वसूली

वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियों में कस्बापुर का खास स्थान है | लेकिन इस कस्बापुर में बुनी गयी उनकी कहानियों का कैनवास  बहुत विस्तृत है | उनकी कलम मानवीय भावनाओं की सूक्ष्म पड़ताल करती है | प्रस्तुत  कहानी वसूली में एक स्त्री का दर्द है जो कभी -कभी अपने ही घर का सामान गायब करती रहती हैं | मार भी खाती है पर इस प्रश्न से कोई जूझना नहीं चाहता कि आखिर वो ऐसा क्यों करती है ? पूरी कहानी में एक दब्बू कमजोर स्त्री का दर्द तिरोहित होता रहता है | माँ का पुत्र मोह और बेटे का माँ को बचाने का प्रयास ये दो अलग -अलग वसूली हैं, और कहानी को एक मार्मिक अंजाम तक पहुंचाती हैं | कहानी -वसूली  “मालूम है?” मेरी मौसी की देवरानी मेरी दादी के कान में फुसफुसाई, “तुम्हारी बहू अब कस्बापुर वापस न आएगी.” मेरे कान खड़े हो लिए. “मखौल न कर,” दादी ने उसकी पीठ पर धौल जमाया, “आएगी क्यों नहीं?” माँको घर छोड़े हुए तीन हफ़्तों से ऊपर हो चले थे. मौसी की बीमारी ने जब मौसी को बस्तीपुर से लखनऊ के अस्पताल जा पहुँचाया था तो मौसा माँ को अपने संग लखनऊलिवा ले गए थे और जब लखनऊ में चौथे रोज़ मौसी ख़त्म हुई थीं तो मौसा माँ को लखनऊ से सीधे बस्तीपुर ले गए थे, यहाँ वापस न लाए थे. “अबवह अपनी मरी बहन के घर में उसकी जगह लेगी,” मौसी की देवरानी गिलबिलाई, “मेरेजेठने उसके बाप के संग अपनी गुटबंदी मुकम्मिल कर ली है. दस हजाररूपया उसके हाथ में पकड़ाया है और उसकी लड़की उससे ख़रीदली है.” “वाह!” दादी ने अपने हाथ नचाए, “ब्याह के बाद औरत अपनी ससुराल की जायदाद बन जाती है. अपने बाप की मिल्कियत नहीं रहती. उसे वह लाख बेच ले, मगर वह हमारी चीज़ है, हमारी रहेगी.” “वेसब पिछली बातें थीं. अब नया ज़माना है. तलाक के लिए सरकारने नई अदालतें खोल दी हैं. उनमें से किसी एक कमरे में मेरे जेठ उसे ले जाएँगे, उसके नाम से तलाक का मुक़दमा दायर करवाएँगे और उस पर लगा आपका ठप्पा छुड़ा लेंगे.” “उस चींटी की यह मजाल!” मेरे दादा और मेरे पिता के घर लौटने पर मेरी दादी ने जब बात छेड़ी तो मेरे पिता लाल-पीले होने लगे, “एक बार वह मेरे हाथ लगजाए अब. फिरमैं उसे नहीं छोडूँगा. ऐसी गर्दन मरोडूँगा कि उसकी टैं बोलजाएगी.” “बेकार झमेला मोल न लो,” मेरे दादा अपना मुँह मेरे पिता के पास ले गए, “उसे यहाँ किसी तरह फुसलाकर वापस ले आएँगे और फिर किसी रात गाड़ी के नीचे सरकाकर कटवा देंगे…..” मेरे दादा रेलवे के डाक घर में तारबाबू रहे और हम रेलवे स्टेशन के एक कोने में बने क्वार्टरों में रहते थे. कस्बापुर में रेलवे जंक्शन बड़ा था और वहाँ एक साथ कई-कई गाड़ियाँ देर रात में रुका करतीं. “उसे फुसलाने का काम आप हमें सौंपिए,” दादी ने मुझे अपनी गोद में दबोच लिया, “दादी और पोता एक साथ बस्तीपुर जाएँगे और उसे अपने संग लिपटाकर यहाँ लिवालाएँगे.” अगले दिन कस्बापुर से सुबह आठ बजे दादी ने मेरे साथ हावड़ा मेल पकड़ी और ग्यारहबजकर बीस मिनट पर हम बस्तीपुर स्टेशन पहुँच गए. स्टेशन से मौसा के घर पहुँचने में हमें आधा घण्टा और लग गया. रिक्शा तो दूर की बात थी, दादी तो ताँगे पर भी कम ही बैठतीं. खुद भी खूब पैदल चलतीं और दूसरों को भी खूब पैदल चलातीं. दादी के साथ आने-जाने में इसीलिए माँ और मैं बहुत कतराते. “क्या बात है?” दादी को देखकर मौसा ने अपने हाथ का काम रोक लिया. मौसा लकड़ी की चिराई का काम करते थे और उनका आरा उनके घर की ड्योढ़ी मेंही लगा था. “हम विमला रानी को लेने आए हैं,” दादी मुक़ाबले पर उतर आईं. “आपने बेवजह सफ़र की बेआरामी उठाई,” मौसा ने न जाने कैसे अपनी आवाज़ में शहद घोल लिया, नहीं तो मौसा मीठी ज़ुबान न रखते थे, ख़ास कर मौसी के संग तो वे जब भी ज़ुबान खोलते रहे कड़ुवा ही बोलते, “इधर लड़कियों का मामला है. आप तो जानती हैं, थोड़ी-सी बेपरवाही हो गई तो उम्र-भर के लिए…..” मौसा की बात मैंने न सुनी. मैं माँ को देखना चाहता था, जल्दी-बहुत जल्दी. मैं घर की तरफ़ दौड़ लिया. मौसा के घर से मैं अच्छी तरह वाक़िफ़ था, माँ मुझे अक्सरयहाँ लाती रही थीं. ड्योढ़ी पार करते ही एक छोटा बरामदा पड़ता था. बरामदे का एक दरवाज़ा पंखे वाले कमरे में खुलता था और दूसरा भंडार में. रसोई भंडार केआगे पड़ती थी और पाखाना ऊपर छत पर था. मौसी की दोनों लड़कियों के साथ माँ भंडार में बैठी थीं. मौसी की बड़ी लड़की के हाथ में नेल पॉलिश थी और छोटी लड़की के हाथ में माँ काएक पैर. माँ का दूसरा पैर और उन दोनों लड़कियों के पैर गुलाबी नेल पॉलिश से चमक रहे थे. मुझे देखते ही माँ ने अपना पैर अपनी साड़ी में छुपा लिया. उधर घर में माँ कभी ऐसी न दिखी थीं, निखरी-निखरी और सँवरी-सँवरी. माँ का चेहरा भी पहले से बहुत बदल गया था. माँ की आँखें पहले से छोटी लग रही थीं और गालपहले से बहुत ऊँची और चर्बीदार. माँ की पुरानी ठुड्डी के नीचे एक दूसरी नई ठुड्डीउग रही थी. “कुंती,” मौसा ने छोटी लड़की को बरामदे से आवाज़ दी, “दौड़करहलवाई से गरम जलेबी तो पकड़ ला. जब तक पार्वती चाय बना लेगी.” “अपने होश मत खो, विमला रानी,” माँ से अपने चरण स्पर्श करा रही दादी अपने पुरानेमिजाज में बहकने लगीं, “होश मत खो. चल, अब बहुत हो गया. अब घर चल. तेरे बिना वहाँ पूरा घर हाल-बेहाल हुआ जाता है.” “मुझे पाखाना लगा है,” मैंने माँ की तरफ़ देखा. आठ साल की अपनी उस उम्र में पाखाने के लिए माँ की मदद लेने का मुझे अभ्यास था. माँ फ़ौरन मेरे साथ सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं. “बता, तू मुझे कुछ बताएगा क्या?” छत का एकांत पाते ही माँ अधीर हो उठीं. “दादी के साथ तुम वहाँ मत जाना,” मैंने कहा, “वे लोग तुम्हें रात को गाड़ी के नीचे सरका कर कटवा देंगे.” उधर घर पर भी माँ और मैं ‘हम’ रहे और दादी, दादा और मेरे पिता ‘वे लोग’. “तू सच कह रहा है?” माँहँसने लगीं. “हाँ.” मैंने सिर हिलाया. “अच्छी … Read more

माँ का दमा

क्या मन की दशा शरीर में रोग उत्पन्न करती है ? अगर विज्ञानं की भाषा में कहें तो ‘हाँ ” …इस वर्ग में आने वाली बीमारियों को साइको सोमैटिक बीमारियों में रखा जाता है | बचपन से दमा की मरीज माँ को खाँसते देखने वाले बच्चे ने आखिर ऐसा क्या देखा कि उसे लगा कि माँ की बिमारी शारीरिक नहीं मनोशारीरिक है |  माँ का दमा  पापा के घर लौटते ही ताई उन्हें आ घेरती हैं, ‘इधर कपड़े वाले कारख़ाने में एक ज़नाना नौकरी निकली है. सुबह की शिफ़्ट में. सात से दोपहर तीन बजे तक. पगार, तीन हज़ार रूपया. कार्तिकी मज़े से इसे पकड़ सकती है…..’ ‘वह घोंघी?’ पापा हैरानी जतलाते हैं. माँ को पापा ‘घोंघी’ कहते हैं, ‘घोंघी चौबीसों घंटे अपनी घूँ घूँ चलाए रखती है दम पर दम.’ पापा का कहना सही भी है. एक तो माँ दमे की मरीज हैं, तिस पर मुहल्ले भर के कपड़ों की सिलाई का काम पकड़ी हैं. परिणाम, उनकी सिलाई की मशीन की घरघराहट और उनकी साँस की हाँफ दिन भर चला करती है. बल्कि हाँफ तो रात में भी उन पर सवार हो लेती है और कई बार तो वह इतनी उग्र हो जाती है कि मुझे खटका होता है, अटकी हुई उनकी साँस अब लौटने वाली नहीं. ‘और कौन?’ ताई हँस पड़ती हैं, ‘मुझे फुर्सत है?’ पूरा घर, ताई के ज़िम्मे है. सत्रह वर्ष से. जब वे इधर बहू बनकर आयी रहीं. मेरे दादा की ज़िद पर. तेइस वर्षीय मेरे ताऊ उस समय पत्नी से अधिक नौकरी पाने के इच्छुक रहे किन्तु उधर हाल ही में हुई मेरी दादी की मृत्यु के कारण अपनी अकेली दुर्बल बुद्धि पन्द्रह वर्षीया बेटी का कष्ट मेरे दादा की बर्दाश्त के बाहर रहा. साथ ही घर की रसोई का ठंडा चूल्हा. हालाँकि ताई के हाथ का खाना मेरे दादा कुल जमा डेढ़ वर्ष ही खाये रहे और मेरे ताऊ केवल चार वर्ष. ‘कारखाने में करना क्या होगा?’ पापा पूछते हैं. ‘ब्लीचिंग…..’ ‘फिर तो माँ को वहाँ हरगिज नहीं भेजना चाहिए’, मैं उन दोनों के पास जा पहुँचता हूँ, ‘कपड़े की ब्लीचिंग में तरल क्लोरीन का प्रयोग होता है, जो दमे के मरीज़ के लिए घातक सिद्ध हो सकता है…..’ आठवीं जमात की मेरी रसायन-शास्त्रकी पुस्तक ऐसा ही कहती है. ‘तू चुप कर’ पापा मुझे डपटते हैं, “तू क्या हम सबसे ज़्यादा जानता, समझता है? मालूम भी है घर में रुपए की कितनी तंगी है? खाने वाले पाँच मुँह और कमाने वाला अकेला मैं, अकेले हाथ…..” डर कर मैं चुप हो लेता हूँ. पापा गुस्से में हैं, वर्ना मैं कह देता, आपकी अध्यापिकी के साथ-साथ माँ की सिलाई भी तो घर में रूपया लाती है….. परिवार में अकेला मैं ही माँ की पैरवी करता हूँ. पापा और बुआ दोनों ही, माँ से बहुत चिढ़ते हैं. ताईकी तुलना में माँ का उनके संग व्यवहार है भी बहुत रुखा, बहुत कठोर. जबकि ताई उन पर अपना लाड़ उंडेलने को हरदम तत्पर रहा करती हैं. माँ कहती हैं, ताई की इस तत्परता के पीछे उनका स्वार्थ है. पापा की आश्रिता बनी रहने का स्वार्थ. ‘मैं वहाँ नौकरी कर लूँगी, दीदी’, घर के अगले कमरे में अपनी सिलाई मशीन से माँ कहती हैं, ‘मुझेकोई परेशानी नहीं होने वाली…..’ रिश्ते में माँ, ताई की चचेरी बहन हैं. पापा के संग उनके विवाह की करण कारक भी ताई ही रहीं. तेरह वर्ष पूर्व. ताऊकी मृत्यु के एकदम बाद. ‘वहाँ जाकर मैं अभी पता करता हूँ’, पापा कहते हैं, ‘नौकरी कब शुरू की जा सकती है?’ अगले ही दिन से माँ कारखाने में काम शुरू कर देती हैं. मेरी सुबहें अब ख़ामोश हो गयी हैं. माँ की सिलाई मशीन की तरह. और शाम तीन बजे के बाद, जब हमारा सन्नाटा टूटता भी है, तो भी हम पर अपनी पकड़ बनाए रखता है. थकान से निढाल माँ न तो अपनी सिलाई मशीन ही को गति दे पाती हैं और न ही मेरे संग अपनी बातचीत को. उनकी हाँफ भी शिथिल पड़ रही है. उनकीसाँस अब न ही पहले जैसी फूलती है और न ही चढ़ती है. माँ की मृत्यु का अंदेशा मेरे अंदर जड़ जमा रहा है, मेरे संत्रास में, मेरी नींद में, मेरे दु:स्वप्नमें….. फिर एक दिन हमारे स्कूल में आधी छुट्टी हो जाती है….. स्कूल के घड़ियाल के हथौड़िए की आकस्मिक मृत्यु के कारण. जिस ऊँचे बुर्ज पर लटक रहे  घंटे पर वह सालों-साल हथौड़ा ठोंकता रहा है, वहाँ से उस दिन रिसेस की समाप्ति की घोषणा करते समय वह नीचे गिर पड़ा है. उसकी मृत्यु के विवरण देते समय हमारे क्लास टीचर ने अपना खेद भी प्रकट किया है और अपना रोष भी, ‘पिछले दो साल से बीमार चल रहे उस हथौड़िए को हम लोग बहुत बार रिटायरमेंट लेने की सलाह देते रहे लेकिन फिर भी वह रोज ही स्कूल चला आता रहा, घंटा बजाने में हमें कोई परेशानी नहीं होती…..’ स्कूल से मैं घर नहीं जाता, माँ के कारखाने का रुख करता हूँ. माँ ने भी तो कह रखा है, उधर कारखाने में काम करने में मुझे कोई परेशानी नहीं होती….. माँ के कारखाने में काम चालू है. गेट पर माँ का पता पूछने पर मुझे बताया जाता है वे दूसरे हॉल में मिलेंगी जहाँ केवल स्त्रियाँ काम करती हैं. जिज्ञासावश मैं पहले हॉल में जा टपकता हूँ. यह दो भागों में बँटा है. एक भाग में गट्ठों में कस कर लिपटाईगयी ओटी हुई कपास मशीनों पर चढ़ कर तेज़ी से सूत में बदल रही हैं तो दूसरे भाग में बँधे सूतके गट्ठर करघों पर सवार होकर सूती कपड़े का रूप धारण कर रहे हैं. यहाँ सभी कारीगर पुरुष हैं. दूसरे हॉल का दरवाज़ा पार करते ही क्लोरीन की तीखी बू मुझसे आन टकराती है. भाप की  कई, कई ताप तरंगों के संग मेरी नाक और आँखें बहने लगती हैं. थोड़ा प्रकृतिस्थ होने पर देखता हूँ भाप एक चौकोर हौज़ से मेरी ओर लपक रही है. हौज़ में बल्लों के सहारे सूती कपड़े की अट्टियाँ नीचे भेजी जा रही हैं. हॉल में स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ हैं. उन्हीं में से कुछ ने अपने चेहरों पर मास्क पहन रखे हैं. ऑपरेशन करते समय डॉक्टरों और नर्सों जैसे. मैंउन्हें नज़र में उतारता हूँ. मैं एक कोने में जा खड़ा होता … Read more

चमड़े का अहाता

वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियों में एक खास बात रहती है कि वो सिर्फ कहानियाँ ही नहीं बाचती बल्कि उसके साथ किसी ख़ास चीज के बारे में विस्तार से ज्ञान भी देती हैं | वो ज्ञान मनोवैज्ञानिक हो सकता है, वैज्ञानिक या फिर आम जीवन से जुड़ा हो सकता है | इस तरह से वो अपने पाठकों को हौले से न केवल विविध विषयों से रूबरू कराती हैं बल्कि उसके ज्ञान को परिमार्जित भी करती हैं | चमड़े का अहाता भी उनकी ऐसे ही कहानियों की कड़ी में जुड़ा एक मोती है …जो रहस्य, रोमांच के साथ आगे बढ़ती है और अंत तक आते -आते पाठक को गहरा भावनात्मक झटका लगता है | इस कहानी में उन्होंने एक ऐसी समस्या को उठाया है जो आज भी हमारे, खासकर महिलाओं के जीवन को बहुत प्रभावित कर रही है | तो आइये पढ़ें मार्मिक कहानी … चमड़े का अहाता शहर की सबसे पुरानीहाइड-मारकिट हमारी थी. हमारा अहाता बहुत बड़ा था. हम चमड़े का व्यापार करते थे. मरे हुए जानवरों की खालें हम खरीदते और उन्हें चमड़ा बनाकर बेचते. हमारा काम अच्छा चलता था. हमारी ड्योढ़ी में दिन भर ठेलों व छकड़ों की आवाजाही लगी रहती. कई बार एक ही समय पर एक तरफ यदि कुछ ठेले हमारे गोदाम में धूल-सनी खालों की लदानें उतार रहे होते तो उसी समय दूसरी तरफ तैयार, परतदार चमड़ा एक साथ छकड़ों मेंलदवाया जा रहा होता. ड्योढ़ी के ऐन ऊपर हमारा दुमंजिला मकान था. मकान की सीढ़ियाँ सड़क पर उतरती थीं और ड्योढ़ी व अहाते में घर की औरतों व बच्चों का कदम रखना लगभग वर्जित था. हमारे पिता की दो पत्नियाँ रहीं. भाई और मैं पिता की पहली पत्नी से थे. हमारी माँ की मृत्यु के बाद ही पिता ने दूसरी शादी की थी. सौतेलीमाँ ने तीन बच्चे जने परंतु उनमें से एक लड़के को छोड़कर कोई भी संतान जीवित न बच सकी. मेरा वह सौतेला भाई अपनी माँ की आँखों का तारा था| वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं. मुझसे भी उनका व्यवहार ठीक-ठाक ही था| पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न सुहाता. भाई शुरू से ही झगड़ालू तबीयत का रहा. उसे कलह व तकरार बहुत प्रिय थी. हम बच्चों के साथ तो वह तू-तू, मैं-मैं करता ही, पिता से भी बात-बात पर तुनकता और हुज्जत करता.फिर पिता भी उसे कुछ न कहते. मैं अथवा सौतेला स्कूल न जाते या स्कूल की पढ़ाई के लिए न बैठते या रात में पिता के पैर न दबाते तो पिता से खूब घुड़की खाने को मिलती मगर भाई कई-कई दिन स्कूल से गायब रहता और पिता फिर भी भाई को देखते ही अपनी ज़ुबान अपने तालु के साथ चिपका लेते. रहस्य हम पर अचानक ही खुला. भाईने उन दिनों कबूतर पाल रखे थे. सातवीं जमात में वह दो बार फेल हो चुका था और उस साल इम्तिहान देने का कोई इरादा न रखता था. कबूतर छत पर रहते थे. अहाते में खालों के खमीर व माँस के नुचे टुकड़ों की वजह से हमारी छत पर चीलें व कव्वे अक्सर मँडराया करते. भाई के कबूतर इसीलिए बक्से में रहते थे. बक्सा बहुत बड़ा था. उसके एक सिरे पर अलग-अलग खानों में कबूतर सोते और बक्से के बाकी पसार में उड़ान भरते, दाना चुगते, पानी पीते और एक-दूसरे के संग गुटर-गूँ करते. भाई सुबह उठते ही अपनी कॉपी के साथ कबूतरों के पास जा पहुँचता. कॉपी में कबूतरों के नाम, मियाद और अंडों व बच्चों का लेखा-जोखा रहता. सौतेला और मैं अक्सर छत पर भाई के पीछे-पीछे आ जाते. कबूतरोंके लिए पानी लगाना हमारे जिम्मे रहता. बिना कुछ बोले भाई कबूतरों वाली खाली बाल्टी हमारे हाथ में थमा देता और हम नीचे हैंड पंप की ओर लपक लेते.उन्नीस सौ पचास वाले उस दशक में जब हम छोटे रहे, तो घर में पानी हैंड पंप से ही लियाजाता था. गर्मी के उन दिनों में कबूतरों वाली बाल्टी ठंडे पानी से भरने के लिए सौतेला और मैं बारी-बारी से पहले दूसरी दो बाल्टियाँ भरते और उसके बाद ही कबूतरों का पानी छत परलेकरजाते. “आज क्या लिखा?” बाल्टी पकड़ाते समय हम भाई को टोहते. “कुछ नहीं.” भाईअक्सर हमें टाल देता और हम मन मसोसकरकबूतरों को दूर से अपलक निहारते रहते. उस दिन हमारे हाथ से बाल्टी लेते समय भाई ने बात खुद छेड़ी, “आज यह बड़ी कबूतरी बीमार है.” “देखें,” सौतेला और मैं ख़ुशी से उछल पड़े.“ध्यान से,” भाई ने बीमार कबूतरी मेरे हाथ में दे दी.सौतेले की नजर एक हट्टे-कट्टे कबूतर पर जा टिकी.“क्या मैं इसे हाथ में ले लूँ?” सौतेले ने भाई से विनती की.“यह बहुत चंचल है, हाथ से निकलकर कभी भी बेकाबू हो सकता है.”“मैं बहुत ध्यान से पकडूँगा.”भाई का डर सही साबित हुआ.सौतेले ने उसे अभी अपने हाथों में दबोचा ही था कि वह छूटकर मुँडेर पर जा बैठा.भाई उसके पीछे दौड़ा. खतरे से बेखबर कबूतर भाई को चिढ़ाता हुआ एक मुँडेर से दूसरी मुँडेर पर विचरने लगा. तभी एक विशालकाय चील ने कबूतर पर झपटने का प्रयास किया. कबूतर फुर्तीला था. पूरी शक्ति लगाकर फरार हो गया. चील ने तेजी से कबूतर का अनुगमन किया. भाई ने बढ़कर पत्थर से चील पर भरपूर वार किया, लेकिन जरा देर फड़फड़ाकर चील ने अपनी गति त्वरित कर ली. देखते-देखते कबूतर और चील हमारी आँखों से ओझल हो गए. ताव खाकर भाई ने सौतेले को पकड़ा और उसे बेतहाशा पीटने लगा. घबराकर सौतेले ने अपनी माँ को पुकारा. सौतेली माँ फौरन ऊपर चली आयीं. सौतेलेकी दुर्दशा उनसे देखी न गयी. “इसे छोड़ दे,” वे चिल्लायीं, “नहीं तो अभी तेरे बाप को बुला लूँगी.वह तेरा गला काटकर तेरी लाश उसी टंकी में फेंक देगा.” “किस टंकी में?” भाई सौतेले को छोड़कर, सौतेली माँ की ओर मुड़ लिया. “मैं क्या जानूँ किस टंकी में?” सौतेली माँ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं. हमारे अहाते के दालान के अन्तिम छोर पर पानी की दो बड़ी टंकियाँ थीं. एक टंकी में नयी आयी खालें नमक, नौसादर व गंधक मिले पानी में हफ़्तों फूलने के लिए छोड़ दी जाती थीं और दूसरी टंकी में खमीर उठी खालों को खुरचने से पहले धोया जाता था. “बोलो, बोलो,” भाई ने ठहाका लगाया, “तुम चुप क्यों हो गयीं?” “चल उठ,” सौतेली माँ ने सौतेले … Read more

बत्तखें

विज्ञान और मनोविज्ञान के मेल पर आधारित कहानी ‘बत्तखें’ को पढने से पहले आइये थोडा सा जान लें मल्टीवर्स थ्योरी के बारे में …ये थ्योरी (हालांकि अभी हाइपोथीसिस केरूप में ही है जिसे सिद्ध किये जाना बाकी है) कहती है कि हम ही नहीं हमारा ब्रह्माण्ड  भी सृष्टि में अकेला नहीं है | करोणों ब्रह्माण्ड हैं जो एक दूसरे से डार्क मैटर से अलग -अलग हैं और अलग -अलग फ़्रीक़ुएन्सी पर कम्पन कर रहे हैं | हम सब जानते हैं कि मैटर -मैटर को आकर्षित करता है | इसी कारण पृथ्वी चंद्रमा सूरज अपने स्थान पर हैं , और पृथ्वी  में भी सब कुछ अपने स्थान पर है | परन्तु डार्क मैटर की उपस्थिति के कारण मैटर -मैटर में विकर्ष्ण  पैदा होता है | वो एक दूसरे से दूर हो जाते हैं | उनका एक दूसरे तक पहुँचना लगभग असंभव होता है | दो ब्रह्मांडो के बीच में यही डार्क मैटर होता है | इसी कारण हमें दूसरे ब्रह्मांडों के विषय में पता नहीं चल पाता | भविष्य में शायद किसी वर्महोल के द्वारा हम वहां तक पहुँच सकें |  इस डार्क मैटर को ही कुछ समानता के कारण डक (बत्तख ) का नाम दिया गया है| माना जाता है कि पृथ्वी पर सब कुछ अपनी स्थिति में है इस लिए यहाँ पर डार्क मैटर नगण्य मात्रा में है | यह तो रही विज्ञान की बात पर मनोविज्ञान कहता है कि पृथ्वी पर डार्क मैटर है जो कुछ नकारात्मक लोगों के दिमाग में छिपा हुआ है …तभी तो वो लोगों को एक दूसरे से दूर करते है | जैसे शशि भाभी ने दूर कर दिया …आइये पढ़े विज्ञान और मनोविज्ञान के जटिल  रहस्यों में उलझी हुई वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की सशक्त कहानी … बत्तखें मेरी नजर में पहले वह खिड़की उतरी थी| दो संलग्न आड़ी दीवारों के बीच एक बुर्ज की भांति खड़ी| बाहर की ओर उछलती हुई| आगे बढ़ी तो देखा बाबूजी उस खिड़की पर खड़े थे| क्या वह नीचे कूदने वाले थे? क्या मैं उन्हें बचा सकूँगी? “बाबूजी,” मैं ने उन्हें वहीं नीचे से पुकारा| वह नीचे आ गए| हवा के रास्ते| “तुम भी हवा के सहारे कहींभीआ जा सकती हो,” वह मुझ से बोले| “आप की तरह?” मैंने पूछा| “हाँ,” उन्होंने मेरा कंधा छुआ मानो वह किसी जादुई छड़ी से मुझे छू रहे थे| और उन के साथ मैं भी हवा पर सवार हो ली| “किधर जाएँगे?” मैंने पूछा| मुझे साइकल चलाना उन्हीं ने सिखाया था और उन दिनों मैं चलने से पहले हमेशा पूछती, “किधर जाएँगे?” और उत्तर में वह मुझ से सवाल करते, ‘तुम बताओ| आज किधर जाएँ?’ दाएं? मिल्क बूथ की तरफ? या फिर बाएं? ऊँचे पुल पर? या फिर आज सामने ही चलें? टाउनहॉल?” उन दिनों हम शकुंतला निवास में रहते थे जो एक तिकोने मोड़ वाली सड़क पर स्थित था| शकुंतला बाबूजी की पहली पत्नी थीं| उनके इकलौते बेटे, अरुण भैया की तथा पहली दो बेटियाँ – कृष्णा जीजी तथा करुणा जीजी – की माँ| “आकाश खटखटाएँ क्या?” बाबूजी हँस पड़े| “हाँ,” उत्साहित हो कर मैंने पुरानी एक ज़ेन कहावत बोल दी, “आकाश खटखटाएँ और उसकी आवाज सुनें…..” “और अगर आकाश ने पूछा, ‘कौन-सा परलोक खोलूँ?’ तो क्या कहोगी…..” लगभग आठ वर्ष पहले हम बाप-बेटी ने अपने विषय-भौतिकविज्ञान-में एक शोध निबंध तैयार किया था- यूनिवर्स एंड मल्टीवर्स(ब्रह्मांड एवं ब्रह्मांडिकी) जिस में हमने ब्रह्मांडिकी कीचर्चित परिकल्पनाओं एवं विचारधाराओं को प्रस्तुत किया था तथा जिन में हमारे इस लोक के अतिरिक्त अनेक, परलोकों की उपस्थिति की बात उठायी गई थी और उसी संदर्भ में हमने सन् १९२९ में हब्बल के टेलिस्कोप अवलोकन से सामने आए बबल्ज़ (बुलबुलों) की परतों ब्लैक होल्ज़ (काले कुंडों) के कवकजाल से ले कर सन् अस्सी के दशक में एलेन गूथ की इनफ़लेशनरी कौस्मौलॉजी(ब्रह्मांडिकी के फैलाव) के अंतर्गत उत्पादित हो रहे कॉस्मिक फ़्युल अंतरिक्षीय जलावन के कारण ब्रह्मांडिकी परलोकों की चर्चा की थी| “माँ कहाँ मिलेंगी?” माँ को देखे-सुने मुझे अठारह वर्ष होने जा रहे थे| माँ के साथ मुझे कई पृष्ठ उलटने-पलटने थे| नए-पुराने, अगले-पिछले| माँ से पूछना था मृत्यु का वरण उन्होंने बाबूजी और मेरी अनुपस्थिति में कैसे और क्यों कर लिया था? उस रात बाबूजी शहर से बाहर थे| अपने गाँव पर| वहां की अपनी पैतृक संपत्ति का निपटारा करने के निमित्त और मैं मीलों दूर पड़ने वाले एक-दूसरे शहर के कॉलेज के छात्रावास में थी, जहाँ बाबूजी ने मुझे भेज रखा था| परिवार में निरंतर बढ़ रहे तनाव से मुझे अलग रखने के वास्ते| माँ को बताना था कि मानसिक संस्तभ लेकर परिवार में सब से बाद में आने वाली छुटकी पहले से कहीं बेहतर स्थिति में है, अनियमित समतोल एवं विषम बौद्धिक स्तर के बावजूद| अपने आइ-पैड पर वह मनपसंद संगीत सुनती है, फिल्में देखती है, विडियो गेम्ज़ खेलती है| उसके पास अपना एक पिआनो भी है, जिसकेपैडल पर अपने पैर जमा कर वह उसकी तान बखूबी घटा-बढ़ा लेती है| कभी ख़ालिस अपने मनोरंजन के लिए तो कभी अपनी मनःस्थिति मुझ तक पहुँचाने को| “मेरी आवाज दमयंती तक अभी पहुँची नहीं,” बाबूजी गंभीर हो गए, “न जाने किस परलोक में है? किस आकाशगंगा में? किस सूर्यमंडल में? किस बबल में? किस काले कुंड में? किस वृत्त में?” “बड़ी बत्तख तो कहीं कोई करतब नहीं दिखा रही?” मैं भी गंभीर हो चली| भौतिक विज्ञानियों के अनुसार परिवर्ती हमारे आकाश और अंतरिक्ष में तिहत्तर प्रतिशत ऊर्जा विकर्षण के सिद्धांत पर काम करती है और बिग बैन्गज द्वारा गढ़े जा रहे नए परलोकों को एक-दूसरे से दूर रखने के लिए उत्तरदायी है और इसी विकर्षण-शक्ति की पूरी जानकारी प्राप्त करने में अभी तक असमर्थ रहे इन विज्ञानियों ने इसे ‘डार्क एनर्जी (अज्ञात ऊर्जा) का नाम तो दे ही रखा है, साथ ही वे इसे ‘डक’ (बत्तख) भीकहा करते हैं, इफ़ इट वॉक्स लाइक अ डक एंड क्वैक्स लाइक अ डक, इट प्रौबब्ली अ डक…..’ यदि यह ऊर्जा एक बत्तख की भांति अकड़ कर चलती है और फिर अपनी टर्र-टर्र रटती रहती है तो फिर यह एक बत्तख ही है| “यही मालूम देता है,” बाबूजी ने कहा, “उधर उस बत्तख ने अपनी डार्क एनर्जी के कारण करतब दिखलाए थे तो इधर यह अपना काम दिखा रही है…..” हम बाप-बेटी ने अरुण भैया की पत्नी, शशि को … Read more

किशोरीलाल की खाँसी

किशोरीलाल जी उस पुरुषवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनके लिए पैसा ही सब कुछ है, उसके आगे उनकी पत्नी के जीवन का भी कोई मूल्य नहीं है | जब भी कभी आपको खांसी आई होगी, बहुत तकलीफ हुई होगी, ऐसा लगता है जैसे सीने की माँस-पेशियाँ सब तहस -नहस हो गयीं | बच्चों की और अपनों की खांसी भी सहन नहीं होती पर  किशोरीलाल जी की खांसी भी आपको वेदना के एक सागर उतार देगी …लेकिन उसका कारण कुछ अलहदा है  किशोरीलाल की खाँसी किशोरीलाल की खाँसी का प्रारम्भ व अन्त अजीब व विवादास्पद रहा| जिस दिन उसकी पत्नी के तपेदिक का इलाज शुरू किया गया, उसी दिन से किशोरीलाल को उसकी खाँसी ने जो पकड़ा सो उसकी पत्नी की मृत्यु के बाद ही उसे छोड़ा| किशोरीलाल हमारा पड़ोसी था और उसकी बड़ी बेटी बारहवीं जमात तक मेरे साथ एक ही स्कूल में पढ़ती भी रही थी, फिर भी किशोरीलाल को उसकी व उसके परिवार-जनों की अनुपस्थिति में हम उसे ‘चचा’ अथवा‘काका’ जैसे आदरसूचक सम्बोधन के बिना ही पुकारा करते थे| उसकी वजह गली में स्थित उसकी परचून की दुकान रही| गली में जिस किसी घर में, जब कभी भी किसी चीज की जरूरत पड़ती, तुरन्त बच्चों में से किसी को हिदायत मिलती : “जाओ, दौड़कर किशोरीलाल की दुकान से पकड़ लाओ|” बारहवीं जमात के बाद जहाँ किशोरीलाल की बड़ी बेटी ब्याह दी गई थी, प्राध्यापक व महत्वकांक्षी पिता की बेटी होने के कारण मुझे सी.पी.एम.टी. की परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किय गया था और सौभाग्यवश मैं उसमें ऊँचे अंकों के साथ उत्तीर्ण भी हो गई थी|  स्थानीय मेडिकल कॉलेज में मुझे दाखिला मिल गया था और अपनी पढ़ाई के पाँचवें साल तक पहुँचते-पहुँचते मैं अपनी गली के सभी बीमार लोगों के इलाज का बीड़ा उठाने लगी थी| छोटी-मोटी बीमारी तो मैं सैम्पल में आई दवाइयों से ही भगा देती और यदि बीमारी क्रोनिक अथवा चिरकालिक प्रकृति की होती तो उसका इलाज मैं अस्पताल के डॉक्टरों से कहकर मुफ्त करवा देती| “माँ की खाँसी जाने का नाम ही नहीं ले रही,” किशोरीलाल की तीसरी बेटी एक दिन जब मुझे गली में दिखाई दी तो उसने मेरा मोपेड रोककर मुझ पर अपनी चिन्ता प्रकट की, “क्या कभी समय निकालकर आप हमारे घर पर माँ को देखने अ सकेंगी?” “हाँ, हाँ, क्यों नहीं?” मैंने उसे आश्वासन दिया| किशोरीलाल की पत्नी के गुणों का बखान सारी गली के लोग खुले कण्ठ से किया करते| दुकान के ऊपर बने मकान के अन्दर बैठी वह दुकान का ढेर सारा काम निपटाया करती| दुकान में रखे अचार उसी के हाथ में बने रहते| लाल मिर्च, धनिया, गर्म मसाला, कलि मिर्च, हल्दी इत्यादि के तैयार पैकेट भी उसी की बदौलत हाथो-हाथ गली के घर-घर में प्रयोग किए जाते| हम सब जानते थे वह कितनी मेहनत तथा ईमानदारी के साथ चीज़ें साफ करने के बाद स्वयं उन्हें अपने हाथों से सान पर पीसती थीं| किशोरीलाल की पत्नी की खाँसी जब मुझे अस्वाभाविक लगी तो मैंने अपने अस्पताल से उसके थूक, उसके पेशाब व उसके खून का परीक्षण कराया| परिणाम आने पर पता चला कि उसे तपेदिक था| मेरे वरिष्ठ अध्यापक-डॉक्टर ने नुस्खे में जो गोलियाँलिखीं, उनमें आइसोनियाज़िड व इथैम्बुटोल तो अस्पताल में उपलब्ध रहीं, मगरराय-फैम्पिसिन तथा पायरैज़िनामाइड बाज़ार से मँगाने की बाध्यता थी| “किशोरीलालकी दुकान खूब चलती है,” मैंने अपने वरिष्ठ अध्यापक-डॉक्टर को बताया, “आप प्रचलित प्रथा के बाहर जाकर इन दूसरी गोलियों को मँगाने की चेष्टा मत कीजिए, सर! किशोरीलालइन्हें बाज़ार से खुद खरीद लेगा|” “तपेदिक अब असाध्य रोग नहीं रहा,” किशोरीलाल के चिन्तित परिवार को मैंने सान्त्वना दी, “अब इसे छः महीने के अन्दर जड़ से खत्म किया जा सकता है| दो महीने तक ये बारह गोलियों की खुराक जब रोज़ाना लेलेगी तो आधा तपेदिकतो वहीं खत्म हो जाएगा| बस, अगले चार महीने एक सप्ताह में ये चौरासी गोलियों की बजाय केवल सत्ताईस गोलियाँ ही काम दे देंगीऔर फिर साथ में जब इन्हें आप सब कीओर से ढेर-सा दुलार, ढेर-सा पौष्टिक आहार, ढेर-सा विश्राम मिलेगा तो ये छः महीनेके अन्दर ही ज़रूर-ब-ज़रूर पूरी तरह से निरोग व स्वस्थ हो जाएँगी…..” तपेदिक में खुली हवा का अपना एक विशेष महत्व रहता है, परन्तु मैंने किशोरीलाल व उसके परिवार से खुली हवा के बारे में एक शब्द भी न कहा| दुकान के दाईं ओर से डेढ़ फुट की तंग चौड़ाई लिए किशोरीलाल के मकान की सीढ़ियाँ पड़ती थी| पहलीमंज़िल पर एक तंग कमरा और एक तंग रसोई उद्घाटित करने के बाद, वे सीढ़ियाँ आगन्तुक को दूसरी मंज़िल के तंग कमरे व गुसलखाने को प्रकट करने के बाद ऊपर छत पर ले जाती थीं|  हवादारी के नाम पर किशोरीलाल की बीस ज़रब बाईस फुट की परचून की दुकान के ऐन ऊपर समान लम्बाई-चौड़ाई लिए इन दो मंज़िलों में केवल चार छोटी खिड़कियाँ रहीं| चारोंखिड़कियाँ गली की ओर ही खुलती थीं क्योंकि गली के बीच वाला मकान होने के कारण बाकी तीनों तरफ बन्द दीवारें-ही-दीवारें थीं| मौसम और समय के अनुसार घर के सदस्य दिन अथवा रात का अधिकतर समय छत पर बिताते, हालाँकि वह छत भी तीनों ओर से अपने से ऊँचे मकानों की चौहद्दी दीवारों के बीच संकुचित व सिकुड़ी रहने के कारण खुलेपन का एहसास देने में सर्वथा असमर्थ रहती| किशोरीलाल की पत्नी के तपेदिक की सूचना गली में बाद में फैली, किशोरीलाल की खाँसी पहले शुरू हुई| शुरू में दूसरे लोगों के साथ-साथ मैं भी यही समझी कि पत्नी के फेफड़ों की संक्रामक खाँसी किशोरीलाल के फेफड़ों में चली गई होगी किन्तु जब मेरे बार-बार आग्रह करने परभी किशोरीलाल अपनी पत्नी के तदनन्तर परीक्षण के लिए राजी न हुआ तो मुझे समझते देर न लगी कि किशोरीलाल अपनी पत्नी को अविलम्ब मृत्यु के हवाले कर देना चाहता था| शायद वह अपनी पत्नी के परिचर्या-व्यय से बचना चाहता था या शायद वह अपनी दुकान के उन ग्राहकों को अपनी दुकान पर लौटा लाना चाहता था जो उसकी पत्नी के तपेदिक की सूचना मिलते ही उसकी दुकान के तैयार मसालों व अचारों के स्पर्श-मात्र से कतराने लगे थे| भार-स्वरुप उसे पत्नी की खाँसी से अधिक उग्र खाँसना अवश्य ही अनिवार्य लगा होगा| इसीलिए जब-जब उसकी पत्नी खाँसते-खाँसते बेहाल होने लगती, तब-तब किशोरीलाल अपनी खाँसी का नखरा-चिल्ला त्वरित कर देता| अगले वर्ष जब तपेदिक ने किशोरीलाल की … Read more

स्पर्श रेखाएं

इससे पहले भी आप atootbandhann.com में वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियाँ पढ़ चुके हैं | वो हमेशा एक नया सब्जेक्ट लाती हैं उसकी काफी रिसर्च करती हैं फिर पात्र के मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक धरातल पर उतर कर कहानी लिखती हैं | ये कहानी भी एक ऐसी ही कहानी है जिसने मुझे बहुत देर तक विचलित किया | क्यों हो जाती है एक अच्छी भली स्त्री पागल? वो पागल हो जाती है या पागल करार दे दी जाती है | शायद  आशा , प्रेम सम्मान जब सब किसी स्त्री से छीन लिए जाते हैं तो वो अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है | क्या अपमान , अप्रेम की स्थिति में एक मानसिक संतुलन खोयी हुई स्त्री के भावनात्मक वलय को छूने वाले स्पर्श रेखाएं नाउम्मीदी की दशा में उसी वलय  में खिची चली जाती है | सच में जीवन बहुत उलझा हुआ है और उससे भी ज्यादा उलझा हुआ है मन और उसका विज्ञान … आइये पढ़ें एक ऐसी कहानी जिसमें उलझ कर आप थोडा ठहरने को विवश होंगे | कहानी -स्पर्श रेखाएं  झगड़ेके बाद माँ अकसर इस मंदिर आया करतीं|घंटे, दो घंटे में जब मेरा गुस्सा उतर कर चिन्ता का रूप धारण करने लगता तो उन्हें घर लिवाने मैं यहीं इसी मंदिर आती| एक-एक कर मैं प्रत्येक रुकाव एवं ठहराव पर जाती| प्रसाद की परची कटवा रहीं, प्रसाद का दोना सम्भाल रही, माथा टेक रही, चरणामृतले रही, बंट रहे प्रसाद के लिए हाथ बढ़ा रही, सरोवर की मछलियों को प्रसाद खिला रही, स्नान-घर में स्नान कर रही सभी अधेड़ स्त्रियोंको मैं ध्यान से देखती-जोहती और दो-अढ़ाई घंटों में माँ का पता लगाने में सफल हो ही जाती| मगर उस दिन मंदिर के मुख्य द्वार की ड्योढ़ी पर पाँव धरते ही मैं ने जान लिया सरोवर के जिस परिसर पर भीड़ जमा रही, माँवहीं थीं| “क्या कोई हादसा हो गया?” परिक्रमा से लौट रही एक दर्शनार्थी से मैंने पूछा| “हाँ, बेचारी एक बुढ़िया यहाँ मरने आयी थी| स्नान के बहाने डूब जाना चाहती थी मगर लोगबाग ने समय रहते शोर मचा दिया और यहाँ के सेवादारों ने उसे गहरे में जाने से रोक लिया…..” लोगों की भीड़ को चीरना मेरे लिए कठिन न रहा| अवश्य ही मेरी चाल व ताक कूतना उनके लिए सुगम रहा होगा| “यह मेरी माँ हैं,” संगमरमर के चकमक फर्श पर माँ पेट के बल लेटी थीं| उनकीसलवार कमीज़ उनकी देह के संग चिपकी थी| “जब यह दूसरे जोड़े के बिना हमारे स्नानघर में दाख़िल हुईं, मैंने तभी जान लिया था, ज़रूर कुछ गड़बड़ है…..” सम्भ्रान्त एक अधेड़ महिला ने मेरा कन्धा थाम लिया| “घर में क्या बहू से झगड़ा हुआ?” एक वृद्धा की आँखों से आँसू ढुलक लिए| “आपके पिता कहाँ हैं?” एक युवक ने उत्साह दिखाया, “मैं उन्हें खबर करता हूँ| आप अकेली इन्हें कहाँ सम्भाल पाएंगी?” “गुड आफ़्टर नून, मै’म,” भीड़ के एक परिचित चेहरे ने मेरी ओर हाथ हिलाया, “मैं अपनी कार से आयी हूँ| आप दोनों को आपके घर पहुँचा आऊँगी…..” “थैन्क यू,”मैंने उसका सहयोग स्वीकारा| “क्या किसी कॉलेज में पढ़ाती हो?” पहली वाली सम्भ्रान्त महिला ने मुझ से पूछा| “हाँ,” मैंने सिर हिलाया, “यह लड़की मेरी छात्रा है|” “नौकरी-पेशा हो कर इतनी नासमझी दिखाई,” सम्भ्रान्त महिला ने मुझे फटकारा, “और माँ के लिए यह नौबत ले आयी|” “तुम्हारा पागलपन बढ़ रहा है, माँ,” शाम को जब माँ मुझे बात सहने लायक दिखायी दीं तो मैं ने उनकी खबर ली, “आज फिर डॉक्टर के पास तुम्हें ले कर जाना पड़ेगा…..” “मैं पागल नहीं हूँ,” माँ रोने लगीं, “बस, अब और जीना नहीं चाहती…..” “इसीलिए तो डॉक्टर के पास जाना ज़रूरी है,” मैं कठोर हो ली| “मैं वहां न जाऊंगी,” माँ व्यग्र हुईं| बिजली के संघात उस डॉक्टर की चिकित्सा-प्रक्रिया के अभिन्न अंग रहे और माँ वहां जाने से बहुत घबरातीं| “आप ऐसे नहीं मानेंगी तो फिर मजबूर हो कर मुझे आपको वहां दाखिल करवाना पड़ेगा,” मुझे माँ पर बहुत गुस्सा आया| “यह दुख तो नहीं ही झेला जाएगा,” माँ गहरे उन्माद में चली गयीं; कभीअपने बाल नोचतीं तो कभी अपने कपड़े फाड़ने का प्रयास करतीं, “पुराने दुख कट गए थे कि आगे सुख मिलने वाला है, मगर इस बार तो कहीं उम्मीद की लकीर भी दिखाई नहीं दे रही…..” “यह दवा खा लो, माँ,” मैं ने डॉक्टर की बतायी दवा माँ के मुँहमें जबरन ठूंस देनी चाही| माँ ने दवा मेरे मुँह पर थूक दी और मेरा हाथ इतने ज़ोर से दबाया कि न चाहते हुए भी मेरी चीख निकल ली| चीख सुन कर मकान मालकिन दौड़ी आयीं| अस्पताल से एम्बुलेंस उन्हीं ने मंगवायी| माँ और मेरे बीच रिश्ता तब तक ही ठीक रहा, जब तक मैं अपने पिता के घर पर अपनी पढ़ाई पूरी करती रही| “तेरी नौकरी की उम्मीद पर जी रही हूँ,” उन पन्द्रह वर्षों के दौरान माँ मुझे जब-जब मिलीं, मुझे अपने सीने से लगा कर अपना एक ही सपना मेरी आँखों में उतारती रही, “तेरी नौकरी लगते ही हम दोनों अपने अपने नरक से निकल लेंगी|” हमारे साथ अजीब बीती थी|असहाय अपनी विधवा माँ तथा स्वार्थी अपने तीन भाइयों के हाथों कच्ची उम्र में ही माँ जब तंगहाल मेरे पिता के संग ब्याह दी गयी थीं तो उधर अपनी महत्वाकांक्षा के अन्तर्गत मेरे पिता बीस वर्ष की अपनी उस उम्र में मिली अपनी स्कूल क्लर्की से असन्तुष्ट रहने की वजहसे अपने लिए कॉलेज लेक्चरर की नौकरी जुटाने में प्रयासरत थे| पढ़िए -नसीब  घोर संघर्ष वविकट कृपणता का वह तेरह-वर्षीय परख-काल माँ के लिए किसी बल-परीक्षा से कम न रहा था|किन्तुसीढ़ी हाथ लगते ही मेरे पिता को माँ बेमेल लगने लगी थीं| माँ को उन्होंने फिर ज़्यादा देर भ्रम में न रखा| उसी वर्ष अपने कॉलेज में पढ़ाने आयी एक नयी लेक्चरर से अपनी शादी रचा ली और माँ को अपनी विपत्ति काटने के लिए नानी के पास भेज दिया| बढ़ रही माँ की बड़बड़ाहटों का हवाला दे कर| हरजाने की एवज़ में माँ ने मेरे पिता से मेरी पढ़ाई का बीड़ा उठाने की मांग रखी थी|जानती रही थीं उनके गरीब मायके पर मेरी पढ़ाई अधूरी रह जाती जब कि मेरे पिता के घर पर एक साथ दो बड़ी तनख्वाहों के आने से मेरी पढ़ाई सही ही नहीं, बल्कि उत्तम दिशा में आगे बढ़ने कीसम्भावना … Read more

रात

                                               एक मासूम बच्चा रात में और  अँधेरे में फर्क नहीं करता , उसे लगता है जहाँ अँधेरा है वहां रात है | रात अलग है , दिन में भी कहीं , कोनों में अँधेरा हो सकता है ये बात उसे पिता ही समझाता है | परन्तु क्या जीवन की रात यानि वृद्धावस्था से जूझते पिता के इन अंधेरों को बेटा भी उसी तरह दूर करता है | सोचने पर विवश करती कहानी … रात  शाम ढल गई थी । रात का पंछी पंख पसारने लगा था । पिता अपने ढाई साल के बच्चे के साथ सड़क पर टहल रहा था । पश्चिमी क्षितिज पर छाए गुलाबी बादलों में प्रकृति का चित्रकार अब काला रंग भर रहा था ।               ” पापा , रात में अँधेरा होता है ? ”              ” हाँ , बेटा । ”              ” पापा , रात में कुछ नहीं दिखता ? ”              ” हाँ , मेरे बच्चे । ”               इस घटना के कुछ दिनों बाद बच्चा अपने खिलौने से खेल रहा था । खेलते-खेलते उसका खिलौना संदूक के नीचे चला गया । पिता पास बैठा अख़बार पढ़ रहा था ।               ” पापा , पापा । मेरा खिलौना अंदर चला गया है । निकाल दो । ”              ” बेटा , नीचे झुको और हाथ अंदर डाल कर खिलौना निकाल लो । अब तो आप बड़े हो रहे हो । शाबाश । ”               बच्चा ज़मीन पर लेटकर संदूक के नीचे देखने लगा । पर उसने अपना हाथ अंदर नहीं डाला । उसकी आँखों में भय की महीन रेखा उभर आई ।              ” पापा , अंदर रात है । अँधेरा है । ”  पिता यह सुनकर मुस्कराया । वह बच्चे को खिडकी के पास ले गया ।               ” बेटा , देखो । अभी दिन है , रात नहीं । सूरज आकाश में चमक रहा है । चारों ओर रोशनी है । ”                फिर वह बेटे के साथ ज़मीन पर बैठकर झुका और उसे संदूक के नीचे दिखाते हुए बोला — ” अंदर अँधेरा तो है पर रात नहीं है , बेटा । ज़रूरी नहीं कि जहाँ अँधेरा हो , वहाँ रात भी हो । ”                बच्चे को उसका खिलौना मिल गया था । वह खेलने में मस्त हो गया ।  पढ़िए -ताई की बुनाई               समय का रथ अबाध गति से चलता रहा ।               तीस साल बीत गए । अब बेटा बड़ा हो गया था । वह नौकरी करने लगा था । उसकी शादी हो गई थी और उसका एक बच्चा भी था ।                 पिता अब बूढ़ा हो गया था । बुढ़ापा अपने-आप में ही बीमारी होती है । ऊपर से उसकी आँखों में मोतियाबिंद उतर आया था । सब धुँधला-धुँधला लगता था । आँखों के आगे अँधेरा-सा छाया रहता था । वह पिछले छह महीने से बेटे से कह रहा था , ” बेटा , मुझे किसी डॉक्टर को दिखा दो । मेरा ऑपरेशन करवा दो । ठीक से दिखता नहीं है । कई बार ठोकर खा कर गिर चुका हूँ । घुटने छिल गए हैं । धोती फट गई है । आँखों की रोशनी बुझती जा रही है … ”               पर बेटा अपने जीवन में व्यस्त था । वह एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर था । दिन कंपनी के नाम था । रात बीवी-बच्चे के नाम थी । पिता के लिए उसके पास समय नहीं रह गया था । पिता घर में पड़े किसी फ़ालतू सामान-सा उपेक्षित जीवन जी रहा था ।               एक दिन बेटा हमेशा की तरह देर-शाम दफ़्तर  से घर पहुँचा । अपने बेड-रूम में जाते हुए उसने पिता के कमरे में झाँका । । वहाँ अँधेरा था । उसने ध्यान से देखा । पिता अँधेरे में ही बिस्तर पर बैठा था । उससे रहा नहीं गया — ” क्या , पिताजी ! शाम ढल चुकी है । रात हो गई है । और आप कमरे में अँधेरा किए बैठे हैं । कम-से-कम उठ कर लाइट तो जला ली होती । यह इंसानों के रहने का घर है । शाम के समय घर में बत्ती नहीं जलाना अपशकुन माना जाता है । ”              और इतना कह कर उसने कमरे की बत्ती जला दी । कमरे में उजाला हो गया ।              पिता ने चाहा कि वह कहे — ” बेटा , मेरा सूरज तो तू था । जब तूने ही मुझसे मुँह मोड़ लिया तो मेरे जीवन में कैसी रोशनी ? तूने कमरे में तो उजाला कर दिया पर मेरे भीतर जो अँधेरा छा गया है , मेरे जीवन में जो रात उतर आई है , उसे कौन-सा बल्ब दूर करेगा ? ”  पढ़िए -दलदल             पर बेटा तब तक अपने कमरे में लौट गया था । अचानक पिता तीस साल पीछे चला गया जब बेटे का खिलौना संदूक के नीचे चला गया था और बेटे ने उससे कहा था — ” पापा , अंदर रात है , अँधेरा है । ”              उस दिन उसने बेटे को समझाया था  — ” बेटा , ज़रूरी नहीं कि जहाँ अँधेरा होता है , वहाँ रात भी हो । ”             पर आज उसे लगा कि शायद तब बेटे ने ठीक कहा था । जहाँ अँधेरा होता है , वहाँ रात भी होती है । उसकी आँखों में अँधेरा भरा हुआ था । और उसके मन में एक अंतहीन रात उतर आई थी … Read more

चचेरी

सिबलिंग राइवलरी एक ऐसा शब्द है जिससे  कोई अनभिज्ञ नहीं हैं | मामला दो चचेरी बहनों का हो तो ये और भी कहर ढाने वाला हो जाता है | ये बिना बात की जलन ऐसी ,कि जरूरत हो ना जरूरत हो दूसरे के काम को बनता देख दिल में उथल -पुथल शुरू हो जाती है  और दिमाग टांग अडाने की तकनीके सोचने लगता है | आज हम आपके लिए लाये हैं दो चचेरी बहनों की इर्ष्या  पर आधारित एक ऐसे ही कहानी | ये कहानी 2015 में हंस में प्रकाशित हो चुकी है | आइये पढ़ें वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी … चचेरी  “प्रभात कुमार?” वाचनालय के बाहर वाले गलियारे में अपने मोबाइल से उलझ रहे प्रभात कुमार को चीन्हने में मुझे अधिक समय नहीं लगा| “जी….. जी हाँ,” वह अचकचा गया| “मुझे उषा ने आपके पास भेजा है…..” “वह कहाँ है?” उसे हड़बड़ी लग गयी, “उसका मोबाइल भी मिल नहीं रहा…..” “कल शाम दोनों बरिश में ऐसे भीगे कि उषा को बुखार चढ़ आया और उस का मोबाइल ठप्प हो गया,” मैं मुस्कुरायी| कल शाम उषा ने प्रभात कुमार ही के साथ बिताई थी| चंडीगढ़ में पांच दिन के लिए आयोजित की गयी इस साहित्यिक गोष्ठी में हम चचेरी बहनें लखनऊ से आयी थीं और प्रभात कुमार कोलकाता से| किन्तु दूसरे दिन के पहले सत्र में ‘आधुनिक साहित्य-बोध’ के अन्तर्गत हुई चर्चा में उषा की भागीदारी ने प्रभात कुमार पर ऐसी ठगोरी लगायी थी कि वह अगले ही सत्र में उसके अरे-परे आकर बैठने लगा था| परिणाम, उषा का सुनना-सुनाना फिर गोष्ठी से हटकर प्रभात कुमार पर जा केन्द्रित हुआ था| तीसरा दिन दोनों ने विश्वविद्यालय के इस वाचनालय में बिताया था और चौथे दिन, यानी कल, दोपहर ही में वे सैर-सपाटे के लिए बाहर निकल लिए थे| “कितना बुखार है?” प्रभात कुमार का स्वर तक तपने लगा| “एक सौ चार| इसीलिए डॉक्टर ने दिसम्बर की इस हाड़-कंपाने वाली सर्दी में उसे बाहर निकलने से सख़्त मना किया है…..” “मगर मेरा उससे मिलना बहुत ज़रूरी था| कोलकाता का मेरा टिकट कल सुबह के लिए बुक्ड है और वह आज ही बाहर नहीं निकल पा रही,” प्रभात कुमार रोने-रोने को हो आया| “जभी तो उसने यह पत्र आपके नाम भेजा है,” उषा द्वारा तैयार किया गया लिफाफा मैंने उसकी तरफ़ बढ़ा दिया| “लाइए,” उसने लिफाफा खोला और अन्दर रखे पत्र पर झपट पड़ा| “तुम फ़िल्म ज़रूर देखना,” उचक कर उषा की कलम-घिसटती लिखाई में प्रभात कुमार के साथ मैंने भी पढ़ा, “और दूसरी टिकट पर रेवा को साथ ले जाना| वह मेरे ताऊ की बेटी है| औरफ़िल्मों की शौकीन| आज हमारा मिलना ज़रूर असम्भव रहा है मगर यह अन्त नहीं है| स्पेन की उस कहावत को याद रखते हुए जो कल तुम मुझे सुना रहे थे : ‘लव विदाउट एंड हैज़ नो एंड’ (मनसूबा बांधे बिना किया गया प्यार कभी विदा नहीं लेता)- तुम्हारी उषा|” “आइए|” प्रभात कुमार वाचनालय के मुख्य द्वार की ओर लपक पड़ा| “वुडी एलन की ‘मिडनाइट इनपेरिस’ देखी थी, तभी उसकी यह ‘ब्लु जैसमीन’ मेरे लिए देखना ज़रूरी हो गया था,” प्रभात कुमार की हड़बड़ीपूर्ण तेज़ी के साथ कदम मिलाते हुए मैंने वातावरण के भारीपन को छितरा देना चाहा| पढ़िए -हकदारी प्रभात कुमार ने कोई उत्तर नहीं दिया| “आपको वुडी एलन पसन्द नहीं क्या?” “स्कूटर,” प्रभात कुमार चिल्लाया और स्कूटर पर चढ़ लिया| और जब उसने ‘ब्लु जैसमीन’ बिनाबोले गुज़ार दी तो मैंने अपने भीतर एक उत्सुक जिज्ञासा को जागते हुए पाया| “क्या कहीं घूमा जाए?” सिनेमा-हॉल से बाहर निकलते ही मैंने सुझाया| “कहाँ घूमेंगे?” प्रभात कुमार की आँखें और वीरान हो उठीं| “जहाँ उषा के साथ घूमना था,” मैंनेउसे डोर पर लाना चाहा, “जहाँ उसके साथ डोलना-फिरना था…..” “उसने आपको बताया था?” “बिलकुल,” मैंने झूठ कह दिया, “मत भूलिए, हम दोनों चचेरी बहनें हैं और अपने अपने जयपत्र एक-दूसरे के संग साझे तो करती ही हैं…..” मगर सच पूछें तो ऐसा कतई नहीं था| उषा और मैं बहनेली कभी नहीं रही थीं| कारण पारिवारिक मनमुटाव था| जो सन् चौरासी के दिसम्बर में शुरू हुआ था| जिस माह दादा ने चाचा से उनकी भोपाल वाली नौकरी छुड़वाकर उन्हेंलखनऊमें एक कारखाना खरीद दिया था, परिवार की सांझी पूंजी से| “तो क्या पिंजौर चलेंगी आप?” प्रभात कुमार ने पहली बार मुझे अपनी पूरी नज़र में उतारा| “क्यों नहीं?” अपने स्वर में चोचलहाई भरकर मैंने कहा, “नए लोग और नयी जगहें मुझे बेहद आकर्षित करती हैं| जभी तो मैं उषा के साथ चंडीगढ़चलीआयी वरना साहित्य और साहित्य-बोध में मेरी लेश मात्र भी रूचि नहीं…..” “आप ने अभी जिस जयपत्र शब्द का प्रयोग किया उसका प्रसंग मैं समझ नहीं पाया,” पिंजौर की ओर जाने वाली बस में सवार होते ही प्रभात कुमार ने उत्सुकता से मेरी ओर देखा| “प्रसंग उषा की विजय का है, बल्कि महाविजय का है…..” “महाविजय? कैसी महाविजय?” “इतने कम समय में आप जैसे यशस्वी व युवा कवि का मन जीत लेना उसकी महाविजय नहीं तो और क्या है?” “मन तो उसने मेरा जीता ही है| जो दृढ़संकल्प और आत्मविश्वास उसने मेरे भीतर जगाया है, उसने तो मेरा जीवन ही पलट दिया है,” वह लाल-सुर्ख़ हो चला| “वह स्वयं भी तो दृढ़-संकल्प व आत्मविश्वास की प्रतिमूर्ति है,” अपनी डोर मज़बूत रखने के लिए मैंने तिरछी हवा का सहारा लिया, “बचपन से लेकर अब तक जो पढ़ाई में लगी है, सो लगी है| स्कूल-कॉलेज के समय उसे अगले साल के लिए छात्रवृत्ति पानी होती और अब अपनी अध्यापिकी में उसे ऊँचा स्केल पाने के लिए पी. एच. डी. करनी है…..भाई की इंजीनियरिंग और बहन की आई. आई. एम. का र्चा तब तक उठाती रहेगी जब तक उन की पढ़ाई पूरी न हो लेगी और वह आर्थिक निर्भरता हासिल न कर लेंगे…..” “मगर उसके पिता का तो लखनऊ में अपना कारखाना है…..” “है तो! मगर वह शुरू ही से डांवाडोल स्थिति में रहा है| चाचा उसे लीक पर ला ही नहीं पाए| असलमें अपनी इंजीनियरिंग केबाद भोपाल में वह अच्छी नौकरी पा गए थे और वह नौकरी उन्हें कभी छोड़नी नहीं चाहिए थी…..” “हाँ, उषा बता रही थी सन् चौरासी की जिस दो दिसम्बर के  दिन उसके माता-पिता लखनऊ में विवाह-सूत्र में बंध रहे थे, उसी दिन यूनियन कारबाइड की उस इनसैक्टिसाइड फैक्टरी में हुए गैस-स्त्राव … Read more

दलदल

   यूँ तो दलदल हर चीज को निगल जाता है , इसलिए बहुधा हम दलदल केपास जाने से  बचते हैं पर एक दलदल और है जो हमारे व्यक्तित्व को निगल जाता है वो है डर का दलदल | डर जो हमें अपने अंदर खींचता रहता है और आगे बढ़ने से  रोक देता है, जरूरत है इस दलदल से बाहर निकलने की | पढ़िए वरिष्ठ कथाकार सुशांत सुप्रिय की कहानी -दलदल   कहानी -दलदल  “ मैं उस समय बारह साल का था । वह दस साल का रहा होगा । वह — मेरा सबसे अच्छा मित्र सुब्रोतो । ” बूढ़े की भारी आवाज़ कमरे में गूँज उठी । वह हमें अपने जीवन की सत्य-कथा सुना रहा था ।         कुछ पल रुक कर बूढ़े ने फिर कहना शुरू किया , ” मेरा जन्म सुंदरबन इलाक़े के पास एक गाँव में हुआ । गाँव से दो मील दूर दक्षिण में दलदल का इलाक़ा था । पिता मछुआरे थे जो गाँव के उत्तर में बहती नदी से मछलियाँ पकड़ने का काम करते थे । पिता बताते थे कि पच्चीस-तीस मील दूर जा कर यह नदी एक बड़ी नदी में मिल जाती थी । गाँव के पूरब और पश्चिम की ओर घने जंगल थे ।       मेरा मित्र सुब्रोतो बचपन में ही अपाहिज हो गया था । पोलियो की वजह से उसकी एक टाँग हमेशा के लिए बेकार हो गई थी । पर मेरी सभी शरारतों और खेलों में वह मेरा भरपूर साथ निभाने की कोशिश करता था । सुब्रोतो की आवाज़ बहुत सुरीली थी । वह बहुत मीठे स्वर में गीत गाता था । उसके गाए गीत सुन कर मैं मस्त हो जाता था ।        हमें गाँव के दक्षिण में स्थित दलदली इलाक़े की ओर जाने की सख़्त मनाही थी ।उस दलदल के भुतहा होने के बारे में अनेक तरह की कहानियाँ प्रचलित थीं । हम बच्चे अक्सर गाँव के उत्तर में बहती नदी के किनारे जा कर खेलते थे । मैं नदी में किनारे के पास ही तैरता रहता जबकि सुब्रोतो किनारे पर बैठा नदी के पानी में एक कोण से चपटे पत्थर फेंक कर उन्हें पानी की सतह पर फिसलता हुआ देखता ।       अपने हम-उम्र बच्चों के बीच मैं बड़ा बहादुर माना जाता था । दरअसल मैंने एक बार गाँव में घुस आए एक लकड़बग्घे पर पत्थर फेंक-फेंक कर उसे गाँव से बाहर भगा दिया था । एक बार नदी किनारे खेलते-खेलते गाँव के कुछ बच्चों ने मुझे चुनौती दी कि क्या मैं गाँव के दक्षिण के दलदली इलाक़े में अकेला जा सकता था ? बात जब इज़्ज़त पर बन आई तो मैंने चुनौती मान ली । हालाँकि सुब्रोतो ने मुझे ऐसा करने से मना किया पर तब तक मैंने हामी भर ली थी । यह तय हुआ कि कल मैं गाँव के दक्षिण में स्थित दलदली इलाक़े में जाऊँगा और सकुशल लौट कर दिखाऊँगा ।         नियत दिन सुबह गाँव के सभी बच्चों की टोली गाँव के दक्षिणी छोर पर पहुँची । मैं और सुब्रोतो भी उन सब के साथ थे । मुझे दो मील दूर के दलदली इलाक़े में जा कर कुछ समय वहाँ बिताना था और फिर सकुशल वापस लौट कर दिखाना था । सबूत के लिए मुझे दलदल की कुछ गीली मिट्टी साथ ले जाए जा रहे थैले में भर कर वापस लानी थी । बाक़ी बच्चे वहीं मेरा इंतज़ार करने वाले थे । उस दलदली इलाक़े में जाने से सभी डरते थे ।         लेकिन ऐन मौक़े पर मुझे भी उस दलदली इलाक़े में अकेले जाने में डर लगने लगा । मैंने बाक़ी बच्चों से इजाज़त माँगी कि मेरा प्रिय मित्र सुब्रोतो भी मेरे साथ जाएगा । बाक़ी बच्चे बड़ी मुश्किल से माने पर सुब्रोतो ने दलदली इलाक़े में जाने से साफ़ इंकार कर दिया । जब मैंने उसे हमारी मित्रता का वास्ता दे कर भावुक किया तब जा कर वह मेरे साथ चलने के लिए तैयार हुआ ।         आख़िर उस सूर्य-जले दिन हमने अपना सफ़र शुरू किया । दो-ढाई मील चल कर अंत में हम दोनों उस इलाक़े में पहुँच गए । सामने खदकता हुआ दलदल था जिसमें डरावने बुलबुले फूट रहे थे और अजीब-सी भाफ़ उठ रही थी । दलदल के किनारे से कुछ दूर पहुँच कर हम दोनों बैठ गए । सुब्रोतो लँगड़ा कर चलने की वजह से बेहद थक गया था और हाँफ रहा था । लेकिन असली काम तो अभी बाक़ी था । सबूत के तौर पर हमें दलदल की थोड़ी गीली मिट्टी साथ लाए थैले में भर कर वापस ले जानी थी ।         सुब्रोतो को वहीं छोड़ कर मैं दलदल की ओर आगे बढ़ा । ज़मीन घास, मरे हुए पत्तों और फिसलन भरी काई से ढँकी हुई थी । ठीक से कुछ पता नहीं चल रहा था कि कहाँ ठोस ज़मीन ख़त्म हो गई थी और गहरा दलदल शुरू हो गया था ।        अगला क़दम ज़मीन पर रखते ही मैंने पैर को धँसता हुआ महसूस किया । इससे पहले कि मैं सँभल पाता , मेरा दूसरा पैर भी दलदल में धँसने लगा था ।        मैं सुब्रोतो का नाम ले कर ज़ोर से चिल्लाया । लेकिन जब तक सुब्रोतो लँगड़ाते हुए मेरे पास पहुँचता , मैं कमर तक दलदल में धँस गया था । जैसे नदी में डूबता हुआ आदमी तिनके को भी सहारा समझ कर बचने के लिए व्याकुल हो कर छटपटाता है , उसी तरह मैंने भी सुब्रोतो के अपनी ओर बढ़े हुए हाथ को कस कर अपने हाथों में पकड़ लिया और व्याकुल हो कर छटपटाते हुए ख़ुद को किसी तरह दलदल से बाहर निकालना चाहा । लेकिन जब मैंने उसके हाथ के सहारे दलदल से बाहर निकलने की कोशिश की तो इस खींच-तान में सुब्रोतो के पैर की किनारे पर से पकड़ ढीली हो गई और वह भी मेरे साथ ही उस दलदल में आ गिरा । देखते-ही-देखते वह भी दलदल में कमर तक धँस गया । दलदल हर पल हम दोनों पर अपना शिकंजा कसते हुए हमें नीचे खींचता जा रहा था ।       घबरा कर मैंने  इधर-उधर देखा … Read more

पड़ोसी

घर वालों से दूर , परिवार वालों से दूर जब हम किसी अजनबी शहर में अपना घोंसला बनाते हैं तो हमारी सुख में दुःख में जो व्यक्ति सबसे पहले काम आते हैं वो होते हैं पड़ोसी ….एक अजनबी शहर में एक नया परिवार बनने लगता  है , पड़ोस में शर्मा जी , अजहर चाचा , रोजी ताई आदि आदि … ये वो लोग होते हैं जो रक्त से हमारे ना होते हुए भी हमारे हो जाते हैं …पर क्या यूँ ही मात्र कहीं रहने से सारा पड़ोस हमारा हो जाता है या एक रिश्ता बनाना और सींचना भी पड़ता है …. कहानी -पड़ोस  ज्योहि फोन की घंटी बजी,मैने लपक कर फोन उठा लिया,शायद इसी Call का इन्तजार था।सामने से समधिन जी का फोन था!जैसे ही उन्होने बताया,बेटी हुई है,हमारे घर लक्ष्मी आयी है,पोती के रूप मे! सुनकर मन मयूर प्रसन्नता से झूम उठा। रात से ही बिटिया ऐडमिट थी डिलीवरी वास्ते। बडी चिन्ता हो रही थी उसकी,किसी काम मे मन नही लग रहा था।बार-बार ईश्वर के आगे हाथ-जोड विनती कर रही थी,जच्चा-बच्चा सुरक्षित हो बस।ऐसे कठिन समय मे कुछ भी हो सकता था,क्योकि समय पूरा हो चुका था,डाक्टर की दी डयू डेट निकल रही थी।बच्चे की जान को खतरा हो सकता था इसी डर के चलते सासु मां ने समय पर ऐडमिट करवा दिया था। डाक्टर ने समय कि नाजुकता को देखते हुऐ आपरेशन से डिलीवरी करा दी थी।अब बेटी की कुशलता जानकर मन शान्त हो गया था। कैसी होगी,मेरी बिटिया की बिटिया,कुछ सोच मन अतीत के पन्नै खोलने लगा था,मेरी ये बिटिया भी बडे मेजर आपरेशन से ही हुई थी।पर,मेरी बेटी पैदा होने से पूर्वमेरा पहला बच्चा नार्मल घर पर हुआ था।मेरा पूरा प्रयास था कि मेरा दूसरा बेबी भी नार्मल डिलीवरी से हो,पर ऐसा हो ना सका। ये तीस साल पहले की बात है,मै अपने पति संग बेटे सहित कम्पनी के दिये मकान मे यानि कैम्पस मे रहती थी,पर डिलीवरी से पहले जांच हेतु मशहूर डाक्टर उषा गुप्ता के पास नियमित रूप से जाती थी।सब कुछ नार्मल था।मै निशिन्त थी।  एक बार डाक्टर ने मुझसे पूछा उषा :-यहां कौन रहता तुम्हारे संग? मै:-जी,यहां तो मै अपने पति व बेटे संग रहती हूं।  उषा:-मेरा मतलब,डिलीवरी के समय ,तुम्हारे ससुराल वाले,या कोई और रिश्तेदार…..  मै :-जी,यहां तो कोई नही रहता,सब बहुत दूर-दूर है। उषा:-फिर तुम मेरे नर्सिंग होम के जनरल वार्ड मे तो नही रह पाओगी,!  मै :-जी उषा :-तुम्हे अलग से कमरा लेना पडेगा,क्योकि तुम्हारे पति जनरल वार्ड मे नही जा सकते ,वहां पुरूष ऐलाऊड नही है।तुम अकेली कैसे रहोगी। मै :-पर उसका तो खर्चा बहुत होगा वो मै नही दे पाऊगी।  उषा :-कोई बात नही,कुछ तो करना पडेगा.,तुम्हे मै एक अलग छोटा कमरा दे दूगी,वो मंहगा नही पढेगा। पढ़िए -मेरी दुल्हन  समय पंख लगाकर उडता रहा,और मै लेबर पेन ले रही थी।पर ये क्या……दर्द लेते -लेते मेरा प्लस्न्टा भी कट-कट कर यूरिन मे आने लगा। मेरी ऐसी हालत देख डाक्टर उषा भी घबरा गयी!उन्होने तुरन्त अपने सर्जन पति मिस्टर गुप्ता को आवाज दी और स्टाफ को ओ०टी (आपरेशन थियेटर) तैयार करने का निर्देश दिया। रात के तीन बज रहे थे।तुरन्त ऐनीथिसया के डाक्टर को फोन किया!मुझे डाक्टर ने दो टूक शब्दो मे बता दिया, “तुम्हारा मेजर आपरेशन करना पढेगा,”।पर तभी मैनै दलील दी कि मेरा पहला बच्चा तो नार्मल हुआ है!तभी डाक्टर बोली-ऐसा है मै कोई रिस्क नही ले सकती,बलीडिगं हो रही है मां अथवा बच्चे मे किसका खून बह रहा है कह नही सकती,हो सकता है मै मां अथवा बच्चे मे से किसी एक को बचा पाऊ! मेरे पति को देहली के औखला से ब्लड लाने को रवाना कर दिया।उस समय खून केवल देहली मे ही मिलता था।खून लेने जाने से पहले मेरे पति ने डाक्टर से कहा-डाक्टर आप कोशिश कीजिये और दोनो को बचाईये,मां भी बच्चा भी !डाक्टर ने फार्म पर हस्ताक्षर करवा लिये थे।हमारे पास एक बेटा तो था,पर उसके संग खेलने वाली एक बेटी चाहते थे। पढ़िए -हकदारी आनन-फानन मे डाक्टर ने आपरेशन करके मुझे व मेरी बच्ची दोनो को बडी होशियारी से बचा लिया था।मै व बच्ची दोनो अब खतरे से बाहर थे और हमे आई०सीयू मे शिफ्ट कर दिया था।रात तक मेरे पति खून की बोतले लेकर लौट आये थे,एक ओर मेरी बाजु मे ग्लूकोज लगाया गया तो दूसरी बाजु मे खून चढाना शुरू कर दिया। आधी रात के बाद मुझे होश आया,तभी मैने पास बैठी नर्स से पूछा,सिस्टर मुझे क्या हुआ है, बेटा या बेटी, ???नर्स ने मेरी ओर बडे प्यार से देखा,और मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुऐ पूछा,आप की क्या इच्छा थी?मैनै कहा ,बेटी होगी,तो मेरा परिवार पूरा हो जायेगा। ठीक  ,बेटी ही हुई है आपको।खुश हो जाये आप।इस तरह आपरेशन हो जाने के बाद मैने एक सप्ताह अस्पताल मे गुजारा। जिस कैम्पस मे रहती थी वहां रहने वालो सभी के संग मेरा बडा प्यार था।एक दूसरे के संग दुख-सुख बांटना मुझे खूब भाता।हर त्यौहार को हम मिलकर मनाते चाहे वो हरियाली तीज हो या दिपावली।लेन-देन भी खूब होता खाने का।मै अस्पताल मे हूं सुनकर सभी कालोनी की औरते मेरे पास पहुंचने लगी,बडी भीड सी जुट गयी मेरे कमरे मे!जब भीड हुई तो शोर भी होना ही था,लाजिमी।जब डाक्टर राऊड पर आयी तो मुझसे मुखातिब होकर बोली-“तुम तो कह रही थी,मेरा यहां कोई रिश्तेदार नही रहता,……. पर सबसे ज्यादा भीड तो तुम्हारे कमरे मे हो रही है……??मैनै डाक्टर को बताया-ये सब मेरे पडोसी है,जरुर,पर ये मेरे लिये किसी परिवार से कम नही।।  मै जितने दिन अस्पताल मे रही,किसी ना किसी के घर से मेरे पति का व मेरा खाना पहुंचता रहा। कोई मेरा बंधा दूध उबालकर पहुंचा रहा।कोई मेरे खाने के बर्तन धो देता।एक सप्ताह कैसे गुजर गया पता भी नही चला था। एक परिवार से भी बढकर था मेरा पडो़स,जिन्होंने दुख की घड़ी मे मेरा पूरा साथ दिया, और आज मेरी उसी बेटी की बेटी हुई थी,अगर उस दिन डाक्टर उषा मेरी बच्ची को नही बचा पाती तो ……क्या ?मै आज ये दिन देख पाती,? अपनी बेटी की बेटी यानि अपनी नातिन को देखने की चाह मे मै बडे उत्साह से उठ खडी हुई ,और वहां जाने से पूर्व की खरीददारी करने के लिये तैयार होने लगी।मन मे एक उत्साह व उमंग बडी हिलोरे ले रहा … Read more