करवा चौथ पर चार काव्य अर्घ्य

पति -पत्नी के प्रेम का प्रतीक  करवाचौथ का व्रत सुहागिनें निर्जल रहा करती हैं और चंद्रमा पर जल का अर्घ्य चढ़ा कर ही जल ग्रहण करती हैं | समय के साथ करवाचौथ मानाने की प्रक्रिया में कुछ बदलाव भी आये पर मूल में प्रेम ही रहा | आज उसी प्रेम को चार काव्य अर्घ्य के रूप में समर्पित कर रहे हैं |  करवा चौथ पर चार काव्य अर्घ्य  १— जोड़ियाँ  कहते हैं  बनती हैं जोड़ियाँ ईश्वर के यहाँ  आती तभी  धरती पर  पति-पत्नी के रूप में..! ईश्वर के  वरदान सदृश  बंधे हैं जब इस रिश्ते में  तो आओ आज  कुछ अनुबंध कर लें…!! जैसे हैं  बस वैसे ही  अपना कर  एक-दूजे को  साथ चलते रहने का  मन से प्रबंध कर लें….!!! अपने “ मैं” को  हम में मिला कर  पूरक बनने का  दृढ़ संबंध कर लें…..!!!! पति-पत्नी के साथ ही  आओ  कुछ रंग बचपन के  कुछ दोस्ती के  कुछ जाने से  कुछ अनजाने से  आँचल में भर कर इस प्यारे से रिश्ते को  और प्यारा कर लें…..!!!!! ——————————— २–  करवाचौथ पर  —————— मीत! सुना तुमने..? बन रहा  इस बार  विशेष संयोग  सत्ताइस वर्षों बाद  इस करवाचौथ पर….! मिलेंगी जब  अमृत सिद्धि  और स्वार्थ सिद्धि  देंगी विशेष फल हर सुहागिन को….!! लगता  हर दिन ही  मुझे करवाचौथ सा  जब से  मिले तुम  मुझे मीत मेरे! ये मेरा  सजना-सँवरना है सब कुछ तुम्हीं से  राग-रंग  जीवन के  हैं सब तुम्हीं में….!!! पूजा कर  जब चाँद देखेंगे  छत पर  हम दोनों मिलकर  माँगेंगे आशीष  हम चंद्रमा से  सदा यूँ ही  पूजा कर  निहारे उसे  हर करवाचौथ पर…..!!! ——————————— ३–  सुनो चाँद! ————— सुनो चाँद! आज कुछ  कहना चाहती हूँ तुमसे  ये पर्व  मेरे लिए  उस निष्ठा  और प्रेम का है  जिसे  जाना-समझा  अपने माता-पिता को  देख कर मैंने  कि प्रेम और संबंध में  कभी दिखावा नहीं होता  होता है तो बस  अनकहा प्रेम  और विश्वास  जो नहीं माँगता  कभी कोई प्रमाण  चाहत का……! मैं  तुम्हारे सम्मुख  अपने चाँद के साथ  कहती हूँ तुमसे.., मुझे  प्यारा है  अपने मीत का  अनकहे प्रेम-विश्वास का शाश्वत उपहार  अपने हर  करवाचौथ पर….!! तुम  सुन रहे हो न  चाँद……..!!! ———————— ४— अटका है..! ————— मेरी  प्रियतमा! कहना चाहता हूँ  आज तुम्हें  अपने हृदय की बात…, सुनो! आज भी  मुझे याद है  पहला करवाचौथ  जब हम  यात्रा के मध्य थे, स्टेशन पर  रेल से उतर कर  चाँद को  अर्ध्य दिया था तुमने…! वो  सादगी भरा  मोहक रूप  पहले करवाचौथ का  आज भी  मेरी आँखों में  वैसा ही बसा है…!! मेरा हृदय  सच कहूँ तो  आज भी वहीं  करवाचौथ के  चाँद के साथ  तुम्हारी  उसी भोली सी  सादगी पर अटका  स्टेशन पर  अब भी वहीं खड़ा है….!!! सुन  रही हो न  तुम मेरी प्रियतमा….!!!! ——————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई आपको कविता “करवा चौथ पर चार काव्य अर्घ्य “कैसी लगीं ? कृपया अपने विचार अवश्य रखे | यह भी पढ़ें … करवाचौथ के बहाने एक विमर्श करवाचौथ और बायना करवाचौथ -एक चिंतन प्यार का चाँद filed under- Indian festival, karvachauth, love, karva chauth and moon

करवाचौथ -पति -पत्नी के बीच प्रेम की अभिव्यक्ति का विरोध क्यों ?

करवाचौथ आने वाला है , उसके आने की आहट के साथ ही व्हाट्स एप पर चुटकुलों की भरमार हो गयी है | अधिकतर चुटकुले उसे व्यक्ति , त्यौहार या वस्तु पर बनते हैं जो लोकप्रिय होता है | करवाचौथ आज बहुत लोकप्रिय है इसमें कोई शक नहीं है | यूँ तो भारतीय महिलाएं जितनी भी व्रत रखतीं हैं वो सारे पति और बच्चों के लिए ही होते हैं , जो मन्नत वाले व्रत होते हैं वो भी पति और बच्चों के लिए ही होते हैं | फिर भी खास तौर से सुहाग के लिए रखे जाने वाले व्रतों में तीज व् करवाचौथ का व्रत है | दोनों ही व्रत कठिन माने जाते रहे हैं क्योकि ये निर्जल रखे जाते हैं | दोनों ही व्रतों में पूजा करते समय महिलाएं नए कपडे , जेवर आदि के साथ पूरी तरह श्रृंगार करती हैं … सुहाग के व्रतों में सिंदूर , बिंदी , टीका , मेहँदी , महावर आदि का विशेष महत्व होता है , मान्यता है कि विवाह के बाद स्त्री को करने को मिलता है इसलिए सुहाग के व्रतों में इसका महत्व है | दोनों ही व्रतों में महिलायों की पूरी शाम रसोई में पूजा के लिए बनाये जाने वाले पकवान बनाने में बीतती रही है | जहाँ तक मुझे याद है … करवाचौथ में तो नए कपड़े पहनने का भी विधान नहीं रहा है , हां कपडे साफ़ हों इतना ध्यान रखा जाता था | करवाचौथ का आधुनिक करवाचौथ के रूप में अवतार फिल्मों के कारण हुआ | जब सलमान खान और ऐश्वर्या राय ने बड़े ही रोमांटिक तरीके से ” चाँद छुपा बादल में ” के साथ इसे मनाया तो युवा पीढ़ी की इस पर नज़र गयी | उसने इसमें रोमांस के तत्व ढूंढ लिए और देखते ही देखते करवाचौथ बेहद लोकप्रिय हो गया | पहले की महिलाओं के लिए जहाँ दिन भर प्यास संभालना मुश्किल था आज पति -पत्नी दोनों इसे उत्साह से कर रहे हैं | कारण साफ है ये प्रेम की अभिव्यक्ति का एक सुनहरा अवसर बन गया | लोकप्रिय होते ही बुजुर्गों ( यहाँ उम्र से कोई लेना देना नहीं है ) की त्योरियां चढ़ गयी | पति -पत्नी के बीच प्यार ये कैसे संभव है ? और विरोध शुरू हो गया | करवाचौथी औरतों को निशाने पर लिया जाने लगा , उनका व्रत एक प्रेम का नाटक नज़र आने लगा | तरह तरह के चुटकुले बनने लगे |आज जो महिलाएं ४० वर्ष से ऊपर की हैं और वर्षों से इस व्रत को कर रहीं हैं उनका आहत होना स्वाभाविक है , वो इसके विषय में तर्क देती हैं | इन विरोधों और पक्ष के तर्कों से परे युवा पीढ़ी इसे पूरे जोश -खरोश के साथ मना रही है | दरअसल युवा पीढ़ी हमारे भारतीय सामाज के उस पूर्वाग्रहों से दूर है जहाँ दाम्पत्य व् प्रेम दोनो को अलग -अलग माना जाता रहा है | ये सच है कि माता -पिता ही अपने बच्चों की शादी जोर -शोर से करते हैं फिर उन्हें ही बहु के साथ अपने बेटे के ज्यादा देर रहने पर आपत्ति होने लगती है | बहुत ही जल्दी ‘श्रवण पूत’ को ‘जोरू के गुलाम’ की उपाधि मिल जाती है | मेरी बड़ी बुआ किस्सा सुनाया करती थी कि विवाह के दो -चार महीने बाद उन्होंने फूफाजी के मांगने पर अपने हाथ से पानी दे दिया था तो घर की औरतें बातें -बनाने लगीं , ” देखो , कैसे है अपने पति को अपने हाथ से पानी दे दिया | ” उस समाज में ये स्वीकार नहीं था कि पत्नी अपने पति को सबके सामने अपने हाथ से पानी दे , अलबत्ता आधी रात को पति के कमरे में जाने और उजेला होने से पहले लौटने की स्वतंत्रता उसे थी | ऐसा ही एक किस्सा श्रीमती मिश्रा सुनाती हैं | वो बताती हैं कि जब वो छोटी थीं तो उनकी एक रिश्तेदार ( रिश्ते के दादी -बाबा) पति -पत्नी आये जिनकी उम्र ७० वर्ष से ऊपर थी | पहले जब भी वो आते तो दादी उसके कमरे में व् बाबा बैठक में सोते थे | उस बार उसकी वार्षिक परीक्षा थीं , उसे देर रात तक पढना था तो दादी का बिस्तर भी बैठक में लगा दिया | दादी जैसे ही बैठक में सोने गयीं उलटे पाँव वापस आ कर बोली , ” अरे बिटिया ये का करा , उनके संग थोड़ी न सोइए |” उसने दादी की शंका का समाधान करते हुए कहा , ” दादी कमरा वही है पर बेड अलग हैं , यहाँ लाइट जलेगी , मुझे पढना है |” दादी किसी नयी नवेली दुल्हन की तरह लजाते हुए बोली , ना रे ना बिटिया , तुम्हरे बाबा के साथ ना सोइए , हमका तो लाज आवत है , तुम लाइट जलाय के पढो , हम का का है , मुँह को तनिक पल्ला डारि के सो जैहेये |” श्रीमती मिश्रा आज भी जब ये किस्सा सुनाती हैं तो उनका हँसते बुरा हाल हो जाता है , वह साथ में बताना नहीं भूलती कि दादी बाबा की ९ संताने हैं फिर भी वोप्रेम को सहजता से स्वीकार नहीं करते और ऐसे नाटकीय दिखावे करते हैं | कारण स्पष्ट है उस समय पति -पत्नी का रिश्ता कर्तव्य का रिश्ता माना जाता था , उनके बीच प्रेम भी होता है इसे सहजता से स्वीकार नहीं किया जाता था | औरते घर के काम करें , व्रत उपवास करें … पर प्रेम चाहे वो पति से ही क्यों न हो उसकी अभिव्यक्ति वर्जित थी | यही वो दौर था जब साहब बीबी और गुलाम टाइप की फिल्में बनती थीं … जहाँ घरवाली के होते भी बाहर वाली का आकर्षण बना रहता था | पत्नी और प्रेमिका में स्पष्ट विभाजन था | आज पत्नी और प्रेमिका की विभाजक रेखा ध्वस्त हो गयी है | इसका कारण जीवन शैली में बदलाव भी है | आज तेजी से भागती -दौड़ती जिन्दगी में पति पत्नी के पास एक दूसरे को देने का पर्याप्त वक्त नहीं होता , वही इन्टरनेट ने उनके पास एक दूसरे को धोखा देने का साधन भी बस एक क्लिक दूर कर दिया है | ऐसे में युवा पीढ़ी प्रेम के इज़हार … Read more

करवाचौथ के बहाने एक विमर्श

 विभिन्न रिश्तों को विभिन्न व्रत त्योहारों के रूपमें सहेजने वाले हामारे देश में पति पत्नी के रिश्ते को सहेजने वाला त्यौहार है करवाचौथ | करवाचौथ एक व्रत  है आस्था का , प्रेम का विश्वास का | सदियों से स्त्रियाँ विशेषकर भारतीय स्त्रियाँ अपने प्रेम को विभिन्न रूपों में व्यक्त करती हैं | चाहे वो भोजन के माध्यम से हो , या ऊन से बुने स्वेटर के माध्यम से हो या देखभाल के माध्यम से | व्रत उपवास भी उसी परंपरा का हिस्सा रहे हैं | वैसे पति-पत्नी का रिश्ता आपसी समझ पर चलता है | जहाँ रिश्ते ढोए जा रहे वहां इन बातों का कोई मतलब नहीं है | लेकिन जहाँ वास्तव में आस्था है वहां तर्क कैसा | कल करवाचौथ का व्रत था | सोशल मीडिया पर जितनी पोस्ट व्रत के पक्ष में आई उतनी ही विरोध में | कहीं-कहीं परंपरा और बाजारवाद की जंग छिड़ी दिखी | करवाचौथ पर लगे आरोपों के कारण मुझे इस पर एक विमर्श की आवश्यकता महसूस हुई | रखे गए तर्कों के आधारपर ही बात की जाए तो … वो जो करवाचौथ का पूर्णतया विरोध करते हैं ·       वैसे तो  करवाचौथ का व्रत  करने वाली /व्रत न करने वाली स्त्रियाँ अपने विचार खुलकर रख रही हैं |  मेरे विचार से हर स्त्री को स्वतंत्रता है की वो व्रत करे या न करे परन्तु व्रत करने वाली स्त्रियों को पति की गुलाम कह देना मुझे उचित नहीं लगता | पढ़ी लिखी आधुनिक युवा स्त्रियाँ भी स्वेक्षा से व्रत कर रही हैं | यहाँ परंपरा को निभाने का कोई दवाब नहीं है | स्त्री विमर्श की खूबी यह होनी चाहिए की हर स्त्री अपनी स्वतंत्रता से निर्णय  ले | क्योंकि न सारे पुरुष एक जैसे हो सकते हैं न सारी  स्त्रियाँ |     सच है की करवाचौथ पर अब बाजारवाद हावी है | परन्तु ऐसा कौन सा त्यौहार है जिस पर बाजारवाद हावी नहीं हैं | पर काफी समय से इसका निशाना करवाचौथ ही बन रहा है | दीपावली हो , होली या फिर ईद और क्रिसमस बाजारवाद ने हर जगह पाँव पसार दिए हैं | ·              भारत में  हर प्रांत  या शहर में करवाचौथ एक तरीके से नहीं मनाया जाता है | कई जगहों पर यह घरों में मनाया जाता है | वहां सजने की इतनी परंपरा नहीं है | कुछ स्थानों पर यह सामूहिक रूप से मनाया  जाता है | वहां श्रृंगार की परंपरा ज्यादा है | यह परंपरा शुरू से थी | सामूहिक रूप से मानाने से एक तरह से “एक समारोह “ का भाव आता है | वहाँ  अच्छे कपडे पहनना व् तैयार हो कर जाना स्वाभाविक हैं | वैसे अतिशय मेकअप की बात छोड़ दें तो सुरुचिपूर्ण ढंग से तैयार हो कर कोई पूजा करना हमारी परंपरा का हिस्सा है | जिसमें किसी भी धातु के जेवर पहनना भी शामिल है | पूजा करते समय धातु पहनने की वजह वैज्ञानिक है | इसी कारण  पुरुष भी पहले जेवर पहनते थे | सुहाग के व्रत में १६ श्रृंगार परंपरा का ही हिस्सा हैं | आधुनिकता का नहीं |           पढ़िए –   करवाचौथ और बायना     ·    कई जगह यह कहा गया की इसे दूसरे प्रांत  के लोग भी अपना रहे हैं | यह फैशन बन गया है | आज जब की पूरा विश्व “ग्लोबल विलेज “ कहलाने लगा है | ये बात कुछ सही नहीं लगती | देश के कई हिस्सों में रहते हुए मैंने खुद कई ऐसे त्यौहार मनाना शुरू किया | जो हमारे यहाँ परंपरा से नहीं होते थे | पर उनको मानाने में मुझे ख़ुशी मिलती थी |ख़ुशी किसी नियम को नहीं मानती |  जब आप किसी दूसरे प्रांत में रह रहे हों और पूरा प्रांत किसी त्यौहार के रंग में रंगा  हो तो उस सामूहिक ख़ुशी का हिस्सा बनने  में एक अलग ही आनंद है | ·         करवाचौथ को फिल्मों ने अपनाया है पर असली करवाचौथ फ़िल्मी नहीं है | सरगी खाने का रिवाज़ भी हर जगह नहीं है | आम भारतीय घरों में कोई भी त्यौहार हो महिलाओं को रसोई से छुट्टी नहीं मिलती | मात्र ८ , ९ % उच्च वर्ग या उच्च माध्यम वर्ग की महिलाओं को हम समस्त भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधि नहीं मान सकते | फिल्मों की बात पर हिलेरी क्लिंटन का एक वक्तव्य याद आता है | फिल्में किसी भी देश की सही छवि नहीं व्यक्त करती |फिल्मों की माने तो अमेरिकी कपडे ही नहीं पहनते व् भारतीय खाना ही नहीं खा पाते |    वो जो करवाचौथ पर बस लकीर के फ़कीर बने रहने चाहते हैं सच्चा स्त्री विमर्श सिर्फ विरोध के नाम पर विरोध करना नहीं है | जरूरी ये नहीं की हर परंपरा को तोड़ दिया जाए | जरूरी ये है की कुछ सुधार  हो ताकि परंपरा भी बची रहे व् नया संतुलित समाज भी विकसित हो | करवाचौथ उस दिशा में उठाया गया पहला कदम है | जहाँ कई पति भी पत्नियों के लिए व्रत रख रहे हैं | जो व्रत नहीं रख पाते वो दिन भर पत्नियों का ध्यान रख कर उन्हें स्पेशल फील कराते हैं |  पढ़िए – काकी का करवाचौथ  कुछ लोग इसे रोमांटिक त्यौहार की संज्ञा भी दे रहे हैं | मैंने पहले भी इस पर एक लेख “रात इंतज़ार चलनी और चाँद “ लिखा था | ये सच है है की रात , चाँद और चलनी एक अनोखा समां बाँध देते हैं | परन्तु पहले इसमें रोमांटिक तत्व नहीं थे | ये विशुद्ध पूजा के रूप में ही था | आज अगर नयी पीढ़ी ने इसमें रोमांस ढूंढ निकाला है तो इसमें हर्ज ही क्या है ? आखिरकार पति – पत्नी का रिश्ते में रोमांस की अहम् भूमिका है | करवाचौथ वाले दिन जब इसे बड़ों की स्वीकृति व् आशीर्वाद भी प्राप्त हो तो प्रेम की इस अभिव्यक्ति से परहेज कैसा | इस अभिव्यक्ति से दोनों उस प्रेम का अहसास करते हैं जो वर्ष भर की जिम्मेदारियों में कहीं खो सा जाता है | या यूँ कहें की एक रिश्ता फिर से खिल जाता है | पत्नी को गिफ्ट देना इसी नयी सोंच का हिस्सा है | जहाँ … Read more

करवाचौथ और बायना

   जीवन की आपाधापी में, भागते-दौड़ते हुए जीवन को जीने के संघर्ष में अपने ये त्योहार जब आते हैं तो मन को कितनी शांति और संतोष प्रदान करते हैं ये उन्हें मनाने के बाद ही पूर्णरूपेण पता चलता है। त्योहारों को मनाने की तैयारियों में घरों की साफ़-सफ़ाई से लेकर शुरू हुआ ये सिलसिला भैया दूज मनाने के बाद ही थमता है।  करवाचौथ और परंपरा  शरद पूर्णिमा की रात को बरसे अमृत से पूर्ण खीर का आस्वदन करने के बाद जिस त्योहार की गूँज घर की देहरी पर सुनाई देती है वह दाम्पत्य जीवन को सुदृढ़ता-गहनता प्रदान करने वाला करवाचौथ का त्योहार है, जिसके लिए बाज़ार सज गये हैं, मेहँदी लगाने वाले-वाली  जगह-जगह महिलाओं के झुंड से घिरे मेहँदी लगाने में लगे हुए हैं,तो कुछ घर-घर जाकर लगा रहें हैं। हर सुहागिन साड़ी से लेकर मैचिंग चूड़ियों और गहने पहनने की योजना बना चुकी होंगी। बाज़ारों की रौनक़ और घर की चहल-पहल देखते ही बनती है। कहीं अपनी ओर बहू की सरगी की तैयारी, तो कहीं बेटी के पहले करवाचौथ पर उसे भेजे जाने वाले “ सिंधारे “ की तैयारी, कहीं करवाचौथ की पूर्व संध्या पर होने वाले आयोजन…ऐसे में मन आनंदित क्यों नहीं होगा भला! करवाचौथ क्वीन भी तो सभी बनना चाहेंगी। वैसे सभी अपने-अपने पतियों की क्वीन तो हैं ही न!             भले ही आज हमारे सभी त्योहार टी वी और फ़िल्मों के बढ़ते प्रभाव से ग्लैमरस और तड़क-भड़क से भरपूर हो गये हैं, पर मुझे तो अपनी नानी-दादी और माँ के समय के भारतीय परम्परा के वो भोले-भाले, सादगी से मनाये जाने वाले रूप ही भाते हैं। यह भो हो सकता है कि आधुनिकता की दौड़ में में अपनी पुरानी सोच ही लिए चल रही हूँ।              सुबह-सुबह नहाना-धोना,शाम को चार बजे अपनी मोहल्ले की सखियों के साथ सज-धज कर करवाचौथ की कथा सुनना, फिर रात के व्यंजनों को बनाने की तैयारी, रात को पूजा करके सास या जिठानी के लिए बायना निकालना, चंद्रमा के उदित होने पर दीप जला कर छलनी से पहले चंद्रमा को और उसके बाद पति को निहारना, अर्ध्य देकर हाथों पानी पीकर व्रत तोड़ना, बायना देकर अपने बड़ों से आशीर्वाद लेना और फिर घर में बड़ों, पति तथा बच्चों की पसंद के अपने हाथों से बनाये खाने को सबके साथ मिल कर खाना….कितना आनंद आता है, शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है। करवाचौथ और बायना              अब बात आती है बायने की। अपने आसपास देखे-सुने बायने देने वालियों की कई बातें इस समय मेरी स्मृतियों में उमड़-घुमड़ रही हैं…..   *“ हर साल का झंझट है यह बायने का भी। कुछ भी, कैसा भी दे दो…मेरी सास को पसंद ही नहीं आता। मैं तो पैसे और मिठाई देकर छुट्टी करती हूँ।”  * “ क्या यार! सारे साल तो सास-ससुर की सेवा में रहते ही हैं,अब इस दिन भी  इस बायने के नियम की कोई तक है?” *    जॉब के कारण बाहर रहते हैं, इसलिए जब आना होता है तब पैसे दे दिए और काम ख़त्म।”   *    एक घर की दो बहुओं ने तो बायने को एक प्रतिस्पर्धा का ही रूप दे डाला था। डोनो में होड़ रहती कौन दूसरी से ज़्यादा देगा! आज आलम यह है की दोनों में बातचीत तक नहीं होती। बायना है प्यार की सौगात              बायना देना हमारी भारतीय परंपरा में अपने बड़ों को आदर-सम्मान देने की एक चली आ रही रीत है।माना हम अपने बड़ों के लिए रोज़ करते ही हैं,पर अपनी परंपरा में आस्था-विश्वास रखते हुए हम उन्हें कुछ विशेष अनुभव कराएँ और यह अहसास दिलायें कि वे हमारे लिए कितने विशेष हैं तो इसमें क्या बिगड़ता है और क्या जाता है? अपने जिस पति के लिए हम व्रत करते हैं,उसकी लम्बी आयु  की कामना करते हैं…वह पति सास-ससुर की ही तो देंन  है और वे उसके लिए लिए ही तो हमें ब्याह कर, घर की लक्ष्मी बना कर घर में लाते हैं, तो हमारा भी तो  कर्तव्य बनता है कि हम उनके लिए किसी पर्व पर विशेष रूप से कुछ करें। करवाचौथ अपनी सास,उनकी और अपनी सहेलियों के साथ एक साथ मिल कर मनायें,न कि अलग-अलग मना  कर पीढ़ियों के अंतराल को और हवा दें। करवाचौथ पर बायना देते समय ध्यान  रखने योग्य बातें  *आपकी सास युवा है तो आप बायने में जो भी देंगी वह सब कुछ खाएँगी, पर यदि आपकी सास कुछ बीमार रहती हैं, दवाइयाँ लेती है, पथ्य-परहेज़ का पालन करती हैं तो उनके नियम को मानते हुए स्वास्थ्य के अनुसार चीज़ें बायने में रखें ताकि उन्हें खाने में उन्हें कोई परेशानी न हो।        *   मेरी एक परिचित आंटी बता रही थी किमेरी बहू बायने में अपनी पसंद की तली-भुनी चीज़ें ही इतनी रखती है जो मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होती हैं, इसलिए लेकर मैं थाली में कुछ उपहार रख कर उसे ही दे देती हूँ कि लो ये सब तुम्हीं खाओ। अगर बहू मेरे खा सकने लायक चीज़ें रखे तो मुझे वापस देना ही न पड़े।पर वो न कुछ पूछती है न सुनती है…..इसलिए जैसा चल रहा है वो चलता रहेगा।         *    इसी तरह उस घर की दोनो बहुएँ यदि मेल मिला कर, विचार-विमर्श करके बायना दें तो तीनों ख़ुश रह सकते हैं। तब कटुता तो पास फटक भी नहीं सकती।     *      हम जो दें मन से दें, पसंद को देखते हुए दें। कपड़ों में भी, खाने में भी उपयोग में आने वाली चीज़ें दें ….जिसे पाकर हमारे बड़े प्रसन्नता का अनुभव करें। जब हम अपने लिए अपनी पसंद का सब कुछ लाते-खाते हैं तो बड़ों की पसंद का भी पूरा  ध्यान रखें। मिल कर मनाएं त्यौहार                पर्व-त्योहार पर कहीं बाहर जाने की योजना बनती है  और हम अपने सास-ससुर के साथ रहते हैं तो उन्हें शामिल किए बिना या उन्हें छोड़ कर कोई बाहर का कार्यक्रम न बने तो बेहतर होता है। त्योहार की रौनक़ साथ मिल कर मनाने में होती है, अलग होकर मनाने में केवल आत्मतुष्टि प्राप्त हो सकती है।संतोष और प्रसन्नता तो … Read more

प्यार का चाँद

करवा चौथ की सभी व्रती महिलाओ के प्यार की एक खूबसूरत कविता—- (प्यार का चाँद) हमने पाया है तुममे अपने प्यार का चाँद, बेशक कल तुम तकोगी छत पे मुझे, मेरे हाथो से पियोगी व्रत का पानी, लेकिन मै नही तकुंगा तेरे सिवा मेरी सजनी, क्योंकि दुनिया तकेगी उसे, मै तो तकुंगा तुम्हें क्योंकि तुम्हि हो———– हमारी धड़कन और हमारे प्यार का चाँद। मेंहदी,महावर,चुड़ियाँ,सिन्दूर,बिंदिया, वही पहले करवे सी शर्म, तुम बहुत अच्छि हो मेरी सजनी, क्या करुंगा तक के मै, बहुत फिका है तेरे आगे आज—– इस पुरे संसार का चाँद। मै तुम्हें पाऊ हर जनम, कभी न छिने मेरी आँखो से मेरी सजनी, क्योंकि पल-छिन नही है तुमसे मेरी सजनी, तुम्हारे साजन के प्यार का चाँद—— हमने पाया है तुममे अपने प्यार का चाँद। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जौनपुर (उत्तर–प्रदेश)। PHOTO CREDIT –AAZ TAK

करवाचौथ : एक चिंतन

   हमारा देश एक उत्सवधर्मी देश है। अपने संस्कारों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों का संवाहक देश ! पूरे वर्ष कोई न कोई उत्सव, इसलिए पूरे वर्ष खुशियों का जो वातावरण बना रहता है उसमें डूबते-उतराते हुए जीवन के भारी दुःख उत्सवों के द्वारा मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियों में बहुत हल्के लगने लगते हैं। यही है हमारे उत्सवों की सार्थकता।    प्रेम ! एक शाश्वत सत्य है। जहाँ प्रेम है वहां भावनाएँ हैं और जहाँ भावनाएँ हैं वहां उनकी अभिव्यक्ति भी होगी ही। मीरा, राधा ने कृष्ण से प्रेम किया। दोनों के प्रेम की अभिव्यक्ति भक्ति और समर्पण के रूप में हुई। प्रेम की पराकाष्ठा का भव्य रूप ! हनुमान ने राम से प्रेम किया तो सेवक के रूप में और सेवा भक्ति के रूप में अपने प्रेम को अभिव्यक्ति दी। लक्ष्मण को अपने भाई राम से इतना प्रेम था की उसकी अभिव्यक्ति के लिए वे आज्ञाकारी भाई बन, अपनी पत्नी को छोड़ कर राम के साथ वन गए  और भरत, उन्होंने अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए त्याग का माध्यम चुना। तो इसका अर्थ ये हुआ की जहाँ प्रेम है, भावनाएँ हैं उनकी अभिव्यक्ति भी होनी उतनी ही आवश्यक है जितना जीवन में प्रेम का होना आवश्यक है।       जीवन में प्रेम है तो संबंध भी होंगे और हमारा देश संबंधों के मामले में बहुत धनी है। इतने संबंध, उनमें भरी ऊष्मा, ऊर्जा और प्रेम ! अपने पूर्वजों के प्रति आदर और श्रद्धा प्रकट करने के लिए श्राद्ध पर्व तो माँ का अपने बच्चों के प्रति प्रेम जीवित पुत्रिका,अहोई अष्टमी ,संकट चौथ व्रत, तो भाई -बहन के लिए रक्षाबंधन और भैयादूज और पति-पत्नी के प्रेम के लिए तीज और करवाचौथ। यहाँ तक कि गाय रुपी धन के  लिए भी गोवर्धन पूजा का विधान है।      इन संबंधों की, उत्सवों की सार-संभाल करने, उन्हें अपनी भावनाओं  से गूँथ कर पोषित करने में स्त्री की सबसे बड़ी भूमिका होती है। घर की लक्ष्मी कहलाती है इसी से घर के सभी व्यक्तियों के संबंधों को सहेजते हुए अपने प्रेम, त्याग, कर्तव्य से उन्हें ताउम्र संभाल कर रखती है। पति-पत्नी का सम्बन्ध, उनका प्रेम जितना खूबसूरत है उसका प्रतीक करवाचौथ का उत्सव भी उतना ही खूबसूरत है। सभी संबंध प्रतिदिन के है और उनमें प्रेम व भावनाओं की अभिव्यक्ति भी होती रहती है, पर उत्सवों के रूप में अपने प्रेम और भावनाओं की अभिव्यक्ति से इन्हें नवजीवन, ऊष्मा और ऊर्जा मिलती है और प्रेम जीवंत बना रहता है।उसी प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए पत्नी करवाचौथ का व्रत करती है।  एक-दो दिन पहले से ही उसकी तैयारियों में जुट जाती है, मेहंदी लगाती है, निराहार रह कर व्रत करती है। शाम को पूर्ण श्रृंगार करके अपनी सखी-सहेलियों के साथ व्रत की कथा सुनती है। पति और घर में अन्य सभी की पसंद का खाना बना कर चाँद के उदय होने की प्रतीक्षा करती है। रात को चलनी से चंद्र-दर्शन कर,अर्ध्य देकर, अटल सुहाग का वर मांगते हुए अपना व्रत खोलती है। बड़ों के पाँव छूकर, आशीर्वाद लेकर अपनी सास को, उनके न होने पर जिठानी की बायना देती है जिसमें श्रृंगार के सामान के साथ ड्राई फ्रूट्स, मिठाई और साड़ी और शगुन के रूप में कुछ रुपए भी होते हैं। इस दिन सुई से कुछ भी न सिलने का प्रावधान होता है। इसके पीछे शायद यह भावना हो कि सुई से सिलना मानो सुई चुभा कर पीड़ा देने के समान है, इसीलिए यह नियम बनाया गया होगा।       कहीं पर व्रत के दिन सुबह सरगी, विशेषकर पंजाबियों में, खाने का चलन है तो कहीं पूरी तरह निराहार रहकर व्रत करने का चलन है। कई स्त्रियां पूजा करते समय हर वर्ष अपने विवाह की साड़ी ही पहनती हैं तो कई हर बार नई साड़ी लेती हैं और अपने-अपने मन के विश्वास पर चलती हैं।       आज इस अटल सुहाग के पर्व का स्वरुप बदला-बदला लगने लगा है। फिल्मों और टी.वी.सीरियल्स ने सभी उत्सवों को ग्लैमराइज कर इतनी चकाचौंध और दिखावे से भर दिया है की उसमें वास्तविक प्रेम और भावनाओं की अभिव्यक्ति दबने सी लगी है। पहले प्रेम की अभिव्यक्ति मर्यादित और संस्कारित थी, अब इतनी मुखर है की कभी-कभी अशोभनीय हो जाती है। उपहार और वह भी भारी-भरकम हो, पहले से ही घोषित हो जाता है। व्रत से पहले खरीददारी होगी ही। बाज़ार ने अपने प्रभाव से संबंधों को भी बहुत हद तक प्रभावित करना शुरू कर दिया है। निराहार व्रत की कल्पना नई पीढ़ी को असंभव और पुरानी लगती है।खाना बाहर खाना है,उसके बाद फ़िल्म देखनी है आदि-आदि। और पर्व के बाद मुझे उपहार में यह मिला, तुम्हें क्या? और जिसे नहीं मिला वह सोच में रहेगी कि मैं तो यूँ ही रह गयी बिना उपहार के….       मैं यह नहीं कहती कि यह सब गलत है।सोचने की बात मेरी दृष्टि से सिर्फ इतनी है कि ग्लैमर और दिखावे की चकाचौंध में प्रेम और भावनाएँ कहीं पीछे छूटतीचली जा रहीं हैं और जो छूट रहा है उसकी ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है? क्या यह बात समझनी इतनी कठिन है कि प्रेम और प्रेम की अभिव्यक्ति सार्वजानिक रूप से प्रदर्शन की चीज नहीं है और जिसका प्रदर्शन होता है वह वास्तविकता से कोसों दूर  केवल दिखावा है। शायद दिखावे का ये अतिरेक किसी दिन समझ में आए तो वही इन उत्सवों की सार्थकता होगी। ~~~~~~~~~~~~~~~~~डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई फोटो क्रेडिट – wikimedia से साभार यह भी पढ़ें … करवाचौथ पर विशेष

करवाचौथ का उपवास

करवाचौथ … क्या ये उपवास लोटा सकता है ? उस विधवा के मांग का सिंदूर जो कुछ दिन पहले सीमा के पास रह रहे उस नवेली दुल्हन की सितारो वाली चुंदङी उङा कर ले गये क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस सुहागन का मांग टीका जो बिना किसी कारण शिकार  बना उन दंगो का जिससे उसका दूर दूर तक कुछ लेना देना भी न था क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस औरत का विश्वास जो किसी परनारी पर आंख रख बेठे अपने पति की वफादारी को पढ भी नही पाती क्या ये उपवास लोटा सकता है उस बहन का सुहाग जो गल्ती से पेट की खातिर सीमा पार कर चल पङे पर सालो साल बंदी रहे बिना किसी अपराध घुट घुट…तिल तिल कर मरे क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस बहन का सिंदूर जो सीमा पर लङने हेतु भेज गई अपने सिदूंर को ताकि महफूज रहै लाखो बहनो का सिंदूर करते तो हम सभी है इस उपवास पर विश्वास पर … क्या ये उपवास लोटा सकता है? वो अधूरी आस जिसके लिये न भूख लगे ना प्यास बस जिवित रहता है एक अहसास …कि ना छुटे विश्वास एकता सारदा सूरत (गुजरात)

अटल रहे सुहाग : करवा चौथ : कविता -इंजी .आशा शर्मा

गठबंधन की पावन गाँठों से यूँ खुद को बाँध लिया मन वचनों से और कर्म से तन को मन साध लिया याचक बन कर मात-पिता से सुता दान में माँगी थी तेरे उसी भरोसे पर मैंने वो देहरी लाँघी थी तू सूरज मैं धरा दीवानी अनुगामिनी संग चली हँसी तुम्हारी भोर सुहानी तू रूठे तो साँझ ढली चूड़ी, बिंदिया, कुमकुम, मेहँदी तुमसे सब सिंगार सजे सांस की सरगम, धुन धड़कन की तुम झांझरिया संग बजे माँग सजाई अरमानों से आँचल में ममता भर दी आधा अंग बना कर अपना कमी सभी पूरी कर दी तेरे साथ ही पूरा आँखों का हर सपन सलोना हो प्रेम जोत से रोशन मेरे मन का कोना-कोना हो चातक को केवल स्वाति की बूँदों का अभ्यास है मेरे मन को भी बस तेरी स्नेह-सुधा की प्यास है मेरी किन्हीं दुआओं से गर उम्र सुहाग पर चढ़ती है पूजा और अर्चना से सांसों की डोरी बढ़ती है एक नहीं सौ बार तुम्हारी खातिर मैं उपवास करूँ माँनूँ सारी परम्परा हर रीति पर विश्वास करूँ करवा चौथ का चाँद गवाही देगा अपने प्यार की इस निश्छल से नाते पर ही नींव टिकी संसार की इंजी. आशा शर्मा

अटल रहे सुहाग : (करवाचौथ स्पेशल ) – रोचिका शर्मा की कवितायें

“एक झलक चंदा की “ ए, बदली तुम न बनो चिलमन हो जाने दो दीदार दिख जाने दो एक झलक उस स्वर्णिम सजीले चाँद की दे दूं मैं अरग और माँग लूँ  संग मेरे प्रिय का यूँ तो हर दिन माँग लेती हूँ साथ उनका जन्म-जन्मान्तर तक किंतु आज की रात है अनूठी की है मैं ने तपस्या लगा मेहंदी ,पहन चूड़ा , कर सौलह सृंगार , हो जाने दो पूरी इसे मत डालो तुम अड़चन हो जाने दो मेरी शाम सिंदूरी , महक जाने दो मेरे मन की कस्तूरी एसा नहीं कि तुम पसंद नहीं मुझे तुम्हारा है अपना विशेष स्थान तुम भी हो उतनी ही प्रिय किंतु बस आज मत लो इम्तहान मेरे धैर्य का सुन लो मेरी अरज क्यूँ कि बिन चंदा के दर्शन के तपस्या है अधूरी न लूँगी अन्न का दाना मुख में जब तक न देखूं उसकी छवि तुम छोड़ दो हठ और ले लो इनाम क्यूँ कि किया है व्रत मेरे सजना ने भी  करवा चौथ का…..    2 …………….               ए  चाँद ए  चाँद , तुम कर लो अपनी गति कुछ मद्धम ठहरो क्षण भर को आसमान में न छुप जाना बादलों की ओट में क्यूँ कि , मेरा चाँद कर रहा है सौलह शृंगार उसके छम-छम पायल का संगीत देता है सुनाई मुझे उसके पद्चापो संग और हाँ तुम कर लो बंद द्वार अपने नयनों की खिड़की के क्यूँ कि उसके स्वर्णिम मुख की आभा  देख कहीं तुम भर न जाओ ईर्ष्या से या लग न जाए तुम्हारी नज़र उसे ले लो राई-नून तुम अपने हाथों में ताकि उँवार सको उसके उपर , बस चन्द लम्हों  की प्रतीक्षा उठ जाने दो घूँघट उसका वह भी रखे है व्रत देनी है उसे भी अरग और करनी है तुम्हारी पूजा एक तुम ही तो हो उसकी आस जब मैं न हूँ आस-पास लेती है तुम्हें निहार और भर लेती है कुछ पल अपनी अंजूरी में आगमन के एहसास के और तकने लगती है राहें मेरी………                    रोचिका शर्मा,चेन्नई डाइरेक्टर,सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी

अटल रहे सुहाग : सास -बहू और चलनी : लघुकथा : संजय वर्मा

                        करवाचौथ के दिन पत्नी सज धज के पति का इंतजार कर रही  शाम को घर आएंगे तो  छत पर जाकर चलनी में चाँद /पति  का चेहरा देखूँगी । पत्नी ने गेहूँ की कोठी मे से धीरे से चलनी निकाल कर छत पर रख दी थी । चूँकि गांव में पर्दा प्रथा एवं सास-ससुर  से ज्यादातर काम सलाह लेकर ही करना होता है संयुक्त परिवार में सब  का ध्यान भी  होता है । और आँखों में शर्म का  पर्दा भी   होता है { पति को कोई कार्य के लिए बुलाना हो तो पायल ,चूड़ियों की खनक के इशारों  ,या खांस  कर ,या बच्चों के जरिये ही खबर देना होती । पति घर आये तो साहित्यकार के हिसाब से वो पत्नी से मिले तो कविता के रूप में करवा चौथ पे पत्नी को कविता की लाइन सुनाने लगे -“आकाश की आँखों में /रातों का सूरमा /सितारों की गलियों में /गुजरते रहे मेहमां/ मचलते हुए चाँद को/कैसे दिखाए कोई शमा/छुप छुपकर जब/ चाँद हो रहा हो  जवां “। माँ आवाज सुनकर बोली कही टीवी पर कवि सम्मेलन तो नहीं आरहा ,शायद मै टीवी बंद करना भूल गई होंगी । मगर लाइट  तो है नहीं ।फिर  अंदर से आवाज  आई- आ गया बेटा । बेटे ने कहा -हाँ  ,माँ  मै आ गया हूँ  । अचानक बिजली आगई , उधर सास अपने पति का चेहरा  देखने के लिए चलनी ढूंढ रही थी किन्तु चलनी  तो बहु छत पर ले गई थी और वो बात सास ससुर को मालूम न थी । जैसे ही पत्नी ने पति का चेहरा चलनी में देखने के लिए चलनी उठाई  तभी नीचे से  सास की  आवाज आई  -बहु चलनी देखी  क्या?  गेहूँ छानना है । बहू ने जल्दीबाजी  कर पति का और चाँद का चेहरा देखा और कहा  -लाई  माँ ।पति ने फिर कविता की अधूरी लाइन बोली –    “याद रखना बस /इतना न तरसाना /मेरे चाँद तुम खुद /मेरे पास चले आना “इतना कहकर पति भी पत्नी की पीछे -पीछे नीचे आगया । अब सास ससुर को ले कर छत पर चली गई बुजुर्ग होने पर रस्मो रिवाजो को मनाने में शर्म भी आती है कि  लोग बाग   क्या कहेंगे  लेकिन प्रेम उम्र को नहीं देखता । जैसे ही  ससुर का चेहरा चलनी में  देखने के लिए सास ने चलनी  उठाई  नीचे से बहु ने आवाज लगाई-” माजी आपने चलनी देखी  क्या ?” आप गेहूँ मत चलना में चाल  दूंगी । और  चलनी गेहू की कोठी में चुपके से आगई । मगर ऐसा लग रहा था की चाँद ऊपर से सास बहु के पकड़म पाटी के खेल देख कर   हँस रहा था  और मानो जैसे  कह रहा  था कि मेरी भी पत्नी होती तो में भी चलनी में अपनी चांदनी का चेहरा देखता ।  संजय वर्मा “दृष्टि “