गली नंबर -दो
“पुत्तर छेत्ती कर, वेख, चा ठंडी होंदी पई ए।” बीजी की तेज़ आवाज़ से उसकी तन्द्रा भंग हुई। रंग में ब्रश डुबोते हाथ थम गए। पिछले एक घंटे में यह पहला मौका था, जब भूपी ने मूर्ति, रंग और ब्रश के अलावा कहीं नज़र डाली थी। चाय सचमुच ठंडी हो चली थी। उसने एक सांस में चाय गले से नीचे उतारते हुए मूर्तियों पर एक भरपूर नज़र डाली। दीवाली से पहले उसे तीन आर्डर पूरे करने थे। लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों से घिरा भूपी दूर बिजली के तार पर अठखेलियाँ करते पक्षियों को देखने लगा। हमेशा की तरह आज भी एक आवारा-सा ख्याल सोच के वृक्ष की फुनगी पर पैर जमाने लगा, आखिरकार ये पक्षी इतनी ऊँचाई पर क्यों बैठे रहते हैं? ‘ऊंचाई‘, दुनिया का सबसे मनहूस शब्द था और ऊँचाइयाँ उसे हमेशा डर की एक ऐसी परछाई में ला खड़ा करती थीं कि जिसके आगे उसका व्यक्तित्व छोटा, बहुत छोटा हो जाता था! दूर आसमान में सिंदूरी रंग फैलने लगा था जिसकी रंगत धीरे-धीरे भूपी के रंगीन हाथों सी होती चली गई। —————————— रंगों का चितेरा भूपी उर्फ भूपिंदर, जस्सो मासी का छोटा बेटा है और हमारी इस कहानी का नायक भी है! यूं कहने के लिए उसमें नायक जैसे कोई विशेषता नहीं थी जिसे रेखांकित किया जाए! अगर सिर्फ उसकी दुनिया ही हमारी कहानी का दायरा हो तो इस खामोश कहानी में न कोई आवाज़ होगी और न ही संवादों के लिए कोई गुंजाइश रहेगी! यहाँ भूपी की इस रंगीन कायनात में इधर-उधर, तमाम रंग जरूर बिखरे हैं पर इंद्रधनुषी रंगों से सजी ये कहानी इन सब रंगों के सम्मिश्रण से मिलकर बनी है यानि वह रंग जो बेरंग है! तो कहानी भूपी से शुरू होती है, भूपी की उम्र रही होगी लगभग उनतीस साल, साफ रंगत जो हमेशा बेतरतीब दाढ़ी के पीछे छिपी रहती थी, औसत से कुछ कम, नहीं कुछ और कम लंबाई, इतनी कम कि देखते ही लोगों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ जाती थी! पढ़ने लिखने में न तो मन ही लगा और न ही घर के हालात ऐसे थे कि वह ज्यादा पढ़ पाता! कुल जमा पाँच जमात की पढ़ाई की थी पर मन तो सदा रंगों में रमता था उसका! पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाखू, शराब जैसा कोई ऐब उसे छू भी नहीं गया था! हाँ, अगर कोई व्यसन था तो बस आड़ी-तिरछी लकीरों का साथ और रंगों से बेहिसाब मोहब्बत जो शायद उसके साथ ही जन्मी थी और साथ ही जन्मी थी एक लंबी खामोशी जो हर सूं उसे घेरे रहती थी! उसका कोई साथ या मीत था तो उसके सपने, जो दुर्भाग्य से सपने कम दुस्वप्न ज्यादा थे! भूपी की खामोश दुनिया अक्सर उन दुस्वप्नों की काली, सर्द, अकेली और भयावह गोद में जीवंत हो जाती! ये सपने अब उसकी आदत में शुमार हो गए थे और इनका साथ उसे भाने लगा था! कम ही मौके आए होंगे जब उसे किसी ने बोलते सुना था! यकीनन मुहल्ले से गाहे-बगाहे गुजरने वालों को यह मुगालता रहता होगा कि वह बोल-सुन नहीं सकता! कहते हैं जब होंठ चुप रहते हैं तो आँखें जबान के सारे फर्ज़ अदा करने लगती हैं पर भूपी की तो जैसे आँखें बस वही देखना चाहती थीं जिसका संबंध उसके काम से हो और आँखों के बोलने जैसी सारी कहावतें बस कहावतें ही तो रह गयी थीं! पता नहीं ये दुस्वप्नों के नींद पर अतिक्रमण का असर था या कुछ और कि ये आँखें अक्सर बेजान, शुष्क और थकी हुई रहा करती थीं! यह सहज ही देखा जा सकता था कि उन तमाम काली रातों की सारी कालिमा, सारा अंधेरा, सारा डर और सारा अकेलापन इन भावहीन आँखों के नीचे अपने गहरे निशान छोड़ गया था, हालांकि इनकी इबारत पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था, फैक्टरी में दिन भर मेहनत कर रात में गहरी नींद लेने वाली बीजी भी इन निशानों की थाह कब ले पायी थी! ——————————————- जस्सो मासी उर्फ़ बीजी उर्फ़ जसवंत कौर एक नेक, मिलनसार और खुशमिजाज़ औरत थी जो ज्यादा सोचने में यकीन नहीं रखती थी या उन्ही के शब्दों में कह लीजिये “जिंदड़ी ने मौका ही कदो दित्ता” (जिंदगी ने मौका ही कब दिया) ! गेंहुआ रंग, छोटा कद, स्थूल शरीर, खिचड़ी बाल और कनपटी पर किसी हल्के से रंग की चुन्नी के बाहर, ‘मैं भी हूँ‘ अंदाज़ में झूलती एक सफ़ेद लट, चौड़े पायंचे वाली सलवार-कमीज़ और चेहरे पर मुस्कान! मुल्क के बँटवारे ने सब लील लिया था, बँटवारे के दंश को सीने में छुपाए, काफी अरसा हुआ तरुणाई की उम्र में पति के साथ पंजाब से यहाँ आकर बसी थी! जाने वो दिल था, जिगर था या जान थी जो वहाँ छूट गया था, लोग कहते हैं वो अब पाकिस्तान था! बहुत समय लगा ये मानने में कि वो मुल्क अब गैर है, कि अब वो हमारा नहीं रहा, कि उसे अब अपना कहना खामखयाली है! और देखिये न उनकी उजड़ी गृहस्थी और टूटे दिल को उस दिल्ली में ठिकाना मिला जो खुद भी न जाने कितनी बार उजड़ी और बसी थी! पर दिल्ली जब हर बार उजड़ कर बस गयी तो जस्सो मासी की नयी-नयी गृहस्थी भला कब तक उजड़ने का दर्द सँजोती रहती! दिल्ली ने ही उनकी तरुणाई की वे जाग-जाग कर काटी रातें देखीं, तिनके-तिनके जोड़ कर जमाया घौंसला देखा और दिल्ली ही असमय पति के बीमार हो जाने पर 2 बच्चों के साथ हालात की चक्की में पिसती, उस जूझती फिर भी सदा मुस्कुराती माँ के संघर्षों की मौन साक्षी बनी! इन मुश्किलों ने उन्हे जुझारू तो बना ही दिया था, साथ ही वे छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाने को फिज़ूल मानने लगी थी! यूं भी जिंदगी ने उन्हे सिखाया था जब मुश्किलें कम न हो तो उनसे दोस्ती कर ली जाए, उन्हे गले लगा लिया जाए! यह एक निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों का मोहल्ला था, जहां रहते हुये लोगों को न तो बीत गए सालों की संख्या याद थी और न ही एक दूसरे से कब रिश्ता बना यह भी याद रहता था! अपने छोटे-छोटे सुखों को महसूसते और पहाड़ जैसे दुखों से लड़ने को अपनी आदत में शुमार किए उन लोगों का बड़ा-सा परिवार थी यह गली, जिसे गली नंबर 2 कहा जाता था! इन लोगों ने … Read more