प्रेत-छाया

कहते हैं यदि किसी की अकाल मृत्यु हो , हत्या हो , या अस्वाभाविक मृत्यु हो उसकी आत्मा भटकती है | प्रेत-छाया… जैसा की नाम से विदित है ये कहानी किसी परलौकिक जगत के बारे में बात करती है | वैसे छोटी सी इस  कहानी का कैनवास बहुत विशाल है , वो भूत , वर्तमान और भविष्य तीनों फलक  समेटे हुए है | कहानी का लिखने का अंदाज ऐसा है कि पाठक ठहर कर पढने को को विवश होता है | दार्शनिकता के साथ आगे बढती हुई कहानी अंत तक आते -आते एक कोहरे में तब्दील हो जातीं है और पाठक देर तक उसमें विचरता रहता है | आइये पढ़ें दीपक शर्मा जी की बेहतरीन कहानी … प्रेत-छाया ‘माई आइज मेक पिक्चर्स वेन दे आर शट,’ (मेरी आँखें चित्र बनाती हैं जब वे बंद होती हैं) कोलरिज ने एक जगह कहा था| वे चित्र किस काल के रहे होंगे? विगत व्यतीत के? सामने रखे वर्तमान के? आगामी अनागत के? अथवा वे मात्र इंद्रजाल रहे? बिना किसी वास्तविक आधार के? बिना अस्तित्व के? जो केवल कल्पना के आह्वान पर प्रकट हुए रहे? या फिर वे स्वप्न थे जिनके बिंब-प्रतिबिंब चित्त में अंकित किसी देखी-अनदेखी ने सचित्र किए? योगानुसार चित्त की पाँच अवस्थाएँ हैं : क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध| मैं नहीं जानता, मेरा चित्त आजकल कौन-सी अवस्था से गुजर रहा है, किंतु निस्संदेह सत्तासी वर्ष की अपनी इस आयु में जिंदगी मेरे साथ पाँव घसीटकर चल रही है….. यथा समय विराम चिन्ह भी लगाएगी, मैं जानता हूँ….. मेरा घूँट, मेरा कश, मेरा निवाला, मेरा श्वास बीच में रोक देगी और पारलौकिक उस विभ्रंश घाटी में मुझे ले विचरेगी जहाँ समय का हिसाब नहीं रखा जाता….. किन्हीं भी लकीरों में पड़े बिंदु अपनी-अपनी जगह छोड़कर एक ही दायरे में आगे-पीछे घूम सकते हैं, घूम लेते हैं….. ‘उस दिन यह मुँडेर न थी, क्या वह हवा की सीटी थी? या जाई के रेशमी गरारे की सनसनाहट? आज सत्तर साल बाद भी यह बुझौअल लाख बुझाने पर भी अपना हल मुझसे दूर ही रखे है….. मेरे चित्त में कई-कई कुंडल बनाए बैठी है….. ‘गोकुलनाथ,’ उन्नीस सौ अट्ठाईस की उस दोपहर मेरे पिताने मुझे पुकारा है….. तीसरी मंजिल के अपने आंगन से, जिसकी छत के बीचों बीच पाँच गुना पाँच वर्ग फीट की कतली में , लोहे के लम्बे सींखचे समाविष्ट हैं, इस युगात से हमें भिन्न मंजिलों पर होते हुए भी एक -दूसरे से बात करने की सुविधा बनी रहती है ….  ‘जी बाबूजी,’ इधर अपने चेचक के कारण मेरा डेरा चौथी मंजिल की सीढ़ियों की छत के भुज-विस्तार के अंतर्गत बनी बरसाती में है, जिसकी एक खिड़की इस चौमंजिली इमारतकी छत के सीखचों से दो फुट की दूरी पर खुलती है| खिड़की से तीसरी मंजिल के आँगन में खड़े व्यक्ति से वार्तालाप स्पष्ट और सहज किया जा सकता है….. ‘आज कैसी तबीयत है?’ ‘दुरुस्त है|’ ‘बुखार है?’ ‘नहीं मालूम| वैद्य जी ही रोज दोपहर में मेरी नाड़ी देखकर तय करते हैं, मुझे बुखार है या नहीं|’ ‘वैद्य जी आज नहीं आ पाएँगे| बाहर खलबली है| सड़क पर जुलूस आ रहा है|’ इतिहासकार जानते हैं, सन् उन्नीस सौ उन्नीस के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट द्वारा स्थापित भारतीय संविधान की कार्यप्रणाली पर रिपोर्ट तैयार करने हेतु स्टेनले बाल्डविन की कंजरवेटिव ब्रिटिश सरकार ने नवंबर उन्नीस सौ सत्ताईस में एक दल का संगठनकिया था, जिसका नाम था- साइमन कमीशन| इसमें सात सदस्य नामित किए गए थे : चार कंजरवेटिव पार्टी के, दो लेबर पार्टी के और एक लिबरल पार्टी का|  अध्यक्ष रखे गए थे दो : सर जॉन साइमन और क्लीमेंट एटली, जो बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी रहे| इस कमीशन को भारत का दौरा करने के बाद ही अपनी रिपोर्ट देनी थी किंतु जब यह दल हमारे देश में आया तो कांग्रेस पार्टी समेत कई राजनीतिक पार्टियों ने इसका जमकर विरोध किया था| सभी को आपत्ति थी कि इस कमीशन में एक भी भारतीय क्यों नहीं रखा गया था? फलस्वरूप जहाँ-जहाँ यह दल अपनी रिपोर्ट के लिए सामग्री एकत्रित करने जाता वहाँ-वहाँ काली झंडियों के साथ नारे लगाए जाते- ‘गोबैक साइमन, गो बैक…..’   उस दिन वह दल हमारे कस्बापुर में आया है….. ‘जी, बाबूजी…..’ ‘कितना भी, कैसा भी शोर क्यों न हो, मुँडेर पर मत जाना| भीड़ को तितर-बितर करने के वास्ते पुलिस हथगोले फेंक सकती है, गैस छोड़ सकती है, गोली चला सकती है…..’ ‘जी, बाबूजी…..’ ‘वैद्य जी ने तुम्हारे लिए एक पुड़िया भेजी है, खिलावन के हाथ| तुम्हारे पास भेज रहा हूँ| पानी के घोल में इसे पी जाना…..’ उन दिनों खाना भी मुझे इसी खिलावन के हाथ यहीं चौथी मंजिल पर भेजा जाता था| अपने चेचक के कारण पहली मंजिल वाला मेरा कमरा मुझसे छूट गया था| मेरे पिता कपड़े के थोक व्यापारी थे और भू-तल वाली मंजिल के अगले आधे हिस्से में अपनी दुकान खोले थे और पिछले आधे हिस्से में अपना गोदाम रखे थे| पहली मंजिल पर मेरे दादा के और मेरे कमरे के अलावा बैठक थी और मंदिर था|  दूसरी मंजिल पर रसोई और मेहमान कमरे| तीसरी मंजिल पर मेरी सौतेली माँ अपनी पाँच बेटियों के साथ अड्डा जमाए थीं| छूत के डर से उन्हीं ने मेरा कमरा मुझसे छुड़वा रखा था| खाना मुझे खिलावन की निगरानी में खिलाया जाता| शुरू में मैंने खिलावन से कहा भी कि वह खाना रखकर चला जाए, मैं थोड़ी देर में खा लूँगा, लेकिन खिलावन ने सिर हिला दिया, ‘हमें ऐसा हुक्म नहीं| बहूजी कहती हैं, आपके खाने के समय हमें आपके पास खड़े रहना है|’ हाँ, कितना मैं खाता या न खाता, इससे उसे कुछ लेना-देना न रहता| जैसे ही मैं उसकी ओर अपनी थाली बढ़ाता, हाथ बढ़ाकर वह थाली लेता और वापस चला जाता| पुड़िया लेकर मैं अभी बिस्तर पर लेटने ही जा रहा हूँ कि नीचे सड़क से एक हुल्लड़ मुझ तक पहुँचा है….. अपने पिता का कहा बेकहा मानकर मैं मुँडेर की ओर लपक लेता हूँ….. ‘गो बैक साइमन, गो बैक,’ ढेरों नारे हवा में गूँज रहे हैं….. जभी सड़क की दिशा से एक मेघ-गर्जन ऊपर मेरी मुँडेर पर धुँधुआता है….. अंधाधुंध मेरे गिर्द फिरकता है….. मेरी आँखों के वार पार नीर जमा करने लगता है….. मेरी चेचक के ग्यारहवें दिन के पोले उभार टीस … Read more

गुटखे की लत

                        गुटखे की लत वो लत है जिसमें आदमी स्वयं तो अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करता ही है पर उसकी गिरफ्त में उसकी निर्दोष पत्नी व् मासूम बच्चे भी आ जाते हैं |एक ऐसी ही कहानी जिसमें एक मासों पत्नी ने पति की “गुटखे की लत ” की सजा को ताउम्र झेला | कहानी -गुटखे की  लत   खिड़की के किनारे खड़ी सुमन अपनी उन पुरानी बातों को सोच रही थी जो वो अक्सर  राहुल को समझाने के तौर पर उससे कहती थी।       सुमन की ज़िन्दगी एक ऐसे व्यक्ति के साथ बीत रही थी जिस पर उसकी कही बात का कुछ भी असर नहीं होता था |शादी के समय से ही कितना मनाकरती थी राहुल को कि , पान मसाला , गुटखा छोड़ दो , लेकिन मज़ाल क्या …ये लत् उसकी ज़िन्दगी से ऐसी चिपकी कि आज तक नहीं छूटी थी …. ट्रिन….ट्रिन …अचानक बाहर की डोर बैल की आवाज ने उसका ध्यान भंग किया था । बाहर देखा तो काम वाली बाई खड़ी थी ….। उसने दरवाज़ा खोला ही था कि , कमरे से खांसने की आवाज़ पर चौक गयी थी । उसके पैर कमरे की ओर बढ़ चले थे ।              राहुल बिस्तर पर लेटा था ।  गुटखे  की आदत आज अपना रंग दिखा रही थी ….सुमन पलंग के पास खड़ी सोच रही थी .. डॉ. शरद ने साफ- साफ चेताबनी दे दी थी कि अगर राहुल ने गुटखा अभी नही छोड़ा तो परिणाम घातक हो सकते हैं .. “ सुमन ..!“  राहुल ने सुमन को पास खड़े देख कर पुकारा .. “ हाँ ..राहुल ..! बोलो , तुम कुछ कहना चाहते हो “ सुमन ने राहुल के बालों में हाथ फेरते हुऐ पूछा.. “ सुमन ! मैंने तुम्हारी बात .. खुल्ह..खुल्ह……पहले मान ली होती ..तो शायद ..खुल्ह…खुल्ह .. राहुल बेतहाशा खांसते हुए बोलने की चेष्टा कर रहा था .. “ राहुल ..! कुछ मत बोलो .प्लीज़ ..! “ सुमन ने उसकी पीठ को सहलाते हुए कहा था ।   राहुल आज महसूस कर रहा था अपनी ग़लती को ..तो सब कुछ कह देना चाहता था सुमन से …। उसकी आँखों के कोर से कुछ गरम –गरम बह निकला था ..।     ईश्वर ने उसकी झोली में बच्चे भी तो नहीं डाले थे एक बच्चा भी होता तो शायद सुमन की चिन्ता आज उसको न व्याप्ती …। लेटे हुए अपनी बन्द आँखों मेंराहुल अपने अतीत को ढूँढने  निकल चुका था ..  “ सुमन ! आज लेडी डॉ. अन्जुमन के पास जाना है तुमको अपने चेकअप के लिए .. याद है या भूल गयी “  “ अरे ! याद है राहुल ! कितनी बार मेरा टैस्ट करवाओगे तुम “ किस तरह सुमन ने मुझसे कहा था कितना विश्वास था उसको अपने मातृप्त पर  “ क्यों नही कराऊँगा ? बच्चा तो तुम्हें ही पैदा करना है मुझे नहीं “…. और , ये कह कर मैं कितना हँसा था ….। कितना ग़लत था मैं ! ..उसको मेरी हँसी शायद कहीं चुभ गयी थी तुरन्त किस तरह बोली थी .. “राहुल ! बच्चा सिर्फ एक ही व्यक्ति नही पैदा करता , उसमें दोनों का स्वस्थ होना ज़रूरी है ।मेरी रिपोर्ट हमेशा सही आती है ..तुम अपना चेकअप क्यों नहींकराते राहुल ? “  मुझे न जाने उसकी किस बात का बुरा लगा था ,हो सकता है शायद अपनी मर्दानगी  को लेकर ।  मैंने तुरन्त उसकी बात काट दी थी और गुस्से में ही कहा था .. “ क्या मैं नामर्द हूँ जो मेरे चेकअप की राय दे रही हो”  सुमन चुप हो गयी थी आगे कुछ न बोली थी ।           दिन बीत रहे थे हम दोनों के बीच एक ठंडापन सा रहने लगा था । न उसके कहने से मैंने गुटखा छोड़ा था और न ही उसके कहने से अपना चेकअप कराया था ।लेकिन अब जब मुझे कैन्सर की शिकायत हुयी तब एक दिन डॉ. ने बातों बातों में पूछा था ..”कोई औलाद है क्या.?” मैंने कहा था “ नहीं”  “क्यों ..? की नहीं या हुई नही “ डॉ. ने फिर से पूछा था.. “ पत्नी की रिपोर्ट तो ठीक आती थी फिर भी कोई बच्चा नही हुआ डॉक्टर साहब “ मैंने जैसे ही कहा वो तुरन्त  बोले थे …. “ क्या तुमने अपना चेकअप नही कराया था ..? तुममें भी तो कमी हो सकती है “  “ मुझमें….?”किस तरह आश्चर्य व्यक्त किया था मैंने… “ हाँ..राहुल .! मर्द को हमेशा औरत में ही कमी लगती है वो भूल जाता है कि बच्चा एक नही दोंनो के सन्सर्ग से पैदा होता है …और ये गुटखा कितने समय सेखा रहे हो तुम ? तुरन्त डॉ. ने मेरी ओर देख कर पूछा था  “ करीब दस सालों से “ और , मैंने ये कह कर नज़रें झुका लीं थीं किस तरह अगले दिन डॉ. ने मेरा चेकअप कराया था ।और , तीसरे दिन रिपोर्ट साफ दर्शा रही थी कि मैं सुमन को बच्चे का सुख नहीं दे सकता था ।      कारण पूछने पर मालूम हुआ था कि तंबाकू की मात्रा बॉडी में इतनी बढ़ चुकी होती है कि वो गुटखा मुंह संबंधी बीमारियों को बुलावा तो देता ही है, पर सेक्सहार्मोन पर इसका सबसे ज्यादा निगेटिव प्रभाव  पड़ता है , जिससे प्रजनन क्षमता समाप्त हो जाती है और आपको नपुंसक बना देती है ।     मैं किस तरह बेचैन हो उठा था …काश .! मुझे सुमन की बात बहुत पहले मान लेनी चाहिए थी । मेरी गुटके की आदत ने मेरा सब कुछ  छीन लिया ।  ये सोचते –सोचते राहुल सिसक उठा था ….।  पास में बैठी सुमन ने देखा तो अन्दर ही अन्दर बिखर उठी थी ।वो अपनी भावनाओं को  पति के सामने दिखा कर उसको और कमज़ोर नही करना चाहती थी ।  “ ऐ .. ये क्या राहुल …? तुम तो कभी इतने कमज़ोर न थे । हम दोनों मिल कर लड़ेगें राहुल ..थोड़ा तुम हिम्मत रखना थोड़ा मैं हौसला रखुंगी “ ।        उसके माथे को चूम कर सुमन जैसे ही जाने लगी थी राहुल ने कस कर हाथ थाम लिया था सुमन का और अपने पास फिर से बैठने का इशारा करके बोलाथा .. “ सुमन …मुझे मॉफ कर दो ..और ….और….. “ और , क्या राहुल ? तुम्हारी सुबह हो चुकी है राहुल !         मैंने डॉ. से बात की है , सब ठीक होगा ..चलो , अब आराम करो ..” सुमन ने थपथपा कर उसको चादर उढा़ते हुए कहा और दूसरे कमरे में जाकर फूटफूट कर रो पड़ी थी ।        आज दो साल हो चुके थे । सुमन की अथक सेवा और राहुल के आत्म विश्वास को देखकर डॉक्टर भी हैरान थे । कहते हैं न ! बीमार इन्सान में अगर जीनेकी चाहत हो , तो बीमारी भी डर कर भाग जाती है …..।            सुमन और राहुल आज खुश थे और नॉर्मल ज़िन्दगी जी रहे थे । आज ..! राहुल ने अपने घर के बाहर एक स्लोगन लिख कर टांग दिया था “ “ गुटखा बन्द कराएं , जीवन को बचाएं “                                       ( कुसुम पालीवाल , नोयडा ) यह भी पढ़ें … उसकी मौत ममत्व की प्यास घूरो चाहें जितना घूरना है                                                                                                तुम्हारे बिना  लेखिका  का परिचय – नाम–कुसुम पालीवाल जन्म –2जनवरी 1961 जन्म स्थान –आगरा,उ.प्र स्थाई निवास -नोयडा , उ.प्र kusum.paliwal@icloud.com शिक्षा –एम . ए .हिन्दी साहित्य कॉलेज ,आगरा कॉलेज ,आगरा ,उ.प्र प्रथम काव्य संग्रह –” अस्तित्व ” 2017 में (प्रकाशन -ए.पी.एन पब्लिकेशन्स , दिल्ली से ) बुक का विमोचन -प्रगति मैदान ,दिल्ली , विश्व पुस्तक मेला , दिल्ली में द्वितीय काव्य संग्रह “ अन्तस् से “ 2018 में , वनिका पब्लिकेशन्स से तृतीय काव्य संग्रह “ कुछ कहना है “ 2018 में , वनिका पब्लिकेशन्स से , दोनों ही संग्रह का विमोचन बुक फेयर , प्रगति मैदान , दिल्ली में ही समय समय पर पत्र -पत्रिकाओं में रचनाओं का लगातार निकलते रहना । आपको  कहानी  “गुटखे की  लत “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- Tobacco, Tobacco addiction,health issueS फोटो क्रेडिट –डेली हंट

हम्मिंग बर्ड्ज़

दीदी की मृत्यु के पश्चात् माँ ने उनकी चिड़ियों को उनकी ससुराल से लाने का आदेश दिया | बरसों से दीदी उन्हें पाल रहीं थीं | वो पिताजी की नशानी थी और अब दीदी की भी ……कहाँ गयीं वो हम्मिंग बर्ड्स  कहानी -हम्मिंग बर्ड्ज़  “आजकी भी सुन लीजिए,” मेरे दफ्तर से लौटते ही पत्नी ने मुझे घेर लिया, “माँजी ने आज एक नया फरमान जारी किया है, जीजी की चिड़ियाँ हमें यहाँ लौटा लानी चाहिए|” बहन की मृत्यु पंद्रह दिन पहले हुई थी| उधर अपने पति के घर पर| जिससे उसने पाँच महीने पहले कचहरी में जाकर अपनी मर्ज़ी की शादी रचाई थी| मेरे खिलाफ जाकर| “माँ की ऊलजलूल फरमाइशें मेरे सामने मत दोहराया करो,” मैं झल्लाया, “कितनी बार मैंने तुम्हें बताया है, मेरा मूड बिगड़ जाता है|” “यह अच्छी रही|” पत्नी मुकाबले पर उतर आई, “दिन-भर वह कोहराम मचाएँ, मेरा जी हलकान करें और आपके आने पर आपके साथ मैं अपना जी हलका भी न करूँ?” “ठीक है,” मेरी झल्लाहट बढ़ ली, “अभी पूछता हूँ माँ से|” माँअपनेकमरेमें रामायण पढ़ रही थीं| “तुम्हारी तसल्ली कैसे होगी, माँ?” मैं बरस लिया, “तुमने कहा, काठ-कफ़न मायके का होता है, सो काठ-कफ़न हमने कर दिया, फिर रसम-किरिया पर जो भी देना-पावना तुमने बताया, सो वह भी हमने निपटा दिया| अब उन चिड़ियों का यह टंटाल कैसा?” “तुम्हीं बताओ,” बहन की मृत्यु के बाद से माँ अपने ढक्कन के नीचे नहीं रह पातीं, “वे चिड़ियाँ वहाँ मर गईंतो प्रभा की आत्मा को कष्ट न होगा?” “तो तुम चाहती हो, वर्षा अब विश्शूकी परवरिश छोड़ दे और उन चिड़ियों के दाने-दुनके पर जुट जाए?” “चिड़ियाँ मैं रखूँगी, वर्षा नहीं|” “तुम?” मैं चिल्लाया, “मगर कैसे?” दो साल पहले माँ पर फालिज़ का हमला हुआ था और उनके शरीर का बायाँ भाग काम से जाता रहा था|” “रख लूँगी|” माँ रोने लगीं| “माँजी से आप बहस मत कीजिए|” पत्नी ने पैंतरा बदल लिया| उसे डर था, माँके प्रति मेरी खीझ कहीं सहानुभूति का रूप न धर ले| “आइए,” वह बोली, “उधर विश्शू के पास आकर टी.वी. देखिए| जब तक मैं आपका चाय-नाश्ता तैयार करती हूँ|” रात मुझे बहन नज़र आई| एक ऊँची इमारत में बहन मेरे साथ विचर रही है…..| एकाएक एक दरवाज़े के आगे बहन ठिठक जाती है…..| “चलो,” मैं उसकी बाँह खींचता हूँ…..|” “अँधेरा देखोगे?” वह पूछती है, “घुप्प अँधेरा…..?” बचपन के उसी खिलंदड़े अंदाज़ में जब वह अपनी जादुई ड्राइंग बुक के कोरे पन्नों पर पानी से भरा पेंटिंग ब्रश फेरने से पहले पूछती, “जादू देखोगे?” और पानी फेरते ही वे कोरे पन्ने अपने अंदर छिपी रंग-बिरंगी तस्वीरें ज़ाहिर करने लगते…..| “नहीं, मैं डर जाता हूँ, “चलो…..” उजाले में खुलने वाले एक दरवाज़े की ओर हम बढ़ लेते हैं….. दरवाज़े के पार जमघट जमा है….. सहसा बहन पलटने लगती है….. “क्या हुआ?” मैं उसका पीछा करता हूँ….. “उधर सतीश मुझे ढूँढ रहा है|” वह कहती है….. “कौन सतीश?” मैं पूछता हूँ….. मुझे याद नहीं, सतीश उसके पति का नाम है….. बहन चुप लगा जाती है….. घूमकर मैं उस उजले दरवाज़े पर नज़र दौड़ाता हूँ….. दरवाज़े के पार का जमघट अब अस्तव्यस्त फैला नहीं रहा….. कुर्सियों की संघबद्ध कतारों में जा सजा है….. कुर्सियाँ मेरी पहचान में आ रही हैं….. ये वही कुर्सियाँ हैं, जिन्हें बहन की रसम-किरिया के दिन सतीश ने अपने मेहमानों के लिए कुल एक घंटे के लिए किराए पर लिया था….. मैं फिर बहनकी तरफ मुड़ता हूँ….. लेकिन वह अब वहाँ नहीं है….. मैं पिछले दरवाज़े की तरफ लपकता हूँ….. दरवाज़े के पार अँधेरा है….. घुप्प अँधेरा….. झन्न से मेरी नींद खुल गई| मैंने घड़ी देखी| घड़ी में साढ़े तीन बजे थे| बिस्तर पर वर्षा और विश्शू गहरी नींद में सो रहे थे| पानी पीने के लिए मैं बिस्तर से उठ खड़ा हुआ| पानी पी लेने के बाद मैं बाहर गेट वाले दालान में आ गया| सड़क की रोशनी दालान के गमलों को उनकी छायाओं के साथ अलग-अलग वियुक्ति देकर उन्हें पैना रही थी| नमालूम मेरी उम्र तब कितनी रही होगी, लेकिन निश्चित रूप से आठ बरस से छोटी ही, क्योंकि बाबूजी की मृत्यु पर मैं केवल आठ का रहा, जबकि बहन अपने पंद्रहवें वर्ष में दाखिलहो चुकी थी….. और उस रात हम भाई-बहन बाबूजी की देख-रेख में लुका-छिपी खेल रहे थे और ढूँढने की अपनी बारी आने पर बहन जब मुझे घर के अंदर कहीं नहीं दिखाई दी थी, तो मैं रोने लगा था| गला फाड़-फाड़कर| मेरा रोना बहन से बर्दाश्त नहीं हुआ था और वह फ़ौरन मेरे पास चली आई थी| “तुम कहाँ छिपी थीं?” मैंने पूछा था| “दालान के अँधेरे में|” वह हँसी थी| “तुम्हें डर नहीं लगा?” मैंने पूछा था| “अँधेरे से कैसा डरना?” जवाब बाबूजी ने दिया था, “अँधेरा तो हमारा विश्वसनीय बंधु है| वह हमें पूरी ओट देता है|” दालान की दीवार पर अपने हाथ टिकाकर मैं रो पड़ा| तभी माँने अपने कमरे की बत्ती जलाई| “कुछ चाहिए, माँ?” मैं अपने कमरे में दाखिल हुआ| “हाँ,” माँ रोने लगीं, “मालूम नहीं यह मेरा वहम है या मेरा भरम, लेकिन प्रभा मुझे जब भी नज़र आती है, अपनी चिड़ियों को ढूँढती हुई नज़र आती है…..| चिड़ियों का शौक बहन ने बाबूजी से लिया था और उनकी मृत्यु के उन्नीस साल बाद भी उनके इस शौक को ज़िंदा रखा था| “जीजी तुम्हें दिखाई देती हैं, माँ?” मैं माँ के पास बैठ लिया| “हाँ, बहुत बार| अभी-अभी फिर दिखाई दी थी…..|” “मुझे भी| अभी ही| बस, माँ, आप अब सुबह हो लेने दें, फिर मैं सतीश के घर जाऊँगा और जीजी की चिड़ियाँ यहाँ लिवा लाऊँगा…..|” माँ के कमरे से उस रात फिर मैं दोबारा सोने अपने कमरे में लौटा नहीं| बैठक में आकर सुबह का इंतज़ार करने लगा| और वर्षा के जगने से पहले ही उस नए दिन के चेहरे और पहनावे के साथ तैयार भी हो लिया| ठीक सात बजे सतीश अपने घर से गोल्फ खेलने के लिए निकल पड़ता है और मैं उसे सात से पहले पकड़ लेना चाहता था…..| “साहब घर पर है न?” पौने सात के करीब मैंने सतीश के घर की घंटी जा बजाई| सितंबर का महीना होने के नाते सुबह सुरमई थी| “जी हाँ, हैं|” दरवाज़े पर आए नौकर ने बताया| “कौन है?” सतीश वहीं बरामदे में अपने जूते … Read more

आई एम सॉरी विशिका

अगर आप भी किसे के प्रति आसानी से धारणा बना लेते हैं तो ये कहानी अवश्य पढ़ें , क्योंकि अंत में पछतावे के सिवा कुछ नहीं रहता | बेहतर हो समय रहते ही सजग हो जाएँ |  कहानी -आई एम सॉरी विशिका  रिंकू …बेटा रिकू , चलो आज विशिका आंटी  घर जाना है |  मेरी आवाज सुनते ही रिंकू ने बुरा सा मुँह बना दिया | नहीं मम्मा  मैं उनके यहाँ नहीं जाऊँगा , मैं तो उन्हें ठीक से जानता भी नहीं | मैं तो घर पर ही दादी के  रहूँगा  कहते हुए १० साल का रिंकू खेल में लग गया |  यूँ तो विशिका को मैं भी ठीक से नहीं जानती थी, पति के साथ कुछ साल पहले बस एक बार पार्टी में मुलाकात हुई थी | उनका बेटा पीयूष रिंकू से दो साल छोटा है | जहाँ मैं रिंकू को हर समय खेलने के लिए मस्त छोड़ देती वो हर समय अपने बेटे के साथ लगी रहती | मुझे उनकी बच्चे की  परवरिश का ये ढंग बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा | इस कारण पहली ही मुलाकात से वो मुझे कुछ जमीं नहीं | इंसान भी कितना अजीब है किसी के बारे मैं कितनी आसानी से धारणा  बना लेता है | मैंने भी पहली ही मुलाकात में धारणा  बना ली थी | इसीलिए फिर मिलने का मन भी नहीं किया | पर पिछले दो दिन से मेरे पति  अमित उनके घर चलने को कह रहे थे | दरअसल अमित को काम के सिलसिले में विशिका के पति मयंक से जरूरी बात करनी थी | वो बात उन्हें ऑफिस में न करके घर में करना ज्यादा उचित लग रहा था | अब घर जाना था तो वो चाहते थे कि मैं भी साथ चलूँ | मुझे जाना पड़ा तो  मुझे लगा रिंकू को भी ले चलूँ … शायद पीयूष और विशिका बदल गए हों | चेन  रीएक्शन केवल एटम के न्यूकलियस के ही नहीं होते …. हम भी घरों में यही प्रयास करते हैं | खैर रिंकू के मना करने के बाद मन मार के मैं जाने के लिए तैयार होने लगी | फिरोजी साड़ी , फिरोजी चूड़ियाँ , और फिरोजी बिंदी लगा कर जब शीशे में खुद को देखा तो अपनी ही प्रशंसा करे बिना न रह सकी | अमित भी समय पर घर आ गए और हम कार से उनके घर रवाना हो गए |  सावन की हलकी फुहारे पड़ रहीं थी हमारा मन जो थोड़ी बोरियत महसूस कर रहा था सुहाने मौसम के कारण गुनगुना उठा |  उनके घर पहुँचने पर विशिका ने एक फीकी मुस्कान से स्वागत किया | विशिका ने मामूली गाउन पहन रखा था | उसमें भी जगह -जगह हल्दी के दाग लगे थे | घर भी बेतरतीब था | उसे पता था हम आने वाले हैं , फिर भी उसका  ऐसा फीका स्वागत हमें अटपटा सा लगा | हम ड्राइंग रूम में बैठ गए , बातें होने लगीं | मुझे पीयूष बहुत ही कमजोर लग रहा था | बहुत रोकने की कोशिश करते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया …. पीयूष मेरे बेटे की उम्र का ही है पर  कमजोर होने के  कारण बहुत छोटा लगता है … आप इसे कुछ खेल खेलने को कहें … जैसे टेनिस , फुटबॉल , बैडमिन्टन , जिससे इसे भूख लगेगी और सेहत भी बनेगी | मेरे इतना कहते ही विशिका जी क्रोधित हो गयीं और बोली , ” आप अपने बेटे को पालने की टिप्स अपने पास रखिये … ये जैसा है ठीक है | माहौल थोडा संजीदा हो गया | मैंने  माहौल हल्का करने के लिए इधर -उधर की बातें की फिर भी बात बन नहीं पायी | अमित जिस काम के लिए बात करना चाहते थे , उसके लिए भी मयंक जी ने कोई रूचि नहीं दिखाई | लौटते समय गाडी में मेरा मूड बहुत ख़राब था | मैं अमित पर फट पड़ी | क्या जरूरत थी मुझे साथ ले चलने की , काम  की बात ऑफिस में ही कर लिया करो |  खामखाँ में अपना और मेरा समय बर्बाद किया | देखा नहीं , कैसे मेरी  जरा सी राय पर गुस्सा गयीं | मुझे जो उचित लगा मैंने कहा , अब अच्छी राय देना भी गुनाह है क्या  …. रखें अपने लड़के को १६ किलो का मुझे क्या करना है ? ठीक से बच्चे की परवरिश करनी आती नहीं , पहनना -ओढना आता नहीं , मेहमानों का स्वागत करना आता नहीं … ऐसे लोग किसी भी तरह से मिलने के काबिल नहीं हैं | अमित ने मेरी बात में हाँ में हाँ मिलाई | घर आकर मैं उन्हें लगभग भूल गयी | दिन गुज़रते गए | ऐसे ही करीब १० महीने बीत गए | उस दिन रिंकू के स्कूल का एनुअल फंक्शन था | रिंकू को स्पोर्ट्स में कई सारे पुरूस्कार मिले थे | मैं एक गर्वीली माँ की तरह उसके तमगे सँभालने में लगी थी | मन ही मन खुद पर फक्र हो रहा था कि मैंने कितनी अच्छी शिक्षा दी है रिंकू को जो वो आज इतने पुरूस्कार जीत पाया | कितना ध्यान रखती हूँ मैं उसके खाने -पीने का , तभी तो इतना ऊँचा कद निकला है | पढाई में भी अच्छा कर रहा है | एक गर्वीली माँ के गर्वीले विचारों को झकझोरते हुए मेरे साथ गयी निशा ने कहा , ” विशिका से मिलने नहीं चलोगी ? मेरे मुँह  का स्वाद बदल गया | फिर भी मैंने  पूंछा , ” क्यों ?” स्पोर्ट्स के पुरूस्कार उसी ने स्पोंसर करे  हैं , निशा ने बताया क्या ??? मैंने मुश्किल से अपनी हँसी  रोकते हुए पूंछा औ उत्तर की प्रतीक्षा करे बिना कहना शुरू किया , ” बड़े आदमियों के बड़े चोंचले ,अपने बेटे को तो स्पोर्ट्स खेलने नहीं देती और दूसरों के बच्चों को पुरूस्कार बाँट रही है | बच्चे पर ध्यान नहीं और खुद के लिए इतनी यश कामना …. देखा है उसका बेटा , १६ किलो से ज्यादा वजन नहीं होगा …. अब उसका बेटा दुनिया में नहीं है , निशा ने मेरी बात काटते हुए कहा | क्यायाययया , कब , कैसे , मुझे लगा पुरूस्कार मेरे हाथ से गिर जायेंगे | तुम्हें … Read more

टाऊनहाल

दो वर्ष पहले की मेरी जनहित याचिका पर प्रदेश के उच्च न्यायालय ने आज अपना निर्णय सुना दिया है : हमारे कस्बापुर की नगरपालिका को प्रदेश के पर्यटन विभाग के साथ किए गए अपने उस समझौते को रद्द करना होगा जिस के अंतर्गत हमारे टाऊनहाल को एक ‘हेरिटेज होटल’ में बदल दिया जाना था। मुझ से पूछा जा रहा है कि अठहत्तर वर्ष की अपनी इस पक्की उम्र के बावजूद नगरपालिका जैसी बड़ी संस्था को चुनौती देने की हिम्मत मैंने कैसे जुटा ली। और इस प्रश्न के उत्तर में मैं वह प्रसंग दोहरा देता हूँ जब मेरे पिता ने इसी टाऊनहाल को बचाने हेतु अपने प्राण हथेली पर रख दिए थे। सन् १९४२ की अगस्त क्रान्ति के समय। सभी जानते हैं द्वितीय महायुद्ध में काँग्रेस से पूर्ण सहयोग प्राप्त करने हेतु मार्च १९४२ में ब्रिटिश सरकार के स्टैफ़र्ड क्रिप्स की अगुवाई में आए शिष्टमंडल के प्रस्ताव के विरोध में ८ अगस्त १९४२ के दिन काँग्रेस कमेटी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की जब घोषणा की थी और अगले ही दिन जब पुणे में गांधीजी को हिरासत में ले लिया था। तो गांधी जी के समर्थन में देश भर की सड़कें ‘भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ के नारों से गूंजने लगी थी। बल्कि कहीं-कहीं तो समुत्साह में बह कर लोग बाग सरकारी इमारतों को आग के हवाले करने लगे थे। बिजली की तारें काटने लगे थे, परिवहन एवं संचार के साधन ध्वस्त करने लगे थे। देश के अन्य शहरों के सदृश हमारे कस्बापुर निवासी भी काँग्रेस के झंडे ले कर सड़कों पर उतर लिए थे। कुछ उपद्रवी तो कुछ सभ्य। कुछ का गन्तव्य स्थान यदि कलेक्ट्रेट रहा करता तो बहुधा का हमारा यह टाऊनहाल। कारण, यह ब्रिटिश आधिपत्य का ज्यादा बड़ा प्रतीक था। एक तो उन दिनों इस का नाम ही विक्टोरिया मेमोरियल हाल था, दूसरे उसके अग्रभाग के ठीक बीचोबीच रानी विक्टोरिया की एक विशाल मूर्ति स्थापित थी। सैण्डस्टोन, बलुआ पत्थर, में घड़ी, जिस के दोनों हाथ एक बटूए पर टिके थे। वास्तव में इस टाऊनहाल के गठन की योजना इंग्लैण्ड की तत्कालीन रानी विक्टोरिया के डायमंड जुबली वाले वर्ष १८९७ में बनी थी। जब उस के राज्याभिषेक के ६० वर्ष पूरे हुए थे। और १९११ में जब एक यह पूरा बन कर तैयार हुआ था तो विक्टोरिया की मृत्यु हो चुकी थी। सन् १९०१ में। अत: बना विक्टोरिया मेमोरियल हाल। उस दिन उस जुलूस में सब से पहले रानी विक्टोरिया की इसी मूर्ति पर हमला बोला था उस के बटुए पर ढेलेबाज़ी शुरू करते हुए। टाऊनहाल के अपने दफ़्तर में बैठे मेयर ने तत्काल उस जुलूस को वहाँ से हटाने के लिए अपने साथ तैनात पुलिस रक्षादल को उस के प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज का आदेश दे डाला था। परिणाम विपरीत रहा था। जुलुसियों के हाथ के ढेले मूर्ति छोड़ सीधे टाऊनहाल की खिड़कियों पर लक्षित किये जाने लगे थे। मेरे पिता उन दिनों टाऊनहाल ही में काम करते थे। वहाँ के पुस्तकालय में। उस की दूसरी मंज़िल पर। जिस की एक बालकनी टाऊनहाल के मुख्य द्वार के ऐन ऊपर बनी हुई थी। बेकाबू हो रही भीड़ के विकट इरादे देख कर वे उसी बालकनी पर आन खड़े हुए थे। यदृच्छया ढेले फेंक रही क्रुध्द एवं उत्तेजित भीड़ को संबोधित करने। टाऊनहाल के पब्लिक ऐड्रस, पी. ए., सिस्टम की सुविधा का लाभ उठाते हुए। वह सिस्टम लोक भाषण एवं राजकीय अभिनंदन तथा जनहित घोषणाएं करने हेतु उपयोग में लाया जाता था। यहाँ यह बताता चलूँ कि हमारे इस टाऊनहाल में उस समय न केवल नगर-विषयक काम काज के दफ्तर थे मगर नगर के मतदान एवं महत्त्वपूर्ण परीक्षाएं भी वहीँ निष्पन्न की जाती थी। आपदा एवं विपत्ति तथा टीके-एवं स्वास्थ्य संबंधी घोषणाएं भी वहीँ से जारी होती थी। विश्वयुद्ध में हताहत एवं मृत व्यक्तियों की सूचियाँ भी। और ये घोषणाएं अकसर मेरे पिता द्वारा की जाती थी। स्वर संगति में पारंगत वे प्रभावोत्पादक एवं भावपूर्ण आवाज के स्वामी थे। जिस का प्रयोग करना वे बखूबी जानते थे। “मैं आपका एक भाई बोल रहा हूँ”, बिना किसी पूर्वाज्ञा अथक पूर्व सूचना के प्रतिकूल उस वातावरण में अकस्मात जब उनकी आवाज गूंजी थी तो सभी अप्रतिम हो उन्हें सुनने लगे थे, पुलिसियों और जुलुसियों के हाथ एक साथ रुक लिए थे। “आप ही की तरह गांधीजी का भक्त मैं भी हूँ। जिन का रास्ता अहिंसा का है, अराजकता का नहीं, सविनय अवज्ञा, सहयोग का है, आक्रामक, कार्यकलाप का नहीं। हमें ‘चौरीचारा’ यहाँ दोहराना नहीं चाहिए। याद रखना चाहिए ५ फरवरी, १९२२ को जब यहाँ के पुलिस थाने पर हमारे भाईयों ने हिंसा दिखायी थी तो हमारे बापू को ५ दिन का उपवास रखना पड़ा था। क्या आप चाहते हैं बापू को उपवास पर फिर जाना पड़े? जब कि आज वे अधिक वृध्द हैं। शारीरिक रूप से भी अधिक क्षीण। और फिर यह भी सोचिए, मेरे भाईयों और बहनों, यह टाऊनहाल एक लोक-निकाय है, हमारे लोक-जीवन की जनोपयोगी सेवाओं का केन्द्र। यह हमारा है। इस के ये गोल गुम्बद, ये चमकीले कलश ये मेहराबदार छतरियां, ये घंटाघर और इस की ये चारों घड़ियाँ हमारी हैं। यह सब हमारा है। हम इन्हें क्यों तोड़े-फोड़े? क्यों हानि पहुँचाएँ? यह अंगरेज़ों का नहीं। उन्हें तो भारत छोड़ना ही है। आज नहीं, तो कल, कल नहीं तो परसों…” जभी मेरे पिता के हाथ के माइक्रोफोन का संबंध पी. ए. सिस्टम से टूट गया। किंतु वे तनिक न घबराए। यह जानते हुए भी कि ब्रिटिश सरकार अब उन्हें सेवामुक्त कर देगी। शान्त एवं धीर भाव से उन्होंने अपने हाथ का माइक्रो फोन बालकनी के जंगले पर टिकाया और हाथ ऊपर उठा कर चिल्लाएं। ‘महात्मा गाँधी की जय।’ पुलिसियों ने भी अपनी लाठियां समेटीं और विघटित हो रही भीड़ को टाऊनहाल छोड़ते हुए देखने लगे। मेरे पिता मुस्कुराए थे। मानो उन्हें कोई खज़ाना मिल गया हो। उनका टाऊनहाल अक्षुण्ण था और बचा रहा था वह संग्रहालय, जिस में शहर के ऐतिहासिक स्मारकों एवं विशिष्ट व्यक्तियों के चित्र एवं विवरण धरे थे। बची रही थीं, पुस्तकालय की दुर्लभ वे पुस्तकें जिन में संसार भर की विद्वत्ता जमा थी। और जिनका रस वे पिछले पन्द्रह वर्षों से लगातार लेते रहे थे। दीपक शर्मा  atootbandhann.com पर दीपक शर्मा जी की कहानियाँ पढने के लिए यहाँ क्लिक करें यह भी पढ़ें … … Read more

बॉर्डर वाली साड़ी

बेटियाँ पराया धन होती हैं | मायके पर उनका अधिकार शादी के बाद खत्म हो जाता है …. लेने का ही नहीं देने का भी | ये परिभाषा मुझे बॉर्डर वाली साड़ी  ने सिखाई | बॉर्डर वाली साड़ी ये वो दिन थे जब सूरज इतना नही तपता था , पर एक और तपिश थी जिसे बहुधा औरतें अपने मन में दबाये रहतीं थी … बहुत जलती थीं  पर आधी आबादी ने इसे अपना भाग्य मान लिया था | उन दिनों , हां , उन्हीं में से कुछ  दिनों में जब बॉर्डर वाली साड़ी बहुत फैशन में थी और अपने कपड़ों पर कभी ध्यान न देने वाली माँ की इच्छा बॉर्डर वाली साड़ी खरीदने की हुई | वो हर दुकान पर बॉर्डर वाली साड़ी को गौर से देखतीं , प्यार से सहलातीं और आगे बढ़ जातीं | न कोई फरमाइश न रूठना मनाना | बड़ी ही सावधानी से अपने चारों  ओर एक वृत्त खींचती आई हैं औरतें , जिसमें वो अपने जाने कितने अरमान छुपा लेतीं हैं | इस वृत्त में किसी का भी प्रवेश वर्जित है …खुद उनका भी | ये वो समय था , जब  हमारा घर बन रहा  था ,  खर्चे बहुत  थे | उस पर हम पढने वाले भाई –बहन , कभी पढाई का कभी त्योहारों का तो कभी बीमारी अतिरिक्त खर्चा आ ही जाता | इसलिए माँ भी अन्य औरतों की तरह  खुद ही अपनी इच्छा स्थगित कर देतीं  | बुआ, चाची वैगेरह जब भी बॉर्डर वाली  साड़ी पहन कर आती माँ बहुत ध्यान से देखतीं , खुले दिल से प्रशंसा करती पर अपने लिए नहीं कहतीं |  समय बीता और एक दिन वो भी आया जब माँ के लिए बॉर्डर वाली साड़ी आई ,पर  जब तक माँ के लिए बॉर्डर वाली साडी आई तब तक उसका फैशन जा चुका था | ज्यादातर महिलाओं ने अपनी बॉर्डर वाली साड़ी अपनी  कामवालियों को दे दी थी | हर दूसरी कामवाली वही पहने दिखती | माँ ने जब वो साड़ी पहली बार पहनी तो हर कोई टोंकता अरे , ये क्या पहन ली , अब तो ये कोई पहनता नहीं , हमने तो अपनी काम वाली को दे दी | दो चार बार पहन कर माँ ने भी वो साड़ी  किसी को दे दी | माँ ने तब भी कोई शिकायत नहीं की पर मेरे मन में एक टीस गड  गयीं | बाल बुद्धि में ये  सोचने लगी ,जब मैं बड़ी हो कर नौकरी करुँगी और जब फिर से बॉर्डर  वाली साड़ी का फैशन आएगा तो सबसे पहले माँ को ला कर दूँगी | समय अपनी रफ़्तार से गुजरता चला गया | संयोग से मेरी शादी के बाद एक बार फिर बॉर्डर वाली  साड़ी का फैशन आया | बचपन का सपना फिर से परवान चढ़ने लगा | मेरे पास स्वअर्जित धन भी था | बस फिर क्या था अपने सपने को सच्चाई का रंग देने के लिए  उसी दिन बाज़ार जा पहुंची | सैकड़ों साड़ियाँ उलट –पुलट डाली | कोई साड़ी पसंद ही नहीं आ रही थी या फिर दुनिया में कोई ऐसी साड़ी  बनी ही नहीं थी जिसमें मैं अपने सपने स्नेह और अरमान लपेट सकती | दिन भर की मशक्कत और धूप  में पसीना –पसीना होने के बाद आखिरकार एक साड़ी मिली जिसका रंग मेरे सपनों के रंग से मेल खाता था | झटपट पैक करायी | जब तक वो साड़ी मेरे घर में रही मैं रोज उसे पैकेट से निकाल कर निहारती और ये सोच कर खुश होती कि माँ कितनी खुश होंगी | अपनी कल्पनाओं में माँ को उस साड़ी को पहने हुए देखती … मुझे माँ रानी परी से कम न लगतीं | मुझे महसूस हो रहा था कि हर रोज वो साड़ी  मेरे स्नेह के भर से भारी होती जा रही थी | कल्पना के पन्नों से निकल कर वो दिन भी आया जब मैं  मायके गयी और माँ को वो  साड़ी दी | माँ की आँखे ख़ुशी से छलछला गयी , अरे अब तक याद है तुमें कहते हुए वो रुक गयीं , फिर बोलीं , “ ये मैं कैसे ले सकती हूँ , लड़की का कुछ लेना  ठीक नहीं है , परंपरा के खिलाफ है , तुम पहनों , तुम पर अच्छी लगेगी | हम दोनों की आँखों में आंसूं थे |  मुझे लगा समय रुक गया है , बाहर की सारी  आवाजे सुनाई देना बंद हो गयीं ,केवल एक ही आवाज़ आ रही थी अन्दर से … बहुत अंदर से … हाँ माँ  … मैं अब इस घर की बेटी कहाँ रही , मैं तो दान कर दी गयी हूँ , परायी हो गयी हूँ | मेरे और माँ के बीच में परंपरा खड़ी थी | मैं जानती थी आस्था को तर्क  से काटने के सारे उपाय विफल होंगे | मैंने माँ की गोद में मुँह छिपा लिया , ठीक उस बच्चे की तरह जो माँ की मार से बचने के लिए माँ से ही जा चिपकता है |  दो औरतें जो एक दूसरे का दर्द समझती थीं पर असहाय थीं  क्योंकि एक परंपरा के आगे विवश थी और दूसरी विफल |  तभी पिताजी आये | बिना कुछ कहे वो समझ गए | पिता में भी एक माँ का दिल होता है | माँ से बोले , “ क्यों बिटिया का दिल छोटा करती हो , ले लो , परंपरा है , ये  बात सही है तो दो की चीज चार में ले लो , बिटिया का मन भी रह जाएगा और परंपरा भी | मुझे ये बिलकुल वैसा ही लगा जैसे कीचड में ऊपर से नीचे तक सने व्यक्ति को दो बूँद गंगा जल छिड़क कर पवित्र मान लिया जाता है | फिर भी मैंने स्वीकृति में सर हिला दिया क्योंकि उस साड़ी को वापस लाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी | मुझे उस साड़ी के बदले में एक कीमती उपहार मिल चुका था | मेरे  वापस जाने वाले दिन माँ ने वो साड़ी पहनी | सच में माँ बिलकुल मेरे सपनों की परी जैसी लग रहीं थी | मेरी आँखे बार –बार भर रहीं थी |  सब कुछ धुंधला दिखने के बावजूद एक चीज मुझे साफ़ –साफ़ दिख रही थी ….माँ की साड़ी से निकला हुआ … Read more

सावन में लग गई आग , दिल मेरा …

                                                                                                       नरिंदर कुमार रोमांटिक और भावुक क़िस्म का आदमी था । उसे एक लड़की से इश्क़ हो गया । भरी जवानी में इश्क़ होना स्वाभाविक था । अस्वाभाविक यह था कि उस समय पंजाब में आतंकवाद का ज़माना था । नरिंदर कुमार हिंदू था । जिस लड़की से उसे इश्क़ हुआ , वह जाट सिख थी । पर यह तो कहीं लिखा नहीं था कि एक धर्म के युवक को दूसरे मज़हब की युवती से इश्क़ नहीं हो सकता । लिहाज़ा नरिंदर कुमार ने इन बातों की ज़रा भी परवाह नहीं की । इश्क़ होना था , हो गया ।  सावन में लग गई आग , दिल मेरा …               शुरू में उसका इश्क़ ‘ वन-वे ट्रैफ़िक ‘ था । लड़की उसी के मोहल्ले में रहती थी । नाम था नवप्रीत कौर संधू । नरिंदर को लड़की पसंद थी । उसका नाम पसंद था । उसकी भूरी आँखें पसंद थीं । उसकी ठोड़ी पर मौजूद नन्हा-सा तिल पसंद था । उसका छरहरा जिस्म पसंद था ।                लड़की को नरिंदर में कोई दिलचस्पी नहीं थी । लड़की को इश्क़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी । यह नरिंदर के इश्क़ की राह में एक बड़ी बाधा थी । पर वह मजनू ही क्या जो अपनी लैला को पटा न सके ! लिहाज़ा नरिंदर तन-मन-धन से इस सुकार्य में लग गया । बड़े-बुज़ुर्ग कह गए हैं कि यदि किसी कार्य में सफल होना है तो अपना सर्वस्व उसमें झोंक दो । इसलिए नरिंदर ‘ मिशन-मोड ‘ में आ गया । वह उन दिनों अमृतसर के गुरु नानक देव वि.वि. से अंग्रेज़ी में एम. ए. कर रहा था ।  ‘ रोमांटिक पोएट्री ‘ पढ़ रहा था । वह इश्क़ की उफ़नती नदी में कूद गया और हहराते मँझधार में पहुँच कर हाथ-पैर मारने लगा ।                नवप्रीत को यदि ख़ूबसूरत कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । तीखे नैन-नक़्श , गेंहुआ रंग , छरहरी कमनीय काया , सलोना चेहरा । नरिंदर ने जवानी में क़दम रखा और विधाता की इस गुगली के सामने क्लीन-बोल्ड हो गया । लेकिन आलम यह कि इश्क़ के खेल में आउट हो कर भी वह खुश था । दिल हाथ से जा चुका था पर अगली इनिंग्स का इंतज़ार था । मन में निश्चय था कि अगली बार वह इश्क़ के मैदान में डबल सेंचुरी ठोक कर ही लौटेगा । अगली बार मौक़ा मिलते ही वह धैर्य के साथ इश्क़ के मैदान की क्रीज़ पर डट गया । उसने एक साथ सचिन तेंदुलकर , राहुल द्रविड़ और वी. वी. एस. लक्ष्मण की ख़ूबियों को आत्म-सात करके  विधाता की बॉलिंग खेलनी शुरू कर दी ।                पहले कुछ ओवर बेहद ख़तरनाक थे । नवप्रीत-रूपी नई गेंद बहुत स्विंग कर रही थी । मेघाच्छादित आकाश में गेंद उसे बार-बार छका कर बीट कर जाती । वह नवप्रीत-रूपी गेंद को स्क्वेयर-कट मारना चाहता लेकिन स्विंग हो रही गेंद हवा में थर्ड-मैन की दिशा में चली जाती । लेकिन यहीं नरिंदर ने राहुल द्रविड़ की शैली में इश्क़ की क्रीज़ पर लंगर डाल दिया । ठुक-ठुक , ठुक-ठुक करते हुए वह मनचाहे स्कोर की ओर बढ़ने लगा । उसने अपनी बहन हरलीन को प्रेरित किया कि वह नवप्रीत से दोस्ती करे । दोनों एक ही उम्र की थीं । उधर इन दोनों की मित्रता हुई ,  इधर नरिंदर को लगा जैसे विकट परिस्थितियों में एक हरी घास वाली उछाल भरी पिच पर उसने जूझते हुए पचास रन बना लिए हैं ।                फिर नवप्रीत हरलीन से मिलने उनके घर आने लगी । नरिंदर तो कब से ताक में था ही । नवप्रीत से ‘ हलो-हाय ‘ हुई । फिर बातचीत होने लगी । नरिंदर को पता चला कि नवप्रीत खालसा कॉलेज से एम.ए. ( पंजाबी ) कर रही है । फिर तो नरिंदर और नवप्रीत के बीच अकसर साहित्य-चर्चा होने लगी । नरिंदर ने प्रसिद्ध पंजाबी कवि सुरजीत पातर की कविताएँ पढ़ी थीं । नवप्रीत के प्रिय कवि भी सुरजीत पातर ही थे । इधर दोनों को बातचीत के लिए ‘ कॉमन ग्राउंड ‘ मिल गया , उधर नरिंदर को लगा जैसे उसने इश्क़ के मैच में विधाता की गेंद को ‘ टेम ‘ कर लिया है ।  उसे लगा जैसे उसने इस खेल में शतक ठोक डाला है ।                सावन का महीना था । काली घटाएँ आकाश में उमड़-घुमड़ रही थीं । ऐसे मौसम में नवप्रीत एक दिन हरलीन ले मिलने उनके घर आई । उसने फ़ीरोज़ी रंग का पटियाला सूट पहना हुआ था । इत्तिफ़ाक़ से घर के सभी लोग एक रिश्तेदार की शादी में गए थे । नरिंदर की परीक्षा चल रही थी । लिहाज़ा वह पढ़ाई करने के महती कार्य के नाम पर घर पर ही था । अब यह बात नवप्रीत को तो पता नहीं थी । या यह भी हो सकता है कि उसे यह बात अच्छी तरह पता थी । कुछ भी हो , नवप्रीत आई और नरिंदर ने उसकी आव-भगत की । साहित्य-चर्चा होने लगी । रोमांटिक कविता की विशेषताओं की चर्चा करते-करते हमारे नायक ने बेहद रोमानी अंदाज़ में अपनी नायिका का हाथ पकड़ कर उसे चूम लिया । यदि यह कथा कालांतर में घटी होती तो नरिंदर गायक मीका की शैली में अपनी नायिका के सामने गा उठता — ” सावन में लग गई आग , दिल मेरा …। ” ऐसा इसलिए क्योंकि बरसों बाद उसे मीका का गाया यह गाना बेहद पसंद आया था ।                 पर उस समय तो नवप्रीत नाराज़ हो गई । या कम-से-कम उसने नाराज होने का अभिनय ज़रूर किया । नरिंदर घुटनों के बल बैठ कर रोमियो की शैली में अपने सच्चे प्यार … Read more

अरक्षित

अक्सर जब हम शोषित स्त्रियों की बात करते हैं तो हमारे जेहन में उन स्त्रियों का अक्स उभरता है जो गरीब है या माध्यम वर्ग से संबंध रखती है |पर क्या उच्च वर्ग की औरतें प्रताड़ित नहीं की जा रही है | ये अलग बात है कि उनका दर्द उनके पति की शान की चमक में चुंधियाई  आँखों को दिखता नहीं है | बड़े घरों की दास्ताने बाहर नहीं आती  | ऐसी  ही एक दास्ताँ  के मखमली पर्दे उतरती कहानी …. कहानी -अरक्षित  उनका घर इन-बिन वैसा ही रहा जैसा मैंने कल्पना में उकेर रखा था| स्थायी, स्वागत-मुद्रा के साथ घनी, विपुल वनस्पति; ऊँची, लाल दीवारों व पर्देदार खुली खिड़कियाँ लिए वह बँगला पूरी सड़क को सुशोभित कर रहा था| “साहब घर पर नहीं है,” अभी हम पहले फाटक पर ही थे, किएक साथ चार संतरियों ने अपनी बंदूकें अपने कंधों पर तान लीं| “हम तुम्हारे साहब से नहीं, तुम्हारी मेमसाहब से मिलने आए हैं,” मैंअपनी पत्नी की ओट में खड़ा हो गया, “हम उनके रिश्तेदार हैं|” “क्या रिश्ता बताएँगे, हुजूर?” सभी संतरियों ने तत्काल अपनी बंदूकें अपने कंधों से नीचे उतार लीं और हमें सलाम ठोंक दिया| “मेम साहिब की बहन हैं,” मैंने पत्नी की ओर इंगित किया| “हुजूर,” एक संतरी ने हमारे लिए फाटक खोला तो दूसरे ने आगे बढ़कर मेरे हाथ का सूटकेस अपने हाथ में ले लिया| “आइए,” तीसरे संतरी ने हमें दूसरे फाटक की ओर निर्दिष्ट किया| “कौन है?” दूसरे फाटक का संतरी अतिरिक्त रुखा व रोबदार रहा| “मेम साहिब की बहन हैं,” सामान उठाए हमारे साथ चल रहेसंतरी ने कहा| “ये सही नहीं कह रहीं,” दोसरे फाटक के संतरी ने सिर हिलाया, “मेम साहिब की एक ही बहन हैं और उनसे हमारा खूब परिचय है….. वे खुद गाड़ी चला कर आती हैं, गहनोंऔर खुशबुओं से लक-दक रहती हैं, ऐसे नहीं…..” मेरी पत्नी का चेहरा-मोहरा अति सामान्य है तथा वह अपने परिधान व केश-भूषा की ओर अक्षम्य लापरवाही भी दिखाती है| उसे देखकर कोई नहीं जान सकता वह एक नौकरीशुदा कॉलेज लेक्चरर है| “आप यह नाम अंदर अपनी मेम साहिब को दिखा आएँ| फिर हमसे कुछ बोलना,” अपना नाम मुझे अपनी रेल टिकट पर लिखना पड़ा| दूसरा कोई फ़ालतू कागज उस समय मेरे पास न रहा| वे हमें एक रेल-यात्रा के दौरान मिली थीं| एयर-कंडीशण्ड स्लीपर के कोच में पर्दे के उस तरफ जो चार सीटें रहीं, उनमें दो हमारी थीं और एक उनकी| “आप शायद ऊपर की सीट पर जायेंगी?” , मोहक व् प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली महिलाओं पर भड़कना मेरी पत्नी अपना परम कर्तव्य मान कर चलती है, “नीचे की दोनों सीटें हमारी हैं| “   उस दिन हमारी गाड़ी बहुत लेट हो गयी थी और हमारे स्टेशन पर शाम के सात बजे पहुँचने के बजाय रात के दस बजे पहुँची | दो दिन बाद पत्नी के भये की शादी थी और हमनें अपनी सीटें बहुत पहले बुक करवा रखीं थीं | “मैं अपना खाना खत्म कर लूँ ?” उनके चेहरे पर एक भी शिकन न पड़ीं थी और वो पूरे चाव व् इत्मीनान के साथ अपने मुँह में नियंत्रणीय निवाले भेजती रहीं  “जरूर, जरूर,” मैंने तपाक के साथ कहा था| एक ओर जहाँ सावकाश वर्ग के पुरुष मुझे गहरे कोप में भर देते हैं, वहीं सावकाश वर्ग की स्त्रियाँ मुझे शुरू से ही तरंगित करती रही हैं| बचपन से ही मैंने अपने आस-पास की स्त्रियों को ‘बहुत जल्दी में’ पाया है| ‘फुरसत’ से उन सबका परिचय बहुत कम रहा है| बचपन में माँ और बहनों को जब देखा, “जल्दी में’ ही देखा| मेरी पत्नी की जल्दी तो अकसर उतावली और हड़बड़ी में बदल जाती है| “आप बहुत कृपालु हैं,” वे हँसने लगी थीं| “आपकी खातिर नहीं, अपनी खातिर,” मैंने चुटकी ली थी, “हमनेअभी खाना नहीं खाया है| भूखे पेट बिस्तर बिछाने से बच गए|” “आप अपना टिफिन दिखाइए,” वे एक बच्ची की मानिंद मचल ली थीं, “देखूँ, क्या-क्या छीना जा सकता है?” उनके टिफिन के महक रहे पनीर के उन बड़े टुकड़ों में से जब कुछ टुकड़ों की मेरी पत्नी कीऔर  मेरी प्लेट में आ जाने की संभावना उत्पन्न हुई तो खीझ रही पत्नी की खीझ तुरन्त भाग ली| पूरी यात्रा की अवधि में मैंने पाया अपनी बात कहने का उनके पास अपना ही एक विशेष परिमाण व मापदंड रहा| अपने श्रोता के अनुरूप वे एक मर्यादित सीमा के भीतर नियमित, आयोजित व सुव्यवस्थित बोल ही मुख से उचारती रहीं| उनके शब्द देववाणी सदृश वेदवाक्य न भी रहे, फिर भी उनके मुख से जो भी सुनने को मिला, सहज में ही, उन शब्दों ने सुनिश्चित रूप से एक असाधारण सोद्देश्यता तथा अलंकरण अवश्य ही धारण कर लिया| “यह मेरे पति का कार्ड है,” जब हम लोग अपने स्टेशन पर उतरे थे तो उन्होंने हमें अपने न्यौते के साथ एक उत्साही मुस्कान दी थी, “मुझे मिलने जरूर आइएगा…..” “अचरज, सुखद अचरज!” उत्कण्ठित व सदय मुद्राके साथ हमारे सामने प्रकट होने में उन्होंने अधिक समय न लिया| “आप यहाँ बैठिए,” उन्होंने हमारे लिए अपना बड़ा हॉल खुलवाया, “मैं अभी चाय का प्रबंध देखकर आती हूँ|” “मैंचाय नहीं पीता,” पनीर के वे टुकड़े मैं अभी तक न भूला था, “कॉफ़ी मिलेगी क्या?” “क्यों नहीं?” वे गर्मजोशी के साथ मुस्कुराईं, “अभी हाजिर हुई जाती है|” पत्नी की दिशा में देख कर मैं हँसने लगा| उधर घर पर जब भी कोई मेहमान आता है, पत्नी उसे खिलाने-पिलाने के मामले में कभी भी पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं कर पाती है| “इन्होंने हमें देखकर मुँह नहीं बनाया|” मैंने जान-बूझ कर पत्नी को छेड़ा| “मुँह क्यों बनाएँगी?” पत्नी ने गोल बात की, “चीजें बनाने और चीजें लाने के लिए जिसके एक इशारे पर बीसियों अर्दली हाजिर हो जाते हैं, वे अपने आदर-सत्कार में क्यों टाल-मटोल करेंगी?” “यह केक मैंने कल खुद बनाया था,” एक सुसज्जित ट्रॉली के साथ वे जल्दी ही लौटआईं| ट्रॉली के निचले खाने में तीन नेपकिन लगी प्लेटें व चटनियाँ रहीं तथा ऊपर वाले खाने में केक और नमकीन की तश्तरियाँ| “लीजिए,” उन्होंने केक के दो बड़े खंड हमारी प्लेटों में परोस दिए, “कल हमारे बड़े बेटे का सोलहवाँ जन्मदिन रहा| बेटा तो, खैर, होस्टल में था, मगरइस केक के बल पर उसका जन्मदिन हमारे यहाँ भी मना लिया…..” “केक बहुत बढ़िया है,” मैंने कहा, “मुँह में जाते … Read more

चिठ्ठी

               किसी अपने की चिट्ठी कुछ ख़ास ही होती है, क्योंकि उसका एक -एक शब्द प्रेम में डूबा हुआ होता है | पर कुछ अलहदा ही होती है वो चिट्ठी जो किसी ऐसे अपने की होती है जिससे बरसों से मिले ही न हों , यहाँ तक कि ये यकीन भी न हो कि ये चिट्टी जहाँ जायेगी वहां वो रहता भी है या नहीं | ऐसे ही खास जज्बातों को समेटे हुए है युवा लेखिका सिनीवाली शर्मा की कहानी “चिट्ठी ” कम शब्दों में भावों को खूबसूरती से व्यक्त करना सिनीवाली जी की विशेषता है | ऐसे ही एक पंक्ति जो बहुत देर तक मेरे दिल में गड़ती रही … हाँ, आनंद तलाक के कुछ महीने बाद ही दूसरी शादी कर ली मैंने। हम बहुत सुखी पति–पत्नी हैं, सभी कहते हैं——कहते हैं तो सही ही होगा।  कहने को ये मात्र एक वाक्य है पर ये दाम्पत्य जीवन का कितना दर्द उकेर देता है जिसको शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है|  एक स्त्री, एक प्रेमिका का अपने पूर्व पति को लिखा गया भाव भरा पत्र पाठक को देर तक उसके प्रभाव से मुक्त नहीं होने देता | आप भी पढ़िए … कहानी-चिट्ठी  आनंद, कितने दिनों बाद आज तुम्हें चिठ्ठी लिख रही हूं ,कई साल पहले हमारे प्रेम की शुरूआत इसी से तो हुई थी, एक नहीं, दो नहीं, न जाने कितनी चिठ्ठियां…….इनके एक–एक शब्द को जीते, महसूस करते हम एक दूसरे के करीब होते गए। आज फिर कई सालों बाद तुम्हें चिठ्ठी लिख रही हूं और ये भी नही जानती कि तुम उस पते पर हो भी या नहीं। पता नहीं क्यों इतने दिनों बाद भी तुमसे मिलने का मन हो रहा है क्योंकि मन की कुछ ऐसी बातें जो तुम्हीं समझ सकते हो, वो तुम्हारे आगे ही खुलना चाहता है।  इससे पहले कि ये मन बिखर जाये, तुम इसे समेट दो ! बार बार, मैं मन को समेट लाती हूं अपनी दुनिया में—–पर पता नहीं कैसे खुशबू की तरह उड़कर तुमसे मिलने पहुंच जाता है, हाँ जानती हूं अब मुझे तुमसे मिलने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए—–फिर भी न जाने क्यों ! सोचती थी किसी के जीवन से निकल जाते ही संबंध टूट जाते हैं, कितनी गलत थी मैं ! संबंध तो मन से बनते हैं और वहाँ से चाह कर भी नहीं निकाल पाई तुम्हें, जबसे तुमसे अलग हुई तभी से तुम्हारे साथ हो गई, जब मैने तुम्हें खो दिया तभी ये जाना प्यार किसे कहते हैं लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। वो कमजोर पल भी आते हैं जब मैं तुम्हारी जरूरत महसूस करती हूँ। जब मन बेचैन होता है तो सोचती हूँ कि तुम्हें फोन करके सब बता दूं—–।  जब किसी को अपना प्यार सहेजते देखती हूँ तुम सामने आ जाते हो, किसी को अपने प्यार के आगे सिर झुकाते देखती हूँ तो तुम नजर आ जाते हो। ओह ! अब भी तुम मेरे साथ–साथ क्यों चलते हो। कहीं तुम अभी भी अपने प्रेम की कसमें तो नहीं निभा रहे ! जानती हूँ तुम ऐसे ही हो पर सबकुछ जानकर भी तो——मैं ही तुम से अलग हो गई। तुम्हारा नंबर अब तक मैं नहीं भूली। मेरे कितने करीब हो—–पर कितनी दूर। कई बार बात करनी चाही तुमसे—–पर न जाने क्या सोचकर फिर हाथ से फोन रख देती हूँ। अपने आपको बहला लेती हूँ कि शायद नंबर बदल लिया होगा—–पर मैं भी जानती हूँ कि वो नंबर तुम कभी नहीं बदलते। कितना अजीब लग रहा है ना——तुम्हें, तुम्हारे ही बारे में बता रही हूँ ——मैं। वही मैं जो साथ रहते हुए तुम्हें समझ नहीं पाई या यूँ कहो, अपने मैं को छोड़कर हम नहीं बन पाई कभी। हाँ, तुम सोच रहे होगे, जब मैं तुम्हें प्यार करती थी तो फिर हमारे रिश्ते का वह कौन सा तार टूटा कि हमारा जीवन ही अलग हो गया। शायद तुम से अलग होना ही मुझे तुम्हारे करीब ले गया। तुम ने इतना सहेज कर रखा था मुझे कि जान ही नहीं पाई कि जीवन के मीठे पल के बीच कड़वाहट भरा बीज भी होता है, पहले तुम मेरी जरूरत थे फिर आदत बन गए। पता ही नहीं चला कब पूरा अधिकार जमा लिया तुम पर, कि किसी और रिश्ते की जगह ही नहीं छोड़ी। पर ये नहीं समझ पाई, जरूरत से अधिक अधिकार प्रेम की कोमलता खो देती है। मैं अधिकार बढ़ाती गई और हमारा प्रेम घुटता गया। मैं यही समझने लगी थी कि मुझ में ही कुछ ऐसा है कि तुम मुझे इतना चाहते हो। ओह ——ये क्यों नहीं समझ पाई, प्रेम समर्पण होता है ! मेरी चाहत हमेशा खोजती रही अपनी ही खुशियाँ। मैंने प्रेम तो तुम से किया—–पर सच तो यही है कि मैं अपने आप से ही खोई रही, तभी तो समर्पण नहीं जान पाई। मेरा प्रेम तुम्हारे प्रेम का प्रतिउत्तर होता था, नाप तौल कर ही प्रेम करती थी, तुम्हारे सहारे मैं अपने आप को सुखी करती रही तभी तो हमारा वैवाहिक जीवन संतोष और खुशी दे रहा था मुझे। अपने दायित्वों को भूल अपने आप में खो गई थी। लगता है जैसे कल की ही बात है, जब तुम्हारी माँ हमारे साथ रहने आई थी। उनका आना हमारे लिए वैसा ही था जैसे शांत जल में किसी ने जोर से पत्थर मार कर हलचल मचा दी हो। मैं इस हलचल को स्वीकार नहीं कर पाई। तुम्हारे लाख समझाने पर भी मैं समझ नहीं पाई कि बादल की सुंदरता आकाश में विचरने से तो है ही पर उसकी सार्थकता पानी बन धरती पर बरसने में है। तुम्हारा अपनी माँ पर ध्यान देना, उनके सेहत के बारे में, खाने के बारे में पूछते रहना, वो गाँव की यादों में माँ के साथ खो जाना। बीते दिनों को याद करके नौस्टैलजिक होना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था। खासकर गाँव की बातें तो मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगतीं। दुनिया चाँद पर घर बसा रही है और तुम उन्हीं यादों में घर बना रहे थे। मेरे लिए तो जिंदगी रफ्तार थी, तेज—–तेज—–और तेज ——बहुत तेज।  इतनी तेज कि अपनी गति के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था मुझे। तुम कोशिश करते रहे मुझे समझाने की  और मैं जिद पर अड़ती चली गई कि तुम मुझे या अपनी माँ में से किसी एक को चुनो। शायद कहीं न कहीं मैं ये चाहती थी कि तुम साबित करो कि  दुनिया … Read more

क्वार्टर नम्बर तेइस

माँ और तीनों बहनों की हँसी अशोक ने बाहर से ही सुन ली| हमेशा की तरह इस बार भी हँसी उसे अचरज तथा रोष से भर गयी| रेल गाड़ियों के धुएं और धमाके के हर दूसरे पल पर डोल रहे इस क्वार्टर नंबर तेइस में रह कर भी भला कोई हँस सकता था? पैसे के बढ़ रहे दख़ल के कारण हर दूसरे कदम पर पैसे की तंगी से लाचार रहने के बावजूद कैसे हँस लेती थीं बहनें और माँ? रेलवे  पार्सल बुक कराने के लिए जिस खिड़की पर लोग अशोक से पर्ची बनवाने आते वहां उसे बीस साल की इस उम्र में दिन-भर ड्यूटी बजाना नरक में साँस लेने से किसी तरह भी कम न लगता| तेज़ बदबू और उससे भी तेज़ शोर उसे हरदम परेशान किए रहता| अशोक का बस चलता तो वह अपनी ज़िन्दगी किसी पुस्तकालय की नौकरी में बिताता जहाँ काम चाहे जितना भी रहता, मगर आसपास शान्ति तो बनी ही रहती या फिर वह किसी ऐसे स्टेशन की टिकट-खिड़की का भार संभालता जो पहाड़ों पर किसी वीराने में बसा रहता और जहाँ दिन में केवल एक ही गाड़ी आती और अधिकांश समय सन्नाटा छाया रहता| मगर इन्टरमीडिएट पास करवाते ही रेलवे में गार्ड पिता ने अशोक से बिना पूछे उसे इस खिड़की पर बैठाने का पक्का इन्तज़ाम कर दिया था| जो क्वार्टर पिता के नाम से इस प्रमुख रेलवे स्टेशन के बाजू में परिवार को मिला था, वह अब पिता के रिटायर होने से पहले ही अशोक के नाम लगवाना जरूरी हो गया था| क्वार्टर नम्बर तेइस पिता ने अपनी पूरी ज़िन्दगी परिवार के नाम पर गुज़ारी थी और वह सोचते थे उनके एकमात्र पुत्र अशोक की ज़िन्दगी भी अब परिवार के नाम ही थी| पुत्र की ज़िन्दगी परउनका पूरा अधिकार था और वे जैसा चाहें पुत्र की ज़िन्दगी अपने तरीके से जरूर बरत सकते थे| रिटायर होने के तुरन्त बाद वे खुद ६ नम्बर प्लेटफार्म पर चाय का ठेला लगाने लगे थे| अशोक कई बार ६ नम्बर प्लेटफार्म पर पिता की ओर लपक कर पहुँचना चाहता, उनका हाथ बँटाना चाहता, उनकी झुकी कमर का दर्द अपनी कमर में बटोर लेना चाहता| मोतियाबिन्द से धुँधला रही उनकी आँखों में अपनी नेत्र-ज्योति प्रज्ज्वलित करना चाहता| उनके घुटनों की ऐंठन अपने घुटनों में समेट लेना चाहता पर हर बार एक तेज़ रुलाई उसे जकड़ लेती और वह भारी कदमों से अपनी खिड़की पर आबैठता| वहां की सड़ांध उसके नथुनों में फिर ज़हर भरने लगती वहां की भीड़ उसके दिलो-दिमाग पर फिर हथौड़े चलाती और उसकी रुलाई उससे दूर छिटक लेती, रह जाती सिर्फ़ ढेर सी झल्लाहट, घबराहट और हड़बड़ी| पर्ची काटते समय उसे हर बार लगता उसने किसी से पैसे कम लिए हैं या उसने किसी पार्सल पर गलत मोहर लगा दी है| दिन में बीसियों ही रसीदें काटता फिर भी हिसाब बार-बार जोड़ता| दसेक लोगों से तो रोज़ झांव-झांव भी हो जाती और फिर भी मोहर हर बार ठीक-ठाक ही लगती, गड़बड़ाती नहीं| “बाबूजी क्या अभी तक लौटे नहीं?” शाम को अशोक जब भी घर लौटता पहले पिता को घर में टटोलता| अगर कहीं वे घर पर न रहते तो अजीब सी छटपटाहट महसूस करता| पहले भी जब-जब पिता ड्यूटी पर शहर से बाहर रहते अशोक रेलवे स्टेशन पर रोज़ अख़बार देखने जाता| कहीं कोई रेल-दुर्घटना तो नहीं हो गयी, कहीं ऐसा तो नहीं कि अबकी बार के गए पिता वापस ही न लौट पाएँ, पर हर बार पिता लौट आते रहे- पहले से कहीं ज्यादा थके-चुके| रेलगाड़ी में लगातार बैठे रहने की वजह से पिता अकसर उसे डोलते से दिखाई देते| वह उन्हें बढ़कर सहारा देना चाहता, उन्हें स्थावर अवस्था में देखना चाहता, इन रेलगाड़ियों की गति और ध्वनि से उन्हें बहुत दूर किसी सन्नाटे में ले जाना चाहता, पर फिर वह कुछ भी तो न कर पाता| केवल देर तक चुपचाप पिता के दाएँ-बाएँ बना रहता और पसीने तथा रेल के कोयले की जिस मिली-जुली गन्ध में पिता लिपटे रहते वह उस गन्ध को अपने नथुनों में भर कर एक अजीब सा उद्वेलन अपने भीतर घुमड़ने देता “बाज़ार सब्ज़ी लेने गए हैं, अभी आ जाएँगे,” अशोक का स्वागत बड़ी बहन हमेशा अनूठे ठाठ से करती| जैसे ही अशोक घर में दाखिल होता, बड़ी बहन सब काम छोड़ कर लम्बे डग भरती हुई हमेशा उसके निकट आन खड़ी होती| मुँह से तो तभी बोलती जब अशोक उससे कुछ पूछता पर अपनी आँखों की चमक और होठों के स्मित से उस पर अपना लाड़ उड़ेलना कभी न भूलती| “आज मैंने हलवा बनाया था” माँ एक बड़ी तश्तरी उठा लायी| पैसे कितने भी कम क्यों न रहते माँ हर त्यौहार, हर तीज व्रत को उत्सव मना कर ही मानतीं| “आज कौन त्यौहार रहा?” ‘हलवा अशोक को बहुत पसन्द था और वह जानता था माँ और बहनों ने इसे केवल चखा ही होगा और फिर दो तश्तरियों में तकसीम कर दिया होगा- छोटी तश्तरी पिता के लिए रखी होगी और बड़ी उसकेलिए| “आज जीजी को नौकरी मिली है,” मंझली और छोटी एक साथ चिल्लायी| दोनों अक्सर एक साथ ही बात बोलतीं, एक ही बात पर हँसतीं, एक ही बात पर रोतीं| “कहाँ?” अशोक आगे बढ़ कर बैठ लिया| हथेली पर टिकायी तश्तरी उसने अपनी गोद में रख ली| हर नयी अथवा बदली परिस्थिति उसे बुरी तरह से उत्तेजित अथवा आन्दोलित कर डालती| “यहीं अपने ही रेलवे स्टेशन पर,” मंझली बहुत खुश थी| “एक नम्बर प्लेटफार्म पर, जहाँ घोषणाएँ की जाती हैं,” छोटी ने उत्साह से जोड़ा| “वहाँअनाउन्सर की जगह तीन महीने के लिए खाली थी सो वह जगह मुझे मिल गयी,” बड़ी बहन हँसने लगी| “बी. ए. मैं तुम्हारी फर्स्ट डिवीज़न आयी है” अशोक की बेचैनी बढ़ी ही, घटी नहीं, “तुम्हें अब बी. एड. करना चाहिए| पढ़ाने की नौकरी रेलवे की शोर-गुल वाली नौकरी से कहीं बेहतर रहेगी|” “तुम्हारे भीतर पढ़ाई के लिए जो ललक है वह मुझ में नहीं” बड़ी बहन ने अपना हाथ अशोक के कंधे पर धर दिया, “जिसे तुम हल्ला-गुल्ला कहते हो, मुझे तो वहां रौनक दिखाई देती है| फिर मेरी कुर्सी तो अलग-थलग रहेगी, स्टेशन मास्टर के दफ्तर के ऐन सामने| वहां तो हरदम पुलिस की ड्यूटी भीलगी रहती है|” “जीजी की तनख्वाह आप से ज़्यादा रहेगी” छोटी ने कहा| “जीजी कहती हैं … Read more