पतुरिया

“अम्मा मैं बहुत अच्छे नम्बर से पास हो गई हूँ । अब मैं भी पी सी एस अधिकारी बन गयी ।” बेटी दुर्गा ने अपने पी सी एस की परीक्षा उत्तीर्ण करने की सूचना को जैसे ही नैना को बताया नैना की आँखों से आंसू छल छला कर बहने लगे ।“अरी मोरी बिटिया बस तुमका ही देखि देखि ई जिंदगी ई परान जिन्दा रहल । ” आज हमार सपना पूरा हो गइल । तोरे पढाई माँ आपन पूरा गहना गीठी सब बेच देहली हम । दू बीघा खेत बिक गइल । चार बीघा गिरो रखल बा । आज तू पास हो गइलू त समझा भगवान हमरो पतुरिया जात के सुन लिहलें । दुर्गा को गले लगा कर काफी देर तक नैना रोती रही । माँ को देख कर दुर्गा की आँखों में भी आंसू आ गए ।दुर्गा की आँखों के सामने वह बचपन का सारा मंजर घूम गया था । लोग बड़ी हिकारत भरी नजरों से देखते थे । माँ का समाज में कोई सम्मान नही था । गांव में आने वाले लोग घूर घूर के जाते थे । नैना ने बहुत साफ शब्दों में सबको बता दिया था बेटी नाच गाना नही सीखेगी । स्कूल जायेगी और साहब बनेगी । गाव का वह माहौल जिसमे पढाई से कोई लेना देना ही नही था । अंत में माँ ने सरकारी स्कूल के छात्रावास में रखकर पढ़ने का अवसर दिलाया । सचमुच में नैना का त्याग और बलिदान गांव वालों के लिए एक मिशाल से कम नही था । गाँव के लोग एक एक कर आ रहे थे । आखिर दुर्गा पतुरियन के पुरवा का गौरव जो बन चुकी थी । ढेर सारी बधाइयां ढेर सारे लोगों की दुआए नैना की ख़ुशी में चार चाँद लगा रहे थे । चर्चा कई गांव तक पहुँच चुकी थी । खास बात यह नही थी कि दुर्गा ने परीक्षा पास कर ली है बल्कि खास तो यह था कि एक पतुरिया की बेटी ने यह परीक्षा पास की है । दूसरे दिन अख़बार में जिले के पेज पर दुर्गा की खबर प्रमुखता से छपी । हर गली मुहल्ले चौराहे पर सिर्फ दुर्गा की ही चर्चा । दुर्गा आज समाज का बदला हुआ रूप देख कर हैरान थी । यह वही समाज है जब दुर्गा सौरभ के साथ उसके घर गयी थी तो सौरभ की माँ ने उसके बारे में पूछा था । सौरभ ने बताया था मेरे स्कूल में पढ़ती है मेरी पिछले साल की कक्षा पांच की किताबें पढ़ने के लिए मांगने आयी है । पतुरियन के टोला में रहती है ।सौरभ की बात सुनकर सौरभ की माँ ने कहा था” हाय राम ! ई पतुरिया की बेटी का घर मा घुसा लिहला । इका जल्दी घर से पाहिले बाहर निकाला ।जा उई जा पेड़ के नीचे बैठ …… ऐ लइकी ………..घर से बाहर निकल पाहिले । तोके कउनो तमीज न सिखौली तोर माई बाप का ? जा…..जा….” सौरभ को बात बहुत बुरी लगी थी और माँ से लड़ने लगा था तो माँ ने सौरभ की गाल पर दो चार तमाचे भी जड़ दिए थे । बेचारा सौरभ दूसरे दिन चोरी से उसे सारी किताबें दे गया था । बाद में वही सौरभ दुर्गा का सबसे अच्छा दोस्त साबित हुआ । और वह दोस्ती आज भी पूरी तरह कायम है । उपेक्षा तिरस्कार से रूबरू होते होते दुर्गा की इच्छा शक्ति दृढ होती गयी थी । इसी दृढ़ इच्छा शक्ति से उसने वह लक्ष्य हासिल कर लिया जिससे आज वही समाज उसका गुणगान करता नज़र आ रहा था । गाँव वाले दबी जुबान से यह भी कहते थे दुर्गा तो माधव की बेटी ही नहीं है । यह तो माधव के मरने के साढ़े दस महीने बाद पैदा हुई थी । पतुरियन के पुरवा के लिए यह बात कोई खास मायने नही रखती थी । सबके इज्जत में कालिख की कमी नही थी । सबके अपने अपने अफ़साने थे । दिन के दस बजे थे । दुर्गा के घर के सामने हेलमेट लगाए एक मोटर सायकिल सवार नौजवान ने अपनी बाइक रोकी । ” आंटी जी दुर्गा का घर यही है न ? ” हाँ बिटवा घर तो यही है । हाँ ऊ बइठी बा पेड़वा के नीचे ” “जी दुर्गा को बधाई देने आया हूँ । ” हेलमेट लगाये युवक ने दुर्गा को देखकर आवाज दिया । “बधाई हो दुर्गा !” अरी तुम ? …….कैसे हो सौरभ ? दुर्गा का चेहरा खिल उठा था ।ऐसा लगा जैसे सौरभ से मिलकर जाने क्या पा गयी हो । शायद उसकी ख़ुशी दो गुना हो गयी थी । “अख़बार में पढ़ा तो रहा ही नही गया और आज पहली बार तुम्हारे घर भी आ गया ।” सौरभ ने कहा । ” हाँ सौरभ यह सारी तपस्या तो बस तुम्हारी वजह से पूरी हो गयी । एक तुम ही तो थे जिसकी गाइड लाइन से मैं यह मुकाम हासिल कर सकी । चोरी चोरी तुम्हारे भेजे गए पैसों की मैं बहुत कर्जदार हूँ । आज तुम मेरे घर आ गए समझो भगवान् ने मेरी सारी मुराद पूरी कर दी । ” “और सुनाओ क्या हो रहा है आजकल ?” दुर्गा ने पूछा । “दुर्गा मैं दो बार आई ए एस के लिए ट्राई किया । एक बार तो प्री ही नही निकाल पाया दूसरी बार में प्री और मेन दोनों क्वालीफाई करने के बाद इंटरव्यू से आउट हो गया ……………। ”“इस बीच यू पी एस सी से कस्टम इंस्पेक्टर के लिए क्वालीफाई हो गया हूँ । ” “बधाई हो सौरभ । अब तो नौकरी भी तुम्हे मिल गयी । अब तो शादी में कोई बाधा नहीं । ”“हाँ दुर्गा तुम ठीक कह रही हो ,अम्मा भी यही कहती हैं जल्दी से जोड़ी ढूढ़ नहीं तो मैं अपने पसंद की कर दूँगी । ” “तो ढूंढी कोई जोड़ी ?”“सच बताऊँ क्या ?” “हाँ हाँ बताओ न ? ”“जोड़ी तो वर्षों पहले से ही ढूढ़ चुका हूँ । लेकिन अब वह शादी होगी या नहीं भगवान् ही जाने ……” दुर्गा के मन में उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी ।कैसी है वो ?बिलकुल तुम्हारे जैसी ?अरी यार साफ साफ बताओ न ? क्या तुम्हारे ही कास्ट में … Read more

फिर एक बार

फैक्ट्री कासालाना जलसा होना था. तीन ही सप्ताह बच रहे थे. कायापलट जरूरी हो गया;बाउंड्री और फर्श की मरम्मत और कहीं कहीं रंग- रोगन भी. आखिर मंत्री महोदय को आना था. दरोदीवार को मुनासिब निखार चाहिए.अधिकाँश कार्यक्रम, वहीं प्रेक्षागृह में होने थे. उधर का सूरतेहालभी दुरुस्त करना था. ए. सी. और माइक के पेंच कसे जाने थे. युद्धस्तर पर काम चलने लगा;ओवरसियर राघव को सांस तक लेने की फुर्सत नहीं. ऐसे में,नुक्कड़- नाटक वालों का कहर… लाउडस्पीकर पर कानफोडू, नाटकीय सम्वाद!! प्रवेश- द्वार पर आये दिन, उनका जमावड़ा रहता. अर्दली बोल रहा था- यह मजदूरों को भड़काने की साज़िश है. नुक्कड़- नाटिका के ज्यादातर विषय, समाजवाद के इर्द गिर्द घूमते.एक दिन तो हद हो गयी. कोई जनाना आवाज़ चीख चीखकर कह रही थी, “बोलो कितना और खटेंगे– रोटी के झमेले में??होम करेंगेसपने कब तक – बेगारी के चूल्हे में?! लाल क्रांति का समय आ गया…फिर एक बार!” वह डायलाग सुनकर, राघव को वाकई, किसी षड्यंत्र की बू आने लगी थी. उसने मन में सोच लिया, ‘ अब जो हो, इन बन्दों को धमकाकर, यहाँ से खदेड़ना होगा- किसी भी युक्ति से. चाहे अराजकता का आरोप लगाकर, याप्रवेश- क्षेत्र में, घुसपैठ का इलज़ाम देकर. जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद…’ उसके विचारों को लगाम लगी जब वह आवाज़, गाने में ढल गई.जाने ऐसाक्यों लगा कि वह उस आलाप, स्वरों के उस उतार- चढ़ाव से परिचित था. मिस्री सा रस घोलती,चिरपरिचित मीठी कसक! राघव बेसबर होकर बाहर को भागा. उसका असिस्टेंट भौंचक सा, उसे भागते हुए देखता रहा. वह भीनासमझ सा, पीछे पीछे दौड़ पड़ा. गायिका को देख, आंखें चौड़ी हो गईं, दिल धक से रह गया…निमिष भर को शून्यता छा गयी. प्रौढ़ावस्था में भी, मौली के तेवर वही थे. बस बालों में थोड़ी चांदी उतर आई थी और चेहरे पर कहीं कहीं, उम्र की लकीरें. भावप्रणव आँखें स्वयम बोल रही थीं;आकर्षकहाव- भाव, दर्शकों को सम्मोहन में बांधे थे. वह उसे देख, हकबका गयी और अपना तामझाम समेटकर चलने लगी.संगी- साथी अचरच में थे; वे भी यंत्रवत, उसके संग चल पड़े. राघव उलटे पैरों भीतर लौट आया.राघव के असिस्टेंट संजय ने पूछा, “क्या बात हैरघु साहब? कुछ गड़बड़ है क्या??!”“कुछ नहीं…तुम जाओ; और हाँ पुताई का काम, आज तुम ही देख लेना…मशीनों की ओवरहॉलिंग भी…मेरा सर थोड़ा दुःख रहा है”“जी ठीक है…आप आराम करें. चाय भिजवाऊं?”“नहीं…आई ऍम फाइन. थोड़ी देर तन्हाई में रहना चाहता हूँ”. उसे केबिन में अकेला छोड़, संजय काम में व्यस्त हो गया. उधर रघु के मनमें,हलचल मची थी. बीती हुई कहानियां, फिल्म की रील की तरह रिवाइंड हो रही थीं. वह सुनहरा समय- राघवऔर मौली, अपने शौक को परवान चढ़ाने, ‘सम्वाद’ थियेटर ग्रुप से जुड़े. दोनों वीकेंड पर मिलते रहते. वे पृथ्वी के विपरीत ध्रुवों की भाँति, नितांत भिन्न परिवेशों से आये थे. फिर भी अभिनय का सूत्र, उन्हें बांधे रखता. कितने ही ‘प्लेज़’ साथ किये थे उन्होंने. रघु को समय लगा; थियेटर की बारीकियाँ जानने- समझने में- अभिनय- कौशल, डायलाग- डिलीवरी, पटकथा- लेखन और भी बहुत कुछ.किन्तु मौली को यह सब ज्ञान घुट्टी में मिला था. उसके पिता लोककलाकार जो थे. घर में कलाकारों की आवाजाही रहती. इसी से बहुत कुछ सीख गयी थी. यहाँ तक कि तकनीकी बातें भी जानती थी. जैसेसाउंड व लाइट इफेक्ट्स, मेकअप, बैक स्टेज का संचालन; यही नहीं – दृश्य तथापर्दोंका निर्माण भी.संवादों पर उसकी अच्छी पकड़ थी. बौद्धिक अभिवृत्ति ऐसी कि डायलाग सुधार कर, उसे असरदार बना देती. सामाजिक समानता को मुखर करने वाले ‘शोज़’ उसे ज्यादा पसंद थे. इसी एक बिंदु पर उन दोनों के विचार टकराते. राघव मुंह सिकोड़ कर कहता, “कैसी नौटंकी है…’सो कॉल्ड’ मजबूरी और बेचारगी का काढ़ा! टसुओं का ओवरडोज़…दिसएंड देट…टोटल पकाऊ, टोटल रबिश!! दिस इस नॉट द वे टु सॉल्व प्रोब्लेम्स”“टेल मी द वे मिस्टर राघव” मौली उत्तेजना में प्रतिवाद कर बैठती, “आप क्या सोचते हैं कि आपके जैसे लक्ज़री में रहने वाले, समस्या को हल करसकेंगे… नहीं रघु बाबू…फॉरगेट इट !!” और बोलते बोलते उसके कान लाल हो जाते. जबड़ों की नसें तन जातीं. निम्नमध्यम वर्ग की त्रासदी, दंश मारने लगती…आँखों के डोरे सुर्ख हो उठते और चेहरे का ‘ज्योग्राफिया’ बदल जाता. ऐसे में राघव को, हथियार डालने ही पड़ते. छोटी छोटी तकरारें कब प्यार बन गयीं, पता ना चला. मौली के दिल में भी कसक होती पर वह जबरन उसे दबा लेती. उसने राघव से कहीं ज्यादा, ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव देखे थे. वह जानती थी कि धरती और आकाश का मिलन, आभासी क्षितिज पर ही होता है.वास्तविक जीवन फंतासियों से कहीं दूर था. उसके पिता एक छोटी सी परचून की दूकान रखे थे; जबकि राघव जाने माने वकील का बेटा था. ऐसा जुगाड़ू वकील- जिसने नेताओं से लेकर, माफिया तक से हाथ मिला रखा था. स्याह को सफेद कर दिखाना, जिसका धंधा था. पैसा ही जिसका ईमान और जीने का मकसद था. इधर मौली– वह स्वयम डांस- क्लास चलाकर, अभावों के हवनकुंड में, आहुति दे रही थी. राघव अक्सर कहता, “ये भी कोई लाइफ है मौली?! करियर में आगे बढ़ना है तो कुछ बड़ा मुकाम हासिल करो…रेडियो, टी. वी. में ऑडिशन दे डालो. कहो तो मैं बायोडाटा तैयार करूं?? आफ्टर आल यू आर सो एक्सपीरियंस्ड…कितनेकैरेक्टर प्ले किये हैं तुमने और एक से बढ़कर एक परफॉरमेंस… सिंगिंगऔर डांस की भी मास्टर हो तुम…”“बस बस रघु बाबू!” उत्तेजना में मौली उसे ‘बाबू’ की पदवी दे डालती; स्वरमें व्यंग्य उतर आता और शब्दवाण, राघव को निशाने पर लेते, “बाबू साहेब, हम सीधे- सादे गरीब आदमी…इज्जत की रोटी खाने वाले. दंदफंद करके एप्रोच निकाल पाना, अपन के बस में नहीं! उस पर कास्टिंग काउच…सुना है ना??!” शुभचिंतकबनने का जतन, राघव को अदृश्य कटघरे में खड़ा कर देता. ऐसेमें वहां रहना असम्भव हो जाता. वह तमककर उधर से चल देता और मौली चाहकर भी उसे मना ना पाती!! यूँ ही खट्टी मीठी झड़पों में दिन बीतते रहे और एक दिन राघव को पता चला कि परिवारचलाने के लिए मौली ने रंगशाला को अलविदा कह दिया है और कोई‘फूहड़ टाइप’ ऑर्केस्ट्रा ग्रुप जॉइन कर लिया है.ग्रुप क्या- नौटंकी कम्पनी ही समझो. मेले- ठेले में या दारूबाज लोगों की नॉन- स्टैण्डर्ड पार्टियों में शिरकत करते थे कलाकार.राघव के दिलोदिमाग में,धमाका सा हुआ! वह दनदनाता हुआ उनके दफ्तर पंहुचा और बिना संदर्भ- प्रसंग, मौली पर बरस पड़ा, “ बहुत … Read more

बेबस बुढापा

उमा के कॉलेज की छुट्टी आज साढे चार बजे ही हो गई। वैसे तो कॉलेज का समय एक से छः बजे तक है, परन्तु आज कॉलेज के ट्रस्टी दीनानाथ जी का आकस्मिक निधन हो जाने की वजह से छुट्टी डेढ घण्टा पहले ही कर दी गई। यूं तो यह खबर बहुत दुःखद थी, पर उमा यह सोचकर काफी खुश थी कि चलो कम-से-कम आज का यह डेढ-दो घण्टा वह अपने दद्दू के साथ बिता पायेगी। रोज तो इतनी भागमभाग रहती है कि दस मिनट भी उनके पास बैठ पाने की फुर्सत नहीं मिल पाती। मम्मी, पापा, मैं सब कितना बिजी रहते हैं कि दद्दू के लिये जरा भी वक्त नहीं निकाल पाते। दद्दू अकेले बहुत बोर हो जाते होंग। पर करें भी तो क्या? हम सब की भी तो कितनी मजबूरियां हैं। शहरों में वक्त तो इस तरह कम पडता जा रहा है जिस तरह सहरा में पानी। एक बडा शहर कितना वक्त छीन लेता है ना हमसे….. जो वक्त हमारे अपनों के लिए होता है…. और वो इंसान कितना अकेला पड जाता है जो इस शहरी भागमभाग का हिस्सा नहीं है…? हम भी तो कहां निकाल पाते हैं वक्त दद्दू के लिये! पर दद्दू ने आज तक एक बार भी गिला शिकवा नहीं किया…। घर में घुसते या फिर घर से निकलते वक्त दो मिनिट मुश्किल से बरामदे में बैठे दद्दू से बतिया पाते हैं, वो तो कभी-कभी…. या फिर शाम को खाना देते वक्त पांच मिनिट उनके पास बैठ पाती हूं…। दद्दू खाना भी तो हमारे साथ बैठकर खाने की बजाय अपने कमरे में ही खाते हैं…। सोचते-सोचते उमा ने जाने कब स्कूटी की रफ्तार बढा दी। कॉलेज से शहर के बीच का लगभग सात किलोमीटर का रास्ता उसने रोज की अपेक्षा आज कुछ जल्दी तय कर लिया। बाजार आते ही उसने एकदम से स्कूटी को ब्रेक लगाये जैसे अचानक कुछ याद आया हो। स्कूटी साइड में खडी कर दुकान पर चढते-चढते ही सामान ऑर्डर करने लगी। आज उसने दुकान पर पहले से खडे लोगों की जरा भी परवाह न की। वह बिना रुके एक ही स्पीड से सामान ऑर्डर करती गई। अंकल बोरबोन, मोनाको, पॉपकोर्न, चिवडा, नमकीन बीकाजी भुजिया व मुनक्का दीजिये….प्लीज जल्दी कीजिये। दुकानदार मुस्कराकर कहने लगा, ‘‘लगता है बेबी जी, आज बहुत जल्दी में हो।’’ ‘‘हां अंकल! आप प्लीज जल्दी कीजिये। सिर्फ 5 ही मिनिट में वह स्कूटी पुनः स्टार्ट कर घर की ओर चल पडी। आज वह एक भी मिनिट व्यर्थ नहीं गंवाना चाहती थी, आज उसको एक चिंता निरन्तर सता रही थी, ‘‘पता नहीं दद्दू कैसे होंगे…! बुखार उतरा होगा या नहीं? कुछ खाया भी होगा कि नहीं…! शाम करीबन पांच बजे एक प्लेट में बीकाजी भुजिया, बोरबोन बिस्किट व बुखार की गोली रखकर पानी का ग्लास साथ में ले वह दद्दू के कमरे में दाखिल होते हुए दरवाजे से ही दद्दू को प्यार भरी मीठी झिडकी देते हुए कहने लगी, ‘‘दद्दू आज शाम आप टहलने नहीं जायेंगे। समझे ना! आपको बुखार है और यह आपने किसी को बताया तक नहीं। अगर आज मुझे पता न चलता तो आप किसी को बताते भी नहीं, है ना…! और तो और अभी भी आप टहलने जाते हैं…जैसे दो दिन टहलने ना गये तो पार्क पर कोई आफत आ जायेगी…।’’ कहते-कहते उमा ने पानी का ग्लास व प्लेट सेंटर टेबल पर रख टेबल को दद्दू के पास खिसका दिया, ‘‘आप नाश्ता लेकर यह बुखार की गोली लें, तब तक मैं आफ लिए गरमागर्म मसालेवाली चाय बनाकर लाती हूं।’’ अपनी बात खत्म करने से पहले ही उमा फुर्ती से किचन की तरफ चल पडी।देविकाप्रसाद जी ने मन ही मन सोचा, आफत तो आ जायेगी बेटा….पर पार्क पर नहीं, इस घर पर….अगर मैं बहू को इस वक्त घर पर दिखाई दिया तो कोई न कोई आफत तो जरूर आ जायेगी….। बहू के आने से पहले-पहले घर छोड दूं तो अच्छा है…..नहीं तो वो देखते ही दो-चार ताने तो जरूर मारेगी….। देविकाप्रसाद जी को एक-एक करके ज्योति द्वारा सुनाये जानेवाले ताने याद आने लगे जो गत आठ महीनों से वो अपनी इकलौती बहू ज्योति से सुनते आ रहे हैं। बहू के इस कडवे व्यवहार के स्मरण भर से उनका मन अंदर तक कसमसा उठा और बिना कुछ खाये ही वे प्लेट में रखी कडवी गोली उठाकर एक ही झटके से निगल गये। यूं तो दवा निगलना उनको जहर निगलने से कम नहीं लगता, पर उनके प्रति बहू की रग-रग में भरी नफरत और कटुता के ख्याल भर से गोली की कडवाहट को कम कर दिया। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर ज्योति उन्हें देखते ही अपना आपा खोकर अनाप-शनाप कुछ भी क्यों बोलने लगती है…! मैं कुछ काम पूछता हूं तो बताती नहीं है, बिना बताये करूं तो उसे सुहाता नहीं है….आखिर क्या करूं? क्या मैं इन सब पर मात्र् बोझ बनकर रह गया हूं? उनकी नजर घडी पर पडी, पांच बजकर आठ मिनट हो चुके थे, ‘अब पांच-दस मिनिट में बहू आती ही होगी, मुझे निकल लेना चाहिए। कौन सी अब टांगों में जान बची है, पर मुझे घर पर देखकर ख्वामख्वाह बहू का खून जलेगा, जब-जब मैं बहू को घर पर मिला उसने कुछ न कुछ जरूर सुनाया। और कुछ नहीं तो यह कहकर पंखा ही बंद करेगी कि ‘बिजली वाले क्या सगे लगते हैं! कितना बिल आता है, जरा खबर भी है…! शहरों के खर्च कितनी मुश्किल से चलते हैं आपको क्या पता! इनसे तो बुड्ढे-बुड्ढे लोग घरों का काम निपटाते हैं, पर यह लाट साहब तो पलंग तोडने से ही बाज नहीं आते।’ और भी जाने क्या-क्या सुनने को मिलता है, पर क्या करूं? कोई उपाय भी तो नहीं।’ शुक्र है कि बहू ने अब तक बातों के घाव ही दिये हैं, कहीं किसी रोज लातों के….नहीं-नहीं, हे भगवान्! ऐसा दिन आने से पहले ही मुझे उठा लेना….।’ विचारों की उथल- पुथल में जाने कब सवा पांच बज गये, पुनः नजर घडी की ओर दौडायी और बोल पडे, ‘‘हे राम अब!’’ तब तक उमा चाय लेकर आ गई बोली, ‘‘क्या हुआ दद्दू अब!’’ ‘‘कुछ नहीं बेटा!’’ कहकर देविका प्रसाद जी चुप हो गये। चुप न होते तो कहते भी क्या? उमा ने चाय का कप दद्दू को पकडाते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ … Read more

तबादले का सच

शालिनी का आज दफ्तर में पहला दिन था। सुबह से काम कुछ न किया था बस परिचय का दौर ही चल रहा था।बड़े साहब छुट्टी पर थे सो पूरा दफ्तर समूह बनाकर खिड़कियों से छन-छन कर आती धूप का आनन्द ले रहा था और बातशाला बना हुआ था। उसने पाया कि वो एक अकेली महिला नहीं है दफतरि में ! रमा जी भी हैं उनके साथ ।जो कि जीवन के 50 बसंत देख चुकी हैं और पिछले 10 वर्षों से इसी दफ्तर में होने के कारण अब अपना दफ्तरी आकर्षण शायद खो चुकी थीं। इसीलिए शालिनी पर सबकी आस बंधी थी कि शायद दफ्तर के रूखे रसहीन माहौल में कोई बदलाव आएगा।पूरे दफ्तर पर वेलेन्टाइन का भूत सवार था । हर कोई एक दूसरे की चुटकियाँ ले रहा था। राम बाबू उम्र में सबसे बड़े थे वहाँ । वो बीते ज़माने का पुलिंदा खोलकरबैठे थे। उनकी जीभ किसी चतुर सिपाही की तरह गुटके की सुपारियों को मुंह के कोने -कोने से ढूंढ कर दांतों के हवाले कर रही थी । और दांत दुश्मन को पीस रहे थे चबा रहे थे कि उनके बचने की कोई सूरत न रहे!उन्हीं शिकारी प्रवृत्तियों को ज़रा विराम देते हुए सुपारियों को गाल का आश्रय देते हुए राम बाबू बोले। बेलेन्टाइन डे की सुरसुरी हमारे जमाने में नहीं सुनी थी पर“आपके जमाने अब नहीं क्या राम बाबू ” सतीश बाबू ने बात काटकर ठहाका लगाया।सबने उनका साथ दिया। राम बाबू भी कहाँ रुकने वाले थे !बोले मर्द के जमाने कभी न जाते हैं सतीश बाबू! असली घी तो पानी की तरह पीकर जवान हुए हैं! ये फास्ट फूड खाकर बड़े हुए आजकल के नौजवान हमारी बराबरी में टिक ही नहीं सकते हैं!आज भी साँस न फूलती हमारी उन्होने एक आँख दबाकर पास बैठे दिवाकर की जांघ को धीरे-से दबाते हुए और सबकी तरफ नज़र घूमाते हुए शालिनी पर गाड़ दी! शालिनी जो अब तक उन सबकी बातों में रुचि ले रही थी, यकायक इस बेहूदगी के लिए तैयार न थी सो अचकचाकर उसने रमा जी की तरफ देखा । वो तो किसी नाॅवेल में मगन इस चर्चा से अलग अपनी दुनिया में थीं।शालिनी ने भी अब अखबार उठाकर अपना ध्यान बंटाना शुरु किया।बातचीत का दौर उधर ज़ोर पकड़ रहा था। राम बाबू की बात ने सभी को रोमांचित कर दिया था। इससे उनका उत्साह और बढ़ गया और वो अपनी व्यक्तिगत बातों को सार्वजनिक करने लगे कि कब-कब उनकी पत्नी से उन्होंने कैसे-कैसे अपनी मर्दान्गी का लोहा मनवाया! अखबार में मुँह छुपाए भी शालिनी को आवाज़ की दिशा और रफ्तार से समझ आ रहा था कि सबकी गर्दन उसी की तरफ घूमकर ही कुछ बोल रही हैं! ईश्वरीय वरदान कहें या अभिशाप इसको कि जब भी कोई नज़र स्त्री को सिर्फ देह समझ कर देखती है तो वो परदे की ओट से भी पहचान लेती है। उसको निशाना बनकर की जाने वाली द्विअर्थी बात उस तक ज़रूर पहुँचती है भले ही एक घड़ी कोई दूसरा पुरुष न समझ पाए। खैर… शालिनी थोड़ी विचलित ज़रूर थी क्योंकि इससे पहले वो जहाँ पोस्टेड थी वहाँ का माहौल बहुत अच्छा था। महिलाएं और पुरुष सब मित्रतापूर्वक काम करते थे बातें करते थे। उसने सोचा भी न था कि नयी जगह पर पहले दिन इन बेहूदगियों से दो-चार होना पड़ेगा! पुराना दफ्तर उपनगरीय इलाके में था। शहर से दूर, तो भी सब समय से आते-जाते थे, काम करते थे। पढ़े-लिखे समझदार लोग थे! काम से काम रखते थे फिर भी थोड़ा बहुत हंस बोल लिया करते थे। कभी-कभी उस माहौल को उबाऊ , नीरस और यंत्रवत भी कहा जा सकता था! जहाँ किसी के सुख-दुख का हाल जानना महज एक शिष्टाचार होता था जिसका पालन करना दफ्तर के नियमानुसार आवश्यक था। शालिनी को वैसे माहौल में सामजस्य बिठाने में भी बड़ी मुश्किल हुई थी। BA. करते ही एक साल की कोचिंग की! कड़ी मेहनत की! आरक्षण कोटे के कारण कठिन हुई डगर के बावजूद competition exam पास करके उसे तुरंत ही सरकारी नौकरी मिल गयी थी। अभी तो college life की तरह अल्हड़पन से जीने वाली शालिनी को ये माहौल ज़रा भी न जमता था। उसने तो सुन रखा था कि सरकारी दफ्तरों में काम कम मस्ती ज़्यादा होती है। तभी तो इतनी मेहनत की इसे पाने के लिए। पर यहाँ तो सब काम करते हैं और उसे भी करना पड़ता है। कारण भी जल्दी ही समझ आ गया था। दफ्तर के head जो थे वो मुख्य मंत्री के पी.ए.के दामाद थे। मानो सबके सिर पर लटकती तलवार! खुद भी काम करते और सबसे भी करवाते क्योंकि विपक्ष की पैनी नज़र इस दफ्तर पर ही रहती थी। सावधानी हटी दुर्घटना घटी वाली स्थिति थी।तीन साल वहाँ काम करके शालिनी भी उसी माहौल की आदि हो गयी थी। ज़रूरत भर का बोलना और मुस्कुराना उसने भी सीख लिया था और अब उसे ये सब सहज भी लगने लगा था!उधर बेहूदे ठहाकों का दौर जारी था। बहुत सोच समझकर शालिनी के पापा ने उसकी पोस्टिंग यहाँ करवाई थी। उन्हें शालिनी का दिन ब दिन संजीदा होता जाना बिल्कुल न जँचता था और इसके लिए वो उसके दफ्तर के माहौल को ही दोषी मानते थे। कई लोगों से जानकारी निकलवायी गयी कि किस दफ्तर में काम या तो होता ही नहीं है या बहुत देर से कुछ ले देकर ही होता है और फिर वहीं अर्जी लगाई गयी। इस की कहानी भी बड़ी दिलचस्प रही कि शालिनी को यहाँ तबादला कैसे मिला! वो हुआ यूं कि जब जानकार लोगों से निम्नतर कामकाज वाले दफ्तरों की सूची बनवाई गयी तो साथ में वहाँ बदली की रेट भी सामने आई! पापाजी ने हिसाब किताब लगाया कि अभी दफ्तर आने-जाने में जितना समय और पैसा लगता है उसके मुकाबले किस ब्रांच में कितना कम लगेगा! फिर रेट देखकर चार दफ्तर फाइनल किए गये और उन्हीं में से एक उसको मिल गया। पापाजी ने बताया था कि तीन साल में जितनी तेरी बचत थी वो इस रेट की भेंट चढ़ गयी है और अब तुझे वो वसूल करनी है बस! कितने समय में वो तू जान।तो यूं शालिनी इस तैयारी से आई थी इस दफ्तर में ।पहला दिन कुछ अच्छा नहीं बीत रहा था। काम … Read more

किट्टी पार्टी

आज रमा के यहाँ किट्टी पार्टी थी। हर महीने होने वाली किट्टी पार्टी का अपना ही एक अलग उत्साह रखता था। लगभग तीस महिलाओं का समूह था यह। सभी सखियाँ -सहेलियां आ रही थी। महकती -गमकती मुस्कुराती, पर्स संभालती, बालों को सेट करती एक -एक करती पहुँच रही थी। आँखों पर पतली सी काज़ल और लबों पर भी एक रंगीन लकीर खींच कर जता रही थी मानो कुछ देर के लिए चिंताओं और ग़मों को एक लक्ष्मण रेखा के भीतर धकेल दिया हो। हर कोई बस जी लेना चाहती थी कुछ पल। तरो ताज़ा होने के लिए कुछ महिलाओं के लिए यह पार्टी कम नहीं थी। हालाँकि कई महिलाओं की तो कई और भी किट्टी पार्टी थी।गर्म-गर्म खाने और पीने का दौर चल रहा था। एक खुशगवार सा माहौल था।अचानक लीना ने एक खबर सुनानी शुरू की , ” कल मैंने विदेश की एक खबर पढ़ी, उसमे लिखा था एक जोड़े ने शादी के उन्नीस घंटे बाद ही तलाक ले लिया …!” बड़ी हैरान हो कर थोड़ी आँखे विस्फारित सी हो कर वह कह रही थी।सभी महिलाएं खिलखिलाकर हंस पड़ी। निहारिका थोडा सा मुहं बना कर दिल पर हाथ रख बोल पड़ी , ” लो कर लो बात …! उन्नीस घंटे बाद ही तलाक …!और हमारे यहाँ तो शादी के बाद प्यार होने में ही उन्नीस साल लग जाते हैं …!”एक बार फिर से खिलखिलाहट ..!थोड़ी ही देर में एक ख़ामोशी सी छा गयी।फिर रोमा हंस कर बोली जैसे कहीं खो सी गयी हो , ” हाँ …!ये तो तुमने सच ही कहा निहारिका , प्यार तो होते -होते हो ही जाता है बस, ये अलग बात है हम अपने साथी के साथ रहते हैं, एक दूसरे की जरुरत पूरी करते , बच्चे जनते – पालते और इस बीच न जाने प्यार कब हो जाता है। लेकिन इतने सालों बाद भी एक खालीपन तो महसूस होता ही है। जैसे कोई तो होता जो हमें भी सुनता। किसी के आगे हम भी जिद करते और अपनी बात मनवाते …! आखिर प्यार में यही तो होता है ना …?”पल्लवी ने भी हामी भरी , ” अरे यह भी कोई जिन्दगी होती है जैसी हम जीते हैं, शादी ना हुई कोई उम्र कैद की सजा ही हो गई। ना मन पसंद रंग पहन सकते। ना अपनी पसंद का कोई ड्रेस ही पहन सकते। यह मत करो या यह क्यूँ किया या तुमको यही करना चाहिए। मैं तो अपनी पसंद का रंग ही भूल गयी हूँ …..याद ही नहीं के मुझे क्या पसंद था और मुझ पर क्या जंचता था …! ”माहोल थोडा गंभीर हो चला था .हाथों में पकडे कॉफी के मगों से अब भाप निकलनी बंद हो गयी थी। आखों और होठों पर लगी लकीरें भी थोड़ी सी फीकी दिखने लगी थी।परनीत थोडा सा संजीदा हो चुकी थी। ” हाँ यार …! ऐसा ही होता है , कभी जिद करो या सोचो के आज बात ही नहीं करना और अनशन पर ही रहना है चाहे कुछ भी हो …! भाड़ में गया यह घर और उनकी घर गृहस्थी …हुंह ! लेकिन थोड़ी देर में कोई बच्चा कुछ बात करता या खाने को मांग बैठा तो यह ममता उमड़ने लगती है ,आखिर बच्चों की तो कोई गलती नहीं होती ना !”” और नहीं तो क्या बच्चों को क्यूँ घसीटें हमारे आपसी मतभेद में, उनके लिए ही उठना पड़ता है एक बार से बिखरती गृहस्थी को समेटने। तभी पीछे से साहब भी आ जाएँगे मंद -दबी मुस्कान लिए और धीमे से चाय की फरमाइश लिए हुए। अब चाहे कितना भी मुहं घुमाओ हंसी आ ही जाती है। पर मन में एक टीस सी छोड़ जाती है हूक सी उठाती हुई …, क्या जिन्दगी यूँ ही कट जायेगी, अपने आप को हर रोज़ घोलते हुए ! “, उषा भावुक सी होते हुए बोली।आकांक्षा जिसे अभी गृहस्थी का अनुभव कम था। बोली , “अरे तो आप सब सहन ही क्यूँ करती हो ….विरोध करो , और बच्चों के लिए ,किस के लिए अपनी खुशियों को त्याग देती हो !कौन है जो तुम सब के त्याग को महान कहेगा ? समय आने पर यह बच्चे भी अपनी दुनिया में मग्न हो जायेंगे। हम सब बैठी रहेंगी अपने-अपने त्याग और बलिदान की टोकरी लिए। शायद एक दिन हम सब अपने आप को ही भूल जाएं ।”” लेकिन ये जो हमारे बच्चे हैं, अपने आप तो दुनिया में आये हैं नहीं और ना ही इन्होने हमें कहा था के उनको इस दुनिया में आना है। हम ही तो लायें है इन्हें, तो इनकी देख भाल और परवरिश करने का फ़र्ज़ तो हमारा ही है …! और हम बच्चों की बात नहीं कर रहे, यहाँ बात हो रही है स्व की …! हमारी निजता की। हमारा आखिर वज़ूद क्या है घर में समाज में …, क्या सिर्फ अनुगामिनी ही है हम , थोडा सा भी विरोध का स्वर उठाने पर कौन हमारा साथ देता है ? यहाँ तक की घर की महिलाये भी साथ नहीं देती। मेरी नज़र में हर औरत अकेली है और सिर्फ अकेली ही उसे अपने लिए लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है कोई भी साथ नहीं देता उसका।” निहारिका ने अपनी बात पर जोर दे कर कहा।” नहीं ऐसा नहीं है ….,साथ तो देती ही है …” , आशा ने कहा तो लेकिन कुछ कमजोर स्वर में।“क्यूंकि सभी को मालूम है जब कभी भी जोर दे कर महिला अपनी बात भी मनवाना चाहती है तो उसे विद्रोहिणी की संज्ञा दी जाती है।” एक बात तो निहारिका ने सही कहा , ” हर औरत अकेली है ” ….दूसरी बात मैं भी कहूँगी कि “हर औरत का एक ही वर्ग है “….और वह मजदूर वर्ग …! जिस तरह एक मजदूर औरत या घरों में काम करने वाली माई सुबह से शाम मजदूरी करती है वैसे ही मैं भी सुबह घर का काम देख ,फिर अपनी नौकरी पर जाती हूँ। कई बार कुछ फरमाइश होती है शाम को आते हुए कुछ सामान भी लेती आना। देर हो जाती है शाम को आते-आते तो फिर सभी के फूले हुए मुहं देखो और बडबडाहट भी सुनो , महारानी सुबह ही निकल जाती है पर्स झुलाते हुए ,अब घर आयी है … Read more

एक हमसफ़र

प्रतापगढ़ से लालगंज का सफर बहुत कष्टदायक था। मेटाडेार यात्रियों से खचाखच भरी थी और तेज ठंड में भी उमस और उलझन महसूस हो रही थी। हर तरह की सांसें एक दूसरे से उलझ रही थी और एक ऐसी गंध का निर्माण कर रही थी, जो असहनीय होती जा रही थी। पाद की गंध, इत्र की सुगन्ध और सांसों से झिरती, प्याज, लहसुन, सिगरेट-बीड़ी और तम्बाकू-खैनी की रसगंध एकसार होकर बेचैन किए थी। ं मैं अपनी किस्मत का कोस रहा था कि पहले मैं ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठा था, अकेला। परन्तु जब ड्राइवर कम कंडक्टर ने एक-एक करके तीन आदमी उस सीट पर बैठाये तो मैं झुंझला कर बोल उठा, आप गाड़ी कैसे चलाओगे,? खुद कहाॅ बैठोगे? ‘यह मेरा काम है, मैं कर लूंगा।‘ं उसने गर्वमिश्रित साधिकार घोषणा कीं। मैं असमंजस में आ कर पीछे बैठना ही बेहतर समझा। वहाॅ, कमोवेश गिरने का डर तो नहीं रहेगा। और उस समय पीछे की सीटें पूर्णरूपेण भरी नहीं थीं, और मुझे तनिक भी आशंका नहीं थी कि पीछे की स्थिति भी बदतर हो जायेगी। वैसे भी ड्राइवर के साथ वाली जगह पर इस इलाके के प्रभावशाली लोग ही बैठते थें। इस जगह पर उनका अघोषित आरक्षण था। मुझ जैसे का उनके साथ बैठना उन्हें असहज बना रहा था। एक दो बार ईशारों से और वाक्यों से मुझे पीछे आराम से बैठने की सलाह, ड्राइवर और तथाकथित उच्च लोग दे चुके थे। परन्तु वहाॅ बैठकर मैं भी अपने को विशिष्ट समझने का भाव लिए था।ं मेरे वहाॅ से उतर कर पीछे चले जाने से उन लोगों के चेहरे से हार्दिक संतुष्टि का भाव प्रगट हो रहा था। मेटाडोर के पीछे वाले हिस्से में दो लम्बी-लम्बी सीटें थीं, जिनपे चार चार लोग आसानी से बैठ सकते थे। परन्तु उसने देखते ही देखते उनमें छै-छै व्यक्ति खिसका-खिसका कर एडजस्ट कर दिए थे। मैं आगे और पीछे की सीटों पर बैठने की प्राथमिकताओं और उपयोगिताओं के गणित में उलझ कर रह गया था। मेरे सामने की सीट पर चार औरतें थीं और दो आदमी। उसमें तीन औरतें और दोनों आदमी साठ-सत्तर के आसपास बूढ़े और थके थे। सिर्फ एक औरत जवान थी, शायद काली सी। वह घूंघट लिए थी और उसकी गोद में एक डेढ़ साल का बच्चा था, उस जैसा ही। उस बच्चे वाली औरत के दांत सफेद मोती जैसे थे जो घूंघट में चमक रहे थे। बच्चा अक्सर रो उठता था, जिसे चुप कराने के लिए उसे छाती से सटाकर दूध पिलाना पड़ता था, जिसके लिए उसे काफी सावधानी रखनी पड़ती थी, कि कोई नजर उसका पोषण अंग देख न ले। जिस सीट पर मैं बैठा था उसमें एक कम उम्र का जवान लड़का गेट की तरफ, दो अधेड़ औरतें, एक मुच्छड़ अधेड़, एक मैं और मेरे बगल में, ड्राइवर की सीट के एकदम पीछे एक पर्दा नसीन। ड्राइवर के साथ एक पुलिस वाला एक ठेकेदार और एक अध्यापक था, जो जोर-जोर से बातें ओर बहस करता था। एक तो बोरियों की तरह ठुसे, ऊपर से बोरियत का आलम, कहीं कोई खूबसूरती का चिंह नहीं था। मैं कसमसाया और अन्दर चारों तरफ नजर दौड़ाई, मगर अफसोस उस यात्रियों से भरी मेटाडोर में कहीं कोई रोमांस लायक नहीं था। सारे चेहरे थके बोझिल और बूढ़े थे। ज्यादातर अधेड़ मुच्छड़ या झुर्रियों भरे चेहरे थे। मैं खूबसूरती की तलाश में था। बच्चे वाली काली नवयौवना घूंघट की आड़ से अक्सर मुझे देख लेती थी, जब मेरी नजरें कहीं और होती थी । उसका चेहरा तो ठीक से नहीं देख पाता था परन्तु पोषण वाली जगह अक्सर दृष्टि पड़ जाती थी। वह झट से बच्चे का दूध छुटाकर अपने को पूरा ढक लेती थी। मेरी खूबसूरती की तलाश पर्दानसीन पर आकर अटक गई थी। वह बुरके में थी। लड़की, नवयुवती या स्त्री ? उसका कोई भी अंग, या कोर नहीं दिख रहा था, जिससे खूबसूरत, बदसूरत का अंदाजा लग सकें। खूबसूरती की खोज में असफल, निराश और सुन्दरता के दर्शन दुर्लभ हैं, मैंने आंखें बंद कर लीं। कुछेक पलों बाद मैंने आंखें खोलीं तो देखा घंूघट वाली अपने बच्चे को दूध पिला रहा थी, मगर उसकी आंखें मुझ पर स्थिर थीं मैं अचकचाया और अपनी दृष्टि पर्दानसीन पर फेर दी। उसकी आंखें भी महीन जालियों में कैद थीं। बड़ी कोफ्त हो रही थी। अचानक उसने बुरके की जेब से हांथ बाहर निकाला और अपने चेहरे पर फेरेते हुए मद्धिम स्वर में कहा, ‘‘आह! क्या आफत है? मेरी सांस न घुट जाये।‘‘ उसके हांथ और साइड से चेहरे की झलक पाकर, मुझे आभास हो गया कि यह लड़की बला की खूबसूरत होगी। मुझे लगा सुन्दरता हर जगह होती है, तलाश करनी पड़ती है। मैं उसे कनखियों से देख लेता। अब मेरा ध्यान सिर्फ उसी पर केन्द्रित था। कैसे पूर्ण चांद दिख जाये। मैंने एक नजर चारों ओर दौड़ाई, सब ऊॅंब और ऊॅघ रहे थे। सायं के सात बज रहे थे। रात का अंधेरा घिर आया था। गाड़ी अपनी गति से चल रही थी और हर आधा-एक कि0मी0 पर गाड़ी रूकती सवारियां उतारती और चढ़ाती थी। परन्तु यात्रियों की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं आ रहा था। पर्दानसीन हसीना ने व्याकुल होकर अपने चेहरे के हिजाब को उलट दिया और मेरी तरफ मुखातिव होकर बोली, ‘बड़ी बेबसी है, घुटन है।‘ मैं हतप्रभः उसकी ओर अपलक निहारता ही रह गया। उसके चेहरे पर अजीब सा आकर्षण और सम्मोहन था, जिसने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। वह बला की खूबसूरत थी और उसका बदन तराशा हुआ था। उसकी आंखों में बेपनाह गहराई थी। वह मेरी तरफ उत्सुक नजरों से देख रही थी। मैं प्रतिक्रिया विहीन, भावशून्य अवस्था में शब्दहीन और अर्धव्याकुल था। कई सारी जोड़ी आंखें, उस पर केन्द्रित हो गयीं तो झट से उसने अपना चेहरा ढक लिया और मैं चेतन अवस्था में आ गया। मैंने सोचा इश्क करने के लिए उससे ज्यादा उपर्युक्त कोई नहीं होगा। कम से कम जिंदगी में एक अदद गर्लफ्रेन्ड होना जरूरी है, जिससे मैं अभी तक महरूम था। मेरी तलाश पूर्ण हो चुकी थी। मैंने मन ही मन अपनी दीदी का शुक्रिया अदा किया, जिन्होंने कुछ समय के लिए छुट्टियों में अपने साथ रहने को बुलाया था। लीलापुर आ गया था। कई सवारियां उतरी थीं। बच्चे वाली औरत गायब थी, … Read more

फुंसियाँ

सुधीन्द्र,जब यह पत्र तुम्हें मिलेगा , मैं तुम्हारे जीवन से बहुत दूर जा चुकी हूँगी । मेरे पैरों में इतने वर्षों से बँधी जं़जीर खुल चुकी होगी । मेरे पैर परों-से हल्के लग रहे होंगे और किसी भी रास्ते पर चलने के लिए स्वतंत्र होंगे ।चलने से पहले तुम से चंद बातें कर लेना ज़रूरी है । कल रात फिर मुझे वही सपना आया । तुम मुझे अपने दफ़्तर की किसी पार्टी में ले गए हो । सपने में जाने-पहचाने लोग हैं । परस्पर अभिवादन और बातचीत हो रही है कि अचानक सबके चेहरों पर देखते-ही-देखते फुंसियाँ उग आती हैं । फुंसियों का आकार बढ़ता चला जाता है । फुंसियों की पारदर्शी झिल्ली के भीतर भरा मवाद साफ़ दिखने लगता है । और तब एक भयानक बात होती है । उन फुंसियों के भीतर मवाद में लिपटा तुम्हारा डरावना चेहरा नज़र आने लगता है । तुम्हारे सिर पर दो सींग उग जाते हैं । जैसे तुम तुम न हो कर कोई भयावह यमदूत हो । असंख्य फुंसियों के भीतर असंख्य तुम । मानो बड़े-बड़े दाँतों वाले असंख्य यमदूत… डर के मारे मेरी आँख खुल गई । दिसंबर की सर्द रात में भी मैं पसीने से तरबतर थी । ” तुमने ऐसा सपना क्यों देखा ? ” जब भी मैं इस सपने का ज़िक्र तुमसे करती तो तुम मुझे ही कटघरे में खड़ा कर देते ।” क्यों क्या ? क्या सपनों पर मेरा वश है ? ” मैं कहती । तुम्हारा बस चलता तो तुम मेरे सपने भी नियंत्रित कर लेते !तुम कहते हो कि यह सपना मेरे अवचेतन मन में दबी हुई कोई कुंठा है, अतीत की कोई स्मृति है । दुर्भाग्य यह है कि मेरी तमाम कुंठाओं के जनक तुम ही हो । मेरे भूत और वर्तमान में तुम्हारे ही भारी क़दमों की चहलक़दमी की आवाज़ गूँज रही है ।मुड़कर देखने पर लगता है कि मामूली-सी बात थी । मेरे गाल पर अक्सर उग आने वाली चंद फुंसियाँ ही तो इसके जड़ में थीं । लेकिन क्या यह बात वाक़ई इतनी मामूली-सी थी ? तुमने ‘ आइसबर्ग ‘ देखा है ? उसका केवल थोड़ा-सा हिस्सा पानी की सतह के ऊपर दिखता है । यदि कोई अनाड़ी देखे तो लगेगा जैसे छोटा-सा बर्फ का टुकड़ा पानी की सतह पर तैर रहा है । पर ‘ आइसबर्ग ‘ का असली आकार तो पानी की सतह के नीचे तैर रहा होता है जिससे टकरा कर बड़े-बड़े जहाज़ डूब जाते हैं । जो बात ऊपर से मामूली दिखती है उसकी जड़ में कुछ और ही छिपा होता है। बड़ा औरभयावह ।मेरे चेहरे पर अक्सर उग आने वाली फुंसियों से तुम्हें चिढ़ थी । मेरा उन्हें सहलाना भी तुम्हें पसंद नहीं था । बचपन से ही मेरी त्वचा तैलीय थी । मेरे चेहरे पर फुंसियाँ होती रहती थीं । मुझे उन्हें सहलाना अच्छा लगता था ।” फुंसियों से मत खेलो । मुझे अच्छा नहीं लगता । ” तुम ग़ुस्से से कह उठते ।” क्यों ? ” आख़िर यह छोटी-सी आदत ही तो थी ।” क्यों क्या ? मैंने कहा, इसलिए ! ”” पर तुम्हें अच्छा क्यों नहीं लगता ? ”तुम कोई जवाब नहीं देते पर तुम्हारा ग़ुस्सा बढ़ता जाता । फिर तुम मुझ पर चिल्लाने लगते । तुम्हारा चेहरा मेरे सपने में आई फुंसियों में बैठे यमदूतों-सा हो जाता । तुम चिल्ला कर कुछ बोल रहे होते पर मुझे कुछ भी सुनाई नहीं देता । मैं केवल तुम्हें देख रही होती । तुम्हारे हाथ-पैरों में किसी जंगली जानवर के पंजों जैसे बड़े-बड़े नाख़ून उग जाते । तुम्हारे विकृत चेहरे पर भयावह दाँत उग जाते । तुम्हारे सिर पर दो सींग उग जाते । तुम मेरे चेहरे की ओर इशारा कर के कुछ बोल रहे होते और तब अचानक मुझे फिर से सब सुनाई देने लगता ।” भद्दी, बदसूरत कहीं की ।” तुम ग़ुस्से से पागल हो कर चीख़ रहे होते ।शायद मैं तुम्हें शुरू से ही भद्दी लगती थी , बदसूरत लगती थी । फुंसियाँ तो एक बहाना थीं । शायद यही वजह रही होगी कि तुम्हें मेरी फुंसियाँ और उन्हें छूने की मेरी मामूली-सी आदत भी असहनीय लगती थी । जब हम किसी से चिढ़ने लगते हैं, नफ़रत करने लगते हैं तब उसकी हर आदत हमें बुरी लगती है । यदि तुम्हें मुझ से प्यार होता तो शायद तुम मेरी फुंसियों को नज़रंदाज़ कर देते । पता नहीं तुमने मुझसे शादी क्यों की ?शायद इसलिए कि मैं अपने अमीर पिता की इकलौती बेटी थी । मेरे पापा को तुमने चालाकी से पहले ही प्रभावित कर लिया था । उनकी मौत के बाद उनकी सारी जायदाद तुम्हारे पास आ गई और तुम अपना असली रूप दिखाने लगे ।” तुम भी पक्की ढीठ हो । तुम नहीं बदलोगी । ” तुम अक्सर किसी-न-किसी बात पर अपने विष-बुझे बाणों से मुझे बींधते रहते ।सच्चाई तो यह है कि शादी के बाद से अब तक तुमने अपनी एक भी आदत नहीं बदली — सिगरेट पीना , शराब पीना , इंटरनेट पर पाॅर्न-साइट्स देखना , दरवाज़ा ज़ोर से बंद करना , बाथरूम में घंटा-घंटा भर नहाते रहना , बीस-बीस मिनट तक ब्रश करते रहना , आधा-आधा घंटा टाॅयलेट में बैठ कर अख़बार पढ़ना , रात में देर तक कमरे की बत्ती जला कर काम करते रहना , सारा दिन नाक में उँगली डाल कर गंदगी निकालते रहना , अजीब-अजीब से मुँह बनाना , बिना किसी बात पर हँस देना … ।तुमने अपनी एक भी आदत नहीं बदली । केवल मैं ही बदलती रही । तुम्हारी हर पसंद-नापसंद के लिए । तुम्हारी हर ख़ुशी के लिए ।जो तुम खाना चाहते थे, घर में केवल वही चीज़ें बनती थीं । टी.वी. के ‘ रिमोट ‘ पर तुम्हारा क़ब्ज़ा होता । जो टी.वी. कार्यक्रम तुम्हें अच्छे लगते थे , मैं केवल वे ही प्रोग्राम देख सकती थी । जो कपड़े तुम्हें पसंद थे , मैं केवल वे ही कपड़े पहन सकतीथी । मेरा जो हेयर-स्टाइल तुम्हें पसंद था , मैं केवल उसी ढंग से अपने बाल सँवार सकती थी । घर में केवल तुम्हारी मर्ज़ी का साबुन, तुम्हारी पसंद के ब्रांड का टूथपेस्ट और तुम्हें अच्छे लगने वाले शैम्पू ही आते थे । खिड़की-दरवाज़ों के पर्दों का रंग तुम्हारी इच्छा … Read more

भावनाओं की सरहदें कब होंगी

अपना देश हो या विदेश , सुबह की जगमगाहट में कमी नहीं आती । चिड़ियाँ अपने नियत समय पर रोजगार के लिए जाना नहीं भूलतीं । पवन हौले-हौले वीणा की धुन सी अपने प्रियतम बावरे से लिपटना नहीं भूलती , कलियाँ मुस्कुराना और तितलियाँ मटकना नहीं भूलती । ठीक उसी तरह कम्जर्फ़ इंसान अपनी ईर्ष्या , दरिंदगी और वाहियात स्वभाव को नहीं भूलते । कोई नई सुबह उनको सुकूं नहीं देती और कोई रात प्यार से उनके पहलू में नहीं सोती । रिहाना का भी कुछ ऐसा ही हाल था । जब से मोहम्मद ने आंध्रा से आई लक्ष्मी को घर में रख लिया था उसकी रगों का खूं वहशी हो गया था । हालांकि रिहाना के लिए ये कोई नई बात नहीं थी, अलग-अलग औरतों की अलग-अलग खूबी उसे हमेशा बेचैन कर देती हैं लेकिन इस बार……..लक्ष्मी के लम्बे बाल, ऊँचा कद , पर्वत सी उठी सीने की गोलाइयां , केसरी रंग , पलकों के बोझ से दबी आँखे और आवाज़ उसे कई-कई मौत मार रहे थे । दिन और रात बस एक ही ख़्वाब उसे डस रहा था की मोहम्मद लक्ष्मी की ओर झुके जा रहे हैं । “लक्ष्मी sssssssss साली तेरी सुबहो नहीं हुई ??अपने अब्बा के घर ऐश को आई है तू ? उठ…..”        रोज सुबह का यही हाल था । रिहाना रोज लक्ष्मी को अगली सुबह उठने का नया समय देती और खुद उस समय से पूर्व उसके सिर पर खड़ी हो जाती । कभी गालियों से गुड मोर्निंग कहती तो कभी जान बुझ कर हाई हिल पहनकर जाती और सोती हुई लक्ष्मी के हाथ पैर पर चड़ जाती । दर्द और डर से सिसकती लक्ष्मी को देखकर उसे आत्मिक संतोष की प्राप्ति होती । लक्ष्मी लाख चाहकर भी रिहाना की ऩजर में अच्छी नहीं बन पाती थी और वापिस घर जाना अब केवल सपना था क्यूंकि मोहम्मद ने उसका पासपोर्ट ज़ब्त कर रखा था ।कुवैत में जाकर काम करने वालों की ये आम कहानी थी ।अक्सर मालिक लेबर्स का पासपोर्ट रख लिया करते थे और वीज़ा की तारीख खत्म होने तक मजबूरन रोके रखते थे ।लक्ष्मी भी अपना वीज़ा खत्म होने का इन्तजार कर रही थी । चाचा ने बड़ी मुश्किलों से उसे पांच साल का वीज़ा लगवाकर दिया था लेकिन तीन सालों में ही उसकी अंतड़ियाँ मुहं को आ गई थीं । जब -जब मोहम्मद उससे दिल बहलाता था, रिहाना उसे तीन-चार दिन के लिए खाना नहीं देती थी । रिहाना की जूतियों से देह की मरम्मत और लातों की बरसात लक्ष्मी के लिए रोज की खुराक बन गयी थी ।इस बार भी….. ” लक्ष्मी….तुम कहाँ गायब रहता है सारा दिन ? हूँ…….मैं जब भी गर (घर) में गुस्ता (घुसता)हूँ सबसे पहले तुम्हें देखना चाहता हूँ । मैं तुमसे मोह्ब्ब्त करता हूँ और एक तुम हो जो मुझे बहुत तरसाती हो । चलो आ जाओ , मैं ऊपर रूम में तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूँ ।” “साब (साहब) , हमको डेट आई है “ “चुप हराम…..!!!! तुम क्यों गाली खाने का काम करता है ।हमने कहा ऊपर आओ तो ऊपर आओ , समझी ?” “जी” “कितना हसीन बाल है तुमको और ये कद ….माशा अल्लाह , हमको बाँध लो अपनी जुल्फों में लक्ष्मी…..आओ जल्दी आओ” मोहम्मद घिनौनी नजरों से उसके जिस्म का एक -एक इंच नाप कर ऊपर चला गया और पीछे लक्ष्मी आने वाले दिनों को सोचकर भयभीत हो गयी लेकिन चारा भी क्या था ? मोहम्मद के पास जाने से पहले रिहाना को बताना जरुरी था वरना उसकी ज्यादती और भयंकर हो जाती थी… “मैम ,हमें साहब बुला रहे हैं “ ” तो खड़ी क्यूँ है जाओ….सुन…..साली ख़बिज तुझमें ऐसा क्या है जो मोहम्मद मुझे छोड़कर तेरे पीछे…..जा ….अभी तो जा….लौट कर तो यहीं आना है !”रिहाना नशे में चूर थी ” मैम हमको डेट है” ” तो मखमल की चादर मंगवाऊं क्या बेगम साहिब के लिए ? जा मेरी नज़रों से दूर हो जा वर्ना …..मेरे खाविंद को बस में कर लिया है तूने…डायन….” रिहाना का चिल्लाना देखकर लक्ष्मी भीतर तक डर से काँप गयी । आगे कुआँ था और पीछे खाई…..आख़िर उसने अपनी जिन्दा लाश घसीट कर ऊपर की ओर बढ़ जाना ही मुनासिब समझा। रिहाना थोड़ी देर इधर उधर जलती निगाहों से देखती रही और फिर झटके से सीढियों की तरफ दौड़ी । फिर कुछ सोच कर रुक गयी और मोहम्मद के कमरे के बाहर यहाँ वहां टहलने लगी । जब उससे रहा नहीं गया तो वो की होल से भीतर झाँकने लगी । अंदर लक्ष्मी अधनंगे कपड़ो में हिंदी गाने पर नृत्य पेश कर रही थी ।मोहम्मद सोफे पर ढुलका हुआ था और शराब के जाम खींच रहा था । बीच – बीच में वो जोर से गाने के बोल कहते हुए नोट लुटाता… “ओ बेबी डौल तू सोने दी, डौल तू सोने दी…sss” रिहाना का गुस्से से दिमाग फटने लगा, उसका मन हो रहा था की अभी जाकर दोनों को शूट कर दे । जिस मोहम्मद से प्यार निभाने के लिए वो अपने अम्मी अब्बू को छोड़ आई थी वही मोहम्मद दूसरी लड़कियों के साथ अपनी रातें हसीं करता था । रिहाना ने जेब से सिगार निकाल कर लम्बे कश लगाना शुरू कर दिया , फिर बेचैन सी बार की तरफ चल दी । पन्द्रह मिनट में ही उसने तीन हार्ड पैक मारे और गाड़ी की चाभी उठा कर बाहर निकल गयी । *************** इतना बड़ा एयर पोर्ट देख कर चिन्ना रेड्डी की आँखे चुंधिया रही थी ।एक छोटे गाँव से निकल कर सीधा कुवैत की जमीं पर साँस लेने में उसके फेफड़े दुगने साइज के हो गए थे । उसकी आँखों ने दो पहचान के चेहरों को तो ढूंढ़ लिया था लेकिन जिस चेहरे की उसे तलाश थी वो कहीं नहीं था । ” लक्ष्मी एकड़ा पंडू (लक्ष्मी कहाँ है पंडू )” चिन्ना ने बेचैनी से अपने बचपन के दोस्त पंडू से पूछा ” लक्ष्मी रा लेदु , सेल्वू दोरकालेदेमो(लक्ष्मी नहीं आई , हो सकता है उसे छुट्टी न मिली हो) ” तनु नाकू फ़ोन लो वस्तानु अनि चेपंदी (वो फोन पर बोली थी की आऊँगी) “ ” इन्टिकी वेल्ली लक्ष्मी की फ़ोन चेदामले (घर चलो फिर लक्ष्मी को फोन करेंगे ) “पंडू ने … Read more

चूडियाँ ( कहानी -वंदना बाजपेयी )

चूड़ियाँ

      न जाने क्यों आज उसका चेहरा आँखों के आगे से हट नहीं रहा है, चाहे  कितना भी मन बटाने के लिए, अपने को अन्य कामों में व्यस्त कर लू, या टी वी ऑन करके अपना मनपसंद कार्यक्रम देखकर उसे भूलने की कोशिश करू, –बार बार उसका मासूम चेहरा, खिलखिलाती हँसी  और हाँ खनकती चूड़ियाँ मेरा ध्यान अपनी ऒर वैसे ही खीच ले जाती है जैसे तेज हवा का झोंका किसी तिनके को उड़ा  ले जाये। आज कितने वर्षोबाद मिली थी वो,आह! वो भी इस रूप में….. इस हालत में।  बचपन से जानती थी उसे, हमारे  घर से दो घर छोड़ कर रहने वाले शर्मा  अंकल के यहाँ किरायेदार बनकर आये थे वो लोग। माँ ने बताया था,  उनकी  एक लड़की है, मुझसे 4साल छोटी, बिलकुल गुड़ियाँ जैसी… उस समय मेरी उम्र कोई दस  साल  होगी  , बहुत शौक था मुझे छोटी बहन का,इसीलिए बहुत उत्सुकता थी उसे देखने की, जिस दिन उनका सामान उतर  रहा था मैं बालकनी में खड़े -खड़े  उसे देखने की चेष्टा कर रही थी| सब सामान उतरने के बाद उतरी थी वो नन्ही परी अपनी माँ की अंगुली  थाम  कर, जैसे मक्खन से बनी हुई हो, छूते ही  पिघल जाएगी , ओह! मैंने नज़र फेर ली, कही मेरी ही नज़र न लग जाये।  तभी उसकी माँ का स्वर सुनाई पड़ा ” रिया उधर बैठ जाओ बेटा “ और वो चुप- चाप निर्दिष्ट जगह पर बैठ गयी। यह था रिया से मेरा पहला परिचय। उसके बाद जैसे- जैसे उसे जाना, वो उतनी ही प्यारी उतनी ही कोमल, उतनी ही मासूम लगी। उसके मुँह  में तो जैसे जुबान ही नहीं थी।  बेहद शांत … न रोती न चिल्लाती बल्कि कोई और चिल्ला रहा हो तो माँ की गोद में छिप जाती, और सबसे  खास थी  उसकी हलकी सी मुसुकुराट, जरा से होंठ  टेढ़े कर के जब वो मुस्कुराती, सच्ची बिलकुल मधुबाला जैसी लगती,हम बच्चे अक्सर उसे छेड़ते ,”रिया, मुस्कुरा न एक बार, बस एक बार …प्लीज … और रिया मुस्कुरा देती, फिर हम सब ताली बजाते “वाह रिया वाह “ हाँ! एक और बात खास थी ….  बचपन में बच्चे तरह तरह के खिलौनों के लिए मचलते हैं पर रिया सबसे अलग थी … उसे भाती थी तो बस रंग बिरंगी चूड़ियाँ। लाल, पीली , नीली ,हरी कांच की चूड़ियाँ  खन-खन करती हुईं । उसकी गोरी कलाई में लगती भी बहुत अच्छी थीं। काँच की चूड़ियों की खन-खन के स्वर उसे इतने अच्छे लगते थे जैसे किसी ने सितार के सातों तार छेड़ दिए हों । जरूरत,बेजरूरत हाथ हिला हिला कर चूडियाँ खनखनाती ही रहती, कहती ” दीदी सुन रही हो न यह खन – खन , इसमें मेरी जान बसती है जैसे नंदन वन वाले राक्षस की जान उसके तोते में बसती है, अगर यह खन -खन रूक जाये न तो जैसे सारी  श्रृष्टि ही रूक जाएगी….मैं उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा कर उसका सरहिलाते हुए कहती “अच्छा ख्न्नों देवी “|वह  जब भी बाजार जाती चूड़ी का डिब्बा जरूर लाती। और तो और पड़ोसी  और रिश्तेदार भी उसके चूड़ी प्रेम के बारे में जानते थे इसलिए जन्म दिन पर उसे ढेरों चूड़ी के डिब्बे मिलते थे। उनको देखकर रिया ऐसे इठलाती जैसे कोई खज़ाना मिल गया  हो ।पर … उसके स्वाभाव में एक विचित्रता थी | बेवजह भयभीत सी रहती थी वो कि उसकी एक भी चूड़ी टूटनी नहीं चाहिए, इसलिए दौड़ -भाग वाले खेलों से दूर ही रहती थी,अगर गलती से किसी से उसकी चूड़ी टूट जाये तो एकदम चुप हो कर खुद को अपने में ऐसे समेट  लेती थी, जैसे कछुआ अपने खोल में बंद हो जाता है। मुँह से कुछ नहीं कहती पर ….  कुछ दिन तक बड़ा विचित्र रहता था उसका व्यवहार  , फिर सब ठीक हो जाता  और वह लौट आती अपनी भोली मुस्कान के साथ। रिया बड़ी हुई,रूप चन्द्रमा की तरह खिल गया पर चूड़ी प्रेम अब भी यथावत था । कॉलेज में उसकी चूड़ियों के किस्से आम थे।  अकसर लड़कों के बीच चर्चा होती की वो कौन भाग्यशाली होगा जो इन चूड़ी  वाले हाथो  को थामेंगा। उसी समय रिया के पिता का तबादला दूसरे शहर हो गया।  रिया अपने परिवार के साथ चली गयी। मुझे याद है उदासी में मैंने दो दिन तक खाना नहीं खाया ,धीरे -धीरे उसके बिना जीने की आदत हो गयी,  फिर मेरी शादी हुई,मैं विदेश में  अपने घर में रच  बस गयी, पर हमारे बीच पत्र  व्यव्हा र चलता रहा। पत्रों से ही रिया की शादी की सूचना मिली थी, फोटो भी तो भेजे थे उसने,सुशांत और रिया की जोड़ी कितनी अच्छी लग रही थी, कोई किसी से उन्नीस नहीं जैसे ईश्वर ने एक -दूजे के लिए ही बनाया हो। मैं तो देखती ही रह गयी थी, मेरी तन्द्रा टूटी थी पति के हंसने के स्वर से हा हा हा ! देखो तो साली साहिबा की चूड़ियाँ ,पूरी कुहनी तक,एक भी रंगनहीं छोड़ा “तब मेरा भी ध्यान गया ,अरे हाँ ! पूरी कुहनी  तक भरी चूड़ियाँ हर रंग की , मुस्कुरा उठी थी मैं, अगले ही पल आँखो  में आँसू भर हाथ  जोड़ कर मन ही मन बुदबुदाई ” हे ईश्वर ! रिया और उसकी चूड़ियाँ हमेशा यूँही खनकती रहे।   शादी हुई रिया ससुराल पहुँच गयी  …  पति के घर में भी उसकी चूड़ी प्रेम की चर्चा होने लगी । पति उससे बहुत प्रेम करते थे । दो हंसो का जोड़ा था उनका,फिर कैसे न जानते उसके दिल की बात …… उसे तरह-तरह की चूड़ियाँ ला कर देते । लाल पीली हरी ,नीली , लाख की , कटाव दार , फ्रेंच डिजाईन , मोती जड़ी ,कामदार , कभीकभी स्पेशल आर्डर दे कर मंगाते । चूड़ी से उसके दोनों हाथ भर जाते । देवरानीजेठानी सब छेड़ती” लो एक और तुलसीदास।”  जब यह बात उसने मुझे पत्र में लिखी थी तो मुझे दूर से ही सही पर उसकी शरमाई आँखों और लजाते होठ जैसे साफ़-साफ़ दिख रहे थे।  रिया माँ बनी इतना तक तो मुझे पता चला पर उसके बाद अचानक उसका चिट्ठी आना बंद हो गया.  . , मैंने बहुत चिट्ठियां लिखी पर उधर से कोई जवाब नहीं आया।  वो मेरे मायके के शहर में नहीं थी ,उसकी शादी कही अन्यत्र हो चुकी थी ,अब उसका हाल जानने का मेरे पास कोई जरिया नहीं था, मैं केवल उसके पत्र की प्रतीक्षा कर सकती थी और वो मैं करती रही, दिनों ,महीनों , सालों …पर पत्र नहीं आया   तो नहीं आया। … Read more

मेरा लड़की होना

सुनील और माधवी आज फिर सेंट्रल पार्क में मिले थे। आज शहर के पार्क में एकांत क्षणों में सुनील माधवी के सिर पर हाथ फेरते हुए अत्यन्त भावुक हो उठा था। सुनील पहले ही दिन से माधवी के रूप-सौंदर्य और उसके व्यक्तित्व पर फिदा था। यही वजह थी कि अपनी एक महीने की मुलाकात में ही उसने उससे शादी करने का मन बना लिया था। सुनील व माधवी की पहली मुलाकात मुंबई में ही लोकल ट्रेन में हुई थी। और इतने दिनों में ही वे अब-तक कई बार एक-दूसरे से मिल चुके थे। दरअसल दोनों का घर आसपास ही था और घर से जाते-आते उनकी मुलाकात लगभग रोज़ ही हो जाती थी। आज जब सुनील ने माधवी के सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो वह अचानक शांत हो गई। उसे उसके प्रस्ताव का जवाब देते नहीं बना। वह जानती थी कि सुनील को वह जो ऊपर से दिखाई देती है वह अंदर से वैसी एकदम नहीं है। निश्चय ही आज शादी का प्रस्ताव देने वाला सुनील उसकी ज़िंदगी के बारे में सब कुछ जानते ही उससे दूर चला जायेगा। फिर भी अंजाम की परवाह किये बगैर उसने सुनील को सब कुछ साफ साफ बताने का मन बना लिया था। और फिर सुनील की बाहों में अपना सर रखकर वह सुनील के प्रस्ताव के जवाब में अपने जीवन की एक-एक परतें खोलने बैठ गई। …………………………………………. बात उन दिनों की है जब मैंने जवान होते हुए जीवन के बहुमूल्य क्षणों को जीना शुरू किया था। मेरे माता-पिता जितने पुराने विचारों के थे, मैं उतनी ही आधुनिक विचारों की महत्वाकांक्षी लड़की थी। माता-पिता कहीं कोई ऊंच-नीच न हो जाये इस कारण हम सभी बहनों पर कड़ी नज़र रखते थे। मेरे पापा मुझे पढ़ाना चाहते थे परन्तु माँ कहती, ‘इसकी शादी कर दो, अपने सुसराल जाकर पढ़ लेगी।’ इन सब बातों से कभी मेरी माँ से कुछ कहा-सुनी भी हो जाती। पापा से कभी कुछ कहने की मेरी हिम्मत नहीं होती थी। मुझे पेंटिंग का बहुत शौक था।        एक दिन मैंने अपनी माँ से कहा- ‘ मेरी छुट्टियां शुरू हो रही हैं, आप मुझे पेंटिंग या सिलाई आदि कुछ सिखा दीजिए।’          इस पर माँ बोली, ‘शादी हो जाने दे फिर जो जी में आए करती रहना।’ माँ की इस बात पर मुझे बहुत गुस्सा आया।         मैं उन पर कुछ नाराज़ होती हुई बोली- ‘आपने मुझे थोड़ा बहुत भी आखिर क्यों पढ़ाया, आपको तो पैदा होते ही मेरी शादी कर देनी थी। मैं ससुराल में ही बड़ी होती और वहीं पढ़ती रहती।’ मेरी बातों के जवाब में माँ बोली- ‘ज़्यादा बड़-बड़ मत कर, पढ़ाई-लिखाई की बातें छोड़कर घर का सारा काम-काज सीख, यही सब तेरे काम आयेगा।’ माँ की ऐसी बातें सुनकर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। मैं भी जो जी में आया बोलती रही। मेरे ज्यादा बड़बड़ाने पर माँ गुस्से से लाल-पीली हो गयी। उसने शाम को पापा से शिकायत करने की चेतावनी देने के साथ ही मुझ पर दो-तीन हाथ भी जमा दिये। आज मुझे मेरी माँ किसी राक्षसिन से कम नज़र नहीं आ रही थी। मैं रोती-बिलखती अपने कमरे में जाकर पलंग पर पसर गई। मैं काफी देर तक उल्टा-पुल्टा कुछ न कुछ बड़बड़ाती रही। मेरे मन में अंतर्द्वन्द चल रहा था। चाहे मेरी माँ कितनों ही कष्ट मुझे देती परन्तु मैंने तो यह प्रण कर लिया था कि, पहले मन मुताबिक पढ़ाई करनी है और अपना मन पसन्द कैरियर चुनना है, तब कहीं जाकर शादी करनी है। मुझे लगा पापा के आने पर माँ बेवजह और हंगामा खड़ी करेगी इसलिए उनके आने से पहले मेरा इस घर से भाग निकलना बेहतर होगा। और फिर क्या था, शाम ढलते ही सबकी नज़रें बचाकर मैंने धीरे से दरवाजा खोला और घर से बाहर हो ली। इस बार मन में आया कि क्यों न लड़की की इस निरर्थक ज़िंदगी का त्याग कर दूं पर फिर अगले ही पल ऐसे कायरता पूर्ण कार्य के बारे में सोचने पर मैंने अपने आप को धिक्कारा। मैं अनवरत चली गई, चलती गई। मेरे सामने न कोई राह थी और न कोई मंज़िल। कभी एकदम से मर जाना चाहती थी, तो कभी जी कर समाज को दिखा देना चाहती थी कि स्त्री केवल सबके इशारों पर नाचने वाली कोई कठपुतली नहीं है। उसमें भी दुनिया को नचाने की क्षमता है। अंततः अंधेरे में आगे बढ़ते हुए मैं अचानक एक कार के सामने आ गई। मैं बाल-बाल बची थी।  कार चालक एक अधेड़ युवक था। कार में उसके साथ उसकी पत्नी भी थी। वे दोनों मुझ पर बिगड़ते हुए बोले, ‘आपको देखकर चलते नहीं बनता, अभी कोई एक्सीडेंट हो जाता तो आप तो जाती ही साथ में हमें भी ले जातीं।’ प्रत्युत्तर में मैं अफसोस के अंदाज में बोली, ‘काश! मैं मर ही जाती तो अच्छा होता। भगवान भी कितना निर्दयी है जो मुझे इस हाल में भी जीवित रखना चाहता है।’  मेरी बातें सुनकर वे कुछ सोचने लगे। जब उन्होंने संक्षेप में मेरी कहानी सुनी तो वे मुझे जबरन अपने साथ अपने घर लिवा ले गये। उन्होंने मेरी महत्वाकांक्षा को मेरे चेहरे पर पढ़ लिया था। उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा, ‘आपको इस तरह से घर छोड़कर नहीं भागना चाहिए था। आपको यदि पढ़ने-लिखने का इतना ही शौक था तो पहले आपको अपने माँ-बाप की मानसिकता को बदलना चाहिए था। आपका इस तरह से घर छोड़कर भागना समस्या का हल नहीं। अपनों को छोड़कर घर से भागने वाली युवतियों प्रायः ग़लत लोगों के हाथों में पढ़कर अपना सर्वस्व लुटा बैठती हैं।’ उनके समझाने-बुझाने का मुझ पर काफी असर हुआ। मैं उनसे उनके बारे में जानना चाहा तो उन्होंने अपने बारे में न केवल खुलकर मुझे बताया बल्कि मुझे अपने बेटे से भी मिलवाया। उस व्यक्ति का नाम पवन था और उसकी पत्नी का नाम शिखा। उनका 12 वर्षीय बेटा अतुल बहुत प्यारा और होनहार बच्चा था। पवन ने मुझे बताया कि वह एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करता है। मुझे उस परिवार के लोगों से मिलकर काफी खुशी हुई। रात काफी हो चुकी थी और मेरा घर भी वहां से काफी दूर था अतः उस समय मेरा घर पहुंचना संभव नहीं था। उन्होंने मेरे घर पर … Read more