कुनबेवाला

“तुम बिलकुल जानवर हो ?”यह कह कर किसी इंसान का अपमान कर देना हम इंसानों की आदत में शुमार है | पर क्या जानवर इंसान से गया बीता है ? अगर वफादारी की बात करें तो नहीं | जहाँ इंसानी रिश्ते कदम -कदम पर ठगते हों वहां जानवर का हर हाल में रिश्ता निभाना मन को भावुक कर देता है | दीपक शर्मा जी की कहानी भी इंसान और जानवर (डॉग ) के रिश्तों को परिभाषित करी हुई कहानी है …. कुनबेवाला “ये दिए गिन तो|” मेरे माथे पर दही-चावल व सिन्दूर कातिलक लगा रही माँमुस्कुराती है| वह अपनी पुरानी एक चमकीली साड़ी पहने है| उस तपेदिक से अभी मुक्त है जो उसने तपेदिक-ग्रस्त मेरे पिता की संगति में पाया था| सन् १९४४ में| जिस वर्ष वह स्वर्ग सिधारे थे| “भाई को गिनती आती है,” साथ में बहन खड़ी है| रिबन बंधी अपनी दो चोटियों व नीली सलवार कमीज़ में| वैधव्य वाली अपनी उस सफ़ेद साड़ी में नहीं, जो सन् १९६०से ले कर सन् २०१० में हुई उस की मृत्यु तक उस के साथ लगी रही थी| “मुझसे सीखी है| आएगी कैसे नहीं?” कुछ ही दूरी पर बैठे नाना अपनी छड़ी घुमाते हैं| वह उसी स्कूल में अध्यापक थे जहाँ से हम बहन भाई ने मैट्रिक पास की थी| मैं ने, सन् १९४९ में| और बहन ने सन् १९५३ में| पिता के बाद हम नाना ही के घर पर पले-बढ़े थे| माँ की मृत्यु भी वहीं हुई थी| सन् १९५० में| “चौरासी हैं क्या?” मेरे सामने विशुद्ध बारह पंक्तियों में सात सात दिए जल रहे हैं| “हैप्पी बर्थडे, सर,” इधर मैं गिनती ख़त्म करता हूँ तो उधर माँ, बहन व नाना के स्थान पर आलोक आन खड़ा हुआ है| मेरे हर जन्मदिन पर मुझे बधाई देने आना उसे ज़रूरी लगता है| उस स्नेह व सत्कार के अन्तर्गत जिसे वह सन् १९७६ से मुझे देता आया है, जिस वर्ष उस की आगे की पढ़ाई का बीड़ा मैं ने ले लिया था| कुल जमा अठारह वर्ष की आयु में वह उस कॉलेज में बतौर लैब असिस्टेन्ट आया था, जिस की अध्यापिकी सैंतीस साल तक मेरी जीविका रही थी- सन् १९५३ से सन् १९९० तक- और आज वह उसी कॉलेज का प्रिंसीपल है| “गुड मॉर्निंग, सर,” जभी नंदकिशोर आन टपकता है| वहमेराभांजा है जिसे बहन ने मेरे हीघर पर बड़ा किया है और जिस के बड़े होने पर मैंने उसे अपने कॉलेज में क्लर्की दिलवायी रही| पढ़ाई में एकदम फिसड्डी जो रहा| साथ ही आलसी व लापरवाह भी| “तुम ने चौरासी पूजा नहीं रखवायी?” आलोक उसका बॉस तो है ही, उससे सवाल जवाब तो करता ही रहता है, “सर का चौरासीवाँ जन्मदिन है…..” “रौटी का शौक जो रहा,” प्रणाम की मुद्रा में मालती आन जुड़ती है| नंद किशोर की पत्नी| गंवार व फूहड़| बहन उसे अपनी ससुराल से लायी रही| उधर भी अपना सम्बन्ध बनाए रखने के निमित्त| वहां वाली ज़मीन में बेटे के हिस्से की खातिर| “रौटी का शौक?” आलोक मेरा मुँह ताकता है| “रौटी मेरा रौट व्हीलर है जिसे आलोक ही ने मुझे भेंट किया है| बहन की मृत्यु पर खेद प्रकट करने आया तो बोला मेरी रौट व्हीलर ने अभी पिछले ही सप्ताह पांच पप्सजने हैं| उन में से एक पप मैं आपको देना चाहूँगा| शायद वह आप की क्षति पूरी कर दे| उस के प्रस्ताव से मैं चौंका तो था, बहन की खाली जगह वह पप भर सकेगा भला? किन्तु प्रस्ताव आलोक की ओर से रहा होने के कारण मैं ने हामी भर दी थी और यकीनमानिए वह हामी यथा समय मेरे लिए विलक्षण उपहार ही सिद्ध हुई है| “इस युगल ने उसे मार डाला,” मैं कहता हूँ, “और अब यह मुझे मार डालने की तैयारी कर रहे हैं| अपने बेटे की दुल्हन के लिए इन्हें मेरा कमरा चाहिए…..” “धिक! धिक!” आलोककी धिक्कार तो मैं सुन पा रहा हूँ किन्तु उसे देख नहीं पा रहा….. वह लोप हो चुका है….. दृष्टिक्षेत्र में आ रहे हैं नंद-किशोर व मालती….. मेरे कमरे की वही खिड़कियां खोलते हुए, जिन्हें मैं हमेशा बंद रखता रहा हूँ….. मोटे पर्दों के पीछे…..  पर्दों के आगे विशालकाय मेरी टी.वी. जो रहा करती है, जिस का आनन्द लेने की इस युगल व इसके बेटे को सख़्त मनाही रही है….. मगर टी.वी. अब वहां है ही नहीं….. नही मेरी मेज़-कुर्सी जहाँ बैठ कर मैं अपना पढ़ता-लिखता हूँ….. न ही मेरा पलंग जहाँ मैं सोता हूँ….. मेरा कमरा मेरे होने का कोई प्रमाण नहीं रखता….. मैं वहां कहीं नहीं हूँ….. कमरा अब मेरा है ही नहीं….. (२) दु:स्वप्न के बारे में लोग-बाग सही कहते हैं, दु:स्वप्न निद्रक में केवल त्रास-भाव जगाता है, उसे कार्यान्वित नहीं करता| नो थर्ड एक्ट| तीसरा अंक नहीं रखता| बल्कि यूनानी देव-कथाएँ तो स्वप्न-दुस्वप्न लाने वाली एक त्रयी की बात भी करती हैं, जो निद्राजनक मिथक हिपनौज़ के पंखधारी त्रिक बेटे हैं : भविष्य-सूचक मौरफ़ियस, दु:स्वप्न-वाहक फ़ौबिटरवकल्पना-धारकफैन्टोसौस – जो विभिन्न छवियाँ लेकर पिता की घुप्प अँधेरी गुफ़ा सेचमगादड़ों की भांति निकलते हैं और उन्हें निद्रक पर लाद जाते हैं| कभी सामूहिक रूप से तो कभी पृथक हैसियत से| परिणाम: स्वप्न-चित्र कब अतीत को आन अंक भर ले, भविष्य – कब वर्तमान को निगल डाले, कोई भरोसा नहीं| दु: स्वप्न कब किसी मीठे सपने को आन दबोचे, कुछ पता नहीं| (३) मैं जाग गया हूँ| अपने बिस्तर पर हूँ| कमरे में कहीं भी कुछ यत्र-तत्र नहीं| मेरी पढ़ने वाली मेज़-कुर्सी खड़ी है| यथावत| खिड़कियाँ भी बंद हैं| यथा-नियम| रौटीमेरे पलंग की बगल में बिछेअपने बिस्तर पर ऊंघ रहा है|यथापूर्व| उसे मैं अपने कमरे ही में सुलाता हूँ| छठे साल में चल रहा रौटीअपना पूरा कदग्रहण कर चुका है : अढ़ाई फुट| वजन भी: साठ किलो| ठोस व महाकाय उस की उपस्थिति मेरामनोबल तो बढ़ाती ही है साथही मेरे अकेलेपन को भी मुझ से दूर रखती है| मेरी माँ और बहन के अतिरिक्त यदि किसी तीसरे ने मुझे सम्पूरित प्रेम दिया है तो इसी रौटी ने| विवाह मेरा हो नहीं पाया था| विवाह-सम्बन्धी अनुकूल अनेक वर्ष नाना के इलाज व सेवा- सुश्रुषा ने ले लिए थे जिन्हें कैन्सर ने आन दबोचा था| सन् १९५८ में| जिस वर्ष बहन की शादी की गयी थी| हमारी माँ नाना की इकलौती सन्तान थीं और ऐसे में मुझे छोड़ कर … Read more

पुरानी फाँक

पूर्वानुमान या इनट्युशन किसी को क्यों होता है इसके बारे में ठीक से कहा नहीं जा सकता | फिर भी ये सच है कि लोग ऐसे दावे करते आये हैं कि उन्हें घटनाओं के होने का पूर्वानुमान हो जाता है | ऐसी ही है इस कहानी  की नायिका बिल्लौरी  उर्फ़ उषा | लेकिन   बातों  के पूर्वानुमान के बाद भी क्या वो अपना भविष्य बदल सकी या भविष्य में होने वाले दर्दों को जिन्हें वो पहले ही महसूस करने में सफल हुई थी वो अतीत की पुरानी फाँक के रूप में उसे हमेशा गड़ते रहे | पढ़िए वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की कहानी … पुरानी फाँक सुबह मेरी नींद एक नये नज़ारेने तोड़ी है….. कस्बापुर के गोलघर की गोल खिड़की परमैं खड़ी हूँ….. सामने मेरे पिता का घर धुआँ छोड़ रहा है….. धुआँ धुहँ…… काला और घना….. मेरी नज़र सड़क पर उतरती है…… सड़क झाग लरजा रही है….. मुँहामुँह….. नींद टूटने पर यही सोचती हूँ, उस झाग से पहले रही किस हिंस्र आग को बेदम करने कैसे दमकल आए रहे होंगे….. हुँआहुँह….. सोचते समय दूर देश, अपने कस्बापुर का वह दिन मेरे दिमाग़ में कौंध जाता है….. “चलें क्या?” गोलघर के मालिक के बीमार बेटे सुहास का काम निपटाते ही मंजू दीदी मुझे उसके कमरे की गोल खिड़की छोड़ देने का संकेत देती हैं. “चलिए,” झट से मैं मंजू दीदी की बगल में जा खड़ी होती हूँ. वे मेरी नहीं मेरी सौतेली माँ की बहन हैं और मेरी छोटी-सी चूक कभी भी महाविपदा का रूप ग्रहण करसकती है….. हालाँकि उस खिड़की पर खड़े रहना मुझे बहुत भाता है. वहाँ से सड़क पार रहा वह दुमंजिला मकान साफ़ दिखाई दे जाता है जिसकी दूसरी मंजिल के दो कमरे मेरेपिताने किराये पर ले रखे हैं. ऊपर की खुली छत के प्रयोग की आज्ञा समेत. अपनीदूधमुँही बच्ची को अपनी छाती से चिपकाए घर के कामकाज मेंव्यस्त मेरी सौतेली माँ इस खिड़की से बहुत भिन्न लगती हैं- एकदम सामान्य और निरीह. उसके ठीक विपरीत अपनी मृत माँ मुझे जब-जब दिखाई देती हैं, वह हँस रही होती हैं या अपने हाथ नचाकर मेरी सौतेली माँ को कोई आदेश दे रही होती हैं….. “आप बताइए, सिस्टर,” सुहास मंजू दीदी को अपने पास आने का निमन्त्रण देता है, “आपकी यह बिल्लौरी कहती है, मेरी खिड़की से उसे भविष्य भी उतना ही साफ़ दिखाईदेता है जितना कि अतीत. यह सम्भव है क्या?” “मुझे वर्तमान से थोड़ी फुरसत मिले तो मैं भी अतीत या भविष्य की तरफ़ ध्यान दूँ.” मंजू दीदी को सुहास का मुझसे हेलमेल तनिक पसन्द नहीं, “जिन लोगों के पास फुरसत-ही-फुरसत है, वही निराली झाँकियाँ देखें……” “फुरसत की बात मैं नहीं जानता,” सुहास हँस पड़ा है, “लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ, वर्तमान से आगे या पीछे पहुँचना असम्भव है और इसीलिए आपकी बिल्लौरी को अपने वर्त्तमान में पूरी तरह सरक आना चाहिए…..” “बुद्धितो इसी बात में है.” मंजू दीदी मुझे घूरती हैं. “तुम्हें अपने वर्तमान को अनुभवों से भर लेना चाहिए.” सुहास मेरी ओर देखकर मुस्कराता है, “चूँकि तुम्हारे पास नये अनुभवों की कमी है, इसलिए तुम आने वाले अनुभवों का मनगढ़न्त पूर्व धारण करती हो या फिर बीत चुके अनुभवों का पुनर्धारण. तुम्हें केवल अपने वर्तमान को भरना चाहिए.” “वर्तमान?” घबराकर मैं अपनी आँखें मंजू दीदी के चेहरे पर गड़ा लेती हूँ. मेरा वर्तमान? खिड़की के उस तरफ़ एक भीषण रणक्षेत्र? और इस तरफ़ एक तलाकशुदा छब्बीस वर्षीय रईसजादे के साथ एक कच्चा रिश्ता? दोनों तरफ़ एक ढीठ अँधेरा? “चलें?” मंजू दीदी समापक मुद्रा से अपने हाथ का झोला मेरी ओर बढ़ा देती हैं. मैं उसे तत्काल अपनी बाँहों में ला सँभालती हूँ. उनके झोले में लम्बेदस्तानोंऔर ब्लडप्रेशरकफ़ के अतिरिक्त स्टेथोस्कोप भी रहता है. वे सरकारी अस्पताल में सीनियर नर्स हैं और अपने ख़ाली समय में सुहास के पास कई सप्ताह से आ रही हैं. अपनी सहायता के लिए वे मुझे भी अपने साथ रखती हैं. “कलयहबिल्लौरी गोलघर नहीं जाएगी.” मंजू दीदी आते ही बहन के सामने घोषणा करती हैं, “वहाँ मेरा काम बँटाने के बजाय मेरा ध्यान बँटा देती है…..” “कहाँ?” मैं तत्काल प्रतिवाद करती हूँ, “बिस्तर मैं बदलती हूँ. स्पंज मैं तैयार करती हूँ. तौलिए मैं भिगोती हूँ, मैं निचोड़ती हूँ…..” सुहासका काम करना मुझे भाता है. वैसेउसकीपलुयूरिसी अब अपने उतार पर है. उसके फेफड़ों को आड़ देने वाली उसकी पलुअर कैविटी, झिल्लीदार कोटरिका, में जमा हो चुके बहाव को निकालने के लिए जो कैथीटर ट्यूब, नाल-शलाका, उसकी छाती में फिट कर दी गयी थी, उसे अब हटाया जा चुका है. उसकी छाती और गरदन का दर्द भी लगभग लोप हो रहा है. उसकी साँस की तेज़ी और क्रेकल ध्वनि मन्द पड़ रही है और बुखार भी अब नहीं चढ़ रहा. “समझ ले!” मेरी सौतेली माँ मुझसे जब भी कोई बात कहती हैं तो इन्हीं दो शब्दों से शुरू करती हैं, “मंजू का कहा-बेकहा जिस दिन भी करेगी उस दिन तेरा एक टाइम का खाना बन्द…..” “मैंउनका कहा हमेशा सुनती हूँ.” सोलह वर्ष की अपनी इस आयु में मुझे भूख़ बहुत लगती है, “आगे भी सुनती रहूँगी.” “ठीक है.” मंजू दीदी अपनी बहन की गोदी में खेल रही उनकी बच्ची को मेरे कन्धे से ला चिपकाती है, “इसे थोड़ा टहला ला. छत पर ताज़ी हवा खिला ला.” माँ से अलग किए जाने पर आठ माह की बच्ची ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है. “मेरे पास खेलेगी?” मेरी सौतेली माँ उसकी ओर हाथ बढ़ाती हैं. अपनी बेटी को वे बहुत प्यार करती हैं. “अबछोड़िए भी.” मंजू दीदी उन्हें घुड़क देती हैं, “कुछ पल तो चैन की साँस ले लिया करें…..” “समझले,” मेरी सौतेली माँ अपने हाथ लौटा ले जाती हैं, “इसे अपने कन्धे से तूने छिन भर के लिए भी अलग किया तो मुझसे बुरा कोई न होगा.” उनकी आवाज़ में धमकी है. बच्ची और ज़ोर से रोने लगती है. उसके साथ मैं छत पर आ जाती हूँ. उसे चुप कराने के मैंने अपने ही तरीक़े ख़ोज रखे हैं. कभीमैंउसेऊपर उछालती हूँ तो वह अपने से खुली हवा में अपने को अकेली पाकर चुप हो जाती है….. याफिरउसकेसाथ-साथ जब मैं भीअपना गला फाड़कर रोने का नाटककरती हूँ तो वह मेरी ऊँची आवाज़ से डरकर अपना रोना बन्द कर दिया करती है, लेकिन उस दिन मेरे ये दोनों कौशल नाक़ाम रहते हैं…… तभीमेरी निगाह सुहास की … Read more

वो प्यार था या कुछ और था

जो मैं ऐसा जानती कि प्रीत किये दुःख होय , नगर ढिंढोरा पीटती , की प्रीत न करियो कोय                                                प्रेम , यानि हौले से मन के ऊपर दी गयी एक दस्तक और बावरा मन न जाने कैसे अपने ऊपर ही अपना हक़ खो देता है | आज कहा जा रहा है कि प्यार दो बार तीन बार …कितनी भी बार हो सकता है पर पहला पहला प्यार आज भी ख़ास है | पहले प्यार का अहसास ताउम्र साथ रहता है | तभी तो निशा एक ब्याहता होते हुए भी बार -बार बचपन की गलियों में उजास की तलाश में भटकती फिरती है | वो प्यार था या कुछ और था  दिल की गलियाँ सूनी हैं राहों पर ये कैसा अंधकार सा छाया आज ..तू ..! तू मुझे बहुत याद आया ……… “ कमला ! कैसा लगा मेरा ये शेर तुझे …बता न … “ निशा ने कमला से पूछना चाहा और अपने पास बुला कर बैड पर बैठने का इशारा किया । कमला जानती थी कि आज बीबी जी का मूड फिर कोई पुरानी बात या घटना का जिक्र करना चाहता था उससे ….फिर अपनी वही पुरानी घिसी पिटी कहानी …… “ कमला..! वो अक्सर आता था हमारे घर । अक्सर ..! नही .. नही , लगभग रोज ही । …… वो रोज ही हमारे घर आता था । मैं नही जानती थी कि क्यों आता था । लेकिन उसका आना मेरे मन को बहुत भाता था । ये बात बहुत पुरानी है कमला जब मैं छोटी थी । जब ये भी समझ नही थी मुझे ..कि प्यार क्या होता है “ निशा ने बैड पर पड़े -पड़े अपने अतीत के सुनहरे पलों को कमला से फिर बताना चाहा था । निशा न जाने कितनी ही बार बता चुकी थी कमला को ये सब बातें ..लेकिन आज फिर कहना शुरु कर दिया था उसने । “ कमला ..! मैं जब भी उदास होती हूँ न ! तो न जाने वो कहाँ से मेरे ज़हन में चुपके से आ कर, मुझ पर पूरी तरह से छा जाता है “ “ बीबी जी ! अब बस करो ! कब तक पीती रहोगी । देखो न ! क्या हाल कर लिया है अपना । अब हो गयी न आपकी शादी जीतू साहब जी से , पुरानी बातें काहे नही भूल जाती हो “ कमला ने पास आकर निशा का हाथ पकड़ कर प्यार से कहा । “ कमला ! तुझे क्या मालुम प्यार क्या होता है ? तू क्या समझेगी …ये तो मैं अब जाकर समझी हूँ ..पगली … तूझे नही मालूम कमला… आज जि़न्दगी दुबारा फिर मुझे वहाँ पर बहाए ले जा रही है । जिस उम्र में न कोई चिंता होती है , और न ही किसी बात की फिकर “ ये कहते हुए निशा फिर विस्की से अपने गिलास को भरने लगी थी । आज निशा की आँखों से नींद कोसों दूर थी । वो डुबो देना चाहती थी अपने को पूरी तरह से रीतेश की यादों में । रात का तीन बज चुका था । जीतू अभी तक नही आये थे अपनी ड्यूटी से …। पुलिस वालों को अक्सर देर हो ही जाती है । वो भी तब …..जब , वो जिम्मेदार पोस्ट पर होते हैं । “ बस करो बीबी जी ! भगवान के नाम पर बस …करो ..” कमला ने निशा के हाथ से गिलास लेना चाहा तो निशा ने उसे परे धकेल दिया था । निशा के ऊपर विस्की का पूरा असर हो चुका था । वो पूरा रौब दिखाते हुए कमला से कह उठी थी । “ तू ..तू ! कौन है री .. मुझे रोकने वाली .. जिसको मेरा ध्यान रखना चाहिए जब वो नही रखता …तो तू कौन है मेरी .. बता तो सही “ निशा कमला से पूछना चाहती थी । लेकिन कमला को बहुत गुस्सा आ रहा था निशा पर ..और आये भी क्यों न !.. बचपन से साथ है । वो निशा पर अपना पूरा अधिकार रखती थी । तभी तो तपाक से बोल उठी थी । “ जीबन है तो सब कुछ है बीबी जी । क्यों न रोके तुमको दारू पीने से ? तुम्हारे बिना हमारा है कौन ? छुटपन से तुमने ही तो हमारा ध्यान रखा है । हम नही देख सकते तुमको इस तरह से घुट- घुट कर मरते हुए “ कमला ने निशा की बात का तुरन्त जवाब तो दिया पर निशा के पास आ कर खड़ी हो गयी थी । कमला अच्छी तरह समझने लगी थी कि उसकी बीबी जी को अकेलापन खाये जा रहा है ।साहब जी को काम काज से फुर्सत नही है । अगर एक दो बच्चे होते तो शायद ध्यान भी बंटा रहता बीबी जी का । अब तक तो बच्चे भी बड़े हो चुके होते । हमारी बीबी जी की किस्मत में भी ईश्वर ने न जाने क्या लिखा है । सब कुछ तो है भगवान का दिया उनके पास ,लेकिन उनकी उदासी से ऐसा लगता है जैसे कुछ है ही नही उनके पास …। कमला के मुँह से एक लम्बी और ठंडी साँस निकली थी । कमला को खूब याद है वो अक्सर देखती थी …,कि पहले शौकिया साथ दे देती थीं बीबी जी पीने में साहब जी का ….लेकिन अब तो मुँह से ऐसी लगी है कि अकेलेपन से जब भी दुखी होती हैं तो अपने को भुलने के लिए पूरा डुबो देती हैं नशे में । साहब जी ने कितना मना किया था पर वो अब नही मानती हैं । शौक कब आदत बन जायेगा ये मालूम नही था उनको…….। कमला पास जा कर उसके बालों को सहराने लगी थी । निशा को लग रहा था कि उस पर नशा चढ़ने सा लगा है पर कमला को पास पा कर उसकी सुप्त भावनाएँ फिर जागने लगी थीं । उसने फिर कमला से अपने अतीत की बातें दोहरानी शुरु कर दी थीं ।…. “ मालुम है कमला ! मुझे और रीतेश दोनों को ..शाम का इन्तज़ार रहता था । कब शाम आये और … Read more

कुँजी

जैसे होने की उत्त्पत्ति ना होने से होती है , जीवन की मृत्यु से और प्रकाश की अन्धकार से …वैसे ही कई बार विलपत स्मृतियाँ उस समय के अँधेरे में और स्पष्ट होकर दिखाई देने लगतीं है जब परिस्थितियाँ  हमें दुनियावी चीजों से ध्यान हटा अंतरतम में झाँकने को विवश कर देती हैं | ये कहानी ऐसी ही विस्मृत स्मृतियों की है जो कई साल बाद मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद चेतन मन के अंधकार में  अवचेतन मन की गहराई से ना केवल प्रकट हुई बल्कि स्पष्ट भी हुईं | एक बार बचपन की स्मृतियों में अपने अंधे -माता -पिता को याद करते हुए अपने प्रश्नों के उत्तर भी मिले | अवचेतन द्वारा उत्तर दिया जाना शोध का विषय हो सकता है पर खानी का विषय स्त्री शोषण की वो दास्ताँ है जिसे उस समय वो बच्चा भी नहीं समझ पाया था | कुँजी बीती वह पुरानी थी….. लेकिन मोतियाबिंद के मेरे ऑपरेशन के दौरान जब मेरी आँखें अंधकार की निःशेषता में गईं तो उसकी कौंध मेरे समीप चली आई….. अकस्मात्….. मैंने देखा, माँ रो रही हैं, अपने स्वभाव के विरुद्ध….. और गुस्से में लाल, बाबा हॉल की पट्टीदार खिड़की की पट्टी हाथ में पकड़े हैं और माँ को नीचे फेंक रहे हैं….. अनदेखी वह कैसे दिख गई मुझे? धूम-कोहरे में लिपटी माँ की मृत्यु ने अपनी धुँध का पसारा खिसका दिया था क्या? अथवा मेरे अवचेतन मन ने ऑपरेशन की प्रक्रिया से प्रेरित मेरी आँख की पीड़ा कोपीछे धकेलने की ख़ातिर मुझे इस मानसिक दहल की स्थिति में ला पहुँचाया था? मेरा चेतन मन हिसाब बैठाता है : माँ की मृत्यु हुई, 28 फरवरी, 1956 की रात और मेरा ऑपरेशन हुआ 28 फरवरी, 2019 की शाम….. तिरसठ साल पीछे लौटता हूँ….. बाबा दहाड़ रहे हैं, “वह कुँजी मुझे चाहिए ही चाहिए…..” माँ गरज रही हैं, “वह कुँजी मेरे पास रहेगी. मेरे बाबूजी की अलमारी की है. मेरी संपत्ति है…..” 1904 में जन्मे मेरे नाना संगीतज्ञ थे. नामी और सफ़ल संगीतज्ञ. रेडियो पर प्रोग्राम देते, संगीत-गोष्ठियों में भाग लेते. विशिष्ट राष्ट्रीय कार्यक्रमों में बुलाए जाते. अपनेअड़तीसवें वर्ष, 1942 में, उन्होंने अपनी पुश्तैनी इमारत की ऊपरी मंजिल पर अपना विद्यालय स्थापित किया : सुकंठी संगीत विद्यालय. बोर्ड के निचले भाग पर लिखवाया : शिष्याओं के लिए पृथक कक्ष एवं पृथक शिक्षिका की व्यवस्था. लड़कियों को माँ पढ़ाती थीं. वे नाना की इकलौती संतान थीं और ‘सुकंठी’ उन्हीं का नाम था. अपने नाम के अनुरूप उनके कंठ में माधुर्य और अनुशासन का ऐसा जोड़ था कि जो भी सुनता, विस्मय से भर उठता. लेकिन वे अंधी थीं. ऐसे में 1946 में जब सत्रह वर्षीय बाबा नाना के विद्यालय में गाना सीखने आए तो नाना ने उन्हें अपने पास धर लिया. बीस वर्षीया अपनी सुकंठी के लिए बाबा उन्हें सर्वोपयुक्त लगे थे. बाबा अंधे थे. अनाथ थे. सदाचारी थे. तिस पर इतने विनम्र और दब्बू कि प्रतिभाशाली होने के बावजूद अहम्मन्यता की मात्रा उनमें शून्य के बराबर थी. नाना उन्हें ‘नेपोलियन थ्री’ कहा करते. ‘नेपोलियन टू’ इसलिए नहीं क्योंकि वह उपाधि वे माँ को पहले दे चुके थे. उन दिनों नेपोलियन को सफ़लता और दृढ़निश्चय का पर्याय माना जाता था और नेपोलियन की परिश्रम-क्षमता का एक किस्सा नाना सभी को सुनाया करते : एक रात काउंसलर थककर ऊँघने लगे तो नेपोलियन ने उन्हें डांटा , ‘हमें जागते रहना चाहिए, अभीतो सिर्फ़ दो बजे हैं. अपने वेतन के बदले में हमें पूरा-पूरा काम देना चाहिए.’ नेपोलियन के एक भक्त उनकी बात सेबहुत प्रभावित हुएऔरअपने साथी काउंसलरों सेबोले, ‘ईश्वर ने बोनापार्ट बनाया और फिर आराम से चला गया.’ काम करने की ख़ब्त नाना, माँ और बाबा को बराबर की रही, लेकिन बाबा रात को देर में सोते थे और सुबह देर से उठते थे. इसकेविपरीत नाना और माँ रात में जल्दी सोने के आदी रहे और सुबह जल्दी जग जाने के. माँऔरबाबाके तनाव का मुख्य बिंदु भी शायद यही रहा. आज स्वीकार किया जा रहाहै कि हममें से कुछ लोग फ़ाउल्ज(चिड़ियाँ), मॉर्निंग पीपल (प्रातः कालीन जीव) होते हैं और कुछ आउल्ज(उल्लू), नाइट पीपल(रात्रि जीव). किंतु बाबा को माँका जल्दी सो जाना अग्राह्य लगता. शायद इसीलिए उन्होंने शराब पीनी शुरू की. नाना के जीवनकाल में छुपकर और बाद में खुल्लमखुल्ला. मेरा जन्म सन उनचास में हुआ था, माँ और बाबा की शादी के अगले वर्ष. मेरी प्रारंभिक स्मृतियाँ उषाकाल से जुड़ी हैं : नाना के शहद-घुले गुनगुने पानी के भरे चम्मच से….. नाना के हाथ के छीले हुए बादाम से, जोरात में भिगोए जाते थे….. नानाऔरमाँकी संगति में किए गए सूर्य-नमस्कार से….. माँ और नाना द्वारा गिने जा रहे और हस्तांतरित हो रहे रुपयों और सिक्को से….. कब्ज़ेदार दो लोहे के पत्तरों की स्लेट के बीच काग़ज़ रखते हुए माँ के हाथों से….. काग़ज़ पर ‘रेज्ड डॉट्स (ऊपर उठाए गए बिंदु) लाने के लिए उन पत्तरों में बने गड्ढों पर काग़ज़ दबाते हुए माँ के स्टाइलस से….. माँ ब्रेल बहुत अच्छा जानती थीं. और सच पूछिए तो मैंने अपने गणित के अंक और अंग्रेजी अक्षर अपने स्कूल जाने से पहले ब्रेल के माध्यम से सीख रखे थे. और ब्रेल मुश्किल भी नहीं. इसके कोड में तिरसठ अक्षर और बिंदु अंकन है. प्रत्येक वर्ण छह बिन्दुओं के एक सेल में सँजोया जाता है, जिसमें दो वर्टीकल, सीधे खानों में एक से लेकर छह ‘रेज्ड डॉट्स’ की पहचान से उसका विन्यास निश्चित किया जाता है. अपने तीसरे ही वर्ष से मैं नाना के पास सोने लगा था….. हॉल के दाएँ कमरे में….. नाना की निचली मंजिल पर बनी चार दुकानों के ऐन ऊपर बना वह हॉल नाना ने तीन कक्षों में बाँट रखा था, दो छोटे और एक बड़ा. हॉल में चार आदम-कद, पट्टीदार खिड़कियाँ थीं, जो सड़क की तरफ़ खुलती थीं और हर एक खिड़की के ऐन सामने बीस फुट की दूरी पर एक-एक दरवाज़ा था जो अन्दर आँगन में खुलता. बड़ाकक्ष दो खिड़कियाँ और दो दरवाज़े लिए था और दाएँ-बाएँ के दोनों कक्ष एक-एक खिड़की और एक-एक दरवाज़ा. बाएँ कक्ष में नाना ने विद्यालय का दफ़्तर खोल रखा था और दाएँ कक्ष को वे निजी, अनन्य प्रयोग में लाते थे. उसी कक्ष में उनका पलंग था. उनके कपड़ों की घोड़ी थी, उनकी किताबों का रैक था, उनके निजी संगीत वाद्य थे और वह अलमारी जिसमें रूपया रहता … Read more

उपच्छाया

उपच्छाया का शाब्दिक अर्थ है मूल छाया से इतर पड़ने वाली छाया अर्थात आंशिक छाया | ये कहानी भी ऐसी  ही है | १९५५ की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी ये कहानी दो भाई -बहनों के अपने अस्तबल के घोड़ों के लिए नाल बनाते लुहारों से बातचीत पर  आधारित है परन्तु इस कहानी पर महराना प्रताप की वीरता की छाया पड़ रही है | वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी अपनी खास शैली के लिए जानी जाती हैं | उनकी कहानियों से पाठक को दो लाभ होते हैं …एक तो साहित्य के अनूठे रस में डूबता ही है, दूसरे कहानी के माध्यम से उसे सम्बंधित विषय की काफी जानकारी भी हो जाती है | इस कहानी में भी हथियार बनाने वाले गाडूरिया लोहारों के विषय में बहुत दुर्लभ जानकारी मिलती है | एक तरफ वो लोग हैं जो आज भी देश के लिए अपनी कसम निभा रहे हैं तो दूसरी तरफ वो लोग हैं जिन्होंने सुविधाओं के लिए अपने ही नहीं देश के भी स्वाभिमान से समझौता कर लिया | स्वतंत्रता दिवस पास ही है | ऐसे में ये कहानी  आपको देश और अपने कर्तव्यों  के विषय में सोचने पर जरूर विवश कर देगी |  उपच्छाया बहन मुझ से सन् १९५५ में बिछुड़ी| उस समय मैं दस वर्ष का था और बहन बारह की| “तू आज पिछाड़ी गयी थी?” एक शाम हमारे पिता की आवाज़ हम बहन-भाई के बाल-कक्ष में आन गूँजी| बहन को हवेली की अगाड़ी-पिछाड़ी जाने की सख़्त मनाही थी|अगाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ अजनबियों की आवाजाही लगी रहती थी| लोकसभा सदस्य, मेरे दादा, के राजनैतिक एवं सरकारी काम-काज अगाड़ी ही देखे-समझे जाते थे| और पिछाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ हमारा अस्तबल था, जहाँ उन दिनों एक लोहार-परिवार घोड़ों के नाल बदल रहा था| “मैं ले गया था,” बहन के बचाव के लिए मैं तत्काल उठ खड़ा हुआ| “उसे साथ घसीटने की क्या ज़रुरत थी?” पिता ने मेरे कान उमेठे| “लड़की ही सयानी होती तो मना नहीं कर देती?” दरवाज़े की ओट सुनाई दे रही चूड़ियों की खनक हमारे पास आन पहुँची| पिछले वर्ष हुई हमारी माँ की मृत्यु के एक माह उपरान्त हमारे पिता ने अपना दूसरा ब्याह रचा डाला था और हमारी सौतेली माँ उस छवि पर खरी उतरती थीं जो छवि हमारी माँ ने हमारे मन में उकेर रखी थी| रामायण की कैकेयी से ले कर परिकथाओं की ‘चुड़ैल-रुपी सौतेली माँ के’ हवाले से| “भूल मेरी ही है,” बहन पिता के सामने आ खड़ी हुई, “घोड़ों के पास मैं ही भाई को ले कर गयी थी…..” “घोड़ों के पास या लोहारों के पास?” नई माँ ठुनकीं| उस लोहार-परिवार में तीन सदस्य थे : लोहार, लोहारिन और उनका अठारह-उन्नीस वर्षीय बेटा| “हमें घोड़ों के नाल बदलते हुए देखने थे,” मैं बोल पड़ा, “और वे नाल वे लोहार-लोग बदल रहे थे…..” “वही तो!” नई माँ ने अपनी चूड़ियाँ खनकायीं, “टुटपुंजिए, बेनाम उन हथौड़ियों के पास जवान लड़की का जाना शोभा देता है क्या?” “वे टुटपुंजिए नहीं थे,” मैं उबल लिया, “एक बैलगाड़ी के मालिक थे| कई औज़ारों के मालिक थे| और बेनाम भी नहीं थे| गाडुलिया लोहार थे| हमारी तरह चित्तौरगढ़ के मूल निवासी थे…..” “लो,” नई माँ ने अपनी चूड़ियों को एक घुमावदार चक्कर खिलाया, “उन लोग ने हमारे संग साझेदारी भी निकाल ली| हमारी लड़की को अपने साथ भगा ले जाने की ज़मीन तैयार करने के वास्ते…..” “आप ग़लत सोचती हैं,” मैं फट पड़ा, “वे लोग हम से रिश्ता क्यों जोड़ने लगे? वे हमें देशद्रोही मानते हैं क्योंकि हम लोग ने पहले मुगलों की गुलामी की और फिर अंगरेज़ों की…..” “ऐसा कहा उन्होंने?” हमारे पिता आगबबूले हो लिए| “यह पूछिए ऐसा कैसे सुन लिया इन लोग ने? और यही नहीं, सुनने के बाद इसे हमें भी सुना दिया…..” “यह सच ही तो है,” पहली बार उन दोनों का विरोध करते समय मैं सिकुड़ा नहीं, काँपा नहीं, डरा नहीं, “जभी तो हम लोग के पास यह बड़ी हवेली है| वौक्सवेगन है| दस घोड़े हैं| एम्बैसेडर है| तीन गायें हैं| दो भैंसे हैं…..” “क्या बकते हो?” पिता ने एक ज़ोरदार तमाचा मेरे मुँह पर दे मारा| “भाई को कुछ मत कहिए,” बहन रोने लगी, “दंड देना ही है तो मुझे दीजिए…..” “देखिए तो!” नई माँ ने हमारे पिता का बिगड़ा स्वभाव और बिगाड़ देना चाहा, “कहती है, ‘दंड देना ही है तो…..’ मानो यह बहुत अबोध हो, निर्दोष हो, दंड की अधिकारी न हो…..” “दंड तो इसे मिलेगा ही मिलेगा,” हमारे पिता की आँखें अंगारे बन लीं “लेकिन पहले भड़कुए अपने साईस से मैं उन का नाम-पता तो मालूम कर लूँ| वही उन्हें खानाबदोशों की बस्ती से पकड़ कर इधर हवेली में लाया था…..” “उन लोहारों को तो मैं भी देखना चाहती हूँ,” नई माँ ने आह्लादित हो कर अपनी चूड़ियाँ खनका दीं, “जो हमारे बच्चों को ऐसे बहकाए-भटकाए हैं…..” “उन्हें तो अब पुलिस देखेगी, पुलिस धरेगी| बाबूजी के दफ़्तर से मैं एस.पी. को अभी फ़ोन लगवाता हूँ…..” हमारे पिता हमारे बाल-कक्ष से बाहर लपक लिए| बहन और मैं एक दूसरे की ओर देख कर अपनी अपनी मुस्कराहट नियन्त्रित करने लगे| हम जानते थे वह लोहार-परिवार किसी को नहीं मिलने वाला| वह चित्तौरगढ़ के लिए रवाना हो चुका था| (२) उस दोपहर जब मैं पिछली तीन दोपहरों की तरह अस्तबल के लिए निकलने लगा था तो बहन मेरे साथ हो ली थी, “आज साईस काका की छुट्टी है और नई माँ आज बड़े कमरे में सोने गयी हैं…..” बड़ा कमरा मेरे पिता का निजी कमरा था और जब भी दोपहर में नई माँ उधर जातीं, वे दोनों ही लम्बी झपकी लिया करते| अपने पिता और नई माँ की अनभिज्ञता का लाभ जैसे ही बहन को उपलब्ध हुआ था, उसे याद आया था, स्कूल से उसे बग्घी में लिवाते समय साईस ने उस दोपहर की अपनी छुट्टी का उल्लेख किया था| पुराना होने के कारण वह साईस हमारे पिता का मुँह लगा था और हर किसी की ख़बर उन्हें पहुँचा दिया करता| और इसी डर से उस दोपहर से पहले बहन मेरे संग नहीं निकला करती थी| वैसे इन पिछली तीन दोपहरों की अपनी झाँकियों की ख़ाका मैं बहन को रोज़ देता रहा था : कैसे अपनी कर्मकारी के बीच लोहार, लोहारिन और लोहार-बेटा गपियाया करते और किस प्रकार कर्मकारी उन … Read more

मंगत पहलवान

अटूट बंधन में आप वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कई कहानियाँ पढ़ चुके हैं | कई बार उनकी कहानियों में मुख्य कथ्य अदृश्य हो है जिस कारण वो बहुत मारक हो जाती हैं | प्रस्तुत कहानी मंगत पहलवान भी रहस्यात्मक शैली में आगे बढती है और पाठक को अंत तक बाँधे  रखती है | रहस्य खुलने पर हो सकता है आप ये कहानी दुबारा पढ़ें | तो आइये शुरू करते हैं … कहानी – मंगत पहलवान ‘कुत्ता बँधा है क्या?’ एक अजनबी ने बंद फाटक की सलाखों के आर-पार पूछा| फाटक के बाहर एक बोर्ड टंगा रहा- कुत्ते से सावधान! ड्योढ़ी के चक्कर लगा रही मेरी बाइक रुक ली| बाइक मुझे उसी सुबह मिली थी| इस शर्त के साथ कि अकेले उस पर सवार होकर मैं घर का फाटक पार नहीं करूँगा| हालाँकि उस दिन मैंने आठसाल पूरे किए थे| ‘उसे पीछे आँगन में नहलाया जा रहा है|’ मैंने कहा| इतवारके इतवार माँ और बाबा एक दूसरे की मदद लेकर उसे ज़रूर नहलाया करते| उसे साबुन लगाने का जिम्मा बाबा का रहता और गुनगुने पानी से उस साबुन को छुड़ाने का जिम्मा माँ का| ‘आज तुम्हारा जन्मदिन है?’ अजनबी हँसा- ‘यह लोगे?’ अपने बटुए से बीस रुपए का नोट उसने निकाला और फाटक की सलाखों में से मेरी ओर बढ़ा दिया| ‘आप कौन हो?’ चकितवंत मैं उसका मुँह ताकने लगा| अपनी गरदन खूब ऊँची उठानी पड़ी मुझे| अजनबी ऊँचे कद का रहा| ‘कहीं नहीं देखा मुझे?’ वह फिर हँसने लगा| ‘देखा है|’ –मैंने कहा| ‘कहाँ?’ ज़रूर देख रखा था मैंने उसे, लेकिन याद नहीं आया मुझे, कहाँ| टेलीफोन की घंटी ने मुझे जवाब देने से बचा लिया| ‘कौन है?’ टेलीफोन की घंटी सुनकर इधर आ रही माँ हमारी ओर बढ़ आयीं| टेलीफोन के कमरे से फाटक दिखाई देता था| ‘मुझे नहीं पहचाना?’ आगन्तुक हँसा| ‘नहीं| नहीं पहचाना|’ माँ मुझे घसीटने लगीं| फाटक से दूर| मैं चिल्लाया, ‘मेरा बाइक| मेरा बाइक…..’ आँगन में पहुँच लेने के बाद ही माँ खड़ी हुईं| ‘हिम्मत देखो उसकी| यहाँ चला आया…..|’ ‘कौन?’ बाबा वुल्फ़ के कान थपथपा रहे थे| जो सींग के समान हमेशा ऊपर की दिशा में खड़े रहते| वुल्फ़ को उसका नाम छोटे भैयाने दिया था- ‘भेड़िए और कुत्ते एक साझे पुरखे से पैदा हुए हैं|’ तीन साल पहले वही इसे यहाँ लाए रहे- ‘जब तक अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई करने हेतु मैं यह शहर छोडूँगा, मेरा वुल्फ़ आपकी रखवाली के लिए तैयार हो जाएगा|’ और सच ही में डेढ़ साल के अन्दर वुल्फ़ ने अपने विकास का पूर्णोत्कर्षप्राप्त कर लिया था| चालीस किलो वजन, दो फुट ऊँचाई, लम्बी माँस-पेशियाँ, फानाकर सिर, मजबूत जबड़े, गुफ़्फ़ेदार दुम और चितकबरे अपने लोम चर्मके भूरे और काले आभाभेद| ‘हर बात समझने में तुम्हें इतनी देर क्यों लग जाती है?’ माँ झाल्लायीं- ‘अब क्या बताऊँ कौन है? ख़ुद क्यों नहीं देख आते कौन आया है? वुल्फ़ को मैं नहला लूँगी…..|’ “कौन है?’ बाबा बाहर आए तो मैं भी उनके पीछे हो लिया| ‘आज कुणाल का जनमदिन है’- अजनबी के हाथ में उसका बीस का नोट ज्यों का त्यों लहरा रहा था| ‘याद रख कचहरी में धरे तेरे बाज़दावे की कापी मेरे पास रखी है| उसका पालन न करने पर तुझे सज़ा मिल सकती है…..’ ‘यह तुम्हारे लिए है’-अजनबी ने बाबा की बात पर तार्किक ध्यान न दिया औरबेखटके फाटक की सलाखों में से अपना नोट मेरी ओर बढ़ाने लगा| ‘चुपचाप यहाँ से फुट ले’-बाबा ने मुझे अपनी गोदी में उठा लिया- ‘वरना अपने अलसेशियन से तुझे नुचवा दूँगा…..|’ वह गायब हो गया| ‘बाज़दावा क्या होता है?’ मैंने बाबा के कंधे अपनी बाँहों में भर लिए| ‘एक ऐसा वादा जिसे तोड़ने पर कचहरी सज़ा सुनाती है…..|’ ‘उसने क्या वादा किया?’ ‘अपनीसूरत वह हमसे छिपाकर रखेगा…..|’ ‘क्यों?’ ‘क्योंकि वह हमारा दुश्मनहै|’ इस बीच टेलीफोन की घंटी बजनी बंद हो गयी और बाबा आँगन में लौट लिए| दोपहर में जीजी आयीं| एक पैकेट केसाथ| ‘इधर आ’-आते ही उन्होंने मुझे पुकारा, ‘आज तेरा जन्मदिन है|’ मैं दूसरे कोने में भाग लिया| ‘वह नहीं आया?’ माँ ने पूछा| ‘नहीं’-जीजी हँसी- ‘उसे नहीं मालूम मैं यहाँ आई हूँ| यही मालूम है मैं बाल कटवा रही हूँ…..|’ ‘दूसरा आया था’-माँ ने कहा- ‘जन्मदिन का इसे बीस रूपया दे रहा था, हमने भगा दिया…..|’ ‘इसे मिला था?’ जीजी की हँसी गायब ही गयी| ‘बस| पल, दो पल|’ ‘कुछ बोला क्या? इससे?’ ‘इधर आ’-जीजी ने फिर मुझे पुकारा- ‘देख, तेरे लिए एक बहुत बढ़िया ड्रेस लायी हूँ…..|’ मैं दूसरे कोने में भाग लिया| वे मेरे पीछे भागीं| ‘क्या करती है?’ माँ ने उन्हें टोका- ‘आठवाँ महीना है तेरा| पागल है तू?’ ‘कुछ नहीं बिगड़ता’-जीजी बेपरवाही से हँसी- ‘याद नहीं, पिछली बार कितनी भाग-दौड़ रही थी फिर भी कुछ बिगड़ा था क्या?’ ‘अपना ध्यान रखना अब तेरी अपनी ज़िम्मेदारी है’-माँ नाराज़ हो ली- ‘इस बार मैं तेरी कोई ज़िम्मेदारी न लूँगी…..|’ ‘अच्छा’-जीजी माँ के पास जा बैठीं- ‘आप बुलाइए इसे| आपका कहा बेकहा नहीं जाता…..|’ ‘इधर आ तो’-माँ ने मेरी तरफ़ देखा| अगले पल मैं उनके पास जा पहुँचा| ‘अपना यह नया ड्रेस देख तो|’ जीजी ने अपने पैकेट की ओर अपने हाथ बढ़ाए| ‘नहीं|’ –जीजी की लायी हुई हर चीज़ से मुझे चिढ़ रही| तभी से जब से मेरे मना करने के बावजूद वे अपना घर छोड़कर उस परिवार के साथ रहने लगी थीं, जिसका प्रत्येक सदस्य मुझे घूर-घूर कर घबरा दिया करता| ‘तू इसे नहीं पहनेगा?’ –माँ ने पैकेट की नयी कमीज और नयी नीकर मेरे सामने रख दी- ‘देख तो, कितनी सुंदर है|’ बाहर फाटक पर वुल्फ़ भौंका| ‘कौन है बाहर?’ बाबा दूसरे कमरे में टी.वी. पर क्रिकेट मैच देख रहे थे- ‘कौन देखेगा?’ ‘मैं देखूँगी?’ –माँ हमारे पास से उठ गयीं- ‘और कौन देखेगा?’ मैं भी उनके पीछे जाने के लिए उठ खड़ा हुआ| ‘वह आदमी कैसा था, जो सुबह आया रहा?’ जीजी धीरे से फुसफुसायीं| अकेले में मेरे साथ वेअकसर फुसफुसाहटों में बात करतीं| अपने क़दम मैंने वहीं रोक लिए और जीजी के निकट चला आया| उस अजनबी के प्रति मेरी जिज्ञासा ज्यों की त्यों बनी हुई थी| ‘वह कौन है?’ मैंने पूछा| ‘एक ज़माने का एक बड़ा कुश्तीबाज़’-जीजी फिर फुसफुसायीं- ‘इधर, मेरे पास आकर बैठ| मैं तुझे सब बताती हूँ…..|’ ‘क्या नाम है?’ ‘मंगत पहलवान…..|’ ‘फ्री-स्टाइल वाला?’ कुश्ती के बारे … Read more

ऊँट की पीठ

एक लोकगीत जो कई बार ढोलक की थाप पर सुना है, “विदा करके माता उऋण हुईं, सासरे की मुसीबत क्या जाने |” एक स्त्री के लिए हमारा समाज आज भी वैसा ही है | एक ओर ब्याह देने के बाद चाहें कितना भी दुःख हो वापस उसके लिए घर के दरवाजे नहीं खोले जाते  वहीँ दूसरी ओर अगर अगर ससुराल अच्छी नहीं है तो उसके पास घुट-घुट के जीने और मरने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता | एक ऐसा ही दर्द उकेरती है दीपक शर्मा जी की कहानी “ऊँट की पीठ” अब इसमें कौन ऊँट है जिसकी पीठ तमाम कारगुजारियों के बाद ऊँची ही रहती है ये तो आप को कहानी पढने पर ही पता चलेगा …. ऊँट की पीठ “रकम लाए?” बस्तीपुर के अपने रेलवे क्वार्टर का दरवाज़ा जीजा खोलते हैं. रकम, मतलब, साठ हज़ार रुपए….. जो वे अनेक बार बाबूजी के मोबाइल पर अपने एस.एम.एस. से माँगे रहे….. बाबूजी के दफ़्तर के फ़ोन पर गिनाए रहे….. दस दिन पहले इधर से जीजी की प्रसूति निपटा कर अपने कस्बापुर के लिए विदा हो रही माँ को सुनाए रहे, ‘दोहती आपकी. कुसुम आपकी. फिर उसकी डिलीवरी के लिए उधार ली गयी यह रक़म भी तो आपके नामेबाकी में जाएगी…..’ “जीजी कहाँ हैं?” मैं पूछता हूँ. मेरे अन्दर एक अनजाना साहस जमा हो रहा है, एक नया बोध. शायद जीजा के मेरे इतने निकट खड़े होने के कारण. पहलीबार मैं ने जाना है अब मैं अपने कद में, अपने गठन में, अपने विस्तार में जीजा से अधिक ऊँचा हूँ, अधिकमज़बूत, अधिक वज़नदार. तीन वर्ष पहले जब जीजी की शादी हुई रही तो मेरे उस तेरह-वर्षीय शरीर की ऊँचाई जीजा की ऊँचाई के लगभग बराबर रही थी तथा आकृति एवँ बनावट उन से क्षीण एवँ दुर्बल. फिर उसी वर्ष मिली अपनी आवासी छात्रवृत्ति के अन्तर्गत कस्बापुर से मैं लखनऊ चला गया रहा और इस बीच जीजी से जब मिला भी तो हमेशा जीजा के बगैर. “उसे जभी मिलना जब रक़म तुम्हारे हाथ में हो,” जीजा मेरे हाथ के मिठाई के डिब्बे को घूरते हैं. लिप्सा-लिप्त. उन की ज़बान उनके गालों के भीतरी भाग में इधर-उधर घूमती हुई चिन्हित की जा सकती है. मानोअपनीधमकी को बाहर उछालने से पहले वे उस से कलोल कर रहे हों. अढ़ाईवर्ष के अन्तराल के बाद. जिस विकट जीजा को मैं देख रहा हूँ वे मेरे लिए अजनबी हैं : छोटी घुन्नी आँखें, चौकोर पिचकी हुई गालें, चपटी फूली हुई नाक, तिरछे मुड़क रहे मोटे होंठ, गरदन इतनी छोटी कि मालूमदेता है उनकी छाती उनके जबड़ोंऔर ठुड्डी के बाद ही शुरू हो लेती है. माँ का सिखाया गया जवाब इस बार भी मैं नहीं दोहराता, “रुपयों का प्रबन्ध हो रहा है. आज तो मैं केवल अपनी हाई स्कूल की परीक्षा में प्रदेश भर में प्रथम स्थान पाने की ख़ुशी में आप लोगों को मिठाई देने आया हूँ.” अपनी ही ओर से जीजी को ऊँचे सुर में पुकारता हूँ, “जीजी…..” “किशोर?” जीजी तत्काल प्रकट हो लेतीहैं. एकदम खस्ताहाल. बालों में कंघी नहीं….. सलवारऔरकमीज़, बेमेल….. दुपट्टा, नदारद….. चेहरा वीरान और सूना….. ये वही जीजी हैं जिन्हें अलंकार एवँ आभूषण की बचपन ही से सनक रही? अपने को सजाने-सँवारने की धुन में जो घंटों अपने चेहरे, अपने बालों, अपने हाथों, अपने पैरों से उलझा करतीं? जिस कारण बाबूजी को उन की शादी निपटाने की जल्दी रही? वे अभी अपने बी.ए. प्रथम वर्ष ही में थीं जब उन्हें ब्याह दिया गया था. क्लास-थ्री ग्रेड के इन माल-बाबू से. “क्या लाया है?” लालायित, जीजी मेरे हाथ का डिब्बा छीन लेती हैं. खटाखट उसे खोलती हैं और ख़ुशी से चीख़ पड़ती हैं, “मेरी पसन्द की बरफ़ी? मालूम है अपनी गुड़िया को मैं क्या बुलाती हूँ? बरफ़ी…..” बरफ़ी का एक साबुत टुकड़ा वे तत्कालअपने मुँह में छोड़ लेती हैं. अपने से पहले मुझे खिलाने वाली जीजी भूल रही हैं बरफ़ी मुझे भी बहुत पसन्द है. यह भी भूल रही हैं हमारे कस्बापुर से उनका बस्तीपुर पूरे चार घंटे का सफ़र है और इस समय मुझे भूख़ लगी होगी. “जीजा जी को भी बरफ़ी दीजिए,” उनकी च्युति बराबर करने की मंशा से मैं बोल उठता हूँ. “तेरे जीजा बरफ़ी नहीं खाते,” ठठाकर जीजी अपने मुँह में बरफ़ी का दूसरा टुकड़ा ग्रहण करती हैं, “मानुष माँस खाते हैं. मानुष लहू पीते हैं. वे आदमी नहीं, आदमखोर हैं…..” “क्या यह सच है?” हड़बड़ाकर मैं जीजा ही की दिशा में अपना प्रश्न दाग देता हूँ. “हाँ. यह सच है. इसे यहाँ से ले जा. वरना मैं तुम दोनों को खा जाऊँगा. सरकारी जेल इस नरक से तो बेहतर ही होगी…..” “नरक बोओगे तो नरक काटोगे नहीं? चिनगारी छोड़ोगे तो लकड़ी चिटकेगी नहीं? मुँह ऊँट का रखोगे और बैठोगे बाबूजी की पीठ पर?” “जा,” जीजा मुझे टहोका देते हैं, “तू रिक्शा ले कर आ. इसे मैं यहाँ अब नहीं रखूँगा. यह औरत नहीं, चंडी है…..” “तुम दुर्वासा हो? दुर्वासा?” जीजी ठीं-ठीं छोड़तीहैं और बरफ़ी का तीसरा टुकड़ा अपने मुँह में दबा लेती हैं. “जा. तू रिक्शा ले कर आ,” जीजा मुझे बाहर वाले दरवाज़े की ओर संकेत देते हैं, “जब तक मैं इस का सामान बाँध रहा हूँ…..” भावावेग में जीजी और प्रचण्ड हो जाती हैं, “मैं यहाँ से कतई नहीं जाने वाली, कतई नहींजाने वाली…..” “जा, तू रिक्शा ला,” जीजा की उत्तेजना बढ़ रही है, “वरना मैं इसे अभी मार डालूँगा…..” किंकर्तव्यविमूढ़मैंउन के क्वार्टर से बाहर निकल लेता हूँ. बाबूजीका मोबाइल मेरे पास है. उन के आदेश के साथ, ‘कुसुम के घर जाते समय इसे स्विच ऑफ़ कर लेना और वहाँ से बाहर निकलते ही ऑन. मुझे फ़ौरन बताना क्या बात हुई. और एक बात और याद रहे इस पर किसी भी अनजान नम्बर से अगर फ़ोन आए तो उसे उठाना नहीं.’ सन्नाटा खोजनेके उद्देश्य से मैं जीजी के ब्लॉक के दूसरे अनदेखे छोर पर आ पहुँचाहूँ. सामने रेल की नंगी पटरी है. उजड़ एवँ निर्जन. माँ मुझे बताए भी रहीं जीजी के क्वार्टर से सौ क़दम की दूरी पर एक रेल लाइन है जहाँ घंटे घंटे पर रेलगाड़ी गुज़रा करती है. बाबूजीके सिंचाई विभाग के दफ़्तर का फ़ोन मैं मिलाता हूँ. हाल ही में बाबूजी क्लास-थ्री के क्लर्क-ग्रेड से क्लास-टू में प्रौन्नत हुए हैं. इस समय उनके पास अपना अलग दफ़्तर हैऔर अलग टेलीफ़ोन. “हेलो,” बाबूजी … Read more

जीवन का सत्य

“संसार से भागे फिरते हो भगवान् को तुम क्या पाओगे” चित्रलेखा फिल्म का यह लोकप्रिय गीत जीवन के सत्य को बहुत कुछ उजागर करता है | यूँ तो मन की शांति के लिए बहुत सारे आश्रम हैं जहाँ लोग जाते हैं , ध्यान संयम सीखते हैं , परन्तु क्या कोई गृहस्थ अचानक से संन्यास ले ले तो उसके मन में पीड़ा नहीं होगी ? क्या उसकी घर -गृहस्थी बिखरेगी नहीं ? कर्म को प्रधानता देने वाला हमारा धर्म कर्म से भागने का सन्देश नहीं देता | पढ़िए जीवन के इसी सत्य को उजागर करती किरण सिंह जी की लोकप्रिय कहानी … जीवन का सत्य  अरे – अरे यह मैं कहाँ आ गई? अपनी हमउम्र श्याम वर्णा तराशे हुए नैन नक्श वाली साध्वी को अपनी खाट के बगल में काठ की कुर्सी पर बैठे हुए देखकर मीना कुछ घबराई हुई सी उससे पूछ बैठी। साध्वी वृक्ष के तना के समान अपनी खुरदुरी हथेली उसके सर पर फेरती हुई बोली बहन घबराओ नहीं तुम सुरक्षित स्थान पर आ गई हो। मीना – लेकिन कहाँ? और फिर मैं यहाँ कैसे आ गई? साध्वी बगल में रखे हुए एक केतली में से तुलसी पत्ता, अदरक और गुड़ का काढ़ा स्टील के गिलास में उड़ेलती हुई बोली उठो बहन पहले काढ़ा पी लो मैं सब बताती हूँ। वैसे भी इतनी ठंड है और तुम नदी में… अपने प्रश्न को अधूरा छोड़ते हुए ही साध्वी दूसरा प्रश्न कर बैठी आखिर ऐसी कौन सी मुसीबत आन पड़ी थी बहन कि ईश्वर का दिया हुआ इतना सुन्दर उपहार को ही समाप्त करने जा रही थी वो तो अच्छा हुआ कि तुम्हें बचाने के लिए अपने दूत प्रेमानन्द को ईश्वर ने भेज दिया था वर्ना……… इतना सुन्दर शरीर ईश्वर ने दिया है तुम्हें और जहाँ तक मैं तुम्हें समझ पा रही हूँ अच्छे – खासे घर की लग रही हो साध्वी किसी ज्योतिषाचार्य की भांति मीना का भूत, भविष्य और वर्तमान गिन रही थी और काढ़ा के एक – एक घूंट के साथ – साथ मीना की कड़वी यादें भी उसके मन जिह्वा को कसैला कर रहीं थीं और आँसू पलकों में आकर अटक गये थे जो ज़रा भी भावनाओं के वेग से टपक पड़ते। गलत कहते हैं लोग कि स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती हैं सच तो यह है कि पुरुष ही अपनी अहम् तथा स्वार्थ की सिद्धि के लिए एक स्त्री के पीठ पर बंदूक रखकर चुपके से दूसरी स्त्री पर वार करते हैं जिसे स्त्री देख नहीं पाती और वह मूर्खा स्त्री को ही अपनी शत्रु समझ बैठती है। सोचते – सोचते अविनाश के थप्पड़ की झनझनाहट को वह भी दूसरी औरत के लिये उसके गालों पर पुनः महसूस होने लगे और अश्रु बूंदें टपककर उसके घाव पर मरहम लगाने लगे लेकिन पीड़ा अधिक होने पर मरहम कहाँ काम कर पाता है और उसमें भी अपनो से मिली हुई पीड़ाएँ तो कुछ अधिक ही जख्म दे जाती हैं। मीना सोचती है कि मायके भी तो माँ से ही होता है न। आज मेरी माँ जिन्दा होती तो क्या मुझे मायके से इस कदर लौटाती जैसे पिता जी ने समझा बुझाकर मुझे उसी घर में जाने को बोल दिया जहाँ से पति थप्पड़ मार कर खदेड़ दिया हो? नहीं, नहीं माँ एक स्त्री थी वह जरूर मेरे दुख, दर्द, तथा भावनाओं को समझती।अपनी माँ को याद करते – करते मीना को अचानक अपने बच्चे याद आ गये और वह तड़प उठी। मीना सोचने लगी इस उम्र में मैं अपनी स्वर्गवासी माँ को याद करके रो रही हूँ और मैं खुद एक माँ होते हुए भी जीते जी अपने बच्चों को कसाई के हवाले कर आई। क्या अविनाश (बच्चों के पिता) बच्चों पर हाथ न उठायेंगे? ओह मैं भी कितनी स्वार्थी निकली। मीना अपनी कायरता से खिन्न विवश साध्वी के गले लग कर फूट-फूट कर रो पड़ी। साध्वी मीना को समझाते हुए बोली मत रो बहन,अब तुम ईश्वर के शरण में आ गई हो इसलिए मोह माया का त्याग करो। मान लो तुम यदि डूब गई होती तो..? तो कौन तुम्हारे बच्चों को देखता? जिस ईश्वर ने जन्म दिया है वही पालन पोषण भी करेगा तुम आराम करो अभी । देखो तो तुम्हारा वदन कितना तप रहा है। साध्वी के स्पर्श में एक अपनापन था इसलिए मीना उसकी बात मान कर सोने का प्रयास करने लगी।मीना जब सुबह उठी तो कुछ ठीक महसूस कर रही थी। तभी साध्वी फिर वही काढ़ा लिये पहुंचती है और पूछती है कैसी हो बहन?मीना – अब कुछ अच्छी हूँ बहनसाध्वी – तो चलो आज मैं तुम्हें गुरू जी से मिलाती हूँ।मीना अपने आँखों से ही हामी भर दी।साध्वी गेरूआ रंग का वस्त्र देते हुए मीना से बोली नहा लो फिर चलते हैं। मीना नहा धोकर गेरुआ वस्त्र लपेटे बिल्कुल साध्वी लग रही थी। वह यन्त्रवत साध्वी के पीछे – पीछे चलने लगी। साध्वी एक कमरे में ले गई जहाँ पूरे घर में मटमैले रंग की दरी बिछी हुई थी जिसपर करीब सौ साध्वी और साधु जिनकी उम्र भी करीब – करीब पच्चीस से पचास वर्षों के बीच की होगी। कमरे के एक तरफ ऊँची सी चौकी जिसपर सफेद रंग का मखमली चादर बिछा हुआ था। चादर के ऊपर दो मसनद जिसपर गेरूआ मखमली खोल लगा था। गुरु जी मसनद के सहारे बैठे थे। साध्वी उनके सामने जाकर पहले पाँव छूकर प्रणाम की तो पीछे से मीना ने भी नकलची बन्दरों की तरह ठीक वैसे ही प्रणाम कर लिया। गुरु जी अपने दाहिने हाथो को आशिर्वाद मुद्रा में ले जाकर दोनो को आशिर्वाद दिये और बैठने का इशारा कर दिये। साध्वी गुरु जी के उपदेश का पालन करते हुए एक तरफ मीना के साथ बैठ गई। गुरु जी का उपदेश चालू था। मीना मन्त्र मुग्ध हो सुनी जा रही थी। अशांत चित्त को कुछ शांति मिल रही थी। गुरु जी का प्रवचन समाप्त हुआ। सभी उठ कर जाने लगे तो गुरु जी के इशारे पर साध्वी ने मीना को रोक लिया। साध्वी भी कमरे में से जाने लगी तो मीना को थोड़ी घबराहट हुई तो साध्वी उसे भांपकर बोली घबराओ मत बहन मैं बाहर ही हूँ। आज तुम्हें गुरु जी दीक्षा देंगे मतलब तुम्हारे कान में मंत्र बोलेंगे जिसे तुम याद … Read more

बिटर पिल

यूँ तो ये जिंदगी एक बिटर पिल ही है जिसे हमें चाहे अनचाहे गटकना ही पड़ता है | ज्यादातर लोग इसे आसानी से गटक जाते हैं क्योंकि वो इसे जस का तस स्वीकार कर लेते हैं | हालाँकि सही या गलत, उचित या अनुचित,निर्णय-अनिर्णय के  बीच में हर कोई एक सीमा में झूलता है, परन्तु जब ये सीमा अपनी  हद से ज्यादा बढ़ जाती है तो मनोविछछेद (psychosis) के लक्षण नज़र आने लगते हैं | वैसे psychosis एक umbrella टर्म है , जिसके अंदर अनेकों लक्षण  आते हैं, लेकिन मुख्य रूप से ये उन चीजों को महसूस  करना है जो नहीं होती या विश्वास करना जिन का वास्तविकता से कोई संबंध  ना हो | एक दर्द और दहशत भरी जिन्दगी की इस बिटर पिल को गटकना बहुत -बहुत मुश्किल है | तो आइये पढ़ें एक वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की एक ऐसी ही मोवैज्ञानिक कहानी … बिटर पिल  वेन इट स्नोज इन योर नोज़ यू कैच कोल्ड इन योर ब्रेन (‘हिम जब आपके नाक में गिरती है तो ठंडक आपके दिमाग़ को जा जकड़ती है’) –ऐलन गिंज बर्ग “यह मोटर किसकी है?” अपने बँगले के पहले पोर्टिको में कुणाल की गाड़ी देखते ही अपनी लांसर गेट ही पर रोककर मैं दरबान से पूछता हूँ. हाल ही में तैनात किए गये इस नये दरबान को मैं परखना चाहता हूँ, हमारे बारे में वह कितना जानता है. “बेबी जी के मेहमान हैं, सर!” दरबान अपने चेहरे की संजीदगी बनाये रखता है. बेटीअपनी आयु के छब्बीसवें और अपने आई.ए.एस. जीवन के दूसरे वर्ष में चल रही है, किन्तु पत्नी का आग्रह है कि घर के चाकर उसे ‘बेबी जी’ पुकारें. घर में मेमसाहब वही एक हैं. “कब आये?” “कोई आधा घंटा पहले…..” अपनी गाड़ी मैं बँगले के दूसरे गेट के सामने वाले पोर्टिको की दिशा में बढ़ा ले आता हूँ. मेरे बँगले के दोनों छोर पर गेट हैं और दोनों गेट की अगाड़ी उन्हीं की भाँति महाकाय पोर्टिको. सात माह पूर्व हुई अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद एक फाटक पर मैंने ताला लगवा दिया है. दोनों सरकारी सन्तरी जो मुझे लौटा देने पड़े, और दो दरबान अब अनावश्यक भी लगते हैं. पोर्टिको के दायें हाथ पर मेरा निजी कमरा है जिसकी चाभी मैं अपने ही पास रखता हूँ. पहले सरकारी फाइलों की गोपनीयता को सुरक्षित रखने का हीला रहा और अब एकान्तवास का अधियाचन है. “हाय, अंकल!” कुणाल मुझे मेरे कमरे की चाभी के साथ उसके दरवाज़े ही पर आ पकड़ता है. “कुणाल को आपसे काम है पापा.” बेटी उसकी बगल में आ खड़ी हुई है. “उधर खुले में बैठते हैं.” मेरे क़दम लॉबी की ओर बढ़ लेते हैं. अपने कमरे की चाभी मैं वापस अपनी जेब को लौटा देता हूँ. दोनों मेरे साथ हो लेते हैं. मेरे डग लम्बे हो रहे हैं. कुणाल को अपना दामाद बनाने कामुझे कोई चाव नहीं. उसकी अपार सम्पदा के बावजूद. किन्तु बेटी के दृढ़ संकल्प के सामने मैं असहाय हूँ. तीन वर्ष पूर्व एम.ए. पूरा करते ही उसने अपने इस बचपन के सहपाठी के संग विवाह करने की इच्छा प्रकट की तो मैंने शर्त रख दी थी, बेटी को पहले आई.ए.एस. में आना होगा. और अपने को आदर्श प्रेमिका प्रमाणित करने की उसे इतनी उतावली रही कि वह अपने पहले ही प्रयास में कामयाब हो गयी. फिरअपनी ट्रेनिंग के बाद उसने जैसे ही अपनी पोस्टिंग इधर मेरे पास, मेरे सम्पर्क-सूत्र द्वारा, दिल्ली में पायी है, कुणाल के संग विवाह की उसकी जल्दी हड़बड़ी में बदल गयी है. फलस्वरूप चार माह पूर्व उसकी मँगनी करनी पड़ी है और अब अगले माह की आठवीं को उसके विवाह की तिथि निश्चित की है. “कहो!” लॉबी के सोफ़े पर मैं बैठ लेता हूँ. “अंकल…..” कुणाल एक सरकरी पत्र मेरे हाथ में थमा देता है, “पापा को सेल्स टैक्स का बकाया भरने का नोटिस आया है…..” मेरे भावी समधी का कनाट प्लेस में एक भव्य शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है, दो करोड़ का. “इसकी कोई कॉपी है?” मैं पूछता हूँ. “यह कॉपी ही है,” बेटी कहती है, “हम जानते हैं इस आदेश से छुटकारा दिलवाना आपके बायें हाथ का खेल है…..” वह सच कह रही थी. छत्तीस वर्ष अपने आई.ए.एस. के अन्तर्गत मेरे पास चुनिंदा सरकारी डेस्क रहे हैं और दो चोटी के विभाग. फिर साहित्य और खेलकूद के नाम पर खोले गये कई मनोरंजन क्लबों का मैं आज भी सदस्य हूँ और मेरे परिचय का क्षेत्र विस्तृत है. “मैं देख लूँगा.” कुणाल का काग़ज़ मैं तहाने लगाता हूँ. तभी मेरा मोबाइल बज उठता है. उधर ओ.एन. है. जिस अधिकरण में अगली एक तारीख को एक जगह ख़ाली हो रही है, उस जगह पर उसकी आँख है. मेरी तरह. आई.ए.एस. में हम एक साथ आये थे और हमें कैडर भी एक ही मिला था और उसकी तरह मैंने भी अपनी नौकरी की एक-तिहाई अवधि इधर दिल्ली ही में बितायी है. “तुमने सुना जी.पी. की जगह कौन भर रहा है?” वह पूछता है. “तुम?” मैं सतर्क हो लेता हूँ, “उस पर तुम्हारा ही नाम लिखा है…..” “कतई नहीं. उस पर एक केन्द्रीय मन्त्री के समधी आ रहे हैं….. आज लैटर भी जारी हो गया है…..” नाम बूझने के लिए मुझे कोई प्रयास नहीं करना पड़ा है. “कोई भी आये!” अपने संक्षोभ को छिपाना मैं बखूबी जानता हूँ. “सो लौंग देन…..” “सो लौंग…..” इस बीच कुणाल को बाहर छोड़कर बेटी मेरे पास आ खड़ी हुई है. “कुणाल घबरा रहा था,” मेरे मोबाइल बन्द करने पर वह कहती है, “आप अपनी सहानुभूति उसे दें न दें…..” “हं….. हं.” मैं अपने कन्धे उचकाता हूँ, “मैं अपने कमरे में चलूँगा. मुझे कुछ फ़ोन करने हैं……” “पपा आप इतने लोगों को फ़ोन क्यों करते हैं?” अपनी खीझ प्रकट करने में बेटी आगा-पीछा नहीं करती, तुरन्त व्यक्त कर देती है, “यह कमीशन, वह कमीशन, क्यों? यह ट्रिब्यूनल, वह ट्रिब्यूनल, क्यों? यह बोर्ड, वह बोर्ड, क्यों? यह कमिटी, वह कमिटी, क्यों? क्यों कुछ और हथियाना चाहते हैं, जब आपके पास घर में तमाम वेबसाइट हैं, ढेरों-ढेर म्यूजिक हैं, अनेक किताबें हैं…..” “और जो मुझे कॉफ़ी पीनी हो? तो किससे माँगू?” “आपको मात्र कॉफ़ी पिलाने की ख़ातिर मैं अपनी सत्ताइस साल की नौकरी छोड़ दूँ? जिसके बूते आज मैं अपनी बेटी की शादी का सारा गहना-पाती ख़रीद रही हूँ…..!” पत्नी अपने … Read more

उसका जवाब

जो स्त्री अपने घर में सबकी सफलता के लिए सीढ़ी बनती है , क्यों उसके सपनों में कोई साथ नहीं देता ? क्यों घर के पुरुष अपने पर आश्रित स्त्री को तो प्रेम करते हैं परन्तु अपने वजूद के लिए संघर्ष करती स्त्री से विरक्ति ? सदियों से त्याग को ही चुनती आई किसी स्त्री को प्रेम या सम्मान में से आज भी केवल एक ही चुनने को मिले तो क्या होगा उसका जवाब ?  कहानी -उसका जवाब  ४० की उम्र कोई, एक ऐसी उम्र होती है जब हर औरत  एक हिसाब में उलझती है|  वो हिसाब होता है उसके बीते वर्षों का | जहाँ उसने बेटी, बहन पत्नी और माँ का किरदार तो तो बखूबी से निभाया होता है, अपने लिए उसकी जिंदगी की किताब के पन्ने कोरे ही रहते हैं | इसीलिए बहुधा इसी उम्र में  एक तड़प सी उठती है अपने लिए कुछ करने की | मोहिनी  भी ऐसी ही कुछ पशोपेश में थी | बरसों हो गए अपनी जिन्दगी पीछे छूटे हुए| आज अपनी पुरानी रैक साफ़ कर रही थी कि आयल पेंट्स की ट्यूब दिखाई दी | ट्यूब्स  तो   सूख गयीं थी पर उन्हें देख कर उसके सपने जिंदा हो गए| उसने खुद को जी लेने की ख्वाइश में पेंटिंग करने का मन बनाया| रात को खाने की टेबल पर उसने अपनी इच्छा को पवन को बताया|   “तो मोहतरमा पेंटिंग्स बनायेंगी” कह कर पवन इतनी जोर से हंसे  की गिलास का पानी छलक गया | फिर खुद को संयत कर के बोले “अरे भई ये क्या सूझ रहा है तुम्हे इस उम्र में | मेरी जान तुम तो मेरे जीवन में रंग भरती हो … उतना ही काफी है |” पवन के चेहरे पर तैरती मुस्कान मोहनी को कहीं गहरे चुभ गयी |   “उतना ही काफी नहीं है”, मोहिनी  ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा | उसका कहने का ढंग ऐसा था की पवन  सकते में आ गया  | खाना छोड़ कर मोहिनी  की तरफ देखने लगा  | मोहिनी  ने आगे बोलना शुरू किया,” मैं  इस बात में सीरियस हूँ पवन  | मैं अब अपने वजूद की तलाश करना चाहती हूँ |” “वजूद की तलाश … भूल जाओ, मत सोंचो ये बड़े-बड़े शब्द | इतने चित्रकार है, एक बस तुम्हारा ही वजूद है इस दुनिया में जिसके आते ही उन सबका धंधा-पानी बंद हो जाएगा और सब तुम्हारी आरती उतारने लगेंगे| बेकार समय बर्बाद करोगी | यूँ ही घर में कुछ रंगना चुनना है, तो किसने रोका है |” पवन  बिना रुके बोलता गया | विवाह के इतने वर्षों बाद भी पवन के इस रूप से वो   आज तक अनजान थी |  ये वो पवन हैं जिनकी एक-एक इच्छा के लिए वो  अपनी जान भी कुर्बान करने को तैयार रहती थी, और वो उसे मानसिक रूप से थोडा सा सहारा भी देने को तैयार नहीं थे | मोहिनी खाना आधा छोड़ कर कमरे में चली आई | तकिया मुँह  में दबा कर घंटों रोती रही | तभी उसका छोटा भाई श्याम आया | उसे रोता देख कर अचम्भे में पड़  गया | श्याम ने इतने सालों तक उसे हँसते–मुस्कुराते हुए ही देखा था|  उसके सुखों की मिसाल दी जाती थी | घबरा कर श्याम ने उसके सर पर हाथ रख कर पूछा , “क्या हुआ दीदी, सब ठीक तो है?” “श्याम, मैं भी अब कुछ करना चाहती हूँ | बच्चे भी तो अब हॉस्टल चले गए हैं, खाली समय काटने को दौड़ता है बस उसी को भरने के लिए मैंने पेंटिंग्स बनाने की सोची है , लेकिन सिर्फ घर के स्तर पर नहीं, मैं चित्रकारी में अपना भविष्य बनाना चाहती हूँ | पर तुम्हारे जीजाजी नहीं मान रहे हैं, ऊपर से ताना और देते हैं कि इस उम्र में चित्रकारी करोगी”  मोहिनी  ने रोते हुए कहा | “अरे दीदी ! बस इतनी सी बात, जो मन आये करो, जीजाजी अभी मना  कर रहे हैं बाद में मान जायेंगे |”  श्याम के इन शब्दों ने उसका हौसला बहुत बढ़ा दिया | उसने चित्रकारी शुरू की | पवन  ने कोई रूचि नहीं दिखाई | उसने ढेर सारे चित्र बनाए | पर इनको लोगों तक कैसे पहुँचायें |  ये उसे पता नहीं था | डरते डरते उसने एक ब्लॉग बनाया व् फेसबुक अकाउंट भी |  जहाँ वो चित्र डालने लगी | उसके चित्र पसंद किये जाने लगे , पर ये वो दिन थे जब उसे अपनी क्षमता और प्रतिभा पर विश्वास नहीं था, वो कभी कभी डरते डरते पवन  से कहती कि, “प्लीज देख लीजिये मेरे चित्रों को कितने लोग पसंद  कर रहे हैं, एक बार आपकी स्वीकृति की भी मोहर लग जाती | पवन मुंह  बना कर जवाब देता ,  “अब इन फ़ालतू कामों के लिए समय नहीं है मेरे पास | दिन भर ऑफिस में खटो फिर बीबी  के चित्रों पर वाह-वाह करो|”  उसका मन दुखी हो जाता | क्यों बनाए,  किसके लिए बनाए ये चित्र | बाहर वाले तो दिल खोलकर तारीफ कर रहे हैं पर जिसे सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए  को तो देखना गंवारा ही नहीं है |  एक बार फिर तुलिका हाथों से छूटने लगी और सपने बेरंग होने लगे | कई दिन हो गए चित्र बनाना तो दूर एक लाइन भी नहीं खींची गयी | बहुत दिन बाद फेसबुक खोल कर देखा, मित्र उससे नए चित्र की माँग  कर रहे थे | इन बेगाने लोगों के अपनेपन ने उसे अंदर तक भिगो दिया | पर एक सच्चाई ये भी थी कि बाहर के लोगों के प्रेरणा  से चलती हुई गाड़ी  तो खिंचती पर रुकी  हुई गाड़ी नहीं स्टार्ट नहीं होती …उसके लिए किसी उसका  बल जरूरी होता है जो बहुत पास हो | पहले ख्याल आया कि थोड़ी सी प्रेरणा के लिए बेटी को फोन लगाए पर अपने ख्याल को यह सोच कर दफ़न कर दिया कि वो बेचारी  अपनी जिन्दगी के तनाव झेल ही रही है , उसकी इच्छा जानते ही उसे  समझने में देर नहीं लगेगी कि पापा ने मम्मी का साथ  नहीं दिया है | उसके मन में अपने पापा की एक आदर्श छवि है वो उसे नहीं टूटने देना चाहती थी | अपनेपन की आशा में उसने डरते डरते श्याम को फोन किया ,” हेलो, भैया मेरे चित्र मेरे ब्लॉग पर बहुत पसंद … Read more