कुनबेवाला
“तुम बिलकुल जानवर हो ?”यह कह कर किसी इंसान का अपमान कर देना हम इंसानों की आदत में शुमार है | पर क्या जानवर इंसान से गया बीता है ? अगर वफादारी की बात करें तो नहीं | जहाँ इंसानी रिश्ते कदम -कदम पर ठगते हों वहां जानवर का हर हाल में रिश्ता निभाना मन को भावुक कर देता है | दीपक शर्मा जी की कहानी भी इंसान और जानवर (डॉग ) के रिश्तों को परिभाषित करी हुई कहानी है …. कुनबेवाला “ये दिए गिन तो|” मेरे माथे पर दही-चावल व सिन्दूर कातिलक लगा रही माँमुस्कुराती है| वह अपनी पुरानी एक चमकीली साड़ी पहने है| उस तपेदिक से अभी मुक्त है जो उसने तपेदिक-ग्रस्त मेरे पिता की संगति में पाया था| सन् १९४४ में| जिस वर्ष वह स्वर्ग सिधारे थे| “भाई को गिनती आती है,” साथ में बहन खड़ी है| रिबन बंधी अपनी दो चोटियों व नीली सलवार कमीज़ में| वैधव्य वाली अपनी उस सफ़ेद साड़ी में नहीं, जो सन् १९६०से ले कर सन् २०१० में हुई उस की मृत्यु तक उस के साथ लगी रही थी| “मुझसे सीखी है| आएगी कैसे नहीं?” कुछ ही दूरी पर बैठे नाना अपनी छड़ी घुमाते हैं| वह उसी स्कूल में अध्यापक थे जहाँ से हम बहन भाई ने मैट्रिक पास की थी| मैं ने, सन् १९४९ में| और बहन ने सन् १९५३ में| पिता के बाद हम नाना ही के घर पर पले-बढ़े थे| माँ की मृत्यु भी वहीं हुई थी| सन् १९५० में| “चौरासी हैं क्या?” मेरे सामने विशुद्ध बारह पंक्तियों में सात सात दिए जल रहे हैं| “हैप्पी बर्थडे, सर,” इधर मैं गिनती ख़त्म करता हूँ तो उधर माँ, बहन व नाना के स्थान पर आलोक आन खड़ा हुआ है| मेरे हर जन्मदिन पर मुझे बधाई देने आना उसे ज़रूरी लगता है| उस स्नेह व सत्कार के अन्तर्गत जिसे वह सन् १९७६ से मुझे देता आया है, जिस वर्ष उस की आगे की पढ़ाई का बीड़ा मैं ने ले लिया था| कुल जमा अठारह वर्ष की आयु में वह उस कॉलेज में बतौर लैब असिस्टेन्ट आया था, जिस की अध्यापिकी सैंतीस साल तक मेरी जीविका रही थी- सन् १९५३ से सन् १९९० तक- और आज वह उसी कॉलेज का प्रिंसीपल है| “गुड मॉर्निंग, सर,” जभी नंदकिशोर आन टपकता है| वहमेराभांजा है जिसे बहन ने मेरे हीघर पर बड़ा किया है और जिस के बड़े होने पर मैंने उसे अपने कॉलेज में क्लर्की दिलवायी रही| पढ़ाई में एकदम फिसड्डी जो रहा| साथ ही आलसी व लापरवाह भी| “तुम ने चौरासी पूजा नहीं रखवायी?” आलोक उसका बॉस तो है ही, उससे सवाल जवाब तो करता ही रहता है, “सर का चौरासीवाँ जन्मदिन है…..” “रौटी का शौक जो रहा,” प्रणाम की मुद्रा में मालती आन जुड़ती है| नंद किशोर की पत्नी| गंवार व फूहड़| बहन उसे अपनी ससुराल से लायी रही| उधर भी अपना सम्बन्ध बनाए रखने के निमित्त| वहां वाली ज़मीन में बेटे के हिस्से की खातिर| “रौटी का शौक?” आलोक मेरा मुँह ताकता है| “रौटी मेरा रौट व्हीलर है जिसे आलोक ही ने मुझे भेंट किया है| बहन की मृत्यु पर खेद प्रकट करने आया तो बोला मेरी रौट व्हीलर ने अभी पिछले ही सप्ताह पांच पप्सजने हैं| उन में से एक पप मैं आपको देना चाहूँगा| शायद वह आप की क्षति पूरी कर दे| उस के प्रस्ताव से मैं चौंका तो था, बहन की खाली जगह वह पप भर सकेगा भला? किन्तु प्रस्ताव आलोक की ओर से रहा होने के कारण मैं ने हामी भर दी थी और यकीनमानिए वह हामी यथा समय मेरे लिए विलक्षण उपहार ही सिद्ध हुई है| “इस युगल ने उसे मार डाला,” मैं कहता हूँ, “और अब यह मुझे मार डालने की तैयारी कर रहे हैं| अपने बेटे की दुल्हन के लिए इन्हें मेरा कमरा चाहिए…..” “धिक! धिक!” आलोककी धिक्कार तो मैं सुन पा रहा हूँ किन्तु उसे देख नहीं पा रहा….. वह लोप हो चुका है….. दृष्टिक्षेत्र में आ रहे हैं नंद-किशोर व मालती….. मेरे कमरे की वही खिड़कियां खोलते हुए, जिन्हें मैं हमेशा बंद रखता रहा हूँ….. मोटे पर्दों के पीछे….. पर्दों के आगे विशालकाय मेरी टी.वी. जो रहा करती है, जिस का आनन्द लेने की इस युगल व इसके बेटे को सख़्त मनाही रही है….. मगर टी.वी. अब वहां है ही नहीं….. नही मेरी मेज़-कुर्सी जहाँ बैठ कर मैं अपना पढ़ता-लिखता हूँ….. न ही मेरा पलंग जहाँ मैं सोता हूँ….. मेरा कमरा मेरे होने का कोई प्रमाण नहीं रखता….. मैं वहां कहीं नहीं हूँ….. कमरा अब मेरा है ही नहीं….. (२) दु:स्वप्न के बारे में लोग-बाग सही कहते हैं, दु:स्वप्न निद्रक में केवल त्रास-भाव जगाता है, उसे कार्यान्वित नहीं करता| नो थर्ड एक्ट| तीसरा अंक नहीं रखता| बल्कि यूनानी देव-कथाएँ तो स्वप्न-दुस्वप्न लाने वाली एक त्रयी की बात भी करती हैं, जो निद्राजनक मिथक हिपनौज़ के पंखधारी त्रिक बेटे हैं : भविष्य-सूचक मौरफ़ियस, दु:स्वप्न-वाहक फ़ौबिटरवकल्पना-धारकफैन्टोसौस – जो विभिन्न छवियाँ लेकर पिता की घुप्प अँधेरी गुफ़ा सेचमगादड़ों की भांति निकलते हैं और उन्हें निद्रक पर लाद जाते हैं| कभी सामूहिक रूप से तो कभी पृथक हैसियत से| परिणाम: स्वप्न-चित्र कब अतीत को आन अंक भर ले, भविष्य – कब वर्तमान को निगल डाले, कोई भरोसा नहीं| दु: स्वप्न कब किसी मीठे सपने को आन दबोचे, कुछ पता नहीं| (३) मैं जाग गया हूँ| अपने बिस्तर पर हूँ| कमरे में कहीं भी कुछ यत्र-तत्र नहीं| मेरी पढ़ने वाली मेज़-कुर्सी खड़ी है| यथावत| खिड़कियाँ भी बंद हैं| यथा-नियम| रौटीमेरे पलंग की बगल में बिछेअपने बिस्तर पर ऊंघ रहा है|यथापूर्व| उसे मैं अपने कमरे ही में सुलाता हूँ| छठे साल में चल रहा रौटीअपना पूरा कदग्रहण कर चुका है : अढ़ाई फुट| वजन भी: साठ किलो| ठोस व महाकाय उस की उपस्थिति मेरामनोबल तो बढ़ाती ही है साथही मेरे अकेलेपन को भी मुझ से दूर रखती है| मेरी माँ और बहन के अतिरिक्त यदि किसी तीसरे ने मुझे सम्पूरित प्रेम दिया है तो इसी रौटी ने| विवाह मेरा हो नहीं पाया था| विवाह-सम्बन्धी अनुकूल अनेक वर्ष नाना के इलाज व सेवा- सुश्रुषा ने ले लिए थे जिन्हें कैन्सर ने आन दबोचा था| सन् १९५८ में| जिस वर्ष बहन की शादी की गयी थी| हमारी माँ नाना की इकलौती सन्तान थीं और ऐसे में मुझे छोड़ कर … Read more