सुख -दुःख के पार है आनंद

दुख को कोई नहीं चाहता। हर कोई सुख की खोज में भटकता रहता है। यह मान लिए गया है कि दुख के लिए कोई प्रयास करने जरूरत नहीं होती है। वह तो हमारे आसपास ही रहता है, उसे देखने के लिए गर्दन उठाने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन भारतीय परंपराएं, शास्त्र और दर्शन इससे सहमत नहीं हैं। वे इस बारे में कुछ और ही कहते हैं। ज्यादातर ग्रंथ एक स्वर से कहते हैं कि सुख हमारा स्वभाव है। वह कहीं बाहर नहीं है। अष्टावक्र ने तो यहां तक कहा है कि ‘हमेशा सुख से जियो, सुख से उठो और बैठो, तब दुनिया जिसे दुख कहती है, उसे भी सुख की तरह महसूस करने लगोगे।’ हमारा मन जिस सुख के पीछे पागल है, उसके पीछे धन-संपत्ति का बोध है। ऐश्वर्य उसका लक्ष्य है। हम यह भूल जाना चाहते हैं कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुख को भूलने और नकारने की क्षमता अपने अंदर पैदा करना चाहते हैं। तभी तो ओशो ने कहा था, ‘सुख की खोज एक बुनियादी भूल है। दुख को अस्वीकार कर सुख को तलाशना गलत है, क्योंकि सुख दुख का ही हिस्सा है। जो ऐसी भूल करते हैं, वे उन लोगों में हैं, जो जन्म खोजते हैं और मरना नहीं चाहते, जवानी तो खोजते हैं, मगर बूढ़ा होना नहीं चाहते। ’ भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहा-‘जो मनुष्य इस लगातार बदलते रहने वाले सृष्टि चक्र के हिसाब से व्यवहार नहीं करता, वह इंद्रियों के वश में ही जीवन काटने वाले प्यासे के समान बिना उद्देश्य का जीवन जीता है।’ आपने ध्यान दिया होगा कि जब हम प्रेमभाव में होते हैं, तब मन और इन्द्रियां तृप्त रहती हैं। वैसे तो जो भी हमारे पास है, हम उसी में संतुष्ट रहते हैं लेकिन यह अवस्था कुछ देर के लिए ही होती है। इंसान के पास भले ही कितना भी सुख और वैभव हो जाए, उसको कम ही लगता है और ज्यादा की तलाश बनी रहती है। यही कारण है कि सुख नहीं मिल पाता। यदि जीवन में सुख चाहिए तो संतुष्टि भाव में आना ही होगा, वर्ना बहुत कुछ होने पर भी सुख नहीं मिलेगा। एक बार सोच कर देखिए कि जब कुछ देर प्रेम में आने से ही संतुष्टि मिलती है तो यदि हम हमेशा प्रेमभाव में रहें तो कितना आनंद मिलेगा! हमेशा प्रेमभाव और एकरस की भावना के साथ रहना ही आत्मा में रहना होता है। इस तरह आत्मा के भाव से कोई भी काम करने से उसे खुद करने का भाव नहीं आता और इंसान कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। वह इंसान सिर्फ होने वाले सभी कर्मों का माध्यम बन कर रह जाता है। अगर हमें परमात्मा मिल जाए तो हम उससे निश्चय ही अपना शाश्वत सुख न मांग कर धन, संपदा और समृद्धि ही मांगेंगे या छोटे-छोटे दुखों के निवारण की ही याचना करेंगे। वह इसलिए कि अनेक अभावों, दुर्भावों और प्रभावों में असहनीय कष्ट झेलते हुए भी हमें संपत्ति में ही सलामती के दर्शन होते हैं। सत्ता को ही हम अपना सुरक्षा-कवच मानते हैं। स्वजनों के शिकवे-शिकायतों में ही शांति का अनुभव करते हैं। उपयोगिता के आधार पर बने संबंध ही हमें ऊष्मा और प्रेम के दर्शन कराते हैं। संसार के मायावी जाल में ही हमें स्वर्ग-सुख की अनुभूति होती है। उस आखिरी कैदी की सम्यक सोच की तरह इस दुखमय संसार से मुक्ति की अनुपम सौगात मांगने का सुविचार और साहस हमारे अंदर आएगा ही नहीं। क्योंकि हम इस भ्रम में हैं कि जैसे सूर्य की रश्मियों से रात का अंधकार गायब हो जाता है, वैसे ही हम अपने कृत्रिम अनुसंधानों से अपने अंदर छाई कलुषता को दूर कर लेंगे। बस यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। भौतिक सुख और प्राप्तियां तो सदा ही अपना रंग-रूप बदलती हैं। एक इच्छा पूरी हुई तो दस जरूरतें और पैदा हो गईं। सुख के संभावित मार्गों पर जितना चले, उतना दुख ही हाथ लगा। इसका एकमात्र कारण यह है कि हम पथ से भटक कर उस अलौकिक प्रकाश को भुला बैठे हैं जिसके संबल से अर्जुन ने विजय का वरण किया था। महाभारत के समय अर्जुन के पास भी मांगने के कई विकल्प थे। लेकिन, उन्होंने सब विकल्पों को छोड़कर केवल श्री कृष्ण को मांग लिया और अकेले उनको मांग कर सब कुछ प्राप्त कर लिया। प्राय: हम सभी को सुख की तलाश होती है। हम सभी सुख के लेन-देन के लिए कोई भी कीमत चुकाने को सदैव तत्पर रहते हैं। स्वयं को सुखी बनाने की चेष्टा के साथ ही अपने परिजनों को भी सुखी बनाने की चेष्टा चलती रहती है। मां-बाप संतान को और संतान माता-पिता को, पति पत्नी को, पत्‍‌नी पति को सुखी करने की चेष्टा करती है, किंतु सुखी कोई नहीं होता। इसके विपरीत हाथ में दुख का खुरदरा दामन ही आता है और सुख के क्षणों को पकड़कर रोके रखने की हमारी चेष्टा धूल-धूसरित होकर रह जाती है, तो हमें आश्चर्य होता है। हम वास्तव में सुख-दुख में से सुख का चयन करते वक्त यह भूल जाते हैं कि ये संपूर्ण सृष्टि परिवर्तन और विनाश के मूलाधार पर टिकी है। इसलिए सुख-दुख सभी परिवर्तन शील क्षण भंगुर है। वास्तव में सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सिक्के का एक वांछित पहलू हाथ में लेते ही दूसरा पहलू स्वत: हमारे हाथ में आ जाता है। सुख-दुख रूपी गतिमान पहियों में से हम सुख के पहिए को बड़ा करने की चेष्टा करते हैं तो दुख का पहिया स्वत: बड़ा हो जाता है तो हम दंग रह जाते हैं। हमें उस समय इस बात का स्मरण भी नहीं रहता कि असमान पहियों पर गाड़ी नहीं चलती। पहियों को समान होना पड़ता है। यही करण है कि बड़े आदमी का सुख भी बड़ा होता है तो दुख भी बड़ा होता है, जबकि छोटे आदमी के सुख दुख दोनों छोटे होते हैं। सुख-दुख कालचक्र की वाह्य परिवर्तनशील परिधि-परिस्थिति होते हैं। यही कारण है कि सुख व दुख दोनों हमारे जीवन में उत्तेजना लाते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि जब सुख-दुख दोनों उत्तेजनाएं हैं, तो फिर सुख दुख के पार क्या है? सुख दुख के पार ही आनंद है। … Read more

सतरंगिनी – ओमकार मणि त्रिपाठी की सात कवितायें

1… आखिर  कब तक….?  डूबे रहोगे  सिर्फ बौद्धिक व्यभिचार में वक्त पुकार रहा हैसमस्याओं के उपचारकी बाट जोह रहे हैं लोगअब मिथ्याचार नहीं,बल्कि समाधान के आधार तलाशो २… कई बार ऐसा होता है   रख दिए जाते हैं  संवेदना के स्रोतों के ऊपर यथार्थ के पत्थर ढंक दिया जाता है संवेदना कोमर जाती हैसंवेदना की स्रोतस्विनीडर जाती हैक़ाली हकीकतों को देखकर ३…… मीत अगर कहलाना है,तो बातों से मत बहलाना, मैं भी खुद को खो दूंगा,तुम भी खुद को खो देना। वीणा का तार हो जाउंगा,करुणा का भाव तुम बन जाना। काजल हूं रात का मैं,भिनसार की झलक तुम,शबनम हूं भोर की मैं,मधुबन की भूमिका तुम,प्रणयी का गीत हूं मैं,बिसरा अतीत हूं मैं,मैं छेडूंगा राग सारे,बस तुम गीत गुनगुनाना। 4…. जब मुखर होता है , मौन  शब्द चुक जाते है | तब अहसासों की प्रतीती में , पुनः  जन्म लेती है वाणी 5……… भूलूं तुझे अगर तो लोग बेवफा कहें…..रखूं अगर जो याद तो परछाइयां डसें।खोलूं अगर जो होंठ तो रुसवाई हो तेरी…..चुप रहूं तो चीखती सच्चाइयां डसें।घर में रहूं या बाजार में रहूं…….भीड में भी मुझे तन्हाइयां डसें।तेरी बेवफाई से गिला कोई नहीं,मगर……..मुझको मेरे मिजाज की अच्छाइयां डसें। ६ …….. भावों ने भिगोया जिन्हें नहीं, बरसात की कीमत क्या जानें। बस,बातों के जो सौदागर, जज्बात की कीमत क्या जानें।दिल-दिमाग जिनके बंजर,तन ही सब कुछ,मन क्या जानें।जग को ठगकर भी जो भूखे,उपवास की कीमत क्या जानें।खुदगर्जी जिनकी फितरत है,अहसास की कीमत क्या जानें।खून भरोसे का जो करते,विश्‍वास की कीमत क्या जानें। ७……… ……क्योंकि दुखडे सुनाने की आदत न थी हम अंदर ही अंदर सुलगते रहे फिर भी हमें देखकर लोग जलते रहे ……क्योंकि दुखडे सुनाने की आदत न थी।वैसे दुश्मन किसी को बनाया नहींलेकिन,दोस्तों ने कमी वो भी खलने न दी….क्योंकि झूठी तारीफें करने की आदत न थी।सीढी बने हम और चढाया जिन्हेंचिढाकर हमें वो भी चलते बने….क्योंकि बदला चुकाने की आदत न थी।खुद बिखरते रहे,खुद सिमटते रहेसब सिसकियों पर ठहाके लगाते रहे…..क्योंकि हमें गिडगिडाने की आदत न थी।बस दिया ही दिया,कुछ लिया न कभीपर,लेने वाले भी आंखें दिखाते रहे…क्योंकि हमें दिल दुखाने की आदत न थी। 8…… मीत जबसे तुम मिले हो,ख्वाब फिर सजने लगे हैं,निर्जीव मन में नूतन सृजन के भाव फिर जगने लगे हैं.द्वंद्व मन का मेरा सब काल-कवलित हो गया है,हसरतों की रोशनी में सारा अंधेरा खो गया है.जंगल-जंगल वीरानों में मन का साथी ढूंढ रहा था,साथ तुम्हारा हुआ है जबसे,फूल खिलने फिर लगे हैं. ९ ………

क्‍या सिखाता है कमल का फूल?

कमल के फूल को योग और अध्‍यात्‍म में एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है। योगिक शब्दावली में बोध व अवबोधन के अलग- अलग पहलुओं को हमेशा से कमल के तरह-तरह के फूलों से तुलना की गई है। शरीर के सात मूल चक्रों के लिए कमल के सात तरह के फूलों को प्रतीक चिह्न माना गया है। कमल के फूल को एक प्रतीक के रूप में इसलिए चुना गया है क्योंकि जहां कहीं कीचड़ और दलदल बहुत गाढ़ा होता है वहां कमल का फूल बहुत अच्छी तरह से खिल कर बड़ा होता है। जहां कहीं पानी गंदा हो और मल-कीचड़ से भरा हो, कमल वहीं पर सबसे बढ़िया उगता है। जीवन ऐसा ही है। आप दुनिया में कहीं भी जायें, और तो और अपने मन के अंदर भी, हर तरह की गंदगी और कूड़ा-करकट भरा मिलेगा। अगर कोई कहे कि उसके अंदर मैल नहीं है तो फिर या तो उसने अपने अंदर नहीं झांका या फिर वह सच नहीं बोल रहा है, क्योंकि मन तो आपके वश में है ही नहीं। इसने वह सब-कुछ बटोर लिया है जो उसके रास्ते आया है। आपके पास यह विकल्प तो है कि आप इसका इस्तेमाल कैसे करें लेकिन यह विकल्प नहीं है कि आपका मन क्या बटोरे और क्या छोड़े। आपके मन में जमा हो रही चीजों को ले कर आपके पास कोई विकल्प नहीं है। आप बस यही तय कर सकते हैं कि आप किस तरह से अपने मन की जमापूंजी का इस्तेमाल करें। दुनिया में हर तरह की गंदगी और कूड़ा-करकट है और यह सारा मैल, यह सारा कूड़ा आपके मन में समाता ही रहता है। मल और कूड़ा-करकट देखने से कुछ लोगों को एलर्जी हो जाती है। उनको गंदगी और कूड़ा-करकट गवारा नहीं होता इसलिए वे खुद को इन सब चीजों से दूर ही रखते हैं। वे सिर्फ उन्हीं दो-तीन लोगों के साथ मिलते-जुलते, उठते-बैठते हैं, जिनको वे एकदम सही मानते हैं और बस यही लोग उनकी जिंदगी में रह जाते हैं। आज दुनिया में बहुत लोग ऐसा कर रहे हैं क्योंकि उनको सारी गंदी, सारी निरर्थक चीजों से एलर्जी है। वे एक कोठरी में बंद जिंदगी-सी जी रहे हैं। कुछ दूसरे तरह के लोग ऐसे हैं जो सोचते हैं कि “दुनिया मल-दलदल और कूड़े-करकट से भरी-पटी है तो चलो मैं भी इस कीचड़ का ही हिस्सा बन जाता हूं” और फिर वे भी उसी दलदल में मिल जाते हैं। लेकिन एक और भी संभावना है और वह यह कि आप इस कूड़े-करकट और मल-दलदल को खाद की तरह इस्तेमाल करें और खुद को एक कमल के फूल की तरह खिलायें। कमल के फूल ने इस मल, गंदगी और कूड़े-करकट को किस तरह एक सुंदर और सुगंधित फूल में रूपांतरित कर दिया है! आपको एक कमल के फूल की तरह बनना होगा और गंदे हालात से अनछुए बाहर निकल कर कमल के फूल की तरह खिलना होगा। गंदे-से-गंदे हालात में होने के बावजूद आपको अपनी खूबसूरती और खुशबू बरकरार रखने के काबिल बनना होगा। अगर किसी के पास ऐसी कला है तो वह अपने जीवन-दुख के दलदल में बिना डुबे, उससे बिल्‍कुल अछूता उपर-उपर निकल जाएगा और जो व्यक्ति इस काबिलियत को पहचान कर उसको नहीं तराशता उसको यह जिंदगी जाने कितने तरीकों से तोड़-मरोड़ कर खत्म कर देती है। हर इंसान के अंदर कमल के फूल की तरह खिलने और जीने की काबिलियत होती है। ओमकार मणि त्रिपाठी 

बिना गुनाह की सजा भुगत रहे हैं शिक्षा मित्र

उत्तर प्रदेश में सहायक शिक्षक के रूप में समायोजित किये गए शिक्षामित्रो को एक साथ कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.जहाँ एक ओर प्रदेश में 1.35 लाख सहायक अध्यापक बने शिक्षामित्रो का समायोजन हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया है,वहीँ प्रदेश सरकार ने अब उनके वेतन पर भी रोक लगा दी है.वेतन पर रोक लगने से शिक्षामित्रो के त्यौहार फीके हो गए हैं.जहाँ अन्य लोग दीपपर्व की तैयारियां कर रहे हैं,वंही शिक्षामित्र इस बात को लेकर असमंजस में हैं कि उनकी नौकरी रहेगी या जाएगी.एनसीईटी से कुछ राहत मिलने की खबरे जरूर आयी हैं,लेकिन जब तक कोई ठोस निर्णय न हो जाये,तब तक शिक्षामित्र दुविधा में ही रहेंगे. बात सिर्फ समायोजन रद्द होने या वेतन रोके जाने तक ही सीमित नहीं है,शिक्षामित्रो को बिना किसी गुनाह के जगहंसाई का भी सामना करना पड़ रहा है.कुछ स्कूलों में प्रधानाध्यापक शिक्षामित्रो पर कटाक्ष कर रहे हैं और उपस्थिति रजिस्टर में हस्ताक्षर कराने को लेकर आगे-पीछे हो रहे हैं.इसके अलावा शिक्षामित्रो को घर-परिवार और समाज की भी फब्तियां सुनने पड़ रही हैं. कई ऐसे भी शिक्षामित्र हैं,जिन्होंने सहायक अध्यापक बनने की उम्मीद में नौकरी और रोजगार के कई दूसरे अच्छे-अच्छे मौके छोड़ दिए और काफी मशक्कत के बाद सहायक अध्यापक बनने के बाद एक बार फिर मायूसी का सामना करना पड़ा. वेतन रोकने का आदेश आने के बाद से हजारों शिक्षामित्र आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं.यही वजह है कि प्रदेश और केंद्र सरकार के ढुलमूल रवैये को लेकर शिक्षामित्रो में काफी रोष व्याप्त है.ज्यादातर शिक्षामित्र हर दिन अपने पक्ष में किसी अनुकूल खबर का इंतज़ार करते हैं और कोई राहत की खबर न मिलने से फिर मायूस होकर अगले दिन का इंतज़ार करते हैं.मुश्किल यह है कि सरकार ने आधिकारिक रूप से अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि वे अपने-अपने विद्यालय जाएँ या न जाएँ और जाएँ तो किस हैसियत से जाएँ.उल्लेखनीय है कि तकनीकी तौर पर समायोजित शिक्षामित्र इस समय न तो सहायक अध्यापक,क्योंकि सहायक अध्यापक बनते ही उनका शिक्षामित्र पद समाप्त हो गया था. कुल मिलकर शिक्षामित्र बिना किसी गलती के सजा भुगत रहे हैं.उन्हें सहायक अध्यापक के रूप में समायोजित करने का निर्णय प्रदेश सरकार ने लिया था और यदि प्रदेश सरकार ने अपने अधिकारों का उल्लघन किया है,तो इसमें शिक्षामित्रो का क्या दोष है.प्रकाशपर्व दीपावली के पहले यदि 1.35 लाख शिक्षामित्रो को इस तरह की दुविधा का सामना करना पड़ रहा है,तो निश्चित रूप से उसके लिए सरकारें जिम्मेदार हैं.हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद प्रदेश सरकार को इस मामले को लेकर जिस तरह की तत्परता दिखानी चाहिए थी,वह उसने नहीं दिखाई.उधर एनसीईटी भी आधिकारिक रूप से अपना पक्ष घोषित करने में विलम्ब कर रहा है.यदि उसे किसी भी तरह की राहत देनी है,तो जल्द ही उसकी सार्वजानिक रूप से घोषणा की जानी चाहिए.कुल मिलकर दोनों सरकारों और सम्बंधित विभागों को शिक्षामित्रो की वेदना को गंभीरता से लेना चाहिए और जल्द से जल्द अपना रूख साफ करना चाहिए,जिससे शिक्षामित्रो के मन से संशय दूर हो सकें. ओमकार मणि त्रिपाठी 

आओ मिलकर दिए जलाए

भारतीय संस्कृति में अक्टूबर नवम्बर माह का विशेष महत्व् है,क्योंकि यह महीना प्रकाशपर्व दीपावली लेकर आता है.दीपावली अँधेरे पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है भौतिक रूप से दीपावली हर साल सिर्फ एक साँझ की रौशनी लेकर आती है और साल भर के लिए चली जाती है,किन्तु प्रतीकात्मक रूप से उसका सन्देश चिरकालिक है.प्रतिवर्ष दीपपर्व हमें यही सन्देश देता है कि अँधेरा चाहे कितना ही सघन क्यों न हो,चाहे कितना ही व्यापक क्यों न हो और चाहे कितना ही भयावह क्यों न हो,लेकिन उसे पराजित होना ही पड़ता है.एक छोटा सा दीप अँधेरे को दूर करके प्रकाश का साम्राज्य स्थापित कर देता है. अंधेरे का खुद का कोई अस्तित्व नहीं होता,खुद का कोई बल नहीं होता,खुद की कोई सत्ता नहीं होती.अँधेरा प्रकाश के अभाव का नाम है और सिर्फ उसी समय तक अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है,जब तक प्रकाश की मौजूदगी न हो.अँधेरा दिखाई भले ही बहुत बड़ा देता हो,लेकिन इतना निर्बल होता है कि एक दीप जलते ही तत्काल भाग खड़ा होता है.दीपक प्रकाश का प्रतीक है और सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है। दीपक से हम ऊंचा उठने की प्रेरणा हासिल करते हैं। शास्त्रों में लिखा गया है ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर चलने से ही जीवन में यथार्थ तत्वों की प्राप्ति सम्भव है। अंधकार को अज्ञानता, शत्रु भय, रोग और शोक का प्रतीक माना गया है। देवताओं को दीप समर्पित करते समय भी ‘त्रैलोक्य तिमिरापहम्’ कहा जाता है, अर्थात दीप के समर्पण का उद्देश्य तीनों लोकों में अंधेरे का नाश करना ही है। आज बाहर के अँधेरे से ज्यादा भीतर का अँधेरा मनुष्य को दुखी बना रहा है.विज्ञानं ने बाहर की दुनिया में तो इतनी रौशनी फैला दी है,इतना जगमग कर दिया है कि बाहर का अँधेरा अब उतना चिंता का विषय नहीं रहा,लेकिन उसी विज्ञानं की रौशनी की चकाचौंध में भीतर की दुनिया हीन से हीनतर बनती जा रही है,जिसका समाधान तलाश पाना विज्ञान के बस की बात नहीं है.भीतर के अँधेरे से मानव जीवन की लड़ाई बड़ी लम्बी है.जब भीतर का अँधेरा छंटता है.तो बाहर की लौ जगमगा उठती है ,नहीं तो बाहर का घोर प्रकाश भी भीतर के अँधेरे को दूर नहीं कर पाता.  हममे से कितने हैं जो हैप्पी दीपावली के शोर के बीच सघन निराशा को अपने अन्दर दबाये रहते हैं | उनके लिए दीपावली मात्र एक परंपरा है जिसे निभाना है | यंत्रवत दीपक ले आये , यंत्रवत झालरे सजा दीं  व् यंत्रवत हैप्पी दीपावली का उद्घोष कर दिया |सच्चाई ये है की जब अँधेरा भीतर की दुनिया में हो सब कुछ यंत्रवत हो जाता है |भाव्हें मशीन |  तभी हमारी संस्कृति में आत्मदीपो भव की परिकल्पना की गयी है | स्वयं दीपक बन जाना | स्वयं भी प्रकाशित होना और दूसरों को भी प्रकाशित करना | जैसा की कबीर दास जी कहते हैं की …  जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरी हैं मैं नाहीं  सब अंधियारा मिट गया जब दीपक देखा माहिं || पर ये दीपक दिखे कैसे ? क्या ये इतना सहज है | जीवन के तमाम जरूरी गैर जरूरी कर्तव्य व् रिश्तों के बंधन हमें रोकते हैं | अत : अन्दर तक ज्ञान का प्रकाश नहीं पहुँच पाता | परन्तु आत्म दीपक बनने में एक शाब्दिक बाधा है |  शाब्दिक इसलिए क्योंकि हम शब्द को पकड़ते हैं अर्थ को नहीं | जब हम आत्म दीप बनने की राह पर होते हैं तो हम दिया बन जाते हैं | मिटटी का दिया | जो दूसरों को प्रकाश देता है पर उसके खुद के नीचे अँधेरा होता है | ऐसा क्यों है ? दीपक बन गए यानी मात्र प्रवचन दिए | खुद में सुधार नहीं किया | अपने अन्दर अँधेरा ही रहा | मिटटी का दीप अर्थात शरीर बोध | आत्मदीप बनने का अर्थ है ज्योति बन जाना | ज्योति के नीचे अँधेरा नहीं होता | सिर्फ प्रकाश होता है | ज्योति के नीचे अँधेरा हो ही नहीं सकता | ज्योति सिर्फ प्रकाश  स्वरुप  है | दीपक उल्टा भी हो तो भी ज्योति ऊपर की ओर भागती है | क्योंकि उसने दीपक अर्थात मिटटी से स्वयं को अलग कर लिया है |शरीर से ऊपर आत्मतत्व को पहचान लिया है | पर कैसे ? वस्तुतः भीतर की दुनिया का अँधेरा सिर्फ सकारात्मक सोच और प्रेरक विचारों से ही दूर किया जा सकता है.भीतर का अँधेरा दूर करने के लिए आत्मतत्व को पहचानना जरूरी है और ” अटूट बंधन ” का सिर्फ यही मकसद है कि सकारात्मक चिंतन का इतना प्रचार-प्रसार हो कि पूरी धरा से निराशा के अँधेरे का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाये.हमारी आपसे यही अपील है कि एक दिया हमने जलाया है और आप भी हमारे साथ आइये,एक दिया आप भी जलाइए और दीप से दीप जलाने का यह सिलसिला तब तक चलता रहे,तब तक मानव मन से अँधेरे का समूल नाश नहीं हो जाता | आप सभी को दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं ओमकार मणि त्रिपाठी  यह लेख लखनऊ से प्रकाशित दैनिक  समाचार पत्र ” सच का हौसला ” व् राष्ट्रीय  हिंदी मासिक पत्रिका ” अटूट बंधन ” के संपादक स्व . श्री ओमकार मणि त्रिपाठी जी का है | स्व . त्रिपाठी जी ने अपने जीवन काल में तमाम पुस्तकों का अध्यन किया व्अ ज्ञान को ही सर्व श्रेष्ठ माना | ज्ञान का प्रचार प्रसार उनके जीवन का उद्देश्य था | अपनी अनुपम सोंच व् जुझारू व्यक्तित्व के लिए सदा जाने जाते रहेंगें | हम आपको इस ब्लॉग के माध्यम से उनके लेखों व् विचारों से समय – समय  पर आपको परिचित करवाते रहेंगे | उम्मीद है ” आओ मिलकर दिए जलायें ” लेख आपको पसंद आया होगा | पसंद आने पर इसे शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |  वैचारिक लेखों व् उत्तम साहित्य के लिए आप हमारा ई मेल सब्स्क्रिप्शन लें व् समस्त सामग्री को सीधे अपने ई मेल पर प्राप्त करें | यह भी पढ़ें ……… दीपावली पर 11 नयें शुभकामना संदेश धनतेरस दीपोत्सव का प्रथम दिन मनाएं इकोफ्रेंडली दीपावली लक्ष्मी की विजय

सच की राहों में देखे हैं कांटे बहुत,

सच की राहों में देखे हैं कांटे बहुत,पर,कदम अपने कभी डगमगाए नहीं।बदचलन है जमाने की चलती हवा,इसलिए दीप हमने जलाए नहीं ।खुद को खुदा मानते जो रहे,उनके आदाब हमने बजाए नहीं।धधकते रहे,दंश सब सह गये,किंतु,पलकों पे आंसू सजाए नहीं। ओमकार मणि त्रिपाठी  प्रधान संपादक – अटूट बंधन एवं सच का हौसला  www.sachkahausla.com

जिन्दगी कुछ यूं तन्हा होने लगी है

जिन्दगी कुछ यूं तन्हा होने लगी है अंधेरों से भी दोस्ती होने लगी है  चमकते उजालों से लगता है डर हर शमां वेबफा सी लगने लगी है  सच्चाइयों से जबसे पहचान होने लगीइक सजा इस तरह से जिंदगी हो गईबहारों के मौसम देखे थे जहांकितनी बंजर आज वो जमीन हो गई ओमकार मणि त्रिपाठी  प्रधान संपादक – अटूट बंधन  एवं सच का हौसला  हमारा वेब पोर्टल

विचार मनुष्य की संपत्ति हैं

ओमकार मणि त्रिपाठी प्रधान संपादक – अटूट बंधन एवं सच का हौसला जिस हृदय में विवेक का, विचार का दीपक जलता है वह हृदय मंदिर तुल्य है। विचार शून्य व्यक्ति, उचित अनुचित, हित-अहित का निर्णय नहीं कर सकता। विचारांध को स्वयं बांह्माड भी सुखी नहीं कर सकते। मानव जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें विचार करने की क्षमता है, विचार मनुष्य की संपत्ति है। विचार का अर्थ केवल सोचना भर नहीं है, सोचने के आगे की प्रक्रिया है। विचार से सत्य-असत्य, हित-अहित का विश्लेषण करने की प्रवृत्ति बढती है। विचार जब मन में बार-बार उठता है और मन व संस्कारों को प्रभावित करता है तो वह भावना का रूप धारण करता है। विचार पूर्व रूप है, भावना उत्तर-रूप है। जीवन निर्माण में विचार का महत्व चिंतन और भावना के रूप में है। मनुष्य वैसा ही बन जाता है जैसे उसके विचार होते हैं। विचार ही हमारे आचार को प्रभावित करते हैं। विचार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सद्विचार, सुविचार या चिंतन मनन के रूप में। चिंतन-मनन ही भावना का रूप धारणा करते हैं। भावना संस्कार बनती है और हमारे जीवन को प्रभावित करती है। भावना का अर्थ है मन की प्रवृत्ति। हमारे जीवन में, हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभ्युत्थान में भावना एक प्रमुख शक्ति है। भावना पर ही हमारा उत्थान और पतन है-भावना पर ही विकास और ह्रास है। शुद्ध पवित्र और निर्मल भावना जीवन के विकास का उज्ज्वल मार्ग प्रशस्त करती है। भावना एक प्रकार का संस्कार मूलक चिंतन है। वस्तुत: मन में उठने वाले किसी भी ऐसे विचार को जो कुछ क्षण स्थिर रहता है और जिसका प्रभाव हमारी चिंतन धारा व आचरण पर पडता है उसे हम भावना कहते हैं। हमारा वेब पोर्टल

इंतजार

इन्तजार कोई भी करे किसी का भी करे पीड़ादायी और कष्टदायी ही होता है लेकिन बदनसीब होते हैं वो लोग जिनकी जिन्दगी में किसी के इन्तजारका अधिकार नहीं होताक्योंकि इन्तजार  रिश्तो की प्रगाढ़ता का पैमाना भी हैकोई गैरो का नहींसिर्फ अपनों का ही इन्तजार करता हैऔर जैसे – जैसे प्रगाढ़ होता जाता है कोई रिश्ताउसी अनुपात में बढ़ता जाता है इंतजारसूनी हो जाती हैं आँखेजब उन आँखों को नहीं रहताक्रिया पर प्रतिक्रिया याकिसी के आगमनका इन्तजारऔर ये सूनी आंखे ,भावशून्य आँखेह्रदय को संवेदनहीन बनाने लगती हैऔर शायद इसीलियेइन्तजारविहीन आदमीजिन्दा लाश बन जाता हैक्योंकि लाशो को किसी का भीइन्तजार नहीं रहता ओमकार मणि त्रिपाठी 

सूर्य राशि के अनुसार रत्न

वैसे तो ज्योतिष में ज्यादातर लोग कुंडली और चंद्र राशि के अनुसार रत्न पहनते हैं। लेकिन कुछ लोगों को अपनी राशि नही मालूम होती और उनके पास कुंडली भी नही होती है इसलिए ज्योतिष में सूर्य राशि यानी जन्म तारिख के अनुसार रत्न पहने जा सकते हैं। 14 अप्रेल से 14 मई के बीच जन्म लेने वालों की राशि मेष होती है इसके अनुसार अगर मूंगा पहने तो किस्मत हमेशा साथ रहती है। सूर्य राशि के अनुसार 15 मई 14 से जून के बीच जन्म लेने वाले लोगों की राशि वृष होती है इसलिए हीरा पहनने से इस राशि वालों के लाभ होगा। 15 जून से 15 जुलाई के बीच जन्म लेने वालों की सूर्य राशि मिथुन होती है इसलिए पन्ना रत्न इस राशि वालों के लिए लकी रत्न साबित होगा। सूर्य राशि के अनुसार 16 जुलाई से 16 अगस्त के मध्य जन्म लेने वालों का लकी स्टोन मोती होता है। 17 अगस्त से 16 सितंबर के बीच जन्म लेने वाले लोगों के लिए लकी स्टोन माणिक्य होता है क्योंकि इस समय सूर्य अपनी ही राशि में रहता है। सूर्य राशि के अनुसार 17 सितंबर से 16 अक्टूबर के बीच जन्म लेने वालों को किस्मत चमकाने के लिए पन्ना रत्न पहनना चाहिए। 17 अक्टूबर से 16 नवंबर तक सूर्य तुला राशि में होता है इसलिए इस समय में जन्म लेने वालों को लकी रत्न के रूप में हीरा पहनना चाहिए। 17 नवंबर से 15 दिसंबर के बीच जन्म लेने वालों का भाग्यशाली रत्न मूंगा होता है। सूर्य राशि के अनुसार 16 दिसंबर से 13 जनवरी के बीच जन्म लेने वालों का लकी रत्न पुखराज होता है। 14 जनवरी से 12 फरवरी तक सूर्य मकर राशि में रहता है। इसलिए इस समय जन्म लेने वालों को लकी स्टोन के रूप में नीलम पहनना चाहिए। 13 फरवरी से 12 मार्च तक कुंभ राशि में सूर्य का भ्रमण होता है इसलिए इस समय में जन्म लेेने वालों को शनि का भी भाग्यशाली रत्न नीलम होता है। 13 मार्च से 13 अप्रेल के बीच जन्म लेने वाले अगर पुखराज पहनें तो ऐसे लोगों की किस्मत अचानक बदल जाती है। ओमकार मणि त्रिपाठी