प्रायश्चित

                                                                     उन दिनों जमशेद पुर में फैक्ट्री में फोर्जिंग प्लांट पर मेरी ड्यूटी थी  फोर्जिंग  प्लांट अत्यंत व्यस्त हो चुके थे। मार्च के महीने में टार्गेट पूरा करने प्रेशर जोरो पर था । बिजली के हलके फुल्के फाल्ट को नजर अंदाज इसलिए कर दिया जाता था क्यों कि सिट डाउन लेने का मतलब था उत्पादन कार्य को बाधित करना जिसे बास कभी भी बर्दास्त नहीं कर सकते थे । फिर कौन जाए बिल्ली के गले में घण्टी बाँधने । जैसा चल रहा है चलने दो बाद में देखा जायेगा । सेक्शन में लाइटिंग की सप्लाई की केबल्स को बन्दरों ने उछल कूद करके अस्त व्यस्त कर रखा था । कई जगह से केबल्स के इंसुलेशन भी उधड़ चुके थे । ये केबल्स सेक्शन के एक पिलर से होकर जाती थीं । वहीँ एक एंगल के किनारे गिलहरियों ने अपना घोसला बना रखा था ।  सेक्शन में एक ओवर हेड क्रेन भी चलती थी  । क्रेन चलाने के लिए तीन फेज सप्लाई की जरुरत होती थी यह सप्लाई नंगे ओवर हेड तारों से ली जाती थी तारों पर कोई इन्शूलेशन नहीं होता  क्यों कि इन्ही तारों पर क्रेन की सप्लाई के टर्मिनल में लगे रोलर  घूम कर चलते थे । इन्ही तारों की वजह से कई बार बन्दरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। एक बार तो एक बन्दर के बच्चे ने गलती से तार को छू लिया और चिपक गया था फिर उसकी माँ  उसे बचाने की कोशिस में चिपक गयी और बाकी दो और भी चिपक गये थे जो शायद उनकी सहायता में पहुचे थे । इस तरह चार बन्दरों की मौत एक साथ होना एक दुःखद हादसा था  । उनके चिपकने से एक फेज का फ्यूज उड़ गया था । अतः लाइन काट कर उन्हें उतारा गया था उसके बाद फिर सप्लाई चालू कर दी गयी थी । इन मशीनों के बीच में रहते रहते हम भी कितने मशीन बन चुके थे इस बात का आकलन तब हुआ था जब बॉस के चेहरे पर बन्दरों की मौत के बजाय सप्लाई चालू होने की ख़ुशी देखी थी । सप्लाई चालू होते ही वे मुस्कुराते हुए ऑफिस में चले गए थे । संवेदनाये इतनी निष्ठुर भी हो सकती हैं ये बात सोचते सोचते मैं भी मशीनों के बीच काम में गुम हो गया था ।       उस दिन कुछ महीनो बाद मेंटिनेंस के लिए मेरी सन्डे ड्यूटी लगाई गयी थी । सन्डे के दिन उत्पादन कार्य नहीं होता था सिर्फ प्लांट का मेंटिनेंस का कार्य होता था उस दिन बिजली की सप्लाई कांटेक्ट मोटरें और पैनल के अन्य पुर्जो की जाँच और मरम्मत का कार्य होता। दिए गए कार्य पूरे हो चुके थे । शाम 4 बजे तक कार्य पूरा हो चुका था । ऑफिस में इसी बीच मैकेनिकल ग्रुप के इंचार्ज कौसर अजीज भाई फुरसत के क्षणों में गप शप करने के वास्ते कमरे में दाखिल हो गए ।   ” अरे भाई तिरपाठी ! का हाल चाल  है यार ” । ” आओ कौसर भाई चाय आ रही है । अभी काम से फुरसत मिली है । और अपना सुनाओ ? “ मैंने कौसर भाई को बैठने का इशारा किया। कौसर भाई बैठ तो गए लेकिन सामान्य से हट कर कुछ शांत थे और विचार मन्थन करते नजर आये ।   ” क्या हुआ भाई जान आज इतना शांत क्यों “। ” अरे यार चिंता हो गयी है “। “किस बात की चिंता कौसर भाई? मैंने उत्सुकता बस उनसे पूछ लिया ।    अरे ऊ पिलर पर गिलहरी जो घोसला लगाये है । उसके दो बच्चे हैं और कल ऊ बच्चवन की माँ बिजली वाले तारो में फंस गयी थी । “ ” फिर क्या हुआ ?” मैंने पूछा । ” फिर का भड्ड से हुआ । जइसे दग गयी हो । नीचे गिरी तो देखा जल के मर गयी …… लेकिन ज्यादा बुरा ई हुआ उके लेदा  जइसन बच्चवन का का होगा ? वहीँ चिचियां रहे हैं कल से । मर तो जाएंगे ही ………… तिरपाठी यार कुछ सोचो उनके लिए …..।     कौसर अजीज इतना कहते कहते कुछ गम्भीर हो गए । ” ई के इंचार्ज तुम ही हो कितना पाप करोगे यार ? रोज बेचारे निर्दोष पशु पक्षी इसमें मरते हैं ……… तुम लोग गीदड़ होइ गए हौ … बॉस के सामने मुँह से आवाज ही गायब हो जाती है । ये पाप झेलोगे भी तुमही लोग ।”     कौसर भाई की बातों में दम था । वे मुस्लिम परिवार में पले बढे थे । बे मिशाल करुणा भाव के स्वामी थे । वह बहुत अच्छे गायक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति थे। कलाकार मन वाकई बहुत सरल होता है। उनकी यह धिक्कार मेरे अंतर्मन को झकझोर गयी थी और मैं अपने आप को अपराध बोध से नहीं बचा सका था।  सहसा मेरे मानस पटल पर वह पुरानी बात किसी सिनेमा रील की तरह घूम गयी थी जब मेरी मोटर सायकल के नीचे एक गिलहरी दब कर मर गयी थी । मुझे उसके बारे में तरह तरह के ख्याल आये थे मैं काफी चिंतित हुआ था। गलती मेरी ही थी मोटर सायकल की स्पीड तेज थी और गिलहरी तेजी के साथ सड़क को पार करते समय पाहिये के नीचे आ गयी थी। जब यह दुर्घटना हुई तो मैं काफी दिनों तक मानसिक संत्रास झेलता रहा था । मुझे लगा था कि गिलहरी जब मरी थी तो वह मुह में दबाये हुए कुछ ले जा रही थी शायद बच्चों के लिए । वो बच्चे उसका इंतजार किये हुए होंगे ….फिर उन बच्चों का क्या हुआ होगा ……। ये सारी बातें आज भी मुझे व्यथित कर जाती थीं । बार बार सोचता था प्रभु मेरा यह पाप कैसे उतरेगा ।      मन में विचार आने लगे शायद भगवान ने मुझे प्रायश्चित करने का अवसर दिया है । अचानक तन्द्रा टूटी और पत्नी का ख़याल आया । वह आधात्मिक विचारधारा से युक्त है जीवों के लिए दया भाव तो है पर … Read more

“गतांक से आगे” डिजिटल जवाब

विधि के नाम अभी -अभी एक मैगजीन आई थी, मेलबर्न से प्रकाशित। संपादक प्रसून गुप्ता  , उसके एक अच्छे मित्र, जिनसे उसकी भावनाएं जुड़ने लगी थी।पर विधि हतप्रभ थी, प्रसून की कहानी पढ़कर। प्रसून ने बोला था वो उसे सरप्राइज देगा, पर वो ऐसा सरप्राइज होगा , उसे विश्वास न हो रहा था। अपने और प्रसून के बीच हुई मधुर मीठी बातों, समस्याओं, हंसी मजाक को, प्रसून ने अलग रंग दे, उसमे अश्लील वार्तालाप भी सम्मलित कर दिए थे। सिर्फ विधि का नाम बदल दिया था।”डिजिटल प्रेम” नाम की इस कथा ने, कुछ पलों के लिए विधि के होश उड़ा दिए।   इतना क्रूर ,घिनौना मज़ाक? सिर्फ नाम बदलने से क्या?     उनकी दोस्ती फेसबुक पर अनजानी न थी। क्या मित्रता स्वस्थ नही हुआ करती? क्या सब लोग नाम बदलने से ही समझ न जाएंगे, कि कौन है, इस कहानी की हीरोइन—- आंख में आंसू आते जा रहे थे,और दिमाग विचार शून्य हो चला था। पति जिसे वो छोड़ आई थी, उसको छोड़ने का निर्णय सही होते हुए भी गलत लगने लगा था। कुछ सोचकर विधि ने  चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे मारे सर पर भी पानी—, और गर्म कॉफ़ी बना, लॉन में टहलते हुए पीने लगी । अब दिमाग थोड़ा प्रकृतिस्थ होने लगा था। विचार करने लायक।उसने अपना मोबाइल खोल व्हाट्स एप खोला। गनीमत उसने अपने और प्रसून के वार्तालाप डिलीट नही किये थे। कुछ सोच वो मैगज़ीन उठा,पड़ोस में रहने वाली अपनी सखी के यहां चली। मधु उसे देखते ही बोली, आओ मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी।पढ़ ली है, कहानी, तेरी परेशानी भी समझ रही हूँ,पर विधि क्या तुझे नही लगता, तुम एक फालतू की कहानी को बेवजह ही तूल दे रही हो? भावनात्मक लगाव होना कोई अनहोनी बात नही है,पर गलत है तो अंध विश्वास। हर रिश्ते के बीच मर्यादा का एक महीन सा तार होता है, बस उसे बनाये रखो। और रहा तेरी परेशानी का हल—- मधु मुस्कुराई,उसका भी हल देख लेना। फिलहाल तो ये रहे प्रसून गुप्ता के खास रिश्तेदारों और मित्रों की सूची। ऐसा कर इन सब को इस मैगज़ीन की एक एक प्रति भेज, ताकि उन्हें पता चले कि उनका भांजा, भतीजा, बेटा, दोस्त किस तरह के अश्लील साहित्य का सृजन कर रहा है। और भी सुन IPC की धारा 292, 293,294 में इस तरह के साहित्य, CD आदि के खिलाफ,सजा का प्रावधान है। कभी पुराने पति के पास लौटने की मत सोचना। वो तेरा दूसरा गलत कदम होगा। अगले दिन पत्रिका की मेल में सैकड़ों चिट्ठियां पहुंची थी। प्रसून गुप्ता  की उस कहानी की निंदा करते हुए। और प्रसून जोशी का एक प्रकार का सामाजिक बहिष्कार शुरू हो गया था। विधि अपनी छोटी सी बगिया में फूलों को पानी देते हुए उन्मुक्त भाव से मुस्कुरा रही थी।——/               रश्मि सिन्हा यह भी पढ़ें … मास्टर जी ऑटिस्टिक बच्चे की कहानी – लाटा आपको रश्मि सिन्हा जी की कहानी ““गतांक से आगे” डिजिटल जवाब कैसी लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

मास्टर जी

द्वारका प्रसाद जी पेशे से सरकारी विद्यालय में मास्टर थे । रायगढ़ नाम के छोटे से गाँव में उनकी पोस्टिंग हो गयी थी । पोस्टिंग हो क्या गयी थी यूँ समझिए कि ले ली थी । उन्होंने स्वयं ही माँग  की थी कि उन्हें उस छोटे से गाँव में तबादला  दे दिया जाए । गाँव में कोई इकके -दुक्के लोग ही थे जिन्हें पढ़े -लिखे लोगों की श्रेणी में रखा जा सकता था । बाकी की गुजर-बसर तो खेती , सुथारी या लुहारी पर ही चल रही थी ।  सभी हैरान थे कि द्वारका प्रसाद जी को इस छोटे से गाँव में क्या दिलचस्पी थी ?  कि वहाँ जा कर बस ही गयेखैर वह तो उनका निजी मामला था ।  गाँव के हर घर में उनकी ख़ासी पहचान थी । सारे गाँव के बच्चे उनके विद्यालय में पढ़ने आते । और अगर कोई न आता तो  मास्टर जी ढूँढ कर उन बच्चों के माता-पिता से बात करते और उन्हें समझाते कि वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें । किंतु गाँव के लोग बहुत ग़रीब थे वे बच्चों को  पढाना तो दूर  की बात अपने बच्चों के लिए दो वक़्त की रोटी भी न जुटा पाते सो अपने बच्चों को कुछ न कुछ काम धंधे में लगा रखा था ।  मास्टर जी ने सरकारी दफ़्तरों में जा-जा कर अफसरों से बात कर विद्यालय में खाने का भी प्रावधान करवा दिया ताकि गाँव के लोग खाने के लालच में अपने बच्चों को विद्यालय में दाखिला तो दिलाएँ । अब गाँव के अधिकतर बच्चे विद्यालय में पढ़ रहे थे ।    शाम के समय मास्टर जी गाँव के बीचों-बीच लगेनीमके पेड़ के गट्टे पर बैठ जाते।और अपने आस-पास गाँव के सारे लोगों को जमा कर लेते । किसी न किसी बहाने बात ही बात में वे उन्हें  पढ़ने के लिए प्रेरित करते ।  लेकिन गाँव के लोग तो पढ़ाई का मतलब समझते ही न थे । उन्हें तो बस हाथ का कुछ काम करके दो वक़्त की रोटी मिल जाए बस इतनी ही चिंता थी । और औरतों की शिक्षा के बारे में तो बात उनके सिर के उपर से ही जाती थी । दो टुक जवाब दे देते मास्टर जी को । कहते ” इन्हें तो बस चूल्हा-चौका करना है , उसमें पढ़ाई का क्या काम ” ? रही बात गाँव की बेटियों की , पढ़-लिख गयी तो पढ़ा-लिखा लड़का भी तो ढूँढना पड़ेगा ?  मास्टर जी बार-बार उन्हें समझाते कहते ” पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती” । दो अक्षर पढ़ लेंगे तो जेब से कुछ जाने वाला नहीं है । किंतु गाँव के लोग आनाकानी कर जाते ।किंतु जब किसी को कोई चिट्ठी लिखनी होती या कोई सरकारी दफ़्तर का कार्य होता तो मदद के लिए मास्टर जी के पास ही आते । मास्टर जी उनको मदद करने के लिए सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाते , उनकी चिट्ठियाँ लिखते व उनके अन्य कार्यों में भी सामर्थ्य अनुसार उनकी मदद करते ।धीरे-धीरे सभी लोगों का मास्टर जी पर विश्वास जमने लगा था । और मास्टर जी की प्रेरणा से प्रेरित हो कर मास्टर जी से थोड़ा- थोड़ा पढ़ना-लिखना सीखने लगे थे । और तो और गाँव की महिलाएँ भी चूल्हा-चौका निपटा कर रोज एक घंटा मास्टर जी से पढ़ने लगी थीं । मास्टर जी उन्हें थोड़ा शब्द ज्ञान देते और थोड़ा अन्य नयी-नयी जानकारियाँ देते । यह सब कार्य मास्टर जी मुफ़्त ही करते ।  समय बीतता गया , मास्टर जी के बच्चे बड़े हो गये और आगे की शिक्षा के लिए शहर चले गये । शहर की चमक-दमक बच्चों को बड़ी भा गयी । वे बार-बार मास्टर जी को गाँव छोड़ शहर आने की ज़िद करने लगे । पर मास्टर जी थे कि टस से मस न होते । सो मास्टर जी की पत्नी भी मास्टर जी को छोड़ अपने बच्चों की सार​–संभाल करने के लिए शहर चली गयीं । मास्टर जी अब कहने को अकेले थे किंतु गाँव अब परिवार मे परिवर्तित हो गया था । ज़्यादा से ज़्यादा समय मास्टर जी गाँव के लोगों के साथ ही बिताते ।  तभी एक दिन मास्टर जी को दिल का दौरा पङ गया । मास्टर जी का पड़ौसी सुखिया उन्हें झट से गाँव के वैद्य के पास ले गया । वैद्य जी उन्हें प्राथमिक उपचार दे कर बोले ” अच्छा होता कि मास्टर जी को शहर ले जाते और बड़े अस्पताल में दिखा देते , नब्ज़ थोड़ी तेज ही चल रही है ।  गाँव के लोगों ने तुरंत ही  उनके पत्नी व बच्चों को सूचित कर शहर ले जाने की तैयारी कर ली । शहर जाते ही उन्हें वहाँ के बड़े अस्पताल में भरती कर दिया गया । गाँव का उनका पड़ौसी सुखिया उनके साथ में था । बड़े अस्पताल में डॉक्टर ने दवाइयों की लंबी लिस्ट और अस्पताल के खर्चे का बिल उनकी पत्नी के हाथ में थमा दिया । इतना पैसा मास्टर जी की पत्नी के पास न था सो लगी अपने भाई व अन्य रिश्तेदारों को फोन करने ,सोचा शायद कहीं से कोई मदद मिल जाए । किंतु आजकल किसको पड़ी है दूसरे की मुसीबत के बारे में सोचने की । सुखिया मास्टर जी व उनकी पत्नी की हालत बखूबी  समझ रहा था । मास्टर जी की पत्नी  स्वयं से ही अकेले में बड़बड़ा रही थी।” समय रहते सोचते तो ये दिन न देखना पड़ता , कभी दो पैसे न बचाए , लुटा दिए गाँव वालों पर ही ”  कभी कोई ऊपर की कमाई न की ” । बच्चे भी बोल रहे थे कितनी बार कहा था शहर आ जाओ किंतु हमारी एक न सुनी । कम से कम यहाँ रहते तो ट्यूशन कर अतिरिक्त कमाई तो करते , फालतू ही गाँव के लोगों के साथ वक़्त जाया  किया । सुखिया अब मास्टर जी की माली हालत से वाकिफ़ हो गया था । उसने झट से गाँव फोन किया और अगले ही दिन गाँव से एक आदमी आया जिसे मास्टर जी ने ही पढ़ाया था और उनके ही विद्यालय में नयी नियुक्ति मिली थी उसे । साथ में वह एक पोटली लाया था और कुछ रुपये भी । वह पोटली उसनेमास्टर जी  की पत्नी को थमा दी … Read more

नंदिनी

                                                                                         नंदिनी कहने को तो एक गाय थी | पर बड़ी मालकिन के लिए तो वो परिवार का एक सदस्य थी | पशु मूक ही सही  पर कितनी भावनाएं उमड़ती हैं उस घर के प्रति जहाँ उन्हें पाला जाता  है  |प्रेम का ये कैसा अटूट बंधन है जो इंसान व् जानवर को एक एक अनोखी डोर से बाँध देता है |   पढ़िए एक बेहद भावनात्मक कहानी नंदिनी  “अरे लल्लन! जरा इधर आना” रामदयाल ने लगभग चिल्ल्ताते हुए अपने नौकर को आवाज लगायी. “जी भैया आया ! कहिये क्या काम है?” कहते हुए लल्लन ने प्रश्नवाचक निगाहों से मालिक की ओर देखा. “मैंने तुझे कहा था ना, कि नंदिनी अब बूढी हो गई है. ना ही दूध देती है, ना ही किसी और काम की है…इसे कहीं छोड़ आओ.” रामदयाल ने आदेशात्मक स्वर में कहा. “अरे मालिक जाने दो ना जहाँ इतनी गैया हैं, वहाँ ये भी सही. ये बेजुबान कहाँ जाएगी अब?” लल्लन की आँखों में नंदिनी के लिए दयाभाव थे. “हमने क्या सबका ठेका ले रखा है, जब तक दूध देती थी इसको चारापानी खिलाते थे. अब यहाँ कोई धरमखाता तो खोल कर बैठे नहीं हैं, जो मुफ्त में सबको खिलाते रहें.” रामदयाल के स्वर में झुंझलाहट थी.        वहीँ पास खड़ी नंदिनी को मानों सब समझ आ रहा था. उसके भीतर की बेचैनी उसकी आँखों से छलक उठी. अपनी बेबसी और लाचारी पर उसका मन कराह उठा. उसे याद आया, जब वह सत्रह अठारह साल पहले बड़े ही चाव से इस घर में लायी गयी थी. तब वह छः महीने की थी. बड़े मालिक भगवनदयाल और बड़ी मालकिन शांति ने उसका नाम नंदिनी रखा था, उसे घर के सदस्य जैसा स्नेह दिया था और बदले में उसने भी आठ बच्चों को जन्म देकर उनका घर भर दिया था. जिसमे तीन बछड़े और पांच बछिया थीं. सुबह शाम पांच-पांच लीटर दूध देकर उसने उनके स्नेह का ऋण चुकाने की पूरी कोशिश की थी. शांति उसे बहुत भाग्यशाली मानती थीं. उनका कहना था कि, नंदिनी के आने के बाद से उनके घर परिवार में खुशियाँ छा गयी हैं और उनके डेयरी का व्यवसाय भी फल फूल रहा है. वो उनकी चहेती गैया थी. तब ये रामदयाल बारह तेरह वर्ष का एक नन्हा किशोर था, जो नंदिनी के ऊपर चढ़कर उसकी सवारी किया करता था. वह भी रामदयाल को अपने बछड़े जैसा ही प्यार करती थी. लेकिन अब स्थिति अलग है. नन्हा किशोर अब तीस बत्तीस साल का बांका नौजवान है. सालभर पहले बड़े मालिक के चल बसने के बाद बड़ी मालकिन ने बाड़े पर आना लगभग बंद कर दिया है. अतः उन दोनों की मुलाकात भी बहुत कम होती है. बड़ी मालकिन के हाथों का प्यार भरा स्पर्श महसूस हुए एक अरसा हो गया है. सोचते हुए नंदिनी का मन भर आया. और उस पर लल्लन व् मालिक की बातचीत सुनकर वह और दुखी हो गई.           वह यह सोचकर अपने को दिलासा देने लगी कि आजकल के युग में जब इंसानों की कोई कीमत नहीं है, तो वह तो एक पशु है. क्या मालिक उसके दिल के जज्बातों को समझते हैं? वो तो उनके लिए सिर्फ एक जानवर है और वो भी नाकारा.           पुरानी यादों ने नंदिनी को फिर से घेर लिया. उस वक्त बड़े मालिक के यहाँ सिर्फ चार गायें थीं. घर के पास ही उन सबके लिए छोटी सी झोंपड़ी बनी थी जिसमे वो अपने बछड़ों सहित मजे में रहती थीं. उसे वह घटना याद हो आई जब रामदयाल गर्मी के दिनों में बाहर दालान में नीम के पेड़ के नीचे मजे की नींद सो रहा था, कि तभी एक विशालकाय सांप फन फैलाये उस ओर बढ़ चला.           नंदिनी की नजर उस सांप पर पड़ी, तो वह बहुत जोर से रंभाई. जब उसे कोई दिखाई नही दिया तो वह बार-बार रंभाई. तब अन्दर से बड़ी मालकिन की आवाज आई “ आती हूँ नंदिनी ! क्यों हलकान हुई जा रही है ? इधर सांप रामदयाल के पास पहुँचने ही वाला था, कि नंदिनी ने पूरी ताक़त से खूंटा उखाड़ लिया और उस ओर दौड़ पड़ी. तब तक सांप रामदयाल के हाथ के पास फन फैलाए कुंडली मार बैठ चुका था. अपने विषदंतों से वह उसकी नाजुक कलाई पर काटने ही वाला था, कि नंदिनी ने पूरी ताक़त से अपने दोनों सींगों से उसे उछाल कर दूर फेंक दिया. भीतर से बाहर आकर दरवाजे पर खड़ी मालकिन ये नजारा देखते ही बेहोश हो गिर पड़ीं. और बहुत लोग इकठ्ठा हो गए. होश में आकर मालकिन ने सबको ये घटना बतायी. सबने नंदिनी की प्रशंसा की. रामदयाल धन्यवाद स्वरूप नंदिनी के पास जाकर उससे लिपट गया और वो भी स्नेह से उसे चाट-चाटकर दुलारने लगी.            खैर यह तो बहुत पुरानी घटना है, क्या फायदा इसे याद करके. बड़े मालिक के बाद अब तो रामदयाल ही इस डेयरी का मालिक हो गया है. अब हालात भी बहुत बदल गये हैं. ये लल्लन भी रामदयाल के बचपन का साथी है. दोनों साथ ही खेले और पले बढे हैं. पर अब उनका रिश्ता भी नौकर और मालिक के रूप में आमने-सामने है. पर लल्लन के मन में न जाने क्यों नंदिनी के लिए बहुत श्रद्धा है. वह उसके अनुपयोगी हो जाने के बाद भी उसका बहुत ध्यान रखता है. अब नंदिनी ज्यादा फुर्तीली नही रही. उसका शरीर भी थकने लगा है. लेकिन कभी-कभी जब रामदयाल के छोटे-छोटे बच्चे आकर अपने नन्हे-नन्हे हाथों से उसके कान या सींग खींचने लगते हैं, तो उसे बहुत अच्छा लगता है. सोचते-सोचते ही नंदिनी की आँख कब लग गयी, पता ही नहीं चला.             सुबह दस ग्यारह बजे करीब रामदयाल और लल्लन को साथ आया देख नंदिनी का मन शंकित हो उठा.लल्लन की बुझी-बुझी नजरें देख वह और सहम गयी. रामदयाल के वहां से जाने के बाद लल्लन ने उसे बड़े ही प्यार से चारा दिया. मन तो नहीं था, लेकिन जब तक जिंदा है पेट की आग तो बुझानी ही … Read more

कहानी — एक दिन की नायिका

वो गांव के बाहर  की तरफ टीलों से होते हुए भैरों जी के स्थान पर धोक देने और नए जीवन के लिए उनका आशीर्वाद लेने अपने बींद के पीछे पीछे आगे बढ़ रही थी और साथ ही पूरे दिल से अपने मन के ईश्वर को बार बार धन्यवाद भी दे रही थी .. उस ख़ुशी के लिए, उस अनुभव के लिए….. लाल प्योर जॉर्जट पर गोटा तारी के काम वाला उसका बेस (दुल्हन की पोशाक), ठेठ राजस्थानी स्टाइल में बने आड़, बाजूबंद, हथफूल, राखड़ी, शीशफूल, पाजेब अंगूठियां, लाल गोटे जड़ी जूतियां, और नाक के कांटे में जड़ा हीरा…… उस घडी वो  नायिका थी वहां की,  उस गावं की, उन पगडंडियों की, और उन रेत के  टीलों की भी…….. अपने बींद के पीछे पीछे वो  बिलकुल वैसे चल रही थी जैसे गावं में लाल जोड़े में,घूंघट में किसी नै नवीली बींदणी को चलना चाहिए था….. वो बेहद सहजता से शर्म को ओढ़ कर धीमे धीमे कदम भर रही थी…….. लहंगे की लावन में कुछ कांटे लग गए थे जो कभी कभी पैरों को छू जाते थे पर उनसे कोई दर्द हुआ हो ऐसा उसे  याद नहीं…. ब्याह के चार दिन पहले छीदाये नाक में कोई टीस उठी हो यह भी उसे पता नहीं……. वो तो खोई थी…. चल भी रही थी तो जैसे सपनो में हो, सपने आनेवाले दिनों के, सपने आने वाली रातों के, ……… लम्बे चौड़े अपने मुटियार को एक नज़र उठा के देख लेती फिर डर जाती की कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया…. कितने लोग थे वहां…. कितनो की नज़रों के नीचे थी नै बींदणी अपने बींद को देखने की बेशर्मी कैसे करती उनके बीच …. फिर से वो अपना ध्यान उस दिन को पूरा पूरा जीने पर ले आई…… ढोली ढोल बजा रहा था और बीरम कभी गोरबन्ध कभी चिरमी और कभी मूमल गा रहा था…. और वो पग भर रही थी टीलों पर बिलकुल नखराली मूमल की तरह ……. वो नायिका थी उस दिन की…. आगे आगे उसका बींद…. पीछे पीछे सपनो से भरी सपनों सी सुन्दर सजी धजी बींदणी…. जैसे जैसे वो आगे बढ़ रहे थे, और लोग साथ हो लेते थे… गावं में ब्याह एक बहुत चहल पहल की घटना होती है…. बुलाये बिन बुलाये सब शामिल होते हैं ….. नै बींदणी होती है उन सब की बातों का केंद्र…….. घर परिवार की औरतें तो थी ही …….. जेठानियों ने नई बींदणी को दोनों और से संभाल रखा था… कहीं नए नए कपड़ों और घूंघट में उलझ कर बींदणी गिर न जाए….. सर्दियों के दिनों में भी जो टीलों पर गर्मी होती है…. उसमे नाजुक सी बींदणी थक न जाये ……..छोटी छोटी और जवान होती सब छोरियाँ नयी बींदणी की हर एक चीज़ को बड़े ध्यान से देख रही थीं, और मन ही मन तय कर रहीं थीं की उन्हें अपने ब्याह में क्या क्या बनवाना है…..  लुगाइयाँ सब टाबर टोलियों को लेकर गप्पे मारती, हंसी करती, नए बींद बींदणी को छेड़तीं, साथ साथ चल रहीं थीं  …….. कोई कोई तो ऐसी चुटकी ले लेती की उसका बींद शर्मा के आगे बढ़ जाता और वो अपने लाल ओढने सी लाल हो जाती……और दोनों को शर्माता देखकर सब कहीं न कहीं अपनी शादी का दिन याद कर खुद भी शर्माने लगतीं  पर उस घडी तो उसकी शर्म भी उन सब से कितनी अलग थी …..नयी बींदणी थी वो,  उस दिन की नायिका थी….. माताजी के स्थान पर धोक देने के बाद परिक्रमा के लिए जैसे ही मढ़ के पीछे पहुंची …….. बींद ने धीरे से पीछे मुड़ कर पूछ लिया था …. तुम ठीक तो हो न……. और वो लजाई सी जवाब देना भी भूल गई थी …… और तब तो बिलकुल सकुचा गई जब जिठानियों ने उस पर भी चुटकी ले ली……. बना  बड़ी देर लगाई आपने परिक्रमा में …. आज मिल जायेगा भाई आपको अपनी बींदणी से बातें करने का मौका ….. दिन ढलने तक थोड़ा इंतज़ार और कर लो सा……. दिन ढलने का इंतज़ार? नहीं वो नहीं चाहती थी की दिन ढले, नहीं चाहती थी की ढोली का ढोल रुके कभी, बीरम का गीत थमे कभी, ……. पर दिन को और जीवन को दोनों को ढलने से कब कौन रोक पाया है………. बींदणी बनी आज जो धीमे धीमे पग धर मिटटी के धोरों को लावन में समेटती घर लौट रही है,  देवी देवताओं को धोक कर अपने नए जीवन की शुरुआत कर रही है,  यही धोरों की नायिका न जाने कब माई, काकी, भाबिसा, और फिर भाबू बन जाएगी.  जब और बूढी होगी तो बूजीसा बन जाएगी…….. सुसरो जी की जिस चौखट पर और अपने बींद के जिस गॉव में वो नई बींदणी बनी छनकते पग भर रही है, वहीँ किसी दिन भाबूसा बन टाबरियों को डराने के काम आएगी, आते जाते लोग वहीँ उन्ही धोरों में कहीं डोकरी राम राम कहकर पास से निकल जायेंगे……………. किसी ऊँचे से टीले से उसने  एक झलक जी भर के अपना ससुराल देखा फिर आँखें बंद कर उन धोरों को, सारंगी की आवाज़ को, ढोल की थाप को, बीरम की राग को, गोटे तारी की किनरियों को, उन जवान छोरियों को जिन के जीवन में बींदणी बनना सबसे बड़ा सपना था, उन नाक टपकते टाबरियों को, अपने साथ चल रही देवरानीयो जिठानियों को, केसरिया साफा पहने आगे आगे चलते अपने बींद को, और अपने जीवन में सौभाग्य से आये उस दिन को….. हमेशा हमेशा के लिए अपने मन में संजो लिया……… वो नायिका थी उस एक दिन की  अपर्णा परवीन कुमार  यह भी पढ़ें … उसकी मौत काकी का करवा चौथ स्वाद का ज्ञान आई स्टील लव यू पापा आपको कहानी ” एक दिन की नायिका कैसी लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें व् फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

ओटिसटिक बच्चे की कहानी -लाटा

                                                                 ओटिसटिक बच्चे की कहानी -लाटा    को पढने से पहले जरूरी है कुछ बात आटिज्म पर की जाए | आटिज्म एक कॉम्पेक्स न्यूरोबेहेवियरल स्थिति है | जो जन्मजात बिमारी है | जिसमें सोशल इंटरेक्सन बाधित होता है | भाषा भी पूर्ण विकसित नहीं हो पाती | बातचीत में समस्या आती है |व् rigid repetitive behaviour आदि शामिल हैं | वस्तुत : इसके सारे लक्षणों को मिला कर इसे autism spectrum disorder (ASD)कहते हैं | ASD से ग्रस्त बच्चे इसकी मौजूदगी के अनुपात में पूर्ण विकलांग  से ले कर काफी कुछ अपने आप कर लेने की क्षमता वाले होते हैं | हालांकि उन्हें स्पेशल केयर की जरूरत होती है | ASDसे ग्रस्त बच्चों के लिए यह समझना मुश्किल होता है की दूसरे लोग क्या सोंच व् महसूस कर रहे हैं | इस कारण वो खुद को अभिव्यक्त करने में बहुत कठिनाई महसूस करते हैं चाहें वो शब्दों से हो , फेसिअल एक्सप्रेशन के द्वारा हो | फिर भी भावनाएं तो होती हैं और ऐसी ही भावनाएं जिन्हें अभिव्यक्त करने की कशमकश से जूझता रहा लाटा  ओटिसटिक बच्चे की भावनात्मक कहानी -लाटा सब उसे ‘लाटा’ कहते थे.. आज की बात होती तो उसे ओटिसटिक (autistic) कहा जाता, पर उन दिनों तो ऐसे बच्चों को नीम पागल ही समझा जाता था.. कुछ बोलने में उसकी जीभ अक्सर किसी न किसी शब्द में उलझ जाती.. मन करता हलक में हाथ डाल उसकी मुश्किल आसान कर दूँ.. जब तक वह शब्द पूरा होकर बाहर नहीं आ जाता , उसकी सांस तो मुश्किल होती न होती, हमारी हो जाती.. माँ बाप ने उसके पढने पढ़ाने की कोई आवश्यकता ना समझी.. वह तो लाटा था ना, नीम पागल ! .. उसे क्या स्कूल भेजना ! माँ के सीने का बोझ था, बाप के सर का ! .. उसे वे दोनों ही पसंद नहीं थे.. उसकी तो बस दादी थीं, वो ही उसपर जान छिड़कती.. सबसे छुपा कर घी का बड़ा सा ढेला उसके भात में छुपा देतीं.. वह भी भात की तहें खोलकर देखता, और खुश होकर लबेड के खा लेता.. दादी उसके सर पर हाथ फेरतीं प्यार से.. उन्ही के कमरे में सोता वह.. उसे दादी की भूत की कहानियां बहुत पसंद थीं.. वह उनके साथ लेटकर कहानी सुनता और उनके थुलथुले पेट पर हाथ फेरता जाता |  वैसे उसके चार बड़े भाई और एक छोटा भाई भी था, जिन पर माता पिता की विशेष कृपा रहती.. उनके लिए कभी कभार नए कपडे भी सिल जाते, पर इस बेचारे को मिलती उतरन.. जब तक बच्चा था, सब ठीक रहा, जैसे बड़ा हुआ उसने भी नए कपड़ों की जिद करनी शुरू कर दी.. ना मिले तो वह गुस्से में चीज़ें पटकने लगता.. उम्र के साथ उसका गुस्सा और मुखर होने लगा.. भाई जब स्कूल चले जाते तो वह  भी पिता के साथ खेतों की तरफ निकल जाता.. पहले छोटा मोटा काम करता था अब खेती बाड़ी की तकनीकी भी समझने लगा.. शारीरिक श्रम में उसका मन खूब लगता.. धुप में तपकर पसीना बहाना उसे अच्छा लगता था |  तीन भाई पढ़ाई के लिए शहर जा पहुंचे और फिर वहीं के हो लिए.. एक भाई वहीं गाँव में मास्टरी करने लगा.. एक एक कर सबके ब्याह भी हो गए, परिवार बस गए.. यहाँ तक छोटे भाई की भी गृहस्थी बस गयी.. पर वह वैसा ही रहा.. उसके ब्याह का कौन सोचे, वह तो लाटा था.. अपने घर में ही बेगाना सा.. वह अब सयाना हो चला था.. बोलता वह पहले ही कम था.. खुद किसी के मुह नहीं लगता, लेकिन कोई कुछ कह दे तो ऐसी गालियों के बम गोले दागता की सबके ढेर हो जाते.. वह अब अकेला घर भर का बोझ संभालने लगा .. माँ बाप बूढ़े हो चले थे.. लेकिन अब माँ बाप को उसका बोझ हल्का लगने लगा था.. उसके रहते वह निश्चिन्त थे.. खेत खलिहान और गाय भैंस की ज़िम्मेदारी उसने स्वतः ओढ़ ली थी.. दादी स्वर्ग सिधार गयीं.. दादी का आखिरी वक़्त खासा कष्टकारी था.. उनका कष्ट देख कर कहता “दादी तू मर जा “..दादी मुस्कुरा देतीं.. जानती थीं उनका दर्द, वह सह रहा है.. इधर दादी ने आखिरी हिचकी ली, उधर वह लापता ! .. उसकी ढूंढ मची तो वह खेत के किनारे छुपा बैठा मिला.. सबने मनुहार की, पर वह ना हिला.. आखिर दादी को उसके काँधे बिना ही जाना पड़ा.. पर दादी, जो उसके मन की हर बात समझती थीं, क्या यह ना समझी होंगी? दादी तो चल बसी, पर अब उसकी भाभी ने उनका स्थान ले लिया.. वह उसीप्रकार अपने देवर पर स्नेह बरसातीं.. उसके खाने पीने, कपडे का ज़िम्मा सब भाभी ने ले लिया.. माता पिता भी समय के साथ पूरे हो गए.. फिर एक दिन ऐसा वज्रपात हुआ, उसका मास्टर भाई एक्सीडेंट में मारा गया.. उसकी सबसे प्यारी भाभी अब सोग की मूर्ती बन गयी.. छोटी भांजी के आंसू सूखते ना थे.. वह भाभी और भांजी की ओर देखता और दहाड़ें मार कर रो उठता .. उसका विलाप सुन कर गाँव के बच्चे, बड़े, द्रवित हो उठे.. तेहरवीं के बाद भाभी के भाई लेने आये, पर वे ना गयीं.. बोलीं “हरी भाई हैं ना, मैं यहीं रहूँगी”.. सच कितनी अच्छी हैं भाभी.. कितना डर रहा था वो.. अब वह भी तन मन से उनकी सेवा करेगा.. कोई आंच ना आने देगा  अब वह घर का सतर्क प्रहरी बन गया था.. रात बेरात हल्का सा खटका भी हो तो वह दरांती ले पूरे घर का चक्कर लगा डालता.. गली में कोई जोर से बोले भी तो वहीं से ऐसी घुड़की लगाता की लोग चुपचाप खिसक लेते.. वह घर की ऐसी मज़बूत ड्योढ़ी था जिसके होते गरम हवा, ठंडी हो कर गुज़रती..   आज उसकी गुडिया की विदाई थी.. वह फिर लापता था.. पर वह उसे ढूंढ ही लाई.. और जब तक उसने गुडिया को गोद में उठाकर डोली में न बिठाया, गुडिया भी विदा ना हुयी.. जाते जाते गुडिया ने प्यार से उसके कान में “ मेरा लाटा चाचू” कह दिया..  अच्छा लगा उसे.. पूनम … Read more

सुनो, तुम मुझसे झूठ तो नहीं बोल रहे

घर की बालकनी की खिड़की खोली बाहर का दृश्य देख मुंह  से निकल पड़ा – देखो चीकू के पापा  कितना मनोरम दृश्य है । रोज की तरह रजाई ताने  बिस्तर से चीकू के पापा ने कहा – पहले चाय तो बना लाओं । और सुनों -अख़बार आगया  होगा वो भी लेती आना ।दुनिया में कई जगह ऐसी है जहाँ की प्रकृति खूबसूरत है । हर साल सोचते आए  की अब चले किन्तु जीवन की भाग दौड़ में समय निकालना मुश्किल ।  करवाचौथ के दिन मंजू  सज धज के पति का इंतजार कर रही थी |  शाम को घरचीकू के पापा   आएंगे तो  छत पर जाकर चलनी में उनका   चेहरा देखूँगी । मंजू ने गेहूँ की कोठी मे से धीरे से  चलनी निकाल कर छत पर रख दी थी । चूँकि गांव में पर्दा प्रथा की परंपरा होती है साथ  ही ज्यादातर काम सास -ससुर की सलाह लेकर ही करना ,संयुक्त परिवार में सब  का ध्यान भी रखना  और आँखों में शर्म का  पर्दा भी रखना  होता है ।  पति को  बुलाना हो तो पायल ,चूड़ियों की खनक के इशारों  ,या खांस  कर ,या बच्चों के जरिये ही खबर देना होती । चीकू के पापा  घर आए  तो साहित्यकार के हिसाब से वो मंजू  से मिले । कविता के रूप में करवा चौथ पे मंजू को कविता की लाइन सुनाने लगे -“आकाश की आँखों में /रातों का सूरमा /सितारों की गलियों में /गुजरते रहे मेहमां/ मचलते हुए चाँद को/कैसे दिखाए कोई शमा/छुप छुपकर जब/ चाँद हो रहा हो  जवां “। कविता की लाइन  और आगे बढ़ती इसके पहले माँ की आवाज अंदर से आई -“कही टीवी पर कवि सम्मेलन तो नहीं आ रहा ,शायद मै, टीवी बंद करना भूल गई होंगी । मगर  ,लाइट अभी ही गई और मै तो लाइट  का इंतजार भी कर रही हूँ फिर यहाँ आवाज कैसी आरही ।  फिर  आवाज  आई- आ गया बेटा । बेटे ने कहा -हाँ  ,माँ  मै आ गया हूँ  । अचानक लाइट  आगई ।  उधर सास अपने पति का चेहरा  देखने के लिए चलनी ढूंढ रही थी । किन्तु चलनी  तो मंजू बहु छत पर ले गई थी । और वो बात मंजू के  सास ससुर को मालूम न थी । जैसे ही मंजू  ने चीकू के पापा  का चेहरा चलनी में देखने के लिए चलनी उठाई ।  तभी नीचे से  मंजू की सास की  आवाज आई  –बहु चलनी देखी  क्या?  गेहूँ छानना है । बहू ने जल्दीबाजी  कर पति का और चाँद का चेहरा चलनी में देखा और कहा  –‘लाई  माँ ‘।चीकू के पापा ने फिर कविता की अधूरी लाइन बोली  –    “याद रखना बस /इतना न तरसाना /मेरे चाँद तुम खुद /मेरे पास चले आना ” ।  इतना कहकर चीकू के पापा भी मंजू  की पीछे -पीछे नीचे आ गए । अब मंजू की सासूं माँ , मंजू के ससुर को लकर छत पर चली गई । अचानक  सासूं माँ को ख्याल आया  कि  –लोग बाग  क्या कहेंगे ।  लेकिन प्रेम और आस्था और पर्व  उम्र को नहीं देखते   । जैसे ही  मंजू के ससुर का चेहरा चलनी में  देखने के लिए सास ने चलनी  उठाई। अचानक मंजू  ने मानो  चौक्का  जड़ दिया ।   वो ऐसे –  नीचे से मंजू ने सास की तरह  आवाज लगाई-” माजी आपने चलनी देखी  क्या ?” आप गेहूँ मत चलना में चाल  दूंगी । ये बात सुनकर   चलनी गेहू की कोठी में चुपके से कब आ गई कानों कान  किसी को पता भी न चला    । मगर ऐसा लग रहा था कि चाँद ऊपर से सास बहु के चलनी खोज  का करवाचौथ पर  खेल देख कर  हँस रहा था  और मानो जैसे  कह रहा  था ।  मेरी भी पत्नी होती तो मै भी चलनी में अपनी चांदनी का चेहरा देखता । करवाचौथ  की  रात मंजू श्रृंगार  से ऐसे लग रही थी । मानों कोई अप्सरा धरती पर उतरकर आई हो ।चीकू के पापा ने बड़े प्यार से पूछा -मंजू क्या मांगना चाहती हो । आज जो भी तुम कहोगी ,मुझे मंजूर होगा । परंतु ख़ुशी के मरे मंजू घूमने ले जाने वाली बात कहना ही भूल गई ।मंजू  कहा -सुनोजी ,आप मुझे नई  महँगी साड़ी कल ला कर  देना और वो भी  गुलाबी कलर वाली ।अपनी पड़ोसन के पास तो एक से एक महँगी साड़ियां है और मेरे पास एक भी नहीं । चीकू के पापा ने सोचा की -अच्छा हु हुआ ।  घूमने ले जाने वाली बात भूल गई और मै कम पैसे में इसकी बात को मान गया । यदि घूमने जाने का कहती तो मुझे ऑफिस से पार्ट फायनल से पैसा निकलना पड़ता और वो भी ज्यादा ।      मंजू ने धीरे से मस्का लगा कर कहा की -अजी सब गर्मियों की छुट्टियों में हिल स्टेशन पर जाते है । अब की बार सब साथ में चलेंगे । चीकू  के पापा  ने कहा की – इस बार मनाली का प्रोग्राम बनाएंगे । इतना कहना था की मंजू ने आखिर पूछ ही लिया -“सुनों ,तुम मुझसे झूठ तो नहीं बोल रहे हो “ घर के आसपास घूमने जाने की बात फैल चुकी थी । तैयारियां और खरीददारी में कोई कसर बाकी नहीं रही । कुछ नगद तो कुछ उधार लेते वक्त लोगों को घूमने जाने वाली बात भी ख़ुशी के  मारे मंजू सबसे कहना नहीं भूलती ।मंजू सोचती , की अब की बार अपनी पड़ोसन को घूमने जाने वाली और वहां से आने के बाद ही इस बात का राज खोलूंगी । वे हर साल घूमके आती और वहां की खूबसूरती और मिलने वाली चीजों की तारीफ कई दिनों तक सबसे शेयर करती रहती । अबकी बार ढेरों सामान की खरीददारी और वहां के मनोरम दृश्यों की तस्वीरें अपने साथ लाऊंगी । ख्वाब सजाते सजाते घूमने जाने के दिन नजदीक आते गए । ससुराल से खबर आई की- सांस बीमार है एक बार देखने आ जाओं ।उनसे  ज्यादा  उम्र में चला फिरा  नहीं जाता और बीमार तो भला कैसे काम चलगा उनका  ।उनको  संभाल की भी तो आवश्यकता होती है ।  ये बात पडोसी ने खबर के तौर  पर उन तक भिजवाई थी ,उन्होंने अपना पडोसी धर्म निभाया ।  सुबह बैग तैयार कर ससुराल चल दिए ।  वहां साँस की तबियत के बारे में विस्तार से पूछा । सांस कहा जब तक साँस है तब तक आस है ।सास ने दामादजी से कहा की – मंजू को दामादजी महीने में एक आध बार मेरे पास भेज दिया करों । मन को सुकून मिल जाता है । दामाद बेचारा सोचने लगा की -मेरे समय पर खाने और ऑफिस जाने के अलावा बच्चों को स्कूल भेजने … Read more

रधिया अछूत नहीं है

रधिया सुबह उठ, अपने घर मे, गुनगुनाते हुए, चाय का पानी रख चुकी थी।तभी उसकी बहन गायत्री ने उसे टोका, क्या बात है, कहे सुबह-सुबह जोर जोर से गाना गा रही है? कोई चक्कर है क्या? हाँ! है तो, आंख तरेरते हुए रधिया बोली, सबको अपनी तरह समझा है न? और दोनों बहनें खिलखिला कर हँस दी। रधिया, गायत्री, निम्न वर्ग की, साधारण शक्ल सूरत की लड़कियां, सांवली अनाकर्षक,पर हंसी शायद हर चेहरे को खूबसूरत बना देती है। अब उनका घर वैसा निम्न वर्ग भी नही रह गया था,जैसा गरीबों का घर होता है। जबसे रधिया, गायत्री, बड़ी हुई थी, पूनम को मानो दो बाहें मिल गई थी।तीनो ही घरों में खाना बनाने से लेकर झाड़ू, पोछें और बर्तन का काम करती, और कोठी वालों की कृपा से उनको हर वो समान मिल चुका था, जो कोठियों में अनावश्यक होता, मसलन, डबल बेड, पुराना फ्रिज, गैस का चूल्हा, सोफे भी। तीज, त्योहार के अलावा, वर्ष भर मिलने वाले कपड़े,बर्तन और इनाम इकराम अलग से।मौज में ही गुज़र रही थी सबकी ज़िंदगी। पूनम का पति रमेसर चाय का ठेला लगाता था,और रात में देसी दारू पीकर टुन्न पड़ा रहता। गाली गलौज करता पर तीनो को ही उसकी परवाह न थी। अगर वो हाथ पैर चलाता, तो तीनों मिलकर उसकी कुटाई कर देती,और वो पुनः रास्ते पर।     दिन भर तीनों अपने अपने बंगलों में रहती। रधिया का मन,अपने मालिक,जिनको वो अंकल जी कहती थी,वहां खूब लगता। अंकल जी लड़कियों की शिक्षा के पक्षधर थे,सो रधिया को निरंतर पढ़ने को प्रेरित करते रहते। और उन्ही की प्रेरणा के कारण वो हाई स्कूल और इंटर तृतीय श्रेणी में पास कर सकी थी। इस घर मे पहले उसकी मां काम करती थी, तब वो मुश्किल से 3,4 वर्ष की रही होगी। नाक बहाती ,गंदी सी रधिया। पर बड़े होते होते उसे  कोठियों में रहने का सलीका आ चुका था और कल की गंदी सी रधिया, साफ सुथरी रधिया में बदल चुकी थी। अंकल जी का एक ही बेटा था। जो मल्टीनेशनल में काम करता था। रधिया बचपन से ही उसे सुधीर भइया कहती थी। सुधीर की शादी में दौड़ दौड़ कर काम करने वाली रधिया, प्रिया की भी प्रिय बन चुकी थी।अपने सारे काम वो रधिया के सर डाल निश्चिन्त रहती। क्योंकि वो भी एक कार्यरत महिला थी और उसका लौटना भी रात में देर से ही होता।बाद में बच्चा होने के बाद उस बच्चे से भी रधिया को अपने बच्चे की तरह ही प्यार था। उसे  घर मे उसे 15 वर्ष हो चले थे। प्यार उसे इतना मिला था कि अपने घर जाने का मन ही न करता। सुधीर की आंखों के आगे ही बड़ी हुई थी रधिया। सो उसे चिढ़ाने से लेकर उसकी चोटी खींच देने से भी वो परहेज न करता। रधिया भी भइया भइया कहते हुए सुधीर के आगे-पीछे डोलती रहती। आज भी रोज की भांति कार का हॉर्न सुन रधिया बाहर भागी। सुधीर के हाथों ब्रीफ़केस पकड़ वो अंदर चली। उसे पता था अब सुधीर को अदरक, इलायची वाली चाय चाहिए। जब चाय का कप लेकर वो सुधीर के कमरे में पहुंची, तो सुधीर टाई की नॉट ढीली कर के आराम कुर्सी पर पसरा था,और उसके हाथों में था एक ग्लास, जिसमे से वो घूंट घूंट करके पीता जा रहा था। रधिया के लिए ये कोई नया दृश्य न था। बगैर कुछ कहे वो पलटी, और थोड़ी ही देर में दालमोठ और काजू, एक प्लेट में लाकर, सामने की मेज पर रख दिया। भइया, थोड़े पकौड़े बना दूं? हाँ बना दे, कह कर सुधीर पूर्ववत पीता रहा। थोड़ी देर में ही पकौड़ी की प्लेट के साथ पुनः लौटी रधिया, इस बार सुधीर को टोकती हुई बोली,ठीक है भइया, पर ज्यादा मत पिया करो वरना भाभी से शिकायत कर दूंगी। अच्छा??? इस बार सुधीर की आंखों में कौतुक के साथ, होंठों पर मंद स्मित भी था। कर देना शिकायत भाभी से— कहते हुए उसने रधिया को अपनी ओर खींच लिया। दरवाजा बंद हो चुका था और लाइट ऑफ। आश्चर्य! रधिया की तरफ से कोई प्रतिवाद न था। उस दिन के बाद से उसका मन उस कोठी में और लगने लगा था। आखिर “अछूत” से छुए जाने योग्य जो बन गई थी और ये उसके लिए एक अवर्चनीय सुख था। रश्मि सिन्हा  यह भी पढ़ें … लली  वो क्यों बना एकलव्य  टाइम है मम्मी काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता

कहानी -कडवाहट

कई बार जिंदगी की कडवाहट इतनी अधिक होती है कि इंसान अपना संतुलन भी खो बैठता है और गलत निर्णय लेने से भी अपने आपको नही रोक पाता है l मेरे ही स्कूल की एक अध्यापिका ने अपने पति की प्रताडनाओं से तंग आकर अपना अंत कर लिया था इस खबर ने मुझे आज अन्दर तक झकझोर कर रख दिया था l  बहुत ही सौम्य सुन्दर सुशील और बुद्धिमान थी रुचिका लेकिन उसकी नियति उसे कहाँ ले कर गयी, सोच कर मेरी पलकें गीली होती जा रही थीं उसके चेहरे में अपना ही चेहरा नज़र आने लगा था l कैसे सह गयी वो सब, मैं आज अपने अंतर्मन खुद से ही सवाल किये जा रही थी l सवाल जबाब में एक फिल्म की भांति सब आँखों के सामने चलने लगा था l  प्यार सहयोग सम्मान जैसे शब्द के मायने तो मैं ब्याह के बाद ही भूल गयी थी l जान पायी थी तो बस पति की मार तिरस्कार दुत्कार और अपमान l अभी मेरी पढाई ख़तम भी नही हुयी थी कि घर वालों के लिए मेरी शादी की उम्र निकली जा रही थी l अठारह की उम्र तक मेरी सारी चचेरी बहने ब्याह दी गयी थी l शहर के सबसे नामी और प्रतिष्ठित परिवार से होने के कारण बराबरी का रिश्ता न मिल पाना भी एक समस्या सा बना हुआ था l पिता जी को उनके मित्र ने एक रिश्ता बताया लड़का सरकारी अस्पताल में फिजिशियन था जो सताईस बरस का था और मैं उन्नीस बरस की l मेरी शादी आनन फानन तय कर दी गयी l  मेरी बीएससी के फाइनल एग्जाम भी शादी के बाद हो जायेंगे कहकर मुझे मेरी आगे की पढाई न रोकने का आश्वासन दे दिए गए और अगले ही महीने मेरी शादी भी कर दी गयी सारे रस्मो रिवाजों के बाद मैं ससुराल भी आ गयीl ससुराल में हफ्ते भर रहने के बाद एग्जाम के लिए वापस मायके आ गयी l एग्जाम और चचेरे भाई की शादी में तीन महीने गुज़र गये l घर में माँ पिताजी और दो भाई थे l एक दिन अचानक ही मेरी तबियत बिगड़ गयी और फॅमिली डॉक्टर को दिखाने पर मुझे मेरे माँ बनने की खबर मिली l इस खबर ने मुझे एक अजीब सी ख़ुशी तो दी लेकिन मुझे मेरे सपने धुंधले होते नज़र आने लगे lइस खबर को सुनते ही मेरे पति ख़ुशी से फुले नही समाये और मुझसे मिलने आ गये फिर अपने साथ ले आये l सरकारी आवास में मैं मेरे पति और एक दो नौकर थे l मेरे पति को अस्पताल से वक़्त कम ही मिलता था इसलिए मेरे साथ के लिए मेरी सास साथ रहने आ गयी l वक़्त बीतता गया अब तक मैं दो बेटों की माँ बन चुकी थी और किसी तरह एमएससी पूरी भी कर ली l दो छोटे बच्चों को सँभालने का दायित्व बताकर आगे पीएचडी करने का ख्वाब मुझसे छीन गया था l  मै घर और बच्चों को सँभालने में लग गयी थी l इसी बीच हमारा स्थानंतरण दुसरे जिले में हो गया और हम नई जगह आ गये lमेरे पति देर रात जब हॉस्पिटल से लौटते तो डिनर के बाद थोड़ी शराब पीते थे और मुझसे भी साथ देने को कहते और मेरे मना कर देने पर मुस्कुराकर कहते,’तुम पियोगी तो तुम्हारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा’ है न l मेरे पति की बांतों से या व्यवहार से मुझे मुझसे असंतुष्ट होने का संशय मात्र भी अंदेशा अब तक नही था l  नई जगह पर आने के कुछ ही दिनों बाद मेरे पति के व्यवहार में मेरे प्रति बदलाव आने लगे ,मैंने इसका कारण यहाँ की अत्यधिक व्यस्तता ही समझ स्वयं को दिलासे देना ही उचित समझा और कुछ ही दिनों बाद उनका व्यवहार मेरे प्रति एकदम ख़राब हो गया lकिसी बात पर असंतुष्ट होने पर गरम चाय, खाना, पेपरवेट, पानी, शराब जैसी चीजों का मेरे ऊपर फेंक देना अब उनकी आदत में शामिल हो चुका था l अक्सर वजह-वेवजह उनके हाथ मुझ पर उठने लगे थे मैं कारण जानने का जब भी प्रयास करती दो चार थप्पड़ खाती और खामोश हो जाती lएक रात मैं सारे काम ख़तम करके अपने बच्चों को सुला ही रही थी कि कॉलबेल बजी बाहर जाकर देखा तो मेरे पति शराब में बुत मुझे हज़ार गलियां दिए जा रहे थे l आगे बढ़कर मैं उन्हें संभाल कर बेड तक ले आई उनके जूते निकाले और नशा उतरने के लिए कॉफ़ी भी ले आयीl सुबह पुरे होशो-हवास में उन्होंने मुझे मायके चले जाने को कहा l मैं अकारण बच्चों के एक्जाम के बीच मायके जाने को उचित नही समझ पा रही थी और वैसे भी 7-8 वर्ष की शादी में चचेरे भाईबहनों के विवाह के अलावा कभी गयी ही नही थी, फिर कैसे आज….??और मैंने न ही जाने का निर्णय सुरक्षित कर लिया था l अब तक मेरा उनसे मार खाना तिरस्कार सहना मेरी नियति बन चुकी थी और मुझे अब घर के नौकरों के सामने  बेवजह अपने पीटे जाने पर शर्म भी नही आती थी और रोज रात शराब पीने के बाद घर में हंगामे का होना आम बात हो चुकी थी l दोनों बेटे सहमे से रहने लगे थे l एक रात मैं अपने पति का इन्तजार करते करते बच्चों के पास ही सो गयी और ये सोचा कि किसी कारण बस मेरे पति हॉस्पिटल में ही रुक गए होंगे जैसा की किसी जरुरी कारण से करते भी थे,और सुबह जब अपने कमरे में पहुची तो देखा मेरे पति हॉस्पिटल की ही एक नर्स के साथ हम-बिस्तर हैं मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ही सरक गयी मेरे जिस्म के एक एक घाव मुझ पर मेरी समझ पर तंज़ कसते हुए नज़र आ रहे थे और बीते सालों के हर सवाल का जबाब भी मेरे प्रत्यक्ष ही थे l मैं झट बाहर आ गयी और खुद को सँभालते हुए बच्चों को तैयार कर स्कूल को भेज दिया l बिना किसी शर्म झिझक या किसी भी गलती के एहसास से कोंसों दूर दोनों ब्रेकफास्ट की टेबल पर बैठ कर मुझे किसी नौकर की भांति आदेश दिए जा रहे थे मैं भी किसी स्वामिभक्त नौकर की भांति सेवा में थी lटेबल से उठते ही मेरे पति ने मुझसे … Read more

मिट्टी के दिए

दीपावली पर मिट्टी के दिए जलाने की परंपरा है | भले ही आज बिजली की झालरों ने अपनी चकाचौंध से दीपावली की सारी  जगमगाहट अपने नाम कर ली हो | फिर भी अपनी परंपरा और अपने पन से जुड़े रहने का अहसास तो मिटटी के दिए ही देते हैं | आइये पढ़ें …  emotional hindi story-मिट्टी के दिए  मैं मंदिर के पास वाली दुकान में नीचे जमीन पर पड़े मिट्टी के दीयों में से दिए छांट रही थी | एक – एक देखकर  कि कहीं कोई चटका या टूटा तो नहीं है , करीने से अपनी डलिया  में भर रही थी | हाथ तो अपना काम कर रहे थे पर दिमाग में अभी कुछ देर पहले अपनी पड़ोसन श्रीमती जुनेजा के साथ हुआ वार्तालाप चल रहा था | श्रीमती जुनेजा  कह रही थीं  ,” कमाल है , तुम दिए लेने जा रही हो ?क्या जरूरत है मिट्टी  के दिए लाने की , बिजली की झालरों की झिलमिल की रोशिनी के आगे दिए की दुप – दुप कितनी देर की है | परंपरा के नाम पर बेकार में  पैसे फूंको | मैं जानती थी की कुम्हार , उसका रोजगार , बिज़ली की  बर्बादी ये सब उन्हें समझाना व्यर्थ है | इसलिए मैंने धीमें से मुस्कुरा कर कहा ,मैं इसलिए लाऊँगी क्योंकि मुझे दिए पसंद हैं | कई बार जब हम बहुत कुछ कहना चाहते हों और कह न सकें तो वो बातें दिमाग में चलती रहती हैं |किसी टेप रिकार्डर की तरह |  मेरा भी वही हाल था | हाथ दिए छांट रहे थे और दिमाग मिटटी के दीयों के पक्ष में पूरा भाषण तैयार कर रहा था | तभी एक सुरीली सी आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी | भैया , थोड़े से फूल , थोड़े से इलायची  दाने और … और आज जिस गॉड की पूजा होती है उनका कोई कैलेंडर हो तो दे दीजियेगा  मैंने पलट कर देखा , यही कोई 25 -26 साल की लड़की खड़ी थी | आधुनिक लिबास ,करीने से कटे बाल ,  गले में शंखों की माला , कान में बड़े – बड़े शंखाकार इयरिंग्स और मुँह में चुइंगम | मैंने मन ही मन सोंचा ,ये और पूजा … हम कितनी सहजता से किसी के बारे में धारणा बना लेते हैं | मुझको अपनी ओर देखते हुए बोली ,” आंटी , आज किस गॉड की पूजा होती है | शायद धन्वंतरी  देवी की | जिनका आयुर्वेद से कुछ कनेक्शन है | मैंने मुस्कुरा कर कहा ,” धन्वंतरी देवी नहीं , देवता | उन्हें आयुर्वेद का जनक भी कहा जाता है |धनतेरस पर उनकी पूजा होती है | क्योंकि स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन है | मैं बोल तो गयी पर मुझे लगा मैं कुछ ज्यादा ही बोल रही हूँ  | क्या ये बढती हुई उम्र का असर है कि हर किसी को प्रवचन देते चलो | या जैसा की मैंने कहीं पढ़ा था की जब सुपात्र मिल जाए तो ज्ञान अपने आप छलकने लगता है | खैर , वो मुझे कहीं पलट कर कुछ बेतुका  जवाब न दे दे | यह सोंच कर मैंने अपना ध्यान फिर से मिटटी के दिए चेक करने में लगा दिया | मेरी आशा के विपरीत वो मेरे पास आ गयी और ख़ुशी से चिहक कर बोली ,” वाओ ! मिटटी के दिए , मैं भी लूँगी | आंटी आज तो कुछ स्पेशल डिजाइन का दिया जलता है | हाँ , पर तुम्हें इतना कैसे पता  है , मैंने प्रश्न किया | मैंने नेट पर पढ़ा है | मैंने पूजा की पूरी विधि भी पढ़ी है | मैं अपने फ्रेंड्स के साथ पूरे रिचुअल्स मनाऊँगी | बहुत मज़ा आएगा | मेरी उत्सुकता बढ़ी | बातें होने लगीं | बातों  ही बातों में उसने बताया कि मात्र सोलह साल की थी जब डेल्ही कॉलेज ऑफ़ इंजीनीयरिंग में घर छोड़ कर पढाई करने आ गयी थी | फिर यहीं से M .B .A किया | फिर जॉब भी यही लग गया | इंजीनीयरिंग कॉलेज में सेलेक्शन से बरसों पहले ही  जीवन में बस किताबें ही थी |खेलना कूदना और त्योहारों की मस्ती जाने कब की छूट गयी |  सेलेक्शन और फिर जॉब के बाद परिवार , त्यौहार और घर बार सब छूट गया | अभी P .G में रहती है , कई लडकियां हैं | सब ने डिसाइड किया है कि त्यौहार पूरी परंपरा  के अनुसार ही मानायेंगे | इंटरनेट से जानकारी ली और चल दीं  खरीदारी करने | लम्बी सांस भरते हुए उसने आगे कहा ,” आंटी , हम सब … न्यू  जनरेशन जो आत्म निर्भर है , आज़ाद ख्याल है | फिर भी हम परंपरागत तरीके से हर त्यौहार मनाना चाहते हैं | जानती हैं क्यों ? क्योंकि इतना सब होते हुए भी हम सब अकेलेपन का शिकार हैं | इसी बहाने ही सही थोडा सा अपनी जड़ों से जुड़े रहने का अहसास होता है | लगता है अभी भी “इस मैं में कहीं हम बस रहा है |” मेरे अन्दर माँ बस रही हैं , बाबूजी बस रहे हैं और दिल्ली की बड़ी इमारतों के बीच में मेरा छोटा सा क़स्बा बस रहा है | ओ . के . आंटी , मेरा तो हो गया , बाय …कहकर वो चली गयी | मैं भावुक हो गयी | मुझे अभी और दिए लेने हैं …मिटटी के दिए , जो बिजली की झालरों के सामने भले ही दुप -दुप् जलते हों , पर इसमें जो अपनेपन के अहसास की चमक है  उसका मुकाबला ये बिजली की झालरे  कर पाएंगी भला ? वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. उसकी मौत झूठा एक टीस आई स्टिल लव यू पापा