गली नंबर -दो

“पुत्तर छेत्ती कर, वेख, चा ठंडी होंदी पई ए।”  बीजी की तेज़ आवाज़ से उसकी तन्द्रा भंग हुई। रंग में ब्रश डुबोते हाथ थम गए। पिछले एक घंटे में यह पहला मौका था, जब भूपी ने मूर्ति, रंग और ब्रश के अलावा कहीं नज़र डाली थी। चाय सचमुच ठंडी हो चली थी। उसने एक सांस में चाय गले से नीचे उतारते हुए मूर्तियों पर एक भरपूर नज़र डाली। दीवाली से पहले उसे तीन आर्डर पूरे करने थे। लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों से घिरा भूपी दूर बिजली के तार पर अठखेलियाँ करते पक्षियों को देखने लगा।  हमेशा की तरह आज भी एक आवारा-सा ख्याल सोच के वृक्ष की फुनगी पर पैर जमाने लगा,  आखिरकार ये पक्षी इतनी ऊँचाई पर क्यों बैठे रहते हैं?  ‘ऊंचाई‘, दुनिया का सबसे मनहूस शब्द था और ऊँचाइयाँ उसे हमेशा डर की एक ऐसी परछाई में ला खड़ा करती थीं कि जिसके आगे उसका व्यक्तित्व छोटा, बहुत छोटा हो जाता था!  दूर आसमान में सिंदूरी रंग फैलने लगा था जिसकी रंगत धीरे-धीरे भूपी के रंगीन हाथों सी होती चली गई।  —————————— रंगों का चितेरा भूपी उर्फ भूपिंदर, जस्सो मासी का छोटा बेटा है और हमारी इस कहानी का नायक भी है!  यूं कहने के लिए उसमें नायक जैसे कोई विशेषता नहीं थी जिसे रेखांकित किया जाए!  अगर सिर्फ उसकी दुनिया ही हमारी कहानी का दायरा हो तो इस खामोश कहानी में न कोई आवाज़ होगी और न ही संवादों के लिए कोई गुंजाइश रहेगी!  यहाँ भूपी की इस रंगीन कायनात में इधर-उधर, तमाम रंग जरूर बिखरे हैं पर इंद्रधनुषी रंगों से सजी  ये कहानी इन सब रंगों के सम्मिश्रण से मिलकर बनी है यानि वह रंग जो बेरंग है! तो कहानी भूपी से शुरू होती है, भूपी की उम्र रही होगी लगभग उनतीस साल, साफ रंगत जो हमेशा बेतरतीब दाढ़ी के पीछे छिपी रहती थी,  औसत से कुछ कम, नहीं कुछ और कम लंबाई, इतनी कम कि देखते ही लोगों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ जाती थी!  पढ़ने लिखने में न तो मन ही लगा और न ही घर के हालात ऐसे थे कि वह ज्यादा पढ़ पाता!  कुल जमा पाँच जमात की पढ़ाई की थी पर मन तो सदा रंगों में रमता था उसका!  पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाखू, शराब जैसा कोई ऐब उसे छू भी नहीं गया था!  हाँ, अगर कोई व्यसन था तो बस आड़ी-तिरछी लकीरों का साथ और रंगों से बेहिसाब मोहब्बत  जो शायद उसके साथ ही जन्मी थी और साथ ही जन्मी थी एक लंबी खामोशी जो हर सूं उसे घेरे रहती थी!  उसका कोई साथ या मीत था तो उसके सपने, जो दुर्भाग्य से सपने कम दुस्वप्न ज्यादा थे!  भूपी की खामोश दुनिया अक्सर उन दुस्वप्नों की काली, सर्द, अकेली  और भयावह गोद में जीवंत हो जाती!  ये सपने अब उसकी आदत में शुमार हो गए थे और इनका साथ उसे भाने लगा था!   कम ही मौके आए होंगे जब उसे किसी ने बोलते सुना था!  यकीनन मुहल्ले से गाहे-बगाहे गुजरने वालों को यह मुगालता रहता होगा कि वह बोल-सुन नहीं सकता!  कहते हैं जब होंठ चुप रहते हैं तो आँखें जबान के सारे फर्ज़ अदा करने लगती हैं पर भूपी की तो जैसे आँखें बस वही देखना चाहती थीं जिसका संबंध उसके काम से हो और आँखों के बोलने जैसी सारी कहावतें बस कहावतें ही तो रह गयी थीं!  पता नहीं ये दुस्वप्नों के नींद पर अतिक्रमण का असर था या कुछ और कि ये आँखें अक्सर बेजान, शुष्क और थकी हुई रहा करती थीं! यह सहज ही देखा जा सकता था कि  उन तमाम काली रातों की सारी कालिमा, सारा अंधेरा, सारा डर और सारा अकेलापन इन भावहीन आँखों के नीचे अपने गहरे निशान छोड़ गया था, हालांकि इनकी इबारत पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था, फैक्टरी में दिन भर मेहनत कर रात में गहरी नींद लेने वाली बीजी भी इन निशानों की थाह कब ले पायी थी! ——————————————- जस्सो मासी उर्फ़ बीजी उर्फ़  जसवंत कौर एक नेक, मिलनसार और खुशमिजाज़ औरत थी जो ज्यादा सोचने में यकीन नहीं रखती थी या उन्ही के शब्दों में कह लीजिये “जिंदड़ी ने मौका ही कदो दित्ता”  (जिंदगी ने मौका ही कब दिया) !  गेंहुआ रंग, छोटा कद, स्थूल शरीर, खिचड़ी बाल और कनपटी पर किसी हल्के से रंग की चुन्नी के बाहर, ‘मैं भी हूँ‘ अंदाज़ में झूलती एक सफ़ेद लट,  चौड़े पायंचे वाली सलवार-कमीज़ और चेहरे पर मुस्कान!  मुल्क के बँटवारे ने सब लील लिया था,  बँटवारे के दंश को सीने में छुपाए, काफी अरसा हुआ तरुणाई की उम्र में पति के साथ पंजाब से यहाँ आकर बसी थी!  जाने वो दिल था, जिगर था या जान थी जो वहाँ छूट गया था, लोग कहते हैं वो अब पाकिस्तान था!  बहुत समय लगा ये मानने में कि वो मुल्क अब गैर है, कि अब वो हमारा नहीं रहा, कि उसे अब अपना कहना खामखयाली है!  और देखिये न उनकी उजड़ी गृहस्थी और टूटे दिल को उस दिल्ली में ठिकाना मिला जो खुद भी न जाने कितनी बार उजड़ी और बसी थी!  पर दिल्ली जब हर बार उजड़ कर बस गयी तो जस्सो मासी की नयी-नयी गृहस्थी भला कब तक उजड़ने का दर्द सँजोती रहती!  दिल्ली ने ही उनकी तरुणाई की वे जाग-जाग कर काटी रातें देखीं, तिनके-तिनके जोड़ कर जमाया घौंसला देखा और दिल्ली ही असमय पति के बीमार हो जाने पर 2 बच्चों के साथ हालात की चक्की में पिसती, उस जूझती फिर भी सदा मुस्कुराती माँ के संघर्षों की मौन साक्षी बनी!  इन मुश्किलों ने उन्हे जुझारू तो बना ही दिया था, साथ ही वे छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाने को फिज़ूल मानने लगी थी!  यूं भी जिंदगी ने उन्हे सिखाया था जब मुश्किलें कम न हो तो उनसे दोस्ती कर ली जाए, उन्हे गले लगा लिया जाए! यह एक निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों का मोहल्ला था, जहां रहते हुये लोगों को न तो बीत गए सालों की संख्या याद थी और न ही एक दूसरे से कब रिश्ता बना यह भी याद रहता था!  अपने छोटे-छोटे सुखों को महसूसते और पहाड़ जैसे दुखों से लड़ने को अपनी आदत में शुमार किए उन लोगों का बड़ा-सा परिवार थी यह गली, जिसे गली नंबर 2 कहा जाता था!  इन लोगों ने … Read more

ब्लाक अतीत

आलोक जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ता ,हाँफता प्लेटफार्म पर पहुँचा तो अभी पूरे पाँच मिनट बाक़ी थे……8:40 की ट्रेन थी और अभी 8:35 हो रहा था…… पास बनवा लिया है तो टिकट लेने का टेन्शन नहीं….. बेलापुर से जुइनगर जाने में टाइम ही कितना लगता है…….9:30 तक आॅिफस पँहुच ही जायेगा।उसने प्लेटफ़ार्म पर नज़र डाली सब अपने आप में ………अरे नहीं !!! अपने-अपने सेलफ़ोन में खोए ……….फ़ेसबुक व्हाट्सएप……….िकसी को किसी की क्या ज़रूरत ……उसे भी तो नहीं ……….आज सुबह ही उसका नेटपैक ख़त्म हो गया था…..नहीं तो उसे भी प्लेटफ़ार्म पर नज़र डालने की क्या खा़क ज़रूरत है……….एक टीनएज लड़कियों का ग्रुप फ़ोटो निकलवा रहा था…………बग़ल में खड़ा लड़का किसी गेम में उलझा हुआ…..वही खड़ी लड़की चैट करते -करते अचानक से सेल्फी लेने लगी……….हॅसबैन्ड ने माँगा होगा…..नहीं ….ब्वायफ्रेंड…..हाँ ब्वायफ्रेंड ही होगा……सोचते हुये उसे अपने पर ही खीझ आ गई……..वो भी क्या फ़ालतू बातें सोचता है? आज वह ख़ुश भी बहुत था……..उसे अंिकमा से मिलना था…….रेस्टोरेन्ट का नाम देखने को सेलफ़ोन उठाया ही कि ट्रेन आ गई …………..। आज ज़्यादा धक्का -मुक्की नहीं करनी पड़ी ……….और सीट भी मिल गई।अब वह आराम से… ब्वायजोन को सुनेगा….”आइ लव द वे …..यू लव मी” साफ्ट राॅक़़……कानों में घुलने लगा ….समान्तर ही दूसरी कई बातें ,यादें ……..। कल रात अंकिमा से कितनी देर तक बातें होती रही…………कितनी समझदार है अंकिमा ……उसके मन की तहें ….आहिस्ता -आहिस्ता खोलती जाती है…….उन तहों में से मुझे बाहर निकालती है तो मैं अपने व्यक्तित्व का एक नया पहलू देख आश्चर्यचकित हो जाता हूँ….वह ही है जो मुझमें उतर पाई है……या कहूँ कि मैं उसके साथ स्वयं में उतर पाता हूँ….कई बार मन को एक अलग रास्ते पर ले जाती है………अनोखा सा रास्ता….जहाँ चलते हुए ऐसी चाह घर बना लेती है कि मंज़िल आये ही ना……………। परसों ही आइ.ए.एस का इंटरव्यू नहीं निकलने पर वह कितना निराश था………लेकिन अंकिमा उसे इस निराशा से कितनी दूर ले गयी…….जैसे आगे कितने रास्ते हों जो उसका इन्तज़ार कर रहें हैं……..सुबह भी उसका मेसेज मिला “वेक अॅप यार!!! द न्यू डे हैज कम अप विद् द न्यू कलर्स आॅफ द राइजेन सन !!!!!”सोच मुस्करा दिया आलोक…..वह सामने देखकर झेंपता ….तभी सामने नज़र पड़ी ……सब अपनी ही दुनिया में डूबे हुये……..उस दुनिया में स्वयं के लिए कुछ ढूँढते…..शायद स्वयं को ही ढूँढते से। अंिकमा जीवन,समाज,राष्ट्रीय -अन्तराष्ट्रीय विषयों पर कितनी सुलझी और मनोवैज्ञानिक दृष्टि रखे है……….िकसी बात को सिरे से नकारती नहीं और लपक कर पकड़ती नहीं जबकि वह एक हाउसवाइफ है………..ये ख़्याल दिमाग़ में आते ही आलोक का मन अजीब हो गया…….”.क्यों नहीं रुकी तुम अंिकमा …..लड़ -झगड़ अपनी प्रतिभा का,पढ़ाई का,अपने सपनों का……….कोई बहाना बना देती….तुम्हें रुकना था अंिकमा !मेरे लिये, हमारे प्यार के लिये….साथ बैठ कर देखे और सजाये सपनों के लिए…..पर तुम नहीं रुकी अंिकमा !!!इस बात से पल्ला झाड़ना उतना आसान नहीं ….िजतना कपड़ों पर लगी ताज़ा धूल को झाड़ना ……।” उदास हो उठा आलोक…………तब तक फ़ोन में मेसेज की बीप बजी …..होगा कोइ मेसेज …….”आपके लिए ख़ास रिचार्ज आॅफर!”,”आप जीत सकते हैं पाँच करोड़, !”………….”मैं घर पर हूँ अकेली….मुझसे करोगे चटपटी बातें ,……!”या फिर “जीवन से हैं परेशान तो पं लक्ष्मण दास करेंगे समाधान !”उसने मेसेज बाक्स ओपेन किया तो रुचि का मेसेज था…….”तुम ठीक हो ना आलोक ……कल शाम से व्हाट्सएप पर आनलाइन नहीं हुए……काॅल किया तो तुमने रीसिव नहीं किया…….जब भी मेसेज मिले प्लीज़ रिप्लाइ करना” खीझ गया आलोक ….कितनी बार कहा है कि अपने आपको व्यस्त रखो…किताबें पढ़ो ,अपना बौध्दिक विकास करो,कुछ रचनात्मक करो….लेकिन नहीं …..वह तो बस मुझपर नज़र रखना जानती है……कहाँ हो ? क्या खाया?…क्या कर रहे हो?अरे यार बीवी बनने की कोशिश में लगी रहती है।हाँ ये ठीक है कि मैंने ही उसे आइ लव यू कहा था। उन दिनों मैं परेशान था …..मुझे किसी का साथ चाहिए था……और रुचि बहुत अच्छी लड़की लगी……..बहुत अच्छी है भी लेकिन ……. ।अभी पिछले हफ़्ते की बात है…..मैंने उससे कहा…. “आज अच्छा नहीं लग रहा…..अकेलापन लग रहा है”पहले तो वह मुझे काॅमेडी नाइट्स विद् कपिल के चुटकुले सुनाने लगी िफर ख़ुश होते ना देख……बताने लगी कि कल तुम्हारी मम्मी मेरे यहाँ आई थी ….कह रहीं थी कि….”तुम्हारे पापा को बहुत अफ़सोस होता है कि उनकी बीमारी और दुकान ठीक से ना चलने की वजह से आलोक को अपनी रुचि और व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग एक बैंक में जाॅब करनी पड़ रही है” अब एक तो मन पहले से ही ख़राब ….ऊपर से उसकी पकाउ बातें ़……वह कभी भी मुझे ठीक से नहीं समझती जबकि अंकिमा…………उसकी बात ही अलग है।पता नहीं उसका पति कैसा आदमी है?…….जो अंकिमा जैसी लड़की से ख़ुश नहीं रहता…..जबकि अंिकमा कभी अपने पति की कभी शिकायत नहीं करती……बस एक -दो बार ये बताया कि उसके पास अंकिमा के लिए समय नहीं है……..तभी उसे ख़्याल आया कि …,,,रेस्टोरेन्ट का नाम पता देख ले……….शिकारा रेस्टोरेन्ट …..वाशी में है…पाँच बजे का समय दिया है। आलोक सोचने लगा कि आॅिफस में क्या बहाना बनाएगा…….ख़ैर यह कोई बड़ी समस्या नहीं क्योंकि वह ज़्यादा लीव माँगता भी नहीं………अभी इन्हीं विचारों में खोया था कि…जुइनगर आ गया।मुम्बई ने उसे काफ़ी चौकन्ना बना दिया है…….अगर सो भी जाए तो अपने स्टेशन पर नींद अपने आप खुल जाती है……मुम्बई का चौकसपन उसने भी सीख लिया है। आॅिफस से उसने चार बजे ही छुट्टी ले ली…….लिफ़्ट से उतरते हुए उसने शीशे में अपनी ओर निगाह डाली….. लाइट परपॅल कॅलर की शर्ट अच्छी लग रही थी…….शूज भी चमक रहे थे….बाल की तरफ़ देखते हुए हाथों से सवार लिया…..आलोक के चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान फैल गई। स्टेशन पहुँचा तो अभी लोकल को आने में समय था तो पास की दुकान पर जा मोबाइल रिचार्ज करवाने लगा। मोबाइल डाॅटा आॅन करते ही पचासों मेसेज आने लगे……कुछ घटिया जोक्स ,कुछ भगवान जी को शेयर करने के लिए,कुछ ज्ञान बघारते मेसेज ………..रुचि के दस मेसेज…………पागल लडकी !इसे बाद में पढ़ूँगा …….अरे! अंकिमा ने भी कुछ मेसेज किया है…..”हाइ आलोक…..आइ एम नाॅट कमिंग टू मीट यू यार……अभिषेक ने मेरे लिए महाबलेश्वर का दो दिन का सरप्राइज़ ट्रिप प्लान किया है…………..यू नो समटाइम्स ही बीकम्स वेरी केयरिंग..सो साॅरी आलोक! दूसरा मेसेज ….”..आलोक !मुझे तुम्हें बड़ा वाला थैन्क्स बोलना है…….तुमसे बात करके पता नहीं क्यों ……मैं इमोशनली बहुत स्ट्रांग हो जाती हूँ…..दिल और दिमाग़ दोनों से धूल झड़ जाती है……वी … Read more

अंतिम इच्छा

(कहानी)अंतिम इच्छा मोहन लाल जी मृत्यु शैया पर थे! उनके परिवार के सदस्य भी उनकी आखरी साँसे गिन रहे थे! मोहन लाल जी के नजदीकी सगे-संबंधी और दोस्त-यार समाचार सुनकर अपनी-अपनी साहूलियत के मुताबिक पिच्छले कुछ दिनों से उनके यहाँ आ-जा रहे थे। उनके घर में खूब गहमा-गहमी लगी थी! न चाह कर और सब-कुछ भूल-भुलाकर भी उनके सभी मिलने-मिलाने वाले दुनियादारी निभा रहे थे!     मोहन लाल जी के बारे में उनके अपनों और परायों, दोनों की ही कोई अच्छी राय नही थी। उन्होने अपने जीते-जीते सभी को किसी न किसी ढंग से कष्ट दिया था और ठेस पहुंचाई थी! समाज में उनकी इस बुरी आदत की अक्सर खुली चर्चा होती थी और उन्हें खुद भी इसका पूरी तरह से आभास था! लेकिन, वे आदत से मजबूर थे! जब तक किसी का बुरा न कर लेते उनकी रोटी हज़म नही होती थी! वे अपने इन कर्मो का इस दुनिया को छोड़ने से पहले प्रायश्चित करना चाहते थे और इस उदेश्य से उन्होने अपने सभी करीबी अपने सिरहाने ईकट्ठे कर लिए थे!  उनकी आँखें नम थी और कहते-कहते उनका गला रूँध गया था –“मैं जानता हूँ कि मैं एक बुरा इंसान हूँ…मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में कभी किसी का कोई भला नही किया…हरेक को कोई न कोई ठेस या हानी पहुंचाई है…उन्हे दुख पहुंचाया है और अपने इन दुष्कर्मों के लिए मैं शर्मिंदा हूँ…और आज जब मेरे जाने का…समय नजदीक आ गया है…मैं अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहता हूँ। मैं हाथ जोड़कर आप सब से विनती करता हूँ कि आप मुझे मेरी सभी कुताहियों और गलतियों के लिए क्षमा दें!” अपनी कमजोर सांस को पकड़ते हुये, मोहन लाल जी पुन: बोले,“मैं अपने आप को सज़ा देना चाहता हूँ…मेरी एक अंतिम ईच्छा है…!”             “वह क्या पिता जी? बतायें, हम आप के लिये क्या कर सकते हैं?” पास खड़े उनके सबसे बड़े बेटे रमेश ने उनका हाथ अपने हाथों में लेते हुए पूछा! “बेटा,मैं चाहता हूँ कि जब मेरे प्राण पंखेरू हों, तब मेरा अंतिम-संस्कार करने से पहले एक बड़ा कील मेरी छाती में ठोक दिया जाये! ऐसा करने से मुझे मेरे किए की सज़ा मिल जाएगी!” “नही, नही बाबू जी, यह आप क्या कह रहे हैं…यह सब हमसे नही हो पाएगा…” कहते कहते उनके बेटे रमेश की आँखें भर आई! “हाँ,बेटा!तुम सबमिलकर यह वादा करो,मुझे वचन दोकि तुम मेरी अंतिम ईच्छा पूरी करोगेऔर तभी मैं इस दुनिया से शांति के साथ जा सकूँगा!” “पिता जी…!” “…” और यह कहकर मोहन लाल जी खामोश हो गये, उनकी आँखें मुंद गई और उनका दम निकल गया! परिवार वालों ने अंतिम संस्कार से पहले उनकी अंतिम ईच्छा पूरी कर दी और अब उन्हें अंतिम संस्कार के लिए शमशान-घाट ले जाया जा रहा था! सूचना पाकर पुलिस ने रास्ते में शव-यात्रा को रोका और परिवार वालों को शरीर से कफन हटाने का आदेश दिया! सभी हताश थे और पसीना-पसीना हो गये। पुलिस वालों ने सभी को पकड़कर जेल में डाल दिया! “भगवान तुम्हारा भला करे,जीते जी तो तुमने किसी को सुख की सांस नही लेने दी, मरने के बाद भी देखो क्या कर गये?”     पूरे शहर में मोहन लाल जी की बस यही चर्चा थी जिसके लिये वेसदैव जाने जाते थे! लोगों की हालत यह थी कि न तो वे रो पा रहे थे और न ही हस ही सकते थे  अशोक परुथी‘मतवाला’ यह भी पढ़ें ………. उसकी मौत ममत्व की प्यास घूरो चाहें जितना घुरना है                                              दूरदर्शी दूधवाला  आपको आपको  व्यंग कहानी  “ अंतिम इच्छा“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

बाबा का घर भरा रहे

एक औरत की डायरी – बाबा का घर भरा रहे  हेलो , कैसी हो बिटिया   फोन पर बाबूजी के ये शब्द सुनते ही उसकी निराश वीरान जिंदगी में जैसे प्रेम की बारिश  हो जाती और वो भी उगा देती झूठ की फसलें … हां बाबूजी , बहुत खुश हूँ | सुधीर बहुत ध्यान रखते हैं | जुबान से कुछ निकले नहीं की हर फरमाइश पूरी | अभी कल ही लौट कर आये हैं दो दिन की पिकनिक से |वैसे भी राची  के पास कितने झरने हैं |  चले जाओ तो  लगता है जैसे  प्रकति की गोद में बैठे हों… और .. वो आधे घंटे तक बोलती रही एक खुशनुमा जिंदगी की नकली दास्ताँ | किसी परिकथा सी | उसे भी कहा पता था था की वो इतनी अच्छी कहानियाँ बना लेती है | झूठी कहानियाँ | पर उन्हें बनाने का उसका उद्देश्य  सच्चा होता था | वो जो भी है भोग लेगी बस बाबूजी खुश रहैं  | ऊसका मायका सलामत रहे | बाबा का घर भरा रहे | एक बेटी यही तो चाहती हैं …वो दूर जिंदगी की धूप झेलती रहे पर उसकी जडें सुरक्षित रहे | बाबूजी भी खुश हो कर कहते ,” बिटिया ऐसे ही खुश रहो | हम लोगों का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है | फोन रख कर अक्सर वो सोंचती ,अच्छा किया बाबूजी से झूठ बोल दिया | वैसे भी तो सेहत साथ नहीं देती उनकी | मेरा दुःख सुनेगे तो सह नहीं पायेंगे |  कल के परलोक जाते आज ही चले जायेंगे | नहीं – नहीं , मैं अपने बाबूजी को नहीं खोना चाहती | मैं उन्हें अपना दुःख नहीं बताउंगी | फोन खत्म कर भी नहीं पायी थी कि तभी सुधीर आ गए | बाबूजी से क्या हंस – हंस के बतिया रही थी | अब तो शादी के इतने साल हो गए | अभी भी जब देखो मन माँ – बाप ही लगा रहता है |जब मन में माँ – बाप ही बसे रहेंगे तो  ससुराल में मन कैसे रमेगा | ये शालीन औरतों के लक्षण नहीं है | आज उसने कोई जवाब नहीं दिया | कितना छांटा है , कितना काटा है उसने शालीन औरतों  की परिभाषा में खुद को फिट करने के लिए | पर जितना वो काटती है ये सांचा उतना ही कस जाता है | कौन बनता है शालीन औरतों के सांचे | औरत को इतना बोलना हैं , इतना हँसना है , इतनी बार मायके जाना है , और इतना … |उफ़ !  कितने कसे होते हैं ये सांचे | फिर सुधीर का साँचा वो तो इतना कसा था , इतना कसा की उसे लगता शायद सुधीर की शालीन औरत वो ताबूत है जिसमें घुट कर वो मर जायेगी | कहते हैं बाढ़ बहुत तेज हो तो बाँध टूट ही जाते हैं | चाहे कितने मजबूत बने हों | पर मन के बाँध तो अचानक टूटते हैं | पता ही नहीं चलता की कब से दर्द की नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी | बस जरा सा पानी बढ़ा और टूट गया बरसों मेहनत  से बनाया सहेजा गया बाँध |  ऐसे ही उस दिन उसके सब्र का बाँध टूट गया जब बिटिया बोल पड़ी , ” पापा दुकान वाले अंकल ने टाफी दी है | बात मामूली थी | पर स्वाभाव से शक्की सुधीर आगबबूला हो गए | क्या ऐसी ही शालीन औरतें होती हैं | हर किसी से रिश्ते गाँठती  है | लो अब बिटिया भी अंकल कह रही है | कोई अंकल , कोई चाचा कोई भैया और इन रिश्तों की आड़ में जो होता रहा है वो हमसे छुपा नहीं है | सुधीर तो कह कर चले गए | वो रोती  रही , रोती रही |कितना कसा है उसने खुद को | कहीं आती जाती नहीं | किसी से बात भी नहीं करती | अब इससे ज्यादा क्या करे |  तभी बेटी उसके गले में बाहें डाल  कर बोली ,” माँ सामने वाले भैया बुला रहे हैं उनके घर खेलने जाऊं | पता नहीं इन शब्दों ने क्या जहर सा असर किया | वो आपा  खो बैठी | बेतहाशा बेटी को पीटने लगी | खबरदार भैया , चाचा , मामा किसी को कहा | सब आदमी हैं आदमी | बस्स ..| अभी तक तो तेरे पापा  की वजह से कितना खुद को सांचे में ढालने की कोशिश की है | अब तू हर किसी को  अंकल मामा चाचा कहेगी तो मेरे सांचे और कस जायेंगे | सांस लेने की हद तक घुटन भर रही है मेरे जीवन में | कह कर वो रोती रही घंटों … जब होश आया तो बेटी आँखों में आँसूं भरे खड़ी  थी | सॉरी मम्मी अब कभी  नहीं कहूँगी अंकल, भैया आप मत रो |प्लीज मम्मी  कितने मासूम होते हैं बच्चे |लगा की किसी फूल की पंखुड़ी सी सहेज कर रख ले अपने मन की किताब के सुनहरे पन्नों के बीच | कोई दुःख छू भी न जाए | पर  कितना भी चाहों  माँ – बाप के हिस्से के दुःख बच्चों के  भाग्य  में भी जन्म से लिख जाते हैं |वो जान गयी थी की एक शक्की पति के साथ निभाना इतना आसान नहीं है | कहाँ तक खुद को काटेगी | कहाँ तक छांटेगी | खत्म भी हो जायेगी तो भी क्या सुधीर का शक दूर कर पाएगी |कल को बेटी बड़ी हो जायेगी तो ये शक का सिलसिला उसे भी अपनी चपेट में ले लेगा | नहीं … सिहर उठी थी वो अपने ही ख़याल से |   बेटी को सीने से लगा कर उसने निर्णय कर लिया अबकी बाबूजी को बता देगी सब | अपनी बेटी को यूँ घुट – घुट कर नहीं मरने देगी | बाबूजी को बताने के बाद बाबूजी का चेहरा उदास हो गया | थोड़ी देर में खुद को संयत कर जाने कहाँ से संचित गुस्सा उनकी आँखों में उतर आया | रोष में बोले मैं अभी जाता हूँ तुम्हारे ससुराल इसको ये सुना देंगे , उसको वो सुना देंगे | फिर देखे तुम्हें कैसे कोई वहां सताता है | बात सपष्ट थी … रहना तो उसे उसी घर में था | जहाँ सुना कर आने से बात नहीं … Read more

इश्क़ वो आतिश है ग़ालिब

                                                                                                सुमी                                 ——      करवट बदलते-से समय में वह एक उनींदी-सी शाम थी । एक मरते हुए दिन की उदास , सर्द शाम । काजल के धब्बे-सी फैलती हुई । छूट गई धड़कन-सी अनाम ।ऐसा क्या था उस शाम में ? धीरे-धीरे सरकती हुई एक निस्तेज शाम थी वह जिसे बाक़ी शामों के बासी फूलों के साथ समय की नदी में प्रवाहित किया जा सकताथा । उस शाम की चटाई को मोड़ कर मैंने रख दिया था एक किनारे ।      लेकिन ज़रूर कुछ अलग था उस शाम में । घुटने मोड़े वह शाम अपनी गोद में कोई ख़ास चीज़ समेटे थी । कौन जानता था तब कि उन यादों के रंग इतने चटखीले होंगे कि दस बरस बाद भी … कौन जानता था कि एक सलोना-सा सुख जो अधूरा रह गया था उस शाम , कि एक छोटी-सी बेज़ुबान इच्छा जो ख़ामोश रह गई थी उस शाम , आज न जाने कहाँ से स्वर पा कर कोयल-सी कूकने लगेगी मेरे जीवन में । कौन जानता था कि समय के अँधियारे में अचानक उस शाम की फुलझड़ियाँ जल उठेंगी और रोशन कर देंगी तन-मन को । मुझे कहाँ पता था कि उस शाम के बगीचे में मौलश्री के शर्मीले , ख़ुशबूदार फूल झरते रहे थे । आज कैसे दिसम्बर की वह शाम जून की इस सुबह में समय के आँगन में मासूम गिलहरी-सी फुदक रही है ।       यादों के समुद्र के इस पार मैं हूँ । समय की साँप-सीढ़ी से बेख़बर । वह शाम आज यादों के समुद्र-तट पर स्वागत के सिंह-द्वार-सी खड़ी है । मैं हैरान हूँ वहाँ तुम्हें खड़ा पा कर — लहरों के हहराते शोर के पास आश्वस्ति-सी एक सुखद उपस्थिति … कॉलेज में भैया के दोस्त थे तुम । हमारे यहाँ बेहद पढ़ाकू माने जाते थे तुम — शिष्ट और सौम्य-से । न जाने क्यों तुम्हें देख कर मेरे मन में गुदगुदी-सी होने लगती थी … तुम जब मुस्करा कर मुझे ‘ हलो सुमी ‘ कहते तो भीतर तक खिल जाती थी मैं — मेरे गालों की लाली से बेख़बर थे क्या तुम ? तुम्हारी हर अदा को कनखियों से देखती मैं तुम्हारी ख़ामोश उपस्थिति से भी खुश हो जाती ।        पहली बार यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में मिले थे तुम मुझे — लम्बी चोटी में सलवार-क़मीज़ पहने एक परेशान-सी लड़की कोई किताब ढूँढ़ती हुई । तुमने उस दिन लाइब्रेरी की हर शेल्फ़ छान मारी थी और आख़िर वह किताब मुझे ढूँढ़ कर दे ही दी थी । मैं तुम्हारी कौन थी ? ऐसा क्यों था कि जब तुम काफ़ी दिनों तक दिखाई नहीं देते या घर नहीं आते तो मैं गुमसुम रहने लगती थी ? चाय में चीनी की बजाए नमक डाल देती थी ? दाल या सब्ज़ी बिना नमक वाली बना देती ? रात में कमरे की बत्ती जलती छोड़ कर चश्मा पहने-पहने सो जाती ?       जिस दिन पता चला कि तुम अब एम. बी. ए. की पढ़ाई करने आइ. आइ. एम., अहमदाबाद चले जाओगे , मैं बाथरूम में फिसल कर गिर गई थी । खाना बनाते समय मैंने अपना हाथ जला लिया था । उसी दिन मैंने यह कविता लिखी थी ।शीर्षक था : ” क्या तुम जानते हो , प्रिय ? ” । कविता थी : ” ओ प्रिय , मैं तुम्हारी आँखों में बसे / दूर कहीं के गुमसुम खोएपन से / प्यार करती हूँ , / मैं घाव पर / पड़ी-पपड़ी-सी / तुम्हारी उदास मुस्कान से / प्यार करती हूँ , / मैं हमारे बीच पड़ी /अनसिलवटी चुप्पी से भी / प्यार करती हूँ , / हाँ प्रिय / मैं उन पलों से भी / प्यार करती हूँ / जब एकाकीपन से ग्रस्त मैं / तुम्हारे चेहरे में / अपने लिए / आइना ढूँढ़ती रहती हूँ / और खुद को / बहुत पहले खो गई / किसी अबूझ लिपि के / चटखते अक्षर-सी / बिखरती महसूस करती हूँ … “        भैया को तुम्हारे प्रति मेरे आकर्षण का पता चल गया होगा तभी तो एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था , ” सुमी , इंडिया में कास्ट एक बहुत बड़ा फ़ैक्टर होता है । हमें इसी समाज में रहना होता है । जात-पात के बंधनों को हम इग्नोर नहीं करसकते ।”         तुम और मैं — हम अलग-अलग जातियों के थे । तुम दलित थे जबकि मैं ब्राह्मण थी । हालाँकि इससे तुम्हारे प्रति मेरे आकर्षण में कोई अंतर नहीं पड़ा ।          वह शाम कैसी थी । उस शाम जब मैं बुखार में पड़ी थी , तुम भैया से मिलने घर आए थे । अगले दिन तुम अहमदाबाद जा रहे थे । क्या यह दैवी इत्तिफ़ाक़ नहीं था कि उस शाम घर पर और कोई नहीं था ? सब लोग एक शादी में गए थे ।         मैंने दरवाज़ा खोला था और तुम जैसे अधिकार-पूर्वक भीतर आ गए थे । क्या मेरा चेहरा बुखार की वजह से तप रहा था ? वर्ना तुमने कैसे जान लिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं थी ?         ” अरे सुमी , तुम्हें तो तेज बुख़ार है । ” मेरे माथे को छू कर तुमने कहा था ।         मेरे माथे पर तुम्हारे हाथों का स्पर्श पानी की ठंडी पट्टी-सा पड़ा था ।         ” दवाई ले रही हो कोई ? ” तुम्हारे स्वर में चिंता थी । ऐसा क्या था जो तुम्हें भी मेरी ओर खींचता था ? क्या तुम्हें इसका अहसास था ?         तुम देर तक मेरे सामने के सोफ़े पर बैठे रहे थे । क्या इस बीच मेरा बुखार बढ़ गया था ? मेरी आँखें मुँद-सी क्यों गई थीं ? जब आँखें खुली थीं तो तुम मेरे बगल में बैठे चिंतित स्वर में … Read more

खंडित यक्षिणी

        An emotional story on breast cancer        प्रिया ने विदेश में रह रहे अपने पति प्रेम को फोन लगाया और जब प्रेंम  ने  फोन उठाया तब प्रिया ने कहा –“ प्रेम तुम अपना  काम ख़त्म करके जल्दी वापस आ जाओ ”।  प्रेम ने कहा –“क्यों क्या हुआ ? तुम्हारी आवाज थोड़ी बुझी -बुझी-सी  लग रही है । तुम ठीक तो हो न ,जल्दी बताओ क्या बात है ? प्रिया ने कहा -आजकल मेरी तबियत ठीक नहीं रहती ,अक्सर बुखार आता है और कमजोरी बहुत लग रही है ।  प्रेम ने कहा –`बस इतनी सी बात ? तुम जाकर डॉक्टर  दिखा आओ और जैसा डॉक्टर कहे वैसा करो । तुम्हारी तबियत जल्दी ही ठीक हो जाएगी । हिम्मत रखो । मैं  काम समय से ख़त्म  करने की कोशिश करूँगा  ।  तुम्हे अपने आप को सम्भालना होगा ,मेरे लिए  । मेरी प्रेरणा और मेरी ऊर्जा का स्त्रोत तुम्ही तो हो प्लीज अपना विशेष ख्याल रखना । मैं भी  शीघ्र तुम्हारे पास आना चाहता हूँ पर मजबूरी है काम तो खत्म करना ही पड़ेगा । डॉक्टर को बताने के बाद मुझे फोन करके बता देना ,मुझे चिन्ता लगी रहेगी ।           अगले दिन प्रिया लेडी डॉक्टर के पास गई क्योकि उसे अपने स्तन में कुछ गाँठ सी महसूस हो रही थी । डॉक्टर ने उसे मेमोग्राफी करने की सलाह दी ।  प्रिया ने लैब में जाकर मेमोग्राफी करवा दी और रिपोर्ट मिलने पर डॉक्टर को दिखाने गई ।  डॉ रिपोर्ट देखकर कुछ गंभीर हो गई और चिंतित स्वर में बोली `तुम्हारे पति कब वापस आयेगे ? प्रिया ने कहा – क्या हुआ डॉक्टर ? क्या कुछ गंभीर बात है क्या ? जो आप मुझे नहीं बता सकती ।  डॉकटर ने कहा-` जी हाँ ‘ प्रिया अपने को सँभालते हुए संयत स्वर में बोली –“डॉक्टर आप मुझे बताइए प्लीज ,मैं सब सुन सकती हूँ ”।  डॉक्टर ने कहा –“ तुम्हे अपने को सम्भालना होगा तभी मैं बता सकती हूँ ”।  प्रिया और भी सचेत हो गई और बोली आप बताइए –“मैं सच सुन सकती हूँ ”।  डॉक्टर ने कहा –“ प्रिया तुम्हें ब्रेस्ट कैंसर है और तुम्हे जल्दी से जल्दी ऑपरेशन करवाना होगा नहीं तो तुम्हारी जान को खतरा है ”  प्रिया को बहुत जोर का झटका  लगा लेकिन प्रत्यक्ष में उसने अपने को संयत कर के डॉक्टर से  कहा –“ डॉक्टर मैं कब तक ऑपरेशन करवा सकती हूँ ? कैंसर कौन से स्टेज में है ?  डॉक्टर ने कहा –“ बीमारी एडवांस  स्टेज में है आपको जल्दी से जल्दी ऑपरेशन करवा लेना चाहिए । जितना लेट करोगी   खतरा बढ़ता ही जायेगा ।  प्रिया उदास मन से घर लौट आई ,मन में कई तरह की शंकाएं और प्रश्नों का सैलाब उठा फिर भी उसने विवेक नहीं खोया और गर्म चाय का प्याला ले प्रश्नो के भंवर में गोते लगाने लगी । बहुत ही पशोपेश में थी कि यह सच  प्रेम को कैसे बताए ? `क्या वह इसे सहजता से लेगा ,उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? वह काम छोड़ कर आ पायेगा ?  उसका शारीरिक सौंदर्य ख़त्म होने के बाद भी क्या वह उसे उतना ही प्यार करेगा ? क्या उसका जीवन ऐसे ही  सुखमय चलेगा या कैंसर रुपी तूफ़ान उसके जीवन की दशा -दिशा बदल देगा ? ऐसे ही प्रश्नों के चक्रव्यूह में उलझती उसकी आँख कब लग गई उसे पता ही नहीं चला  ,आँख तो तब खुली जब उसकी पड़ोसन शारदा   ने दरवाजे की घंटी बजाई । उठकर दरवाजा खोला तो देखा शारदा मुस्कराती हुई खड़ी  थी ,उसको उनींदा देख कर पूछ ही लिया –`क्या हुआ तुम इस वक़्त सो रही थी ,तबियत तो ठीक है न ‘।  उसने अपने को संयत कर उत्तर दिया ` हाँ मैं ठीक हूँ थोड़ा तबियत सुस्त है तो झपकी लग  गई थी ‘।   शारदा ने कहा – एक दो दिन से तुम बाहर नहीं दिखी इसलिए तुम्हारा हाल चाल जानने आ गई । सब ठीक है न ? मैंने उत्तर दिया हाँ सब ठीक है । थोड़ी देर बैठ कर शारदा चली गई ।  मन में फिर वही प्रश्न जैसे मेरे अस्तित्व को  लीलने के लिए  मुँह उठाए  खड़े थे । बहुत अंतर्द्वंद के पश्चात प्रिया ने तै किया कि वह प्रेम को सच -सच बता देगी ,वह उससे बहुत प्यार करता है ,वह उसका इलाज करवाएगा और उसका ख्याल रखेगा ,वह उसे यूँ ही टूटने – बिखरने नहीं देगा । उसने अपने प्यार का आश्वासन  कई-कई  बार दोहराया है ,वह उसका साथ अवश्य देगा । आज ही मैं उसे फोन करके सब सच- सच बता दूँगी ।  प्रिया ने  आकर प्रेम को फोन किया -प्रेम ने फोन उठाते ही पूछा डॉक्टर ने क्या कहा ? प्रिया फिर असमंजस में पड़  गई कि  सच बताये या नहीं ?क्या उसे सच बताना चाहिए अभी क्योंकि वह बहुत दूर है ,यह जानकर उसके दिल में क्या बीतेगी । इसी अंतरद्वंद में उलझी  वह कुछ समय तक कुछ बोल नहीं पाई । कंठ अवरुद्ध हो रहा था ,कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? बताए या न बताए ,अत्यधिक दुविधा में उलझी थी तभी  प्रेम ने उधर से हेलो हेलो कहा ,,,क्या हुआ तुम कुछ बोल क्यों  नहीं रहीं हो ,,,,जल्दी बताओ मुझे चिंता हो रही  है ।   प्रेम की बेचैनी सुनकर प्रिया ने   हिम्मत जुटा कर कहा `प्रेम तुम शीघ्र वापस आ जाओ मुझे तुम्हारी बहुत जरुरत है’ ।  प्रेम ने कहा –`ऐसा क्या हो गया तुमको जो मेरे आए बिना ठीक नहीं हो सकता‘? प्रिया ने अस्फुट शब्दों में  कहा –“ मुझे स्तन कैंसर है और अगर शीघ्राति शीघ्र आपरेशन नहीं करवाया गया तो मेरी जान को खतरा है” ।   उधर से प्रेम का कोई उत्तर न पाकर उसने हेलो,,,,,,,हेलो ,,,,,,हेलो कई बार कहा  ,,,सुन रहे हो न प्रेम ?   प्रेम को प्रिया की कैंसर की बात सुनकर जैसे लकवा मार गया हो ,तुरंत कुछ उत्तर न दे सका ।   प्रिया  को लगा जैसे फोन कट गया हो ,और वह बार -बार  रिसीवर को कान  में लगाकर देखती कि  डायल टोन  आ रही है या नहीं ।  डायल टोन  आ रही थी इसलिए वह  लगभग चिल्लाते हुए बोली  हेलो,,,हेलो ,,,हेलो  `प्रेम तुम  सुन रहे हो न ,तुम उधर हो न। …. कुछ तो बोलो प्रेम ?  क्या हुआ तुम ठीक तो हो न  ?’  बहुत मुश्किल से प्रेम ने अस्फुट शब्दों में  इतना ही कहा `ऐसा … Read more

गैंग रेप

सुबह-सुबह ही मंदिर की सीढ़ियों के पास एक लाश पड़ी थी,एक नवयुवती की। छोटा सा शहर था, भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। किसी ने बड़ी बेदर्दी से गले पर छुरी चलाई थी,शीघ्र ही पहचान भी हो गई,सकीना!!! कई मुँह से एक साथ निकला। सकीना के माँ बाप भी आ पहुंचे थे,और छाती पीट-पीट कर रो रहे  थे। तभी भीड़ को चीरते हुए रोहन घुसा,  बदहवास, मुँह पर हवाइयां उड़ रही थी। उसको देखते ही,कुछ मुस्लिम युवकों ने उसका कॉलर पकड़ चीखते हुए कहा, ये साला—-यही था कल रात सकीना के साथ,मैं चश्मदीद गवाह हूँ। मैंने इन दोनों को होटल में जाते हुए देखा था, और ये जबरन उसको खींचता हुआ ले जा रहा था। भीड़ में खुसफुसाहट बढ़ चुकी थी। रोहन पर कुकृत्य के आरोप लग चुके थे। रोहन जितनी बार मुँह खोल कुछ कहने का प्रयास करता व्यर्थ जाता। दबंग भीड़ उसको निरंतर अपने लात घूंसों पर ले चुकी थी। पिटते पिटते रोहन के अंग-प्रत्यंग से खून बह रहा था। तभी दूसरी ओर से हिन्दू सम्प्रदाय की भीड़ का प्रवेश, साथ मे सायरन बजाती पुलिस की गाड़ियां। जल्दी ही रोहन को जीप में डाल अस्पताल ले जाया गया। उसकी हालत नाजुक थी। बार बार आंखें खोलता और कुछ कहने का प्रयास करता और कुछ इशारा भी— पर शाम होते होते उसने दम तोड़ दिया। उसका एक हाथ उसके पैंट की जेब पर था।       डॉ आरिफ ने जब उसका हाथ पैंट की जेब से हटाया तो उन्हें एक कागज दिखा, उस कागज़ को उन्होंने निकाला, पढ़ा। कोर्ट मैरिज के कागज़ात। पीछे से पढ़ रहे एक युवक ने उनके हाथ से कागज छीन उसके टुकड़े टुकड़े किये और हवा में उछाल दिया।     देखते देखते, शहर में मार काट मच चुकी थी।जगह जगह फूंकी जाती गाड़ियां, कत्लेआम, —दो सम्प्रदाय आपस मे भीड़ चुके थे।चारों तरफ लाशों के अंबार। प्रशासन इस साम्प्रदायिक हिंसा को काबू में करने  की भरसक कोशिश कर रहा था, पर बेकाबू हालात सुधरने का नाम नही ले रहे थे। अखबार, टी वी सनसनीखेज रूप देकर यज्ञ में आहुति डालने का काम कर रहे थे।    ऐसे में ही बेरोजगार हिन्दू नवयुवकों की एक टोली, जिसके सीने में प्रतिशोध की अग्नि धधक रही थी,उनको सामने से आती नकाब पहने,दो युवतियां दिखीं। आंखों ही आंखों में इशारा हुआ, और एक गाड़ी स्टार्ट हुई। युवतियों के मुँह पर हाथ रख उनकी चीख को दबा दिया गया। काफी देर शहर में चक्कर काटने के बाद गाड़ी को एक सुनसान अंधेरे स्थान पर रोक दिया गया। युवतियां अभी भी छटपटा रही थीं सो उनके मुंह मे कपड़ा ठूंस हाथ बांध दिए गए। और सिलसिला एक अमानवीय अत्याचार का—- बेहोश पड़ी युवतियों को घायल अवस्था मे एक रेल की पटरी के पास फेंक गाड़ी फरार हो ली। सुबह के अखबारों में उन युवतियों के खुले चेहरे के फोटो छपे ,पहचान के लिए। फौरन थाने में रोती कलपती निकहत बी पहुंची, हाय अलका! सुमन! मेरी बच्चीयों, तुम को सुरक्षित मुस्लिम मोहल्ले से निकाल देने का हमारा ये प्रयास ये रंग लेगा, पता न था।  हाय मेरी बच्चियां, खुदा जहन्नुम नसीब करे ऐसे आताताइयों को। उनका विलाप, करुण क्रंदन, बहते हुए आंसुओं को रोक पाने में समर्थ न था। और उन आताताइयों में से, 2 आतातायी ,उन युवतियों के चचेरे भाई सन्न से बैठे थे—– उनकी समझ मे नही आ रहा था ये हुआ क्या??———–              रश्मि सिन्हा यह भी पढ़ें ………. तुम्हारे बिना काकी का करवाचौथ उसकी मौत यकीन आपको आपको  कहानी  “गैंग रेप  “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords:gang rape, crime, crime against women, victim

तुम्हारे बिना

नीलेश और दिया की शादी को १० साल हो गए हैं | उनके कोई संतान नहीं है | संतान के न होने के खालीपन को भरने के लिए दोनों ने अपना – अपना तरीका खोज निकाला है | जहाँ दिया जरूरत से ज्यादा घर को व्यस्त रखने लगी है | वही नीलेश जरूरत से ज्यादा अस्त – व्यस्त रखने लगा है | और यही उनके बीच लड़ाई का सबसे बड़ा मुद्दा है | जब भी दिया नीलेश को चीजे ठीक से रखने को कहती है | नीलेश झगड़ना शुरू कर देता है | झगडा किसी भी बात पर हो | इस झगडे में उसका एक जुमला आम है ,” तुम जाओ तो कभी , तुम्हारे बिना मैं बहुत आराम से रह लूंगा | ये सुनते ही दिया की आँखों में आँसू आ जाते हैं और दोनों की बातचीत बंद हो जाती है | गोया की दोनों की बातचीत केवल झगड़ने के लिए ही होती है | हर झगड़े के बाद हफ़्तों के लिए फिर शांति | इस शांति में नीलेश को एक बात बहुत खलती है की हर चीज करीने से क्यों रखी है | वाशबेसिन पर हाथ धोने जाओ तो चमचम करता | किचन में सब बर्तन साफ़ – सुथरे | घर का सारा सामान यथावत | एक  झूठा कप भी १० मिनट डाईनिंग टेबल पर आराम नहीं कर पाता | इधर चाय पी के रखा उधर महारानी सिंक में डाल देती हैं | लिहाजा वो पूरी कोशिश करता है की सामान बिखेरे | घर – घर सा लगे | कोई शो रूम नहीं | अब दिया है की मानती ही नहीं बात चाहे न करे पर काम टाइम पर ही कर के देगी | ऐसी बीबी से तो भगवान् बचाए | पर दिया तो दिया इधर बातचीत बंद हुई और उधर उसने अपना काम दुगना तिगुना बढ़ा दिया | आखिरकार एक दिन नीलेश से ही नहीं रहा गया | उसने देखा की कल ही बेड शीट  बदली थी आज फिर बदल दी | धोने में मेहनत ही नहीं साबुन भी लगता है | उसने आव – देखा न तव चिल्लाना शुरू कर दिया | साबुन कोई तुम्हारे पिताजी नहीं दे गए थे | दिन भर खटता हूँ तब जा कर मुट्ठी भर पैसे आते हैं | उसे यूँ ही उड़ा  देती हो | पिंड छोड़ो मेरा  तुम्हारे बिना ये घर स्वर्ग हो जाएगा | जो चाहूँगा करूँगा | जैसे चाहूँगा जियूँगा | दिया भी कहाँ चुप होने वाली थी |  आज रोई नहीं बस फट पड़ी किसी प्रेशर कुकर की तरह | ठीक है , ठीक है , चली जाउंगी मैं | किसी आश्रम में पड़ी रहूंगी | पर अब तुम्हारे  साथ नहीं  रहूंगी | कहते हो ना तुम्हारे बिना अच्छा लगेगा | अब रहना मेरे बिना | ये झगडा तो रोज की बात थी | झगडा हुआ और हमेशा की तरह बातचीत बंद हो गयी | सुबह नीलेश ऑफिस चले गए | जब लौटे तो गेट में ताला  लगा हुआ था | पड़ोसन ने चाभी दी | पूंछने पर बस इतना  बताया भाभी जी दे गयी हैं | नीलेश को थोडा अजीब सा लगा | ऐसे तो कभी नहीं किया उसने | आज अचानक क्यों | ताला खोलते ही अन्दर का दृश्य उससे भी ज्यादा अजीब था | पूरा घर बिखरा पड़ा था | सोफे के कुशन  कल रात की तरह ही बिखरे थे | डाईनिग टेबल पर सुबह के नाश्ते की प्लेटे थी | बेडशीट में हज़ारों सिलवटें थी | कैसे कोई  सो सकता है इसमें |  किचन का सिंक बर्तनों से बजबजा रहा था |उसे उबकाई सी आई |  और बाथरूम … वो तो बुरी तह से महक रहा था | उफ़ , इतनी बदबू तो पहले कभी नहीं आई | ये … ये दिया आखिर हैं कहाँ ? नीलेश ने इधर – उधर देखा | मेज पर एक पर्चा सा दिखाई दिया | नीलेश ने दौड़ कर परचा उठाया | दिया ने ही लिखा था | नीलेश तुम हमेशा कहते हो न , तुम्हारे बिना मैं बहुत सुखी रहूंगा | लो आज मैं जा रही हूँ | अब आराम से रहो मेरे बिना | मैं अब लौट कर नहीं आउंगी | मुझे खोजने की कोशिश मत करना | मैं चाहे आश्रम में रह लूँ पर रहूंगी तुम्हारे बिना ही |  नीलेश दिया के शब्द पढ़ कर रोने लगा | दिया मेरी दिया कहाँ हो तुम | देखो आज तुम्हारा घर कितना बेतरतीब पड़ा है | तुम कितनी मेहनत  करती थी इसे संवारने में | मेरी हर चीज का ख़याल रखती थी | मैं तो यूँ ही झगड़ता था | मैं कैसे रह पाऊंगा तुम्हारे बिना | तभी नीलेश को अपने कंधे पर एक हाथ महसूस हुआ | दिया खड़ी थी | उसकी आँखें भी नम थी | नीलेश के गले से लग कर बोली मैं भी नहीं रह पाऊँगी  तुम्हारे बिना | वो तो पड़ोसन ने मुझे ऐसा करने को कहा था | ताकि  मैं तुम्हारे रोज – रोज के तानों से बच सकूँ | चलों मैं जल्दी से घर साफ़ कर के तुम्हारे लिए चाय बनाती हूँ |  डेढ़ घंटे की मेहनत  के बाद दिया चाय का कप ले कर आई | नीलेश ने हँसते हुए लिया | आज उसे साफ़ घर और साफ़ कप की अहमियत महसूस हो रही थी | कप में थोड़ी से चाय बची थी वो पलंग पर  कप ले कर चला गया | और अखबार पढने लगा | कप उठाना चाहा तो पलट गया | नयी बिछी चादर चाय  की चुस्की लेने लगी | तभी दिया वहां आई | ये देखते ही उसका पारा सातवे आसमान पर पहुँच गया | नीलेश का हाथ खींच कर उसे उठाया , बेडशीट  बदलते हुए बड बडाती जा रही थी | एक काम भी करना तुम्हे ठीक से नहीं आता | कितना करूँ मैं | दिन भर खटती हूँ | और तुम ………. नीलेश भी कहाँ चुप रहने वाले थे | उफ़ सफाई , सफाई , सफाई … कब छोडोगी मुझे | तुम्हारे बिना स्वर्ग बन जाएगा ये घर ….. दोनों की बातचीत फिर बंद है | नीलम गुप्ता यह भी पढ़िए ……. सवाल का जवाब फुंसियाँ प्रायश्चित अस्तित्व आपको आपको  … Read more

सवाल का जवाब

जेब में पड़ा आखिरी दस का नोट निकाल उसे बड़े गौर से निहार रहा था, ये सोचते हुए की अभी कुछ देर में जब यह भी खत्म हो जायेगा,फिर क्या होगा, पान वाले की दूकान से बीडी ख़रीदी और चिल्लर जेब में रखते हुए वापस अपना रिक्शा लेकर सिटी स्टेशन की जानिब बढ़ चला… सुबह के सात बजने आ रहे थे,इस वक़्त स्टेशन पर पक्का सवारी मिल जाएगी…शाम तक दो चार सौ की जुगाड़ कर लेगा तो खाना वगैरह कर के कुछ पैसे बचा लेगा….टीन के छोटे डिब्बे के ढक्कन को काट कर बनाई गोलक में डालने के लिए, वो पैसे बचा तो रहा था लेकिन बेमकसद सा….अक्सर सोचता , की इन बचाए हुए पैसों का वो करेगा क्या…घर में उसके और पत्नी के अलावा था ही कौन….यहाँ कोई नातेदार रिश्तेदार था नहीं…. जिस ईश्वर  की वो रोज़ उपासना करता था,और जिस कथित परमपिता सृष्टि के पालक पर उसका अटूट विश्वास था,उसने कोई सन्तान भी न दी थी…. ना ही इतना पैसा दिया था जिससे कि वोह अपना या अपनी पत्नी का इलाज करवा सकता…उसे यह भी नहीं मालूम था की कमी किस में थी,उसमे या उसकी पत्नी में,यार दोस्त अक्सर सलाह देते…..दूसरी कर लो, लेकिन वो हंस के अनसुनी कर जाता….उसको अपनी पत्नी से अगाध प्रेम था,  गरीबी में जीवन यापन करने वालों के पास सम्पदा के नाम पर प्रेम और विश्वास की अकूत दौलत होती है…उसे भी नाज़ था अपनी इस दौलत पर….जिसे उसने हमेशा से अपने रिश्ते में संजो कर रखा था…अक्सर वो अपनी पत्नी को घर के कामों में मसरूफ बड़े गौर से देखता….पसीने में भीगती हुई,तीन तरफ से मिटटी और एक तरफ से बांस लगा कर भूस और छप्पर से बनाई हुई उसकी झोपडी जिसे वो बड़े इत्मिनान और प्यार से “घर” कहते थे… उस घर की मालकिन यानि उसकी पत्नी बड़े जतन से उसके घर को सहेजा करती थी…वो कैसे इस औरत को छोड़ कर दूसरी कर ले…उससे ये पाप ना होगा…. रोज़ाना गुल्लक में पैसे डालते समय वो गुल्लक का वज़न भी देखता जाता…और फिर ख़ुशी और इत्मिनान के साथ चिंता और गहन विचार के भाव एक के बाद एक उसके चेहरे पर आते और फिर अगले ही क्षण चले भी जाते थे, हाँ अक्सर ये सवाल वो खुद से पूछता, उसने ये गुल्लक क्यों रखी थी…अंतर्मन से जो जवाब आता वो अस्पष्ट होता…. एक दिलासा जैसे” वक़्त ज़रूरत पर काम आएगा”… और वो फिर निश्चिंत होकर गली में पलंग डाल उस पर पड़ जाता,दोनों पति पत्नी की ज़िन्दगी इसी तरह गुज़र रही थी…एक दिन स्टेशन की सवारी उतार कर वापस घर आते वक़्त मोड़ पर ही एक आवाज़ सुनाई पड़ी….. “सुनो” उसने मुड़ कर नही देखा,वो बहुत थक चूका था…अब और सवारी नहीं बैठाना चाहता था…सवारी को मना करने पर लोग अक्सर भड़क जाते हैं और गुस्सा करते हैं,वो कई बार सवारियों को सीधे मना करने पर “सभ्य संभ्रांत” लोगों के हाथ मार खा चूका था….मुंह पर पड़ते तमाचे के साथ ज़ोरदार गाली भी“साले चलेगा कैसे नहीं ! ये रिक्शा क्या घुमने के लिए लेकर निकला है” उसकी आंख भर आती …कुछ नहीं कर पाता वो इन “बड़े लोगों” का…लिहाज़ा मार खाने या गाली सुनने के डर से सवारी न बिठाने का मन होने पर वो रिक्शा लेकर चुपचाप आगे बढ़ता चला जाता…..लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ….चार पेडल और मारने के बाद उसे फिर वही आवाज़ सुनाई दी“अरे भैय्या ज़रा रुको ना” आवाज़ किसी महिला की थी….उसने ब्रेक लगाया…..जनानी सवारियां बहस नहीं करतीं..मार पीट भी नहीं…इस वक़्त रात के ग्यारह बजे के करीब यहाँ कौन औरत हो सकती है…उसके मन में मदद का भाव जाग गया था…. कहीं सुन रखा था जो दूसरों की मदद करते हैं भगवन उनकी मदद करेगा…उसको भगवान् से कोई ख़ास उम्मीद नहीं थी…लेकिन दूसरों की मदद करने पर उसे एक अजीब सा सुकून ज़रूर अनुभव होता था, इसी सुकून की लालच में वो उस दिन रुक गया था….उसने देखा.. एक महिला गोद में एक छोटा बच्चा लिए थी…“सदर अस्पताल चलो जल्दी”  वो समझ गया की मामला क्या है…बिना देर किए उसने रिक्शा घुमाया और सरकारी अस्पताल की जानिब मोड़ दिया….रस्ते में उसने सोचा की महिला से पूछे…थोड़ी हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया…बहन क्या बच्चा ज्यादा बीमार है.?चिंतित स्वर में जवाब मिला“हाँ , इसको निमोनिया हो गया है” वो तेज़ी से पेडल मारता जा रहा था और मन में सोचता जा रहा था…सरकारी अस्पताल में क्या इलाज होगा…..देखा था उसने, किस तरह इसी निमोनिया में उसके पडोसी श्याम की बिटिया ने दम तोडा था…उसी सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया था उसको भी….इलाज नाम मात्र को….लापरवाही हद से ज्यादा…नतीजा बच्ची की मौत….उसने समझाना चाहा-, “बहनजी वहां इलाज सही नहीं होगा,बड़े लापरवाह लोग हैं आप बच्चे को किसी दूसरी जगह दिखा लो” “कहाँ?”“जितिन डाकसाब हैं उधर रस्ते में,बच्चों के डॉक्टर हैं,उनके अस्पताल में अच्छा इलाज होता है” महिला जो अकेली थी और बेहद परेशां भी..एक मिनट तक सोचने के बाद उसने हामी भर दी…”ठीक है भैया वहीँ चलो…”रिक्शा अब एक निजी अस्पताल की जानिब चल पड़ा….अस्पताल पहुचते ही डॉक्टर ने फ़ौरन बच्चे को देखा और एडमिट कराने को कह दिया…. अस्पताल की रौशनी में महिला को देख बसंत ने समझ लिया की यह भी उसी की तरह कोई नसीब की मारी गरीब इन्सान है…. मैले पुराने कपडे…बिखरे बाल पीला रंग फटी फटी आँखें…..काउंटर से परचा बनवाने गयी तो वहां बैठे आदमी ने फ़ौरन तीन हज़ार जमा करवाने को कहा…महिला शायद इसके लिए तैयार थी लेकिन पूरी तरह नहीं…उसने अपने साथ लाये पुराने मैले से कपडे के पर्स से दो हज़ार गिनती के निकाल कर उसके हवाले किए और कहा “भैया अभी इतने पैसे ही ला सकी हूँ,बाकी के कल जमा करा दूंगी” काउंटर बॉय ने पैसे गल्ले के हवाले करते हुए कहा “देखिये कल तक आप पूरे पैसे जमा करा दीजिएगा,बच्चे की हालत नाज़ुक है और उसको गहरे इलाज की सख्त ज़रूरत है,वरना कुछ भी हो सकता है” “कुछ भी” ……..? एक पल को महिला कांप उठी…. बसंत वहीँ खडा देख रहा था…जो शायद अब तक अपने मेहनताने के लिए रुक हुआ था,पर यह सब देख कर वो अपनी मजदूरी भूल गया…..महिला ने उसकी ओर क्षमायाचक दृष्टि से देखा और नज़रें झुका लीं…बसंत को खुद शर्मिंदगी का एहसास हुआ और … Read more

किस्सा बदचलन औरत का

बदचलन ! इसी नाम से पुकारते थे उसे सब । मेरे पिताजी ने भी तो माँ को बताया था उसके बारे में । माँ ने भी जब से सुना उसके बारे में , उसे फूटी आँख न सुहाती थी वह  । वह थी संध्या, हमारी नयी पड़ोसन जो कि मुंबई से आई थी  । देखने में अत्यंत खूबसूरत , छरहरी काया , गोरा रंग, सुनहरी बाल, मुस्कुराहट तो उसके होठों पर सजी ही रहती । आते-जाते सबसे हेलो, हाई, हाउ आर यू ? बोल ही देती  और अगर दूर से किसी को देखती तो हाथ हिला देती जिसे अँग्रेज़ी में वेव करना कहते हैं । शायद यह तरीका था उसका यह दिखाने का कि हाँ मैंने आप को पहचान लिया । मोहल्ले में सभी  औरतों व मर्दों से बात करती ।  जीन्स पहन कर जब वह जाती मोहल्ले के सभी मर्दों की नज़रें  उस पर टिक ही जातीं । मुझे वह बड़ी अच्छी लगती । लेकिन औरतें ! सब सामने तो उससे अच्छी बोलतीं लेकिन पीठ पीछे लगी रहतीं उसकी चुगली करने ।मेरी माँ भी उसके बारे में कुछ सुन कर आती तो पिताजी को ज़रूर बताती  । माँ कहतीं “ पति तो इसका यहाँ रहता नहीं , लगी रहती है ,नैन मटक्का करने दूसरे मर्दों से “ । मुझे भी हिदायत देतीं, कहतीं ” दूर  रहना उस से , ना जाने क्या पट्टी पढ़ादेगी ?”   भगवान जाने कैसी औरत है ? मैं भी माँ से बराबर विवाद करती। कहती ” माँ अच्छी तो है , क्या बुराई है उस में ? हँसमुख है , सब से बात करती है बस !  माँ कहती जाने दे तू ना समझेगी , मर्दों से कुछ ज़्यादा ही बात करती है । मैं कहती हाँ माँ ” तुम औरतों से बात करे तो व्यवहार और अगर पड़ौसी के नाते मर्दों से बोले तो ” बदचलन ” । माँ मेरे विवाद का जवाब कभी न दे पाती । सो चुप हो जाती, कहती ” जाने दे , तू तेरे काम में मन लगा ।उसकी बातों में व्यर्थ समय मत गँवा ।  मेरी भी नयी -नयी नौकरी थी , काम कुछ एसा था कि अंजान लोगों को फ़ेसबुक पर संदेश देने होते और ई-मेल भी भेजने पड़ते और दूसरों के संदेशों का जवाब भी देना पड़ता । इसी सिलसिले में कई लोग मुझे फ्रेंड्स रिक्वेस्ट भी भेज देते और कई अंजान लोग तरह-तरह के संदेश भी देने लगे । जिनके जवाब देना मुझे अच्छा न लगता । कई लोगों को जवाब दे भी देती किंतु फिर वे अपनी सीमा लाँघने की कोशिश करते । उनसे मुझे कन्नी भी काटनी पड़ती । जिससे वे चिढ़ जाते और ऊट-पटांग मेसेज भी देने लगते ।  इन सब हरकतों से मैं थोड़ा परेशान रहने लगी , सोचा माँ को बताऊं , लेकिन माँ मेरी क्या मदद करेगी ? जाने दो, नहीं बताती हूँ एसा सोचती मैं ।फ़ेसबुक पर होने के कारण कई बार वे संदेश रिश्तेदारों एवं पिताजी के मित्रों ने भी पढ़े । पिताजी को तो किसी से यहाँ तक सुनने को मिला कि उनकी बेटी बड़े ग़लत कार्यों में फँसी है । यह सुनते ही पिताजी तो आग बाबूला हो गये । मुझे सख़्त हिदायत मिल गयी नौकरी छोड़ने एवं फ़ेसबुक बंद करने की । मैंने अपने  पिताजीव माँ को बड़ी मुश्किल से समझाया कि मैंने कुछ ग़लत नहीं किया है , लेकिन लोगों के सोचने का तरीका ही कुछ एसा है ।  पिताजी को बात कुछ समझ में आई । माँ भी समझ गयी कि किस तरह से मुझे झूठा बदनाम किया जा रहा था । माँ व पिताजी शांत हो चुके थे ।  अगली बार जैसे ही माँ ने संध्या के बारे में कुछ बोलना चाहा मैंने उन्हें वहीं टोक दिया । बस करो माँ , और कितना बदनाम करोगी उसे । मोहल्ले की औरतों के साथ तुम भी फालतू की बातें बनाती रहती हो । इस बार माँ चुप हो गयी , कहने लगी ठीक ही कहती हो तुम ,संध्या तो अच्छी ही है व्यवहार एवं रूप-रंग दोनों में ।  फिर मैंने उन्हें समझाया, उसके पति यहाँ रहते नहीं, पड़ौसी होने के नाते सभी औरतों और मर्दों से बात कर लेती है , सभी से एक समान व्यवहार करती है । लेकिन उसके रूप-रंग एवं पहनावे के कारण शायद सभी उसे ग़लत नज़रों से देखते एवं कुछ तो अपनी सीमा लाँघने की कोशिश भी करते , जब वे अपने मकसद में कामयाब नही हो पाते तो उसे बदनाम करते और खाम्ख्वाह ही औरतों ने उसे संग्या दे दी थी बदचलन ! अब माँ का नज़रिया संध्या के लिए बिल्कुल बदल गया था  । वह समझ गयी थी कि अकेली या बेसहारा औरत को तो लोग उस अंगूर की बेल की तरह समझते हैं जिसका कोई भी मालिक नहीं । कोई भी आए, अंगूर तोड़े और खा ले । अगर अंगूर ना खा पाए तो कह दे ” अंगूर खट्टे हैं ” । यही हो रहा था संध्या के साथ । अब माँ ने बीड़ा उठा लिया था मोहल्ले की दूसरी औरतों को समझाने का और संध्या के साथ हिल-मिल कर रहने का ।      रोचिका शर्मा,चेन्नई     डाइरेक्टर,सूपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी      (www.tradingsecret.c यह भी पढ़ें … ब्लू व्हेल का अंतिम टास्क यकीन ढिंगली मोक्ष आपको आपको  कहानी  “ किस्सा बदचलन औरत का  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    keywords: women, characterless women