मृत्यु – शरीर नश्वर है पर विचार शाश्वत

  मृत्यु जीवन से कहीं ज्यादा व्यापक है , क्योंकि हर किसी की मृत्यु होती है , पर हर कोई जीता नहीं है -जॉन मेसन                                             मृत्यु …एक ऐसे पहेली जिसका हल दूंढ निकालने में सारी  विज्ञान लगी हुई है , लिक्विड नाईटरोजन में शव रखे जा रहे हैं | मृत्यु … जिसका हल खोजने में सारा आध्यात्म लगा हुआ है | नचिकेता से ले कर आज तक आत्मा और परमात्मा का रहस्य खोजा जा रहा है | मृत्यु जिसका हल खोजने में सारा ज्योतिष लगा हुआ है | राहू – केतु , शनि मंगल  की गड्नायें  जारी हैं | फिर भी मृत्यु है | उससे भयभीत पर उससे बेखबर हम भी | युधिष्ठर के उत्तर से यक्ष भले ही संतुष्ट हो गए हों | पर हम आज भी उसी भ्रम में हैं | हम शव यात्राओ में जाते है | माटी बनी देह की अंतिम क्रिया में भाग लेते हैं | मृतक के परिवार जनों को सांत्वना देते हैं | थोडा भयभीत थोडा घबराए हुए अपने घर लौट कर इस भ्रम के साथ अपने घर के दरवाजे बंद कर लेते हैं की मेरे घर में ये कभी नहीं होगा |                                      विडम्बना है की हम मृत्यु को  स्वीकारते हुए भी नकारते हैं | मृत्यु पर एक बोधि कथा है | कहते हैं एक बार एक स्त्री के युवा पुत्र की मृत्यु हो गयी | वो इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी | उसी समय महत्मा बुद्ध उस शहर  में आये | लोगों ने उस स्त्री से कहा की मातम बुद्ध बहुत बड़े योगी हैं | वो बड़े – बड़े चमत्कार कर सकते हैं | तुम उनसे अपने पुत्र को पुन : जीवित करने की प्रार्थना करो | अगर कुछ कर सकते हैं तो वो ही कर सकते हैं | वह स्त्री तुरंत अपने पुत्र का शव लेकर महात्मा बुद्ध के दरबार में पहुंची और उनसे अपने पुत्र को पुनर्जीवित करने की फ़रियाद करने लगी | | महात्मा बुद्ध असमंजस में पड़ गए | वो एक माँ की पीड़ा को समझते हुए उसे निराश नहीं करना चाहते थे | थोड़ी देर सोंचने के उपरान्त वो बोले की ,” मैं मंत्र पढ़ के तुम्हारे पुत्र को पुनर्जीवित कर देता हूँ | बस तुम्हें किसी ऐसे घर से चूल्हे की राख लानी पड़ेगी | जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो | आँसू पोछ कर वो स्त्री शहर की तरफ गयी | उसने हर द्वार खटखटाया | परन्तु उसे कहीं कोई ऐसा घर नहीं मिला जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो | निराश ,हताश हो कर वो वापस महात्मा बुद्ध के पास लौट आई | उनके चरणों में गिर कर बोली ,” प्रभु मुझे समझ आ गया है की मृत्यु अवश्यसंभावी है , मैं ही पुत्र मोह में उसे नकार बैठी थी |                          जीवन के इस पार से उस पार गए पथिक पता नहीं वहाँ  से हमें देख पाते हैं की नहीं | अगर देख पाते तो जानते की इस पार छूटे हुए परिवार के सदस्यों , मित्रों हितैषियों का जीवन भी  उस मुकाम पर रुक जाता है | मानसिक रूप से उस पार विचरण करने वाले  परिजनों के लिए न जाने कितने दिनों तक कलैंडर की तारीखे बेमानी हो जाती हैं , घडी की सुइयां बेमानी हो जाती हैं , सोना जागना बेमानी हो जाता है | क्योंकि वो भी थोडा सा मर चुके होते हैं | अंदर ही अंदर मन के किसी कोने में , जहाँ ये अहसास गहरा होता है की जीवन अब कभी भी पहले जैसा नहीं होगा | यहाँ तक की वो खुद भी पहले जैसे नहीं रहेंगे | जहाँ उन्हें फिर से चलना सीखना होगा ,  संभलना सीखना होगा , यहाँ तक की जीना सीखना होगा |ऐसे समय में कोई संबल बनता है तो उस व्यक्ति के द्वारा कही गयी बातें | उसके विचार | जैसे – जैसे हम वेदना  का पर्दा हटा कर उस व्यक्ति का जीवन खंगालते हैं तो समझ में आती हैं उसके द्वारा कही गयी बातें उसका जीवन दर्शन | कितने लोग कहते हैं की मेरे पिता जी / माता जी अदि – आदि ऐसे कहा करते थे | अब उनके जाने के बाद मुझे ये मर्म समझ में आया है | अब मैं भी यही करूँगा / करुँगी | विचारों के माध्यम से व्यक्ति कहीं न कहीं जीवित रहता है |                                     व्यक्ति का दायरा जितना बड़ा होता है | उसके विचार जितने सर्वग्राही या व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं | उसके विचारों को ग्रहण करने वाले उतने ही लोग होते हैं |  हम सब को दिशा दिखाने वाली भगवत भी प्रभु श्री कृष्ण के श्रीमुख से व्यक्त किये गए विचार ही थे | परन्तु उससे युगों – युगों तक समाज का भला होने वाला था इसलिए उसे लिखने की तैयारी पहले ही कर ली गयी थी | कबीर दास ने तो ‘मसि कागद छुओ नहीं ‘कलम गहि नहीं हाथ ” परन्तु उनके विचार इतने महान थे की की उनके शिष्यों ने  उनका संकलन किया | जिससे हम आज भी लाभान्वित हो रहे है | पुनर्जन्म है की नहीं इस पर विवाद हो सकता है | परन्तु स्वामी विवेकानंद  के अनुसार  पॉजिटिव एनर्जी और नेगेटिव एनर्जी के दो बादल होते हैं | हम जैसे विचार रखते हैं | जैसे काम करते हैं | अंत में उन्ही बादलों के द्वारा हमारी आत्मा को खींच लिया जाता है | वही हमारे अगले जन्म को भी निर्धारित करता है |                                   विज्ञानं द्वारा भी सिद्ध हो गया है की विचार उर्जा का ही दूसरा रूप है | और उर्जा कभी नष्ट नहीं होती | चूँकि विचार शास्वत है और शरीर नश्वर ,इसलिए हमें अपने शरीर को स्वस्थ रखने … Read more

बड़े भाग्य से मानव शरीर मिला है!-डाॅ. जगदीश गाँधी

–डाॅ. जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) मानव जीवन अनमोल उपहार है:-             आज के युग तथा आज की परिस्थितियों में विश्व मंे सफल होने के लिए बच्चों को टोटल क्वालिटी पर्सन (टी0क्यू0पी0) बनाने के लिए स्कूल को जीवन की तीन वास्तविकताओं भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शिक्षायें देने वाला समाज के प्रकाश का केन्द्र अवश्य बनना चाहिए। टोटल क्वालिटी पर्सन ही टोटल क्वालिटी मैनेजर बनकर विश्व में बदलाव ला सकता है। उद्देश्यहीन तथा दिशाविहीन शिक्षा बालक को परमात्मा के ज्ञान से दूर कर देती है। उद्देश्यहीन शिक्षा एक बालक को विचारहीन, अबुद्धिमान, नास्तिक, टोटल डिफेक्टिव पर्सन, टोटल डिफेक्टिव मैनेजर तथा जीवन में असफल बनायेगी। तुलसीदास जी कहते है – ‘‘बड़े भाग्य मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सदग्रंथनि पावा।। अर्थात बड़े भाग्य से, अनके जन्मों के पुण्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। इसलिए हम इसी पल से सजग हो जाएं कि यह कहीं व्यर्थ न चला जाये। हिन्दू धर्म के अनुसार 84 लाख पशु योनियों में जन्म लेने के बाद अपनी आत्मा का विकास करने के लिए एक सुअवसर के रूप में मानव जन्म मिला है। यदि मानव जीवन में रहकर भी हमने अपनी आत्मा का विकास नहीं किया तो पुनः 84 लाख पशु योनियों में जन्म लेकर उसके कष्ट भोगने होंगे। यह स्थिति कौड़ी में मानव जीवन के अनमोल उपहार को खोने के समान है। यह सिलसिला जन्म-जन्म तक चलता रहता है।  (2)  मानव जन्म व्यर्थ में नहीं खोना चाहिए:-             हे मेरे परमात्मा मैं साक्षी देता हूँ कि तुने मुझे इसलिए उत्पन्न किया है कि मैं तुझे जाँनू तथा तेरी पूजा करूँ। परमात्मा को जानने का मतलब है परमात्मा की ओर से कृष्ण, बुद्ध, ईशु, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह के माध्यम से धरती पर अवतरित हुई शिक्षाओं न्याय, समता, करूणा, भाईचारा, त्याग व हृदय की एकता को जानना और पूजा करने का मतलब है ईश्वर की इन्हीं शिक्षाओं पर चलना। हमारा मानना है कि बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अपने शिक्षकों द्वारा दी गई नैतिक शिक्षाओं का अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। टीचर्स बच्चों को इतना पवित्र, महान तथा चरित्रवान बना सकते हंै कि ये बच्चे आगे चलकर सारे समाज, राष्ट्र व विश्व को एक नई दिशा देने की क्षमता से युक्त हो सकें। मनुष्य गुण रूपी मूल्यवान रत्नों से भरी खान के समान है। केवल शिक्षा ही उसके अंदर छिपे गुणों रूपी खजाने को उजागर कर सकती है और मानव जाति को उनसे लाभ उठाने के योग्य बना सकती है। मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना होने के कारण उस पर सारी सृष्टि को सुन्दर बनाने का दायित्व है। मानव जन्म रूपी रत्न मिला है, सचमुच सौभाग्य मिला है, कौड़ी में इसको न खोना चाहिए। (3)  परमात्मा के सबसे अच्छे पुत्र बनें:-             हमारा व हमारे बच्चों का यह संकल्प होना चाहिए कि हम अपने शरीर के पिता के द्वारा बनाये गये घर के साथ ही अपनी आत्मा के पिता के द्वारा बनाई गई इस सारी सृष्टि को भी सुन्दर बनायेंगे। यही एक अच्छे पुत्र की पहचान भी है। कोई भी पिता अपने उस पुत्र को ज्यादा प्रेम करता है जो कि उसकी बातों को सबसे ज्यादा मानता है। सबसे प्रेम करता है। आपसी सद्भावना पैदा करता है। एकता को बढ़ावा देता है। परमात्मा अपने ऐसे ही पुत्रों को सबसे ज्यादा प्रेम करता है, जो उनकी शिक्षाओं पर चलकर उनकी बनाई हुई सारी सृष्टि को सुन्दर बनाने का काम करते हैं। परमपिता परमात्मा की बनाई हुई इस सारी सृष्टि में ही हमारे शरीर के पिता ने 4 या 6 कमरों का एक छोटा सा मकान बनाया है। हमें इस 4 या 6 कमरों में रहने वाले अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ ही परमपिता परमात्मा द्वारा बनाई गई इस सारी सृष्टि में रहने वाली मानवजाति से भी प्रेम करना चाहिए। तभी हमारे शरीर के पिता के साथ ही हमारी आत्मा के पिता भी हमसे खुश रहेंगे।  (4)  परमात्मा ने अपनी इच्छाओं के पालन के लिए मनुष्य को शरीर रुपी यंत्र दिया है:-             ईश्वर की शिक्षाओं को जानें, उनको समझें और उनकी गहराईयों में जाये और फिर उन शिक्षाओं पर चलें। यही ईश्वर की सच्ची पूजा है और यही हमारी आत्मा का पिता ‘परमपिता परमात्मा’ हमसे चाहता भी है। शरीर चाहे अवतार का हो या संत महात्माओं का हो, माता-पिता का हो, भाई-बहन का हो या किसी और का हो, यही पर रह जाता है। जब तक आत्मा शरीर में है तभी तक यह शरीर काम करता है। परमात्मा ने अपनी आज्ञाओं के पालन के लिए हमें यह शरीर दिया है। परमात्मा हमसे कहता है कि तेरी आँखें मेरा भरोसा हैं। तेरा कान मेरी वाणी को सुनने के लिए है। तेरे जो हाथ हैं वो मेरे चिन्ह् है। तेरा जो हृदय है मेरे गुणों को धारण करने के लिए हैं। यह मानव शरीर को परमात्मा ने हमें अपने काम के लिए अर्थात् ईश्वर की शिक्षाओं को जानने के लिए तथा उसकी पूजा करने अर्थात् उन शिक्षाओं पर चलने के लिए दिया है। इसे किसी भी हालत में व्यर्थ नहीं खोना चाहिए। ’’’’’  

आध्यात्मिक चेतना के अभाव में मनुष्य कभी भी सुखी नहीं रह सकता!

– डाॅ. (श्रीमती) भारती गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापिका-निदेशिका, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ मानव जीवन का उद्देश्य प्रभु को प्राप्त करना और प्रभु शिक्षाओं पर चलना है:             जिस प्रकार से किसी भी देश को चलाने के लिए संविधान की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार से मनुष्य को अपना निजी जीवन चलाने के लिए व अपना सामाजिक जीवन चलाने के लिए धर्म की आवश्यकता है। अगर वह इसमें सही प्रकार से सामंजस्य करता है तो वह आध्यात्मिक कहलाता है। अध्यात्म का मतलब यह नहीं होता कि दुनियाँ से बिलकुल दूर जाकर के जंगल में पहाड़ों की कन्दराओं में जाकर बैठ जाओं। धर्म का मतलब होता है अपने जीवन को इस प्रकार से संचालित करना कि मानव अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सके। मानव जीवन का उद्देश्य है प्रभु को प्राप्त करना और उसकी शिक्षाओं पर चलना। इस प्रकार जैसे-जैसे हमारे जीवन में धर्म आता जायेंगा वैसे-वैसे हम आध्यात्मिक होते जायेंगे। आध्यात्मिक चेतना के अभाव में मनुष्य कभी भी सुखी नहीं रह सकता:             आध्यात्मिक चेतना के अभाव में मनुष्य कभी भी सुखी नहीं रह सकता है। इस जगत में केवल आध्यात्मिक चेतना वाला व्यक्ति ही सुखी रह सकता है। इसके बारे में हमें केवल अंदरूनी ज्ञान होना चाहिए। हमें दिव्य ज्ञान होना चाहिए। हमारी आँखें सदैव खुली होनी चाहिए। हमारे कान सदैव खुले होने चाहिए। महात्मा गाँधी ने भी कहा था कि ‘‘मैं अपने कमरे की खिड़कियों को हमेशा खुला रखता हूँ। पता नहीं पूरब या पश्चिम से, उत्तर या दक्षिण से कहाँ से मेरे को अच्छे विचार मिल जायें।’’ वास्तव में अच्छे विचार वही होते हैं जो कि धर्म से पोषित होते हैं। जो विचार धर्म के अलावा होते हैं, वे टिकाऊ नहीं होते। उनका कोई अस्तित्व नहीं होता। वे दुनियाँ में जम नहीं पाते हैं। प्रत्येक युग अवतार, उस युग की समस्याओं के समाधान हेतु परमात्मा द्वारा भेजा जाता है:             सभी धर्मों में दो बातें विशेष रूप से बताई गई हैं। (1) सनातन पक्ष तथा (2) सामाजिक पक्ष। सनातन पक्ष में बताया गया है कि हमें सदैव सत्य बोलना है। हमें सदैव प्रेम करना है। हमें सदैव न्याय करना है। हमें सदैव दूसरों की सेवा करनी हैं, इत्यादि-इत्यादि। जबकि सामाजिक पक्ष में हमें बताया गया है कि हम जिस युग में रहते हैं, हमें उस युग की समस्याओं को समझना है। इन समस्याओं के समाधान हेतु उस युग के अवतार द्वारा जो शिक्षाएं दी गई हैं, उन शिक्षाओं पर हमें चलना है। प्रत्येक युग का अवतार उस युग की समस्याओं के समाधान हेतु परमात्मा द्वारा भेजा जाता है। वह युग अवतार हमें उस युग की समस्याओं को समझ करके उसके समाधान के रूप में हमें युग धर्म देता है। इस युग का धर्म है, भगवान को पहचानना। उनका ज्ञान प्राप्त करना और उनकी बताई हुई सामाजिक शिक्षाओं पर चलना। इस युग की सामाजिक शिक्षा है ‘एकता‘:             इस युग की सामाजिक शिक्षा है ‘एकता’। एकता की शुरूआत परिवार से होती है। इसीलिए कहा भी गया है कि पारिवारिक एकता के अभाव में विश्व एकता की कल्पना तक नहीं की जा सकती। इसलिए परिवार के अंदर हमें त्याग करके, धैर्य व संयम के साथ ‘एकता’ का प्रयास करना चाहिए। ये सब दिव्य बातों को इस युग के अवतार ने बताई हैं। हमें इन बातों को जानने के साथ ही उन पर चलने की परम आवश्यकता है। वास्तव में अगर दुनियाँ के लोगों ने यह समझ लिया होता कि हमारे जीवन का उद्देश्य प्रभु को जानना है, प्रभु की शिक्षाओं को अपने जीवन धारण करना है, तो दुनियाँ में जो इतना दुःख है, इतनी परेशानी है, वे समाप्त हो गई होतीं। वास्तव में अगर हम अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य जान लें तो हम परमपिता की बनाई हुई इस सारी सृष्टि से बिना किसी भेदभाव के प्रेम करने लग जायेंगे। परिवार के सदस्यों के बीच में एकता स्थापित हो जायेगी। मानव सारी मानवमात्र से प्रेम करने लग जायेगा और विश्व में एकता एवं शांति की स्थापना हो जायेगी। ——–

धर्म तथा विज्ञान का समन्वय इस युग की आवश्यकता है!

– प्रदीप कुमार सिंह ‘पाल’,  शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक             हमारे मन में प्रश्न उठता है कि यदि ईश्वर है तो संसार में इतना अज्ञान, मारा-मारी, असमानता तथा दुःख क्यों है? क्या समाज को नियंत्रण में रखने के लिए कुछ विचारशील लोगों ने ईश्वर की अवधारणा को अपनी कल्पना द्वारा जन्म दिया है? जैसे बच्चों को प्रायः डराने के लिए मां कहती है कि जल्दी सो जाओ नहीं तो शैतान आकर तुम्हें उठा ले जायेगा। बालक भोला-भाला होता है वह मां की बात सच मानकर शैतान के डर से सो जाता है। इसी प्रकार अतीतकाल में गुफाओं से बाहर आकर कुछ बुद्धिमान लोगों ने कुछ कम बुद्धिमान लोगों को शिक्षा दी होगी कि बुरे काम करने से पाप होता है तथा अच्छे काम करने से पुण्य मिलता है। मानव की समझ के अनुसार प्रेरणादायी कथाओं तथा मूर्तियों-प्रतिमाओं के रूप में ईश्वर की पूजा के प्रचलन को बढ़ाया गया होगा। ऐसे बुद्धिमान लोगों की इसके पीछे लोक कल्याण की भावना रही होगी। इसी के बाद जाति के भेदभाव, रंग-भेद, अमीर-गरीब जैसी सामाजिक तथा धार्मिक कुरीतियों के युग की शुरूआत हुई होगी।             इस अन्याय को देखकर कृष्ण की प्रखर प्रज्ञा व्याकुल हो उठी होगी। संसार में फैले अन्याय को रोकने तथा न्याय की स्थापना के लिए उस युग में न्यायालय के अभाव में उन्हें अन्तिम विकल्प के रूप में महाभारत युद्ध की रचना करनी पड़ी होगी। किसी रोगी, वृद्ध, मृत्यु तथा धार्मिक पाखण्ड को देखकर सिद्धार्थ जैसे बालक की मानवीय संवेदना जागी होगी। सिद्धार्थ इस अज्ञान से मनुष्य को मुक्त कराने के लिए ज्ञान की खोज में निकल पड़े। वह वर्तमान तथा सत्य में ठहर गये और वह बुद्ध बन गये। बुद्ध ने सारे संसार को सन्देश दिया कि सभी मनुष्य एक समान है। इसी प्रकार ईशु ने अपना बलिदान देकर करूणा का सन्देश दिया। मोहम्मद ने आपस में एक दूसरे का खून बहाने वाले काबिलों को भाईचारे का सन्देश दिया। नानक ने स्वार्थ में लिप्त समाज को त्याग का सन्देश देकर उबारा। इसी प्रकार अनेक महापुरूषों ने संसार के अलग-अलग क्षेत्रों में लोगों की भलाई के लिए अपना जीवन लगा दिया।             मनुष्य की विचारशील तथा प्रगतिशील आस्था यह मानती है कि इस सारी सृष्टि को बनाने वाला एक परमपिता परमात्मा है। सभी धर्मों का स्त्रोत एक परमपिता परमात्मा है। इस सृष्टि की रचना परमपिता परमात्मा ने प्राणी मात्र के लिए की है। इसके विपरीत विज्ञान ऐसा नहीं मानता है। कभी एक वैज्ञानिक ने अपनी खोज के आधार पर कहा कि सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है उसके कुछ वर्षों बाद दूसरे वैज्ञानिक ने और गहराई से खोज करके दुनिया के सामने इस सत्य को उजागर किया कि नहीं पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है। यह एक सत्य है कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है। वह निरन्तर ब्रह्माण्ड का किस प्रकार निर्माण हुआ इसकी खोज-अनुसन्धान में लगा हुआ है। विज्ञान में निरन्तर खोजों-अनुसन्धानों द्वारा विकास हुआ है। प्रगतिशील विचार होने के कारण विज्ञान सदैव पुरानी खोजों से निरन्तर आगे की ओर बढ़ता जा रहा है। इसी प्रकार धर्म को भी प्रगतिशील होना चाहिए उसे पुरानी परम्पराओं, मान्यताओं तथा अन्धविश्वासों में ही नहीं बंधे रहना चाहिए। धर्म तथा विज्ञान का समन्वय इस युग की आवश्यकता है। धर्म के मायने हैं धारण करना। अर्थात सामाजिक तथा धार्मिक गुणों को जीवन में धारण करना। जो जोड़े वह धर्म है तथा जो तोड़े वह अधर्म है। सत्य की निरन्तर स्वतंत्र खोज ही धर्म का परम उद्देश्य है। मेरा धर्म, तेरा धर्म तथा उसका धर्म की संकीर्ण सोच को अब त्यागने में ही मानव जाति का हित है। आज के युग में व्यापक सोच यह है कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है।             पूजा-पाठ, प्रेयर, सबद-कीर्तन, इबादत करते हुए ईमानदारी से अपना कार्य-व्यवसाय करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ श्रेणी में आता है। साथ ही जो व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व को न मानते हुए अपने कार्य-व्यवसाय को यदि ईमानदारी के साथ करता है वह भी मनुष्यता की श्रेष्ठ श्रेणी में आता है। धर्म के नाम पर दूसरों की जान लेने वाले व्यक्ति का कोई धर्म नहीं होता। एक धर्म के व्यक्ति द्वारा दूसरे धर्म के व्यक्ति की जान लेना अमानवीय कृत्य है। ऐसे हिंसक व्यक्ति सामाजिकता, कानून-न्याय तथा व्यवस्था के विरोधी होते हैं। महात्मा गांधी से किसी व्यक्ति ने पूछा कि क्या ईश्वर का अस्तित्व है? इस प्रश्न के जवाब में महात्मा गांधी ने कहा कि ईश्वर है या नहीं है, इस बारे में मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता। लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि सत्य ही ईश्वर है। नास्तिक व्यक्ति कुदरत अर्थात प्रकृति के नियमों का सम्मान करते हुए अपना जीवन व्यतीत करता है। भारतीय संविधान में आस्तिक तथा नास्तिक दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। संविधान दोनों का बराबर से सम्मान करता है। इसलिए संविधान दोनों को अपने-अपने विचार के अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।             मानव इतिहास में विश्व में राजनैतिक विचारधारा के कारण कम वरन् धर्म के नाम पर ही सबसे ज्यादा लड़ाइयाँ तथा युद्ध हुए हैं। धर्म के नाम पर हम रोजाना जो भी घण्टों पूजा-पाठ करते हैं वे भगवान को याद करने के लिए कम भगवान को भुलाने के ज्यादा होते हैं। रामायण में लिखा है परहित सरिस धर्म नही भाई, परपीड़ा नहीं अधमाई। अर्थात दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है तथा दूसरों का बुरा करने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, किताबे-अकदस में जो लिखा है उसकी गहराई में जाकर उसे जानना तथा उसके अनुसार अपना कार्य-व्यवसाय करना ही पूजा है। देश संविधान तथा कानून से चलता है इसके अनुसार जीवन यापन करना भी हमारा कर्तव्य है।         मानवीय गुण दया, करूणा, त्याग, प्रेम, एकता, मित्रता, समता, न्याय आदि सर्वभौमिक हंै। गुणात्मक शिक्षा के द्वारा हमें एक ऐसी जीवन शैली विकसित करनी है जो 21वीं सदी के वैश्विक युग में मानव जाति के लिए सर्वमान्य हो। भारत के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री टीएस ठाकुर के अनुसार देश-दुनिया में बढ़ती असहिष्णुता चिन्ता का विषय है। संविधान के अनुसार इंसान और भगवान के बीच रिश्ता बेहद निजी होता है, इससे किसी अन्य का कोई मतलब नहीं होना चाहिए। उनका कहना था, ‘मेरा … Read more

मृत्यु संसार से अपने ‘असली वतन’ जाने की वापिसी यात्रा है!

(जब जन्म शुभ है तो मृत्यु अशुभ कैसे हो सकती है?) – डा0 जगदीश गांधी, संस्थापक-प्रबन्धक,  सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) जीवन-मृत्यु के पीछे परमपिता परमात्मा का महान उद्देश्य छिपा है:- इस सत्य को जानना चाहिए कि शरीर से अलग होने पर भी आत्मा तब तक प्रगति करती जायेगी जब तक वह परमात्मा से एक ऐसी अवस्था में मिलन को प्राप्त नहीं कर लेती जिसे सदियों की क्रान्तियाँ और दुनिया के परिवर्तन भी बदल नहीं सकते। यह तब तक अमर रहेगी जब तक प्रभु का साम्राज्य, उसकी सार्वभौमिकता और उसकी शक्ति है। यह प्रभु के चिह्नों और गुणों को प्रकट और उसकी प्रेममयी कृपा और आशीषों का संवहन करेगी। बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह कहते हंै कि हमें यह जानना चाहिए कि प्रत्येक श्रवणेंद्रीय, अगर सदैव पवित्र और निर्दोष बनी रही हो तो अवश्य ही प्रत्येक दिशा से उच्चरित होने वाले इन पवित्र शब्दों को हर समय सुनेगी। सत्य ही, हम ईश्वर के हैं और उसके पास ही वापस हो जायेंगे। मनुष्य की शारीरिक मृत्यु के रहस्यों और उसकी असली वतन अर्थात दिव्य लोक की अनन्त यात्रा को प्रकट नहीं किया गया है। माता के गर्भ में बच्चे के शरीर में परमात्मा के अंश के रूप में आत्मा प्रवेश करती है। जिसे लोग मृत्यु कहते हैं, वह देह का अन्त है। शरीर मिट्टी से बना है वह मृत्यु के पश्चात मिट्टी में मिल जाता है। परमात्मा से उनके अंश के रूप में आत्मा संसार में मानव शरीर में आयी थी मृत्यु के पश्चात आत्मा शरीर से निकलकर अपने असली वतन (दिव्य लोक) वापिस लौट जाती है। मृत्यु संसार से अपने ‘असली वतन’ जाने की वापिसी यात्रा है! (2) प्रभु कृपा की लघुता तथा विशालता पर विचार नहीं करना चाहिए:- मृत्यु प्रत्येक दृढ़ अनुयायी को वह प्याला अर्पित करती है जो वस्तुतः जीवन है। यह आनन्द की वर्षा करती है और प्रसन्नता की संवाहिका है। यह अनन्त जीवन का उपहार देती है। जिन्होंने मनुष्य के भौतिक जीवन का आनन्द उठाया है, जो आनन्द एक सत्य प्रभु को पहचानने में निहित है, उनका मृत्यु के बाद का जीवन ऐसा होता है, जिसका वर्णन करने में हम असमर्थ है। यह ज्ञान केवल सर्वलोकों के स्वामी प्रभु के पास ही है। इस युग में व्यक्ति का संपूर्ण कर्तव्य यह है कि उस पर प्रभु द्वारा बरसायी जाने वाली अनन्त कृपा के अमृत जल का भरपूर पान करें। किसी को भी उस कृपाजल की विशालता या लघुता पर विचार नहीं करना चाहिए। उस कृपाजल का भाग किसी की हथेली भर हो सकता है, किसी को एक प्याले भर मिल सकता है और किसी को असीम जलराशि की प्राप्ति हो सकती है। (3) जो कोई भी प्रभु आज्ञा को पहचानने में असफल रहा है, वह प्रभु से दूर होने का दुःख उठायेगा:- मनुष्य को उत्पन्न करने के पीछे का उद्देश्य उसे इस योग्य बनाने का है और सदा रहेगा कि वह अपने सृष्टा को जान सके और उसका सान्निध्य प्राप्त कर सके। इस सर्वोत्तम तथा परम उद्देश्य की पुष्टि सभी धर्मिक ग्रंथों गीता, त्रिपटक, बाइबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में अवतारों कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह इत्यादि ने की है। जिस किसी ने भी उस दिव्य मार्गदर्शन के दिवा स्त्रोत को पहचाना है और उसके पावन दरबार में पदार्पण किया हैं, वह प्रभु के निकट आया है, उसने प्रभु के अस्तित्व को पहचाना है। वह अस्तित्व जो सच्चा स्वर्ग है और स्वर्ग के उच्चतम प्रसाद उसके प्रतीक मात्र है। ऐसा व्यक्ति उस स्थान को प्राप्त करता है जो बस, केवल दो पग दूर है। जो कोई भी उसे पहचानने में असफल रहा है, वह प्रभु से दूर होने का दुःख उठायेगा। ऐसी दूरी असत्य-लोक और शन्ूय में विचरण करने के बराबर है। बाहरी तौर पर वह व्यक्ति चाहे सांसारिक सुखों के सिंहासन पर ही क्यों न विराजमान हो, किन्तु दिव्य सिंहासन के दर्शन से वह सदैव वंचित रहेगा। (4) संसार में रहते हुए अगले दिव्य लोक की क्षमतायें विकसित करें:- मानव जीवन के आरम्भ में मनुष्य गर्भाशय के संसार में भ्रूण की अवस्था में था। वहाँ उसने मानव-अस्तित्व की वास्तविकता के लिये क्षमता और संपन्नता प्राप्त की। इस संसार के लिये आवश्यक शक्तियाँ और साधन शिशु को उसकी उस सीमित अवस्था में दिये गये थे। इस संसार में उसे आँखों की जरूरत थी उसने उसे इस संसार में पाया। उसे कानों की जरूरत थी, उसे उसने वहाँ तैयार पाया, जो उसके नये अस्तित्व की तैयारी थी। जिन शक्तियों की आवश्यकता उसे इस दुनिया के लिये थी, उन्हें गर्भाशय की अवस्था में दे दिया गया। अतः इस संसार लोक में उसे अगले जीवन की तैयारी अवश्य ही करनी चाहिये। प्रभु के साम्राज्य में उसे जिसकी जरूरत पडे़गी, उसे यहाँ अवश्य ही प्राप्त कर लेना चाहिये। जैसे उसने गर्भावस्था में ही इस दुनियाँ के अस्तित्व के लिये सभी शक्तियाँ अर्जित कर ली उसी तरह दिव्य अस्तित्व के लिये जिन अपरिहार्य शक्तियों की आवश्यकता है, उन्हें अवश्य इस संसार में प्राप्त कर लेना चाहिये। (5) जो प्रभु का आज्ञापालक है तो वह प्रभु के प्रकाश को प्रतिबिम्बित करेगा:- आत्मा की प्रकृति के सम्बन्ध में हमें यह जानना चाहिए कि यह ईश्वर का एक चिह्न है, यह वह दिव्य रत्न है जिसकी वास्तविकता को समझ पाने में ज्ञानीजन भी असमर्थ रहे हंै और जिसका रहस्य किसी भी मस्तिष्क की समझ से परे है, चाहे वह कितना भी तीक्ष्ण क्यों न हो। प्रभु की श्रेष्ठता की घोषणा करने में सभी सृजित वस्तुओं में वह प्रथम है, उसकी ज्योति को पहचानने में प्रथम है, उसके सत्य को मानने में प्रथम है और उसके समक्ष नतमस्तक होने में प्रथम है। यदि वह प्रभु का आज्ञापालक है तो वह उसके प्रकाश को प्रतिबिम्बित करेगा और अन्ततः उसी में समाहित हो जायेगा। यदि प्रभु से तादात्म्य स्थापित करने में असमर्थ रहता है तो यह स्वार्थ और वासना का शिकार बनेगा और अन्त में उन्हीं की गहराईयों में डूब कर रह जायेगा। (6) दिव्य लोक की ओर ऊँची उड़ान भरने के लिए गुणों को विकसित करना चाहिए:- बहाउल्लाह कहते हैं तुम उस पक्षी के समान हो जो अपने दृढ़ आनंददायक विश्वास और पंखों की शक्ति के सहारे दूर गगन के विस्तार में विचरण करता होता है और तब तक नीचे नहीं आता … Read more

सुख -दुःख के पार है आनंद

दुख को कोई नहीं चाहता। हर कोई सुख की खोज में भटकता रहता है। यह मान लिए गया है कि दुख के लिए कोई प्रयास करने जरूरत नहीं होती है। वह तो हमारे आसपास ही रहता है, उसे देखने के लिए गर्दन उठाने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन भारतीय परंपराएं, शास्त्र और दर्शन इससे सहमत नहीं हैं। वे इस बारे में कुछ और ही कहते हैं। ज्यादातर ग्रंथ एक स्वर से कहते हैं कि सुख हमारा स्वभाव है। वह कहीं बाहर नहीं है। अष्टावक्र ने तो यहां तक कहा है कि ‘हमेशा सुख से जियो, सुख से उठो और बैठो, तब दुनिया जिसे दुख कहती है, उसे भी सुख की तरह महसूस करने लगोगे।’ हमारा मन जिस सुख के पीछे पागल है, उसके पीछे धन-संपत्ति का बोध है। ऐश्वर्य उसका लक्ष्य है। हम यह भूल जाना चाहते हैं कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुख को भूलने और नकारने की क्षमता अपने अंदर पैदा करना चाहते हैं। तभी तो ओशो ने कहा था, ‘सुख की खोज एक बुनियादी भूल है। दुख को अस्वीकार कर सुख को तलाशना गलत है, क्योंकि सुख दुख का ही हिस्सा है। जो ऐसी भूल करते हैं, वे उन लोगों में हैं, जो जन्म खोजते हैं और मरना नहीं चाहते, जवानी तो खोजते हैं, मगर बूढ़ा होना नहीं चाहते। ’ भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहा-‘जो मनुष्य इस लगातार बदलते रहने वाले सृष्टि चक्र के हिसाब से व्यवहार नहीं करता, वह इंद्रियों के वश में ही जीवन काटने वाले प्यासे के समान बिना उद्देश्य का जीवन जीता है।’ आपने ध्यान दिया होगा कि जब हम प्रेमभाव में होते हैं, तब मन और इन्द्रियां तृप्त रहती हैं। वैसे तो जो भी हमारे पास है, हम उसी में संतुष्ट रहते हैं लेकिन यह अवस्था कुछ देर के लिए ही होती है। इंसान के पास भले ही कितना भी सुख और वैभव हो जाए, उसको कम ही लगता है और ज्यादा की तलाश बनी रहती है। यही कारण है कि सुख नहीं मिल पाता। यदि जीवन में सुख चाहिए तो संतुष्टि भाव में आना ही होगा, वर्ना बहुत कुछ होने पर भी सुख नहीं मिलेगा। एक बार सोच कर देखिए कि जब कुछ देर प्रेम में आने से ही संतुष्टि मिलती है तो यदि हम हमेशा प्रेमभाव में रहें तो कितना आनंद मिलेगा! हमेशा प्रेमभाव और एकरस की भावना के साथ रहना ही आत्मा में रहना होता है। इस तरह आत्मा के भाव से कोई भी काम करने से उसे खुद करने का भाव नहीं आता और इंसान कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। वह इंसान सिर्फ होने वाले सभी कर्मों का माध्यम बन कर रह जाता है। अगर हमें परमात्मा मिल जाए तो हम उससे निश्चय ही अपना शाश्वत सुख न मांग कर धन, संपदा और समृद्धि ही मांगेंगे या छोटे-छोटे दुखों के निवारण की ही याचना करेंगे। वह इसलिए कि अनेक अभावों, दुर्भावों और प्रभावों में असहनीय कष्ट झेलते हुए भी हमें संपत्ति में ही सलामती के दर्शन होते हैं। सत्ता को ही हम अपना सुरक्षा-कवच मानते हैं। स्वजनों के शिकवे-शिकायतों में ही शांति का अनुभव करते हैं। उपयोगिता के आधार पर बने संबंध ही हमें ऊष्मा और प्रेम के दर्शन कराते हैं। संसार के मायावी जाल में ही हमें स्वर्ग-सुख की अनुभूति होती है। उस आखिरी कैदी की सम्यक सोच की तरह इस दुखमय संसार से मुक्ति की अनुपम सौगात मांगने का सुविचार और साहस हमारे अंदर आएगा ही नहीं। क्योंकि हम इस भ्रम में हैं कि जैसे सूर्य की रश्मियों से रात का अंधकार गायब हो जाता है, वैसे ही हम अपने कृत्रिम अनुसंधानों से अपने अंदर छाई कलुषता को दूर कर लेंगे। बस यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। भौतिक सुख और प्राप्तियां तो सदा ही अपना रंग-रूप बदलती हैं। एक इच्छा पूरी हुई तो दस जरूरतें और पैदा हो गईं। सुख के संभावित मार्गों पर जितना चले, उतना दुख ही हाथ लगा। इसका एकमात्र कारण यह है कि हम पथ से भटक कर उस अलौकिक प्रकाश को भुला बैठे हैं जिसके संबल से अर्जुन ने विजय का वरण किया था। महाभारत के समय अर्जुन के पास भी मांगने के कई विकल्प थे। लेकिन, उन्होंने सब विकल्पों को छोड़कर केवल श्री कृष्ण को मांग लिया और अकेले उनको मांग कर सब कुछ प्राप्त कर लिया। प्राय: हम सभी को सुख की तलाश होती है। हम सभी सुख के लेन-देन के लिए कोई भी कीमत चुकाने को सदैव तत्पर रहते हैं। स्वयं को सुखी बनाने की चेष्टा के साथ ही अपने परिजनों को भी सुखी बनाने की चेष्टा चलती रहती है। मां-बाप संतान को और संतान माता-पिता को, पति पत्नी को, पत्‍‌नी पति को सुखी करने की चेष्टा करती है, किंतु सुखी कोई नहीं होता। इसके विपरीत हाथ में दुख का खुरदरा दामन ही आता है और सुख के क्षणों को पकड़कर रोके रखने की हमारी चेष्टा धूल-धूसरित होकर रह जाती है, तो हमें आश्चर्य होता है। हम वास्तव में सुख-दुख में से सुख का चयन करते वक्त यह भूल जाते हैं कि ये संपूर्ण सृष्टि परिवर्तन और विनाश के मूलाधार पर टिकी है। इसलिए सुख-दुख सभी परिवर्तन शील क्षण भंगुर है। वास्तव में सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सिक्के का एक वांछित पहलू हाथ में लेते ही दूसरा पहलू स्वत: हमारे हाथ में आ जाता है। सुख-दुख रूपी गतिमान पहियों में से हम सुख के पहिए को बड़ा करने की चेष्टा करते हैं तो दुख का पहिया स्वत: बड़ा हो जाता है तो हम दंग रह जाते हैं। हमें उस समय इस बात का स्मरण भी नहीं रहता कि असमान पहियों पर गाड़ी नहीं चलती। पहियों को समान होना पड़ता है। यही करण है कि बड़े आदमी का सुख भी बड़ा होता है तो दुख भी बड़ा होता है, जबकि छोटे आदमी के सुख दुख दोनों छोटे होते हैं। सुख-दुख कालचक्र की वाह्य परिवर्तनशील परिधि-परिस्थिति होते हैं। यही कारण है कि सुख व दुख दोनों हमारे जीवन में उत्तेजना लाते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि जब सुख-दुख दोनों उत्तेजनाएं हैं, तो फिर सुख दुख के पार क्या है? सुख दुख के पार ही आनंद है। … Read more

क्‍या सिखाता है कमल का फूल?

कमल के फूल को योग और अध्‍यात्‍म में एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है। योगिक शब्दावली में बोध व अवबोधन के अलग- अलग पहलुओं को हमेशा से कमल के तरह-तरह के फूलों से तुलना की गई है। शरीर के सात मूल चक्रों के लिए कमल के सात तरह के फूलों को प्रतीक चिह्न माना गया है। कमल के फूल को एक प्रतीक के रूप में इसलिए चुना गया है क्योंकि जहां कहीं कीचड़ और दलदल बहुत गाढ़ा होता है वहां कमल का फूल बहुत अच्छी तरह से खिल कर बड़ा होता है। जहां कहीं पानी गंदा हो और मल-कीचड़ से भरा हो, कमल वहीं पर सबसे बढ़िया उगता है। जीवन ऐसा ही है। आप दुनिया में कहीं भी जायें, और तो और अपने मन के अंदर भी, हर तरह की गंदगी और कूड़ा-करकट भरा मिलेगा। अगर कोई कहे कि उसके अंदर मैल नहीं है तो फिर या तो उसने अपने अंदर नहीं झांका या फिर वह सच नहीं बोल रहा है, क्योंकि मन तो आपके वश में है ही नहीं। इसने वह सब-कुछ बटोर लिया है जो उसके रास्ते आया है। आपके पास यह विकल्प तो है कि आप इसका इस्तेमाल कैसे करें लेकिन यह विकल्प नहीं है कि आपका मन क्या बटोरे और क्या छोड़े। आपके मन में जमा हो रही चीजों को ले कर आपके पास कोई विकल्प नहीं है। आप बस यही तय कर सकते हैं कि आप किस तरह से अपने मन की जमापूंजी का इस्तेमाल करें। दुनिया में हर तरह की गंदगी और कूड़ा-करकट है और यह सारा मैल, यह सारा कूड़ा आपके मन में समाता ही रहता है। मल और कूड़ा-करकट देखने से कुछ लोगों को एलर्जी हो जाती है। उनको गंदगी और कूड़ा-करकट गवारा नहीं होता इसलिए वे खुद को इन सब चीजों से दूर ही रखते हैं। वे सिर्फ उन्हीं दो-तीन लोगों के साथ मिलते-जुलते, उठते-बैठते हैं, जिनको वे एकदम सही मानते हैं और बस यही लोग उनकी जिंदगी में रह जाते हैं। आज दुनिया में बहुत लोग ऐसा कर रहे हैं क्योंकि उनको सारी गंदी, सारी निरर्थक चीजों से एलर्जी है। वे एक कोठरी में बंद जिंदगी-सी जी रहे हैं। कुछ दूसरे तरह के लोग ऐसे हैं जो सोचते हैं कि “दुनिया मल-दलदल और कूड़े-करकट से भरी-पटी है तो चलो मैं भी इस कीचड़ का ही हिस्सा बन जाता हूं” और फिर वे भी उसी दलदल में मिल जाते हैं। लेकिन एक और भी संभावना है और वह यह कि आप इस कूड़े-करकट और मल-दलदल को खाद की तरह इस्तेमाल करें और खुद को एक कमल के फूल की तरह खिलायें। कमल के फूल ने इस मल, गंदगी और कूड़े-करकट को किस तरह एक सुंदर और सुगंधित फूल में रूपांतरित कर दिया है! आपको एक कमल के फूल की तरह बनना होगा और गंदे हालात से अनछुए बाहर निकल कर कमल के फूल की तरह खिलना होगा। गंदे-से-गंदे हालात में होने के बावजूद आपको अपनी खूबसूरती और खुशबू बरकरार रखने के काबिल बनना होगा। अगर किसी के पास ऐसी कला है तो वह अपने जीवन-दुख के दलदल में बिना डुबे, उससे बिल्‍कुल अछूता उपर-उपर निकल जाएगा और जो व्यक्ति इस काबिलियत को पहचान कर उसको नहीं तराशता उसको यह जिंदगी जाने कितने तरीकों से तोड़-मरोड़ कर खत्म कर देती है। हर इंसान के अंदर कमल के फूल की तरह खिलने और जीने की काबिलियत होती है। ओमकार मणि त्रिपाठी 

गुरु पूर्णिमा पर विशेष:गुरु के बिना अधुरा है जीवन :दिनेश शर्मा

                  गुरु पूर्णिमा पर विशेष: गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम: अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है  , गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है. गुरु ही साक्षात परब्रह्म है. ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं. उक्त वाक्य उस गुरु की महिमा का बखान करते हैं जो हमारे जीवन को सही राह पर ले जाते हैं.  गुरु के बिना यह जीवन बहुत अधूरा है. यूं तो हम इस समाज का हिस्सा हैं ही लेकिन हमें इस समाज के लायक बनाता है गुरु. शिक्षक दिवस के रूप में हम अपने शिक्षक को तो एक दिन देते हैं लेकिन गुरु जो ना सिर्फ शिक्षक होता है बल्कि हमें जीवन के हर मोड़ पर राह दिखाने वाला शख्स होता है उसको समर्पित  है यह दिन जिसे  गुरु पूर्णिमा कहा जाता है | गुरु का दर्जा भगवान के बराबर माना जाता है क्योंकि गुरु, व्यक्ति और सर्वशक्तिमान के बीच एक कड़ी का काम करता है. संस्कृत के शब्द गु का अर्थ है अन्धकार, रु का अर्थ है उस अंधकार को मिटाने वाला. आत्मबल को जगाने का काम गुरु ही करता है. गुरु  अपने आत्मबल द्वारा शिष्य में ऐसी प्रेरणाएं भरता है, जिससे कि वह अच्छे मार्ग पर चल सके. साधना मार्ग के अवरोधों एवं विघ्नों के निवारण में गुरु का असाधारण योगदान है. गुरु शिष्य को अंत: शक्ति से ही परिचित नहीं कराता, बल्कि उसे जागृत एवं विकसित करने के हर संभव उपाय भी बताता है. जिन महान  जनों ने गुरु- शिष्य संबंधों की खोज की, उन्हें सामाजिक, साँसारिक संबंधों की सीमाओं के बारे में पूरा ज्ञान था। वे जानते थे कि सामान्य संसारी व्यक्ति चाहे वह हमारा कितना ही सगा या घनिष्ठ क्यों न हो, हमारा मार्गदर्शक नहीं हो सकता। इसके लिए परम प्रज्ञावान् एवं अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता है, भले ही वह साँसारिक दृष्टि से धन, पद अथवा प्रतिष्ठा रहित हो। अनेक लोग तर्क प्रस्तुत करते हैं कि गुरु आवश्यक नहीं है, वास्तविक गुरु तो हमारे अंदर है। यह बात सैद्धांतिक रूप से सच भी है, परंतु हम में से ऐसे कितने लोग हैं जो अंतःकरण में स्थित सद्गुरु की आवाज को सुनते- समझते हैं। उसके निर्देशों को समझते एवं आचरण में लाते हैं। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि मनुष्य की मानसिक अवधारणाएँ सीमित एवं स्थूल है। मानव- मन विक्षुब्ध वासनाओं, इच्छाओं एवं महत्त्वाकाँक्षाओं का संगम है। इस हलचल के बीच अंतःस्थिति सद्गुरु की आवाज को सुनना भला कैसे संभव हो सकता है। उसकी आवाज तो नीरवता की, शांति की आवाज है। यदि हम अपनी नीरवता की इस आवाज को सुनना- समझना चाहते हैं, तो हमें अपने मन के आँतरिक कोलाहल को बंद करना पड़ेगा। परंतु हम तो सामान्यक्रम में अपने मन की संरचना ही नहीं समझते। हमें यह भी नहीं मालूम कि हम आसक्ति, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा और वासना का अनुभव क्यों करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम कोलाहल को दबाने का जितना प्रयास करते हैं, उसकी  आवाज उतनी तीव्र होती चली जाती है। इस आँतरिक अशाँति को रोकने के लिए ही हमें गुरु की आवश्यकता होती है। वे ही उन विधियों के विशेषज्ञ हैं, जिनके द्वारा शरीर, मन एवं अंतरात्मा का नियंत्रण व नियमन होता है। वे ही वह मार्ग दिखा सकते हैं जिस पर चलकर हम अपने मन की उन नकारात्मक प्रवृत्तियों को बदल सकते हैं, जो हमारे आत्मविकास में बाधा है। गुरु ज्ञान की प्रज्वलित मशाल है। भौतिक शरीरधारी होने पर भी उनकी आत्मा उच्च एवं अज्ञात जगत् में विचरित रहती है। वह अपने लिए नहीं, बल्कि हमारे लिए इस धरती से जुड़े रहते हैं। उनका प्रयोजन स्वार्थ रहित है। उनकी न तो कोई इच्छा होती है और न ही आकाँक्षा। ये गुरु ही हमारे जीवन की पूर्णता होते हैं। वे पवित्रता, शांति, प्रेम एवं ज्ञान की साक्षात् मूर्ति हैं। वे साकार भी हैं और निराकार भी। देहधारी होने पर भी देहातीत हैं। देहत्याग देने पर भी उनका अस्तित्व मिटता नहीं, बल्कि और अधिक प्रखर हो जाता है। उन्हें पाने के लिए, उनसे मिलने के लिए आवश्यक है हमारी चाहत। इसके लिए अनिवार्य है हमारे अपने अंतर्मन में उभरती तीव्र पुकार। गुरुपूर्णिमा  का महापर्व हममें से हर एक के लिए यही संदेश लेकर आया है कि हमारे गुरुदेव हम सबसे दूर नहीं है। वे देहधारी होने पर भी देहातीत थे और अब देह का त्याग कर देने पर तो सर्वव्यापी हो गए है। उनका सदा ही यह आश्वासन है कि उन्हें पुकारने वाला उनके अनुदानों से कभी भी वंचित नहीं रहेगा | गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगो पाय बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय  दिनेश शर्मा  गोरखपुर (उत्तर प्रदेश ) atoot bandhan ………..हमारा फेस बुक पेज 

*मोह* ( साहित्यिक उदाहरणो सहित गहन मीमांसा )

कृष्ण

वंदना बाजपेयी  कोई इल्तजा कोई बंदगी न क़ज़ा से हाथ छुड़ा सकी किये आदमी ने कई जतन  मगर उसके काम न आ सकी न कोई दवा न कोई दुआ ………………                                                        यू  कहने को तो यह गीत की पंक्तियाँ  हैं पर इसके पीछे गहरा दर्शन है ………………मृत्यु  अवश्यम्भावी है ……………हम रोज देखते हैं पर समझते नहीं या समझना नहीं चाहते है ………….. मृत्यु  हर चीज की है|बड़े -बड़े  पर्वत समय के साथ   रेत  में बदल जाते है .|नदियाँ विलुप्त हो जाती हैं ,द्वीप गायब हो जाते हैं |सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं|किसी का आना किसी का जाना जीवन का क्रम है .परंतू मन किसी के जाने को सहन नहीं कर पता है .जाने वाला विरक्त भाव से चला जाता है ,कहीं और जैसे कुछ हुआ ही न हो बस समय का एक टुकड़ा था जो साथ -साथ जिया था |परंतू जो बच  जाता है उसकी पीड़ा असहनीय होती है ,ह्रदय चीत्कारता है ,स्मृतियाँ जीने नहीं देती ……..यह मोह है जो मन के दर्पण को धुंधला कर देता है |जो अप्राप्य को प्राप्त करने की आकांक्षा करने लगता है | मोह ( साहित्यिक उदाहरणो  सहित गहन मीमांसा ) ………….. दुर्गा शप्तशती में राजा  सुरथ जो  अपने अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा जंगल में भेजे जाने पर भी निरंतर अपने राज्य के बारे में चिंतन करते रहते हैं वो  विप्रवर मेधा के आश्रम में वैश्य को भी अपने सामान पीड़ा भोगते हुए पाते हैं जो पत्नी व् पुत्र के ठुकराए जाने पर भी निरंतर उन्हीं की चिंता करता है .वैश्य कहता है “हे महामते ,अपने बंधुओं के प्रति जो इस प्रकार मेरा चित्त प्रेम मगन  हो रहा है .इस बात को मैं जान कर भी नहीं जान पाता ,मैं उनके लिए लम्बी साँसे ले रहा हूँ जिनके मन में प्रेम का सर्वथा आभाव है .|. मेरा मन उनके प्रति निष्रठुर  क्यों नहीं हो पता? ऋषि समझाते हैं “मनुष्य ही नहीं पशु -पक्षी भी मोह से ग्रस्त हैं ….. जो स्वयं भूखे होने पर भी अपने शिशुओ की चोंच में दाना डालते हैं(दुर्गा शप्तशती -प्रथम अध्याय -श्लोक -५०) यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिम्रिगाद्य : ज्ञानं  च तन्मनुश्यांणा यत्तेषा मृगपक्षीणाम .मोहग्रस्त शूरवीर निद्राजित अर्जुन के हाथ से धनुष छूटने लगता है वो कहते हैं “इस युद्ध  की इच्छा  वाले स्वजन समुदाय को देख कर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है मेरे हाथ से धनुष गिरता है ,त्वचा जल रही है मेरा मन भ्रमित है मैं खड़ा रहने की अवस्था  में नहीं हूँ (गीता अध्याय -१ श्लोक ३० ) स्वयं प्रभु राम जो माता सीता से बहुत प्रेम करते हैं कि उनके अपहरण होने पर होश खो बैठते हैं ……दुःख में पशु -पक्षियों ,लता पत्रों से भी सीता का पता पूछते हैं (अरण्य कांड (२९ -४ ) “हे खग -मृग हरी मधुकर श्रेणी ,तुम देखि  सीता मृगनयनी खंजन सुक कपोत मृग मीना ,मधुप निकर कोकिला प्रवीणा वही स्वयं   बाली के वध पर उसकी पत्नी तारा को ईश्वर द्वारा निर्मित  माया का ज्ञान देते हैं …………….(किष्किन्धा कांड -चौपायी ११ -२ ) “तारा विकल देख रघुराया ,दीन्ह ज्ञान हर लीन्ही माया चिति जल पावक गगन समीरा ,पञ्च रचित अति अधम शरीरा प्रगट सो तन तव आगे सोवा ,जीव नित्य को लगी तुम रोवा उपजा ज्ञान चरण तब लागी ,लीन्हेसी परम भागती वर मांगी                                      उपनिषदों में में आत्मा के नित्य स्वरुप की व्यख्या करते हुए मोह को बार -बार जन्म लेने का कारण बताया है। यह मोह ही है जो समस्त पीड़ा का केंद्र बिंदु है ,जिसके चारों ओर प्राणी नाचता है। ………. “साधकको शरीर और मोह की  की अनित्यता और अपनी आत्मा की नित्यता पर विचार करके इन अनित्य भोगो से सुख की आशा त्याग करके सदा अपने साथ रहने वाले नित्य सुखस्वरूप परमब्रह्म पुरुषोतम को प्राप्त करने का अभिलाषी बनना चाहिए (कठोपनिषद -अध्याय १ वल्ली दो श्लोक -१९ )                                     परन्तु फिर भी ये प्राणी के बस में नहीं है,कि वो मोह को अपने वष में कर ले।                                                          मोह एक ऐसा पर्दा है जो  ज्ञान ,विवेक पर आच्छादित हो जाता है जब देवता व् अवतारी ईश्वर भी इससे  नहीं बचे तो साधारण मनुष्य की क्या बिसात है | दरसल जब मनुष्य समाज में रहता है तो एक -दूसरे के प्रति शुभेक्षा या सद्भाव  और प्रेम होना होना स्वाभाविक है .|परन्तु मोह और प्रेम में अंतर है ……… मोह वहीँ उत्पन्न होता है  जहाँ प्रेम की पराकाष्ठा  हो जाये …………दशरथ का पुत्र प्रेम कब पुत्र मोह में परिवर्तित हो गया स्वयं दशरथ भी नहीं जान पाए ….और पुत्र के वियोग में तड़पते -तड़पते उन्होंने प्राण त्याग दिए ……………….. जहाँ प्रेम स्वाभाविक है वहीँ मोह घातक .|समझना ये है कि प्रेम आनन्द देता है मोह पल -पल पीड़ा को बढ़ाता  है ,जहाँ प्रतीक्षा है वहीँ तड़प है .|अगर हम हिंदी काव्य साहिय में बात करे तो  हरिवंश राय  बच्चन मोह वश  कहते हैं …………………. तिमिर समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी  न कट सकी न घट सकी विरह घिरी विभावरी कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की …………. इसीलिए खड़ा रहा की तुम मुझे दुलार लो इसीलिए खड़ा रहा की तुम मुझे पुकार लो …………                             वही जब माया  का पर्दा हटता है तो वो खुद ही गा उठते है,जीवन -म्रत्यु ,प्रेम और मोह के अंतर को समझते हैं  …………..तो कह उठते हैं …………….. अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई                                 अपनी … Read more

ॐ क्या परमात्मा निराकार निर्गुण हैं या साकार सगुण–

ॐ क्या परमात्मा निराकार निर्गुण हैं या साकार सगुण————– परमात्मा सिर्फ यदि ज्योति स्वरूप ही रहते,निर्गुण,निराकार ही होते ,तो इतने सृष्टि में जो रूप दृष्टिगोचर हो रहें हैं वे ना होते,हम सब रूप भी ना होते।क्योंकि हम सब भी तो परमात्मा के अंश ही तो हैं ।ऐसी कल्पना भी व्यर्थ की है।वो ज्योति को धारण करने के लिये कोई ना कोई आवरण,आकार तो बहुत जरूरी ही है।इसीलिये अपनी शक्ति अपने ऐश्वर्य के साथ परमात्मा सगुण रूप भी हैं और निर्गुण रूप भी हैं। ऐसे समझिये जब आपके अन्दर कोई विचार चल रहा है तो वह निराकार है,अप्रत्यक्ष है,और जब आप उस विचार के अनुसार कार्य करेंगें,तो कोई आकार,कोई आवरण ,कोई सहारा तो चाहियेगा ही।फिर उसका आकार के अनुसार नाम भी।तो ये ही रूप तो सगुण-साकार रूप हैं,जो समय-समय पर अपनी विविध-विविध शक्तियों के साथ आते रहें हैं धरा-धाम पर परमात्मा।                                            चित्र गूगल से साभार  पाॅवरहाउस की बिजली अथवा ऊर्जा का उपयोग तभी सम्भव होता है,जब तारों के द्वारा जगह-जगह आकार बनाकर खम्भों में डाली जाती है और फिर जगह-जगह वितरित की जाती है,।तरह-तरह के उपकरण बनाकर फिर संचारित की जाती है और घर-घर में भिन्न-भिन्न तरह के उपकरण जैसे—पंखा ,वल्व,फ्रिज,हीटर आदि अनेकों प्रकार के बिजली के यन्त्र हम सब प्रयोग में लाते हैं दिन-प्रतिदिन।अतः दोनो ही रूपों को मानना है और दोंनो ही रूप एक-दूसरे के पूरक हैं।पर जो प्रत्यक्ष में है,हम जिसको देख रहें हैं उससे तरह-तरह से व्यवहार भी कर सकते हैं,और उपयोग भी।इसलिये हमें तो सगुण रूप ही अति प्यारा हैं। सुमित्रा गुप्ता atoot bandhan हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे