वसूली
वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियों में कस्बापुर का खास स्थान है | लेकिन इस कस्बापुर में बुनी गयी उनकी कहानियों का कैनवास बहुत विस्तृत है | उनकी कलम मानवीय भावनाओं की सूक्ष्म पड़ताल करती है | प्रस्तुत कहानी वसूली में एक स्त्री का दर्द है जो कभी -कभी अपने ही घर का सामान गायब करती रहती हैं | मार भी खाती है पर इस प्रश्न से कोई जूझना नहीं चाहता कि आखिर वो ऐसा क्यों करती है ? पूरी कहानी में एक दब्बू कमजोर स्त्री का दर्द तिरोहित होता रहता है | माँ का पुत्र मोह और बेटे का माँ को बचाने का प्रयास ये दो अलग -अलग वसूली हैं, और कहानी को एक मार्मिक अंजाम तक पहुंचाती हैं | कहानी -वसूली “मालूम है?” मेरी मौसी की देवरानी मेरी दादी के कान में फुसफुसाई, “तुम्हारी बहू अब कस्बापुर वापस न आएगी.” मेरे कान खड़े हो लिए. “मखौल न कर,” दादी ने उसकी पीठ पर धौल जमाया, “आएगी क्यों नहीं?” माँको घर छोड़े हुए तीन हफ़्तों से ऊपर हो चले थे. मौसी की बीमारी ने जब मौसी को बस्तीपुर से लखनऊ के अस्पताल जा पहुँचाया था तो मौसा माँ को अपने संग लखनऊलिवा ले गए थे और जब लखनऊ में चौथे रोज़ मौसी ख़त्म हुई थीं तो मौसा माँ को लखनऊ से सीधे बस्तीपुर ले गए थे, यहाँ वापस न लाए थे. “अबवह अपनी मरी बहन के घर में उसकी जगह लेगी,” मौसी की देवरानी गिलबिलाई, “मेरेजेठने उसके बाप के संग अपनी गुटबंदी मुकम्मिल कर ली है. दस हजाररूपया उसके हाथ में पकड़ाया है और उसकी लड़की उससे ख़रीदली है.” “वाह!” दादी ने अपने हाथ नचाए, “ब्याह के बाद औरत अपनी ससुराल की जायदाद बन जाती है. अपने बाप की मिल्कियत नहीं रहती. उसे वह लाख बेच ले, मगर वह हमारी चीज़ है, हमारी रहेगी.” “वेसब पिछली बातें थीं. अब नया ज़माना है. तलाक के लिए सरकारने नई अदालतें खोल दी हैं. उनमें से किसी एक कमरे में मेरे जेठ उसे ले जाएँगे, उसके नाम से तलाक का मुक़दमा दायर करवाएँगे और उस पर लगा आपका ठप्पा छुड़ा लेंगे.” “उस चींटी की यह मजाल!” मेरे दादा और मेरे पिता के घर लौटने पर मेरी दादी ने जब बात छेड़ी तो मेरे पिता लाल-पीले होने लगे, “एक बार वह मेरे हाथ लगजाए अब. फिरमैं उसे नहीं छोडूँगा. ऐसी गर्दन मरोडूँगा कि उसकी टैं बोलजाएगी.” “बेकार झमेला मोल न लो,” मेरे दादा अपना मुँह मेरे पिता के पास ले गए, “उसे यहाँ किसी तरह फुसलाकर वापस ले आएँगे और फिर किसी रात गाड़ी के नीचे सरकाकर कटवा देंगे…..” मेरे दादा रेलवे के डाक घर में तारबाबू रहे और हम रेलवे स्टेशन के एक कोने में बने क्वार्टरों में रहते थे. कस्बापुर में रेलवे जंक्शन बड़ा था और वहाँ एक साथ कई-कई गाड़ियाँ देर रात में रुका करतीं. “उसे फुसलाने का काम आप हमें सौंपिए,” दादी ने मुझे अपनी गोद में दबोच लिया, “दादी और पोता एक साथ बस्तीपुर जाएँगे और उसे अपने संग लिपटाकर यहाँ लिवालाएँगे.” अगले दिन कस्बापुर से सुबह आठ बजे दादी ने मेरे साथ हावड़ा मेल पकड़ी और ग्यारहबजकर बीस मिनट पर हम बस्तीपुर स्टेशन पहुँच गए. स्टेशन से मौसा के घर पहुँचने में हमें आधा घण्टा और लग गया. रिक्शा तो दूर की बात थी, दादी तो ताँगे पर भी कम ही बैठतीं. खुद भी खूब पैदल चलतीं और दूसरों को भी खूब पैदल चलातीं. दादी के साथ आने-जाने में इसीलिए माँ और मैं बहुत कतराते. “क्या बात है?” दादी को देखकर मौसा ने अपने हाथ का काम रोक लिया. मौसा लकड़ी की चिराई का काम करते थे और उनका आरा उनके घर की ड्योढ़ी मेंही लगा था. “हम विमला रानी को लेने आए हैं,” दादी मुक़ाबले पर उतर आईं. “आपने बेवजह सफ़र की बेआरामी उठाई,” मौसा ने न जाने कैसे अपनी आवाज़ में शहद घोल लिया, नहीं तो मौसा मीठी ज़ुबान न रखते थे, ख़ास कर मौसी के संग तो वे जब भी ज़ुबान खोलते रहे कड़ुवा ही बोलते, “इधर लड़कियों का मामला है. आप तो जानती हैं, थोड़ी-सी बेपरवाही हो गई तो उम्र-भर के लिए…..” मौसा की बात मैंने न सुनी. मैं माँ को देखना चाहता था, जल्दी-बहुत जल्दी. मैं घर की तरफ़ दौड़ लिया. मौसा के घर से मैं अच्छी तरह वाक़िफ़ था, माँ मुझे अक्सरयहाँ लाती रही थीं. ड्योढ़ी पार करते ही एक छोटा बरामदा पड़ता था. बरामदे का एक दरवाज़ा पंखे वाले कमरे में खुलता था और दूसरा भंडार में. रसोई भंडार केआगे पड़ती थी और पाखाना ऊपर छत पर था. मौसी की दोनों लड़कियों के साथ माँ भंडार में बैठी थीं. मौसी की बड़ी लड़की के हाथ में नेल पॉलिश थी और छोटी लड़की के हाथ में माँ काएक पैर. माँ का दूसरा पैर और उन दोनों लड़कियों के पैर गुलाबी नेल पॉलिश से चमक रहे थे. मुझे देखते ही माँ ने अपना पैर अपनी साड़ी में छुपा लिया. उधर घर में माँ कभी ऐसी न दिखी थीं, निखरी-निखरी और सँवरी-सँवरी. माँ का चेहरा भी पहले से बहुत बदल गया था. माँ की आँखें पहले से छोटी लग रही थीं और गालपहले से बहुत ऊँची और चर्बीदार. माँ की पुरानी ठुड्डी के नीचे एक दूसरी नई ठुड्डीउग रही थी. “कुंती,” मौसा ने छोटी लड़की को बरामदे से आवाज़ दी, “दौड़करहलवाई से गरम जलेबी तो पकड़ ला. जब तक पार्वती चाय बना लेगी.” “अपने होश मत खो, विमला रानी,” माँ से अपने चरण स्पर्श करा रही दादी अपने पुरानेमिजाज में बहकने लगीं, “होश मत खो. चल, अब बहुत हो गया. अब घर चल. तेरे बिना वहाँ पूरा घर हाल-बेहाल हुआ जाता है.” “मुझे पाखाना लगा है,” मैंने माँ की तरफ़ देखा. आठ साल की अपनी उस उम्र में पाखाने के लिए माँ की मदद लेने का मुझे अभ्यास था. माँ फ़ौरन मेरे साथ सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं. “बता, तू मुझे कुछ बताएगा क्या?” छत का एकांत पाते ही माँ अधीर हो उठीं. “दादी के साथ तुम वहाँ मत जाना,” मैंने कहा, “वे लोग तुम्हें रात को गाड़ी के नीचे सरका कर कटवा देंगे.” उधर घर पर भी माँ और मैं ‘हम’ रहे और दादी, दादा और मेरे पिता ‘वे लोग’. “तू सच कह रहा है?” माँहँसने लगीं. “हाँ.” मैंने सिर हिलाया. “अच्छी … Read more