एक डॉक्टर की डायरी – उसकी मर्जी

ये एक डॉक्टर का सत्य अनुभव है | आमतौर पर डॉक्टर संवेदनहीन माने जाते हैं पर एक डॉक्टर को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सीखना होता है …. खास कर तब जब मरीज के नाम ऊपर से मौत का फरमान जारी हो चुका हो | एक डॉक्टर की डायरी – उसकी मर्जी वार्ड के बाहर बहुत शोर था | ये सारे डॉक्टर बहुत चोर होते हैं | मरीज की जान चली जाए पर इनकी जेबें भरी रहे | अपने ही केबिन में बैठे -बैठे मैं समझ गयी की शायद मीता का केस बिगड़ गया है | एक ठंडी आह भर कर “उसकी मर्जी “कह , मैंने सामने बैठे मरीज को देखना शुरू किया | पर फिर से एक प्रश्न मन में उमड़ आया ,क्या डॉक्टर सच में संवेदना शून्य होते हैं ? मैं … मैं भी तो ऐसी नहीं थी | जब मेडिकल की परीक्षा पास करी थी तब कितने सपने थे की मरीजों की सेवा करने के | सोचती थी हर मरीज को अपने परिवार का सदस्य मानूँगी , पूरी जी जान से सेवा करुँगी |  जूनियर डॉक्टर बनते ही वार्ड में ड्यूटी  भी लगने लगी | उस समय कोई खास काम नहीं करना होता था | बस मरीजों को चेक कर ये देखना होता था कि वो ठीक से दवा वैगैरह ले रहे हैं या नहीं , उनसे बातें करना और खिलखिला कर उनके दर्द कम करना |  उसी समय हॉस्पिटल में एडमिट हुई थी श्रेया | फर्स्ट डिलीवरी थी उसकी |  थोडा कोम्प्लिकेशन था ,इसीलिये एडमिट किया गया था | श्रेया का प्रेम विवाह था | घर वालों के खिलाफ जा जा कर उसने श्रेयस से शादी की थी , पर साथ ज्यादा ना चल सका | एक कार एक्सीडेंट ने श्रेयस को उससे उस समय छीन लिया जब वो तीन माह की गर्भवती थी | श्रेयस की अंतिम निशानी को वो दुनिया भर की सारी  खुशियाँ देना चाहती थी | तभी तो इतने बड़े आघात के बाद भी उसने आशा का दीप अपने अंदर संजोये रखा था |  उसका पूरा परिवार भी इसी कोशिश में लगा रहता कि वो हरदम खिलखिलाती रहे | पूरा जच्चा -बच्चा वार्ड उनकी हंसी से खिलखिलाता | मैं भी अक्सर वहीँ जा कर बैठ जाती | श्रेया से मेरी दोस्ती होने लगी थी | श्रेया अक्सर मुझे अपने होने वाले बच्चे के लिए खुद बनाए हुए कपडे दिखाती | कभी वो  अपने उन सपनों को साझा करती जो उसने बच्चे के लिए देखे थे | कभी -कभी श्रेयस की याद में जब उसकी आँखें भर जातीं तो अपना दुःख झटक कर कहती , मुझे रोना नहीं है , मुझे हँसना है श्रेयस की निशानी के लिए , तभी तो वो मेरे पास छोड़ कर गए हैं | उस दिन मैं श्रेया के साथ बैठी ताश खेल रही थी कि डॉक्टर आहूजा राउंड पर आयीं | उन्होंने  श्रेया की खांसी पर गौर करते हुए कहा , श्रेया तुम ये टेस्ट करवा लो |” मैंने भी ध्यान दिया जब से श्रेया आई है उसे लगातार खाँसी आ रही है | हालांकि खाँसी इतनी नहीं थी कि चिंता की जाए | श्रेया ने मेरा हाथ पकड़ कर पूछा ,” सब ठीक तो है ना | मैंने भी हाँ में गर्दन हिला दी | वो मुस्कुरा दी | दूसरे दिन पता चला कि उसने उसने फूल सी बेटी को जन्म दिया है | नन्ही फूल सी बच्ची पा  श्रेया बहुत खुश थी … बहुत खुश | पूरा परिवार जैसे जीवंत हो उठा | सपनों ने फिर आकर लेना शुरू कर दिया | बच्ची कमजोर थी इसलिए डॉक्टर आहूजा ने उसे कुछ दिन और हॉस्पिटल में रुकने को कहा | एक हफ्ते बाद डॉक्टर आहूजा ने मुझे अपने केबिन में बुला कर कहा , ” मेघा , ये श्रेया की रिपोर्ट हैं …. इसके बारे में तुम्हे उसे बताना है | मैंने रिपोर्ट पलट कर देखी | ओह … ओरल कैंसर जो  मेटा स्टैसिस कंडीशन में आ कर दोनों फेफड़ों को घेर चुका  था | मुझे चक्कर सा आ गया | मैंने डॉक्टर आहूजा की तरफ देख कर पूंछा , ” कितना समय है ? बस डेढ़ , दो महीने | मेरी आँखें  बाँध तोड़ कर बहने लगीं | मैंने डॉक्टर आहूजा से कहा , ” मैम , मैं नहीं बता पाऊँगी , कृपया  ये काम किसी और को दें | कितनी उम्मीदें है उसे अपनी बच्ची को लेकर | मैं कैसे बता पाऊँगी | डॉक्टर आहूजा ने सख्त आवाज में कहा , ” तुम ही जाओगी , ये भी तुम्हारे प्रोफेशन का हिस्सा है | ऐसे मरीजों को बताना कि उनकी जिन्दगी अब ज्यादा बाकी नहीं है , ऐसे में भी उन्हें आशा देना जब ‘उसकी मर्जी’ के आगे हम सब डॉक्टर हारते हैं | मैं रोती जा रही थी पर डॉक्टर आहूजा ने मेरी एक ना सुनी | मेरे हाथों में फ़ाइल और मेरे चेहरे को देख कर उन सब ने किसी अनहोनी को भांप लिया | श्रेया ने मेरा हाथ पकड कर पूंछा , ” सब ठीक तो है ना | मैंने रुलाई रोकते हुए कहा , रिपोर्ट ठीक नहीं है , कुछ और टेस्ट करने होगे | “रिपोर्ट में क्या निकला है ?” श्रेया के पिता ने अधीरता से पूंछा अभी की रिपोर्ट के अनुसार कैंसर है ,अडवांस स्टेज है ,  हम कल से ही ट्रीटमेंट शुरू कर देंगे |बहुत से मरीज ठीक होते हैं | पर कैंसर शब्द के बाद उन्होंने कुछ भी नहीं सुना | श्रेया , मेरी बेटी , मेरे श्रेयस की निशानी मुझे तुझे पालना है , खूब बड़ा करना है , कह -कह कर रोने लगी | पूरा परिवार अपने आंसू पोंछते  हुए उसे संभालने की कोशिश करने लगा | मैं अपने आँसू पीये वहीँ खड़ी रह गयी …. धीर गंभीर बने रह कर उस दिन मैंने पहली बार अभिनय करना सीखा | उन दो महीनों के समय में पल -पल श्रेया टूटती रही और एक दिन सारे दर्द , सारे भय , सारी  चिंताएं छोड़ कर उस लोक चली गयी | उन दो महीनों के दौरान मैं कितना विवश थी , कितनी असहाय थी , कितना टूट रही थी …. ये मेरे आलावा कोई नहीं … Read more

नीली गिटार

स्त्री अपने अनेक संबोधनों से पहले स्त्री है तभी तो शारीरिक रूप से अस्वस्थ , विकलांग , या शारीरिक रूप से बाधित स्त्री के प्रति भी पुरुष की उसकी सहायता के लिए उमड़ती संवेदना भी , उसके पास आते ही उसे सिर्फ स्त्री रूप में देख पाती है | आखिर ये क्यों है ? वौलेस स्टीवेंज़ की कविता नीली गिटार भी तो एक ऐसी ही रहस्यमयी कविता है जहाँ नीली गिटार के पास आते ही चीजें वैसी नहीं रह जाती जैसे वो दिखतीं हैं | एक कविता को पसंद करने वाली नायिका स्वयं नीली गिटार बन गयी | कैसे ?  नीली गिटार मामा के नाम पर प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस पर शहर में एक विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है| उनके चित्र पर फूलमालाएँ चढ़ाई जाती हैं| उनकी जीवनी व जीवन-चर्या के अनेक प्रसंग सांझेकिए जाते हैं| मित्रों-परिचितों द्वारा| मेरे द्वारा| बात की जाती है स्वतंत्रता संग्राम में रही उनकी भागीदारी की….. सन् १९४२ के ‘करो या मरो’ आन्दोलन के अन्तर्गत कैसे उन्होंने अपने तीन साथियों के संग अपने गाँव की पुलिस चौकी पर भारतीय तिरंगा फहराया था और दो साल जेल काटी थी….. बात की जाती है, सफल रही उनकी पुलिस सेवाकी….. जिसमें सन् १९४७ के एकदम बाद उन्हें एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते बिना कोई परीक्षा दिए भारत सरकार ने डिप्टी पुलिस निरीक्षक के पद पर उन्हें भरती कर लिया था….. उनकेचौबीसवें ही साल में….. बात की जाती है, उनके ब्रह्मचर्य-व्रत के पालन की, जो व्रत उन्होंने सन् १९४८ में भूमिविहीन रहे स्कूल अध्यापक अपने पिता कीअकाल मृत्यु पर लिया था| अनाथ रह गए अपने चार भाई-बहनोंके भरण-पोषण हेतु| साधनविहीन रहे अपने ताऊ-चाचाकी सहायता हेतु….. बात की जाती है उनके चरित्र बल की, उनके आत्म-निग्रह की, उनकेसूत्र-वाक्यों की, उनकेसाहसिक कार्यों की, उनके ऊँचे आदर्शों की….. मगर एक बात नहीं छेड़ी जाती….. यह बात गुप्त रखी जाती है….. अनछुई….. अपनी तहें अपने में समेटे….. वह बात कजली की है| कजली, वहाँ पहले से विराजमान थी जब माँ मुझे मामा के पास छोड़ने गयी थीं| सन् १९७० में| गाँव के स्कूल में मेरी नवमी जमात पूरी होते ही| “यह आकाशबेल कहाँ से टपकी?” माँ ने मामा से रोष जताया था| “इसके पिता मेरे मित्र थे|” मामा बोले थे, विधुर थे| लड़की का इलाज करवाते-करवाते-करवाते कंगाल हो चुके थे| खुद भी बीमार थे| जान लिए थे वह बचेंगे नहीं| लड़की को लेकर चिंतित थे| तभी मैंने कहा, लड़की मैं रख लूँगा…..” “मगरअपने कमरे ही में क्यों?” हम माँ-बेटे ने कजली को मामा के कमरे के दूसरे एकल पलंग पर ही बिछे पाया था| “क्योंकि उसे हर समय चौकसी की जरूरत है, उसकी माँसपेशियाँ पल-पल कमजोर पड़ती जा रही हैं| क्या मालूम कहाँ की कौन सी माँसपेशी कब अपनी हरकत खो बैठे? दिल की? फेफड़े की? चेहरे की? हाथ की? पैर की? दिन में तो अर्दली उसे देखे रहते हैं मगर रात में उसे देखने वाला कोई नहीं…..” “ऐसी नाजुक हालत है तो उसे सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं छोड़ आते? वहाँ देखने को तमाम डॉक्टर रहेंगे, नर्सेंरहेंगी…..” “क्यों छोड़ आऊँ वहाँ?” मामा बिफरे थे, “कैसे छोड़ आऊँ वहाँ? जब मैंने उसके मर रहे बाप से वादा किया है, अब वह मेरी देखभाल में रहेगी? तो?” “मगर वह एक लड़की है| उसे तुम्हारे कमरे में यों नहीं लेटना-सोना चाहिए|” माँ ने कहा था| “मेरे लिए वह लड़की नहीं है| केवल एक जीव है| समझ लो वह हमारे ताऊजी की कोई बीमार गाय है| जिसे देखभाल की, इलाज की, चारा-पानी की जरूरत है…..” यहाँ यह बताता चलूँ कि उन दिनों मामा के गाँव में उनके ताऊजी उधर बीमार गऊओं को अपने दालान में हाँक लाते रहे थे, उनका इलाज भी करवाया करते और उन्हें चारा-पानी भी देते-दिलवाते| माँ फिर चुप कर गयी थीं| शायद डर भी गयी थीं| मामा कहीं नाराज हो गए तो उनके साथ मुझे भी हमारे गाँव विदा कर देंगे| मेरी पढ़ाई पूरी नहीं करवाएँगे| परिवार में हम सभी मामा से भय तो खाते ही थे| मौके-बेमौके उनके तेवर भी बदलते-बिगड़ते रहते| किसी को महत्व देने पर आते तो उसे आकाश पर जा बिठलाते| मगर मिजाज खराब होता तो उसी की मिट्टी पलीद कर देते| मौजी इतने कि मन में मौज होती तो मुट्ठी भर सोना भी दे सकते, वरना मुट्ठी बाँधने पर आते तो लाख कहने-समझाने पर भी मुट्ठी ढीली न करते| कजली को मैं माँ के जाने के बाद मिला| वह भी मामा ही के आदेश पर, “लड़की को साढ़े दस पर फलों का रस पिलाना है और साढ़े बारह पर सब्जियों का सूप| खाना वह मेरे आने पर खाएगी| मेरे साथ…..” उस समय साढ़े दस बजने में पूरे पैंतालीस मिनट बाकी थे किन्तु मैंने उसी समय अर्दली से रस निकालने की प्रक्रिया की जानकारी ले ली| मामा के घर में उस समय बिजली की मिक्सी तो थी नहीं| प्लास्टिक का एक उपकरण था, जिस पर छीली हुई मौसमी के टुकड़े बारी बारी से रखकर भींचे और परे जाते थे और रस निकल आता था| एक मौसमी का रस मुझे जब कम लगा तो गिलास भरने के लिए मैं तीन मौसमी काम में लाया| अर्दली की आनाकानी के बावजूद| हालाँकि रस बनाने में मैंने उसकी सहायता किंचित भी न ली थी| “मामा कह गए थे आपको यह रस पिलाना है|” कजली के पलंग के पास जाकर मैंने गिलास उसकी तरफ बढ़ाया| “तुमने तैयार किया है?” वह मुस्कुरायी, “इतना ज्यादा?” “जी”, मैं लजा गया| “तुम्हारी माँ क्या मेरी ओर देखने को भी मना कर गयी हैं?” वहहँसी| मैं घबरा उठा| क्या उसने सुन लिया था जो मेरी माँ जाते समय मुझे फिर कह गयी थी- “उसलड़की के पास फटकना भी मत| क्या मालूम कब उसकी साँस टूट जाए और आफत तुम पर आन पड़े?” “मेरी आँखें और कान बहुत तेज हैं| आँखेंएक नजर में सामने वाले के दिल का पूरा नजारा ले सकती हैं और कान दूर से भी किसी की कनफुसकी की कानाबाती पकड़ सकते हैं|” “जी|” मैं झेंप गया| “गिलास अभी मेज पर रख दो| तुम्हें पहले मुझे बिठाना होगा|” “जी…..” जैसे ही मैंने अपनी बाहों में उसे समेटा उसने अपना सिर मेरी छाती पर ला टिकाया और बोली, “सिरहाने की तरफ दो तकिए लगाओ मेरी टेंक के वास्ते…..” जब तक मैंने तकिए जमाए उसके … Read more

दोष-शांति

55 वर्षीय राधेश्याम गुप्ता और 58 वर्षीय सीताराम पाण्डेय  एक ही मुहल्ले में रहते थे | दोनों में अच्छी दोस्ती थी | दोनों शाम को रोज साथ -साथ टहलने जाते और दुनिया भर की बातें करते फिर अपना मन हल्का कर वापस लौट आते और अपने घर में व्यस्त हो जाते | पर आजकल उनकी बातों का दायरा दुनिया से सिमिट कर उनके बच्चों तक आ गया था | क्यों ना आता , आजकल वो थोड़े परेशान  जो थे | परेशानी का कारण था उनके बच्चों की शादी  | दोनों बच्चों की शादी की उम्र थी , माता -पिता प्रयास भी बहुत कर रहे थे पर शादी कहीं तय नहीं हो रही थी | अक्सर दोनों की बातचीत में यह रहता कि किसी पंडित को जन्म कुंडली  दिखा कर दोष शांति कर ली जाए तो शायद काम बन जाए |  लघु कहानी -दोष शांति  पहले मिलते हैं राधेश्याम गुप्ता जी के बेटे से … उनका बेटा यूँ तो इंजिनीयर था , प्राइवेट कॉलेज में  बड़ी मुश्किल से एडमिशन करवाया था राधेश्याम जी ने | पर लड़के का मन पढाई में नहीं लगता , हाँ जैसे कैसे करके पास हो जाता | उसका मन रमता था  म्यूजिक कंपोज करने में | ये शौक उसको बचपन से था ,  पिताजी के डर से इंजीनियरिंग तो कर ली पर मन तो आखिर मन ही है, उसे जहाँ जाना है वहीँ जाएगा  | अलबत्ता कॉलेज के दिनों में ही  कुछ दोस्तों के साथ  मिलकर अपना एक बैंड बना लिया , और एक यू ट्यूब चैनल भी शुरू कर दिया |  फिर शुरू हुआ यू  ट्यूब पर अपने बैंड द्वारा कम्पोज की गयी धुनों को डालने का सिलसिला | ये सब काम पिताजी से छुप -छुप कर हुआ था | चैनल के आंकड़े बढ़ ही रहे थे कि इंजीनीयरिंग की डिग्री हाथ आया गयी और पिताजी के कहने  पर नौकरी भी ज्वाइन कर ली |  जैसा कि उसे खुद ही उम्मीद थी , मन नहीं लगा और जनाब महीने भर में नौकरी छोड़ कर आ गए | पिताजी से कह दिया कि वो नौकरी नहीं करेंगे औरर अपने यू ट्यूब चैनल से ही पैसा इतना कमाएंगे की कहीं बाहर जा कर नौकरी की जरूरत ही ना पड़े | शुरू में तो  राधेश्याम जी ने इनकार कर दिया | घर में बहुत कोहराम भी मचाया पर उनका बेटा कान पर हाथ दिए अपने काम में लगा रहा | उसकी मेहनत रंग लायी और उसकी कमाई  इतनी हो गयी कि राधेश्याम जी ने कहना बंद कर दिया | दो साल तो ठीक से कटे पर जब ब्याह की बात शुरू करी तो लड़की वाले दुबारा दरवाजे का रुख ही ना करते | उधर सीताराम जी की बिटिया  निजी कंपनी में काम कर रही थी | लड़की देखने में भी ठीक -ठाक भी थी | पर उसके पास इतना समय नहीं होता कि घर के अन्य काम जो एक लड़की को “वाइफ मेटीरियल ” बनाते  हों सीख सके | देर से ऑफिस से आना और खा कर सो जाना उसकी दिनचर्या थी | माता -पिता देखते थे कि बिटिया अपने सपनों के लिए कितनी मेहनत कर रही है तो कुछ कहते भी नहीं थे | परन्तु जब शादी की बात शुरू हुई तो अनेकों समस्याएं आने लगीं, जैसे  … लड़के की नौकरी दूसरे  शहर में है तो कौन नौकरी छोड़े ? लड़के की सैलरी लड़की से कम है तो कहीं बाद में सामंजस्य में दिक्कत ना हो , क्योंकि लड़की आत्मनिर्भर है इसलिए वो  ऐसे परिवार के साथ कैसे सामंजस्य कर पाएगी जो पूराने दकियानूसी विचारों के हों , शायद ऐसा ही कुछ -कुछ संशय उन लड़के वालों के मन में भी रहता इसीलिये बात आगे नहीं बढ़ पा रही थी | इस तरह से सीताराम जी व् राधेश्याम जी दोनों ही परेशान  थे | जब मिलते तो अपनी परेशानी बताते कि बच्चों की शादी नहीं हो पा रही है उम्र बढती जा रही है क्या करें |  आम पिताओं की तरह उनकी भी इच्छा थी कि अपने बच्चों को सेटल कर सकें तब चैन से बैठे | दोनों चिंतित तो होते ,  फिर एक दूसरे को दिलासा देते कि हमारे बच्चों के लिए भी भगवान् ने जोड़ा बना ही रखा होगा , जब उसकी इच्छा होगी मिल ही जाएगा | लेकिन इन्ही सब चिंता फिकर की वजह से सीताराम जी को हार्ट अटैक भी आ गया | राधेश्याम जी हॉस्पिटल में कई बार मिलने तो गए थे पर उसके बाद घर आने पर उनकी मुलाक़ात  लगभग ना के बराबर होने लगी , क्योंकि सीताराम जी घर में ही कैद होकर रह गए थे और राधेश्याम जी अपनी समस्या की कैद तो तोड़ने के प्रयास में लगे हुए थे | कुछ समय बाद सीताराम जी भी धीरे -धीरे स्वस्थ हो कर बाहर निकलने लगे | एक दिन रास्ते में जब दोनों एक दूसरे से टकराए तो सीताराम जी को देख राधेश्याम जी ख़ुशी से बोले ,” अरे वाह , आप रास्ते में ही मिल गए , मैं आज आपके ही घर आने वाला था , दरअसल बेटे की शादी तय हो गयी है | सीताराम जी भी बधाई देते हुए चहक कर बोले वाह , ये तो बड़ी अच्छी खबर है | मेरे पास भी एक ख़ुशी की खबर है ,” मेरी बिटिया की भी शादी तय हो गयी है | दोनों मित्र आल्हादित होकर एक दूसरे के गले मिले | फिर सीताराम जी ने पूछा ,” भाई साहब , क्या आपने किसी पंडित को दिखा कर दोष शांति करवाई थी | राधेश्याम जी बोले , ” अरे नहीं , बेटे पर दवाब डाल कर यू ट्यूब चैनल छुडवा  कर नौकरी ज्वाइन कराई | अभी अहमदाबाद में है | नौकरी ज्वाइन करते ही मेरे ऑफिस के सहकर्मी ने ही अपनी बेटी का विवाह प्रस्ताव रख दिया ,  हो गयी दोष शांति ,और आपने ? क्या आपने दोष शांति करवाई थी ?” सीताराम जी बोले , ” बहुत पहले  एक जगह बात चल रही थी जिन्हें पढ़ी -लिखी , सुंदर , गृह कार्य में दक्ष कन्या चाहिए थी , वहीँ बात बन गयी | दरअसल मैंने अपनी बेटी की नौकरी छुडवा दी और हो  गयी दोष शांति | … Read more

टोहा टोही

टोहा -टोही , जैसा की नाम से ही विदित हो रहा है थोड़ी सी रहस्यमय कहानी है | दीपक शर्मा जी एक उपेक्षित पत्नी के दर्द व् उसके द्वारा पति की जासूसी की जासूसी करने की इच्छा के सामान्य कथानक के साथ कहानी शुरू करती हैं परन्तु जैसे -जैसे कहानी आगे बढती है उसका कथानक विस्तृत होता जाता है व् जासूसी कहानियों  की तरह ये एक रहस्यात्मक रूप ले लेती है और अंत पाठक को  चौंका देता है | आप भी पढ़िए … दीपक शर्मा की कहानी -टोहा -टोही ड्राइवर नया था और रास्ता भूल रहा था| मैंने कोई आपत्ति न की| एक अज़नबी गोल, ऊँची इमारत के पोर्च में पहुँचकर उसने अपनी एंबेसेडर कार खड़ी कर दी और मेरे सम्मान में अपनी सीट छोड़ कर बाहर निकल लिया| पाँच सितारा किसी होटल केदरबान की मुद्रा में एक सन्तरी आगे बढ़ा और उसने मेरी दिशा का एंबेसेडर दरवाजा खोला| मैं एंबेसेडर से नीचे उतर ली| ऊँची इमारत के शीशेदार गोल दरवाज़े से बाहर तैनात दूसरे संतरी ने मुझे सलाम ठोंका और सरकते उस गोल दरवाज़े का एक खुला अंश मेरी ओर ला घुमाया| ‘आपका बटुआ, मैडम?’ ड्राइवर लपकता हुआ मेरे पास आ पहुँचा| ‘इसे गाड़ी में रहने दो,” मैंने अपने कंधे उचकाए और मुस्करा पड़ी| स्कूल में हमें शिष्टाचार सिखाते हुए किस टीचर ने लड़कियों की भरी जमात में कहा था, ‘अ लेड शुड ऑलवेज़ बी सीन कैरअँगअ पर्स’ (एक भद्र महिला को अपने बटुए के साथ दिखायी देना चाहिए)? चालीस बरस पूर्व? बयालीस बरस पूर्व? जब मैं दसवीं जमात में थी? या आठवीं में? मैंने गोल दरवाजा पार किया| सामने लॉबी थी| उसके बाएँ कोने में एक काउंटर था और इधर-उधर सोफ़े बिछे थे| कुछ सोफ़ों पर हाथ पैर पसारे कुछ लोग बैठे थे| मैं यहाँ क्या कर रही थी? तभी एक पहचानी सुगन्ध मुझ तक तैर ली| मेरे पति यहीं कहीं रहे क्या? सुगन्ध की दिशा में मैंने अपनी नज़र दौड़ायी| बेशक वही थे| यहीं थे| ऊर्जस्वी एवं तन्मय| मुझ से कम-अज़-कम बीस साल छोटी एक नवयुवती के साथ| मेरी उम्र के तिरपन वर्षों ने मुझे खूब पहना ओढ़ा था किन्तु मेरे पति अपने पचास वर्षोंसे कम उम्र के लगते| इधर दो-तीन वर्षों से उनके कपड़ों की अलमारी में रेशमी रुमालों और नेकटाइयों की संख्या में निरन्तर और असीम वृद्धि हुईरही| बेशक अपनी उम्र से कम लगने का वह एक निमित्त कारण ही था, समवायी नहीं| मैं लॉबी के काउण्टर की ओर चल दी| वहाँ लगभग तीस वर्ष की एक युवती तीन टेलिफोनों के बीच खड़ी थी| सफ़ेद सूती ब्लाउज़ के साथ उसने बनावटी जार्जेट की काली साड़ी पहन रखी थी| किस ने कभी बताया रहा मुझे सफ़ेद और काले रंग को एक साथ जोड़ने से पैशाचिक शक्तियाँ हमारी ओर आकर्षित होकर हमारे गिर्द फड़फड़ाने लगती हैं? इशारे से हम उन्हेंअपने बराबर भी ला सकते हैं? उन्हें अपने अन्दर उतार सकते हैं? बिखेर सकते हैं? छितरा सकते हैं? ‘कहिए मैम,’ युवती मेरी ओर देखकर मुस्कुरायी| ‘उधर उन अधेड़ सज्जन के साथ लाल कपड़ों वाली जो नवयुवती बैठी हँस-बतिया रही है वह कौन है?’ मैंने पूछा| ‘सॉरी,’ काउन्टर वाली युवती ने तत्काल एक टेलिफोन का चोंगा हाथ में उठाया और यन्त्र पर कुछ अंक घुमाने लगी, ‘जासूसी  में हम किसी की सहायता करने में अक्षम रहते हैं’ ‘बदतमीज़ी दिखाने में नहीं?’ मैं भड़क ली| ‘आप कौनहैं, मैम?’ काउन्टरवाली युवती चौकस होली| ‘एक उपेक्षित पत्नी’, मैंने कहा| मार्कट्  वेन ने कहाँ लिखा था  ‘वेन इन डाउट, टेल द ट्रुथ’ (‘जब आशंका हो तो सच बोल दो’)? ‘मैं आपका परिचय जानना चाहती थी,’ काउन्टर वाली युवती फिर से टेलिफोन यन्त्र पर अंक घुमाने लगी, “आप परिचय नहीं देना चाहती तो न दीजिए| यकीन मानिए अजनबियों में हमारी दिलचस्पी शून्य के बराबर रहती है|” ‘आप फिर बदतमीज़ी दिखा रही हैं,’ मैं चिल्ला उठी ‘मैं आपसे बात कर रही हूँ| आप से कुछ पूछ रही हूँ और आप हैं कि टेलिफोन से खेल रही हैं|’ मेरे पति भी अकसर ऐसा किया करते| जैसे ही मैं उन के पास अपनी कोई बात कहने को जाती वे तत्काल किसी टेलिफोन वार्ता में स्वयं को व्यस्त कर लेते| बल्कि इधर अपने मोबाइल के संग वे कुछ ज्यादा ही ‘एंगेज्ड’ रहने लगे थे| फोनपर बात न हो रही होती तो एस. एम. एस. देने में स्वयं को उलझा लिया करते| और तो और, अपने मोबाइल फोन की पहरेदारी ऐसी चौकसी से करते कि मुझे अपने वैवाहिक जीवन के शुरूआती साल याद हो आते जब मेरी खबरदारी और निगरानी रखने के अतिरिक्त उन्हें किसी भी दूसरे काम में तनिक रूचि न रहा करती| भारतीय प्रशासनिक सेवा में हम दोनों एक साथ दाखिल हुए थे| सन् सतहत्तर में| और अठहत्तर तक आते-आते हम शादी रचा चुके थे| भिन्न जाति समुदायों से सम्बन्ध रखने के बावजूद| ‘बदतमीज़ी तो आप दिखा रही हैं,’ काउन्टर वाली युवती की आवाज भी तेज हो ली, ‘मैं केवल अपना काम कर रही हूँ|’ ‘मैं कुछ कर सकता हूँ, क्या मैम?’ तभी एक अजनबी नवयुवक मेरे समीप चला आया| उसकी कमीज सफ़ेद सूती रही, अच्छी और तीखी कलफ़ लिए| बखूबी करीज़दार| ‘मुझे उस नवयुवती की बाबत जानकारी चाहिए,’ मैं विपरीत दिशा में घूम ली| काउन्टर वाली युवती से बात करते समय अपने पति के सोफे की तरफ़ मेरी पीठ हो ली थी| ‘किस नवयुवती की बाबत जानकारी चाहिए, मैम?’ मेरे पति वाला सोफ़ा अब खाली था| मैं पुनः काउन्टर की ओर अभिमुख हुई, ‘उधर उस किनारे वाले सोफ़े पर मेरे पति लाल कपड़ों वाली एक नवयुवती के साथ बैठे थे| वे दोनों कहाँ गए? कब गए?’ ‘कौन दोनों?’ काउन्टर वाली युवती ठठायी| ‘मैंने वे दोनों आपको हँसते-बतियाते हुए दिखलाए थे,’ मैंने कहा, “एक अधेड़ और एक नवयुवती” ‘सॉरी,’ काउन्टर वाली युवती ने मुझसे अपनी आँखें चुरा ली, ‘मैं कुछ नहीं जानती…..’ ‘झूठ मत बोलो,’ गुस्से में मैं काँप उठी, ‘उन्हें उधर एक साथ बैठे देख कर ही तो मैं तुम्हारे पास आयी थी|’ ‘सॉरी,’ काउन्टर वाली ने अपने दांत निपोरे, ‘मेरे पास निपटाने को बहुत काम बाकी हैं| मैं आपकी तरह खाली नहीं हूँ| मेरा समय कीमती है| व्यर्थ गँवा नहीं सकती|’ ‘आप मुझे बतलाइए, मैम,’ अजनबी नवयुवक ने एक मंदहास्य के साथ स्वयं को प्रस्तुत किया, ‘मैं ज़रूर आपकी सहायता करना चाहूँगा|’ ‘मेरे पति की … Read more

होड़

आज बाल दिवस है | फूल से मासूम बच्चे , जो कल देश का भविष्य बनेंगे | ना जाने कितने सपने हैं इनकी आँखों में , वो सपने जो अमीर -गरीब नहीं देखते , बड़ा -छोटा नहीं देखते दुनिया की असलियत से बेखबर होड़ लगाने लगते हैं उनके सपनों से जिनके पास ताकत है , रुतबा है , पैसा है इनके सपनों को दबा देने की | क्या हम सब नहीं जानते कि कितने प्रतिभाशाली बच्चों की प्रतिभा उन्हीं के सरपरस्तों ने नेस्तनाबूत करने की कोशिश की | हम एकलव्य की मार्मिक कहानी पढ़ते हैं पर सीखते नहीं …और नए एकलव्य तैयार होते जाते हैं | आज बाल दिवस पर हम लाये हैं सुप्रसिद्ध लेखिका दीपक शर्मा जी की दिल को झकझोर देने वाली ऐसी ही कहानी …. होड़ किशोर का दुर्भाव और अपना अभाव बार-बार मेरे सामने आ खड़ा होता है| मेरा उससे ज़्यादा पॉइंट हासिल करना क्यों गलत था? किशोर क्यों सोचता था मैं अपने को मनफ़ी कर दूँ? घटा लूँ? उससे कमतर रहने की चेष्टा करूँ? क्योंकि धोबी मेरे बप्पा मामूली चिल्हड़ के लिए बेगानों के कपड़े इस्तरी किया करते हैं? क्योंकि मेहरिन मेरी माँ मामूली रुपल्ली के पीछे बेगानों के फ़र्श और बरतन चमकाया करती हैं? क्या हम एक ही मानव जाति के बन्दे नहीं? एक ही पृथ्वी के बाशिन्दे? मुकाबला शुरू किया मेरे कौतुहल ने! “सिटियस,’ ‘औलटियस,’ ‘फौर्टियस’ शाम पाँच बजे प्रिंसीपल बाबू अपने बेटे, किशोर को  कसरत कराया करते थे| जिस कमरे में किशोर कसरत करता था उसकी एक खिड़की हमारे क्वार्टर की तरफ़ खुलती थी| स्पोर्ट्स कॉलेजके प्रिंसीपल बाबू के बंगले के पिछवाड़े बने पाँच क्वार्टरों में से एक में हम रहते थे- बप्पा, माँ और मैं| बप्पा कपड़े की प्रेस चलाते थे, माँ बंगले में काम करती थी और मुझे स्कूल में पढ़ाया जा रहा था| सातवीं जमात तक पहुँचते पहुँचते मैं उन तीनों लातिनी शब्दों के अर्थ जान चुका था, जिन्हें ओलम्पिक खेलों में लोग एक मोटो, एक आदर्श-वाक्य की तरह मानते और बोलते रहे हैं : ‘सिटियस’ माने‘और तेज़’, ‘औलटियस’ माने‘और ऊँचा’, ‘फौर्टियस’ माने‘और ज़ोरदार’| “धोबीका लड़का इधर देख रहा है,” तीन माह पूर्व किशोर ने मुझे अपने कमरे की खिड़की के बाहर से अन्दर झाँकते हुए पकड़ लिया था| “इधर आओ,” प्रिंसीपल साहब ने मुझे खिड़की से अन्दर बुलाया था| “प्रणाम सर जी…..” मैंने उन्हें सलाम ठोंका था| “यह क्या है?” किशोरअपनी कसरत एक मेज़ जैसे ढाँचे पर करता था जिसकी दोनों टाँगें फ़र्श से चिपकी रहतीं और जिसके ऊपरी तल पर दो फ़िक्स हत्थे खड़े रहते| ढाँचे पर किशोर हाथ के बल सवार होता और एक हत्थे पर दोनों हाथ टिका कर अपना धड़ और दोनों पैर हवा ले जाता और फिर अपने पैर जोड़कर गोल छल्ले बनाता हुआ घूमता| कभी दायीं दिशा में| तो कभी बाँयी दिशा में| फिर एक हाथ छोड़ते समय पैरों की कैंची बनाता और दूसरे हत्थे पर पुनः दोनों हाथ जा टिकाता और दोनों पैर फिर से जोड़ता और गोलाई में चक्कर काटने लगता : दायीं दिशा में| बाँयी दिशा में| “यह कसरत वाली मेज़ है, सर जी,” मैंने कहा| “यह पौमेल हॉर्स है, ईडियट,” किशोर हँसा| “तुम इसकी सवारी करोगे?” प्रिंसीपल साहब ने मुझ से पूछा| “जी, सर जी,” मैं तत्काल राज़ी हो गया| ढाँचे की ऊँचाई बप्पा की प्रेस की मेज़ से बहुत ज़्यादा थी और उसकी चौड़ाई बहुत कम| यहाँ यह बता दूँ, किशोर की कसरत मैं अकसर मौका पाते ही अपने बप्पा की मेज़ पर दोहराने का प्रयास करता रहा था| शुरू में बेशक वह बहुत मुश्किल रहा था| लेकिन धीरे धीरे हाथों के बल मैं इकहरा चक्कर तो काट ही ले जाता| हाँ, किशोर की तरह दोहरा चक्कर काटते समय मिले हुए मेरे पैरों का जोड़ ज़रूर टूट-टूट जाता| उछल कर मैंने उस पौमेल हॉर्स की ऊँचाई फलांग ली और बाँए हत्थे पर अपने हाथ जा टिकाए| उस हत्थे की टेक मुझे क्या मिली मेरे पैर और धड़ पंखों की मानिन्द हल्के हो कर बाँयी दिशा में घूम लिए, दायीं दिशा में घूम लिए मानो उस हत्थे में कोई लहर थी जो हवा में मुझे यों लहराती चली गयी| “तुम्हारे शरीर में अच्छी लचक है,” प्रिंसीपल बाबू गम्भीर हो चले, “लेकिन तुम्हारे पैर अभी अनाड़ी हैं| सही दिशा नहीं जानते| सही नियम नहीं जानते| सही लय नहीं जानते| अभी उन्हें बहुत सीखना बाकी है…..” “मैं आपसे सीख लूँगा, सर जी,” मैं प्रिंसीपल बाबू के चरणों पर गिर गया, “मुझे यह कसरत बहुत अच्छी लगती है, सर जी…..” मैं सीखने लगा| झूलना-डोलना| उठना-गिरना| हाथ की टेक| हत्थों की टेक| हवा की टेक| पैर की टेक| धड़ की टेक| नयी छलाँगें| नयी कलाबाज़ियाँ| नयी युक्तियाँ| उनके नए-नए नाम : स्विंगिंग, टम्बलिंग, हैंड प्लेसमेंट्स, बॉडी प्लेसमेंट्स….. सब से मैंने अपनी पहचान बढ़ा ली….. “अगले सप्ताह हमारे कस्बापुर में एक जिमनैस्टिक्स प्रतियोगिता आयोजित हो रही है,” जभी एक दिन प्रिंसीपलबाबू ने किशोर को व मुझे सूचना दी, “लखनऊ उन्हें एक ही पामेलहॉर्स जिमनेस्ट भेजना है और मैं चाहता हूँ किशोर ही उसमें चुना जाए| चिरंजी को इसलि ए साथ ले जाना चाहता हूँ ताकि पामेलहॉर्स प्रतियोगिता में प्रतिभागी की गिनती भी पूरी हो जाए और यह किशोर को विजय दिलाने के लिएअपने तीन पूरे नहींले…..” “जी, सरजी,” मेरा जी खट्टा हुआ मगर मैं अपने जी की हालत छिपा ले गया| “तुम्हारे मांगे बिना मैंने तुम्हारे लिए किशोर की पुरानी जिमनैस्टिक पोशाक तैयार करवायी है,” प्रिंसीपल बाबू ने मुझे ललचाना चाहा| “जी, सर जी,” मुझ से उत्साह दिखाए न बना| उसी शाम जब मुझे पोशाक के लिए बंगले के अन्दर बुलाया गया तो बहुत कोशिश के बावजूद मेरे माप के मोज़े व स्लीपर्ज़ न मिल सके| “नंगे पैर जाने में कोई हर्ज नहीं,” प्रिंसीपल बाबू ने कहा| “नहीं, सर जी” मैंनेसिर झुका लिया| “एकलव्य की कहानी जानते हो?” किशोर हँस कर पिता की ओर देखने लगा| “एकलव्य?” मेरा दिल धक्क से बैठ गया| एक नया डर, एक नयी फ़िकर मेरे मन में आन बैठी, “प्रिंसीपल बाबू ने गुरु-दक्षिणा में मेरी उँगली मुझ से छीन ली तो?” प्रतियोगिता के दिन जैसे ही मेरे पैर और मेरा धड़ ज़मीन से छूट कर हवा में लहराया, मेरा शरीर एक दूसरी आज्ञाकारिता के हवाले हो गया| सभी चेहरे धुँधले पड़ गए| सभी निर्देश, सभी आग्रह पीछे … Read more

छोटी दीदी

छोटी दीदी की कहानी एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसकी आँखों में सपने थे और पैरों में बेड़ियाँ | कितनी बार वो समाज के तानों का शिकार हुई | कितनी बार लड़खड़ाई , गिरी उठी और फिर … |कुछ समय के लिए उनकी कहानी कई दूसरी कहानियों से  टकराई और रेशा- रेशा बिखर गया | वक्त के साथ उन रेशों को चुनने की कोशिश है | कोशिश है उस दर्द को शब्द देने की एक मुक्कमल कहानी की जो हमारी आपकी कहानियों की तरह वक्त के किसी मोड़ पर अधूरी ही  छूट जाती है | स्मृतियों के पन्ने पलती हूँ तो कभी कुछ याद आता है तो कभी कुछ | ये सफ़र इन स्मृतियों के पन्नों का ही है | पता नहीं कब कौन सा पन्ना ओझल हो जाएगा और कौन सा उड़ कर सामने आ जाएगा | जिसे आप सब के साथ हर शनिवार और सोमवार को बाटूंगी | आज ऐसा ही एक पन्ना …       छोटी दीदी    वक्त को कौन जान पाया है ? ये वक्त कब कौन सी पैरहन पहन कर आ जाए जे भी नहीं कहा जा सकता | वो ऐसा ही अच्छा वक्त था जिसने अचानक से सफ़ेद पैरहन पहन ली | एक फोन कॉल ने भविष्य के सपनों को अतीत की अँधेरी सुरंग में धकेल दिया | उसके बाद एक तेज चक्कर आया और मैं अस्पताल में थी | ” देखिये मैं आपको जाने की इजाजत नहीं दे सकती | आठवाँ महीना है और आप का ब्लड प्रेशर इतना बढ़ा हुआ है | फिर आप आप की मर्जी | जिस घर में भविष्य जन्म लेने वाला था वहां का वर्तमान अतीत में जा चुका था | जन्म और मृत्यु की ये अजीब सी मिलन की घडी थी | मैं अस्पताल के बिस्तर पर खूब दवाब और आँसुओं  के दवाब के कम हो जाने की प्रतीक्षा करने को विवश थी | स्मृतियों का रेला हवा के झोंके के मानिंद मन में उथल पुथल मचाने लगा | मैं आँगन में बैठी ढेर सारे बरतन मॉल कर रही थी और कमरे से अम्मा जी के चिल्लाने की आवाज आ रही थी, ” कहाँ से आ गयी है ये हमारे घर | खाना एक रोटी और काम घर भर का | ये सब इस घर में नहीं चलेगा काम करना है तो ठीक से खाओं | छोटी दीदी की बक्सा साफ़ करने का जिम्मा मुझे दिया गया | उसमें सिर्फ किताबें भरीं थीं | कितना पढना चाहतीं थी वो , पर… , कुछ किताबें पलटने के बाद मेरे हाथ में वो  थी, जिसके बारे में छोटी दीदी ने कई बार मुझे बताया था | ये कोई साधारण गीता नहीं थी | छोटी दीदी को आठवीं कक्षा में वाद्द –विवाद प्रतियोगिता में प्रथम आने पर मिली थी | आँखों के वेग को रोकते हुए मैंने पन्ना पलटा | बड़े –बड़े शब्दों  में लिखा था , “हम आपके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं | “ नीचे प्रधानाचार्या के हस्ताक्षर थे | कुछ पन्ने और पलटने के बाद एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ मिला | मैंने खोल कर देखा | ये छोटी दीदी ने ही लिखा था | साफ़ –साफ़ मोती जैसे अक्षर |      मैं खत खोलकर पढने लगी | खत में कुछ स्मृतियाँ दर्ज थी | ये तब की बात है जब छोटी दीदी ७ -८ की साल की थीं | उम्र छोटी थी पर लड़कियों को घर के बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी | घर में माँ का हाथ बटायें या गुड्डी गुडिया से खेले दिन में थोड़ी बहुत आज़ादी थी पर जैसे ही सूरज अस्ताचल की ओर जाता लड़कियों , औरतों की दुनिया घर के भीतर ही सिमिट जाती | बड़ी दीदी को सब स्वीकार था | उनके सर को केवल उर्ध्व दिशा में हिलाने की आदत थी | न कभी कोई तर्क किया ना, ना कहना सीखा, पर छोटी दीदी ऐसी नहीं थीं | उनके पास ढेरों रंग थे , जिससे वो दुनिया को रंगना चाहती थीं , कभी तितली बन कर उड़ना चाहती थीं, तो कभी बादल बन कर सारी धरती पर बरसना चाहती थीं | उनकी राह मेंरोड़ा मुख्य द्वार पर जड़ा वो बड़ा सा लोहे का दरवाजा था , जिसकी सिर्फ सांकल ही नहीं बंद होती, बाहर और अंदर की दुनिया को पूरी तरह से अलग करने के लिए एक बड़ा सा क्षैतिज लकड़ी का लट्ठा लगा दिया जाता | वहीँ पास तख़्त में बाबा सुपारी खा कर उंघते रहते , मजाल है कि कोई निकल जाए |        पर छोटी दीदी कहाँ मानने वालीं थी, वोकुर्सी लगा कर उस क्षैतिज लट्ठे पर चढ़ जातीं और बाहर की दुनिया को नन्हीं आँखों से परखने की कोशिश करतीं कि आखिर क्या है इस बाहर की दुनिया में जो सांझ होते ही लड़कियों के लिए निषिद्ध हो जाता है | छोटी दीदी की लाख चतुराई के बाद भी अक्सर बाबा उन्हें पकड़ लेते और जोर से चिल्लाने लगते , “ ई ससुरी नहीं मानिहै , टाँगे काट दे ईकी तब ना चढ़ पहीये , अपनी बड़ी बहन की सरीकत भी नाही करत है कि अम्माँ का हाथ बटावे , कुल का नास करे है | बाबा देर तक बडबडाते और छोटी दीदी चुपचाप दरवाजे से उतर कर चूल्हे पर रोटियाँ सेंकती अम्मा से चिपक जातीं |      बाबा चूल्हे की ही रोटी खाते थे | गैस की रोटी में छूत लग जाती ,उनका तर्क होता ई गैस के कारण ही आज् कल मानुष बड़े बुजर्गन से जवाब –तलब करने लाग है, हमारे घर में ई ना चलिहैं | छोटी दीदी देर तक अम्मा से चिपक कर सुबकतीं पर अम्मा जरा भी ना हिलतीं , ना पक्ष में ना विपक्ष में ,वो आंच में पूरी तरह पक चुकी थीं , बड़ी दीदी ने तय कर लिया था जब पकना ही है तो चिल्लाना बेकार है , छोटी दीदी आंच में डाले जाने की शुरुआत से ही विद्रोह पर उतारू थीं |        ऐसी ही किसी एक शाम को बाबा से डांट खाने के बाद छोटी दीदी सुबक कर अम्मा से चिपकी नहीं , बल्कि अम्माँ को झकझोर कर कहा, “ अम्मा देखना एक दिन मैंदरवाजे … Read more

रम्भा

आदरणीय दीपक शर्मा जी कथा बिम्बों को किसी उपमा के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जब कहानी बुनती हैं तो पाठक चमत्कृत हो जाता हैं | रम्भा एक ऐसी ही कहानी है जिसकी नायिका रम्भा देवलोक की अप्सरा भले ही ना हो पर अपने साथी को छोड़ कर जाने की उसकी कुछ स्वनिर्मित शर्तें हैं ….जिनके टूटते ही वो लौट जाने में एक पल की भी देर नहीं करती , यहाँ तक की पूछने का अवसर भी नहीं देती …आइये पढ़ें  कहानी -रम्भा  सोने से पहले मैं रम्भा का मोबाइल ज़रूर मिलाता हूँ| दस और ग्यारह के बीच| ‘सब्सक्राइबर नाट अवेलेबल’ सुनने के वास्ते| लेकिन उस दिन वह उपलब्ध रही- “इस वक़्त कैसे फ़ोन किया, सर?” “रेणु ने अभी फ़ोन पर बताया, कविता की शादी तय हो गयी है,” अपनी ख़ुशी को तत्काल काबू कर लेने में मुझे पल दो पल लग गए| रेणु मेरी बहन है और कविता उसकी बेटी| रम्भाको मेरे पास रेणु ही लाई थी- “भाई, यह तुम्हारा सारा काम देखेगी| फ़ोन, ई-मेल और डाक…..!” “हरीश पाठक से?” रम्भा हँसने लगी| “तुम्हें कैसे मालूम?” “उनके दफ़्तर में सभी जानते थे,” रम्भा ने कुछ महीने कविता की निगरानी में क्लर्की की थी| रम्भाहमेशा ही कोई न कोई नौकरी पकड़े रखती थी, कभी किसी प्राइवेट दफ़्तर में रिसेप्शनिस्ट की तो कभी किसी नए खुले स्कूल में अध्यापिका की तो कभी किसी बड़ी दूकान में सेल्सगर्ल की| रेणु को रम्भा कविता की मार्फत मिली थी| “तुमने मुझे कभी बताया नहीं?” मैंने बातचीत जारी रखनी चाही| रम्भा की आवाज़ मुझे मरहम लगाया करती| “कैसे बताती, सर? बताती तो वह चुगली नहीं हो जाती क्या?” “ओह!” मैं अंदर तक गुदगुदा गया| उसकी दुनिया बड़ी संकीर्ण थी| उसे मेरी दुनिया का ज्ञान केवल सतही स्तर पर रहा| “अच्छा, बताओ,” मैंने पूछा- “कविता की शादी पर मेरे साथ चलोगी?” मेरी पत्नी मेरे परिवार में मेरी बहनों के बच्चों की शादी में नहीं जाती थी- ‘यही क्या कम है जो आपकी तीन-तीन बहनों का आपकी बगल में बैठकर कन्यादान कर चुकी हूँ?’ कुल जमा तीस वर्ष की उम्र में पिता को खो देने के बाद अपने परिवार में मुझे‘मुखिया’ की भूमिका तो निभानी ही पड़ती थी| “क्यों नहीं चलूँगी, सर?” रम्भा उत्साहित हुई- “कविता जीजी का मुझ पर बहुत अहसान है| उन्हीं के कारण ही तो आपसे भेंट हुई…..|” “तुम्हारे परिवार वाले तो हल्ला नहीं करेंगे?” मैंने पूछा| वह विवाहिता थी| सात साल पहले उसके हेडक्लर्क पिता ने उसका विवाह अपने ही दफ़्तर में नए आए एक क्लर्क से कर दिया था और अब छह साल की उम्र की उसकी एक बेटी भी थी| तिस पर उसके सास-ससुर भी उसके साथ ही रहते थे|“बिलकुल नहीं, सर! वे जानते हैं आपकी नौकरी मुझे शहर के बाहर भी ले जा सकती है…..” “और तुम भी यही समझती हो, मेरे साथ कविता की शादी में जाना तुम्हारी नौकरी का हिस्सा है?” मैंने उसे टटोला! “नहीं, सर! मैं जानती हूँ, सर! मैं समझती हूँ, सर! आप मुझ पर कृपा रखते हैं|” मेरे डॉक्टर ने मुझे सख्त मना कर रखा था, रम्भा को कभी यह मालूम न होने पाए, उसके संसर्ग में रहने के कारण मेरी दवा की ख़ुराक पचास एम. जी. (मिलीग्राम) से पाँच एम. जी. तक आ पहुँची थी| वह नहीं जानती थी, कृपा करने वाली वह थी, मैं नहीं| “अच्छा बताओ, इस समय तुम क्या कर रही हो?” “मैं कपड़े धो रही हूँ, सर!” “इस सर्दी की रात में?” “इस समय पानी का प्रेशर अच्छा रहता है, सर, और मेरी सास तो रोज़ ही इस समय कपड़े धोती हैं| आज उनकी तबीयत अच्छी नहीं थी, सो मैं धो रही हूँ|” “तुम्हारे पति कहाँ हैं?” “वे सो रहे हैं, सर| दफ़्तर में आज ओवर टाइम लगाया था| सो खाना खाते ही सोगए…..!” शुरू में रम्भा का पति उसे मेरी फैक्टरी में छोड़ते समय लगभग रोज़ ही मुझे सलाम करने मेरे कमरे में आ धमकता था| फिर जल्दी ही मैंने रम्भा से कह डाला था- ‘अपने पति को बता दो, बिना मेरे दरबान की अनुमति लिए उसका मेरे कमरे में आना मेरे कर्मचारियों को ग़लत सिगनल दे सकता है…..!’ वह यों भी मुझे खासा नापसंद था| शोचनीय सीमा तक निम्नवर्गीय और चापलूस| वैसे तो रम्भा का दिखाव-बनाव भी निम्नवर्गीय था- अटपटे, छापेदार सलवार सूट, टेढ़ी-मेढ़ी पट्टियों वाली सस्ती सैंडिल और मनके जड़ा कैनवस का बटुआ| मेरी पत्नी अकसर कहा करती थी-स्त्री की कीमत उसकी एकसेसरीज़(उपसाधन) परिभाषित करती हैं, और उनमें भी उसका बटुआ और जूता| “तुम कब सोओगी?” मैंने पूछा| लेकिन उसका उत्तर सुनने से पहले मेरे कमरे का दरवाज़ा खुल गया| सामने बेटी खड़ी थी| “मालूम है?” वह चिल्लाई- “उधर ममा किस हाल में हैं?” “क्या हुआ?” मैंने अपना मोबाइल ऑफ़ कर दिया और उसे मेज पर रखकर बगल वाले कमरे की ओर लपक लिया| रात में मेरी पत्नी दूसरे कमरे में सोया करती और बेटी तीसरे में| नौकर की संभावित शैतानी के भय से रात में हम तीनों ही के कमरों के दरवाजे अपने-अपने ऑटोमेटिक ताले के अंतर्गत अंदर से बंद रहा करते| लेकिन हमारे पास एक-दूसरे के कमरे की चाभी ज़रूर रहा करती| जिस किसी को दूसरे के पास जाना रहता, बिना दरवाजा खटखटाए ताले में चाभी लगा दी जाती और कमरे में प्रवेश हो जाता| पत्नी के कमरे का दरवाजा पूरा खुला था और वह अपने बिस्तर पर निश्चल पड़ी थी| “क्या हुआ?” मैं उसके पास जा खड़ा हुआ| उत्तर में उसने अपनी आँखें छलका दीं| यह उसकी पुरानी आदत थी| जब भी मुझे खूब बुरा-भला बोलती, उसके कुछ ही घंटे बाद अपनेआप को रुग्णावस्थामें ले जाया करती| उस दिन शाम को उसने मुझसे खूब झगड़ा किया था| बेटी के साथ मिलकर| मेरी दूसरी बहन इंदु की टिकान को लेकर| इधर कुछ वर्षों से जब भी मेरी बहनें या उनके परिवारों के सदस्य मेरे शहर आया करते, मैं उन्हें अपने घर लानेकी बजाय अपने क्लब के गेस्ट हाउस में ठहरा दिया करता| “आज इंदु जीजी को बाज़ार में देखा!” पत्नी गुस्से से लाल-पीली हुई जा रही थी- “तुम्हारे ड्राइवर के साथ|” हम पति-पत्नी के पास ही नहीं, हमारी बेटी के पास भी अपनी निजी मोटरकार रही| बेशक उसकी वह मोटरकार मेरी ही ख़रीदी हुई थी-उसके दहेज़ के एक अंश के रूप में| हमारी इकलौती संतान … Read more

ढलवाँ लोहा

आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी की कहानी “ढलवाँ लोहा “| ये कहानी 2006 में हंस में प्रकाशित हुई थी | दीपक शर्मा जी की कहानियों  बुनावट इस तरह की होती है कि आगे क्या होगा का एक रहस्य बना रहता है | यह कहानी भी विज्ञान को आधार बना कर लिखी गयी है | लोहे के धातुकर्म (metallurgy) में ढलवां लोहा बनाने की वैज्ञानिक क्रिया से मानव स्वाभाव की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया के मध्य साम्यता स्थापित करती ये कहानी विज्ञान, मनोविज्ञान और साहित्यिक सौन्दर्य का बेहतरीन नमूना है | आइये पढ़ते हैं … ढलवाँ लोहा  “लोहा पिघल नहीं रहा,” मेरे मोबाइल पर ससुरजी सुनाई देते हैं, “स्टील गढ़ा नहीं जा रहा…..” कस्बापुर में उनका ढलाईघर है : कस्बापुर स्टील्ज़| “कामरेड क्या कहता है?” मैं पूछता हूँ| ढलाईघर का मैल्टर, सोहनलाल, कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड-होल्डर तो नहीं है लेकिन सभी उसे इसी नाम से पुकारते हैं| ससुरजी की शह पर: ‘लेबर को यही भ्रम रहना चाहिए, वह उनके बाड़े में है और उनके हित सोहनलाल ही की निगरानी में हैं….. जबकि है वह हमारे बाड़े में…..’ “उसके घर में कोई मौत हो गयी है| परसों| वह तभी से घर से ग़ायब है…..” “परसों?” मैं व्याकुल हो उठता हूँ लेकिन नहीं पूछता, ‘कहीं मंजुबाला की तो नहीं?’ मैं नहीं चाहता ससुरजी जानें सोहनलाल की बहन, मंजुबाला, पर मैं रीझा रहा हूँ| पूरी तरह| “हाँ, परसों! इधर तुम लोगों को विदाई देकर मैं बँगले पर लौटता हूँ कि कल्लू चिल्लाने लगता है, कामरेड के घर पर गमी हो गयी…..” हम कस्बापुर लौट आते हैं| मेरी साँस उखड़ रही है| विवाह ही के दिन ससुरजी ने वीणा को और मुझे इधर नैनीताल भेज दिया था| पाँच दिन के प्रमोद काल के अन्तर्गत| यह हमारी दूसरी सुबह है| “पापा,” वीणा मेरे हाथ से मोबाइल छीन लेती है, “यू कांट स्नैच आर फ़न| (आप हमारा आमोद-प्रमोद नहीं छीन सकते) हेमन्त का ब्याह आपने मुझसे किया या अपने कस्बापुर स्टील्ज़ से?” उच्च वर्ग की बेटियाँ अपने पिता से इतनी खुलकर बात करती हैं क्या? बेशक मेरे पिता जीवित नहीं हैं और मेरी बहनों में से कोई विवाहित भी नहीं लेकिन मैं जानता हूँ, उन पाँचों में से एक भी मेरे पिता के संग ऐसी धृष्टता प्रयोग में न ला पातीं| “पापा आपसे बात करेंगे,” वीणा मेरे हाथ में मेरा मोबाइल लौटा देती है; उसके चेहरे की हँसी उड़ रही है| “चले आओ,” ससुरजी कह रहे हैं, “चौबीसघंटे से ऊपर हो चला है| काम आगे बढ़ नहीं रहा|” “हम लौट रहे हैं,” मुझे सोहनलाल से मिलना है| जल्दी बहुत जल्दी| “मैं राह देख रहा हूँ,” ससुरजी अपना मोबाइल काट लेते हैं| “तुमसामान बाँधो, वीणा,” मैं कहता हूँ, “मैं रिसेप्शन से टैक्सी बुलवा रहा हूँ…..” सामान के नाम पर वीणा तीन-तीन दुकान लाई रही : सिंगार की, पोशाक की, ज़ेवर की| “यह कामरेड कौन है?” टैक्सी में बैठते ही वीणा पूछती है| “मैल्टर है,” सोहनलाल का नाम मैं वीणा से छिपा लेना चाहता हूँ, “मैल्ट तैयार करवाने की ज़िम्मेदारी उसी की है…..” “उसका नाम क्या है?” “सोहनलाल,” मुझेबताना पड़ रहा है| “उसी के घर पर आप शादी से पहले किराएदार रहे?” “हाँ….. पूरे आठ महीने…..” पिछले साल जब मैंने इस ढलाईघर में काम शुरू किया था तो सोहनलाल से मैंने बहुत सहायता ली थी| कस्बापुर मेरे लिए अजनबी था और मेरे स्त्रोत थे सीमित| आधी तनख्वाह मुझे बचानी-ही-बचानी थी, अपनी माँ और बहनों के लिए| साथ ही उसी साल मैंआई. ए. एस. की परीक्षा में बैठ रहा था| बेहतर अनुभवके साथ| बेहतर तैयारी के साथ| उससे पिछले साल अपनी इंजीनियरिंग ख़त्म करते हुए भी मैं इस परीक्षा में बैठ चुका था लेकिन उस बार अपने पिता के गले के कैंसर के कारण मेरी तैयारीपूरी न हो सकी थी और फिर मेरे पिता की मृत्यु भी मेरे परीक्षा-दिनों ही में हुई थी| ऐसे में सोहनलाल ने मुझे अपने मकान का ऊपरी कमरा दे दिया था| बहुत कम किराए पर| यही नहीं, मेरे कपड़ों की धुलाई और प्रेस से लेकर मेरी किताबों की झाड़पोंछ भी मंजुबाला ने अपने हाथ मेंले ली थी| मेरे आभार जताने पर, बेशक, वह हँस दिया करती, “आपकी किताबों से मैं अपनी आँखें सेंकती हूँ| क्या मालूम दो साल बाद मैं इन्हें अपने लिए माँग लूँ?” “उसके परिवार में और कितने जन थे?” “सिर्फ़ दो और| एक, उसकी गर्भवती पत्नी और दूसरी, उसकी कॉलेजिएट बहन…..” “कैसी थी बहन?” “बहुत उत्साही और महत्वाकांक्षी…..” “आपके लिए?” मेरे अतीत को वीणा तोड़ खोलना चाहती है| “नहीं, अपने लिए,” अपने अतीत में उसकी सेंध मुझे स्वीकार नहीं, “अपने जीवन को वह एक नयी नींव देना चाहती थी, एक ऊँची टेक…..” “आपको ज़मीन पर?” मेरी कोहनी वीणा अपनी बाँह की कोहनी के भीतरी भाग पर ला टिकाती है, “आपके आकाश में?” “नहीं,” मैं मुकर जाता हूँ| “अच्छा, उसके पैर कैसे थे?” वीणा मुझे याद दिलाना चाहती है उसके पैर उसकी अतिरिक्त राशि हैं| यह सच है वीणा जैसे मादक पैर मैंने पहले कभी न देखे रहे : चिक्कण एड़ियाँ, सुडौल अँगूठे और उँगलियाँ, बने-ठने नाखून, संगमरमरी टखने| “मैंने कभी ध्यान ही न दिया था,” मैं कहता हूँ| वीणा को नहीं बताना चाहता मंजुबाला के पैर उपेक्षित रहे| अनियन्त्रित| ढिठाई की हद तक| नाखून उसके कुचकुचे रहा करते और एड़ियाँ विरूपित| “क्यों? चेहरा क्या इतना सुन्दर था कि उससे नज़र ही न हटती थी!….. तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती, तेरे पैर हम क्या देखें?” वीणा को अपनी बातचीत में नये-पुराने फ़िल्मी गानों के शब्द सम्मिलित करने का खूब शौक है| “चेहरे पर भी मेरा ध्यान कभी न गया था,” वीणा से मैं छिपा लेना चाहता हूँ, मंजुबाला का चेहरा मेरे ध्यान में अब भी रचा-बसा है : उत्तुंग उसकी गालों की आँच, उज्ज्वल उसकी ठुड्डी की आभा, बादामीउसकी आँखों की चमक, टमाटरी उसके होठों का विहार, निरंकुशउसके माथे के तेवर….. सब कुछ| यहाँ तक कि उसके मुँहासे भी| “पुअर थिंग (बेचारी)” घिरी हुई मेरी बाँह को वीणा हल्के से ऊपर उछाल देती है| “वीणा के लिए तुम्हें हमारी लांसर ऊँचे पुल पर मिलेगी,” ससुरजी का यह आठवाँ मोबाइल कॉल है- इस बीच हर आधे घंटे में वे पूछते रहे हैं “कहाँ हो?” ‘कब तक पहुँचोगे?’ “ड्राइवरके साथ वीणा बँगले पर चली जाएगी और तुम इसी … Read more

हकदारी

एक स्त्री पर हक़ जताते अपने ही लोग उसे कभी अपनी इच्छा से जीने का हक़ नहीं देते | अजीब विडंबना है कि इस हकदारी के कफ़न के भीतर जिन्दा दफ़न होने को अभिशप्त होती हैं औरतें …. कहानी -हकदारी  “उषा अभी लौटी नहीं है”- मेरे घर पहुँचते ही अम्मा ने मुझे रिपोर्ट दी|   “मैं सेंटर जाता हूँ|” मैं फिक्र में पड़ गया|   दोपहर बारह से शाम छह बजे तक का समय उषा एक कढ़ाई सेंटर पर बिताया करती| अपने रोजगार के तहत| शहर के बाहर बनी हमारी इस एल.आई.जी. कॉलोनी के हमारे सरकारी क्वार्टर से कोई बीस मिनट केपैदल रास्ते के अंदर|   “देख ही आ|” अम्मा ने हामी भरी, “सात बजने को हैं…..”   “उषा के मायके से यहाँ फोन आया था|” कढ़ाई सेंटर की मालकिन ‘मी’ मुझे देखते ही मेरे पास चली आई|   उस सेंटर की लेबर सभी स्त्रियाँ अपनी मालकिन को‘मी’ ही बुलाया करतीं| टेलीफोन पर अपने नाम की जगह हर बार उसे जब लेबर ने ‘मी’ जवाब देते हुए सुना तो बेचारी अनपढ़ यही सोच बैठीं कि उसका नाम ही ‘मी’ है| उषा के बताने पर मैंने‘मी’ का खुलासा खोला भी| तब भी आपस में वे उसे‘मी ही कहा करतीं|   “कौन बोल रहा था?” मैंने पूछा|   “उसकी बहन शशि, बता रही थी, उनकी माँ की हालत बहुत ख़राब है…..”   “कितने बजे आया यह फोन?”   “यही कोई तीन, साढ़े तीन बजे के बीच…..”मैं घर लौट आया| “पन्नालाल कुछ ज्यादा ही अलगरजी दिखा रहा है|” अम्मा ने डंका पीटा और लड़ाई का फरमान जारी कर दिया, “पाजी ने हमें कुछ बताने की कोई जरूरत ही नहीं समझी? और जब हम पूछेंगे तो बेहया बोल देगा कि कढ़ाई सेंटर से खबर ले ली होती…..”   “देखो तो|” मुझे शक हुआ| “उषा यहाँ से कुछ ले तो नहीं गई?”   चार महीने के आर-पार फैली हमारी गृहस्थी की पटरी सही बैठनी बाकी रही, उषाही की वजह से| बीच-बीच में वह पर निकाल लिया करती| परी समझती रही अपने को| उषा की कीमती साड़ियाँ और सोने की बालियाँ अम्मा के ताले में बंद रहा करतीं| सभी को वहाँ ज्यों की त्यों मौजूद देखकर हमें तसल्ली मिली| “तारादेई जरूर ज्यादा बीमार रही होगी|” मैंने कहा| उषा की माँ का नाम तारादेई था और बाप का पन्नालाल| “तो क्या उसे फूँककर ही आएगी?” अम्मा हँसने लगी|   अगली सुबह दफ्तर जाते समय मेरी साइकिल अपने आप ही उषा के मायके घर की तरफ मुड़ ली| कढ़ाई वाली गली| पन्नालाल का वहाँ अपना पुश्तैनी मकान था| तारादेई से पहले उसकी माँ कढ़ाई का काम करती रही थी और अब तारादेई और उसकी बेटियाँ उसी की साख के बूते पर खूब काम पातीं उर अच्छे टाइम पर निपटा भी दिया करतीं| इसी पुराने अभ्यास के कारण उषा की कढ़ाई इधर हमारे एरिया-भर में भी मशहूर रही| कढ़ाई सेंटर की मालकिन तो खैर उस पर लट्टू ही रहा करती|   “इधर सब लोग कैसे हैं?” पन्नालाल के घर के बगल ही में एक हलवाई की दुकान थी| हलवाई पन्नालाल को बहुत मानता था और मेरी खूब खातिर करता| मुझे देखते ही एक दोना उठाता और कभी ताजा बना गुलाबजामुन उसमें मेरे लिए परोस देता तो कभी लड्डू की गरम बूँदी|   “आओ बेटा!” उस समय वह गरम जलेबी निकाल रहा था| हाथ का काम रोककर उसने उसी पल कड़ाही की जलेबी एक दोने में भर दीं, “इन्हें पहले चखो तो…..”   “कल उषा यहाँ आई थी?” जलेबी मैंने पकड़ ली|   “तारादेई अस्पताल में दाखिल है|” हलवाई ने कहा, “उसकी हालत बहुत नाजुक है| सभीबच्चियाँ वहीं गई हैं…..” उषा के परिवार में भी मेरे परिवार की तरह एक ही पुरुषजन था-पन्नालाल| बाकी वे पाँच बहनें ही बहनें थीं| शादी भी अभी तक सिर्फ उषा ही की हुई थी|   “सिविल में?” मैंने पूछा|   “वहीं ही| सरकरी जो ठहरा…..” उस दिन दफ़्तर में अपना पूरा समय मैंने ऊहापोह में काटा| अस्पताल जाऊँ? न जाऊँ? अम्मा क्या बोलेगी? क्या सोचेगी? मुझे बताए बगैर ससुराल वालों से मिलने लगा? मेरी सलाह बगैर उधर हलवाई के पास चला गया? जलेबी भी खाली?   कढ़ाई वाली गली मेंमेरे आने-जानेको लेकर अम्मा बहुत चौकस रहा करती| उषा के परिवार में से मेरी किस-किससे बात हुई? वहाँ मुझे क्या-क्या खिलाया-पिलाया गया? क्या-क्या समझाया-बुझाया गया?     सिविल जाना फिर मैं टाल ही गया|     शाम घर पहुँचा तो अम्मा फिर पिछौहे वैर-भाव पर सवार हो ली, “समधियाने की ढिठाई अब आसमान छू रही है| अभी तक कोई खबर नहीं भेजी…..”   “ढिठाई है तो,”…..मैंने झट हाँ में हाँ मिला दी|   हलवाई की खबर न खोली|   अम्मा के सवालों की बौछार के लिए मैं तैयार न था|   “दिलअपना मजबूत रखना अब| इतनी ढिलाई देनी ठीक नहीं| तारा देई बीमार है तो ऐसी कौन-सी आफत है? उषा के अलावा उधर उसे देखने वालियाँ चार और हैं| उषा को क्या सबसे ज्यादा देखना-भालना आता है? पन्नालाल के पास मानो फुरसत नहीं तो उषा को यहाँ आकर हमें पूछना-बतलाना जरूरी नहीं रहा क्या?”   तीसरा दिनभी गुजर गया| बिना कोई खबर पाए|   फिर चौथा दिन गुजरा| फिर पाँचवाँ| फिर छठा|   पास-पड़ोस से उषा को पूछने कई स्त्रियाँ आईं| सभी की कढ़ाई उषा की सलाह से आगे बढ़ा करती| “उषा कहीं दिखाई नहीं दे रही?” अम्मा से सभी ने पूछा, “रूठकर चली गई क्या? हुनर वाली तो है ही| इधर काम छोड़ेगी तो उधर पकड़ लेगी…..”     “काम तो उधर उसने पकड़ ही लिया है|” अम्मा के पास हर सवाल का जवाब रहा करता| “उसकीमाँको कढ़ाई का कोई बड़ा ऑर्डर मिला था और अपनी इस गुलाम को उसने बुलवा भेजा| हमें कौन परवाह है? हमारी बला से! उनकी गुलामी उसे भाती है तो भायी रहे…..”   सातवें रोज पन्नालाल मेरे दफ्तर चला आया|   मन में मेरे मलाल तो मनों रहा, लेकिन खुलेआम उसकी बेलिहाजी मुझसे हो न पाई और लोगों को दिखाने-भर के लिए मैंने उसके पाँव छू लिए| हमारेदफ्तरमें कई लोग उसे जानते थे, हालाँकि उसका दफ्तर हमारे दफ्तर से पंद्रह-सोलह किलोमीटर की दूरी पर तो ही था| हम चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी जिस यूनियन के बूते बोनस और तरक्की पाते रहे, उस यूनियन का वह लगातार तीन साल … Read more

बाजा-बजन्तर

अगर आप संगीत के शौक़ीन हैं तो आप के यहाँ भी बाजा बजता ही होगा | कई बार ये शौक आपको वोल्यूम के बटन को प्लस पर दबाने को विवश भी कर देता होगा जिससे आपके साथ -साथ आपके पडोसी भी  आपके उन पसंदीदा गानों का लुत्फ़ ले सकें और अगर वो उनके पसंदीदा  गाने न हो तो  उन्हें भुगत सकें | जो भी हो किसी के घर से आने वाली संगीत की ये स्वरलहरियाँ उसके संगीत प्रेमी होने का ऐलान तो कर ही देती हैं | पर क्या आप जानते हैं कि कई बार बजते हुए बाजे की मनभावन धुनों के पीछे कुछ अलग ही कारण छुपे  होते हैं …. क्या आप सुनना चाहेंगे ? बाजा-बजन्तर बाजा अब बजा कि बजा दोपहर में| नयी किराएदारिन को देखते ही मैं और छुटकू उछंग लेते हैं| वह किसी स्कूल में काम करती है और सुबह उसके घर छोड़ते ही बाजा बंद हो जाता है और इस समय दोपहर में उसके घर में घुसते ही बाजा शुरू| छुट्टी वाले दिन तो, खैर, वह दिन भर बजता ही रहता है| गली के इस आखिरी छोर पर बनी हमारी झोपड़ी की बगल में खड़ी हमारी यह गुमटी इन लोगों के घर के ऐन सामने पड़ती है| जभी जब इनका बाजा हवा में अपनी उमड़-घुमड़ उछालता है तो हम दोनों भी उसके साथ-साथ बजने लगते हैं; कभी ऊँचे तो कभी धीमे, कभी ठुमकते हुए तो कभी ठिठकते हुए| अम्मा जो धमकाती रहती है, “चौभड़ फोड़ दूँगी जो फिर ऐसे उलटे सीधे बखान ज़ुबान पर लाए| घरमें दांत कुरेदने, को तिनका नाहीं और चले गल गांजने…..” “आप बाजा नहीं सुनते?” नए किराएदार से पूछ चुके हैं हम| हमारीगुमटीपर सिगरेट लेने वह रोज़ ही आता है| “बाजा? हमारा सवाल उसे ज़रूर अटपटा लगे रहा? ‘क्यों? कैसे?” “घर में आपका बाजा जभी बजता है जब आपकी बबुआइन घर में होती है, वरना नाहीं…..” “हाँ…..आं…..हाँ…..आं| बाजा वही बजाती है| वही सुनती है…..” “आप कहीं काम पर नहीं जाते?” हमयह भी पूछ चुकेहैं| इन लोग को इधर आए महीना होने को आए रहा लेकिन इस बाबू को गली छोड़ते हुए हम ने एक्को बार नाहीं देखा है| “मैं घर से काम करता हूँ…..” “कम्प्यूटर है का?” “जिन चार दफ्तरों में अम्मा झाड़ू पोंछा करती है सभी में दिन भर कम्प्यूटर चला करते हैं| यूँ तो इन लोग के आने पर अम्मा भी इनके घर काम पकड़ने गयी रही लेकिन इस बाबू ने उसे बाहर ही से टरका दिया रहाकाम हमारे यहाँ कोई नहीं| इधर दो ही जन रहते हैं|” “हाँ…..आं…..हाँ…..आं….. कम्प्यूटर है, कम्प्यूटर है| लेकिन एक बात तुम बताओ, तुम मुझे हमेशा बैठी ही क्यों मिलती हो?” “बचपनमें इसके दोनों पैर एक मोटर गाड़ी के नीचे कुचले गए थे, मेरी जगह छुटकू जवाब दिए रहा|” “बचपन में?” “झप से वह हसे रहा, ‘तो बचपन पार हो गया? क्या उम्र होगी इस की? ज़्यादा से ज़्यादा दस? या फिर उस से भी कम?” “अम्मा कहती हैं मैं, तेरह की हूँ और छुटकू बारह का…..” “मालूम है? झड़ाझड़ उसकीहँसी बिखरती गयी रही, मैं जब ग्यारह साल का था तो मेरा भी एक पैर कुचल गया रहा| लेकिन हाथ है कि दोनों सलामत हैं| और सच पूछो तो पैर केमुकाबले हमारे हाथ बड़ी नेमत हैं| हमारे ज़्यादा काम आते हैं| पानी पीना हो हाथ उलीच लो, बन गया कटोरा| चीज़ कोई भारी पकड़नी हो, उंगलियाँ सभी साथ, गूंथ लो, बन गयी टोकरी…..” “मगर आप लंगड़ाते तो हो नहीं?” पूछे ही रही मैं भी| “हाँ…..आं…..हाँ…..आं…..लंगड़ाता मैं इसलिए नहीं क्योंकि मेरा नकली पैर मेरे असली पैर से भी ज़्यादा मजबूत है| और मालूम? तुम भी चाहो तो अपने लिए पैर बनवा सकती हो| कई अस्पताल ऐसे हैं, जहाँ खैरात में पैर बनाए जाते हैं…..” “सच क्या?” मेरी आँखों में एक नया सपना जागा रहा| अपनी पूरी ज़िन्दगी में बीड़ी-सिगरेट और ज़रदा-मसाला बेचती हुई नहीं ही काटना चाहती| यों भी अपने पैरों से अपनी ज़मीन मापना चाहती हूँ| घुटनों के बल घिरनी खाती हुई नहीं| सच, बिल्कुल सच| एकदम सच, वह फिर हंसे रहा, और मालूम? मेरा तो एक गुर्दा भी मांगे का है, दिल में मेरे पेसमेकर नाम की मशीन टिक्-टिक् करती है और मेरे मुँह के तीन दांत सोने के हैं…..” “दिखाइए,” “छुटकूउनके रहा, ‘हम ने सोना कहीं देखा नाहीं…..” “सोने वाले दांत अन्दर के दांत हैं, दिखाने मुश्किल हैं…..” “नकली पैर के लिए कहाँ जाना होगा?” अपने घुटनों पर नए जोड़ बैठाने को मेरी उतावली मुझे सनसनाएं रही| “पता लगाना पड़ेगा| मेरा नकली पैर पुराना है| तीस साल पुराना…..” “दो पैकिट सिगरेट चाहिए,” अपनी बबुआइन के स्कूल के समय वह आया है, लेकिन उधार….. उसके हाथ में एक छोटा बक्सा है| “बाहर जा रहे हैं?” छुटकू पूछता है| “हाँ, मैं बच्चों के पास जा रहा हूँ|” “वे आप के साथ नहीं रहते?” “नहीं| उधरकस्बापुर में उन के नाना नानी का घर है| वहीं पढ़ते हैं| वहीं रहते हैं…..” “ऊँची जमात में पढ़ते हैं?” “हाँ| बड़ा बारहवीं में है और छोटा सातवीं में| इधर कैसे पढ़ते? इधर तो हम दो जन उन की माँ की नौकरी की ख़ातिर आए हैं| सरकारी नौकरी है| सरकार कहीं भी फेंक दे| चाहे तो वीरमार्ग पर और चाहे तो, ऐसे उजाड़ में” “उजाड़ तो यह है ही” मैं कहती हूँ, “वरना म्युनिसिपैलटी हमें उखाड़ न देती? यह गुमटी भी और यह झोपड़ी भी|” “सड़क पार वह एक स्कूल है और इधर सभी दफ्तर ही दफ्तर,” वह सिर हिलाता है| “उधार चुकाएँगे कब?” छुटकू दो पैकेट सिगरेट हाथ में थमा देता है| “परसों शाम तक,” वह ठहाका लगाता है, “इधर इन दो डिबिया में कितनी सिगरेट है? बीस| लेकिन मेरे लिए बीस से ऊपर है| मालूम है? एक दिन में मैं छः सिगरेट खरीद पीता हूँ और सातवीं अपनी कर बनायी हुई| छः सिगरेटों के बचे हुए टर्रों को जोड़कर|” “उधरकस्बापुर में नकली पैर वाला अस्पताल है|” पैर का लोभ मेरे अन्दर लगातार जुगाली करता है| अम्मा की शह पर, “जयपुर नाम का पैर मिलता है| ताक में हूँ जैसे ही कोई तरकीब भिड़ेगी, तेरे घाव पुरेंगे| ज़रूर पुरेंगे|” “कस्बापुर में? नाहीं….. नाहीं….. कस्बापुर कौन बड़ी जगह है?” “आज बाजा नहीं बज रहा?” छुटकू धीर खो रहा है| बबुआइन को अपने स्कूल से लौटते हुए हम देखे तो … Read more