरथी पर पहुँचता है। उस समय व्यक्ति को जीवन का अर्थ समझ में आता हैं, लेकिन इस समय पश्चात्ताप के अलावा कुछ और नहीं बचता है। सब कुछ मिट्टी में मिल चुका होता है। मृत्यु के बाद अर्थी  सजाना  जीवन का मूल अर्थ समझाने का तरीका  जब व्यक्ति की अरथी उठाई जाती है, उस समय उसकी विचारवान बुद्धि मृत व्यक्ति से कहती है- ‘देखो! यही तुम्हारे इस जीवन की, शरीर की वास्तविकता है। तुम्हें खुद सहारे की जरूरत है, तुम झूठा अहंकार करते रहे कि तुम लोगों को आश्रय दे रहे हो। जिन लोगों के लिए तुम दिन-रात, धन-वैभव जुटाने में लगे रहे, आज वे ही संगी-साथी तुम्हें वीराने में ले जाकर अग्नि में समर्पित कर देंगे।’ जीवन का मात्र यही अर्थ है। इसलिए अरथी को जीवन का अर्थ बताने वाला कहा गया है। अंत में सभी की यही गति होनी है। मनुष्य का जन्म इस महान उद्देश्य के लिए हुआ है कि वह लोक कल्याण के कार्यों द्वारा अपने जीवन को सार्थक कर सके, और सार्थकता तभी हासिल की जा सकती है, जब मनुष्य अपने जीवन के परम अर्थ को समझ सके। जो व्यक्ति इस अर्थ को समय रहते नहीं समझता, उसे अरथी पर जाकर ही जीवन का अर्थ ज्ञात होता है।  जिन्हें मृत्यु याद रहती है, वे व्यक्ति अपना पूरा ध्यान कर्तव्य  के पालन में लगाते हैं और परमार्थी जीवन जीते हैं; क्योंकि कर्तव्य पालन  हमें कभी भी स्वार्थी व आसक्त नहीं बनाता, बल्कि नित्य-निरंतर हमारे जीवन को लोक कल्याणकारी बनाता है। कर्तव्य पालन  करने वाला व्यक्ति संसार से उसी तरह निर्लिप्त रहता है, जिस तरह कीचड़ में खिला हुआ कमल कीचड़ से निर्लिप्त रहता है। कर्तव्यपालन करने से ही व्यक्ति को वास्तव में मनुष्य जीवन की गरिमा का बोध होता है। यह बात पूर्णतः अटल सत्य है कि हर व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है, लेकिन इस संसार में रहकर इस बात का सरलता से भान नहीं होता कि जो शरीर आज जीवित है, सुख-भोग कर रहा है, उसकी मृत्यु भी हो जाएगी। इसी कारण यक्ष के द्वारा युधिष्ठिर से यह प्रश्न पूछने पर कि ‘‘इस संसार का परम आश्चर्य क्या है?’ युधिष्ठिर ने जवाब दिया- ‘मृत्यु।’ इस संसार में नित्य लोग मरते हैं, लेकिन फिर भी कोई जीवित व्यक्ति यह स्वीकार नहीं कर पाता कि एक दिन उसकी भी मृत्यु हो जाएगी। मृत्यु का आगमन अघोषित है। इसलिए प्रत्येक दिन अपने कर्मों का लेखा-जोखा कर लेना चाहिए। कोई नहीं जानता कि किस क्षण में उसकी मृत्यु की घटना छुपी है। जब जन्म शुभ है तो मृत्यु कैसे अशुभ हो सकती है। महापुरूष मृत्यु के बाद भी अच्छे कर्मों तथा अच्छे प्रेरणादायी विचारों के रूप में युगों-युगों तक जीवित रहते हैं। मृत्यु की इस वास्तविकता से अपरिचित होने के कारण ही मनुष्य इस संसार में तरह-तरह के कुकर्म करता है और अपने पापकर्मों को बढ़ाता जाता है। इन पापकर्मों की परत इतनी मोटी होकर उसके मानवीय गुणों के प्रकाश को कैद कर लेती है, उसे उसी प्रकार ढक देती है, जैसे सूर्य के तेज प्रकाश को बादलों की परतें ढक्कर धरती तक नहीं आने देतीं। जीवन को सुधारो तो मृत्यु सुधरती है  कर्मों का भार उसके मन पर कितना बोझिल हो रहा है, इस बात का भान उसे तब होता है, जब उसका शरीर अरथी पर चढ़ता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसलिए जरूरी यह है कि मनुष्य अपने जीवन के अर्थ को समय रहते ही समझ सके और अपने कर्तव्यों  का निर्वहन करते हुए, लोक कल्याणकारी जीवन जीते हुए, अपने … Read more

मनसा वाचा कर्मणा – जाने रोजमर्रा के जीवन में क्या है कर्म और उसका फल

    दैनिक जीवन में कहे जाने वाले तीन शब्द मनसा वाचा कर्मणा कहने में जितने सरल ,पालन  में उतने कठिन | “कर्म सिधांत के अनुसार इन तीन शब्दों का महत्व केवल इस जन्म में नहीं जन्म जन्मान्तर में है | हम सब कर्म और उसके फल के बारे में अक्सर भ्रम में पड़  जाते हैं | क्या आपको पता है है  रोजमर्रा के जीवन में कर्म और उसका फल ? अभी कुछ दिन पहले  नवरात्रि के दिन चल रहे थे  | कहीं रतजगे , कहीं , भंडारे , कहीं कन्या पूजन किये जा रहे थे | ये सब कुछ भावना के आधीन और कुछ पुन्य लाभ के लिए किये जाते हैं | पुन्य इहलोक व् परलोक में अच्छा जीवन जीने की गारंटी है | पर क्या ऐसा होता है की हर पुन्य करने वाले को अच्छे फल मिलते हों |  कई बार हम किसी के बारे में भ्रम में पड़ जाते हैं की कर्म तो अच्छा करते हैं फिर उनका  जीवन इतना नारकीय क्यों है ? अक्सर इसके उत्तर हम पिछले जन्म में किये गए कर्मों में खोजते हैं | ऐसा करते समय हमारे मन में प्रश्न भी उठता है की क्या ये सही तरीका है ? भगवद गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग कहलाता है | जिसमे कर्म की बहुत सूक्ष्म  व्याख्या है | आइये जानते हैं की क्या है कर्म की सही व्याख्या  what is “law of karma”                           हम अक्सर  अपने द्वारा किये जाने वाले कामों को ही कर्म की श्रेणी में रखते हैं |हमारा ये कर्म अंग्रेजी के  “work” का पर्यायवाची सा है | जहाँ केवल किये जाने वाले काम को काम मानते हैं | हमारा वार्तालाप कुछ इस प्रकार होता है … वो बड़े  धर्मात्मा हैं नौ दिन व्रत रखतेहैं ,हर साल भंडारा कराते हैं | पूरे गाँव की कन्याओं को भोज कराते हैं |यहाँ हम कर्म को केवल किये जाने वाले काम की दृष्टि से देखते हैं | ऐसे लोगों के साथ जब दुखद घटना होतीहै है तो हम असमंजस में पड़ जाते हैं की वो तो इतने धर्मात्मा पुरुष या स्त्री थे |उनके साथ ऐसा क्यों हुआ | ऐसा इसलिए है क्योंकी किया जाने वाला काम कर्म की पूर्ण परिभाषा में नहीं आता |कर्म को सही तरीके से समझने के लिए हमें शारीरिक कर्म ,वैचारिक कर्म ,  मानसिक कर्म चेतन और अवचेतन मन की सूक्ष्म  व्याख्या को समझना पड़ेगा | चेतन मन से व् अवचेतन मन द्वारा किये गए कार्यों के अंतर को समझना पड़ेगा | मनसा वाचा कर्मणा ?mansa,vacha, karmna                        कर्म की सही परिभाषा मनसा  वाचा कर्मणा के सिद्धांत में छिपी है | मन  यानि  विचार , वचन यानि शब्द और कर्म यानि किया जाने वाला   काम (work) अर्थात जो हम करते हैं बोलते हैं और सोंचते  हैं वो तीनों मिल कर कर्म बनते हैं |अक्सर हमारे कर्म के इन तीनों में एका  नहीं होता | यानी हम करते कुछ दिखाई देते हैं बोलते कुछ हैं और मन में कुछ और ही सोंच रहे होते हैं | फिर पूर्ण कर्म एक कैसे हो सकता है | दरसल इसमें  ग्रेडेशन करना पड़े तो सबसे निचली पायदान पर है काम (work) , फिर शब्द  और   सबसे ऊपर हैं मन या विचार | या जिस भावना के तहत काम किया गया | उदहारण के तौर पर एक आतंकवादी एक व्यक्ति की हत्या करता है ( पेट में छूरा भोंक कर ) | और एक डॉक्टर एक मरीज की जान बचाने के लिए उसका ऑपरेशन करता है | दोनों व्यक्तियों की ही मृत्यु हो जाती है | आतंक वादी की भावना आतंक फैलाने की थी व् डॉक्टर की मरीज की जान बचाने की | छुरा भोंकने का वहीँ  कर्म पहले स्थान पर निकृष्ट है व् दूसरे स्थान पर श्रेष्ठ है |                      गीता के अनुसार हर कर्म तीन भागों में बंटता है तामसिक , राजसी और सात्विक | और उसी के अनुसार फल मिलते हैं | जैसे की आप व्रत कर रहे हैं | ये एक ही कर्म  है | पर इस व्रत के पीछे आपका उद्देश्य क्या है इस आधार पर इसके फल को तीन भागों  में विभक्त किया जा सकता हैं |  तामसी – अगर आप किसी को हानि या नुक्सान पहुंचाने के उद्देश्य से व्रत कर रहे हैं |  राजसी – अगर आप किसी मनोकामना पूर्ति के लिए व्रत कर रहे हैं या आप के मन में ये भाव है की चलो व्रत के साथ पुन्य तो मिलेगा ही डाईटिंग भी हो जायेगी | या मेरे सास ननद देवर तो व्रत करते हैं मैं उनसे बेहतर व्रत कर के दिखा सकती हूँ / सकता हूँ |  सात्विक – अगर आप सिर्फ ईश्वर के प्रेम में आनंदित हो कर व्रत कर रहे हैं या आप की भावना सर्वजन हिताय , सर्व जन सुखाय है |                            व्रत करने का एक ही काम तीन अलग – अलग कर्म व् तीन अलग – अलग कर्म फलों में आपके विचार के आधार पर परिवर्तित होता है | मोटे तौर पर समझें तो हम जिस भावना या विचार से कोई काम कर रहे हैं उसी के आधार पर हमारे कर्म का मूल्याङ्कन होता है |  सेवा और सेवा में भी फर्क है –                                       किसी की सेवा करना एक बहुत बड़ा गुण है | परन्तु सेवा और सेवा में भी फर्क है | कबीर दास जी कहते हैं की। …. वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखें , नदी न संचै  नीर   परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर                                            सच्ची सेवा वो है जब व्यक्ति को पता ही नहीं है की वो सेवा कर रहा है | वो उसका स्वाभाव बन गयी है | वो उससे हो रही है | जैसी बादल से बारिश हो रही है … Read more

आस्थाएं तर्क से तय नहीं होतीं

दुर्गा अष्टमी पर विशेष – आस्थाएं तर्क से तय नहीं होती              आज दुर्गा अष्टमी है | ममतामयी माँ दुर्गा शक्ति स्वरूप हैं | एक तरफ वो भक्तों पर दयालु हैं तो दूसरी तरफ आसुरी प्रवत्तियों का संहार करती हैं | वो जगत माता हैं | माँ ही अपने बच्चों को संस्कार शक्ति और ज्ञान देती है | इसलिए स्त्री हो या पुरुष सब उनके भक्त हैं | वो नारी शक्ति व् स्त्री अस्मिता का प्रतीक हैं | जो अपने ऊपर हुए हमलों का स्वयं मुंह तोड़ जवाब देती है | दुर्गा नाम अपने आप में एक मंत्र है | जो इसका उच्चारण करते हैं, उन्हें पता है की उच्चारण मात्र से ही शक्ति का संचार होता है | नवरात्रि इस शक्ति की उपासना का पर्व है |              अभी पिछले दिनों कुछ पोस्ट ऐसी आयीं, जिनमें माता दुर्गा के बारे में अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करा गया | माता दुर्गा के प्रति आस्थावान आहत हुए | इनका व्यापक विरोध हुआ |ये एक चिंतन का विषय है | क्योंकि  *ये आस्था पर प्रहार तो है ही माँ दुर्गा के लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग करने वाले स्त्री विरोधी भी हैं |ये एक सामंतवादी सोंच हैं |जिसका विरोध करना ही चाहिए | पढ़ें – धर्म तथा विज्ञानं का समन्वय इस युग की आवश्यकता है * सोंचने वाली बात हैं की वो माँ दुर्गा को मिथकीय करेक्टर  कह रहे हैं | अफ़सोस मिथकीय हो या रीयल, ये जहर उगलने वाली गालियाँ स्त्री के हिस्से में आई हैं| * आस्थाएं तर्क से परे होती हैं | ये सच है की आदिवासियों का एक समुदाय महिषासुर  की पूजा करता है |और इस पर किसी को आपत्ति भी नहीं है | होनी भी नहीं चाहिए |मुझे अपने पिता व् पति की तबादले वाली नौकरी होने के कारण कई आदिवासी जातियों से मिलने बात करने का अवसर मिला | कई घरों में काम करने वाले भी थे | उन सब के अपने अपने इष्ट देवता हैं  | सब महिसासुर की पूजा नहीं करते हैं  | कई दुर्गा माँ की आराधना भी करते हैं | *  परन्तु बड़े खूबसूरत तरीके से अपनी बात को न्याय संगत कहने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं | इन तर्कों को गढ़ने की शुरुआत  कहाँ से हुई पता नहीं | पर आम जनता के सामने इसका खुलासा जे एन यू-स्मृति इरानी प्रकरण के बाद हुआ | एक जनजातीय समुदाय में पूजे जाने वाले महिसासुर को न सिर्फ समस्त जनजातियों, आदिवासियों और द्रविड़ों के मसीहा के रूप में स्थापित किया जा रहा है | क्या इसे “मेकिंग ऑफ़ न्यू गॉड” की संज्ञा में रखा जाए ? पर क्यों ? कहीं ये अंग्रेजों की कुटिल “डिवाइड एंड रूल” की तरह किसी राजनैतिक पॉलिसी का हिस्सा तो नहीं | इसके लिए दुर्गा का चयन किया गया | जिन्हें पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में व्यापक मान्यता मिली है | समझना होगा की क्या इसके पीछे हमें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने की साजिश है|पूजा से किसी को आपत्ति नहीं है,सत्ता के खेल से आपत्ति है | मृत्यु संसार से अपने असली वतन जाने की वापसी यात्रा है *पुराणों को मिथकीय बता कर कुछ अन्य ग्रंथों का नाम दिया लिया जा रहा है | या यूँ कहें सबूत के रूपमें पेश किया जा रहा है | सबूत कैसा ? अगर एक मिथकीय है तो क्या दूसरा मिथकीय नहीं हो सकता |वही लोग जो  आज की खबर पर भरोसा नहीं करते | हर खबर को  वामपंथी और दक्षिण पंथी चश्मे से देखते हैं  |वही आज पुराने सबूत ले कर लड़ रहे हैं या लडवा रहे हैं |उन्हें आस्था से मतलब नहीं उन्हें जीतना हैं | और जीतने के लिए हद दर्जे की गन्दी भाषा तक जाना है |किसलिए ?  क्या पता आज कोई एक पुस्तक छपे की हिटलर , मुसोलिनी महान  संत विचारक थे | जिसे आज खारिज कर दिया जाए | क्योंकि हम आज का सच जानते हैं | पर आज से हज़ार साल बाद तर्क के रूप में पेश हो | कुछ को जोश आये , कुछ होश खो दें | पर क्या आस्थाएं कभी तर्क से सिद्ध हो सकती हैं ? * मिथक ही सही शाक्य  समुदाय की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा आज हर समुदाय में पूजनीय क्यों हैं ? क्या है देवी दुर्गा में की शाक्य समुदाय की होते हुए भी हर हिन्दू उनका पूजन करता है | ये एक स्त्री की शक्ति है |जो डरती नहीं है  अपने ऊपर हुए आक्रमण का स्वयं उत्तर देती है | इसका देवासुर  संग्राम से कुछ लेना देना न भी हो  तो भी दुर्गा हर स्त्री और हर कमजोर में ये शक्ति जगाती हैं की अन्याय के विरुद्द हम अकेले ही काफी हैं |        अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में हर कोई कुछ भी लिख सकता है | उसका विरोध भी हो सकता है | “मेकिंग ऑफ़ गॉड” भी जारी है,तर्कों का खेल भी जारी है | इन सब के बीच मुझे ओशो की पंक्तियाँ याद आ गयीं |                 ओशो इस पर बहुत ख़ूबसूरती से लिखते हैं की | जो धर्म  ग्रंथों को आधार बना कर लड़ते हैं | उनमें से कोई धार्मिक नहीं है | क्योंकि धर्म ग्रंथों की भाषा काव्य की भाषा हैं | काव्य की भाषा और तर्क की भाषा  में फर्क है | एक बहुत खूबसूरत उदहारण है | एक पति कवि था और पत्नी वैज्ञानिक | शादी के बाद एक दिन पति ने बड़े ही प्रेम से पत्नी से कह दिया, “तुम तो बिलकुल चंद्रमा की तरह हो” | बात पत्नी को चुभ गयी | उसने झगड़ना शुरू कर दिया,“ तुम मुझे चंद्रमा कैसे कह सकते हो , वहां तो आदमी न सांस ले सकता है व् प्यास बुझा सकता है अरे वो तो सीधा चल भी नहीं सकता | कवि  पति सकते में आ गए |ऐसा मैंने क्या कह दिया जो इसे बुरा लग गया | और शादी टूट गयी | दोनों ही अपनी जगह सही थे और दोनों  गलत थे |           चंद्रमा से तुलना काव्य की भाषा है | इसका अर्थ है पत्नी को देख कर वही आनंद व् शांति प्राप्त होती है जो चंद्रमा को देख कर होती … Read more

श्राद्ध पक्ष : उस पार जाने वालों के लिए श्रद्धा व्यक्त करने का समय

वंदना बाजपेयी   हिन्दुओं में पितृ पक्ष का बहुत महत्व है | हर साल भद्रपद शुक्लपक्ष पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष कहा जाता है |  पितृ पक्ष के अंतिम दिन या श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को  महालया  भी कहा जाता है | इसका बहुत महत्व है| ये दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन्हें अपने पितरों की पुन्य तिथि का ज्ञान नहीं होता वो भी इस दिन श्रद्धांजलि या पिंडदान करते हैं |अर्थात पिंड व् जल के रूप में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं | हिन्दू शस्त्रों के अनुसार पितृ पक्ष में यमराज सभी सूक्ष्म शरीरों को मुक्त कर देते हैं | जिससे वे अपने परिवार से मिल आये व् उनके द्वरा श्रद्धा से अर्पित जल और पिंड ग्रहण कर सके |श्राद्ध तीन पीढ़ियों तक का किया जाता है |   क्या बदल रही है श्राद्ध पक्ष के प्रति धारणा                                           मान्यता ये भी है की पितर जब संतुष्ट होते हैं तो वो आशीर्वाद देते हैं व् रुष्ट होने पर श्राप देते हैं | कहते हैं श्राद्ध में सबसे अधिक महत्व श्रद्धा का होता है | परन्तु क्या आज हम उसे उसी भाव से देखते हैं | शायद नहीं |कल यूँहीं कुछ परिचितों  से मिलना हुआ | उनमें से एक  ने श्राद्ध पक्ष की अमावस्या के लिए अपने पति के साथ सभी पितरों का आह्वान करके श्राद्ध करने की बात शुरू कर दी | बातों ही बातों में खर्चे की बात करने लगी | फिर बोली की क्या किया जाये महंगाई चाहे जितनी हो खर्च तो करना ही पड़ेगा , पता नहीं कौन सा पितर नाराज़ बैठा हो और ,और भी रुष्ट हो जाए | उनको भय था की पितरों के रुष्ट हो जाने से उनके इहलोक के सारे काम बिगड़ने लगेंगे | उनके द्वारा सम्पादित श्राद्ध कर्म में श्रद्धा से ज्यादा भय था | किसी अनजाने अहित का भय | पढ़िए – सावधान आप कैमरे की जद में हैं वहीँ  दूसरी  , श्राद्ध पक्ष में अपनी सासू माँ की श्राद्ध पर किसी अनाथ आश्रम में जा कर खाना व् कपडे बाँट देती हैं | व् पितरों का आह्वान कर जल अर्पित कर देती है | ऐसा करने से उसको संतोष मिलता है | उसका कहना है की जो चले गए वो तो अब वापस नहीं आ सकते पर उनके नाम का स्मरण कर चाहे ब्राह्मणों को खिलाओ या अनाथ बच्चों को , या कौओ को …. क्या फर्क पड़ता है |  तीसरी सहेली बात काटते हुए कहती हैं , ” ये सब पुराने ज़माने की बातें है | आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में न किसी के पास इतना समय है न पैसा की श्राद्ध के नाम पर बर्बाद करे | और कौन सा वो देखने आ रहे हैं ?आज के वैज्ञानिक युग में ये बातें पुरानी हो गयी हैं हम तो कुछ नहीं करते | ये दिन भी आम दिनों की तरह हैं | वैसे भी छोटी सी जिंदगी है खाओ , पियो ऐश करो | क्या रखा है श्राद्ध व्राद्ध करने में | श्राद्ध के बारे में भिन्न भिन्न हैं पंडितों के मत  तीनों सहेलियों की सोंच , श्राद्ध करने का कारण व् श्रद्धा अलग – अलग है |प्रश्न ये है की जहाँ श्रद्धा नहीं है केवल भय का भाव है क्या वो असली श्राद्ध हो सकता है |प्रश्न ये भी है कि जीते जी हम सौ दुःख सह कर भी अपने बच्चों की आँखों में आंसूं नहीं देखना कहते हैं तो मरने के बाद हमारे माता – पिता या पूर्वज बेगानों की तरह हमें श्राप क्यों देने लगेंगें | शास्त्रों के ज्ञाता पंडितों की भी इस बारे में अलग – अलग राय है ……….. उज्जैन में संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रमुख संतोष पंड्या के अनुसार, श्राद्ध में भय का कोई स्थान नहीं है। वो लोग जरूर भय रखते होंगे जो सोचते हैं कि हमारे पितृ नाराज न हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं होता। जिन लोगों के साथ हमने 40-50 साल बिताएं हैं, वे हमसे नाखुश कैसे हो सकते हैं। उन आत्माओं से भय कैसा? वहीं इलाहाबाद से पं. रामनरेश त्रिपाठी भी मानते हैं कि श्राद्ध भय की उपज नहीं है। इसके पीछे एक मात्र उद्देश्य शांति है। श्राद्ध में हम प्याज-लहसून का त्याग करते हैं, खान-पान, रहन-सहन, सबकुछ संयमित होता है। इस तरह श्राद्ध जीवन को संयमित करता है। भयभीत नहीं करता। जो कुछ भी हम अपने पितरों के लिए करते हैं, वो शांति देता है। शास्त्र में एक स्थान पर कहा गया है, जो लोग श्रद्धापूर्वक श्राद्ध नहीं करते, पितृ उनका रक्तपान करते हैं। इसलिए श्रद्धा बहुत आवश्यक है और श्रद्धा तभी आती है जब मन में शांति होती है। क्यों जरूरी है श्राद्ध  अभी ये निशिचित तौर पर नहीं कहा जा सकता की जीव मृत्यु के बाद कहाँ जाता है | नश्वर शरीर खत्म हो जाता है | फिर वो श्राद्ध पक्ष में हमसे मिलने आते भी हैं या नहीं | इस पर एक प्रश्न चिन्ह् है |  पर इतना तो सच है की उनकी यादें स्मृतियाँ हमारे साथ धरोहर के रूपमें हमारे साथ रहती हैं |स्नेह और प्रेम की भावनाएं भी रहती हैं |  श्राद्ध पक्ष के बारे में पंडितों  की राय में मतभेद हो सकता है | शास्त्रों में कहीं न कहीं भय उत्पन्न करके इसे परंपरा बनाने की चेष्टा की गयी है | लेकिन बात  सिर्फ इतनी नहीं है शायद उस समय की अशिक्षित जनता को यह बात समझाना आसांन नहीं रहा होगा की हम जिस जड़ से उत्पन्न हुए हैं हमारे जिन पूर्वजों ने न केवल धन सम्पत्ति व् संस्कार अपितु धरती , आकाश , जल , वायु का उचित उपयोग करके हमारे लिए छोड़ा है | जिन्होंने हमारे जीवन को आसान बनाया है | उनके प्रति हमें वर्ष में कम से कम एक बार तो सम्मान व्यक्त करना चाहिए | उस समय के न के आधार पर सोंचा गया होगा की पूर्वज न जाने किस योनि में गया होगा … उसी आधार पर अपनी समझ के अनुसार ब्राह्मण , गाय , कौवा व् कुत्ता सम्बंधित योनि  के प्रतीक के रूप में चयनित … Read more

यात्रा

वंदना बाजपेयी ———- ये जीवन एक सफ़र ही तो है और हम सब यात्री  जीवन की गाडी तेजी से आगे भागती जा रही है | खिड़की से देखती हूँ तो खेत खलिहान नहीं दिखते | दिखता है जिन्दगी का एक हिस्सा बड़ी तेजी से पीछे छूटता जा रहा | वो बचपन की गुडिया , बचपन के खिलौने कब के पीछे छूट गए , पीछे छूट गए वो चावल जो ससुराल में पहला कदम रखते ही बिखेर दिए थे द्वार पर , बच्चों की तोतली भाषा , स्कूल का पहला बैग , पहली सायकिल … अरे – अरे सब कुछ पीछे छूट गया | घबरा कर खिड़की बंद करती हूँ |  अंदर का दृश्य और भी डरावना है |  कितने सहयात्री जो साथ में चढ़े थे | जिनसे मोह के बंधन बंधे थे | कितने किस्से , कितने सुख दुःख बांटे थे | कितने कसमें – वादे किये थे | अब दिखाई नहीं दे रहे | शायद उनका स्टेशन आ गया | पता नहीं वो उनका गंतव्य था या किसी नयी ट्रेन में चढ़ गए | उतरने से पहले बताया भी नहीं | उनकी सीटो पर नए यात्री बैठ गए हैं | पर उनकी जगह अब भी खाली है | ये खाली पन भरता ही नहीं |एक शून्य बना देता है ठीक मन के बीचों बीच | मैं मन को बस कसना चाहती हूँ , बस अब बहुत हुआ , अब कोई मोह का बंधन नहीं |  पर सफ़र काटना भी तो मुश्किल है |  इतना सतर्क होने के बाद भी न जाने फिर से कैसे मोह के बंधन बंधने लगते हैं | फिर से एक नया शून्य उत्पन्न करने के लिए | फिर भी यात्रा जारी है | अभी सब इत्मीनान में दिख रहे हैं | पर कब तक ? पता नहीं कब , कौन से स्टेशन पर मैं भी उतर जाउंगी , … किसी नयी ट्रेन में चढ़ने के लिए | फिर होंगे नए सहयात्री ,नए खिलौने , नए चावल … और एक नयी यात्रा |  आखिरकार हम सब यात्री ही तो है | यह भी पढ़ें …… प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद

पवित्र ‘‘गीता’’ सभी को कर्तव्य एवं न्याय के मार्ग पर चलने की सीख देती है!

जन्माष्टमी पर्व  पर विशेष लेख /janmashtami par vishesh lekh  – डाॅ. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक,  सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) पवित्र ‘‘गीता’’ हमें कर्तव्य एवं न्याय के मार्ग पर चलने की सीख देती है:- श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का पावन त्यौहार बड़ी ही श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा की जेल में हुआ था। कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। अर्थात श्रीकृष्ण वह है जो अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। श्रीकृष्ण सबको अपनी ओर आकर्षित कर सबके मन, बुद्धि व अहंकार का नाश करते हैं। भारतवर्ष में इस महान पर्व का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक दोनों तरह का विशिष्ट महत्व है। यह त्योहार हमें आध्यात्मिक एवं लौकिक संदेश देता है। आस्थावान लोग इस दिन घर तथा पूजा स्थलों की साफ-सफाई, बाल कृष्ण की मनमोहक झांकियों का प्रदर्शन तथा सजावट करके बड़े ही प्रेम व श्रद्धा से आधी रात के समय तक व्रत रखते हैं। श्रीकृष्ण के आधी रात्रि में जन्म के समय पवित्र गीता का गुणगान तथा स्तुति करके अपना व्रत खोलते हैं तथा पवित्र गीता की शिक्षाआंे पर चलने का संकल्प करते हैं। साथ ही यह पर्व हर वर्ष नई प्रेरणा, नए उत्साह और नए-नए संकल्पों के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। हमारा कर्तव्य है कि हम जन्माष्टमी के पवित्र दिन श्रीकृष्ण के चारित्रिक गुणों को तथा पवित्र गीता की शिक्षाओं को ग्रहण करने का व्रत लें और अपने जीवन को सार्थक बनाएँं। यह पर्व हमें अपनी नौकरी या व्यवसाय को समाज हित की पवित्र भावना के साथ अपने निर्धारित कर्तव्यों-दायित्वों का पालन करने तथा न्यायपूर्ण जीवन जीते हुए न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की सीख देता है। (2) ‘कृष्ण’ को कोई भी शक्ति प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकी:- कृष्ण के जन्म के पहले ही उनके मामा कंस ने उनके माता-पिता को जेल में डाल दिया था। राजा कंस ने उनके सात भाईयों को पैदा होते ही मार दिया। कंस के घोर अन्याय का कृष्ण को बचपन से ही सामना करना पड़ा। कृष्ण ने बचपन में ही ईश्वर को पहचान लिया और उनमें अपार ईश्वरीय ज्ञान व ईश्वरीय शक्ति आ गई और उन्होंने बाल्यावस्था में ही कंस का अंत किया। इसके साथ ही उन्होंने कौरवों के अन्याय को खत्म करके धरती पर न्याय की स्थापना के लिए महाभारत के युद्ध की रचना की। बचपन से लेकर ही कृष्ण का सारा जीवन संघर्षमय रहा किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें प्रभु के कार्य के रूप में न्याय आधारित साम्राज्य धरती पर स्थापित करने से नहीं रोक सकी। परमात्मा ने कृष्ण के मुँह का उपयोग करके न्याय का सन्देश पवित्र गीता के द्वारा सारी मानव जाति को दिया। परमात्मा ने स्वयं कृष्ण की आत्मा में पवित्र गीता का ज्ञान अर्जुन के अज्ञान को दूर करने के लिए भेजा। इसलिए पवित्र गीता को कृष्णोवाच नहीं भगवानोवाच अर्थात कृष्ण की वाणी नहीं वरन् भगवान की वाणी कहा जाता है। हमें भी कृष्ण की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए। (3) परमात्मा सज्जनों का कल्याण तथा दुष्टों का विनाश करते हैं:- महाभारत में परमात्मा की ओर से वचन दिया गया है कि ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।’ अर्थात धर्म की रक्षा के लिए मैं युग-युग में अपने को सृजित करता हूँ। सज्जनों का कल्याण करता हूँ तथा दुष्टों का विनाश करता हूँं। धर्म की संस्थापना करता हूँ। अर्थात एक बार स्थापित धर्म की शिक्षाओं को पुनः तरोताजा करता हूँ। अर्थात जब से यह सृष्टि बनी है तब से धर्म की स्थापना एक बार हुई है। धर्म की स्थापना बार-बार नहीं होती है। (अ) परमात्मा ने अपने धर्म (या कत्र्तव्य) को स्पष्ट करते हुए अपने सभी पवित्र शास्त्रों में एक ही बात कही है जैसे पवित्र गीता में कहा है कि मेरा धर्म है, ‘‘परित्राणांय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’’ अर्थात परमात्मा की आज्ञाओं को जानकर उन पर चलने वाले सज्जनों (अर्थात जो अपनी नौकरी या व्यवसाय समाज के हित को ध्यान में रखकर करते हैं) का कल्याण करना तथा मेरे द्वारा निर्मित समाज का अहित करने वालों का विनाश करना। (ब) परमात्मा ने आदि काल से ही मनुष्य का धर्म (कत्र्तव्य) यह निर्धारित किया है कि वह केवल अपने सृजनहार परमात्मा की इच्छाओं एवं आज्ञाओं को शुद्ध एवं पवित्र मन से पवित्र ग्रन्थों को गहराई से पढ़कर जाने एवं उन शिक्षाओं पर चलकर बिना किसी भेदभाव के सारी सृष्टि के मानवजाति की भलाई के लिए काम करें। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि प्रभु की शिक्षाओं को जानना तथा पूजा के मायने है उनकी शिक्षाआंे पर दृढ़तापूर्वक चलना। मात्र भगवान श्रीकृष्ण के शरीर की पूजा, भोग लगाने तथा आरती उतारने से कोई लाभ नहीं होगा। (4) सारी सृष्टि की भलाई ही हमारा धर्म है:- भगवान श्रीकृष्ण से उनके शिष्य अर्जुन ने पूछा कि प्रभु! आपका धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को बताया कि मैं सारी सृष्टि का सृजनहार हूँ। इसलिए मैं सारी सृष्टि से एवं सृष्टि के सभी प्राणी मात्र से बिना किसी भेदभाव के प्रेम करता हूँ। इस प्रकार मेरा धर्म अर्थात कर्तव्य सारी सृष्टि तथा इसमें रहने वाली मानव जाति की भलाई करना है। इसके बाद अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि भगवन् मेरा धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरी आत्मा के पुत्र हो। इसलिए मेरा जो धर्म अर्थात कर्तव्य है वही तुम्हारा धर्म अर्थात कर्तव्य है। अतः सारी मानव जाति की भलाई करना ही तुम्हारा भी धर्म अर्थात् कर्तव्य है। भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि इस प्रकार तेरा और मेरा दोनों का धर्म अर्थात् कर्तव्य सारी सृष्टि की भलाई करना ही है। यह सारी धरती अपनी है तथा इसमें रहने वाली समस्त मानव जाति एक विश्व परिवार है। इस प्रकार यह सृष्टि पूरी की पूरी अपनी है परायी नहीं है। (5) ‘अर्जुन’ के मोह का नाश प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लेने से हुआ:- कृष्ण के मुँह से निकले परमात्मा के पवित्र गीता के सन्देश से महाभारत युद्ध से पलायन कर रहे अर्जुन को ज्ञान हुआ कि कर्तव्य ही धर्म है। न्याय के … Read more

परमात्मा और उसके सेवक कभी भी छुट्टी नहीं लेते हैं!

– डा0 जगदीश गाँधी, संस्थापक-प्रबन्धक,  सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) परमात्मा तथा उसके सेवक छुट्टी कर लें तो संसार तथा ब्रह्ममाण्ड में हाहाकार मच जाये:-              परमात्मा ने जब से यह सृष्टि बनायी तभी से अपने सेवकों सूर्य, वायु, चन्द्रमा, ग्रह, पर्यावरण, प्रकृति आदि को अपने द्वारा रचित मानव जाति की सेवा के लिए नियुक्त किया। सृष्टि का गतिचक्र एक सुनियोजित विधि व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। ब्रह्ममाण्ड में अवस्थित विभिन्न नीहारिकाएं ग्रह-नक्षत्रादि परस्पर सहकार-संतुलन के सहारे निरन्तर परिभ्रमण विचरण करते रहते हैं। अपना भू-लोक सौर मंडल के वृहत परिवार का एक सदस्य है। सारे परिजन एक सूत्र में आबद्ध हैं। वे अपनी-अपनी कक्षाओं में घूमते तथा सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य स्वयं अपने परिवार के ग्रह उपग्रह के साथ महासूर्य की परिक्रमा करता है। इतने सब कुछ जटिल क्रम होते हुए भी सौर, ग्रह, नक्षत्र एक दूसरे के साथ न केवल बंधे हुए हैं वरन् परस्पर अति महत्वपूर्ण आदान-प्रदान भी करते हैं। इस सृष्टि का रचनाकार परमात्मा कभी अवकाश नहीं लेता है तथा उसके सेवक सूर्य अपनी किरणों के द्वारा संसार को रोशनी तथा ऊर्जा से भरने के लिए सदैव बिना थके अपना कार्य करता रहता है। वायु निरन्तर बहते हुए सभी को सांसों के द्वारा जीवन प्रदान करती है। (2) परमात्मा के अवतारों से हमें कर्तव्य मार्ग पर डट जाने की शक्ति प्राप्त होती है:-             परमात्मा से प्रेरणा लेकर उनके अवतार राम, कृष्ण, बुद्ध, अब्राहम, मुसा, महावीर, जरस्थु, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह भी जीवन पर्यन्त बिना छुट्टी लिए मानव जाति के उद्धार के लिए कार्य करते रहे। जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब परमात्मा मानव जाति के दुखों को दूर करके उनके जीवन में हर्ष, आनन्द, स्वास्थ्य, सुख, समृद्धि भरने के लिए संसार के सबसे पवित्रतम हृदय वाले मानव की आत्मा में अवतरित होता है। परमात्मा ने अपने संदेश वाहक के रूप में राम, कृष्ण, बुद्ध, अब्राहम, मुसा, महावीर, जरस्थु, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह को युग युग में अपने मानव कल्याण के कार्य के लिए चुना है। विद्यालय ही केवल समाज के प्रकाश केंद्र हैं (3) परमात्मा की शिक्षाओं पर चलने वाले ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित होते हैं:-             अवतारों का जन्म भी मनुष्य की तरह संसार में किसी माँ की कोख से होता है। अवतारों का शरीर भी मनुष्य की तरह ही हाड़-मांस के बने होते हैं तथा इनकी देह भी नाशवान होती है। वे जीवन-पर्यन्त परमात्मा की इच्छा के लिए जीते हुए भौतिक शरीर को त्याग कर परमात्मा के लोक में चले जाते हैं। संसार से जाने के पूर्व ये अवतार मानव जाति के मार्गदर्शन के लिए पवित्र पुस्तकंे जैसे गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस दे जाते हैं। अवतारों की एकमात्र इच्छा परमात्मा का सेवक बनकर दुखों तथा कष्टों से घिरी मानव जाति को कल्याण, विकास, प्रकाश, ज्ञान तथा मुक्ति की राह दिखाना होता है। ये अवतार अपनी मजबूत आत्मा के बल से भारी कष्ट उठाकर मानव जाति के जीवन में अपनी शिक्षाओं के द्वारा सुख, समृद्धि, यश तथा आनन्द भरकर जीवन यात्रा को सफल बनाते हैं। अवतारों के पास मानव जाति को सुखी बनाने के लिए परमपिता परमात्मा से प्राप्त विचार, मार्गदर्शन तथा प्रेरणा का खजाना होता है।  परमात्मा के द्वारा नियुक्त सभी अवतारों ने मानव जाति के जीवन को सुखी बनाने के लिए कार्य किया और कभी भी छुट्टी नहीं ली। (4) अपने लक्ष्य को हर पल याद रखना ही महानता की कुंजी है:-             परमात्मा तथा उनके अवतारों से प्रेरणा लेकर संसार के महापुरूष भी जीवन-पर्यन्त बिना छुट्टी लिए मानव जाति की एकता, खुशहाली, समृद्धि, विकास तथा न्याय के लिए कार्य करते रहे। महात्मा गांधी, पं0 जवाहर लाल नेहरू, डा0 अम्बेडकर, डा0 राधाकृष्णन, अब्राहम लिंकन, एडीशन, आइंस्टीन, मदर टेरेसा, ग्राहम बेल, मेरी क्यूरी, न्यूटन, आर्य भट्ट, जैम्स बाट, विनोबा भावे जैसे अनेक साधारण व्यक्ति महान इसलिए बने क्योंकि उन्होंने मानव जाति के कल्याण के कार्य से कभी छुट्टी नहीं ली। वे पूरे मनोयोग से मानव कल्याण संबंधी कार्य में लगे रहते थे। महापुरूषों ने अपने परिवारों का भरण पोषण भी भली प्रकार किया। वे भी साधारण लोगों की तरह खाते, पीते, सोते आदि सभी दिनचर्याऐं करते थे लेकिन अपने जीवन का उद्देश्य एक पल के लिए भी नहीं भूलते थे। यदि ये महापुरूष कार्य से अवकाश लेते तो मानव जाति की इतनी महत्वपूर्ण सेवा तथा समाजोपयोगी नई-नई खोजें न कर पाते। परमात्मा की नौकरी करने वालों को अंतिम सांस तक अवकाश प्राप्त नहीं होता है। शरीर बूढ़ा होकर कमजोर हो सकता है लेकिन आत्मा तथा मस्तिष्क कभी बूढ़े नहीं होते हैं। विश्व एकता कला दीप धरती से आतंकवाद को समाप्त करने के लिए जलायें (5) कर्तव्यपरायण व्यक्ति अपने कर्तव्यों को हर पल याद रखते हंै तथा उसके अनुरूप कार्य करते हैं:-             मनुष्य एक भौतिक प्राणी है, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा मनुष्य एक आध्यात्मिक प्राणी है। मनुष्य के जीवन में भौतिकता, सामाजिकता तथा आध्यात्मिकता का संतुलन जरूरी है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर-परिवार के सदस्यों की शिक्षा, स्वास्थ्य, कैरियर, मुकदमें, नाते-रिश्तेदारी आदि के प्रति अपने कत्र्तव्यों को निभाना पड़ता है। साथ ही इससे आगे बढ़कर परमात्मा द्वारा निर्मित समाज की बेहतरी की चिन्ता भी करना चाहिए। संतुलित व्यक्ति अपने घर के कत्र्तव्यों को भली प्रकार पूरा करते हुए अपनी नौकरी तथा व्यवसाय से जुड़े कत्र्तव्यों को भी बड़े ही सुन्दर ढंग से पूरा करते हैं। प्रभु की राह पर चलते हुए नौकरी या व्यवसाय करने वाले लोगों के लिए अन्य लोगों के मन में काफी विश्वास तथा सम्मान की भावना होती है जिसके कारण प्रभु की राह पर चलने वाले इन लोगों का भौतिक, सामाजिक तथा आर्थिक लाभ तथा यश भी अन्य की तुलना में काफी अधिक हो जाता है। लेकिन बेईमानी से नौकरी तथा व्यवसाय करने वालों की भौतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समृद्धि तथा लोकप्रियता बिना नींव के मकान की तरह होती है। (6) एक झोली में फूल भरे हैं एक झोली में काॅटे! कोई कारण होगा?:-             विश्व में वही परिवार, समाज, जाति तथा राष्ट्र उन्नति करता है जो कड़ी मेहनत तथा ईमानदारी से निरन्तर अपनी नौकरी या व्यवसाय करता है। इसके विपरीत जो ज्यादा छुट्टी तथा ज्यादा आराम करते हैं वे पिछड़ जाते हैं। कई लोग तो अपने शरीर के साथ ही मस्तिष्क को छुट्टी दे देते हैं। … Read more

अवतारों तथा महापुरूषों के कष्टमय जीवन हमें प्रभु की राह में सब प्रकार के कष्ट सहने की सीख देते हैं!

– डाॅ. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) जब-जब राम ने जन्म लिया तब-तब पाया वनवास:- राम ने बचपन में ही प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया और उन्होंने अपने शरीर के पिता राजा दशरथ के वचन को निभाने के लिए हँसते हुए 14 वर्षो तक वनवास का दुःख झेला। लंका के राजा रावण ने अपने अमर्यादित व्यवहार से धरती पर आतंक फैला रखा था। राम ने रावण को मारकर धरती पर मर्यादाओं से भरे ईश्वरीय समाज की स्थापना की। कृष्ण के जन्म के पहले ही उनके मामा कंस ने उनके माता-पिता को जेल में डाल दिया था। राजा कंस ने उनके सात भाईयों को पैदा होते ही मार दिया। कंस के घोर अन्याय का कृष्ण को बचपन से ही सामना करना पड़ा। कृष्ण ने बचपन में ही ईश्वर की इच्व्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया और उनमें अपार ईश्वरीय ज्ञान व ईश्वरीय शक्ति आ गई और उन्होंने बाल्यावस्था में ही कंस का अंत किया। इसके साथ ही उन्होंने कौरवों के अन्याय को खत्म करके धरती पर न्याय की स्थापना के लिए महाभारत के युद्ध की रचना की। बचपन से लेकर ही कृष्ण का सारा जीवन संघर्षमय रहा किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें प्रभु के कार्य के रूप में धरती पर न्याय आधारित साम्राज्य स्थापित करने से नहीं रोक सकी। (2) बुद्ध तथा ईशु ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- बुद्ध ने मानवता की मुक्ति तथा ईश्वरीय प्रकाश का मार्ग ढूंढ़ने के लिए राजसी भोगविलास त्याग दिया और अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट झेले। अंगुलिमाल जैसे दुष्टों ने अनेक तरह से उन्हें यातनायें पहुँचाई किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें दिव्य मार्ग की ओर चलने से रोक नहीं पायी। ईशु को जब सूली दी जा रही थी तब वे परमपिता परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे – हे परमात्मा! तू इन्हें माफ कर दे जो मुझे सूली दे रहे हैं क्योंकि ये अज्ञानी हैं अपराधी नहीं। ईशु ने छोटी उम्र में ही प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया था फिर धरती और आकाश की कोई शक्ति उन्हें प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकी। जिन लोगों ने ईशु को सूली पर चढ़ाया देखते ही देखते उनके कठोर हृदय पिघल गये। सभी रो-रोकर अफसोस करने लगे कि हमने अपने रक्षक को क्यों मार डाला? (3) मोहम्मद साहब ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- मोहम्मद साहब की प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचानते हुए मूर्ति पूजा छोड़कर एक ईश्वर की उपासना की बात करने तथा अल्लाह की इच्छा तथा आज्ञा की राह पर चलने के कारण मोहम्मद साहब को मक्का में अपने नाते-रिश्तेदारों, मित्रों तथा दुष्टों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा और वे 13 वर्षों तक मक्का में मौत के साये में जिऐ। जब वे 13 वर्ष के बाद मदीने चले गये तब भी उन्हें मारने के लिए कातिलों ने मदीने तक उनका पीछा किया। मोहम्मद साहब की पवित्र आत्मा में अल्लाह (परमात्मा) के दिव्य साम्राज्य से कुरान की आयतें 23 वर्षों तक एक-एक करके नाजिल हुई। (4) नानक तथा बहाउल्लाह ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- नानक को ईश्वर एक है तथा ईश्वर की दृष्टि में सारे मनुष्य एक समान हैं, के दिव्य प्रेम से ओतप्रोत सन्देश देने के कारण उन्हें रूढ़िवादिता से ग्रस्त कई बादशाहों, पण्डितों और मुल्लाओं का कड़ा विरोध सहना पड़ा। नानक ने प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था उन्होंने जगह-जगह घूमकर तत्कालीन अंधविश्वासों, पाखण्डों आदि का जमकर विरोध किया। बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह को प्रभु का कार्य करने के कारण 40 वर्षों तक जेल में असहनीय कष्ट सहने पड़ें। जेल में उनके गले में लोहे की मोटी जंजीर डाली गई तथा उन्हें अनेक प्रकार की कठोर यातनायें दी र्गइं। जेल में ही बहाउल्लाह की आत्मा में प्रभु का प्रकाश आया। बहाउल्लाह की सीख है कि परिवार में पति-पत्नी, पिता-पुत्र, माता-पिता, भाई-बहिन सभी परिवारजनों के हृदय मिलकर एक हो जाये तो परिवार में स्वर्ग उतर आयेगा। इसी प्रकार सारे संसार में सभी के हृदय एक हो जाँये तो सारा संसार स्वर्ग समान बन जायेगा। (5) अर्जुन तथा मीरा ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- अर्जुन को कृष्ण के मुँह से निकले परमात्मा के पवित्र गीता के सन्देश से ज्ञान हुआ कि ‘कर्तव्य ही धर्म है’। न्याय के लिए युद्ध करना ही उसका परम कर्तव्य है। फिर अर्जुन ने अन्याय के पक्ष में खड़े अपने ही कुल के सभी अन्यायी योद्धाओं तथा 11 अक्षौहणी सेना का महाभारत युद्ध करके विनाश किया। इस प्रकार अर्जुन ने धरती पर प्रभु का कार्य करते हुए धरती पर न्याय के साम्राज्य की स्थापना की। माता देवकी ने अपनी आंखों के सामने एक-एक करके अपने सात नवजात शिशुओं की हत्या अपने सगे भाई कंस के हाथों होते देखी और अपनी इस हृदयविदारक पीड़ा को प्रभु कृपा की आस में चुपचाप सहन करती रही। देवकी ने अत्यन्त धैर्यपूर्वक अपने आंठवे पुत्र कृष्ण के अपनी कोख से उत्पन्न होने की प्रतीक्षा की ताकि मानव उद्धारक कृष्ण का इस धरती पर अवतरण हो सके तथा वह धरती को अपने भाई कंस जैसे महापापी के आतंक से मुक्त करा सके तथा धरती पर न्याय आधारित ईश्वरीय साम्राज्य की स्थापना हो। (6) मीरा बाई तथा प्रहलाद ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- मीराबाई कृष्ण भक्ति में भजन गाते हुए मग्न होकर नाचने-गाने लगती थी जो कि उनके राज परिवार को अच्छा नहीं लगता था। इससे नाराज होकर मीरा को राज परिवार ने तरह-तरह से डराया तथा धमकाया। उनके पति राणाजी ने कहा कि तू मेरी पत्नी होकर कृष्ण का नाम लेती है। मैं तुझे जहर देकर जान से मार दूँगा। मीरा ने प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था उन्होंने अपने पति से कहा कि पतिदेव यह शरीर तो विवाह होने के साथ ही मैं आपको दे चुकी हूँ, आप इस शरीर के साथ जो चाहे सो करें, किन्तु आत्मा तो प्रभु की है, उसे यदि आपको देना भी चाँहू तो कैसे दे सकती हूँ? यह संसार का कितना बड़ा अजूबा है कि असुर प्रवृत्ति के तथा ईश्वर … Read more

जीवन में दुःख व कष्ट मिलना प्रभु की असीम कृपा है

– प्रदीप कुमार सिंह, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक 1. प्रभु के इस विश्वस्त सेवक का नाम है- दुःख:-              प्रभु जब किसी को अपना मानते हैं, उसे गहराइयों से प्यार करते हैं तो उसे अपना सबसे भरोसेमंद सेवक प्रदान करते हैं और उसे कहते हैं कि तुम हमेशा मेरे प्रिय के साथ रहो, उसका दामन कभी न छोड़ो। कहीं ऐसा न हो कि हमारा प्रिय भक्त अकेला रहकर संसार की चमक-दमक से भ्रमित हो जाए, ओछे आकर्षण की भूलभुलैयों में भटक जाए अथवा फिर सुख-भोगों की कँटीली झाड़ियों में अटक जाए। प्रभु के इस विश्वस्त सेवक का नाम है- दुःख। सचमुच वह ईश्वर के भक्त के साथ छाया की तरह लगा रहता है।’’ 2. निस्संदेह यह दुःख ही ईश्वरीय अपनत्व की कसौटी है:-             ज्यों ही जीवन में दुःख का आगमन होता है, चेतना ईश्वरोन्मुखी होने लगती है। दुःख का हर पल हृदय की गहराइयों में संसार की यथार्थता, इसकी असारता एवं निस्सारता की अनुभूति कराता है। इन्हीं क्षणों में सत्य की सघन अनुभूति होती है कि मेरे अपने, कितने पराए हैं। जिन सगे-संबंधियों, मित्रों-परिजनों, कुटुंबियों-रिश्तेदारों को हमें अपना कहने और मानने मंे गर्व की अनुभूति होती थी, दुःख के सघन होते ही उनके परायेपन का सच एक के बाद एक उजागर होने लगता है। इन्हीं पलों में ईश्वर की याद विकल करती है, ईश्वरीय प्रेम अंकुरित होता है। प्रभु के प्रति अपनत्व सघन होने लगता है।’’ 3. दुःख तथा कष्ट में मानवीय संवेदना का समुचित विकास होता है:-                ‘‘प्रभु का विश्वस्त सेवक दुःख अपने साथ न रहे तो अंतरात्मा पर कषाय-कल्मष की परतें चढ़ती जाती हैं। अहंकार का विषधर समूची चेतना को ही डस लेता है। आत्मा के प्रकाश के अभाव में प्रवृत्तियों एवं कृत्यों में पाप और अनाचार की बाढ़ आ जाती है। सत् और असत् का विवेक जाता रहता है। जीवन सघन अँधेरे और घने कुहासे से घिर जाता है। इन अँधेरों की मूच्र्छा में वह संसार के छद्म जाल को अपना समझने लगता है और प्रभु के शाश्वत मृदुल प्रेेम को पराया और तब प्रभु अपने प्रिय को उबारने के लिए उसे अपनाने के लिए अपने सबसे भरोसेमंद सेवक दुःख को उसके पास भेजते हैं।’’ 4. दुःखों को प्रभु के अपनत्व की कसौटी समझकर स्वीकार करना चाहिए:-                  ‘‘जिनके लिए दुःख सहना कठिन है, उनके लिए भगवान को अपना बताना भी कठिन है। ईश्वर के साथ संबंध जोड़ने का अर्थ है- जीवन को आदर्शों की जटिल परीक्षाओं में झोंक देना। प्रभु के प्रति अपनी श्रद्धा को हर दिन आग में तपाते हुए उसकी आभा को नित नए ढंग से प्रदीप्त रखना पड़ता है। तभी तो भगवान को अपना बनाने वाले भक्त उनसे अनवरत दुःखों का  वरदान माँगते हैं। कुुुंती, मीरा, राबिया, तुकाराम, नानक, ईसा, बुद्ध, एमर्सन, थोरो आदि दुनिया के हर कोने रहने वाले परमात्मा के भक्तों ने अपने जीवन में आने वाले प्रचंड दुःखों को प्रभु के अपनत्व की कसौटी समझकर स्वीकार किया और हँसते-हँसते सहन किया। प्रभु ने जिनको अपनाया, जिन्होंने प्रभु को अपनाया, उन सबके हृदयों से यही स्वर गूँजे हैं कि ईश्वरभक्ति एवं आदर्शों के लिए कष्ट सहना, यही दो हाथ हैं, जिन्हें जोड़कर भगवत्प्रार्थना का प्रयोजन सही अर्थों में पूरा हो पाता है।’’ 5. हम स्वयं ही अपने मित्र और स्वयं ही अपने शत्रु हैं:-               हमें अपनी सहायता के लिए दूसरों के सामने गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए; क्योंकि यथार्थ में किसी मंे भी इतनी शक्ति नहीं है, जो हमारी सहायता कर सके। हमें किसी कष्ट के लिए दूसरों पर दोषारोपण नहीं करना चाहिए; क्योंकि यथार्थ में कोई भी हमें दुःख नहीं पहुँचा सकता। हम स्वयं ही अपने मित्र और स्वयं ही अपने शत्रु है। अपना दृष्टिकोण हम जिस क्षण भी बदल देंगे तो दूसरे ही क्षण यह भय के भूत अंतरिक्ष में तिरोहित हो जाएँगे। हबडे़ से बड़ा दुःख आने पर घबराना नहीं चाहिए वरन् सबसे पहले अपने से कहना चाहिए कि मैं इसे स्वीकार करता हूं। स्वीकार करते ही वह दुःख छोटा हो जायेगा। स्वीकार करने के बाद उसका हल भी आसानी से निकल आता है। में जीवन में इस संकटमोचन मंत्र को अपनाना चाहिए कि तुझे (हमारे अंदर स्थित प्रभु) लगे जो अच्छा, वही मेरी इच्छा।   तेजज्ञान फाउण्डेशन, पुणे द्वारा आयोजित शिविरों का विवरण