प्रेत-छाया
कहते हैं यदि किसी की अकाल मृत्यु हो , हत्या हो , या अस्वाभाविक मृत्यु हो उसकी आत्मा भटकती है | प्रेत-छाया… जैसा की नाम से विदित है ये कहानी किसी परलौकिक जगत के बारे में बात करती है | वैसे छोटी सी इस कहानी का कैनवास बहुत विशाल है , वो भूत , वर्तमान और भविष्य तीनों फलक समेटे हुए है | कहानी का लिखने का अंदाज ऐसा है कि पाठक ठहर कर पढने को को विवश होता है | दार्शनिकता के साथ आगे बढती हुई कहानी अंत तक आते -आते एक कोहरे में तब्दील हो जातीं है और पाठक देर तक उसमें विचरता रहता है | आइये पढ़ें दीपक शर्मा जी की बेहतरीन कहानी … प्रेत-छाया ‘माई आइज मेक पिक्चर्स वेन दे आर शट,’ (मेरी आँखें चित्र बनाती हैं जब वे बंद होती हैं) कोलरिज ने एक जगह कहा था| वे चित्र किस काल के रहे होंगे? विगत व्यतीत के? सामने रखे वर्तमान के? आगामी अनागत के? अथवा वे मात्र इंद्रजाल रहे? बिना किसी वास्तविक आधार के? बिना अस्तित्व के? जो केवल कल्पना के आह्वान पर प्रकट हुए रहे? या फिर वे स्वप्न थे जिनके बिंब-प्रतिबिंब चित्त में अंकित किसी देखी-अनदेखी ने सचित्र किए? योगानुसार चित्त की पाँच अवस्थाएँ हैं : क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध| मैं नहीं जानता, मेरा चित्त आजकल कौन-सी अवस्था से गुजर रहा है, किंतु निस्संदेह सत्तासी वर्ष की अपनी इस आयु में जिंदगी मेरे साथ पाँव घसीटकर चल रही है….. यथा समय विराम चिन्ह भी लगाएगी, मैं जानता हूँ….. मेरा घूँट, मेरा कश, मेरा निवाला, मेरा श्वास बीच में रोक देगी और पारलौकिक उस विभ्रंश घाटी में मुझे ले विचरेगी जहाँ समय का हिसाब नहीं रखा जाता….. किन्हीं भी लकीरों में पड़े बिंदु अपनी-अपनी जगह छोड़कर एक ही दायरे में आगे-पीछे घूम सकते हैं, घूम लेते हैं….. ‘उस दिन यह मुँडेर न थी, क्या वह हवा की सीटी थी? या जाई के रेशमी गरारे की सनसनाहट? आज सत्तर साल बाद भी यह बुझौअल लाख बुझाने पर भी अपना हल मुझसे दूर ही रखे है….. मेरे चित्त में कई-कई कुंडल बनाए बैठी है….. ‘गोकुलनाथ,’ उन्नीस सौ अट्ठाईस की उस दोपहर मेरे पिताने मुझे पुकारा है….. तीसरी मंजिल के अपने आंगन से, जिसकी छत के बीचों बीच पाँच गुना पाँच वर्ग फीट की कतली में , लोहे के लम्बे सींखचे समाविष्ट हैं, इस युगात से हमें भिन्न मंजिलों पर होते हुए भी एक -दूसरे से बात करने की सुविधा बनी रहती है …. ‘जी बाबूजी,’ इधर अपने चेचक के कारण मेरा डेरा चौथी मंजिल की सीढ़ियों की छत के भुज-विस्तार के अंतर्गत बनी बरसाती में है, जिसकी एक खिड़की इस चौमंजिली इमारतकी छत के सीखचों से दो फुट की दूरी पर खुलती है| खिड़की से तीसरी मंजिल के आँगन में खड़े व्यक्ति से वार्तालाप स्पष्ट और सहज किया जा सकता है….. ‘आज कैसी तबीयत है?’ ‘दुरुस्त है|’ ‘बुखार है?’ ‘नहीं मालूम| वैद्य जी ही रोज दोपहर में मेरी नाड़ी देखकर तय करते हैं, मुझे बुखार है या नहीं|’ ‘वैद्य जी आज नहीं आ पाएँगे| बाहर खलबली है| सड़क पर जुलूस आ रहा है|’ इतिहासकार जानते हैं, सन् उन्नीस सौ उन्नीस के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट द्वारा स्थापित भारतीय संविधान की कार्यप्रणाली पर रिपोर्ट तैयार करने हेतु स्टेनले बाल्डविन की कंजरवेटिव ब्रिटिश सरकार ने नवंबर उन्नीस सौ सत्ताईस में एक दल का संगठनकिया था, जिसका नाम था- साइमन कमीशन| इसमें सात सदस्य नामित किए गए थे : चार कंजरवेटिव पार्टी के, दो लेबर पार्टी के और एक लिबरल पार्टी का| अध्यक्ष रखे गए थे दो : सर जॉन साइमन और क्लीमेंट एटली, जो बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी रहे| इस कमीशन को भारत का दौरा करने के बाद ही अपनी रिपोर्ट देनी थी किंतु जब यह दल हमारे देश में आया तो कांग्रेस पार्टी समेत कई राजनीतिक पार्टियों ने इसका जमकर विरोध किया था| सभी को आपत्ति थी कि इस कमीशन में एक भी भारतीय क्यों नहीं रखा गया था? फलस्वरूप जहाँ-जहाँ यह दल अपनी रिपोर्ट के लिए सामग्री एकत्रित करने जाता वहाँ-वहाँ काली झंडियों के साथ नारे लगाए जाते- ‘गोबैक साइमन, गो बैक…..’ उस दिन वह दल हमारे कस्बापुर में आया है….. ‘जी, बाबूजी…..’ ‘कितना भी, कैसा भी शोर क्यों न हो, मुँडेर पर मत जाना| भीड़ को तितर-बितर करने के वास्ते पुलिस हथगोले फेंक सकती है, गैस छोड़ सकती है, गोली चला सकती है…..’ ‘जी, बाबूजी…..’ ‘वैद्य जी ने तुम्हारे लिए एक पुड़िया भेजी है, खिलावन के हाथ| तुम्हारे पास भेज रहा हूँ| पानी के घोल में इसे पी जाना…..’ उन दिनों खाना भी मुझे इसी खिलावन के हाथ यहीं चौथी मंजिल पर भेजा जाता था| अपने चेचक के कारण पहली मंजिल वाला मेरा कमरा मुझसे छूट गया था| मेरे पिता कपड़े के थोक व्यापारी थे और भू-तल वाली मंजिल के अगले आधे हिस्से में अपनी दुकान खोले थे और पिछले आधे हिस्से में अपना गोदाम रखे थे| पहली मंजिल पर मेरे दादा के और मेरे कमरे के अलावा बैठक थी और मंदिर था| दूसरी मंजिल पर रसोई और मेहमान कमरे| तीसरी मंजिल पर मेरी सौतेली माँ अपनी पाँच बेटियों के साथ अड्डा जमाए थीं| छूत के डर से उन्हीं ने मेरा कमरा मुझसे छुड़वा रखा था| खाना मुझे खिलावन की निगरानी में खिलाया जाता| शुरू में मैंने खिलावन से कहा भी कि वह खाना रखकर चला जाए, मैं थोड़ी देर में खा लूँगा, लेकिन खिलावन ने सिर हिला दिया, ‘हमें ऐसा हुक्म नहीं| बहूजी कहती हैं, आपके खाने के समय हमें आपके पास खड़े रहना है|’ हाँ, कितना मैं खाता या न खाता, इससे उसे कुछ लेना-देना न रहता| जैसे ही मैं उसकी ओर अपनी थाली बढ़ाता, हाथ बढ़ाकर वह थाली लेता और वापस चला जाता| पुड़िया लेकर मैं अभी बिस्तर पर लेटने ही जा रहा हूँ कि नीचे सड़क से एक हुल्लड़ मुझ तक पहुँचा है….. अपने पिता का कहा बेकहा मानकर मैं मुँडेर की ओर लपक लेता हूँ….. ‘गो बैक साइमन, गो बैक,’ ढेरों नारे हवा में गूँज रहे हैं….. जभी सड़क की दिशा से एक मेघ-गर्जन ऊपर मेरी मुँडेर पर धुँधुआता है….. अंधाधुंध मेरे गिर्द फिरकता है….. मेरी आँखों के वार पार नीर जमा करने लगता है….. मेरी चेचक के ग्यारहवें दिन के पोले उभार टीस … Read more