ठेका     

ठेका

शराब का ठेका यानी सरकार के लिए राजस्व सबसे बड़ा सहारा | वही सरकार जो विज्ञापन दिखाती है कि आप  शराब पीते हैं तो आप की पत्नी जिंदगी भर आँसू पीती है | आखिर कौन चुका रहा है ये राजस्व और किस कीमत पर .. आइए जाने उषा अवस्थी जी की लघु कहानी से .. ठेका                   मैं गहरी नींद में थी तभी बाहरी दरवाजे पर जोर से भड़भड़ाने की आवाज आई। कौन हो सकता है?उठ कर बत्ती जलाई। घड़ी पर दृष्टि डाली। रात के बारह बज रहे थे। आख़िर  इतनी रात को कौन आया है? मैंने सोचा। मन आशंकित हो उठा। बरामदे की लाइट जला कर दरवाजा खोला।  जाली से झाँक कर देखा , बाहर सर्वेन्ट क्वार्टर में रहने वाली रामकली अपनी बेटी पार्वती के साथ खड़ी थी। “क्या हुआ रामकली?” मैंने घबरा कर पूछा। “आंटी जी , तनी दरवाजा खोलिए।” मैंने दरवाजा खोल दिया। उसके चेहरे से गुस्सा साफ झलक रहा था। वह कोरोना के चलते अन्दर नहीं आई। क्रोध से उबलते हुए उसने कहा,”हमका नरेन्दर मोदी ( नरेन्द्र मोदी ) का नम्बर देव।” “कौन सा नम्बर ? ” “अरे! , वहै मोबाइल नम्बर। ” वह आधी रात को देश के प्रधान मंत्री का नम्बर माँगने आई है ? आश्चर्य से मेरी आँखें फैल गईं। “जब इतने दिनन ठेका नाहीं खोलिन तौ अब काहे खोल दिहिन। अगर अबहूँ ना खुलतै तो कउन सा पहाड़ टूट पड़त। अब तक तौ कउनेव का पियै की जरूरत नाही रही। अब का करोना खतम हुई गवा? जब लोगन मा पीयै की लत छूटि गई तौ अब काहे चालू कर दिहिन? ” “इसके लिए नरेन्द्र मोदी कहाँ जिम्मेदार हैं?” मैंने कहा।  “यह तो मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ ने खोली हैं। ” उनहीं से पूछ कर तौ खोली हुइहैं । ” उसका जवाब था । इतनी रात गए इस बात को बढ़ाने का मेरा मन नही  था। अभी कल ही तो ठेके खुले हैं। अनायास ही मेरा मन समाचार पत्र में सुबह देखे उस चित्र की ओर चला गया जिसमें शराब की दूकान पर ‘सोशल डिस्टेंन्सिंग ‘ की धज्जियाँ उड़ाते हुए लोग एक दूसरे पर लदे पड़ रहे थे। वह तैश में थी । तभी उसने दुपट्टे से ढका अपना हाथ और सलवार उठा कर अपना पाँव ,  मेरे सामने कर दिए। मैं स्तब्ध रह गई।  कई जगह घाव थे । कितना भी यह सारा दिन काम करें , मरें, पर वही ढाक के तीन पात। मन हुआ कि अभी इसके मर्द को बुलाकर उसकी अच्छे से ख़बर लूँ किन्तु नशे की हालत में वह किस तरह प्रतिक्रिया करेगा ,  क्या इसकी गारन्टी ली जा सकती है ? वह बेअदबी भी कर सकता है ।    जब पहली बार यह अपनी ननद के साथ , जिसे मैं पहले से ही जानती थी ; मुझसे कमरा माँगने आई , कैसी – कैसी कसमें खा कर कह रही थी कि मेरा मरद दारू नहीं पीता और आज इस तरह मेरे सामने खड़ी है। मैंने अपने भावों को जब्त करते हुए सोचा। इससे तो मैं बाद में निपटूगीं । मैंने ‘सोफ्रामाइसिन ‘ का ट्यूब उसके हाथ में देते हुए कहा ,  “देखो , इस मसले पर हम सुबह बात करेंगे। अभी तुम दवा लगा कर सो जाओ। यदि आराम नहीं हुआ तो सवेरे डा0 को दिखाना पड़ेगा।” मै कमरे में आकर  लेट गई किन्तु नींद? ना जाने कितने अनुत्तरित प्रश्नों  पर मंथन करते मेरे मन को  छोड़ कर वह मुझसे कोसों दूर जा चुकी थी। वो स्काईलैब का गिरना मेंढकी कब्ज़े पर आप को लघु कहानी ठेका कैसी लगी?अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |                         

मासूम

मासूम

किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार /किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार .. जीना इसी का नाम है |मासूम कहानी पढ़ते हुए सबसे पहले ये गीत ही जेहन में आया | कितने गरीब मासूम बच्चे सड़क पर रेस्तरा में ,आइसक्रीम , चाट के ठेलों के आस -पास खड़े मिल जाते हैं |क्या हम उनके लिए कुछ करते हैं ? अगर हम सब जरा सा सहयोग कर दें तो ना जाने कितने मासूमों की जिंदगी बदल जाए | आइए पढ़ें एक प्रेरणा दायक कहानी मासूम   स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो सामान उठाने के लिए कोई भी कुली नहीं दिखा। जब कि डिब्बे के साथ – साथ कुली दौड़ते रहते हैं, जब तक गाड़ी रुक नहीं जाती। पता चला कि कुलियों की हड़ताल है।किसी तरह सामान डिब्बे से खींचकर बाहर निकाला। इस शहर में करीब बारह वर्षों पश्चात् पति का प्रमोशन पर पुनः तबादला हुआ था। वह पहले ही यहाँ आ चुके थे।   मैं उनके लेने आने का इन्तज़ार करने लगी । तभी सामने से एक लड़का आता दिखा। उसने कहा, ‘शायद आप किसी का इन्तजार कर रही हैं? चलिए,मैं सामने वाले स्टाॅल तक आपका सामान ले चलता हूँ , तब तक आप वहीं पर बैठिए।मैं आपका सामान बाहर तक पहुँचा दूँगा।’ मैने उसे संशय की दृष्टि से देखा। दूर – दूर तक कोई कुली दिखाई नहीं पड़ रहा था। मरता क्या न करता? ‘ठीक है’,मैंने कहा। उसने  सामान उठा लिया और पास ही सामने वाले चाय के स्टाॅल के पास जाकर रख दिया। वहाँ पर रक्खी कुर्सी बैठने के लिए खींच दी। मै बैठ गई। उसने स्टाॅल पर खड़े लड़के से चाय लेकर मेरी ओर बढ़ा दी। मैंने चाय उसके हाथ से ले ली। सच कहूँ तो सफर से थक गई थी।चाय पीने की इच्छा भी हो रही थी। मैं  उसे चाय के पैसे देने लगी किन्तु उसने लेने से इन्कार कर दिया। ‘आपने मुझे पहचाना नहीं पर मैंने आपको पहचान लिया है। ‘बारह साल पहले …. आइसक्रीम काॅर्नर पर ‘….. उसकी आँखें छलछला आईं थीं ।    मुझे करेन्ट सा लगा था। ‘ क्या यह वही बच्चा है? ” जिन स्मृतियों को यत्नपूर्वक धक्के मारकर मैने अवचेतन मन की गहराइयों में दफन कर दिया था, वह इस रूप में सामने आएगीं, सोचा न था।    पति कब आकर खड़े हो गए थे, पता नहीं चला। वह कह रहा था  ‘आपके द्वारा दिए गए पैसों से मैंने कई काम किए, उनसे जो फायदा हुआ, यह स्टाॅल उसी का नतीजा है। ‘ उसने झुक कर मेरे पाँव छू लिए थे। पति हतप्रभ थे किन्तु मेरी हालत देखकर वह मौन रहे। लड़का कुछ कह रहा था पर मेरा मन बारह साल पीछे, इसी शहर के सबसे पाॅश इलाके के चौराहे पर जा पहुँचा था।        काॅलोनी से थोड़ा बाहर चलकर ,शहर का पाॅश कहलाने वाला मोहल्ला शुरू हो जाता था ।वहाँ बाजार में खूब रौनक रहती , खासकर सायंकाल से देर रात्रि तक। करीब-करीब सभी जरूरत का सामान वहाँ मिल जाता था। सब्जी से लेकर स्टेशनरी तक। वहाँ शहर की प्रसिद्धमिठाई और चाट की दूकाने थीं। सच कहें तो वह सम्भ्रन्त लोगों का बाजार था।     हम अक्सर शाम को इधर घूमने निकल आते और जरूरत का सामान भी लेते आते। वहाँ चौराहे पर एक ओर ‘ आइसक्रीम काॅर्नर ‘ था। हम सब , मैं , पति और दोनो बच्चे वहाँ आइसक्रीम खाते । किन्तु यहाँ जब-जब आती, एक अजीब सी बेचैनी होती।उस काँर्नर पर तथाकथित सम्भ्रान्त लोगों के बीच ऐसा नज़ारा देखने को मिलता कि अन्दर तक दिल दहल जाता। जैसे ही लोग खाकर आइसक्रीम के कप फेंकते, एक खूबसूरत दस-बारह साल का लड़का नज़र गड़ाए रहता। वह लपक कर दौड़ता हुआ आता और जूठे फेंके हुए कप में लगी आइसक्रीम को जीभ से चाट कर खा जाता ।जब भी यहाँ आती, यह नज़ारा देखने को मिलता। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। ऐसा देखने को लोग अभ्यस्त हो चुके थे। मन विचित्र अपराध – बोध से भर जाता।क्या करें ? कुछ समझ न आता। उस ‘ आइसक्रीम कार्नर ‘ के ऊपर स्टेशनरी की दूकान धी।एक दिन जब लोग आइसक्रीम खा रहे थे और वह लड़का दौड़-दौड़ कर कप चाट रहा था, बच्चों की पढ़ाई से सम्बन्थित कुछ सामान लेने के लिए मेरे पति ने मुझसे ऊपर चलने को कहा।मैं नहीं जाना चाहती थी। यह जानकर कि मैं सीढ़ियाँ नहीं चढ़ना चाहती, वह बच्चों को लेकर ऊपर चले गए। मैं कुछ देर तक उस बच्चे को देखती रही।  फिर किसी अनजान अन्तःप्रेरणावश मैंने उसे इशारे से पास आने के लिए कहा । वह आ गया। मैं पर्स खोल कर उसमे से उतने रुपये ढूँढने की कोशिश कर रही थी जिससे वह आइसक्रीम खरीद कर भरपेट खा सके। तभी मेरी निगाह ऊपर पड़ी। पति और बच्चे सामान लेकर दूकान से बाहर निकल रहे थे । पता नहीं क्यों , मै नहीं चाहती थी कि यह मुझे इस बच्चे को कुछ देते हुए देखें। खुले रूपये ढूँढ नहीं पा रही थी। मैंने घबराहट में सौ-सौ के नोट , जो आपस में लिपटे हुए थे , उसे दे दिए। मुझे नहीं पता कि उसमे सौ के कितने नोट थे। मैं मुँह फेर कर खड़ी हो गई और बच्चों को सीढ़ी से उतर कर आते हुए देखने लगी।          वही बच्चा जवान होकर मुझे इस तरह सामने खड़ा मिलेगा , कभी स्वप्न में भी न सोचा था। उसने सामान उठा लिया था और मैं यन्त्रवत उसके पीछे चल पड़ी थी।प्लेटफार्म से बाहर आकर उसने सामान कार में रख दिया फिर हाथ जोड़कर भरे गले से बोला , ‘ यदि मेरे लायक कोई भी कार्य हो तो जरूर बताएँ , मैं दौड़ा चला आऊँगा। ‘ तब तक ड्राइवर कार स्टार्ट कर चुका था । कार चल पड़ी थी । वह बाहर खड़ा हाथ हिला रहा धा । मैं तो उसका नाम भी नहीं पूछ पाई थी ।                                   अभी भी जो मासूम , न चाहने पर भी , यदा- कदा मेरे अवचेतन मन की भीतरी पर्तों को चीर कर , चेतना के स्तर … Read more

बलात्कार के खिलाफ हुँकार

 हम उसी देश के वासी हैं जहाँ कभी कहा जाता था कि ,”यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” आज उसी देश में हर १५ मिनट पर एक बलात्कार हो रहा है | ये एक दर्दनाक सत्य है कि आज के ही दिन निर्भया कांड हुआ था | बरसों से उसकी माँ अपराधियों को दंड दिलालाने के लिए भटक रही है | उसके बलात्कारी  “अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं’  जैसे प्रवचन देते हुए  यह सिद्ध कर देते हैं कि उनमें आज भी अपराध बोध नहीं है | हाल ही का प्रियंका कांड हो या उन्नाव का, बिहार का या कठुआ का  किसी भी अपराधी को  इस बर्बरता के लिए छोड़ा  नहीं जाना चाहिए | देवी बना के ना पूजो, इंसान बन कर तो जीने दो |स्त्री सुरक्षा के लिए जरूरी हैं कठोर कानून और उनका तुरंत क्रियान्वन | पढ़िए निर्भय काण्ड की बरसी पर ये आक्रोश से भरी कविता … बलात्कार के खिलाफ हुँकार  नारी सर्वत्र पूज्यते कीअब बात खोखली लगती हैनित-नित चीर हरण होताहर बात दोगली लगती हैचारों ओर प्रवृत्ति आसुरीबढ़ता जाता है व्यभिचारपूजा तो अति दूर,निरन्तरबलात्कार हो बारम्बारहवस पूर्ति करके औरत कोअग्नि हवाले यह करतेकलियुग के पापाचारीहैं दुराचार के घट भरतेजिन कोखों से जन्म लिया हैउन्हे लजाते शर्म नहींबहन , बेटियों की मर्यादाकरें भ॔ंग ; कोई धर्म नहींजहाँ जानकी ,राधा,काली ,दुर्गा हैं पूजी जातीराम,कृष्ण के देश भलाक्योंकर जन्मे ये कुलघाती?इन्सानों का भेषजानवर से बद्तर इनकी करनीखोद रहे अपनी ही कब्रेंकुटिल , निकम्में , दुष्कर्मी उषा अवस्थी  यह भी पढ़ें …. मर्द के आँसू वो पहला क्रश रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “बलात्कार के खिलाफ हुंकार “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |      filed under-poem, hindi poem, rape, crime against women, rape victim,   

कड़वा सच

कहने वाले कहते हैं कि जब शेक्सपीयर ने लिखा था कि नाम में क्या रखा है तो उसने इस पंक्ति के नीचे अपना नाम लिख दिया था | वैसे नाम नें कुछ रखा हो या ना रखा हो नाम हमारे व्यक्तित्व का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है | इतना की कि इसके आधार पर नाम ज्योतिष नामक ज्योतिष की की शाखा भी है | कई माता -पिता कुंडली से अक्षर विचारवा कर ही बच्चे का नाम रखते हैं | लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो फैशन के चलन का नाम रख देते हैं तो कुछ लीक से अलग रखने की | ऐसा ही एक नाम मैंने एक बार सुना था ‘विधुत’ सुन कर अजीब सा लगा था | खैर नाम रखना अलग बात है और नाम का अर्थ जानकार नाम  रखना अलग बात |  इस विषय पर काका हाथरसी की कविता नाम -रूपक भेद की कुछ कुछ पंक्तियाँ  पढने के बाद ही पढ़िए , नाम के बारे में एक कडवा सच … मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप  श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप  जैसे खिलती धूप , सजे बुशर्ट पैंट में  ज्ञानचंद छ: बार फेल हो गए टेंथ में  कह काका ज्वालाप्रसाद जी बिलकुल ठंडे  पंडित शान्तिरूप चलाते देखे डंडे  कड़वा सच  शुक्रवार ,1 नवम्बर 2019  को अपने कार्य से मैं एस बी आई बैंक के मैनेजर से जब मिली,उस समय एक नौजवान , जिसकी उम्र मेरे अनुमान से करीब चौबीस वर्ष के आस – पास रही होगी ,मैनेजर से कह रहा था कि उसै बैंक के लिए आवास बनाने हैं ,अतः उसे लोन चाहिए। मैनेजर उसे उस आॅफीसर का पता एवं फोन नम्बर बता रहीं थीं जिनके द्बारा उसे लोन मिल सकता था। इसी संदर्भ में उन्होने उससे उसका नाम पूछा।उसने अपना नाम मीनाशुं बताया। जब मैनेजर ने उससे उसके नाम का अर्थ जानना चाहा तो उसका उत्तर सुनकर मैं चौंक गई । उसने कहा उसे इस नाम का अर्थ नहीं मालूम। उसे इतना पता है कि उसके नाम का सम्बन्ध उसकी माँ से है ।यह सुनकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उससे पूँछ ही लिया ‘तुम्हारी माँ का क्या नाम है?’ उसने कहा ,’मीना।’ मैंने कहा मीना + अंशु = मीनांशु । अंशु मायने सूर्य होता है। यानी तुम अपनी माँ के लिए सूर्य के समान हो। फिर मैंने उससे कहा कि हम हिन्दुस्तानी हैं , हिन्दी भाषी हैं ,हमें अपने नाम का अर्थ तो पता होना ही चाहिए । अब किसी से यह मत कहना कि तुम्हे अपने नाम का अर्थ नहीं मालूम? वह मुस्करा दिया।                         किन्तु इस घटना ने मुझे कितना कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। हमारे यहाँ ऐसे भी नौजवान हैं ,जिन्हे अपने नाम का अर्थ नहीं मालूम?यह मेरे लिए किसी अचरज से कम नहीं था । कभी घर के लोगों ने या कभी किसी शिक्षक ने भी नहीं पूछा ? निश्चय ही नहीं। हमें याद आया हमारी शिक्षिकाओं ने भी तो कभी हमसे हमारे नाम का अर्थ नहीं पूछा। सब यह मान कर ही चलते होगें कि यह तो बच्चे जानते ही होगें या फिर इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया।और तो और मैनेजर साहिबा ने भी इस बात पर कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं किया। उन्हे इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ा ,जब कि कुछ दिनों पहले ही हिन्दी दिवस मनाया गया है। शायद उन्हे भी इसका अर्थ मालूम न हो अथवा यह उनके कार्य का हिस्सा नहीं।         मुझे अभिभावकों से  यह कहना है कि वह ही बच्चे का नाम रखते हैं ,अतः उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह जानें कि बच्चे को उसके नाम का अर्थ मालूम है कि नहीं ? शिक्षकों से भी मैं कहना चाहूँगी कि वह इस बात पर गौर करें। उषा अवस्थी                                                                           यह भी पढ़ें … बचपन की छुट्टियाँ और नानी का घर अपने पापा की गुडिया वो 22 दिन इतना प्रैक्टिकल होना भी ठीक नहीं आपको  संस्मरण  “ कड़वा सच    “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Name, memoirs, what is the meaning of name, advice

दीपोत्सव

दीपावली मानने के तमाम कारणों में एक है राम का अयोध्या में पुनरागमन | कहते हैं दीपावली के दिन प्रभु श्री  राम 14 वर्ष का वनवास काट कर पुन: अयोध्या लौटे थे | इस ख़ुशी में लोगों ने अपने घरों में दीप जला लिए थे | राम सिर्फ एक राजा ही नहीं थे | बल्कि आदर्श पुत्र , एक पत्नीव्रत का निर्वाह करने वाले , स्त्रियों की इज्ज़त  करने वाले भी थे | हम दीपावली प्रभु राम के अयोध्या वापस आने की ख़ुशी में तो मना लेते हैं पर क्या राम को  अपने व्यक्तित्व में उतार पाते हैं |  दीपोत्सव  जगमगाती दीपमालाएँ लगीं भानेराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें टूट कर गृह कलह से बिखरे नहीं परिवारपिता के वचनों को निभाओ तो फिर मानेंराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें राम सीता के न रह पाए बहुत दिन साथउन सा पत्नी एक व्रत , धारो तो फिर मानेंराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें दूसरों की पत्नियाँ हों, बहन, या बेटीअपनी माँ, बहनों सा ही जानो तो फिर मानेंराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें गुरूजन, माता-पिता, अपने जो हैं कुल श्रेष्ठउनके चरणों में झुके जो शीश,  फिर मानेंराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें जगमगाती दीपमालाएँ लगीं भाने उषा अवस्थी                                        यह भी पढ़ें …. आओ मिलकर दिए जलायें धनतेरस -दीपोत्सव का प्रथम दिन दीपावली पर 11 नए शुभकामना सन्देश लम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ मित्रों , आपको कविता ‘ दीपोत्सव’ –  कैसी लगी  | पसंद आने पर शेयर करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |  अगर आपको ” अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री ईमेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि सभी  नयी प्रकाशित रचनाएँ आपके ईमेल पर सीधे पहुँच सके |  filed under-deepawali, deepotsav, diwali, diye, deepak, Ram

अग्नि – पथ

         हम ऐसे समज में जीने के लिए अभिशप्त हैं जहाँ रिश्ते -नाते अपनत्व पीछे छूटते जा रहे हैं | इंसान में  जो चीज सबसे पहले खत्म हो  रही है वो है इंसानियत | इंसान बर्बर होता जा रहा है | आये दिन अखबारों के पन्ने ऐसी  ही दर्दनाक खबरों से से भरे रहते हैं …जहाँ मानवता शर्मसार हो |ऐसे में कवि ह्रदय का व्याकुल होना स्वाभाविक है | ये कविता एक ऐसी ही घटना से व्याकुल हो कर लिखी गयी है जिसमें फरक्का एक्सप्रेस में एक महिला से उसका बच्चा छीन कर बाहर फेंक दिया गया | माँ की व्यथा का अंदाजा लगाया जा सकता है | ये कविता गिरते मानव मूल्यों के प्रति जागरूक कर रही है …. अग्नि – पथ वक्त यह ,सोचें-विचारेंबढ़ रही क्यों दूरियाँ?चल पड़े हैं अग्नि-पथ परकौन सी मजबूरियाँ?करुणा से दूरी बनाईप्रेम-घट खाली कियापोंछेगा किसके तू आँसू?बन के बर्बर जो जियाबढ़ती जाएँ दूरियाँकुटुम्ब और समाज सेपाठ जिनसे पढ़ते थे हमनेह, प्रीति ,उजास केबिखरते परिवाररिश्ते टूटते अपनत्व केअब सबक़ किससे पढ़ें ?सहिष्णुता , समत्व के उषा अवस्थी                                    यह भी पढ़ें … नींव व्हाट्स एप से रिश्ते  रेप से जैनब मरी है डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ हो तुम गुलाब मैं कंटक क्यूँ  आपको “अग्नि – पथ“कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-Hindi poetry, poem, agani-path, human relations, crime

सावन की बुंदियां

सावन के आते ही अपनी धरती ख़ुशी से झूम उठती है , किसान अच्छी फसल की उम्मीद करने लगता है और बावरा मन गा उठता है ….. सावन की बुंदियां उमड़ – घुमड़ करश्याम मेघ , अम्बर छाएसंकुल नभ गलियांरिमझिम गिरे सावन की बुंदियां शीतल , मृदुल फुहारें गिरतींअमृत सम मधुमय जल झरतींभरतीं पोखर , झीलें , नदियांरिमझिम गिरे सावन की बुदियां तप्त हुई बेचैन धरा कीहै जलधर ने प्यास बुझाईकृषकों के चेहरों पर खुशियांरिमझिम गिरे सावन की बुंदियां अट्टालिका गगनचुंबी हितवृक्ष कटें वन , उपवन के नितझूला किस पर डाले मुनिया ?रिमझिम गिरे सावन की बुंदियां उषा अवस्थी पढ़ें सावन पर कुछ भीगती हुई कवितायें – अगर सावन ना आई (भोजपुरी कविता ) सावन में लग गयी आग कि दिल मेरा (कहानी ) सावन पर किरण सिंह की कवितायें सावन एक अट्ठारह साल की लड़की है आपको ”  देश की समसामयिक दशा पर पाँच कवितायें “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- poem in Hindi, Hindi poetry ,rain, rainy season

हिन्दी के पाणिनी आचार्य श्री किशोरीदास बाजपेयी : संस्मरण

आचार्य श्री किशोरीदास बाजपेयी को हिंदी भाषा का पाणिनि भी कहा जाता है | उन्होंने हिंदी को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया | उससे पहले खड़ी बोली का चलन तो था पर उसका कोई व्यवस्थित व्याकरण नहीं था | इन्होने अपने अथक प्रयास से व्याकरण का एक सुव्यवस्थित रूप निर्धारित कर हिंदी भाषा का परिष्कार किया और साथ ही नए मानदंड भी स्थापित किये , जिससे भाषा को एक नया स्वरुप मिला |          हिंदी के साहित्यकार व् सुप्रसिद्ध व्याकरणाचारी आचार्य श्री किशोरी दस बाजपेयी जी का जन्म १५ दिसंबर १८९५ में कानपूर के बिठूर के पास मंधना के गाँव रामनगर में हुआ था | उन्होंने न केवल व्याकरण क्षेत्र में काम किया अपितु आलोचना के क्षेत्र में भी शास्त्रीय सिधान्तों का प्रतिपादन कर मानदंड स्थापित किये | प्रस्तुत है उनके बारे में कुछ रोचक बातें ….                                                 फोटो -विकिपीडिया से साभार हिन्दी के पाणिनी आचार्य श्री किशोरीदास  बाजपेयी : संस्मरण                           हिन्दी के पाणिनी कहे जाने वाले ‘दादाजी‘ यानी आचार्य श्री किशोरीदास जी बाजपेयी के बारे में तब पहली बार जाना जब वह हमारे घर पर अपनी छोटी बेटी (मेरी भाभी) का रिश्ता मेरे म॓झले भाई साहब के लिए लेकर आए।हमारे बड़े भाई साहब उनकी बातों से बहुत प्रभावित हुए। इस सिलसिले में शादी से पूर्व उनका कई बार हमारे घर आना हुआ और हर बार वह अपने व्यक्तित्व की एक नई छाप छोड़ गए।तब हमने जाना कि वह बात के पक्के हैं और उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा खरापन है जो सभी को ऊपनी ओर आकृष्ट करता है।                           उन्ही दिनों के आस-पास ‘वैद्यनाथ‘ वालों की ओर से दादा जी का अभिनन्दन किया गया जिसमें उन्हे ग्यारह हजार रुपये प्रदान किए गए। इस अभिनन्दन के पश्चात जब वह हमारे घर आए तो उन्होने कहा कि वह यह ग्यारह हजार रुपये अपनी बेटी की शादी में खर्च करेगें और अगर यह रुपये चोरी हो गए तो कुछ भी खर्च नहीं करेगें।उनकी इस साफगोई और खरेपन को लेकर हमारे घर में कुछ दिनों खूब विनोदपूर्ण वातावरण रहा।                              उन्होने कहा,बारात कम लाई जाए लेकिन स्टेशन पर पहुँचने से लेकर वापिस स्टेशन आने तक वह हम लोगों से कुछ भी खर्च नहीं करवाएगें। बारात में कुल बीस- पच्चीस लोग ही गए।लेकिन उन्होने हरिद्वार स्टेशन पर उतरते ही सवारी से लेकर बैंड-बाजे आदि का कुछ भी खर्च हमारी ओर से नहीं होने दिया।उन्होंने शादी शानदार ढंग से निपटाई।भोजन और मिष्ठान्न सभी कुछ देशी घी में बने थे।जो मिठाई उन्होने हमारे घर भिजवाई,वह भी सब शुद्ध देशी घी में बनी थी।उनके द्वारा भिजवाई गई मिठाइयों में पूड़ी के बराबर की चन्द्रकला का स्वाद तो मुझे आज भी याद है।गर्मियों के दिन थे।उन्होने हमारे घर पर बहुत अधिक पकवान व मिठाइयाँ भिजवा दी थीं।माँ ने तुरन्त ही सब बँटवा दीं।आज भी सब रिश्तेदार और मुहल्ले वाले उन मिठाइयों की याद कर लेते हैं।                            गर्मियों की छुट्टियों मैं मैं एक महिने भाभी के साथ कनखल में रही। दादाजी सुबह चार बजे उठ जाते और भगोने में चाय चढ़ा देते। वह चाय पीकर मुझे जगा देते और अपने साथ टहलने ले जाते। हम ज्वालापुर तक टहलने जाते। टहलते समय दादा जी मुझे खूब मजेदार बातें बताते। वह कहते , ‘जाको मारा चाहिए बिन लाठी बिन घाव, वाको यही सिखाइए भइया घुइयाँ पूड़ी खाव।‘ फिर हँस कर कहते कि उन्हे घुइयाँ पूड़ी बहुत पसंद हैं।                                   एक बार जब वे अंग्रेजों के समय जेल में बन्द थे, उनकी कचेहरी में पेशी हुई। पेशी के लिए जज के समक्ष जाते समय पेशकार ने पैसों के लिए अपनी पीठ के पीछे हाथ पसार दिए। दादा जी ने उसकी गदेली पर थूक दिया। वह तुरन्त अपना हाथ पोंछकर जज के सामने खड़ा हो गया।                                     जब हम टहल कर आते , दादा जी नाश्ते में पंजीरी (भुना आटा और बूरा ) में देशी घी डलवा कर लड्डू बनवाते जो एक गिलास ताजे दूध के साथ मुझे नाश्ते में मिलता। यह रोज का नियम था। वह मेरा विशेष ख्याल रखते। जब तक मैं कनखल में रही, दादा जी मेरे लिए मिठाई लाते और मिठाई में अक्सर चन्द्रकला होती।फलों में उन्हे खरबूजा , ककड़ी और देशी आम पसन्द थे। किन्तु हम सबके लिए केला, सन्तरा आदि मौसमी फल भी लाते। आम को वह आम जनता का फल बताते थे।खाने के साथ उन्हे अनारदाने की चटनी बहुत पसंद थी।                                     टहल कर आने के पश्चात दादा जी लिखने का कार्य करते। भोजन करके वह कुछ देर विश्राम करते।तत्पश्चात वह हरिद्वार,श्रवणनाथ ज्ञान म॓दिर पुस्तकालय जाते।यह उनका प्रतिदिन का नियम था। रात में वह कहीं नहीं जाते थे। वह कहते,’दिया बाती जले मद्द (मर्द) मानस घर में भले।‘                                      जब वह हमारे घर कानपुर आते, हम सब उनसे मजेदार किस्से सुनने के लिए उन्हे घेर कर बैठ जाते। ऐसे ही एक समय उन्होने बताया कि एक बार जब वह ट्रेन से जा रहे थे तो उन्होने अपने सामने की सीट पर बैठे व्यक्ति से बात करने की गरज से पूछा कि वह कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा तीन बार हुआ। अवश्य ही इस व्यक्ति ने धोती कुरता पहने हुए दादा जी को गाँव का कोई साधारण गँवार समझा होगा। जब उन्होने देखा कि यह व्यक्ति बात नहीं करना चाहता तो वह अपनी सीट पर बिस्तर बिछा कर सो गए। सुबह होने पर उन्होने एक केतली चाय, टोस्ट, मक्खन मँगाया और नाश्ता करने लगे।इसी बीच यह व्यक्ति दादा जी से पूछने लगा कि उन्हे कहाँ जाना है? दादा जी ने कोई जवाब नहीं दिया तथा उसकी ओर अपनी पीठ कर ली। ऐसा दो बार हुआ। तीसरी बार वह व्यक्ति जरा जोर से बोला, ‘क्या आप ऊँचा सुनते हैं? ‘अब दादा जी उसकी ओर मुँह घुमा कर बोले, ‘आप मुझसे कहाँ बात कर रहे हैं? आप तो मेरे टोस्ट मक्खन सै बात कर रहे हैं।‘ रात को जब मैंने आपसे बात करने की कोशिश की, आपने कोई जवाब नहीं दिया। ‘ वह व्यक्ति बड़ा शर्मिन्दा हुआ।किन्तु पीछे की सीट पर बैठे हुए शुक्ला … Read more

जरा धीरे चलो

आज फुर्सत किसके पास है , हर कोई भाग रहा है …तेज , और तेज , लेकिन इस भागने में , अपने अहंकार की तुष्टि में , ना जाने कितने मासूम पलों को खोता जाता है जो वास्तव में जिंदगी हैं … तभी तो ज्ञानी कहते हैं … कविता -जरा धीरे चलो  जिन्दगी थोड़ा ठहर जाओ जरा धीरे चलो तेज इस रफ्तार से  घात से प्रतिघात से  वक्त रहते , सम्भल जाओ जरा धीरे चलो जिन्दगी – – – – कामना के ज्वार में मान के अधिभार में डूबने से बच , उबर जाओ जरा धीरे चलो जिन्दगी – – – – शब्दाडम्बरों के उत्तरों प्रत्युत्तरों के जाल से बच कर , निकल जाओ  जरा धीरे चलो जिन्दगी – – – – ऊषा अवस्थी यह भी पढ़ें …. मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “जरा धीरे चलो “कैसे   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    filed under-poem, hindi poem, life, life lessons

रिश्ते तो कपड़े हैं

टूटते और बनते रिश्तों के बीच आधुनिक समय में स्वार्थ प्रेम पर हावी हो गया , अब लोग रिश्तों को सुविधानुसार कपड़ों की तरह बदल लेते हैं … कविता -रिश्ते तो कपडे हैं  आधुनिक जमाने में  रिश्ते तो कपड़े हैं नित्य नई डिज़ाइन, की तरह बदलते हैं नया पहन लो पुराने को त्याग दो मन जब भी भर जाए खूँटी पर टाँग दो यदि कार्य बनता है तो नाता जोड़ लो काम निकल जाए तो घूरे पर फेंक दो उषा अवस्थी यह भी पढ़ें … रूचि भल्ला की कवितायें अनामिका चक्र वर्ती की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायें अजय चंद्रवंशी की लघु कवितायें आपको    “रिश्ते तो कपड़े हैं   “    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: poetry, hindi poetry, kavita, love,