भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी

भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी

संसार अपनी धुन में लगातार चलते हुए मारक पदचिह्न छोड़ता चलता है। जिस रास्ते को वह तय कर लेता है, उस पर कभी मुड़कर नहीं देखता। न ही किसी चट्टान पर बैठकर ये प्रतीक्षा करता है कि कोई प्रबुद्ध-समृद्ध व्यक्ति आकर उसके पाँव की छाप लेकर धरोहर के रूप में सुरक्षित कर ले। लेकिन इस सबके बावजूद भी सब कुछ लिखा जाता है। कोई है, जिसके इशारे पर हवा चलती है और सूरज दहकता है। उसके यहाँ जितना हाथी का मोल है, उतना ही चीटीं का। जितनी बरगद की आवश्यकता है, उतनी ही छुईमुई की ज़रूरत है। कहने का मतलब जो कुछ भी पृथ्वी पर क्रियात्मकता के साथ घट रहा होता है, उसको कलमबद्ध करने का काम लिपिक स्वयं करता चलता है। तो फिर इस संसार का लिपिक है कौन ? जब सवाल उठा तो पता चला कि संसार का लिपिक और कोई नहीं काल स्वयं है। वही उसके निहोरा घूमता है, या हो सकता है कि संसार स्वयं अपने लिपिक के प्रति निहोरा हो! कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। लेकिन एक बात पक्की है कि कला और काल को कोई मात देकर यदि बाँध लेता है, वह और कोई नहीं, जाग्रत चेतना का लेखक ही होता है। लेखक अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और संवेदना से लबालब हृदय की कलम से बाह्य और अंतर जगत को लिख डालता है। लेखक की कलम में आकाश-पाताल, सागर-गागर, नदियाँ-कुँए,सूरज-चाँद-सितारे और समस्त प्रकृति एक साथ और एक समय में छिपकर रहते हैं और साथ में रहती है उसकी अपनी मौलिक तार्किकता,समाज को समझने की समझ और सही बात कहने की छटपटाती दृढ़ता। उसी की दम से एक जगा हुआ लेखक सात कोने के भीतर की घटनाओं-दुर्घटनाओं को घसीटते हुए संसार के सम्मुख शब्दों में लपेटकर रख देता है। भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी मैं जिसकी बात कहने जा रही हूँ, वे भी बेहद निर्भीक तटस्थ लेखिका थीं। उनका नाम ‘मन्नू भंडारी’ लेते हुए मन श्रद्धा से भर जाता है। अभी हाल ही में भारत की प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित कथा लेखक मन्नू भंडारी जी का निधन हो गया है। साहित्य सरोवर के महान तट से उनका तम्बू उखड़ जरूर गया है लेकिन उनके अनेक पाठक हैं, जिनके मन में उनकी अमिट छाप अभी भी अंकित है और बनी रहेगी। मन्नू जी के गोलोक धाम जाने की खबर जिसने सुनी उसकी आँखें नम हो गयीं। लेखिका के प्रति भावुक होने के सभी के पास दो कारण हैं। एक तो उनका भावनात्मक समृद्ध-सुदृढ़ रचना संसार जिसमें मानव-पीड़ा की कहानियाँ भरी पड़ी हैं। दूसरे उनके विशालकाय एकाकीपन की जंगम नीरवता का लगा उनके कोमल मन पर दंश था। वे जितनी बड़ी और महान लेखिका थीं उतनी ही बड़ी मानवीय पीड़ा की भोग्या भी रहीं। लेखकीय जीवन के विस्तार के बाद उनके हिस्से आया उनका अवसादीय जीवन जो घट-घटकर भी कभी घट न सका। अन्ततोगत्वा उनको इस निस्सार संसार को उसके हवाले छोड़कर जाना ही पड़ा। हालाँकि सुनने में ये भी आया कि मन्नू जी ‘मरने’ के नाम पर कहती थीं कि “मेरे पास मौत के लिए वक्त नहीं, अभी लिखना बहुत बाकी है।” लेकिन काल के गाल से कौन बच सका है। ईश्वर उनकी आत्मा को चिर शांति प्रदान करें। उन्हें उनके अगले जन्म में अपनों का बेहद स्नेह मिले। वैसे तो जो बात मैं लिखने जा रही हूँ, कोई नई नहीं है; फिर भी आपको बता दूँ कि हिंदी की प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार मन्नू भंडारी का जन्म 3 अप्रैल 1931 को मध्य प्रदेश में मंदसौर ज़िले के भानुपुरा गाँव में हुआ था। उनका बाल्यकाल भानुपुरा की मिट्टी ने ही सिरजा था। आज जब लेखिका हमारे बीच नहीं हैं तो हम सबके साथ-साथ उनकी जन्मभूमि भी कितनी उदास होगी क्योंकि उसने भी तो अपनी लाड़ली बेटी को खोया है। दिल्ली की हवा ने मंदसौर भानुपुरा की हवा को जब उनके जाने की चिट्ठी सुनाई होगी तो सारे वायु मंडल में कैसा शोक व्याप्त गया होगा। कभी वहाँ की आबोहवा को अपने होने की महक से मन्नू जी ने ही महकाया था। वह स्थान भी महान होता है जिस पर महान आत्माएँ जन्म लेती हैं। ऐसा सुना जाता है कि मन्नू जी के बचपन का नाम ‘महेंद्र कुमारी’ था। उनके पिता का नाम सुख संपत राय था। सुख संपत राय जी उस दौर के विचारवान व्यक्ति थे। जब स्त्रियों को सात कोठे के भीतर उनकी खाल सड़ने के लिए बंद रखा जाता था। सीधे मुँह स्त्रियों से कोई बात नहीं करना चाहता था। उस समय के जाने-माने लेखक और समाज सुधारक संपत राय ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए लड़कियों को ये चेताया कि उनकी जगह रसोई नहीं विद्यालय में है। उनकी दृष्टि में लडकियाँ सिर्फ वंश-बेल बढ़ाने का माध्यम न होकर शिक्षा की अधिकारिणी भी हैं, बताया गया। ये बातें सुनते-समझते हुए तो यही लगता है कि मन्नू जी के दबंग और प्रखर व्यक्तित्व निर्माण में उनके पिता का भरपूर योगदान रहा होगा। वहीं मन्नू जी की माता का नाम अनूप कुँवरी था। जो धीर-गम्भीर स्त्रीगत स्वाभाव की धनी महिला थीं। उदारता, स्नेहिलता, सहनशीलता और धार्मिकता जैसे गुण जो लेखिका के अंतर्मन को हमेशा सहेजते रहे, उन्हें अपनी माँ से ही मिले होंगे। इस सब के अलावा मन्नू जी के परिवार में उनके चार-बहन भाई थे। बचपन से ही उन्हें, प्यार से ‘मन्नू’ पुकारा जाता था इसलिए उन्होंने अपनी लेखनी के लिए जो नाम चुना वह ‘मन्नू’ था। पुस्तकें ऐसा बताती हैं कि मन्नू भंडारी ने अजमेर के ‘सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल’ से शिक्षा प्राप्त की और कोलकाता से बी.ए. की डिग्री हासिल की थी। उन्होंने एम.ए.तक शिक्षा ग्रहण की और वर्षों-वर्ष तक अध्यापनरत रहते हुए कितनी ही महिलाओं को स्त्री की अपनी भूमिका में सशक्त रहने की प्रेणना दी है। अंगेज़ी हुकूमत के बाद देश आज़ाद तो हुआ था लेकिन रूढ़ीवादी सोच के साथ आंतरिक रूप से जकड़ता चला गया। स्त्री दुर्दशा की झंडे गढ़ गये। जाति-धर्म और लैंगिक असमानता जैसे चंगुल में फँकर शारीरिक स्वतंत्र समाज फिर से कराहने लगा। शारीरिक गुलामी से ज्यादा मानसिक दासता खटकती है। और भयाभय मानसिक दैन्यता से उबरने का साधन यदि कुछ है तो वह है साहित्य। उस कठिन रूढ़िवादी समय में जब क्रांतिकारी लेखकों ने अपनी कलमें उठाईं और समाज की अंधी दम घोंटू … Read more

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

  कुछ घटनाएँ हमारे जीवन में इस प्रकार घटती हैं कि हमें यह लगने लगता है कि बस ये घटना ना घटी होती तो क्या होता? हमें “संसार” सरल दिखता ज़रूर है लेकिन होता बिल्कुल नहीं; इसलिए अकस्मात जहाँ आकर हमारी सोच थिर जाती है, उसके आगे से संसार अपना रूप दिखाना शुरू करता है। और जब हमें ये लगने लगता है कि बस हमने तो सब कुछ सीख लिया, सब कठिनाइयों को जीत लिया है; बस आपके उसी आह्लादित क्षणों में ना जाने कहाँ से एक नन्हा सा “हार” का अंकुर आपके ह्रदय में ऐसे फूट पड़ता है कि उसे दरख़्त बनते देर नहीं लगती। सपनों के राजमार्ग पर चलते-चलते एक छोटी सी कंकड़ी से हम उलझकर धड़ाम से गिरते हैं कि धूल चाट जाते हैं। जितना ये सत्य है उतना ही ये भी सही है कि हम कठिनाइयों के गहरे अवसाद में जब नाक तक डूबे होते हैं और निरंतर किनारे को अपने से दूर सरकते हुए देख रहे होते हैं; हमें बिल्कुल ये लगने लगता है कि अबके साँस गई तो फिर लौट कर नहीं आएगी बस उन्हीं गमगीन भीगे-से क्षणों में रहस्यमयी अंधकार भरे दलदल के ऊपर रेंगता हुआ एक सीलन का कीड़ा हमारा मार्गदर्शन कर जाता है। रेंग-रेंग कर वह हमें ऐसी युक्ति दे जाता है कि लगता है कि जो किनारा पूरी तरह से ओझल हो चुका था वह ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे पास कैसे सरक आया। वो फोन कॉल -कहानी की कुछ पंक्तियाँ “वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी दरअसल में बात कह रही हूँ अभी हाल ही में भावना प्रकाशन से प्रकाशित वंदना बाजपेई जी का नया कहानी संग्रह “वो फोन कॉल” की। इसकी कहानियाँ भी कुछ इसी प्रकार का मनोभाव लिए पाठक को अपने साथ लिए चलती हैं। संग्रह में १३ कहानियाँ हैं। कहानियों का मूलभाव वंचित वर्ग का दुःख, आक्रोश, विकास की लिप्सा, झूठे आडंबर, रूढ़िवादिता में जकड़ा मध्यम वर्ग ही है। सबसे पहले तो वन्दना जी की तारीफ़ इस बात की जानी चाहिए कि उन्होंने कहानी संख्या के लिए उस अंक को चुना है जिसको साधारण लोगों को अक्सर बचते-बचाते देखा जाता है। यानी कि आपके इस पुस्तक में “13” कहानियाँ संग्रहित की हैं। एक मिथक को तो लेखिका ने ऐसे ही धराशाही कर दिया। अब बात करती हूँ आपकी कहानियों की तो सबसे पहले मेरा लिखा सिर्फ एक पाठक मन की समझ से उत्पन्न बोध ही समझा जाए। खैर, वंदना जी की कहानियों की भाषा सरल और हृदय के लिए सुपाच्य भी है। किसी बात को कहने के लिए वे प्रतीकों का जाल नहीं बुनती हैं। और न ही कहानियों का लम्बा-चौड़ा आमुख रचती हैं । वे प्रथम पंक्ति से ही कहानी को कहने लगती हैं इससे आज के भागमभाग जमाने के पाठक को भी आसानी होगी। स्त्री होने के नाते वन्दना जी की कहानियों के तेवर स्त्रियों की व्यथा-कथा को नरम-गरम होते चलते हैं। निम्न मध्यम वर्ग की उठापटक को भी उन्होंने बेहतरी से पकड़ा है। शीर्षक कहानी “वो फ़ोन कॉल” की यदि मैं बात करूँ तो ये कहानी बच्चों और उनके अभिभावक,समाज और रिश्तेदारों की मानसिक जद्दोजहद की कहानी कही जा सकती है। जिसमें किरदार तो सिर्फ दो लड़कियाँ ही हैं किंतु वे जो अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, उसको पढ़ते हुए मन भीग-भीग गया। वहीं ये कहानी पाठक के लिए एक युक्ति भी सहेजे दिखती है। जो इस कहानी को पढ़ चुके हैं वे समझ गए होंगे। और जिनको समझना है वे ज़रूर पढें। लेखिका ने कहानी को अपनी गति से बढ़ने दिया है। पढ़ते हुए जितनी पीड़ा होती है उतना ही संतोष कि स्त्री जीवित रहने के लिए आसरा खोजना सीख रही है। “तारीफ़” कहानी में कैसे स्त्री अपनी तारीफ़ सुनने को लालयित रहती है कि कोई उसका अपना ही उसके बुढ़ापे को ठग लेता है। वहीं “साढ़े दस हज़ार….!” के लिए जो क़िरदार लेखिका ने चुने हैं उसमें नौकरी पेशा और गृहणी के बीच की मानसिक रस्साकसी खूब द्रवित करती है। “सेवइयों की मिठास” के माध्यम से लेखिका ने धर्मांधता को शांत भाव से उजागर किया है। किसी के धर्म, पहनावे ओढ़ावे को देखकर हम ‘जजमेंटल’ होने लगते हैं। उस बात को आपने सफ़ाई और कोमलता से कही है कि पढ़ते हुए आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं। “आखिर कब तक घूरोगे” कहानी पढ़ते हुए तो लगा कि एक सामान्य-सी ऑफिस के परिवेश की बात लिए होगी कहानी लेकिन नायिका के द्वारा बॉस को जो सबक मिलता है,वह कमाल का है। ये लेखिका की वैज्ञानिक सोच का नतीज़ा ही कहलाएगा। “प्रिय बेटे सौरभ” कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो ममता में कैसे अपने को गलाती रहती है और बेटा अपने को विकसित करता रहता है; और बहुत बाद में जब माँ तस्वीर में बदल जाती हैं, बस दो बूँद आँसू छलका कर सॉरी बोलता है कि तस्वीर वाली माँ भी कह उठती है कोई बात नहीं। “अम्मा की अंगूठी” कहानी ने बहुत गुदगुदाया, बचपन के किस्से याद दिलाए। इस रचना को हम यादों की गुल्लक भी कह सकते हैं। पहले पति कैसे पत्नि को सबक सिखाता था की बच्चों की हँसी ठट्ठा के साथ मौज हो जाती थी। माँ-बाप के उलझाव में बच्चों के संवाद और उसपर वंदना जी की भाषा, पढ़ते हुए खूब आनंद आया। “जिन्दगी की ई एम आई” कहानी को वन्दना जी ही लिख सकती थीं। इस कहानी का विषय हमारी नवा पीढ़ी का दुःख-दर्द समेटे है।आज के परिवेश में न जाने कितने देवांश इतने अकेले होंगे कि किसी गलत संगत के शिकार हो जाते होंगे। कथा पढ़ते हुए एक थ्रिल का अहसास होता है लेकिन अंत पाठक को सांत्वना देने में सक्षम है। “बद्दुआ” बद्दुआ में कैसे अपनों का दंश लिए हुए एक बच्चा अपने जीवन के उतार-चढ़ाव झेलता हुआ चलता है………।लेकिन अंत इसका भी सुखद है। ”प्रेम की नई बैरायटी” कहानी भी पूरे मनोभाव के साथ पाठक को अपने साथ-साथ लिए चलती हैं। संध्या,उसकी माँ,पति और स्कूल के छात्रों में पनपते गर्ल फ्रैंडस-बॉयफ्रेंड्स के नये चाल-चलन और नये जमाने के प्रेम पर खूब दिलचस्प बात कहते हुए ये कहानी भी पाठक को एक सुखद जतन सिखा जाती है। “वजन” कहानी पढ़ते हुए कितनी मन में कितनी कौंध,डर, आक्रोश और इस दर्द से जूझते कितने चेहरे … Read more

इत्ती-सी खुशी 

इत्ती सी खुशी

रात को जब सब सो जाते हैं तो चाँदनी सबकी आँखों में चाँद पाने का ख्वाब परोस देती है | सुबह उठते ही सब निकल पड़ते हैं अपने हिस्से के के उस चाँद को पाने के लिए | जो चाँद सपनों में आया था उसे पाने में कितनी नींदें खराब करनी पड़ती हैं | कभी चाँद मिल भी जाता है तो पता चलता  है .. हरी  -भरी धरती कहाँ बुरी थी ? अतीत सी पीछा छुड़ा कर वर्तमान जब भविष्य के लिए खुद को होम रहा होता है तो उसे कहाँ पता होता है वहाँ पहुँचकर इस हिस्से की घास दिखाई देगी |घबराता मन सोचता है कल में आज में या कल में आखिर कहानी है खुशी | पाठकों को अपनी कहानी के माध्यम से इत्ती सी पर असली खुशी का पता दे रही है सुपरिचित लेखिका कल्पना मनोरमा जी की कहानी ….. इत्ती-सी खुशी  घरों की मुंडेरें हों या कॉलोनी के पेड़-पौधे, सभी पर छोटे-छोटे बल्बों की रंगीन लड़ियाँ लगा दी गई थीं । उजाले का मर्म अबोले कहाँ जानते हैं; वे तो उजाले को पाकर खुद उत्स में बदल जाते हैं। चौंधियाती साँझ अपने प्रेमी के साथ पसरने को बेताब थी लेकिन चारों ओर बिजली का रुआब इस क़दर तारी था कि पेड़ों का हरा रंग के साथ धरती का भी रंग खिल उठा था। इस बार दीवाली आने से पहले मेरा भी पता बदल गया था। भले एक कमरे का ही सही अपना घर खरीदकर केतन ने मेरी जिंदगी को रोशन कर दिया था। किराए के सीलन भरे घर से निजात मिल चुकी थी।जिंदगी की भव्यता का छोटा-सा परिचय मिला था। सातवीं मंजिल पर खड़ी मैं नीचे झाँक-झाँक कर देखे जा रही थी। पार्क का मनभावन दृश्य धूसर हो चुकी मेरी आँखों के लिऐ भोर की ओस जैसा लग रहा था। पलट कर अपने चारों ओर देखा तो जल्दी-जल्दी बालकनी में पड़ीं पुरानी चीज़ों को धकेलकर किनारे कर ढक दिया। दो चार ठीक-ठीक गमलों को थोड़े ऊँचे पर रख दिए ताकि आठवीं मंजिल के घरों से हम अच्छे दिख सकें।अभी मैं पौधों पर जमी मिट्टी साफ कर ही रही थी कि मन फिर से हुआ कि लाओ और देंखें नीचे हो क्या रहा है ? जैसा सोचा वैसा ही किया। देखा, एक महिला सुंदर परिधान में निकली और चट से गाड़ी में बैठकर फ़ुर्र गयी। ये निश्चित ही कुछ खरीदने जा रही होगी।दीवाली है भई!मैंने मन ही मन स्वयं से कहा। क्या मुझे भी इस धनतेरस कुछ ख़रीदना चाहिए? वैसे तो न जाने कब से जिंदगी की मीनमेख ने धनतेरस को कुछ ख़रिदवाना बंद ही करवा दिया था। पर इस बार क्या सच्ची में कुछ ख़रीद लूँ? एक कटोरदान ही सही  जैसा वृंदा मौसी के घर देखा था। मैंने जैसे खुद से ही पूछा और खुद ही उत्तर दे दिया। न न बेटे से इतना ख़र्च करवाने के बाद धनतेरस का शगुन करने के लिए नहीं कहूँगी। कुछ न खरीद पाने के बावजूद भी मन हल्का था। मैं आँखें उठा कर अपने सिर के ऊपर तनी छत को शुक्रिया के साथ निहारा। मैं अपने विचारों में निमग्न बालकनी में पड़ी कुर्सी पर ही बैठ गयी और धीरे-धीरे धनिक बस्ती में शर्मीली शाम का उतरना देखने लगी। मन शांत हुआ तो कान हरकत में आ गए और घर के भीतर हो रही खुरस-फुसर पर केंद्रित हो गए। “मेट्रो सिटी में रहने के अपने ही दुख होते हैं भाई। यहाँ न चैन से जिया जा सकता है न मरा।” एक आदमी बोल रहा था। उसको सही ठहराते हुए दूसरे ने अपनी मोटी आवाज़ में कहा, “तभी तो अक्सर लोग कहते मिल ही जाते हैं कि”बृहस्पतिवार की लोई के लिए गाय नहीं,नवरात्रियों में कन्यायें नहीं और दाता को जल्दी से सच्चे जरूरतमंद नहीं मिलते और यदि मिलते भी हैं, तो जुआरी-शराबी; जिनको कुछ देना मतलब  उनके परिवार को विपत्ति में डालना। उनसे तो लोगों को तौबा ही कर लेनी चाहिए।” “चल छोड़ो यार! आज तो अपनी जमेगी न..?” दोनों आवाज़ें थमी तो खिखियाकर हँसने की समलित आवाज़ गूँज उठी। झपटकर मैंने अंदर झाँकते हुए बेटे से पूछा। “ये कौन अजीब-अज़ीब बातें कर रहा है ?” मेरे चेहरे पर डर छितरा चुका था। “अम्मा! मैं बताना भूल गया था। मुख्य द्वार पर बत्ती वाली बंदनवार लगाने के लिए इलेक्ट्रीशियन को बुलाया था। वही अपने हेल्पर के साथ आया है ।” “अच्छा, बड़ी अलग-सी बातें कर रहे हैं दोनों।” “अम्मा धीरे बोलो प्लीज़ अब आप गलियों वाली बस्ती में नहीं सोसायटी में रह रही हो। वे लोग अपनी बातें कर रहे हैं। सबके जीवन के अपने-अपने प्रसंग होते हैं। चलो तुम्हारे छालों की दवाई दिलवा लाता हूँ । देर होगी तो बाज़ार में ठेलम-ठेल मच जाएगी।” मुझे समझाकर वह तुरंत भीतर की ओर मुड़ गया । “अम्मा जल्दी करना…!” उसने फिर कहा। “हाँ, इन लोगों के जाने के बाद ही न!” “हाँ जी अम्मा!” सही तो कहा उसने बाज़ार का दूसरा नाम  ठेलम-ठेल ही होता है। लाने को मैं खुद भी दवाई ला सकती थी लेकिन त्योहार के दिनों में बच्चे जितना नज़दीक रहें उतनी ज़्यादा ख़ुशी मिलती है। वैसे देखा जाए तो आजकल के बच्चे नौकरी की चकल्लस में नाक तक डूबे रहते हैं। कब वे अपने साथ बैठें और कब परिवार के? अब देखो न आज मेरा ही घर से निकलने का बिल्कुल मन नहीं था लेकिन शरीर की व्यथा कहाँ समझती है मन के संकल्पों को। “चलता हूँ सर !” अपनी ऊब-चूब में डूबी में  फिर से बालकनी में जा बैठी थी कि अचानक उन दोनों ने जाने की आज्ञा बेटे से माँगी तो मुझे भी छुट्टी मिली। “चलो अच्छा हुआ जल्दी चले गए। केतन कौन से कपड़े पहनूँ ?” “अम्मा  जो आपको पसंद हों।” बेटे ने कमरे की खिड़की बंद करते हुए कहा । “बस दो मिनट का समय दो अभी चलती हूँ।” कहते हुए मैंने अलमारी खोली। एक तोतयी रँग का कुरता मेरे हाथ में आया। उलट-पलटकर देखा और वापस रख दिया।अब इसे बाहर नहीं पहनूँगी। गलियों में रहने की और बात थी और मैंने एक ठीक-ठाक साड़ी निकालकर पहन ली। घर से निकलते हुए बेटे ने कहा,‘क्या बात है अम्मा? आप किन ख़्यालों में खोई हो? सब ठीक तो है न! छाला ज्यादा दर्द कर … Read more

कल्पना मनोरमा की कविताएँ

कल्पना मनोरमा

 कल्पना मनोरमा जी एक शिक्षिका हैं और उनकी कविताओं की खास बात यह है कि वो आम जीवन की बात करते हुए कोई न कोई गंभीर शिक्षा भी दे देती हैं | कभी आप उस शिक्षा पर इतराते हैं तो कभी आँसुन भर कर पछताते भी हैं कि पहले ये बात क्यों न समझ पाए | अम्मा पर कविता 90 पार स्त्री के जीवन की इच्छाओं को दर्शाती है तो देर हुई घिर आई साँझ उम्र की संध्या वेल में जड़ों  को तलाशते मन की वापसी है | तो आइए पढ़ें कल्पना मनोरमा  जी की कविताएँ …. कल्पना मनोरमा की कविताएँ नुस्खे उनके पास जरूरी तुनक मिज़ाजी की मत पूछो हँस देते, वे रोते-रोते। इसके-उसके सबके हैं वे बस सच कहने में डरते हैं सम्मुख रहते तने-तने से झुक, बाद चिरौरी करते हैं क्या बोलें क्या रखें छिपाकर रुक जाते वे कहते-कहते।। ठेल सकें तो ठेलें पर्वत वादों की क्या बात कहेंगे कूदो-फाँदो मर्जी हो जो वे तो अपनी गैल चलेंगे नुस्खे उनके पास जरूरी बाँधेंगे वे रुकते-रुकते ।। यारों के हैं यार बड़े वे काम पड़े तो छिप जाते हैं चैन प्राप्त कर लोगे जब तुम मिलने सजधज वे आते हैं नब्बे डिग्री पर सिर उनका मिल सकते हो बचते-बचते।। -कल्पना मनोरमा पुल माटी के टूट रहे पुल माटी के थे उजड़ गये जो तगड़े थे | नई पतंगें लिए हाथ में घूम रहे थे कुछ बच्चे ज्यादा भीड़ उन्हीं की थी, थे जिन पर मांझे कच्चे दौड़ गये कुछ दौड़ें लम्बी छूट गये वे लँगड़े थे || महँगी गेंद नहीं होती है, होता खेल बड़ा मँहगा पाला-पोसा मगन रही माँ नहीं मँगा पायी लहँगा थे अक्षत,हल्दी,कुमकुम सब पैसे के बिन झगड़े थे || छाया-धूप दिखाई गिन-गिन लिए-लिए घूमे गमले आँगन से निकली पगडंडी कभी नहीं बैठे दम ले गैरज़रूरी बने काम सब चाहत वाले बिगड़े थे || -कल्पना मनोरमा  अम्मा नब्बे सीढ़ी उतरी अम्मा मचलन कैसे बची रह गई।। नींबू,आम ,अचार मुरब्बा लाकर रख देती हूँ सब कुछ लेकिन अम्मा कहतीं उनको रोटी का छिलका खाना था दौड़-भाग कर लाती छिलका लाकर जब उनको देती हूँ नमक चाट उठ जातीं,कहतीं हमको तो जामुन खाना था।। जर्जर महल झुकीं महराबें ठनगन कैसे बची रह गई।। गद्दा ,तकिया चादर लेकर बिस्तर कर देती हूँ झुक कर पीठ फेर कर कहतीं अम्मा हमको खटिया पर सोना था गाँव-शहर मझयाये चलकर खटिया डाली उनके आगे बेंत उठा पाटी पर पटका बोलीं तख़्ते पर सोना था बाली, बल की खोई कब से लटकन कैसे बची रह गई।। फगुनाई में गातीं कजरी हँसते हँसते रो पड़ती हैं पूछो यदि क्या बात हो गई अम्मा थोड़ा और बिखरती पाँव दबाती सिर खुजलाती शायद अम्मा कह दें मन की बूढ़ी सतजुल लेकिन बहकर धीरे-धीरे खूब बिसुरती जमी हुईं परतों के भीतर विचलन कैसे बची रह गई? -कल्पना मनोरमा देर हुई घिर आई सांझा उड़ने लगीं हवा में तितली याद हमें हो आई घर की ।। समझ-समझकर जिसकोअपना लीपा -पोता खूब सजाया अपना बनकर रहा न वो भी धक्का दे मन में मुस्काया देर हुई घिर आई साँझा याद हमें हो आई घर की।। चली पालकी छूटी देहरी बिना पता के जीवन रोया अक्षत देहरी बीच धराकर माँ ने अपना हाथ छुड़ाया चटकी डाल उड़ी जब चिड़या याद हमें हो आई घर की।। पता मिला था जिस आँगन का उसने भी ना अंग लगया राजा -राजकुमारों के घर जब सोई तब झटक जगाया तुलसी बौराई जब मन की याद हमें हो आई घर की।। -कल्पना मनोरमा लेकिन पंख बचाना चिड़िया रानी उड़कर जीभर, लाना मीठा दाना लेकिन पंख बचाना।। राजा की अंगनाई, मटका पुराना है प्यास-प्यास जीवन का, अंत हीन गाना है मेघों की छाती में सोता है पानी का लेकिन वह बंधक है फूलमती रानी का लेकर हिम्मत अपने मन में मेधी जल पी आना लेकिन पंख बचाना।। पिंजरे में बैठा जो सुगना सयाना है राम राम कह,खाता मक्की का दाना है जुण्डी की बाली में दुद्धी चबेना है उसपर भी लेकिन पड़े जान देना है आँखों के आगे से चुनकर लाना सच्चा दाना लेकिन पंख बचाना।। -कल्पना मनोरमा यह भी पढ़ें …. यामिनी नयन गुप्ता की कवितायें किरण सिंह की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायेँ मनीषा जैन की कवितायें आपको  “कल्पना मनोरमा की कविताएँ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

बबूल पर गुलाब

बबूल पर गुलाब

क्या बबूल पर गुलाब का रेशमी खुशबूदार फूल उग सकता है | नहीं | पर कहते हैं कि व्यक्ति का स्वाभाव नहीं बदलता …पर जिम्मेदारी कई बार ऐसा कर दिखाती है | ये लघु कथा भी बबूल पर गुलाब उगाने की है |आइये जानते हैं कैसे   बबूल पर गुलाब घर में रामचरित मानस का पाठ होना | खाने-पीने का मेनू चुपके से बदल जाना और आते-जाते लोगों का बार-बार धीरे चलो, खुश रहा करो जैसे नसीहत भरे वाक्य कहना और सारा का धीरे से मुस्कुरा देना……..बता रहा था कि घर में नन्हा मेहमान आने वाला है | “बहू तुमसे कितनी बार कहना पड़ेगा कि अपनी बहू के लिए गरी-मिसरी मँगवा दो |” सारा की अजिया सास खीज पड़ीं | “अरे अम्मा! हम आपके पास ही आ रहे थे,बताओ क्या मँगवा लें |” सारा की सास क़ागज-पेन लेकर अजिया की खटोली के पास आ बैठी | “तुम्हारी गृहस्थी तुम जानो | हम तो बस बहू के लिए …|” “हाँ हाँ, तो बताओ न अम्मा ! कितने गोले मँगवा लें |” “अब उसमें बताना क्या पहलौटी का बच्चा है सात-पाँच गोला तो होना ही चाहिए|” “हमने तो पूरे नौ गरी के गोले खाये थे, तुम्हारे दूल्हा के होने में |” “तभी इतने मधुर स्वभाव के निकले कि मेरी जिन्दगी ही स्वाहा कर दी |” “पुरानी बातों को मत सोचो बहुरिया अब तुम दादी बनने वाली हो |” अजिया ने सारा की सास के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा | “अम्मा क्या बातें हो रही हैं ?” कहते हुए सारा के ससुर आँगन में आकर खड़े ही हुए थे कि अचानक वातावरण बोझिल हो उठा | सारा की सास अपने में ऐसे सिमट गई मानो उसके चारों ओर काँटे उग आये हों | “अम्मा मैं ये कह रहा था कि अब बहू को ऱोज दस ग्राम बबूल की पत्तियां खिलाना है | “तुम्हारी आयुर्वेदिक नुख्सों की आजमाइश की आदत से अब मेरा जी ऊब गया है ……..और ये बताओ तुम ! तुम्हारी बहू क्या बकरी है |” “अरे अम्मा ! हर बात टाला मत करो |” कहते हुए उनकी आव़ाज में तनाव उभर आया | “आपको शायद पता नहीं, जिज्जी ने भी अपनी बहू को बबूल की पत्तियाँ ही खिलाई थीं | देखा नहीं कैसा गोरा-चिट्टा और कुशाग्र बुद्धि वाला बच्चा पैदा हुआ है | सात पीढ़ियाँ तर गईं मानो उनकी |” इतना सुनते ही कोई और बोल पाता इसके पहले सारा चहक कर बोल पड़ी | “लेकिन पापा जी, प्रतिदिन बबूल की पत्तियाँ लाएगा कौन ?” “होने वाले बच्चे के दादा जी और कौन |” कहते हुए वे मुस्कुरा उठे | सबने चौंक कर उनकी ओर देखा – आज तो जैसे बबूल पर गुलाब खिल आये थे | कल्पना मनोरमा यह भी पढ़ें … नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल   “ग्रीन मैंन ” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है  आपको    “ बबूल पर गुलाब  “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: short stories, kalpna manorama, rose, rose plant

एक पाती भाई/बहन के नाम ( कल्पना मिश्रा बाजपेयी )

प्रिय भाई !! सदैव खुश रहो !! कुशल से रहते हुए तुम्हारी कुशलता के लिए निरंतर प्रार्थनारत रहती हूँ ,ईश्वर तुम्हें लंबी आयु प्रदान करे तुम हमेशा की तरह मुस्कराते रहो। लंबे अंतराल के बाद आज अटूट-बंधन ने मुझे चिट्ठी लिखने के लिए फिर से मजबूर कर दिया पुराने दिन याद आ गए,जब डाकिये का इंतजार घर के सदस्य के जितना होता था उसकी साइकल अपने फाटक कि तरफ मुड़ी नहीं कि भाग कर माँ को सबसे पहले संदेश मैं ही देती थी और माँ भी अपना सारा काम छोड़ फाटक तक दौड़ी चली आती थी ।तेरी चिट्ठी कि खुशी में मुझे एक बिलकुल फ्री वाली हग्गी मिल जाती थी ।   ये रिश्ते कैसे होते है भाई ?जब पास होते है तो उनकी अहमियत पता नहीं चलती दूर होते ही, अपनी चंगुल से छूटने नहीं देते। जमाने हो गए तुम्हारे पत्र को पढे हुए ,तुम्हें याद है ना भाई जब तुम हॉस्टल से पत्र लिखते थे तो पूरे एक हफ्ते तक तुम्हारा पत्र कभी माँ द्वारा कभी मेरे द्वारा पढ़ा जाता था । एक एक शब्द में तुम बोलते से दिखाई पड़ते थे, भला हो इन मोबाइल के चलन को मिठास ही खत्म कर दी रिश्तों की खैर ………………..  अच्छा चलो, बताओ हम सब का राज दुलारा अपने राज दुलारों के साथ कैसा है ?देख भाई सावन आ गया,संग ले आया है वही पुराने सावन की मीठी याद जब मैंने माँ की कढ़ाई वाली रेशमी धागों की कई नलकियों को गुच्छे में तब्दील कर दिया था ,राखी बनाने के चक्कर में तब माँ ने गुस्से होने के बजाय एक गीत गुनगुनाया…. तार न टूटे भाई बहन के प्यार का ……………. हम दोनों को गले लगा कर माँ ने एक साथ हमारे माथे सूंघे थे । देख पढ़ते-पढ़ते रोना नहीं तेरी गीली आँखें बरदास्त नहीं होती है मुझसे, अच्छा बता ना मेरी राखी तुझे मिली या नहीं अगर राखी पहुँचने में देर हो जाए तो तू वही पुरानी राखी फिर से बांध लेना, वैसे भी उस राखी जितना खारापन अब कहाँ ……… J मैं यहाँ कान्हा जी के हाथ में राखी बांध दूँगी तेरे नाम की क्योंकि तू भी कृष्ण से कम नहीं है मेरे लिए …. …….मेरे प्यारे भाई !!! और हाँ मिठाई तू अपनी पसंद की खा लेना वो भी अपने पैसे से  हा हा हा चल अब तो हंस दे बहुत हो लिया भावुक हंसो हंसो हाँ ये हुई न बात शेरों वाली खुश रह J पत्र के अंत में पुनः भाभी बच्चों और तुमको ढेरों शुभाशीष चिरंजीव रहो तुम सब इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम दे रही हूँ । तुम्हारी दीदी              atoot bandhan