जन्म

अपने माता -पिता से किशोर होते बच्चों का स्वाभाविक प्रश्न होता है , ” मेरा जन्म कैसे हुआ ?” पहले माता -पिता , “परी ने दिया , भगवान् जी से माँगा था , आदि कह कर बात टाल देते थे | आज माता पिता उहापोह में रहते हैं कि बच्चे को ” जन्म के रहस्य ” के बारे में कितना और क्या बताएं ? कहानी -जन्म                      ”मम्मी!“——- ”हूँ! क्या है?“ ”सच-सच बताओ न!“——मिनी मेरे पास सरकती हुई बोली. ”क्या बताऊँ?“- मैंने पूछा. ”बोलो,सच-सच बताओगी न?“- जैसे उसे विश्वास  न हो. ”हाँ, भई हाँ! बताऊँगी. तुम पूछो तो सही!“—-मैंने उसे विश्वास  दिलाते हुए कहा. ”मम्मी…..क्या तुम?“……बोलते-बोलते रूक गई वह. ”मम्मी क्या तुम पापा से चिपकी थीं?“……उसने मेरा पल्लू खींचते हुए कहा. मैंने घूमकर देखा. क्या पूछ रही है वह और क्यों? आज उसे यह क्या सूझी? मुझे आष्चर्य हुआ. ”नहीं बताया न? मैं पहले ही जानती थी कि आप नहीं बताओगी.“ मुँह फुलाते हुए वह बोली. ”अरे नहीं बेटा! ऐसी बात नहीं है. जरूर बताऊँगी अगर बताने लायक हुआ तो!“ मैंने भयमिश्रित अंदाज में कहा. डर लगा कहीं वह भी वही सवाल न पूछे जो मैंने अपने पिताजी से पूछा था. वह जिस दौर से गुजर रही थी, मैं भी गुजरी थी किसी वक्त! मेरे अंदर भी बहुत-सी बातें थीं जो उमड़ती-घुमड़ती रहती थीं मेरे मन में. मैं साहस नहीं जुटा पाती थी कहने का! ”मम्मी, तुम ऐसे चिपकी थीं न पापा से“- वह मुझसे लिपटती हुई बोली. कोई जवाब नहीं था मेरे पास! जो सच था, वह सामने था. हाँ, ऐसे ही तो लिपटी थी मैं उनसे- मन में सोचा. अपना सिर हिलाकर स्वीकृति दी. ”और फिर मम्मी, मेरा जन्म हो गया.“…….वह तालियाँ बजाते हुए हँसकर बाहर भाग गई. तो….यह…..आज…..अड़ी है कुछ जानने के लिए…..हृदय में एक डर पैदा हुआ. वह जानना चाहती है, बाल-सुलभ उत्सुकता है जो हर लड़की के मन में उठती है और जानना चाहती है वह! कैसे जन्मी वह? इस पृथ्वी पर कैसे आई?………यह सवाल मेरे जेहन को भी कुरेदता रहा था बरसों से! तब से, जब से मैंने थोड़ा- बहुत पढ़ना शुरू किया था.लोगों की बातें कानों में पड़ीं, चुपके-चुपके बातें होती थीं, पर खुलकर कोई नहीं बताता था. कैसे बताता? क्या मैं बता पा रही हूँ?…..इतनी बड़ी हो गई हूँ मैं! दो बच्चों की माँ भी बन गई हूँ मैं…….मेरे सामने मेरी कितनी ही बहनें,सहेलियाँ,जेठानी,देवरानियाँ भी माँ बन चुकी हैं या बननेवाली हैं……मेरी बेटी भी किसी दिन……मैं सोच रही थी….आगे क्या होगा?….वही जो सबके साथ हुआ,सबने भुगता, चाहे-अनचाहे क्षणों की भीरूता ने जन्म दिया एक सवाल को या…….? मैं कुछ और सोचती कि वह फिर आ गई. ”मैं शादी  नहीं करूँगी आपकी तरह!“………… क्या? यह कोई बम है जो फटनेवाला है. मेरे मन में हलचल मच गई.मेरी बेटी कह रही थी मुझसे……और इंकार कर रही थी शादी से….!शादी  तो अभी बहुत दूर है……पहले पढ़ाई करनी है, कैरियर बनाना है,सपने बुनने हैं……. ”हाँ, मम्मी! मैं बिल्कुल शादी  नहीं करूँगी, और आप मुझसे बात भी मत करना“…… यह अल्टीमेटम था या धौंस! षायद वह पहले अपना कैरियर बनाना चाहती है, पढ़ना चाहती है. ठीक है मैं उसे रोकूँगी नहीं. ”हाँ,सही है, तू बिल्कुल मत करना, जब तक“…… मैं कहना चाह रही थी कि  ”जब तक तेरी पढ़ाई पूरी न हो जाए तब तक!.“…. ”मम्मी , आप गंदी हो! आपने पापा से शादी  क्यों की?“….मेरे गाल पर तमाचा-सा जड़ा हो जैसे उसने……… मैं गंदी हूँ! किस तरह?…..”ठहर अभी बताती हूँ तुझे!“ …मैं उसे मारने दौड़ी. ”तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई कहने की!….तुमने मुझे गंदा कहा, अपनी मम्मी को?“  मुझे कितना दुःख हुआ था यह सुनकर! मैं गंदी हूँ! किस तरह? साधारण-से लगनेवाले इस सवाल ने मुझे आहत कर दिया था. क्या मैं अपनी बेटी की नजरों में इतनी गिर गयी हूँ कि वह मुझे गंदा कह रही है ! आखिर क्यों?  मेरी साँस जोर-जोर से चलने लगी. छाती में दर्द उठा.खाँसी होने लगी. पुरानी खाँसी उखड़ आई थी. दवा लेती थी तब तक ठीक रहती थी. जहाँ दवा छोड़ी नहीं कि फिर शुरू  हो जाती. ”क्या हुआ माँ?“- मेरा छोटा बेटा भी खेल छोड़कर दौड़ता हुआ वहीं आ गया.वह खेलता रहता था खिलौनों से! उसे अपनी दीदी की तरह उत्सुकता नहीं थी…..न वह कभी ऐसे सवाल करता था. छोटा था. पाँचवीं क्लास में पढ़ रहा था और बिटिया आठवीं में थी. ”कुछ नहीं हुआ बेटा,“ खाँसती-खाँसती बोली मैं. ”जा जाकर फ्रिज में से पानी की एक ठंडी बोतल निकाल ला. प्यास लग रही है….पानी पियूँगी.“…मैंने उसे आॅर्डर दिया. ”अभी लाता हूँ“…. वह बोला. ”नहीं, ठहरो. फ्रिज में से बिल्कुल मत लाना. डाॅक्टर ने मना किया है फ्रिज का ठंडा पानी पीने से…..मटके का लाना“…नादिरशाही  फरमान था मेरी बेटी का!….जैसे वह मेरी बेटी न हुई, माँ हो गई मेरी!….. बहुत गुस्सा आया. आदत थी ठंडा पानी पीने की और अपना मर्ज बढ़ाने की! बड़ी हो गई है वह अब! कोई छोटी बच्ची नहीं रही, जिसे मैं समझाती. वह मुझे समझा रही है. मैंने अपनी बेटी की ओर देखा. हाँ, बड़ी तो हो गई है वह! जींस और टाइट टी शर्ट  में वह…..हाँ..बड़ी लग रही है. मुझे उसके लिए शमीज  लानी थी.लेकिन क्या वह अब शमीज पहनने लायक है? उसे तो मेरी तरह…….मैं सोचने लगी. ”बुरा मान गयीं क्या?…..अरे, ओ मेरी मम्मी?“- उसने मुझे झिंझोड़ा. ”नहीं. बुरा क्यों मानूँगी भला?…..तू मेरी बेटी है……. मैं तेरी बात का बुरा कैसे मान सकती हूँ? आखिर जन्म“…….मेरी बात अधूरी रह गई. ” अजीब पागल लड़की है यह! फालतू दिमाग खराब करती है मेरा…..मैंने अपने सिर को झटका. हाँ, मैं भी तो दिमाग खराब करती थी पिताजी का!…..मुझे याद आया. पूछ-पूछकर परेशान  कर देती थी मैं उन्हें!…हर बार एक ही सवाल पूछती….”पिताजी! बताओ न, कैसे जन्मी थी मैं? कैसे जन्म हुआ था मेरा?“ यह सवाल मैंने उनसे एक बार नहीं बल्कि कई बार किया था. पर उत्तर नहीं दिया था उन्होंने. हँसकर टाल जाते हर बार! कभी कहते- ”आसमान से टपकी थीं तुम.“ कभी मजाक में कहते-”घूरे से उठा लाया था मैं तुम्हें. तुम वहाँ पड़ी-पड़ी रो रही थीं.“….कभी कहते- ”बेटा, जब तुम बड़ी हो जाओगी,तुम्हारी शादी हो जाएगी, तब तुम अपने-आप समझ जाओगी.“ वे प्यार से मेरे गाल पर थपकी देते, … Read more

चम्पा का मोबाइल

आज हर आम और खास के हाथ में मोबाइल जरूर होता है , परन्तु चंपा के मोबाइल में कुछ तो खास है जो पहले तो जिज्ञासा उत्पन्न करता है फिर संवेदना के दूसरे आयाम तक ले जाता है | आइये पढ़े आदरणीया दीपक शर्मा जी की  भावना प्रधान कहानी  कहानी –चम्पा का मोबाइल “एवज़ी ले आयी हूँ, आंटी जी,” चम्पा को हमारे घर पर हमारी काम वाली, कमला, लायी थी |गर्भावस्था के अपने उस चरण पर कमला के लिए झाड़ू-पोंछा सम्भालना मुश्किल हो रहा था| चम्पा का चेहरा मेक-अप से एकदम खाली था और अनचाही हताशा व व्यग्रता लिए था| उस की उम्र उन्नीस और बीस के बीच थी और काया एकदम दुबली-पतली| मैं हतोत्साहित हुई| सत्तर वर्ष की अपनी इस उम्र में मुझे फ़ुरतीली, मेहनती व उत्साही काम वाली की ज़रुरत थी न कि ऐसी मरियल व बुझी हुई लड़की की! “तुम्हारा काम सम्भाल लेगी?” मैं ने अपनी शंका प्रकट की| “बिल्कुल, आंटी जी| खूब सम्भालेगी| आप परेशान न हों| सब निपटा लेगी| बड़ी होशियार है यह| सास-ससुर ने इसे घर नहीं पकड़ने दिए तो इस ने अपनी ही कोठरी में मुर्गियों और अंडों का धन्धा शुरू कर दिया| बताती है, उधर इस की माँ भी मुर्गियाँ पाले भी थी और अन्डे बेचती थी| उन्हें देखना-जोखना, खिलावना-सेना…..” “मगर तुम जानती हो, इधर तो काम दूसरा है और ज़्यादा भी है, मैं ने दोबारा आश्वस्त होना चाहा, “झाड़-बुहार व प्रचारने-पोंछने के काम मैं किस मुस्तैदी और सफ़ाई से चाहती हूँ, यह भी तुम जानती ही हो…..” “जी, आंटी जी, आप परेशान न हों| यह सब लार लेगी…..” “परिवार को भी जानती हो?” “जानेंगी कैसे नहीं, आंटी जी? पुराना पड़ोस है| पूरे परिवार को जाने समझे हैं| ससुर रिक्शा चलाता है| सास हमारी तरह तमामघरों में अपने काम पकड़े हैं| बड़ी तीन ननदें ब्याही हैं| उधर ससुराल में रह-गुज़र करती हैं और छोटी दो ननदें स्कूल में पढ़ रही हैं| एक तो हमारी ही बड़ी बिटिया के साथ चौथी में पढ़ती है…..” “और पति?” मैं अधीर हो उठी| पति का काम-धन्धा तो बल्कि उसे पहले बताना चाहिए था| “बेचारा मूढ़ है| मंदबुद्धि| वह घर पर ही रहता है| कुछ नहीं जानता-समझता| बचपन ही से ऐसा है| बाहर काम क्या पकड़ेगा? है भी इकल्ला उनपांच बहनों में…..” “तुम घरेलू काम किए हो?” इस बार मैं ने अपना प्रश्न चम्पा की दिशा में सीधा दाग दिया| “जी, उधर मायके में माँ के लगे कामों में उस का हाथ बँटाया करती थी…..” “आज मैं इसे सब दिखला-समझा दूँगी, आंटीजी| आप परेशान न  हों…..” अगले दिन चम्पा अकेली आयी| उस समय मैं और मेरे पति अपने एक मित्र-दम्पत्ति के साथ हॉल में बैठे थे| “आजतुम आँगन से सफ़ाई शुरू करो,” मैं ने उसे दूसरी दिशा में भेज दिया| कुछ समय बाद जब मैं उसे देखने गयी तो वह मुझे आँगन में बैठी मिली| एक हाथ में उस ने झाड़ू थाम रखा था और दूसरे में मोबाइल| और बोले जा रही थी| तेज़ गति से मगर मन्द स्वर में| फुसफुसाहटों में| उस की खुसुर-पुसुर की मुझ तक केवल मरमराहट ही पहुँची| शब्द नहीं| मगर उस का भाव पकड़ने में मुझे समय न लगा| उस मरमराहट में मनस्पात भी था और रौद्र भी| विघ्न डालना मैं ने ठीक नहीं समझा और चुपचाप हॉल में लौट ली| आगामी दिनों में भी मैं ने पाया जिस किसी कमरे या घर के कोने में वह एकान्त पाती वह अपना एक हाथ अपने मोबाइल के हवाले कर देती| और बारी बारी से उसे अपने कान और होठों के साथ जा जोड़ती| अपना स्वर चढ़ाती-गिराती हुई| कान पर कम| होठों पर ज़्यादा| “तुम इतनी बात किस से करती हो?” एक दिन मुझ से रहा न गया और मैं उस से पूछ ही बैठी| “अपनी माँ से…..” “पिता से नहीं? मैं ने सदाशयता दिखलायी| उस का काम बहुत अच्छा था और अब मैं उसे पसंद करने लगी थी| कमला से भी ज़्यादा| कमला अपना ध्यान जहाँ फ़र्श व कुर्सियों-मेज़ों पर केन्द्रित रखती थी, चम्पा दरवाज़ों व खिड़कियों के साथ साथ उन में लगे शीशों को भी खूब चमका दिया करती| रोज़-ब-रोज़| शायद वह ज़्यादा से ज़्यादा समय अपने उस घर-बार से दूर भी बिताना चाहती थी| “नहीं,” वह रोआँसी हो चली| “क्यों?” मैं मुस्कुरायी, “पिता से क्यों नहीं?” “नहींकरती…..” “वह क्या करते हैं?” “वह अपाहिज हैं| भाड़े पर टैम्पो चलाते थे| एक टक्कर में ऐसी चोट खाए कि टांग कटवानी पड़ी| अब अपनी गुमटी ही में छोटे मोटे सामान की दुकान लगा लिए हैं…..” “तुम्हारी शादी इस मन्दबुद्धि से क्यों की?” “कहीं और करते तो साधन चाहिए होते| इधर खरचा कुछ नहीं पड़ा…..” “यह मोबाइल किस से लिया?” “माँ का है…..” “मुझे इस का नम्बर आज देती जाना| कभी ज़रुरत पड़े तो तुम्हें इधर बुला सकती हूँ…..” घरेलू नौकर पास न होने के कारण जब कभी हमारे घर पर अतिथि बिना बताए आ जाया करते हैं तो मैं अपनी काम वाली ही को अपनी सहायता के लिए बुला लिया करती हूँ| चाय-नाश्तातैयार करने-करवाने के लिए| “इसमोबाइल की रिंग, खराब है| बजेगी नहीं| आप लगाएंगी तो मैं जान नहीं पाऊँगी…..” मैंने फिर ज़िद नहीं की| नहींकहा, कम-से -कम मेरा नम्बर तो तुम्हारी स्क्रीन पर आ ही जाएगा| वैसे भी कमला को तो मेरे पास लौटना ही था| मुझे उसकी ऐसी ख़ास ज़रुरत भी नहीं रहनी थी| अपनी सेवा-काल का बाकी समय भी चम्पा ने अपनी उसी प्रक्रिया में बिताया| एकान्त पाते ही वह अपने मोबाइल के संग अपनी खड़खड़ाहट शुरू कर देती- कभी बाहर वाले नल के पास, कभी आँगन में, कभी दरवाज़े के पीछे, कभी सीढ़ियों पर| अविरल वह बोलती जाती मानो कोई कमेन्टरी दे रही हो| मुझ से बात करने में उसे तनिक दिलचस्पी न थी| मैं कुछ भी पूछती, वह अपने उत्तर हमेशा संक्षिप्त से संक्षिप्त रखा करती| चाय-नाश्ते को भी मना कर देती| उसे बस एक ही लोभ रहता : अपने मोबाइल पर लौटने का| वह उसका आखिरी दिन था| उसका हिसाब चुकता करते समय मैं ने उसे अपना एक दूसरा मोबाइल देना चाहा, “यह तुम्हारे लिए है…..” मोबाइल अच्छी हालत में था| अभी तीन महीने पहले तक मैं उसे अपने प्रयोग में लाती रही थी| जब मेरे बेटे ने मेरे हाथ में एक स्मार्टफ़ोन ला थमाया था, तुम्हारे … Read more

सिम्मों -(भाग -1)

बचपन में जब मैंने फिल्म “हाथी मेरे साथी “देखी थी तो मुझे इंसान और जानवर का ये प्यार भरा रिश्ता बहुत भाया  था | पर ऐसा रिश्ता सिल्वर स्क्रीन से निकल कर मुझे साक्षात देखने को मिलेगा , इसका मुझे आभास नहीं था |  सिम्मों , यूँ तो एक गाय थी ,एक मूक पशु , पर उसका और अम्माँ जी का एक अटूट बंधन  बन गया था ,वो रिश्ता जीवन पर्यंत चला | सिम्मों -(भाग -1)                                                   फोटो क्रेडिट -विकिमीडिया कॉमन्स  एक समय था जब मुझे हर जानवर जैसे  कुत्ता , बिल्ली , बकरी , यहाँ तक की गाय से भी डर लगता था | पर सिम्मों को घर लाने का सुझाव मैंने ही दिया था | मैंने निरोगधाम में देसी नस्ल की श्यामा गाय के दूध के गुणों के बारे में पढ़ा था , बस गाय  शुद्ध चारा खाती हो , कूड़ा  न खाती हो … मुझे लगा छोटी दीदी की बिमारी के इलाज के लिए शायद घर में ही एक गाय पाल लेनी चाहिए |  अम्माँ  जी को मेरा प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा | पहले भी उन्होंने कई बार  गाय पाली हुई थीं , मोह बढ़ जाता इसलिए पालना छोड़ दिया था | परन्तु मेरे प्रस्ताव  से एक बार फिर से उनकी “ पुनीत प्रीत” जाग उठी | अम्माँ  जी का आदेश था की बछिया लायी जाए ताकि उसे   शुरू से पाले | आस –पास के गाँवों में खबर भिजवाई गयी | बड़ी बुआ सास के गाँव पडरी  से जैसी चाहते थे वैसे बछिया मिल भी गयी | घर में उसके स्वागत की तैयारियाँ  होने लगीं | पक्के आँगन पर जिसपर  संगमरमर के टाइल्स लगे थे , इंटें बिछाई जाने लगी , जिससे उसको खड़े होने में दिक्कत न हो | उसकी देखभाल के लिए गाँव का एक रिश्तेदार भी बुला लिया गया , गोबर ले जाने वाली से बात तय हो गयी | पडरी से जब बुआ सास और चच्चू  उसे ले कर आये |  उसके आते ही अम्माँ जी  ने बड़े प्यार से उसका नामकरण भी कर दिया .. “सिम्मो” | यहाँ से ही शुरू हुई एक नयी प्रेम कथा “ सिम्मों और अम्मा जी ”  की | छोटी सी सिम्मो मुझे भी बड़ी प्यारी लगी थी , पर उससे ज्यादा भेंट मेरी नहीं हो पायी क्योंकि अगले ही दिन हमें रांची के लिए निकलना था | इस बीच फोन पर सिम्मो के हालचाल मिलते रहे | अम्माँ जी की बातों का केंद्र सिम्मों ही रहती | कैसे खाती है , कैसे सानी होती हैं , भूसा , चने का आटा कहाँ से मंगाते हैं आदि –आदि |  जब हमारा वापस घर आना हुआ तब तक सिम्मों बड़ी हो चुकी थी | हम लोग उसे अपरिचित लगे , उसने थोडा सींग दिखाने  की कोशिश करी पर अम्माँ  जी के साथ हिलमिल कर बात करते देख वो आश्वस्त हो गयी | पतिदेव तो उससे तुरंत हिल मिल गए पर मुझे उसके बड़े –बड़े सींगों से थोडा सा डर लगा | अम्मां  जी उसकी पीठ –पर हाथ फेर कर उसे समझाती  रहीं , “ सिम्मो , देखो भाभी आई हैं , इनके हाथ से अच्छे से खा लेना , परेशांन  न करना | पता नहीं क्यों मुझे लगा शायद सिम्मों ने उनकी बात सुनकर ‘ हाँ’ में सर हिलाया है | क्या बेजुबान प्राणी भाषा समझते हैं , सोचते हुए मैं अपने कमरे में आ गयी | असली मुसीबत  दूसरे दिन शुरू हुई , जब अम्माँ जी  ने आदेश दिया कि घी , गुड लगा कर सिम्मों को पहली रोटी अपने हाथ से तुम खिलाओगी , घर की बहु  खिलाती है तो बरकत होती है | ध्यान रहे जमीन पर मत रखना , अपने हाथ से खिलाना |  मैंने हाँ में सर हिला दिया पर मुझे अगली सुबह के लिए घबराहट होने लगी | मायके में माँ तो गाय को अपने हाथ  से खिलाती थीं पर मैंने ये काम अभी तक किया ही नहीं था | जब भी माँ ने कहा तो मैंने  आप खिलाइए मैं आप का हाथ पकड़ लेती हूँ , कह कर खुद से खिलाने की कभी कोशिश नहीं की | पर ये ससुराल थी , परीक्षा की घडी थी , यहाँ तो ये नहीं कह सकती थी कि आप खिलाइए मैं आप की कलाई पकड लेती हूँ  | राम –राम करते हुए मैं सुबह रोटी ले कर सिम्मों के पास पहुंची तो उसके बड़े –बड़े सींग देख कर मैं डर गयी | अम्माँ   जी वहीँ खड़ी थीं, मैंने सिम्मों को रोटी खिलाने के लिए हाथ आगे बढाया सिम्मों ने झट से पूरा मुंह खोल दिया …. मुझे लगा ये मेरा हाथ खा  डालेगी , डर  के मारे रोटी हाथ से छूट कर जमीन पर गिर गयी | अम्माँ  जी ने हल्के गुस्से से मेरी तरफ देखा पर कहा कुछ नहीं , देवर को बुला कर कहा , “ तुम खिला दो , कल से हमारी सिम्मो जमीन पर गिरी रोटी नहीं खाएगी , बिना मुँह की है तो क्या उसकी कोई इज्ज़त नहीं है ‘| मुझे पता था ये डांट मेरे लिए है पर शायद कल मुझे न खिलाना पड़े ये सोच कर मुझे थोड़ी तसल्ली थी |  गाय का गोबर साफ़ करने के लिए जो गाँव के रिश्तेदार रहते थे वो  देवर लगते था , उनसे  गाय की सानी कैसे करते हैं , मैं सीखने लगी | अम्माँ  जी को ये देखकर ख़ुशी हुई | उन्होंने प्यार से मुझे अपने पास बुलाया , “ देखो अपनी सिम्मों की छवि कितनी न्यारी  है , आस – पड़ोस के लोग तारीफ करते हैं इसकी बनक की , आँखे कितनी सुंदर गढ़ी हैं भगवान् ने | गाय को  इस नज़र से मैंने पहले कभी देखा नहीं था पर अम्मां  के कहने पर ध्यान दिया … वाकई बहुत सुंदर आँखे थी सिम्मों की … बोलती हुई सी | अगले दिन मैं सुबह जल्दी उठ कर रोटी बना कर सिम्मों के लिए ले गयी ताकि अम्माँ जी खुश हो जाए , पर फिर वही ढ़ाक के तीन पात , जैसे ही उसने मुँह खोला मैं घबरा … Read more

दो जून की रोटी

एक इंसान के जीने के लिए पहली आवश्यकता क्या है .. बस “दो जून रोटी ” उसका सारा संघर्ष इसी के इर्द गिर्द बिखरा पड़ा है | हृदयस्पर्शी कहानी … दो जून की रोटी   बुआ जी के घर पर, सत्यनारायण कब आया, मुझे पता नहीं. जबसे होश संभाला, उसे बुआ जी के घर के पीछे, भंडरिया में रहते हुए पाया. वह ईंट, गारा उठाने की मजदूरी करता. सुबह और शाम को बुआ जी के काम में थोड़ा-बहुत हाथ बंटा देता. उनकी हाट-बाजार कर देता. बुआ जी को माँ के पास कोई खबर भेजनी होती तो वही लेकर आता. गोल चेहरा, घुटा हुआ सर, धोती और कुरते पर अंगोछा डाले हुए; पैरों में सस्ते स्लीपर- यही उसका हुलिया था. जाड़ों में कुरते के ऊपर, सदरी चढ़ जाती. अंदर के कपड़े वह ऐसे पहनता, जिससे उसका शरीर गदबदा लगता. उसे कपड़े लादे रहने का शौक था. फूफा पंडिताई करते थे. उससे उन्हें जो कुछ भी मिलता, उसी से बुआ घर का सारा खर्च चलातीं. वह बड़ी संतोषी जीव थीं. उन्होंने अपने मायके वालों से, यानी हमारे घरवालों से, अपनी किसी तकलीफ की, कभी भी, कोई शिकायत नहीं की. किन्तु हमें मालूम था कि बुआ किस कठिनाई से भैया को पढ़ा रही हैं. सत्यनारायण जब भी हमारे घर आता , मेरी दोनों बड़ी बहनें, उसे किसी न किसी बहाने से चिढ़ातीं. कभी कहतीं, “सत्यनारायण, तूने इतने कपड़े क्यों पहन रखे हैं? तुझे गर्मी नहीं लगती?! नहाता नहीं है क्या??” वह हंसकर कहता, “अभी काम से आ रहा हूँ न इसलिए. माँ जी ने तुरंत ही मुझे यहाँ भेज दिया, कपड़े बदल ही नहीं पाया”  कभी उसे वक्र दृष्टि से देखती हुई, गोल-गोल आँखें नचाकर बोलतीं, “सत्यनारायण जरा इधर तो आ.” फिर धीरे से आवाज को रहस्यमय बनाकर कहतीं,“देख सत्यनारायण, वह लाइनपार वाले वैद्य जी हैं न, त्रिभुवन शास्त्री जी; तू उनके पास चला जा, वह बहुत बढ़िया दवा देते हैं. उनके इलाज से तेरे दाढ़ी-मूंछें निकल आयेंगी. शरीर में कोई कमी हो, तभी ऐसा होता है.” और वह फिक्क से हंस देता. कुछ दिनों से सत्यनारायण का भतीजा परमानन्द भी गाँव से आ गया था. वह उसी के साथ रहकर, मजूरी करने लगा था. समय यूँ ही सरक रहा था. देखते ही देखते भैया ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और उनका पी. सी. एस. में चयन हो गया. इसके साथ ही बुआ का सारा दलिद्दर(दरिद्रता) भी दूर हो गया. उन्होंने बड़े उत्साह से भैया की शादी तय कर दी. शादी का सारा काम फूफा और बुआ के साथ ही सत्यनारायण पर आ पड़ा. वह बहुत प्रसन्न था. दौड़- दौड़कर सारा काम निपटा रहा था. घर में शादी की चहल- पहल थी. अचानक ही सत्यनारायण और परमानन्द की तेज आवाजें पड़ीं. वह लड़ते हुए, एक दूसरे को धकियाते हुए भंडरिया से बाहर आ रहे थे. परमानन्द कह रहा था, “ठहर जनानी, अभी तेरी पोल-पट्टी खोलता हूँ. तू सारी दुनियां की आँखों में धूल झोंक सकती है, लेकिन मुझे तो तेरी असलियत मालूम है…तू मुझसे पंगा लेने चली है! अगर तुझे दूध की मक्खी की तरह, न निकलवा फेंका तो मेरा नाम भी परमानन्द नहीं. तू अपने आप को समझती क्या है?!” और सत्यनारायन रोते हुए कह रहा था, “जब ससुराल वालों ने घर से निकाला था, तब तेरे ही माँ-बाप के दरवाजे गयी थी, यह सोचकर कि माता- पिता नहीं तो क्या, भाई- भौजाई तो हैं; लेकिन तेरी माँ ने बाहर से ही भगा दिया था कि कहीं दो जून की रोटी न देनी पड़ जाए. पर तुझे तो मैंने अपने साथ रखा, खिलाया-पिलाया. उसका यह बदला दिया है तूने! आखिर है तो उन्हीं माँ- बाप की औलाद…सांप का संपोला!!” चारों ओर भीड़ इकट्ठा हो गई थी. सारे नाते-रिश्तेदार, नौकर-चाकर आकर जमा हो गये थे. तभी भीड़ में से एक आवाज आई, “राम-राम, पंडित जी ने औरत रख छोड़ी है. क्या इतने दिनों से इन्हें मालूम नहीं कि यह औरत है?!” बुआ गरजीं, “ तुम क्या जानते हो? मुझे मालूम नहीं कि यह औरत है?? लेकिन मैंने उसे कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि मुझे उसकी सच्चाई मालूम है…मुझे पता है, एक बिना पढ़ी-लिखी अकेली औरत का घर से बाहर निकलकर रोजी-रोटी कमाना, कितना कठिन और जीवट का काम है! अगर वह चार रोटी, अपनी मेहनत से कमाकर खा रही है तो तुम्हारे पेट में मरोड़ें क्यों उठती हैं?! रही पंडित जी की बात, तो उनकी चिन्ता करने की तुम लोगों को जरूरत नहीं. उसके लिए मैं ही काफी हूँ. तुम सब चरित्र की क्या बातें करते हो? मुझे मालूम नहीं कि कौन कैसा है?  बताओ तो सही, इसने किसके साथ बेहयाई की है? किसी एक का भी नाम बता दो, जिसके साथ मुंह काला किया हो….किसी का शांति से जीना भी तुम लोगों से देखा नहीं जाता, यदि वह इंसान औरत हो तब तो और भी नहीं! और तुम परमानंद…!! अभी अपना सामान उठाओ और यहाँ से चलते बनो. अब कभी अपना मुंह मत दिखाना” फिर घूमकर सत्यनारायण से बोलीं, “ अब जबकि तेरी हकीकत खुल ही गयी है, तुझे केवल दो जून की रोटी के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है. घर में बहुतेरा अन्न है. तू तो जानती है, बाहर कितने बहेलिये, जाल बिछाए बैठे हैं!!” फिर बोलीं, “जाकर देख, हलवाई को किसी सामान की जरूरत है या नहीं?” सभी की निगाहें झुकी हुई थीं. धीरे- धीरे सब लोग तितर-बितर होकर, अपने कामों में व्यस्त हो गये…और बुआ तो इस तरह काम में लगीं, मानों कुछ हुआ ही न हो!!! –    उषा अवस्थी लेखिका का परिचय  नाम – उषा अवस्थी शिक्षा – एम .ए. मनोविज्ञान              अतिरिक्त योग्यता – १- संगीत प्रभाकर (सितार)                                 (अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय)                                २ – संगीत विशारद (सितार)          (प्रयाग समिति, इलाहाबाद)               कार्य अनुभव – सरस्वती बालिका विद्यालय, कानपुर में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य                विशेष –१- आकाशवाणी लखनऊ द्वारा समय- समय पर (गृहलक्ष्मी कार्यक्रम में)  कविताओं का प्रसारण (२१ अप्रैल २०१७ और १३ अक्तूबर २०१७ ) २         – राष्ट्रीय पुस्तक मेले ( ११ से २० अगस्त २०१७) में कवियित्री सम्मेलन की अध्यक्षता ३         – दयानंद गर्ल्स कॉलेज, कानपुर के द्वारा वर्ष १९६१- ६२ में सर्टिफिकेट ऑफ़ ऑनर ४ – डी. ए. वी. कॉलेज, कानपुर में आयोजित पांचवे इंटर … Read more

हत्यारे

हत्यारे -अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी ‘ द किलर्स ‘ का हिंदी में अनुवाद  ) ‘ हेनरी भोजनालय ‘ का दरवाज़ा खुला और दो व्यक्ति भीतर आए । वे एक मेज़ के साथ लगी कुर्सियों पर बैठ गए ।  ” आप क्या लेंगे ? ” जॉर्ज ने उनसे पूछा ।  ” पता नहीं ,” उनमें से एक ने कहा । ” अल , तुम क्या लेना चाहोगे ? “  ” पता नहीं , ” अल ने कहा । ” मैं नहीं जानता , मैं क्या लूँगा । “                बाहर अँधेरा होने लगा था । खिड़की के उस पार सड़क की बत्तियाँ जल गई थीं । भीतर बैठे दोनों व्यक्तियों ने मेनू-कार्ड पढ़ा । हॉल के दूसरी ओर से निक ऐडम्स उन्हें देख रहा था । जब वे दोनों भीतर आए , उस समय वह जॉर्ज से बातें कर रहा था ।                ” मैं सूअर का मुलायम भुना हुआ गोश्त , सेब की चटनी और आलू का भर्ता लूँगा , ” पहले आदमी ने कहा ।               ” यह सब अभी तैयार नहीं है । “                ” तो फिर तुमने इसे मेनू-कार्ड में क्यों लिख रखा है ? “               ” यह रात का खाना है , ” जॉर्ज ने बताया । ” यह सब आपको छह बजे के बाद मिलेगा । “                जॉर्ज ने पीछे लगी दीवार-घड़ी की ओर देखा ।                ” अभी पाँच बजे हैं । “                ” लेकिन घड़ी में तो पाँच बज कर बीस मिनट हो रहे हैं , ” दूसरे आदमी ने कहा ।                ” घड़ी बीस मिनट आगे चल रही है । “                ” भाड़ में जाए तुम्हारी घड़ी , ” पहला आदमी बोला । ” खाने के लिए क्या मिलेगा ? “                ” मैं आप को किसी भी तरह का सैंडविच दे सकता हूँ , ” जॉर्ज ने कहा । ” मैं आप को सूअर का सूखा मांस और अंडे , या सूअर का नमकीन मांस और अंडे , या फिर टिक्का दे सकता हूँ । “                ” तुम मुझे मुर्ग़ का मांस , भुनी हुई मटर , क्रीम की सॉस और आलू का भर्ता दो । “                ” यह सब रात का खाना है । “                ” हमें जो भी चीज़ चाहिए , वह रात का ख़ाना हो जाता है ? तो ऐसी बात है ! “                ” मैं आप को सूअर का सूखा मांस और अंडे , सूअर का नमकीन मांस और अंडे , कलेजी — “                ” मैं सूअर का सूखा मांस और अंडे लूँगा , ” अल नाम के आदमी ने कहा । उसने एक टोपी और लम्बा कोट पहना हुआ था जिसके बटन उसकी छाती पर लगे हुए थे । उसका चेहरा छोटा और सफ़ेद था और उसके होंठ सख़्त थे । उसने रेशमी मफ़लर और दस्ताने पहन रखे थे ।               ” मेरे लिए सूअर का नमकीन मांस और अंडे ले आओ , ” दूसरे आदमी ने कहा । क़द में वह भी अल जितना ही था। हालाँकि उनके चेहरे-मोहरे अलग थे पर दोनों ने एक जैसे कपड़े पहन रखे थे , जैसे वे जुड़वाँ भाई हों । दोनों ने बेहद चुस्त ओवरकोट पहना हुआ था और दोनों मेज़ पर अपनी कोहनियाँ टिकाए , आगे की ओर झुककर बैठे हुए थे ।               ” पीने के लिए क्या है ? ” अल ने पूछा ।               ” कई तरह की बीयर है , ” जॉर्ज ने कहा ।               ” मैं वाक़ई ‘ पीने ‘ के लिए कुछ माँग रहा हूँ । “               ” जो मैंने कहा , वही है । “               ” यह बड़ा गरम शहर है , ” दूसरा आदमी बोला । ” इस शहर का नाम क्या है ? “               ” सम्मिट ।”               ” क्या कभी यह नाम सुना है ? ” अल ने अपने साथी से पूछा ।               ” कभी नहीं । “               ” यहाँ रात में तुम लोग क्या करते हो ? ” अल ने पूछा ।               ” वे यहाँ आ कर रात का खाना खाते हैं , ” उसके साथी ने कहा । ” वे सब यहाँ आ कर धूम-धाम से रात का खाना खाते हैं ! “               ” हाँ , आपने ठीक कहा । ” जॉर्ज बोला ।              ” तो तुम्हें लगता है कि यह ठीक है ? ” अल ने जार्ज से पूछा ।               ” बेशक । “               ” तुम तो बेहद अक़्लमंद लड़के हो , नहीं ? “               ” बिल्कुल , ” जॉर्ज ने कहा ।              ” लेकिन तुम अक्लमंद नहीं हो , समझे ? ” छोटे क़द के दूसरे आदमी ने कहा । ” तम क्या कहते हो अल ? “               ” यह बेवक़ूफ़ है , ” अल बोला । फिर वह निक की ओर मुड़ा । ” तुम्हारा नाम क्या है ? “               ” ऐडम्स । “               ” एक और अक़्लमंद लड़का , ” अल बोला । ” क्या यह अक़्लमंद नहीं है , मैक्स ? “               ” यह पूरा शहर ही अक़्लमंदों से भरा हुआ है , ” मैक्स ने कहा ।       … Read more

डर -science fiction

                                                      दिनकर की टाइम-मशीन 2140 में आ पहुँची थी । वहाँ वह धरती की बर्बादी के भयावह दृश्य देखकर सन्न रह गया । चारों ओर ढह चुके भवनों के अवशेष थे । ध्वस्त शहरों का मलबा था । दूर-दूर तक एक भी साबुत बची इमारत या पेड़-पौधा नज़र नहीं आ रहा रहा था । कहीं-कहीं ज़मीन जल कर काली पड़ गई थी । जगह-जगह चिपके हुए धातु के गले हुए टुकड़े अतीत में घट चुके किसी महा-विनाश का संकेत दे रहे थे । बाक़ी जगहें बर्फ़ से ढँकी हुई थीं ।   डर -science fiction                 दिनकर ने टाइम-मशीन में लगे सुपर-कम्प्यूटर से इसकी वजह पूछी । सुपर-कम्प्यूटर ने बताया कि कई दशक पहले 2080 में तृतीय विश्व-युद्ध हुआ था जिसमें सारी मानवता नष्ट हो गई थी । पश्चिमी दुनिया के अमेरिका और यूरोपीय देश एक ओर थे जबकि चीन और उत्तर कोरिया का गठबंधन दूसरी ओर था । दोनों ओर से घातक परमाणु-अस्त्रों और प्रक्षेपास्त्रों का प्रयोग किया गया था , जिसकी वजह से धरती पर मौजूद पशु-पक्षी , पेड़-पौधे , मनुष्य और इमारतें आदि सब नष्ट हो गई थीं । इस त्रासद युद्ध के बाद धरती पर लगभग तीस वर्षों तक ‘ न्यूक्लिअर विंटर ‘ या ‘ परमाणु सर्दी ‘ छाई रही । इसने धरती पर से बचे हुए जीव-जंतुओं का नामो-निशान भी मिटा दिया — सुपर-कम्प्यूटर के स्क्रीन पर उपलब्ध यह जानकारी पा कर दिनकर स्तब्ध रह गया । वह अपने टाइम-मशीन की मदद से तृतीय विश्व-युद्ध के बाद के छठे दशक की बंजर , बियाबान और उजड़ी धरती पर पहुँच गया था ।  फेसबुक की दोस्ती                  पहले तो दिनकर अपना सिर पकड़ कर बैठ गया । वह 2040 के अपने काल से अपने टाइम-मशीन में बैठ कर भविष्य की सैर के लिए निकला था । उसने सोचा था कि वह भविष्य में सौ साल आगे जा कर मनुष्यता की प्रगति को देखेगा । कितनी उम्मीद ले कर वह 2140 के काल में पहुँचा था । किंतु अब इस नष्ट दुनिया को देखकर उसका मन किया कि वह विलाप करे ।                   किसी तरह दिनकर ने खुद को सँभाला । फिर उसके दिमाग़ में कुछ विचार आने लगे । उस के पास अभी भी उसकी प्रिय टाइम-मशीन मौजूद थी । क्यों न मैं तृतीय विश्व-युद्ध से एक साल पहले , यानी 2079 में जा कर इस युद्ध को रोकने का प्रयास करूँ — उसने सोचा । इसमें ख़तरा तो बहुत होगा , पर यदि मैं किसी तरह इस कार्य में सफल हो गया , तो शायद मेरी धरती भविष्य में बची रह जाएगी । उसने तत्काल टाइम-मशीन के बटनों को 2079 की तिथि में लगा दिया । उसके हरा बटन दबाने पर वह और उसकी टाइम-मशीन पलक झपकते ही 2079 में प्रक्षेपित हो गई …                 वह शाम का समय था जब परछाइयाँ लम्बी हो रही थीं । दिनकर की टाइम-मशीन वापस उसके घर के बड़े-से आँगन में उसके अपने समय 2040 में प्रकट हो गई । वह बेहद थका और घबराया हुआ लग रहा था । घर के भीतर से बाहर आँगन में आते हुए उसकी पत्नी ने कहा , ” अरे , आप वापस आ गए ! शुक्र है भगवान का । मुझे तो फ़िक्र हो रही थी । देखिए , यह टाइम-मशीन एक दिन आपको हम सब से दूर कर देगी । । मैं कह देती हूँ — मुझे ग़ुस्सा आ गया तो एक दिन मैं आपकी इस मुई टाइम-मशीन को आग लगा दूँगी । आइ विल डेस्ट्रॉय इट वन डे , हाँ ! ”                    ” अरे जान , क्यों कोस रही हो इस टाइम-मशीन को । इसी की वजह से आज मैं भविष्य की अपनी दुनिया बचा कर लौटा हूँ । ” दिनकर ने सफ़ाई दी ।                    ” ऐसा क्या गुल खिला दिया आपने , ज़रा मैं भी तो सुनूँ ! ” पत्नी बड़े धाँसू अंदाज़ में बोली ।                    ” कुछ ख़ास नहीं जान । जब मैं 2140 में पहुँचा तो मुझे पता चला कि 2080 में हुए तृतीय विश्व-युद्ध में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की वजह से हमारी धरती पर से सारा जीवन नष्ट हो गया था । इसलिए मुझे 2079 में जा कर 2080 में होने वाले विनाशकारी युद्ध को रोकना पड़ा । ” दिनकर बोला ।                    ” आपने युद्ध को कैसे रोका ? ” पत्नी ने उत्सुकता से पूछा ।                    ” देखो , यह बात अपने तक ही रखना । मैंने 2079 में जा कर 2080 में होने वाले युद्ध को रोकने के लिए एक गुप्त योजना बनाई । उस योजना के तहत मैंने उस समय मौजूद अमेरिका के शासक और चीन और उत्तर कोरिया के तानाशाहों को मरवा दिया । यह मत पूछना कि यह सब मैंने कैसे किया । यह एक लम्बी कहानी है जो फिर कभी सुनाऊँगा । तीनों शासकों की हत्या होते ही उन देशों में नए शासक आ गए और तृतीय विश्व-युद्ध टल गया । ”                    ” पर आप इतने घबराए हुए क्यों लग रहे हैं ? आपने तो धरती को बचाने के लिए भलाई का काम किया । और अब आप वापस अपने समय 2040 में हम सब के पास सुरक्षित लौट आए हैं । ” पत्नी ने पूछा ।                   अपने माथे पर से पसीना पोंछते हुए दिनकर बोला — ” जान , 2079 के शासकों के पास भी तो टाइम-मशीन होगी । मैं भविष्य के समय का एक फ़रार मुजरिम हूँ । यदि उस समय की सुरक्षा-एजेंसियाँ टाइम-मशीन की मदद से मुझे ढूँढ़ते हुए मेरे युग 2040 में … Read more

गुनाहो का हिसाब

कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु लोक में इंसान अपने गुनाहों को भोगने आता है | कुछ के अनुसार हम हम पिछले जन्म के कर्मों को भोगते हैं व् कुछ के अनुसार इसी जन्म में हो जाता है गुनाहों का हिसाब | सवाल ये है कि क्या मृत्यु से पहले व्यक्ति खुद लगाता है अपने ….गुनाहों का हिसाब कहानी – गुनाहों का हिसाब गोरी गोरी देह थी उसकी,, हरदम मुस्कुराता चेहरा,, आफिस जाते समय भी वो बडा बनसंवर कर निकलता। कई बार आदमकद शीशे के आगे अपनी जुल्फे संवारता। गीत संगीत मे भी रूचि लेता। लेकिन पेट का रोगी बना रहा। आफिस पार्टी मे चाहकर भी कुछ ना खा पाता इस बात का उसे बेहद अफसोस रहता। भरा पूरा परिवार था। एक बेटा एक बेटी। यूं तो परिवार संयुक्त था। पर जल्दी ही सबकुछ बदल गया था। सरकारी नौकरी मे तबादला भी दोबार हुआ पर वो गया नही। तरक्की चाहकर भी ना ले पाया था। पर फिर भी सेलरी तो बढती ही जा रही थी। तरक्की ना होने का दुख भी वो भीतर पाले था। पर अपने बीबी बच्चो को एक दिन भी अपने से जुदा नही किया था। मीटिग हो या अन्य काम वो देर रात अवश्य लौट आता। समय अपनी गति से बढ रहा था। शरीर मे कही सुकून का आभाव था। नींद ना आने के चक्कर मे वो अब एलैपैक्स नीद की गोली लेने लगा था। लगातार दवा ने अब असर कम कर दिया था। जीवन की साध्यवेला मे अब और बिमारियो ने भी घर कर लिया था एक दिन छत से नीचे उतरते समय पैर फिसलने से चार माह तक बिस्तर पर पडा रहा। ढीक होने के बाद भी वो डरा डरा सा रहने लगा था। कही भी अकेले ना निकलता। समाज से कट गया था बिल्कुल। उधर पत्नी भी बीमार रहने लगी थी। आखिर बुढापा का असर दोनो पर हो रहा था। बेटी अपने ससुराल वाली हो गयी थी। उसकी अपनी दुनिया थी। दूर भी रहती थी। बेटा अपने काम मे मग्न था। घर मे अकेले रहते रहते वो परेशान हो गये थे। समाज से कटने के कारण वो दोनो कैदी से बन कर घर के भीतर चुपचाप पड़े रहते। सब सुविधाएं होते हुऐ भी वो अकेले थे। धीर धीरे बूढे का मानसिक संतुलन बिगडने लगा था। अच्छे डाक्टरो को भी दिखाया। दवाएं खा खाकर वो परेशान हो गया। सारा दिन कुछ स्वादिष्ट खाने को मन करता पर पचा ना पाता। लिवर भी जवाब दे गया था। कुछ दिन बीते बीमार व कमजोर पत्नी भी चलबसी। ऊसकी मुत्यु ने उसे तोडकर रख दिया। पत्नी को यादकर वो अकसर रोता। अकेला घर से निकल भागता। बडी अजीब दशा हो गयी थी। नंदिनी  बुढापे मे बच्चो का साथ जहां सुकून देता है उनकी बेरूखी तोड देती है। शायद जीने की चाहत भी कही दम तोडने लगती है। अब वो स्थायी रूप से बिस्तर पर ही पढा रहता। चार सालो से तो वह बिस्तर भी खराब करने लगा था। नौकरौ ने भी हाथ खडे कर दिये थे। वो भी ऐसे आदमी को नहलाने धुलाने मे असमर्थ थे। चुपचाप पडा वो छत निहारता। व अपनी मृत्यु की भीख मांगता जो मिल नही रही थी। अकसर लेटा लेटा अतीत के चक्कर काटने लगता। हाथ जोड माफी मांगता। पर सब बेकार,,,,,,,.। वो अपने पोते को खिलाने की आस लिये था। पर वो भी नही पूरी हुई। अब वो बिस्तर पर पडे पडे अपने गुनाह याद कर रहा था। उंची आंकाक्षो को पूरा करने के लिये उसने क्या क्या छल नही किये। किस तरह उसने अपने पिता की रजिस्टरी धोखे से अपने नाम करवा ली थी। अपने भाईयो का हक भी हड़प[ लिया था औ्र उन्हे घर से बाहर कर दिया था। पिता के मरने पर भी सबकुछ गहने पैसे खुद ही रख लिये थे। एक गरीब भाई की बेटी की शादी मे मदद के तौर पर जो धनराशि देनी थी उससे भी मुकुर गया था। और भाई की बेटी की शादी मे ही नही गया कही भाई पैसो का तकाजा ना कर दे। किसी की समझाईश भी ना मानी। बस अपना सोचता रहा। वो जन्मदेने वाली मां जिसकी आंखो का वो तारा था स्वार्थ के वशीभूत होने पर उसी की आंखो से उतर गया। वो समझाती बेटा…. भाईयो के हक ना खा। वो अपनी मां की बात ना मानता। वो बेचारी अपने कमरे मे पड़ी रहती। ये अपनी पत्नी के लिये कामवाली रखता पर मां के लिये नही। बूढा पिता ही मां को सम्भालता। समय बीता बूढे माता पिता मन की मन मे लेकर स्वर्ग को चले गये। मरते समय पिता ने बेटे से फिर कहा””बेटा,,,,, भाईयो को उनका हक दे देना, आज से तू ही उनका पिता है।। पर लोभ कि ऐसी पट्टी बंधी कि वह कुछ देख ही नही पाया। धन सम्पति के लोभ नेउसे भाईयो से भी छुडवा दिया। पर आज की रात जब वो अपने कमरे मे अकेला सो रहा था। उसकी देह ने मुकित पा ली थी। इसे बहू बेटा भी नही जान पाये थे कि कब हंसा उडान भर गया था। सुबह बहू चाय देने आयी तो ससुर जी शान्त पडे थे। हां यह बात सही थी जिस औलाद के लिये उसने ये धनजोडा था वो अन्तिम समय मे उसके मुख मे गंगा जल भी ना डाल पाये थे ना ही दिया बाती कर पाये थे। और तीसरे दिन ही “उठाला” करदिया था। शायद कुदरत ने ही उसके गुनाहो का हिसाब कर दिया था।। रीतू गुलाटी। यह भी पढ़ें ……. पुरस्कार ब्याह – कहानी वंदना गुप्ता भलमनसाहत तबादले का सच  कहानी “गुनाहो का हिसाब “ आपको कैसी लगी | अपनी राय से हमें अवश्य अवगत करायें | पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक  करें | अगर आप को ” अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री इ मेल सबस्क्रिप्शन लें जिससे हम लेटेस्ट पोस्ट को सीधे आपके ई मेल पर भेज सकें |  filed under- Hindi Stories, Emotional Hindi Stories, free read, punishment, gunahon ka hisab

आकांक्षा

                  फेसबुक पर स्क्रोल करते हुए किसी पोस्ट के कमेन्ट पर उसकी प्रोफ़ाइल पिक  दिखी | प्रोफाइल पिक देखते ही प्रतीक  का मन खुश हो गया | कितनी सुन्दर है बिलकुल परी की तरह | झट से उसकी वाल पर पहुँच गया | वहाँ  सिर्फ तसवीरें ही तसवीरें थी | एक से बढ़कर एक |  उसके मुँह से बस एक ही शब्द निकला … माशा अल्लाह और झट से फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी | उसके आश्चर्य  का ठिकाना न रहा जब वो  रिक्वेस्ट स्वीकार भी हो गयी | केवल  दो म्यूच्यूअल फ्रेंड्स | एक पल को मन संशय में पड़ा ,आखिर उसमें ऐसा खास क्या है जो  उसने उसे मित्र सूची में शामिल किया ? फिर अगले ही पल अपनी प्रोफाइल पिक पर नज़र डाल कर मन ही मन बोला , ” माना हो तुम बेहद हँसी , ऐसे बुरे हम भी नहीं , जरूर उसे भी 21 साल के गबरू जवान में कुछ  तो खास दिखा होगा   और ऊपर से उसने जो इधर ऊधर से कॉपी किये  मानवता भरे  शेर लिख रखे  हैं अपनी वाल पर  उन्होंने ही शायद उसे ” हार्मलेस ” की श्रेणी में रखा होगा | खैर जो भी हो उसे ख़ुशी थी कि तीर निशाने पर लग चुका था |                              मन तो उसका पहले ही दिन से उससे बात करने का था पर कुछ दिन अच्छे बने रहने का नाटक करने के बाद उसने अपनी योजना पर काम करते हुए good morning का एक खूबसूरत मेसेज भेज दिया | आकांक्षा का भी रिप्लाई आ गया | अब तो प्रतीक की ख़ुशी का ठिकाना न रहा | उसे बात करने का सूत्र मिल गया | पहले राजनीति से शुरू हुई बातें आगे बढ़ते हुए घर -गृहस्थी से होती हुई वहां तक पहुँचने लगी जो उनके लिए वर्जित क्षेत्र था | फेसबुक की दोस्ती  प्रतीक जो अभी तक  मानवता  भरे शेर पोस्ट करता था अब उसमें हुस्न के चर्चे होने लगे | ये शेर वो खुद ही लिखता था | इश्क  सबको शायर बना देता है | कुछ खास शेर वो आकांक्षा को इनबॉक्स कर देता | आकांक्षा की स्माइली उसका पूरा दिन बना  देती | धीरे से फोन नंबर एक्सचेंज हुए और आपस में घंटों बातें होने लगीं |  अब उसे आकांक्षा के बारे में सब पता था | उसे लगता था था जैसे वो दोनों एक दूसरे को जन्मों से जानते हैं | आकांक्षा ,एक उच्च शिक्षित   अच्छे परिवार की लड़की थी , जिसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी , अब वो  सौतेली माँ के द्वारा सताई जा रही थी | प्रतीक का मन आकांक्षा के दुःख सुन कर भर जाता | उसे लगता कि वो कैसे आकांक्षा को अपनी सौतेली माँ की कैद से मुक्त कराये | इसके लिए वो अपनी दोस्ती को अगले लेवल पर ले जाना चाहता था | उसने आकांक्षा से मिलने का आग्रह किया |आकांक्षा ने उसे अपने शहर   आने का न्यौता दे दिया | प्रतीक की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था | वो सोच रहा था कि अगर आकांक्षा ने हाँ  कर दी तो वो माँ को  शादी के लिए मना लेगा | बहुत सारे रंगीन सपने देखते हुए वो आकांक्षा के शहर पहुँचा | आकांक्षा को फोन कर मिलने का स्थान पूंछा | आकांक्षा ने कहा कि वो होटल में मिलेंगे क्योंकि वो अभी घर और मुहल्ले में सीन क्रीयेट  नहीं करना चाहती हैं | प्रतीक ने उसकी बात मान ली | वो दीवानों की तरह अपना सामन ले होटल पहुँचा | होटल किसी छोटी बस्ती में था | बजबजाती नालियों और कूड़े के ढेर से आती दुर्गन्ध  ने उसे रोकने की कोशिश तो की पर वह  आकांक्षा से मिलने की आस में आगे बढता गया | होटल मेनेजर से बात करने पर उन्होंने उसे  रूम नंबर 118 में भेज दिया | वहां आकांक्षा उसका इंतज़ार कर रही थी |  अपने दिल की धडकनों पर काबू करते हुए प्रतीक  कमरे में पहुँचा | आकांक्षा दरवाजे के पीछे खड़ी  थी | उसके अन्दर आते ही उसने दरवाजा बंद कर दिया | मद्धिम रोशिनी में वो आकांक्षा को ठीक  से देख भी न पाया कि आकांक्षा उसका हाथ पकड़ कर बिस्तर की और ले गयी और बोली , ” पहले बातें  करोगे या .. | प्रतीक को इस या का अर्थ समझ नहीं आया उसने आकांक्षा से कहा ,  ” लाइट जलाओ आकांक्षा मैं तुम्हें जी भर के देखना चाहता हूँ | घरेलु पति आकांक्षा ने लाईट जला दी | कमरा सतरंगी रोशिनी से नहा गया | आकांक्षा पीठ  करे खड़ी थी | पीले रंग का लिबास में वो उसे बेडौल लगी | तभी आकांक्षा ने मुँह उसकी तरफ किया | प्रतीक को ऐसा लगा जैसे सारी  रोशिनी बुझ गयी हो | नहीं … ये वो आकांक्षा नहीं हो सकती | फोटो में तो परी सी लगती थी | एक नहीं हजारों फोटो देखी  हैं उसने | हालांकि चेहरा तो वही है … पर, ये दाग , धब्बे ये झाइयां ये निस्तेज आँखें  ? उस की  पेशानी पर तनाव देख कर आकांक्षा जोर से हँसते हुए बोली ,क्यों बदली हुई लग रही हूँ ?  अरे ये तो   आधुनिक सेल्फी कैमरे का कमाल है | किसी को भी सुन्दर दिखाया  जा सकता है | पर तुम परेशान क्यों होते हो , तुम्हे जो चाहिए वो मिलेगा कहते हुए वो अपने गाउन के फ्रंट बटन खोलने लगी | प्रतीक पसीने -पसीने हुआ जा रहा था | उसे रोकते हुए बोला , ” नहीं -नहीं मुझे ये सब नहीं चाहिए | मैं तो … मैं तो … मेरे साथ धोखा हो गया है | धोखा -वोखा हम नहीं जानते , हम तो अपना धंधा जानते हैं | क्या आदमी है रे तू |  देवांश  को देखो , वो भी तो अक्सर मेरी फोटो पर कमेन्ट करता था , दोस्ती की , परसों बुलाया …. मेहताना के साथ बख्शीश भी दे कर गया | फिर आने का वादा भी किया | अपुन काम ही ऐसा करते हैं , पूरी जान डाल देते हैं | प्रतीक रुमाल से पसीना पोंछते … Read more

दूसरा फैसला

मीरा ने नंबर देखा ,माँ का फोन था ,एक बार होठों पर मुस्कराहट तैर गयी , ये नंबर उसके लिए कितना कितना खास रहा है , उसके जीवन का संबल रहा है , तभी एक झटका सा महसूस हुआ , कुछ तल्ख़ यादें  कानों में शोर मचाने लगीं |                          बस जरा सा लिखना , पढ़ना ही सीख पायी थी वो कि माँ ने पढाई छुडवा कर काम पर लगा दिया था | तब से शादी तक सुबह से ले कर -देर शाम तक घर -घर सफाई -बर्तन करके न जाने कितना कमा -कमा  कर दिया था माँ को घर खर्च के लिए | कभी कोई शौक जाना ही नहीं था , भाई -पढ़ जाएँ , बहनों की अच्छे घर शादी हो जाए , माँ- बाबूजी ठीक से रहे यही उसकी मेहनत का सबसे बड़ा पारिश्रमिक था | माँ भी तो कितना लाड करती थीं | मेरे घर की लक्ष्मी कहते -कहते नहीं अघाती थीं |                         समय गुज़रा उसके हाथ पीले हो गए वो पराये घर चली गयी और उसकी जगह उसकी छोटी बहन काम पर लग गयी | अब वो घर की लक्ष्मी थी | शादी के पांच सालों में  तीन बच्चे और पति की मार के सिवा कुछ भी तो नहीं मिला उसे | घरों का काम तो यहाँ भी करती थी पर माँ की तरह पति इज्ज़त नहीं देता था |महीने के पैसे भी , चाहे जितना छुपा के रखो , शराब में उड़ा देता | बच्चों की पढाई के लिए कुछ कहने पर जबाब में मार मिलती | फिर भी वो माँ से सब छुपाती रही , माँ को दुःख होगा , पर एक रात तो जानवरों की तरह इतना पीटा  कि उठने की ताकत भी न रही , नौबत इलाज़ की आ गयी थी | किसी तरह से भाई को फोंन  करके ले जाने को कहा | यमुना पार झुग्गी बस्ती में माँ के पास आ कर उसने फैसला कर लिया अब वो यहीं कमरा किराए पर ले कर रहेगी , बच्चों को पढ़ाएगी |  अपना जीवन खराब हुआ तो क्या बच्चों का जीवन ख़राब नहीं होने देगी | वो बचपन से बहुत हिम्मती थी , उसे अपने फैसले पर गर्व था | जल्दी ही कालोनी में दो काम  मिल भी गए | पर दो कामों से तो किराया भी नहीं पूरा पड़ता | भाई तो उसे देखते ही मुंह फेर लेते कि कहीं कुछ मांग न ले | वो स्वाभिमाननी मन ही मन हंसती , जिन्हें बचपन में कमा -कमा  कर खिलाया है उनसे पैसे थोड़ी ही लेगी , नाहक ही डरते हैं | वो तो भावों में भर कर यहाँ रह रही है , अपनी जिंदगी के दर्द तो उसे खुद ही सहने हैं पर यहाँ कम से कम अपनापन तो है | कट ही जायेगी जिन्दगी की रात इन जुगनुओं की चमक से | इन जुगनुओं की चमक बहुत जल्दी मद्धिम पड़ने लगी | पास रहते हुए भी भाई दूर -बहुत दूर होते जा रहे थे | बड़ी भाभी ने कन्या खिलाई थी इन नवरात्रों में , पूरी बस्ती में प्रसाद बांटा , पर उसके यहाँ चम्मच भर हलुआ भी नहीं भेजा | दिल दुखता था तो कोठियों  में जहाँ वो काम करती थी वहां बडबडा कर मन का गुबार निकाल देती | कोठी की मालकिने भी मन से सुनती | कभी-कभी सलाह भी देतीं , ” अरे क्यों चिंता करती है , तुम लोग हो या हम लोग , जब घरवाला नहीं पूंछता तो किसके भाई पूंछते हैं ? तू तो बस अपने बच्चों पर ध्यान दे | ” वो भी इस नसीहत को मान   चाय सुडकते हुए अपना दर्द सुड़क  जाती |   कामवाली भले ही थी पर वो जानती थी कि औरत अमीर हो या गरीब दोनों का दर्द एक ही होता है , डाल से टूटे पत्ते की तरह उसकी पीड़ा एक ही होती है | शुक्र है माँ का हाथ तो उसके सर पर है | वो हर मुसीबत से टकरा जायेगी | तभी  सुखद संयोग से छोटी भाभी गर्भवती हो गयी | चक्कर और उल्टियों  वजह से उसे अपने काम छोड़ने पड़ें | उसने मीरा को काम सौंपते हुए कहा ,” दीदी बच्चा होने के एक महीने बाद मेरे काम वापस कर देना”  | उसने हामी भर दी | वह बड़ी ही लगन से काम करने लगी | सभी कोठियों की मालकिने  उसके काम से खुश थीं |  दिन बीतते -बीतते उसकी चिंता बढती जा रही थी | लाख कोशिश के बाद भी उसे नए  काम मिले नहीं थे , इधर  भाभी के नौ महीने पूरे होने वाले थे | उसने तय कर लिया था कि बच्चों को पूरा पड़े या न पड़े , भले ही पढाई छूट जाए पर भाभी जब काम मांगेंगी तो उनके काम उसे सौप देंगीं | आखिर काम के पीछे रिश्ते थोड़ी न बिगाड़ने हैं | सुख -दुःख में यही लोग तो काम आते हैं | पर चिंता ने उसके शरीर को कमजोर कर दिया था | सुबह हलकी हरारत थी | देर से उठी और देर से ही काम पर  आई | कोठी का दरवाजा खुला हुआ था , मालकिन से किसी के बात करने की आवाजें आ रहीं थी | उसने गौर किया ये तो माँ की आवाज़ थी | माँ यहाँ क्या कर रहीं हैं , उसने बातों पर कान  लगा दिए | माँ मालकिन से कह रहीं थीं , ” छोटी बिटिया की भी शादी तय हो गयी है | आप तो जानती ही हैं , दौड़ – दौड़ कर कई घर कर लेती थी उसी से हमारा घर चल रहा था | अब बड़ी मुश्किल आएगी ,लड़का तो वैसे ही कुछ करता धर्ता नहीं है | बड़ा पहले से ही अलग अपने बीबी बच्चों के साथ रहता हैं हमें दो कौर को भी नहीं पूंछता | हमारी भी उम्र हो गयी है कोई सफाई  का काम  देता ही नहीं | ये बहु ही है जो साथ निभा रही है | समझदार है ,जानती है   शराबी आदमी के साथ अकेले कैसे बच्चे पालेगी | … Read more

अपराध बोध

 सर्दी हो या गर्मी, वह अपने नियमों की पक्की, सुबह जल्दी उठकर मंदिर जाना। उसके बाद ही चाय, पानी व अन्य काम करना। आज भी वह मंदिर से लौट चुकी थी। उसकी बहु अभी तक सो रही थी। बहु के नहीं उठने पर तमतमाई जोर की आवाज से सारे घर की चुपी को तोड़ दी, सारा दिन सोती ही रहेगी क्या ? जल्दी उठ ! सूरज सिर पर खड़ा है, ये बेषर्मों सी सो रही है। सुनील की पत्नी जल्दी से कपड़े संभालते हुए उठी, दुपट्टा  सिर पर लेकर सबसे पहले सास के चरण छुए। खुश रहो ! दूधो नहाओ पुतो फलो! आजकल की बहुरियों का तो दिमाग ही खराब हो गया है। शर्म  लिहाज कुछ रही ही नहीं। अपनी सास के सामने भी पैर पसारे सोती रहती हैं। हम तो हमारी सास से पहले उठ जाती थी। सुबह जल्दी से नहाकर, चाय के साथ ही सास के पांव छूती । आज कल तो न दिन का पता न रात का। जब देखो खसमों के साथ कमरे में घुसी रहती हैं। सुनील की पत्नी एक शब्द  भी नहीं बोली! तब तक चाय बनकर तैयार हो गई। इस दौरान सुनील भी घर आ चुका था। लो माॅं जी ! रख दे ! सुना तूने शर्मा  जी के लड़के की बहु के लड़का हुआ है, तुम्हारे साथ ही उनके लड़के की शादी  हुई थी। दो बार बच्चा गिराने के बाद। अब लड़का हुआ है। मुझे भी पोता चाहिए। बहुरी सुन रही है ना, मुझे भी पहला पोता ही चाहिए। हमारे पास इतने पैसे नहीं की हम भी वो क्या कहते हैं? सुनाग्राफी करवा लें। मेरा बेटा इतनी मेहनत कर हमारा खर्च चलाता है, कहीं लड़की हो गई तो कैसे संभालेगा, |   सर्द हवाओं की सायं सायं ने जल्द ही सड़कों पर सन्नाटा फैला दिया। आज सुनील का मन आॅटो लेकर जाने का नहीं था। उसे मालूम था कि ऐसे मौसम में सवारी मिलना मुश्किल  है, पर जाना तो पड़ेगा। घर का खर्च का अंतिम विकल्प यही आॅटो है। रोजाना की भांति उसने अपनी गाड़ी कस्बे के रेलवे स्टेशन  के बाहर नियत स्थान पर खड़ी कर दी। आज रात्रि 9 बजे यात्री ट्रेन समय पर थी। एक सवारी को वह छोड़कर वह आ चुका था। रात्रि 11.30 बजे की ट्र ेन का इंतजार कर रहा था। ट्रेन कोहरे के कारण लेट थी। वास्तविक समय का पता नहीं था। ठंड का कहर भी बढ़ता जा रहा था। उसने स्वयं को आॅटो में कैद कर सोने का विचार बनाया। फैसला आॅटो में बैठ उसने एक नजर आस पास दौड़ाई कहीं कोई नहीं। सारे दिन भार ढ़ोती सड़के अब शांत  होकर सो रही थी। आॅटो के पीछे दीवार के पास एक कुतिया अपने बच्चों के साथ सिमटे लेट रही थी। तभी उसकी नजर दूर से आती रोशनी पर गिरी। दूर से चमचाती रोशनी बड़ी तेजी से उसकी दिशा  में बढ़े जा रही थी। जरूर कोई गाड़ी तेजी में होगी। अचानक वह गाड़ी अस्पताल के पीछे से गुजरते गंदे बड़े बरसाती नाले के पास रूक गई। गाड़ी की हैड लाईटें बंद हो गई। रोड़ लाईट की धुंधली रोशनी में सड़क के किनारे खड़ी गाड़ी में कोई हलचल नहीं हो रही थी। अभी तक दरवाजा नहीं खुला था। थोड़े विराम के बाद दायीं ओर से दरवाजा खुला, एक लम्बा तगड़ा उतरा। चारों तरफ नजरें दौड़ाकर, गाड़ी के अंदर कुछ इशारा करते हुए गाड़ी की खिड़की में मुॅंह डाला। बायीं ओर का दरवाजा खुला। एक महिला अपने दोनों हाथों को सीने से लगाए, जिनके बीच में कपड़ा लिपटा था, गाड़ी से उतरी। महिला ने चारों तरफ नजरें दौड़ाई, एक खामोशी  के बाद बड़ी तेजी से नाले की ओर बढ़ी। नाले के पास जाकर एक बार फिर रूक कर चारों ओर नजरें दौड़ाई। इस बार उसने कपड़े को सीने से हटाकर नाले में फैंक दिया। बड़ी तेजी से इधर-उधर ताकती गाड़ी की ओर लपकी। महिला पुरूश दोनों बिजली सी तेजी के साथ गाड़ी में बैठ गए। गाड़ी चालू हुई और बड़ी तेजी से यू टर्न मारते हुए उसी दिशा में ओझल हो गई जिस दिशा  से आई थी। एक बार फिर सन्नाटा कहीं कोई भी नहीं दिख रहा था। सिवाय रात के अंधेरें में चमकते तारों के, जमीन पर लेटी सड़क के, भौंकते आवारा कुत्तों के, सड़क के किनारों पर जलती लाईटों के, बहतीहवाओं के, बहुत कुछ था पर कुछ भी नहीं था।  सुनील के दिल में कई सवाल तो उठे पर ठंड के बहाव में सभी के सभी दिमाग के एक कोने में जम कर रह गए। सिर खुजाते हुए सुनील अपने आप में बड़बड़ाते हुए, आॅटो के पीछे की सीट पर कम्बल के बीच दुबक कर लेट गया। चाय वाले की आवाज से उसकी आंख खुली। वह जल्दी से उठा ओर कम्बल लपेटे हुए स्टेषन की ओर बढ़ा। अभी सवारी गाड़ी के आने में समय था। महाराज – एक गर्मागर्म चाय देना। चाय की एक-एक घूंट उसके शरीर को उर्जा दे रही थी। तभी स्टेशन पर घोशण हुई, यात्री कृप्या ध्यान दे, यात्री गाड़ी प्लेट फार्म न. एक पर अगले दो मिनट में पंहुचने वाली है। टिफिन सुनील जल्दी से चाय खत्म कर ठीक रोज के निष्चित स्थान पर जाकर खड़ा हो गया। दो मिनट बाद गाड़ी स्टेश न पर पंहुच गई। सुनील को भी एक यात्री मिल गया। सुनील ने उन्हें टैक्सी में बिठा, मंजिल की ओर बढ़ा। गाड़ी अभी थोड़ी दूर बढ़ी ही थी कि सुनील ने देखा कि बहुत सारी भीड़ नाले के पास खड़ी है। सुनील ने सवारी से अनुरोध कर गाड़ी को रोका। जल्दी से भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा और देखा एक कपड़े के ऊपर शिशु  बालिका का शव पड़ा है, जिसकी नाल भी अभी पूरी तरह कटी नहीं, खून से सनी है।  यह सब देखकर उसकी आंख के आगे रात का सारा घटनाक्रम दौड़ने लगा। उसके हाथ पैर फुलने लगे, सिर चकाराने लगा। जिस तेजी से वह भीड़ को चीरता हुआ आया था, अब उसी भीड़ से बाहर निकलना मुष्किल हो रहा था। भीड़ के बीच से पीसता हुआ गाड़ी तक पंहुचा। उसका चेहरा सफेद पड़ चुका था। गाड़ी को स्टार्ट कर सवारी से बिना बोले मंजिल की ओर बढ़ा। इस दौरान उसके दिमाग में वही घटनाक्रम घूम … Read more