उर्मिला शुक्ल के उपन्यास बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन का अंश

बिन ड्योढ़ी का घर भाग -3

यूँ  तो अटूट बंधन आगामी पुस्तकों  के अंश प्रस्तुत करता रहा है l इसी क्रम में आज हम आगामी पुस्तक मेले में में लोकार्पित एक ऐसे उपन्यास का अंश प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो हिन्दी साहित्य जगत में एक इतिहास बना रहा है l ये है एक उपन्यास का तीन भागों  का आना l  अंग्रेजी में “उपन्यास त्रयी हम सुनते रहे हैं पर हिन्दी में ऐसा पहली बार हो रहा है l विशेष हर्ष की बात ये हैं कि  इस द्वार को एक महिला द्वारा खोला जा रहा है l ‘बिन ड्योढ़ी का घर’ के पिछले दो भागों की विशेष सफलता के पश्चात छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों के लोक को जीवित करती ये कहानी आगे क्या रूप लेगी ये तो कहानी पढ़ कर ही जाना जा सकेगा l फिलहाल उर्मिला शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ के साथ उपन्यास का एक अंश “अटूट बंधन” के पाठकों के लिए बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन उपन्यास अंश   भाऊ अब अतीतमुखी हो गये थे | सो वर्तमान को भूलकर ,अपने किशोरवय और यौवन में टहल रहे थे | अब वे भाऊ नहीं सखाराम थे | बालक और युवा सखाराम | सो कभी उन्हें अपना गाँव याद हो आता ,तो कभी युवा जलारी | बचपन की यादों में याद आती वह नदी ,जो बारिश में तो इस कदर उफनती कि सामने जो भी आता, उसे बहा ले जाती ,पर बारिश के बीतते ही वह रेत का मैदान का बन जाती | नदी स्कूल के पीछे बहती थी | सो छुट्टी होते ही सखाराम की बाल फ़ौज वहाँ जा पहुँचती फिर शुरू हो जाती रेत दौड़ | लक्ष्य होती वह डाल ,जिसकी शाखें नदी में झुक आयी थीं | रेत में दौड़ना आसान नहीं होता फिर भी बच्चे दौड़ते, गिरते फिर उठते | वह डाल बहुत दूर थी | हर कोई उसे छू नहीं पाता ,बस सखाराम और सखु ही वहाँ तक पहुँचते | दोनों घंटो डाली पर लटक – लटककर झूला झूलते | सखु बहुत अच्छी लगती थी उसे | वह उसके लिए थालीपीठ (मोटी रोटी ) लाया करती | सखा को जुवारी ( ज्वार ) की थालीपीठ बहुत पसंद थी | खेलने के बाद दोनों थालीपीठ खाते और घंटों बतियाते | उनकी बातों में सखु की आई (माँ ) होती ,उसके भाई बहन होते और होतीं उसकी बकरियाँ | सखाराम की बातों में परिवार नहीं होता | परिवार को याद करते ही सबसे पहले आई ( सौतेली माँ ) का चेहरा ही सामने आता और याद हो आतीं उसकी ज्यादतियाँ और पिता की ख़ामोशी ,जिसे याद करने का मन ही नहीं होता | सो उसकी बातों में उसके खेल ही होते | सखा भौंरा चलाने में माहिर था | भौंरा चलाने में उसे कोई हरा नहीं पाता | उसका भौंरा सबसे अधिक देर तक घूमता | इतना ही नहीं वह भौंरे में डोरी लपेट , एक झटके से छोड़ता और उसके जमीन पर जाने के पहले ,उसे अपनी ह्थेली पर ले लेता | भौंरा उसकी हथेली पर देर तक घूमता रहता | सखु को उसका भौंरा नचाना बहुत पसंद था | वह नदी के किनारे के पत्थर पर अपना भौंरा नचाता और सखु मुदित मन देखा करती |   फिर उनकी उम्र बढ़ी ,बढ़ती उम्र के साथ उनकी बातों का दायरा भी उनके ही इर्द गिर्द सिमटने लगा | सो एक दिन सखा ने पूछा – “सखु तेरे कू भौंरा पसंद है |” “हो भोत पसंद |” “मय इस बार के मेला से बहुत सुंदर और बड़ा भौंरा लायेंगा | लाल,हरा और पीला रंग वाला |” “वो भौंरा बहुत देर तलक नाचेंगा क्या?” कहते सखु की आँखों में ख़ुशी थिरकी | “हाँ जेतना देर तू कहेगी वोतना देर |” कहता सखा उस थिरकन को देखता रहा | उस दिन उसने पहली बार गौर से देखा था | सखु सुंदर थी और उसकी आँखें तो बहुत ही सुंदर |जैसे खिलते कँवल पर झिलमिल करती सुबह की ओस | सो देर तक उसकी आँखों को देखता रहा | उसकी आँखों की वह झिलमिल उसके मन में उतरती चली गयी | अब सखा को मेले का इंतजार था | वह चाहता था कि मेला जल्दी आ जाए ,पर मेला तो अपने नियत समय पर यानी माघ पुन्नी को ही भरना था, पर सखा के दिलो दिमाग में तो मेला ही छाया हुआ था | सो वह सपने में भी मेला जाता और भौंरों के ढेर से सबसे सुंदर भौंरा ढूँढ़ता | अब खेल के समय ,वे खेलते कम बातें ज्यादा करते | बातें भी सखा ही करता | वह भी मेले और भौंरे की बातें | ऐसे ही एक दिन – “ क्यों रे सखु अपुन संग – संग मेला घूमें तो ?” “तेरे संग ? नको आई जानेच नई देगी |” “हव ये बात तो हय | पन तू मेला देखने जाती न ?” “हो पिछला बरस तो गया | आई ,भाऊ, ताई सब गया था |” सखु पिछले मेले के बारे में बता रही थी और सखा आने वाले मेले की कल्पना कर रहा था | वह सोच रहा था ‘अगर मेले में सखु मिल जाय तो ? पन कैसे?’ कुछ देर सोचता रहा फिर –“सुन तू जब मेले को निकलेंगी न ,मेरे कू बताना | मय संग – संग चलेंगा |” “ये पगला है क्या रे ? भाऊ देखेंगा तो मारेंगा तेरे कू |” सखा का दिमाग सटक गया -“काहे ? डगर उसके बाप की है क्या?” फिर उसे याद हो आया ,ऐसे तो वह सखु के बाप तक चढ़ रहा है | सो तुरंत ही मिश्री घोली –“ तू ठीक कहती | अइसे संग – संग जाने से पंगा होयेंगा | पन मैं तुम लोग के पीछू – पीछू चले तो ?” “हव ये सही रहेंगा |” सो उनके बीच तय हो गया कि मेले वाले दिन वे सुबह नदी पर मिलेंगे | सखु उसे मेला जाने का समय बताएगी और वह उनके पीछे चल पड़ेगा | सो उनका समय मेले की कल्पनाओं में बीतने लगा | सखा मेले की ही बातें करता | एक दिन उसने पूछा –“बता तू मेले से क्या लेंगी |” “मय ? लाल रंग का फीता और जलेबी | मेरे … Read more

दीपक शर्मा की कहानी एवज़ी

  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियाँ पढ़ते हुए बिहारी का ये दोहा अनायास ही जुबान पर आ जाता है l सतसइया के दोहरे ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगें घाव करे गंभीर, छोटी सी कहानी ‘एवजी’ भी मरीजों, बुजुर्गों, बच्चों की सेवा टहल के लिए अपनी सेवाएँ देने वालों के ऊपर है l इन लोगों का का किस तरह ऐजेंसी वाले शोषण करते हैं l बड़े घरों के लोग जो इनसे  तमाम सेवाएँ लेते हैं पर खाने-पीने, रहने का स्थान देने में भेदभाव करते हैं l ये कहानी ऐसी ही लड़की शशि के बारे में है जो अपनी माँ की जगह ‘एवजी’ के रूप में काम पर आई है l तो आइए चलते हैं शशि की अंगुली पकड़कर     दीपक शर्मा की कहानी एवज़ी            बंगले के बोर्ड पर चार नाम अंकित थे :  पति, बृजमोहन नारंग का;  पत्नी, श्यामा नारंग का;  बड़े बेटे, विजयमोहन नारंग का;  और छोटे बेटे इन्द्रमोहन नारंग का।    एजेंसी के कर्मचारी ने अपना पत्र बाहर पहरा दे रहे गार्ड को थमा दिया और बोला, ’’अन्दर अपनी मैडम को बता दो मालती की सबस्टीट्यूट (एवज़ी) आई है।’’ मालती मेरी माँ है मगर एजेंसी के मालिक ने कहा था, ’’क्लाइंट को रिश्ता बताने की कोई ज़रूरत नहीं…..।’ इस एजेंसी से माँ पिछले चौदह वर्षों से जुड़ी थीं। जब से मेरे पिता की पहली पत्नी ने माँ की इस शादी को अवैध घोषित करके हमें अपने घर से निकाल दिया था। उस समय मैं चार वर्ष की थी और माँ मुझे लेकर नानी के पास आ गई थीं। नानी विधवा थीं और एक नर्सिंग होम में एक आया का काम करती थीं और इस एजेंसी का पता नानी को उसी नर्सिंग होम से मिला था। एजेंसी अमीर घरों के बच्चों और अक्षम, अस्वस्थ बूढ़ों के लिए निजी टहलिनें सप्लाई करती थी। अपनी कमीशन और शर्तों के साथ। टहलिन को वेतन एजेंसी के माध्यम से मिला करता। उसका पाँचवाँ भाग कमीशन के रूप कटवाकर। साथ ही टहलिन क्लाइंट को छह महीने से पहले नहीं छोड़ सकती थी। यदि छोड़ती तो उसे फिर पूरी अवधि की पूरी तनख्वाह भी छोड़नी होती । माँ की तनख्वाह की चिन्ता ही ने मुझे यहाँ आने पर मजबूर किया था। अपने काम के पाँचवें महीने माँ को टायफ़ायड ने आन घेरा था और डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने मुझे पन्द्रह दिनों के लिए अपनी एवज़ में भेज दिया था ताकि उस बीच वे अपना दवा-दरमन और आराम नियमित रूप से पा सकें। बंगले के अगले भाग में एक बड़ी कम्पनी का एक बोर्ड टंगा था और उसके बरामदे के सभी कमरों के दरवाजों में अच्छी-खासी आवाजाही जारी थी। हमें बंगले के पिछले भाग में बने बरामदे में पहुँचाया गया । मेरा सूटकेस मुझे वहीं टिकाने को कहा गया और जभी मेरा प्रवेश श्यामा नारंग के वातानुकूलित आलीशान कमरे में सम्भव हो सका। उसका पैर पलस्तर में था और अपने बिस्तर पर वह दो तकियों की टेक लिए बैठी थी। सामने रखे अपने टी.वी. सेट का रिमोट हाथ में थामे। ’’यह लड़की तो बहुत छोटी है’’, मुझे देखते ही उसने नाक सिकोड़ ली। ’’नहीं, मैडम’’, एजेंसी का कर्मचारी सतर्क हो लिया, ’’हम लोगों ने इसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है और यह पहले भी कई जगह एवज़ी रह चुकी है। और किसी भी क्लाइंट को इससे कोई शिकायत नहीं रही…..’’ ’’जी मैडम’’, मैंने जोड़ा, ’’मैं छोटी नहीं, मेरी उम्र 20 साल है।’’              माँ ने मुझे चेता रखा था। अपनी आयु मुझे दो वर्ष बढ़ाकर बतानी होगी। साथ में अपने को अनुभवी टहलिनी भी बताना पड़ेगा। ’’अपना काम ठीक से जानती हो?’’ वह कुछ नरम पड़ गई। ’’जी, मैडम। टायलट सँभाल लेती हूँ। स्पंज बाथ दे सकती हूँ। कपड़े और बिस्तर सब चेंज कर सकती हूँ……’’ ’’क्या नाम है?’’ ’’जी कमला’’, अपना असली नाम, शशि मैंने छिपा लिया । ’’कहाँ तक पढ़ी हो?’’ ’’आठवीं तक’’, मैंने दूसरा झूठ बोला हालाँकि यू.पी. बोर्ड की इंटर की परीक्षा मैंने उसी साल दे रखी थी जिसका परिणाम उसी महीने निकलने वाला था। किसी भी दिन। ’’परिवार में कौन-कौन हैं?’’ ’’अपाहिज पिता हैं’’, मैंने तीसरा झूठ बोल दिया, ’’पाँच बहनें हैं और दो भाई…..’’ ’’तुम जा सकते हो’’, सन्तुष्ट होकर श्यामा नारंग ने एजेंसी के कर्मचारी की ओर देखा, ’’फ़िलहाल इसी लड़की को रख लेती हूँ। मगर तुम लोग अपना वादा भूलना नहीं, मालती पन्द्रह दिन तक ज़रूर मेरे पास पहुँच जानी चाहिए…..’’ ’’जी, मैडम….’’ उसके लोप होते ही श्यामा नारंग ने मुझे अपने हाथ धोने को बोला और फिर कमरे का दरवाज़ा बन्द करने को। सिटकिनी चढ़ाते हुए। मुझे उसे तत्काल शौच करवाना था। अपने हाथ धोने के उपरान्त हाथ धोने एवं शौच का कमोड लेने मैं उसके कमरे से संलग्न बाथरूम में गई तो उसमें पैर धरते ही मुझे ध्यान आया मुझे भी अपने को हल्का करना था। मगर उसका वह बाथरूम इतनी चमक और खूशबू लिए था कि मैं उसे प्रयोग में लाने का साहस जुटा नहीं पाई। हूबहू माँ के सिखाए तरीके से मैंने उसे शौच करवाया, स्पंज-स्नान दिया।             बीच-बीच में अपने वमन को रोकती हुई, फूल रही अपनी साँस को सँभालती हुई, अपनी पूरी ताकत लगाकर। थुलथुले, झुर्रीदार उसके शरीर को बिस्तर पर ठहराए-ठहराए। एकदम चुप्पी साधकर। उसकी प्रसाधन-सामग्री तथा पोशाक पहले ही से बिस्तर पर मौजूद रहीं : साबुन, पाउडर, तौलिए, क्रीम, ऊपरी भाग की कुरती-कमीज, एक पैर से उधेड़कर खोला गया पायजामा ताकि उसके पलस्तर के जाँघ वाला भाग ढँका जा सके। ’’मालूम है?’’ पायजामा पहनते समय वह बोल पड़ी, ’’मेरा पूरा पैर पलस्तर में क्यों है?’’ ’’नहीं, मैडम’’, जानबूझकर मैंने अनभिज्ञता जतलाई। ’’मैं बाथरूम में फिसल गई थी और इस टाँग की मांसपेशियों को इस पैर की एड़ी के साथ जोड़ने वाली मेरी नस फट गई थी। डॉक्टर ने लापरवाही दिखाई। उस नस की मेरी एड़ी के साथ सिलाई तो ठीक-ठाक कर दी मगर सिलाई करने के बाद उसमें पलस्तर ठीक से चढ़ाया नहीं। इसीलिए तीसरे महीने मुझे दोबारा पलस्तर चढ़वाना पड़ा….’’ ’’जी, मैडम’’, पायजामे का इलैस्टिक व्यवस्थित करते हुए मैं बोली। ’’आप लोग को एजेंसी वाले चुप रहने को बोलते हैं?’’ वह थोड़ी झल्लाई, ’’मालती भी बहुत चुप रहा करती थी….’’ मैं समझ गई  आगामी मेरी पढ़ाई की फ़ीस की चिन्ता में ध्यानमग्न माँ को उसकी … Read more

आप बच्चों को कैसी कहानियाँ सुनाते हैं ?

बचपन की बात याद करते ही जिस चीज की सबसे ज्यादा याद आती है वो हैं कहानियां | कभी दादी की कभी नानी की ,कभी माँ की कहानियां | पुराने समय से जो  एक परंपरा चली आ रही  है कहानी सुनने और सुनाने की वो आज भी यथावत कायम है | इतना जरूर हो गया है कि बच्चे अब कहानियों के लिए सिर्फ दादी ,नानी  पर निर्भर नहीं रह गए हैं कुछ हद तक वो अपनी भूख  बाल उपन्यासों व् टी वी सीरियल्स से भी शांत कर लेते हैं | ये  कहानियां बच्चों के विकास के लिए बहुत जरूरी हैं क्योंकि इनके माध्यम से हम उनकी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं ,उन्हें बहुत कुछ सिखा सकते हैं| आप अपने बच्चों को कैसे कहानियाँ सुनाते हैं   जरा इन उदाहरणों पर गौर करें …. !)निधि के जुड़वां बच्चों की चंचल प्रवृत्ति कभी-कभी उसे  परेशान कर देती ,वो इसी जुगत में लगी रहती कि कैसे एक साथ दोनों बच्चों को अच्छे  संभाल सके | दिन भर की थकान से चूर वह रात्रि में विश्राम करना चाहती , मगर बच्चे हैं  कि खेलने में मस्त, और बिना बच्चों को सुलाये वह सोये भी कैसे……?  आखिर कार उसने हल निकाल लिया , उसने बच्चों को बताया कि यहाँ रात को हौवा निकलता है ,जो दस फूट लंबा है सर पर सींग हैं ,और दांत तो इतने बड़े की एक दीवाल के पास खड़ा  हो तो दूसरी दीवाल पर टकराते हैं ,वो बच्चों की गर्दन में दांत घुसा कर खून पीता है बच्चे डर  गए और तुरंत सो गए |  तब उसकी मम्मी बच्चों को काल्पनिक हौवा का भय दिखाकर सुलाती है।अब  बच्चे भी डर के कारण जल्दी सो जाते हैं मगर यहीं पर हम भूल कर बैठते हैं। हमारी इस छोटी सी भूल के कारण बच्चे अनजाने में उस काल्पनिक हौवा का शिकार हो जाते हैं जो उन्हें बाद में अंदर ही अंदर खाये जाता  है।                          2 )एक बार चार वर्षीया सुमी  अपनी मम्मी के साथ बगीचे में टहल रही थी। अंधेरी झाड़ियों में जगमगाते जुगनुओं को देखकर उसने अपनी मम्मी से पूछा- ‘मम्मी ये चमकदार चीजें क्या हैं ?’ … ये नन्ही नन्ही लालटेन उठाये  परियां हैं  जो रात में तुम्हारी रक्षा करने आती है। रात भर तुम्हारे बिस्तर के पास पहरा देती है और सुबह चली जाती है।’ मम्मी ने दिलचस्प बनाते हुये कहा। तृप्ति जिज्ञासा से भर उठी। वह पूछने लगी-’क्या ये परियां रोज आती है  ?’ हां ! मम्मी ने कहा। सुमी परियों की कल्पना करके एक सुखद आश्चर्य से भर गयी | मगर दूसरे दिन शाम को बगीचे में उसकी मम्मी ने उसे रोते पाया। पूछने पर वह कहने लगी-’मम्मी मैं  परी को पकड़ना चाहती थी। पकड़ने के लिये झाड़ियों के पास गई और एक को पकड़ भी लिया, मगर यह तो गंदी मक्खी है…..।’ और वह सुबक सुबक कर रोने लगी। बहुत समझाने के बाद भी वह अपनी मम्मी की बातों पर विश्वास नहीं कर पायी। यहां यह बात सोचने योग्य है कि क्या सुमी की मम्मी को बात को इस कदर बढ़ा –चढ़ा कर पेश करना चाहिए था | क्या वो बच्चे को सच नहीं बता सकती थी|  3)सरला अपने बेटे को रोज कहानी बना कर सुनाती कि कैसे भगवान् से प्रार्थना कने से हर मांगी हुई वस्तु मिल जाती है | अपने बच्चे के सामने अपनी बात को सच सिद्द करने के लिए उसने नियम बना लिया कि बच्चा जब कुछ भी मांगता वो कहती” बेटा  जाओ मंदिर में भगवान् जी से प्रार्थना करो | शाम तक वो वह चीज स्वयं लाकर मंदिर में रख देती | बच्चा खुश हो कर सोचता भगवान् जी ने दिया है | पर इसका परिणाम आगे चल कर यह हुआ कि बच्चे को लगने लगा हर चीज भगवान् जी दे देते है तो मेहनत करने की क्या जरूरत है | सरला केवल अपने बेटे को धार्मिक बनाना चाहती थी पर उसने आलसी बना दिया | बच्चों पर कहानियाँ का होता है गहरा असर  आज आप  ५ से १२ साल तक के किसी मासूम बच्चे से उसके सपनों के बारे में बात करके देखिये |  आपको एक सपना कॉमन मिलेगा ……… वो की किसी दिन हैरी पॉटर की तरह उनके एक खास बर्थडे पर उनके लिए भी तिलिस्मी ,जादुई दुनिया से पत्र आएगा और वो भी उस स्कूल में पढने जायेंगे …..जहाँ उनकी जिंदगी बदल जाएगी | कुछ बच्चो ने झाड़ू पर बैठ कर उड़ने की भी कोशिश की व् चोट खायी | एक टीवी सीरियल शक्तिमान को देखकर कई बच्चे छत से ये सोंचकर कूदे  कि शक्तिमान उन्हें बचा लेगा | कहीं न कहीं यह सिद्ध करता है कि बच्चे कहानी में बताई गयी हर चीज को सच मान लेते हैं | आपमें से बहुत से लोगों ने ‘भूल –भुलैया’ देखी  होगी जिसमें नायिका एक मानसिक रोग की शिकार हो जाती है | मनो चिकित्सक  कारण पता करने पर  कहता है कि बचपन की दादी की कहानियों के असर से उसकी बुद्धि पर यह प्रभाव पड़ा कि बुराई पर अच्छाई  की विजय के लिए वो अपने मूल रूप को त्याग काल्पनिक रूप रख लेती थी |  कहनियाँ सुनाने का मकसद यही होता है कि बच्चों को जो चीज रोचक लगती है उसे वो आसानी से याद रखते हैं और जो रोचक नहीं लगती है उसे भूल जाते हैं | दादी नानी की काहनियों का पूरा संसार था | जिसमें बच्चों को रोचक कहानियों के माध्यम से नयी जानकारी , नीति शिक्षा व् जीवन दर्शन से परिचित कराया जाता था | और बच्चे इसे याद भी रखते थे |                       आप बच्चों को कहानियों के माध्यम से दे सकते हैं नैतिक शिक्षा  नन्हे बच्चो पर कहानियों का गहरा असर होता है और वो बच्चे के जीवन की दिशा दे सकती हैं | हमसे ज्यादा कहीं यह बात हमारे पूर्वज समझते थे इसीलिए पंच तंत्र ,हितोपदेश ,नीति कथाएँ आदि  की रचना बच्चो के लिए की गयी  | पहले स्कूलों में भी नैतिक शिक्षा का विषय होता था जिसमें कहानियों के माध्यम से बच्चों को नैतिक शिक्षा दी जाती थी | चाहते न चाहते बार –बार दोहराए जाने से अच्छे संस्कार उनके मन में बैठ जाते थे | आज जो समाज का … Read more