रिश्तों पर ओमकार मणि त्रिपाठी के 11 अनमोल विचार

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सफलता पर ओमकार मणि त्रिपाठी के 11 अनमोल विचार

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जरूरी है मन का अँधेरा दूर होना

भारतीय संस्कृति में अक्टूबर नवम्बर माह का विशेष महत्त्व है,क्योंकि यह महीना प्रकाशपर्व दीपावली लेकर आता है.दीपावली अँधेरे पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है भौतिक रूप से दीपावली हर साल सिर्फ एक साँझ की रौशनी लेकर आती है और साल भर के लिए चली जाती है,किन्तु प्रतीकात्मक रूप से उसका सन्देश चिरकालिक है.प्रतिवर्ष दीपपर्व हमें यही सन्देश देता है कि अँधेरा चाहे कितना ही सघन क्यों न हो,चाहे कितना ही व्यापक क्यों न हो और चाहे कितना ही भयावह क्यों न हो,लेकिन उसे पराजित होना ही पड़ता है.एक छोटा सा दीप अँधेरे को दूर करके प्रकाश का साम्राज्य स्थापित कर देता है. अंधेरे का खुद का कोई अस्तित्व नहीं होता,खुद का कोई बल नहीं होता,खुद की कोई सत्ता नहीं होती. अँधेरा प्रकाश के अभाव का नाम है और सिर्फ उसी समय तक अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है,जब तक प्रकाश की मौजूदगी न हो.अँधेरा दिखाई भले ही बहुत बड़ा देता हो,लेकिन इतना निर्बल होता है कि एक दीप जलते ही तत्काल भाग खड़ा होता है.दीपक प्रकाश का प्रतीक है और सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है। दीपक से हम ऊंचा उठने की प्रेरणा हासिल करते हैं। शास्त्रों में लिखा गया है ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर चलने से ही जीवन में यथार्थ तत्वों की प्राप्ति सम्भव है। अंधकार को अज्ञानता, शत्रु भय, रोग और शोक का प्रतीक माना गया है। देवताओं को दीप समर्पित करते समय भी ‘त्रैलोक्य तिमिरापहम्’ कहा जाता है, अर्थात दीप के समर्पण का उद्देश्य तीनों लोकों में अंधेरे का नाश करना ही है। आज बाहर के अँधेरे से ज्यादा भीतर का अँधेरा मनुष्य को दुखी बना रहा है.विज्ञानं ने बाहर की दुनिया में तो इतनी रौशनी फैला दी है,इतना जगमग कर दिया है कि बाहर का अँधेरा अब उतना चिंता का विषय नहीं रहा,लेकिन उसी विज्ञानं की रौशनी की चकाचौंध में भीतर की दुनिया हीन से हीनतर बनती | जा रही है,जिसका समाधान तलाश पाना विज्ञानं के बस की बात नहीं है.भीतर के अँधेरे से मानव जीवन की लड़ाई बड़ी लम्बी है.जब भीतर का अँधेरा छंटता है.तो बाहर की लौ जगमगा उठती है ,नहीं तो बाहर का घोर प्रकाश भी भीतर के अँधेरे को दूर नहीं कर पाता | जैसे जैसे जीवन में एकाकीपन बढ़ता है मन का अँधेरा और घना होता जाता है | कभी – कभी यह त्यौहार हमारे अन्दर के खालीपन को और बढ़ा देते हैं| क्योंकि त्योहारों में जबरन हंसने के बाद एकाकीपन और महसूस होता है | कभी अवसाद के शिकार किसी व्यक्ति से मिलिए सब कुछ होते हुए भी उसके अन्दर का अँधेरा बहुत घना होता है | भीतर की दुनिया का अँधेरा सिर्फ सकारात्मक सोच और प्रेरक विचारों से ही दूर किया जा सकता है.भीतर का अँधेरा दूर करने के लिए आत्मतत्व को पहचानना जरूरी है |सकारात्मक विचारों का प्रचार प्रसार इतना हो पूरी धरा से निराशा के अँधेरे का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाये.यहाँ सकारात्मक विचारों का अर्थ केवल अच्छा सोंच कर स्वप्नों की दुनिया में रहना ही नहीं , उनको यथार्थ में तब्दील करना है | किसी के आंसूं पोछने हैं , किसी के होठों पर मुस्कराहट लाने का प्रयास करना है | किसी एकाकी व्यक्ति से आत्मीयता के साथ उसका हाल पूँछ लेना हैं | जिससे ये सकर्त्मकता हर तरह फ़ैल जाए और मन का अँधेरा कहीं टिक न पाए | जरूरी है दीप से दीप जलाने का यह सिलसिला तब तक चलता रहे,तब तक मानव मन से अँधेरे का समूल नाश नहीं हो जाता| अंत में गोपालदास नीरज जी की कुछ पंक्तियाँ ……. ” जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतनाअँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए ” ओमकार मणि त्रिपाठीप्रधान सम्पादक

विचार मनुष्य की संपत्ति हैं

“जिस हृदय में विवेक का, विचार का दीपक जलता है वह हृदय मंदिर तुल्य है।” विचार शून्य व्यक्ति, उचित अनुचित, हित-अहित का निर्णय नहीं कर सकता। विचारांध को स्वयं बांह्माड भी सुखी नहीं कर सकते। मानव जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें विचार करने की क्षमता है, विचार मनुष्य की संपत्ति है। विचार का अर्थ केवल सोचना भर नहीं है, सोचने के आगे की प्रक्रिया है। विचार से सत्य-असत्य, हित-अहित का विश्लेषण करने की प्रवृत्ति बढती है। विचार जब मन में बार-बार उठता है और मन व संस्कारों को प्रभावित करता है तो वह भावना का रूप धारण करता है। विचार पूर्व रूप है, भावना उत्तर-रूप है। जीवन निर्माण में विचार का महत्व चिंतन और भावना के रूप में है। “मनुष्य वैसा ही बन जाता है जैसे उसके विचार होते हैं।” विचार ही हमारे आचार को प्रभावित करते हैं। विचार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सद्विचार, सुविचार या चिंतन मनन के रूप में। चिंतन-मनन ही भावना का रूप धारणा करते हैं। भावना संस्कार बनती है और हमारे जीवन को प्रभावित करती है। भावना का अर्थ है मन की प्रवृत्ति। हमारे जीवन में, हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभ्युत्थान में भावना एक प्रमुख शक्ति है। भावना पर ही हमारा उत्थान और पतन है-भावना पर ही विकास और ह्रास है। “शुद्ध पवित्र और निर्मल भावना जीवन के विकास का उज्ज्वल मार्ग प्रशस्त करती है।” भावना एक प्रकार का संस्कार मूलक चिंतन है। वस्तुत: मन में उठने वाले किसी भी ऐसे विचार को जो कुछ क्षण स्थिर रहता है और जिसका प्रभाव हमारी चिंतन धारा व आचरण पर पडता है उसे हम भावना कहते हैं। ओमकार मणि त्रिपाठी प्रधान संपादक – अटूट बंधन एवं सच का हौसला

जरूरी है मनुष्य के भीतर बेचैनी पैदा होना

कुछ नया जानने , कुछ अनोखा रचने की बेचैनी ही वजह से ही विज्ञानं का अस्तित्व है |कब आकाश  पर निकले तारों को देख कर मनुष्य को बेचैनी हुई होगी की जाने क्या है क्षितिज के पार | तभी जन्म लिया ज्योतिष व खगोल शास्त्र ने | और खोल के रख दिए ग्रहों उपग्रहों के अनगिनत भेद | यह बेचनी ही तो थी जो उसे पानी से बिजली और बिजली के दम पर ऊँची – ऊँची अट्टालिकाओं में पानी चढाने की सहूलियत देती चली गयी | यह सच है की विज्ञानं की बदौलत मानव आज ” अपने एनिमल किगडम ” से ऊपर उठ कर सफलता के अंतरिक्ष पर बिठा दिया | विज्ञानं की बदौलत प्रगति के तमाम सोपानों को हासिल करने के बावजूद आज के आदमी की मानसिकता में बहुत बड़ा अंतर नहीं आया है. आज भी वह उन मूल्यों का बोझ ढो रहा है, जो वैयक्तिक और सामाजिक चेतना पर आवरण डालने वाले हैं. वह आज भी उन परंपराओं में जी रहा है, जो केंचुल की भांति अर्थहीन हैं और गति में बाधा उपस्थित करने वाली हैं. वह आज भी सोच के उस बियावान में खड़ा है, जहां उसका पथ प्रशस्त नहीं है और मंजिल तक पहुंचाने वाला नहीं है. ऐसी स्थिति में हम धरती पर जनम रहे, पनप रहे सारे गलत मूल्यों के साथ संघर्ष करने का संकल्प जगा सकें तो ऐसा क्षण भी उपस्थित हो सकता है जो मनुष्य के भीतर एक बेचैनी पैदा कर दे, उथल-पुथल मचा दे और ऐसी मशाल जला दे जो विचारों का सारा कलुष धोकर उसके सामने दिव्य उजाला बिछा दे.जब तक आदमी की सोंच या आदमियत में फर्क नहीं आएगा तब तक यह सफलता केवल भौतिक है | पर अपने मन में जमे हुए विचारों के खिलाफ संघर्ष ही उसे ” किंगडम ऐनिमेलिया से इतर देवताओं के समकक्ष लाकर खड़ा कर सकता है | जरूरी है तीव्र इक्षा शक्ति और बेचैनी , जो सदैव ही नए विचारों , नए अनुसंधानों को जन्म देती रही है |आइये सारे गलत मूल्यों के साथ संघर्ष करने की इस मशाल को जलाए | जन जन के मन में बेचैनी पैदा करें …. और नए बेहतर विश्व का निर्माण करें | ओमकार मणि त्रिपाठी प्रधान संपादक – अटूट बंधन एवं सच का हौसला

तन की सुंदरता में आकर्षण, मन की सुंदरता में विश्वास

सुंदर काया और मोहक रूप क्षणिक आकर्षण पैदा कर सकते हैं लेकिन आंतरिक सुंदरता सामने वाले के मन को हमेशा के लिए वशीभूत कर लेती है। जो लोग रूप पर टिके रह जाते हैं वे अपनी आंतरिक क्षमताओं की तलाश नहीं कर पाते। रूप उनके लिए एक ऐसा जाल बन जाता है जिसे तोडऩा आसान नहीं होता। इसके उलट शरीर से निर्विकार रह कर मन की ताकत पर एकाग्र रहने वाले लोग महानता के शिखर चढ़ जाते हैं।  शक्‍ल से खूबसूरत लोग दिल से भी खूबसूरत हों, ऐसा जरूरी नहीं है। आत्‍मा की सुंदरता पाने के लिए तो व्यक्ति में गुणों का होना जरूरी है। दिखने में बुरा होते हुए भी अगर कोई गुणवान और प्रतिभावान हो तो उसे कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता है, क्योंकि जीवन की लंबी दौड़ में साँझ की तरह ढलते रूप की नहीं, बल्कि सूरज की तरह अँधेरे में उजालों को रोशन करने वाले गुणों की कद्र होती है। चरि‍त्र अच्‍छा हो और सीधा-साधा मन हो तो आप सबको जीत सकते है। हमारे संस्कार हमें अंदर से सुंदर बनाते हैं और इन संस्कारों के बि‍ना तो ऊपरी सुंदरता कि‍सी काम की नहीं है। मन विचार करता है और संकल्प लेता है। अच्छे संकल्प मन को शुद्ध करते हैं और शक्तिशाली बनाते हैं। अच्छे विचार और अच्छे संकल्प मन को लगातार निर्मल करते रहते हैं। मन की सुंदरता के लिए ऐसा करना बहुत ज़रूरी है। जिस तरह  शरीर तभी तक सेहतमंद और सुंदर रह सकता है जब तक कि उसके अंदर का मैल बाहर निकलता रहे,उसी तरह मन की सुन्दरता के लिए भी यह जरूरी है कि मन का मेल बाहर निकलता रहे. हमारे भीतर बहुत से नकारात्मक और फ़ालतू विचार जमा हो जाते हैं और प्रायः वही हमारे मन में घूमते रहते हैं,जिससे मानसिक सौंदर्य प्रभावित होता है.इसलिए हमें निरंतर कुविचारो से मुक्ति के लिए प्रयासरत रहना चाहिए.  जीवन को सुंदर बनाने के लिए सुंदर मन की आवश्यकता है। यदि मन पवित्र, स्वस्थ्य तथा मजबूत है तो जीवन स्वयं ही सुंदर और आनंदमय बन जाता हैं। मन शरीर को नियंत्रित करता है और इस प्रकार हमारे कर्मो को निर्धारित करता है। हमारा व्यवहार ही प्रशंसा व निंदा का कारण बनता है। गुरू, पीर, पैगम्बरों तथा धार्मिक ग्रंथों ने अपना संदेश मन को ही दिया है। मन वाहन में स्टेयरिंग की भांति है। मन ही मानव को इधर-उधर घुमाता है अथवा सुरक्षित रूप से लक्ष्य पर  पहुंचाता है। जब मन को पथ का ज्ञान हो जाता है, तब लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य ही हो जाती है। वाह्य सौंदर्य भ्रामक है, वास्तविक सौंदर्य तो आंतरिक है। यही वजह है कि भगवान श्रीराम ने शबरी को भामिनी कहकर संबोधित किया था। भामिनी का भाव सुंदर स्त्री से है। जबकि यह सभी जानते हैं कि शबरी की बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक सुंदरता की ख्याति है। बाहरी सौंदर्य तो क्षणभंगुर है। आयु के साथ-साथ ढल जाता है। लेकिन मन की सुंदरता हमेशा बनी रहती है। प्राचीन काल में सौंदर्य की परिभाषा संतुलित थी लेकिन आधुनिकता के दौर में इसका पैमाना भी बदल गया है। सभी ने सादा जीवन और उच्च विचार वाली गरिमयी पद्घति को छोड़कर भौतिकतावादी शैली को गले लगा लिया है। आजकल सुंदरता के मायने ही बदल गए हैं। वाह्य सुंदरता की होड़ में आंतरिक सुंदरता अपना स्थान खोती जा रही है.तन को सुन्दर बनाने की दौड़ में मन का सौंदर्य लोग भूलते जा रहे है,जबकि मन की सुन्दरता सिर्फ दूसरो के लिए ही नहीं ,बल्कि खुद के लिए भी आनंददायी होती है . ओमकार मणि त्रिपाठी 

सहानुभूति नहीं समानुभूति रखें

क्यों न हम लें मान, हम हैं चल रहे ऐसी डगर पर, हर पथिक जिस पर अकेला, दुख नहीं बँटते परस्पर, दूसरों की वेदना में वेदना जो है दिखाता, वेदना से मुक्ति का निज हर्ष केवल वह छिपाता; तुम दुखी हो तो सुखी मैं विश्व का अभिशाप भारी! क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूँ? सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन की यह पंक्तियाँ संवेदनाओं के व्यापार की पर्त खोल कर रख देती हैं | सदियों से कहा जाता है की दुःख कहने सुनने से कम हो जाता है पर क्या वास्तव में ? शायद नहीं | वो बड़े ही सौभाग्यशाली लोग होते हैं जिनको दुःख बांटने के लिए कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाता है जो उनके साथ समानुभूति रखता हो |वहाँ शायद कह लेने से दुःख बांटता हो | परन्तु ज्यादातर मामलों में यह बढ़ जाता है | संवेदनाओं का आदान -प्रदान को महज औपचारिक रह गया है | दुख कहने-सुनने से बंटता है। डिप्रेशन के खिलाफ कारगर हथियार की तरह काम करने वाली यह सूक्ति अभी के समय में ज्यादा बारीक व्याख्या मांगती है। आम दायरों में कहने-सुनने के दो छोर दिखाई पड़ते हैं। एक तरफ कुछ लोग खुद को लिसनिंग बोर्ड मान कर चलते हैं। आप उनसे कुछ भी कह लें, किसी लकड़ी के तख्ते की तरह वे सुनते रहेंगे। इस क्रिया से आप हल्के हो सकें तो हो लें, लेकिन यह उम्मीद न करें कि आपके दुख से दुखी होकर वे आपके के लिए कुछ करेंगे। मैनेजमेंट के सीवी में यह एक बड़ी योग्यता मानी जाती है। परन्तु आप की तकलीफ को कोई राहत नहीं देती है | दूसरी तरफ कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो पहला कंधा मिलते ही उस पर टिक कर रोना शुरू कर देते हैं। इसके थोड़ी ही देर बाद आप उन्हें प्रफुल्लित देख सकते हैं, भले ही जिस कंधे का उपयोग उन्होंने रोने के लिए किया था, उस पर रखा सिर पूरा दिन उनकी ही चिंता में घुलता रहेे। अंग्रेजी में ऐसे लोगों को साइकोपैथ कहते हैं | ये लोग आप को भावनाओं का पूरा इस्तेमाल करना जानते हैं | इनका शिकार भावुक व्यक्ति होते हैं | जिनको ये अपना दुखड़ा सुना कर अपने बस में कर लेते हैं और मुक्त हो जाते हैं | और बेचारा शिकार दिन -रात इनको दुखों से मुक्त करने की जुगत में लगा रहता है | ये दोनों छोर दिखने में संवेदना जैसे लगते हैं, लेकिन सम-वेदना जैसा इनमें कुछ नहीं है। संवेदना किसी वेदना में बराबर की साझेदारी है। जहां यह अनुपस्थित हो, वहां कहने-सुनने से दुख क्या बंटेगा? ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन एवं सच का हौसला

रिश्तों की तस्वीर का एक पहलू

इस संसार में हर व्यक्ति और वस्तु गुण-दोष से युक्त है,लेकिन रिश्तों की दुनिया में यह नियम लागू नहीं हो पाता। मन और आत्मा के धरातल पर रिश्ते जब प्रगाढ होते हैं,तो सिर्फ गुण ही गुण दिखाई देते हैं और दोष दिखना बंद हो जाते हैं या दूसरे शब्दों में कहें,तो जब किसी को किसी में दोष दिखाई देना बंद हो जाएं,तो वह रिश्ता प्रगाढता के चरम पर होता है। इसीलिए दुनिया के सबसे बडे और महान मां के रिश्ते में अक्सर यह देखने को मिलता है कि बेटा कितना ही बुरा क्यों न हो,मां को बेटे की बुराइयां नजर नहीं आतीं। जब हम किसी से मिलते हैं,तो उसके तन या मन के आधार पर आकर्षित या विकर्षित होते हैं। तन का आकर्षण दीर्घावधि तक नहीं रह सकता,क्योंकि तन की एक निर्धारित आयु है और यौवन के चरम पर पहुंचने के बाद दिन-ब-दिन तन की चमक फीकी पडने लगती है।लेकिन जब किसी का मन और आत्मा आकर्षण का केन्द्र बनता है,किसी के विचार मन को भाने लगते हैं,तो उसका तन कैसा भी हो,सर्वाधिक सुन्दर लगने लगता है । दोनों तरह के आकर्षणों में मूलभूत अंतर यही है कि तन का आकर्षण बहुधा मन की देहरी तक नहीं पहुंच पाता,जबकि मन और आत्मा का आकर्षण स्वत: तन को आकर्षक बना देता है। जब किसी के विचार या उसकी विचारशैली हृदय में प्रवेश करती है,तो धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति आती है,जब उसमें कोई कमी और दोष दिखना बंद हो जाते हैं।उसकी कमियां भी खूबियां जैसी दिखने लगती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कोई संशय नहीं रह जाता और अटूट विश्‍वास का सृजन होता है और यह तो सर्वविदित है कि विश्‍वास की किसी भी रिश्ते की सबसे मजबूत नींव होती है। रिश्ते उस समय और प्रगाढ हो जाते हैं,जब यह विश्‍वास गर्व का रुप धारण कर लेता है।यह विश्‍वास की चरमावस्था है,जब किसी को अपने साथी के साथ पर गर्व होने लगता है।विश्‍वास की नींव पर टिकी रिश्तों की इमारत को जब गर्व का गुम्बद मिलता है,तो वह रिश्ता एक मंदिर बन जाता है। जब किसी रिश्ते के प्रति कोई गौरवान्वित होता है,तो यह गौरव आत्मविश्‍वास का सम्बल भी बन जाता है। जिस रिश्ते में भाव पक्ष जितना मजबूत होता है,भौतिक पक्ष का उतना ही अभाव होता जाता है। इन रिश्तों में न तो शरीर का कोई महत्व होaता है और न ही क्षणभंगुर शरीर की किसी तस्वीर का,क्योंकि इस तरह के रिश्ते में शरीर का हर रुप और उस शरीर की हर तस्वीर खुद-ब-खुद दुनिया की सबसे खूबसूरत तस्वीर दिखेगी। ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन मीडिया ग्रुप

अपनों की पहचान बुरे समय में नहीं अच्छे समय में भी होती है

आम तौर पर यही माना जाता है कि जो बुरे वक्त में विपदा के समय साथ दे,वही सच्चा मित्र या हितैषी होता है.यह बात कुछ हद तक सही भी है,लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है.कई बार ऐसा भी होता है कि जब आप परेशान या दुखी होते हैं,तो लोग सहानुभूतिवश भी आपके साथ खड़े हो जाते हैं.कई बार तो ऐसा भी होता है कि आपको सख्त रूप से नापसंद करने वाले लोग भी बुरे समय में आपके साथ सहानुभूति जताने लगते हैं,लेकिन जैसे ही आपका बुरा समय दूर हुआ और अच्छा समय आने लगा ,तो वही लोग फिर विरोध का झंडा उठा लेते हैं. आपने अक्सर देखा होगा कि राह चलते किसी के साथ कोई दुर्घटना हो जाये,तो कुछेक लोगो को छोड़कर उस रास्ते से गुजर रहे लगभग सभी लोगो उसकी सहायता के लिए आगे आ जाते हैं और जिससे जितना संभव हो पाता है,वह उतनी मदद बिना कहे करता है.कोई बीमार हो जाये,कोई दुर्घटनाग्रस्त हो जाये,कोई किसी आपदा का शिकार हो जाये या किसी के घर पर मौत का मातम हो,तो उसके साथ सहानुभूति जताने वालो की कमी नहीं होती.लोग कुछ मदद करे या न करें,सहानुभूति तो जता ही देते हैं.सिर्फ परिचित ही नहीं ,अपरिचित लोग भी पुण्य या यश कमाने के लिए दुखी लोगो की मदद के लिए आगे आ जाते हैं अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये.कोई प्रगति की राह पर चलने लगा,किसी ने कोई सफलता हासिल कर ली,किसी पर सुखो की बरसात होने लगी,तो अपने होने का दावा करने वाले ज्यादातर लोग उससे दूर होने लगते हैं.कुछ तो मन ही मन और कुछ सार्वजनिक तौर पर उसकी निंदा या आलोचना शुरू कर देते हैं.ऐसे में सहयोग की बात तो दूर है,ज्यादातर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से असहयोग करना शुरू कर देते हैं.इसका मुख्य कारण ईर्ष्या होती है,जिसका मूल आधार यह भाव होता है कि जो हम नहीं कर सके,वह इसने कैसे कर लिया या जिसके लिए हम रात दिन प्रयास करते रहे,जिसके सपने देखते रहे,वह इसे कैसे मिल गया.इर्ष्य एक मानसिक विकार है। यह विकार इतना तीव्र और खतरनाक होता है कि व्यक्ति अपना विवेक भी खो लेता है। यह एक ऐसा रोग है जो दूसरों के लिये तो हानिकारक है ही, स्वयं के लिये भी खतरनाक है। ईर्ष्याभाव एक विष है जो तन और मन दोनों को नष्ट कर देता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति को पर निन्दा में सुख की अनुमति होने लगती है.हिन्दू जीवन दृष्टि में ईर्ष्या और द्वेष जैसे तत्त्वों को राक्षसी दोषों में रखा गया है। इसीलिए कभी –कभी सफलता मिलने के बाद आप अपने को बिलकुल अकेले खड़ा पाते है आप को लगता है की आपने सफलता के लिए अपनों का प्यार खो कर भारी कीमत चुकाई है और अपनी सफलता की ख़ुशी नहीं मना पाते |यह सच है की चोटी पर आदमी अकेला होता है पर उसे अपनों के प्यार और सहारे की सदैव आवश्यकता होती है और सफलता मिलने के पश्चात अचानक से उन लोगों का साथ छोड़ देना जो आपके सपने देखने के समय उसके भागीदार थे मन को अजीब निराशा से भर देता है | मानव मन की इस गुत्थी को समझने के लिए आप को मन कड़ा कर के अपनी सफलता व् खुशियों को अपनों के सच्चे स्नेह के एक लिटमस टेस्ट की तरह समझना चाहिए अच्छे समय में ही अपनों की सही पहचान होती है.दुःख के समय दुखी होने वाले ,सहानुभूति जताने वाले तो आसानी से मिल जाते हैं ,लेकिन आपके सुख से सुखी होने वाले,आपकी खुशिओ से खुश होने वाले बहुत मुश्किल से मिलते हैं और यही लोग आपके सच्चे हितैषी होते हैं. आपकी खुशियों में खुश होने वाले ही वास्तव में आप से निस्वार्थ प्रेम करते हैं जो दुःख –सुख में एक सामान हैं एक कहावत है कि हर पिता अपने बेटे से हारना चाहता है क्योंकि पिता का अपने पुत्र के प्रति निस्वार्थ प्रेम होता है |जो वास्तव में सच्चा प्रेम रखते हैं वह हर सफलता व् ख़ुशी में ख़ुशी व् संतोष का अनुभव करते हैं ,और लिटमस परीक्षा में पास हो जाते हैं |जो निकट सम्बन्धी इस परिक्षण में पास नहीं हो पाते उनके लिए आप को समझ लेना चाहिए की वो केवल निराशा की अवस्था में सहानभूति दिखा कर हीरो बनना चाहते थे |ऐसे रिश्तों के खोने पर दुःख नहीं करना चाहिए अपितु ईश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि आप को सफलता मिलने पर अपने निकट के रिश्तों के भावों के सही उद्देश्य की पहचान हो गयी तस्वीर का दूसरा रुख यह भी है कि सफलता के साथ बहुत से ऐसे लोग भी जुड़ जाते हैं,जिनका किसी न किसी तरह का स्वार्थ होता है , इस दशा में आपको अपने को अचानक से अकेलापन महसूस कर उन लोगों से भावनात्मक रिश्ते नहीं बना लेने चाहिए अन्यथा बार –बार पछताना पड़ता है|यह सही है कि रिश्ते दिल से बनते हैं पर अगर विवेक से काम लेंगे तो निराशा में नहीं डूबना पड़ेगा | अपने सफलता के पथ पर आगे बढे तो आप देखेंगे देर सवेर सिर्फ और सिर्फ वही साथ रह जाते हैं ,जो आपको सच्चे मन से चाहते थे और आपको सफल और खुश देंखना चाहते थे. जिनके लिए आपकी हँसी से मिलने वाली ख़ुशी बेशक़ीमती होती है,अनमोल सी लगती है. जो आपकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखते और तलाशते हैं,जिनके पास आपकी ख़ुशी को समेटने वाला मन और दामन होता है.जिनका प्यार, अपनापन, परवाह और मासूमियत अपने आप दस्तक देती है. कुछ लम्हों के लिए ठहरती है. बातें करती है. हाल-चाल पूछती है. ख़ामोशी से अपनी बात कहती है. सामने वाले को उसकी आवाज़ में सुनती है और अपनी राह चल देती है. वही आपके सच्चे हितैषी होते हैं.ये लोग दुःख में सहानुभूति जताने के आकांक्षी नहीं होते,क्योंकि ये वो लोग होते हैं,जो आपको दुखी देखना ही नहीं चाहते,बल्कि हर समय आपकी सफलता और आपके चेहरे पर खिली हुई मुस्कराहट की कामना करते हैं.ऐसे रिश्ते अनमोल होते हैं इन्हें हर हालत में बचा कर रखिये ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन एवं सच का हौसला

सकारात्मक चिंतन और व्यक्तित्व विकास एक ही सिक्के के दो पहलू

सकारात्मक चिंतन और व्यक्तित्व विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं | जो एक साथ आतें हैं |दरसल जब लोग पर्सनाल्टी शब्द का प्रयोग करतें है तो वह इसे शारीरिक आकर्षण या सुन्दर व्यक्तित्व के रूप में लेते हैं | पर यह पर्सनालिटी का बहुत संकुचित रूप हुआ | वास्तव में पर्सनॅलिटी सिर्फ़ शारीरिक गुणों से ही नही बल्कि विचारों और व्यवहार से भी मिल कर बनती है | जो हमारे व्यवहार और समाज में हमारे समायोजन को भी निर्धारित करती है | इसका निरंतर विकास किया जा सकता है | सिर्फ सुन्दर या बुद्धिमान होना एक बात है | पर व्यक्तित्व का अर्थ है हम अपने पोस्चर ( आसन ) व् गेस्चर ( इशारों ) द्वारा अपने ज्ञान का सही उपयोग कैसे कर पातें हैं की हमारी बात प्रभावशाली लगने लगे | व्यक्तिव को निखारने का सबसे आसान व् खूबसूरत तरीका ये है की व्यक्ति अपने देखने का तरीका या नजरिया बदल दे | एक सच्चाई है की व्यक्ति अपनी आँखों से नहीं दिमाग से देखता है | और अगर दिमाग में नकारात्मक विचार भरे हैं तो वह कभी अपने आप को या दूसरों को सही नज़रिए से नहीं देख पायेगा | नकारात्मक विचारों को दूर करते ही इन्फ़िरिओरिटी काम्प्लेक्स दूर हो जाता है और व्यक्तित्व का विकास शुरू हो जाता है | अगर आप देखे तो महात्मा गाँधी या मार्टिन लूथर किंग शारीरिक रूप से बहुत खूबसूरत नहीं थे परन्तु सकारात्मक विचारों के कारण उनका व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली बन गया था | अपने बारे में अच्छा सोच कर , खुद को प्यार करके , जिंदगी में ऐसे लक्ष्य बना कर जिन्हें हम पा सकें नकारात्मक विचारों पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है | सकारात्मक विचार तभी आते हैं जब व्यक्ति अपने को पूर्ण रूप से स्वीकार कर ले | अपनी कमियों , अपने चेहरे के निशानों को , शारीरिक गुण-दोषों को सहजता से स्वीकार कर ले | जब व्यक्ति सकारात्मक विचारों से घिरा होता है | तो वो उर्जा के उच्च स्तर पर होता है | जिससे उसके पारस्परिक संबंध अच्छे चलते हैं | सामाजिक स्वीकार्यता किसी व्यक्ति के आत्म विश्वास को बढ़ा कर उसके व्यक्तित्व विकास के नीव की ईंट रखती है | इसके बाद सीखने की इच्छा जागृत होती है| बोलने चलने उठने बैठने के कुछ ढंगों को सीख कर व्यक्तित्व को चमत्कारी बनाया जा सकता है | कुल मिला कर देखा जाए सकारात्मक विचार व् व्यक्तित्व विकास अलग –अलग नहीं एक दूसरे के पूरक हैं | ओमकार मणि त्रिपाठी