पागल औरत (कहानी )

पागल औरत                                       रूपलाल बेदिया लखनी जिस मोड़ पर खड़ी  है, उस जगह निर्णय कर पाना कठिन है कि क्या किया जाए| किसी मोड़ से आगे कोई रास्ता नजर न आए तो आदमी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है | कभी ऐसा होता है कि दो रास्ते नजर तो आते  है, पर एक भी सुरक्षित नहीं जान पड़ता| उनमें से किसी भी एक पर चलने, आगे बढ़ने का मतलब खुद को लहूलुहान कर लेना है; अपने को मिटा लेना है; अपनी आत्मा को मार देना है या अपनी निष्प्राणवत काया को कीचड़ भरी गंधाती नाली में दूबो देना है या अपने हृदय के इतने टुकड़े कर लेना है कि सम्भालना असंभव हो जाए|     उसका पति दो हप्ते से बिस्तर पर पड़ा है| वह रिक्शा चलाता है और परिवार की धुरी उस रिक्शे के पहियों के साथ ही घुमती है| रिक्शा चलाने का मतलब निरंतर चलना है| जिस दिन नहीं चला, उस दिन पैसा देखना नसीब नहीं| लेदवा ठीक-ठाक रहता है तो दिन भर में सौ-पचास कमा लेता है| लेकिन ये सौ-पचास वह किस तरह कमाता है, वही जानता है| रूखा-सूखा खाकर, जाड़ा, गर्मी, बरसात की मार तो झेलता ही है, सवारियों की बकझक से दिन भर हलकान रहता है| कोई भी सवारी बिना बकझक के सही भाड़ा देना ही नहीं चाहता| पता नहीं क्यों, उन्हें लगता है कि रिक्शे वाला ज्यादा भाड़ा माँग रहा है| लेदवा दूसरे उन रिक्शा चालकों से भी कुढ़ता है जो सवारियों से अधिक भाड़ा वसूलने की कोशिश करते हैं| दूसरे शहर से आये अजनबियों से तो ज्यादा वसूलते ही हैं, उन्हें टेढ़े-मेढ़े रास्ते से घुमाकर ले जाते हैं ताकि सवारियों को अधिक दूरी जान पड़े और वे अधिक भाड़ा देने में आनाकानी न करें| अजनबी तो अजनबी, स्थानीय लोगों से भी यही रवैया अपनाते हैं| ऐसे में किचकिच तो होना ही होना होता है| लेकिन रिक्शा चालक भी क्या करें, उन्हें मालूम है कि  इस अविश्वास की दुनिया में कोई किसी की बात पर यकीन नहीं करता| सही भाड़ा भी बोलो तो लोगों को यही लगता है कि रिक्शा वाला ऐंठ रहा है| इसलिए वे बढ़ाकर बोलते हैं ताकि मोल-तोल भी तो वाजिब भाड़ा मिल जाए| सब कुछ जानते हुए भी लेदवा ज्यादा भाड़ा नहीं बोल पाता है| यही कारण है कि सवारियों से उसकी ज्यादा बकझक होती है; क्योंकि वाजिब भाड़ा माँगने पर भी वे देने को तैयार नहीं होते| वास्तव में ईमानदारी की कमाई करना निहायत कठिन है|     लखनी के लिए बड़ा कठिन समय था| बीमार पति की दवा-दारू, उसकी सेवा-टहल और तीन छोटे-छोटे बच्चों का पेट भरना कोई खेल नहीं था| लेदवा दिनोंदिन सूखता जा रहा था| कसबे के डॉक्टर ने शहर के किसी बड़े अस्पताल में इलाज कराने की सलाह दी थी| पास में पैसा न हो तो बड़े अस्पताल के नाम से ही आँसू निकल आते हैं|     पड़ोसियों की सलाह पर लेदवा को सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया| परन्तु सरकारी अस्पतालों की अपनी कार्यसंकृति है| न समय पर डॉक्टर मिलते हैं और न दवाइयाँ| वहाँ के कर्मचारी तो ऐसे पेश आते हैं जैसे वे मज़बूरी में बिना वेतन के कार्य करते हैं|     लखनी का चेहरा एकदम से फक पड़ गया जब उसे बाहर से दवाइयाँ खरीदने को कहा गया| लखनी को बताया गया कि यही कोई दस हजार लगेंगे| लखनी की नजरों के सामने सारी धरती घूमने लगी| उसे तो यह भी नहीं मालूम कि एक हजार कितना को कहते हैं| हाँ, हजार का नाम सुना अवश्य था|     इतना रुपये का जुगाड़ कैसे हो पाएगा? कौन देगा इतने रुपये? तो क्या उसके पति का इलाज नहीं हो सकेगा? बीमारी ठीक नहीं होगी तो फिर क्या होगा? क्या उसकी अकाल मृत्यु हो जाएगी? क्या उसका पति उसे अकेली छोड़कर चला जाएगा? अगर ऐसा हुआ तो उसका और उसके बच्चों का क्या होगा? सोचकर लखनी काँप उठी| फिर अचानक उसकी आँखों के सामने बचपन की एक धुंधली-सी तस्वीर नाच उठी| गाँव के एक संपन्न परिवार के यहाँ हो रही बटसावित्री की पूजा में अपनी माँ के साथ कथा सुनने गयी थी—सावित्री और  सत्यवान की कथा| उसे लगा, कहीं उसके पति के आसपास भी यमदूत तो नहीं मंडरा रहे ! क्या वह भी सावित्री की तरह अपने सत्यवान की रक्षा कर पाएगी? पर कैसे, काफी देर तक इसी चिंता में डूबी रही लखनी| पड़ोसी रिक्शा चालक सतेंदर के साथ लखनी शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति रघुराज के दो मंजिले मकान के सामने खड़ी भौंचक होकर इधर-उधर, डरी-सहमी सी देख रही थी| सतेंदर के अनुसार आशा की किरण उसी मकान से निकलने वाली थी; इंसानियत का सोता फूटने वाला था, दया का झरना झरने वाला था|     सतेंदर ने बताया था कि रघुराज बाबू बहुत दयालु आदमी हैं| शुरू-शुरू में सतेंदर और लेदवा उसी से किराए पर रिक्शा लेकर चलाते थे| अन्य रिक्शा मालिकों की तरह रघुराज बाबू किराए की बंधी-बंधायी रकम नहीं लेता था, बल्कि प्रतिदिन की कमाई के हिसाब से लेता था| जिस दिन पचास रुपये से कम की कमाई होती थी, उस दिन वह कोई किराया नहीं लेता था| भला आज की दुनिया में ऐसा इन्सान मिल सकता है!     रघुराज बाबू सचमुच दयालु आदमी प्रतीत हुआ| सारी बात सुनने के उपरांत उसने सतेंदर को सम्बोधित करते हुए कहा, “सतेंदर, यह सब सुनकर सचमुच बड़ा दुःख हो रहा है| लेदवा अच्छा और मेहनती आदमी है|” उसने कनखियों से लखनी को देखा और आगे बोला, “मैं जरूर मदद करूँगा; लेकिन इतने पैसे पास में नहीं हैं| बैंक से लाना होगा| इसके लिए डेढ़ दो घंटे रुकना होगा|”     लखनी को लगा मानो उसकी मुराद पूरी हो गयी| इस मतलबी दुनिया में जहाँ अपने ही अपनों के काम नहीं आते; जरूरत पड़ने पर मुँह फेर लेते हैं; ऐसे में कोई गैर मुसीबत के वक्त काम आ जाए तो उसे भगवान का स्वरूप ही माना जाना चाहिए| कहते हैं, कुछ ऐसे ही भले लोगों के कारण दुनिया टिकी हुई है, वरना कब को रसातल को चली गयी होती| निराधार को आधार मिलने की पूरी उम्मीद हो तो डेढ़ दो घंटे का समय कुछ भी नहीं|     सहमी हुई नजरें झुकाए बैठी लखनी अचानक चहककर बोल पड़ी, “कोई बात नई बाबू, हम तो दिन भर रुक सकते हैं|” फिर उसे … Read more

और हार गई जिन्दगी

                                                                           और हार गई जिन्दगी  बरसात का उतरता मौसम,कभी उमस,कभी ठण्ड का अहसास करवाता है। रात में देर से आँख लगी थी तो ऐसे में सुबह नींद थोड़ा ज्यादा ही सताती है। तेज घंटी की आवाज उनींदी आँखे खुलने से और कान का साथ देने से इंकार कर रहे थें पर लगातार बजती घंटी की आवाज उठकर दरवाजा खोलने पर मजबूर कर दी। दरवाजा खोल ठीक से देख भी न पाई थी की आवाज आई ” आंटीजी मम्मी आज काम करने नहीं आयेगी।” क्यों क्या हुआ फोटो जो तुम्हारी मम्मी काम करने नहीं आयेगी,नींद के झोंको में डोलती मैं पूछी। “मम्मी रात मर गई,अभी भी हॉस्पिटल में ही तो है भैया मेरा बोला की जाओ आंटी को बोल आओ नहीं तो मम्मी का इंतजार करेगी,तो मैं आ गई।” उसकी बात को सुनने,समझने और उसके बाद स्वीकार करने में मेरा शरीर,मन सभी जागृत हो गये। वो बच्ची सच्चाई को भावविहीन बयां कर रही थी और मैं अवाक्,निश्चल खड़ी  थी। काफी देर बाद मैं वस्तुस्थिति से तालमेल बैठा पाई। “फोटो क्या हुआ था,कैसे तुम्हारी मम्मी मर गई,कब हुआ ये सब ,तुम्हारी मम्मी कल शाम तो काम करके गई है मेरे घर से।”  हालाँकि बोलते हुए भी मैं बखूबी जानती हूँ कि रातभर का क्या,जिंदगी गंवाने में वक़्त ही कितना लगता है। मैं ज्यादा बोल नहीं पा रही थी ,दुःख के कारन जिव्हा बैचनी में तालू से सटा जा रहा था। “जानती हैं आंटीजी माई रात जीजा के साथ दारू पी  रही थी,बहुत पी ली थी किसी का नहीं सुन रही थी ,जीजा से किसी बात का झगड़ा हो गया था,जीजा भी खूब गुस्सा हो गया था। माई भी खूब चिल्ला रही थी,जीजा कुल्हारी उठा माई को काट दिया। भैया माई को ठेला पे लाद के हॉस्पिटल लाया पर माई १-२ घंटे में ही मर गई।”मैं दुःख से कातर हुई जा रही थी पर वो छोटी बच्ची शायद समझ भी नहीं पा रही थी कि क्या हो गया है। उसके साथ भगवान कितना बड़ा अन्याय कर दिये हैं। कदाचित सड़क पे पलती जिंदगी  यूँही बेभाव पल जाती है। जिंदगी हो या और कुछ,संवरने में ज्यादा वक़्त लगता है बिगड़ने के लिए कुछ ही वक़्त काफी है।                         उस बच्ची फोटो के जाने के बाद  दरवाजा बंद कर वही दीवान पे बैठ गई। दुःख-बैचनी के कारन नींद आँखों से उड़ गई थी। उसकी जगह पिछली सारी  बातें जेहन को उकेरने  लगा। ३साल भी तो अभी पुरे नहीं हुए हैं। यहाँ क्वार्टर में शिफ्ट करने पर दाई की खोज कर रही थी। नई जगह है मेरे लिए पूछने पे पता चला की कॉलोनी के सामने सड़क के उस पार दाइयों की भरी-पूरी बड़ी सी बस्ती है।  यहाँ बैठके बुलवाने की जगह सुबह उठके टहलते हुए मैं ही चली गई थी बस्ती में। बस्ती का पहला घर कालिया का ही था। हाँ जिसकी बात मैं कर रही हूँ उसका नाम कालिया ही था। माँ-बाप ने आबनूसी रंग देखकर ही काली नाम रखा जो कालक्रम में पुकार में कालिया हो गया। ऊँचा -लम्बा,भरा-पूरा शरीर,ऊँचा कपाल,छोटी सी नाक। हँसने पे पीले लम्बे दांत निकल जाते थें। एक दन्त में थाती के तौर पर चांदी जड़ा था। मैं जिसवक़्त वहां पहुंची वो पूरा चिल्लाके किसी को गाली दे रही थी। मुझे सामने देखते मुँह बंद कर ली। तुम्हारे बस्ती में कोई दाई मिलेगी क्या?मैं  कॉलोनी के बड़े क्वार्टर . में शिफ्ट की हूँ। सुनते ही चेहरे पे स्मित आ गई। “हाँ दीदी क्यों नहीं,बहुत सारी है पर हम भी काम करते हैं,आप क्यों आई हैं ड्राइवर से बुलवा लिया होता। हम १० बजे तक आ  जायेंगे काम करने।” मैं लौट आई पर पेशोपेश में पड़ गई। डर लग रहा था इतनी कर्कश और इतनी खूंखार,भगवान जाने कैसा काम करेगी। १० बजे से इंतजार कराके ११ बजे वो आई और फिर कल शाम तक आते रही। मतलब  अपनी मौत आने के पहले तक वो मेरे साथ अपना दायित्व और साथ निभाते रही है। इन कुछेक सालों में ही मैं उसे पूरी तरह पहचान गई थी। वो मेरे इतने करीब आ गई थी कि कोई काम करनेवाली भी आ सकती है विश्वास नहीं आ रहा है। गले में कुछ अटक सा गया है उसके हमेशा के लिये चले जाना सोचकर।                             काले रंग के भीतर एक जागरूक और सफ़ेद चरित्र था उसका। समय पे आना,मन लगाके साफ काम करना। न चोरी-चमारी ना ही किसी तरह का लालच। मैं उसे निरख़्ती थी तो वो भी मेरी अन्यमस्कता धीरे-धीरे पहचानती गई,फिर मेरे मेरे करीब आते गई थी और कितने सारे काम खुद ब खुद करने लगी थी। मैं उसके गुणों पर मुग्ध रहती थी। कितना उठाके उसे दे दूँ समझ नहीं आता था। मन मिलते गया और काफी हदतक वो दोस्त जैसी होते गई। जबतक उससे घण्टों गप्प ना कर लूँ  ,मन ही नहीं लगता था।                        ,फिर धीरे-धीरे ये गप्प मन लगाने और कामकाज से ऊपर उठ सामाजिक सरोकार तक पहुँच गया।मुझे तो घर-गृहस्थी से इतर कुछ करने नहीं दिया गया तो मैं कलिया के पीठ पर खड़ी उससे कुछ-कुछ करवाते जा रही थी।  खली समय में उसे अक्षरज्ञान करवाती थी ,गिनती-पहाड़ा रटवाती थी कि कुछ मूलभूत ज्ञान उसे हो जाये। दिमाग की भी कलिया  काफी तेज थी।  कुछ महीनो में ही कितनी आत्मसात कर ली ,कितना कुछ सीख गई थी। शब्द-शब्द मिलाके किताब,अख़बार पढ़ना सीख गई थी। सोचके खुद पे हंसती थी कि कोई घर के कामो के लिये दाई  रखती है,मैं उससे गप्प मारने,कुछ सीखाने,कुछ सीखने की भी अपेक्षा रखने लगी थी। किसी कारणवश एकदिन भी नहीं आई  तो मन दूसरी तरफ लगाना पड़ता था। बहुत कुछ बताती थी कलिया अपनी बस्ती की,रीति-रिवाजों कि, संस्कारों  की। गरीबी और अभावों के भीतर भी एक जूझती जिंदगी होती है जो चलती रहती है और परवान भी चढ़ती है।                      कलिया को दारू से … Read more

दूसरे देश में

                                                                                (  अमेरिकी कहानी   )                             ———————–       अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी ” इन अनदर कंट्री ” का अंग्रेज़ी से हिंदी में                       ” दूसरे देश में ” शीर्षक से अनुवाद————————————————————————–                                     दूसरे देश में                                   ————-                                                     —  मूल लेखक : अर्नेस्ट हेमिंग्वे                                                           अनुवाद : सुशांत सुप्रिय         शरत् ऋतु में भी वहाँ युद्ध चल रहा था , पर हम वहाँ फिर नहीं गए । शरत् ऋतु में मिलान बेहद ठण्डा था और अँधेरा बहुत जल्दी घिर आया था । फिर बिजली के बल्ब जल गए और सड़कों के किनारे की खिड़कियों में देखना सुखद था । बहुत सारा शिकार खिड़कियों के बाहर लटका था और लोमड़ियों की खाल बर्फ़ के चूरे से भर गई थी और हवा उनकी पूँछों को हिला रही थी । अकड़े हुए , भारी और ख़ाली हिरण लटके हुए थे और छोटी चिड़ियाँ हवा में उड़ रही थीं और हवा उनके पंखों को उलट रही थी । वह बेहद ठण्डी शरत् ऋतु थी और हवा पहाड़ों से उतर कर नीचे आ रही थी ।        हम सभी हर दोपहर अस्पताल में होते थे और गोधूलि के समय शहर के बीच से अस्पताल तक पैदल जाने के कई रास्ते थे । उनमें से दो रास्ते नहर के बगल से हो कर जाते थे , पर वे लम्बे थे । हालाँकि अस्पताल में घुसने के लिए आप हमेशा नहर के ऊपर बने एक पुल को पार करते थे । तीन पुलों में से एक को चुनना होता था । उनमें से एक पर एक औरत भुने हुए चेस्टनट बेचती थी । उसके कोयले की आग के सामने खड़ा होना गरमी देता था और बाद में आपकी जेब में चेस्टनट गरम रहते थे । अस्पताल बहुत पुराना और बहुत ही सुंदर था और आप एक फाटक से घुसते और और चल कर एक आँगन पार करते और दूसरे फाटक से दूसरी ओर बाहर निकल जाते । प्रायः आँगन से शव-यात्राएँ शुरू हो रही होती थीं । पुराने अस्पताल के पार ईंट के बने नए मंडप थे और वहाँ हम हर दोपहर मिलते थे । हम सभी बेहद शिष्ट थे और जो भी मामला होता उसमें दिलचस्पी लेते थे और उन मशीनों में भी बैठते थे जिन्होंने इतना ज़्यादा अंतर ला देना था ।         डॉक्टर उस मशीन के पास आया जहाँ मैं बैठा था और बोला — ” युद्ध से पहले आप क्या करना सबसे अधिक पसंद करते थे ? क्या आप कोई खेल खेलते थे ? “         मैंने कहा — ” हाँ , फ़ुटबॉल । “         ” बहुत अच्छा ,” वह बोला । ” आप दोबारा फ़ुटबॉल खेलने के लायक हो जाएँगे , पहले से भी बेहतर । “         मेरा घुटना नहीं मुड़ता था , और पैर घुटने से टखने तक बिना पिण्डली के सीधा गिरता था , और मशीन घुटने को मोड़ने और ऐसे चलाने के लिए थी जैसे तिपहिया साइकिल चलानी हो । पर घुटना अब तक नहीं मुड़ता था और इसके बजाय मशीन जब मोड़ने वाले भाग की ओर आती थी तो झटका खाती थी । डॉक्टर ने कहा — ” वह सब ठीक हो जाएगा । आप एक भाग्यशाली युवक हैं । आप दोबारा विजेता की तरह फ़ुटबॉल खेलेंगे । “         दूसरे मशीन में एक मेजर था जिसका हाथ एक बच्चे की तरह छोटा था । उसका हाथ चमड़े के दो पट्टों के बीच था जो ऊपर-नीचे उछलते थे और उसकी सख़्त उँगलियों को थपथपाते थे । जब डॉक्टर ने उसका हाथ जाँचा तो उसने मुझे आँख मारी और कहा — ” और क्या मैं भी फ़ुटबॉल खेलूँगा , कप्तान-डॉक्टर ? ” वह एक महान् पटेबाज रहा था , और युद्ध से पहले वह इटली का सबसे महान् पटेबाज था ।         डॉक्टर पीछे के कमरे में स्थित अपने कार्यालय में गया और वहाँ से एक तस्वीर ले आया । उसमें एक हाथ दिखाया गया था जो मशीनी इलाज लेने से पहले लगभग मेजर के हाथ जितना मुरझाया और छोटा था और बाद में थोड़ा बड़ा था । मेजर ने तस्वीर अपने अच्छे हाथ से उठाई और उसे बड़े ध्यान से देखा । ” कोई ज़ख़्म ? ” उसने पूछा ।        ” एक औद्योगिक दुर्घटना , ” डॉक्टर ने कहा ।        ” काफ़ी दिलचस्प है , काफ़ी दिलचस्प है , ” मेजर बोला और उसे डॉक्टर को वापस दे दिया ।        ” आपको विश्वास है ? “        ” नहीं , ” मेजर ने कहा ।         मेरी ही उम्र के तीन और लड़के थे जो रोज़ वहाँ आते थे । वे तीनो ही मिलान से थे और उनमें से एक को वक़ील बनना था , एक को चित्रकार बनना था और एक ने सैनिक बनने का इरादा किया था । जब हम मशीनों से छुट्टी पा लेते तो कभी-कभार हम कोवा कॉफ़ी-हाउस तक साथ-साथ लौटते जो कि स्केला के बगल में था । हम साम्यवादी बस्ती के बीच से हो कर यह छोटी दूरी तय करते थे । हम चारो इकट्ठे रहते थे । वहाँ के लोग हमसे नफ़रत करते थे क्योंकि हम अफ़सर थे और जब … Read more

मोक्ष

 मोक्ष   जैसा की हमेशा होता है बच्चे जब छोटे होते हैं तो उन्हें दादी – नानी धार्मिक कहानियां सुनाती हैं । ऐसा  ही धर्मपाल के साथ भी हुआ । गरीब परिवार में जन्म लिया था …. पिता चौकीदार थे … माँ एक बुजुर्ग स्त्री की देखबाल करने जाया करती थीं । घर में रह जाते थे दादी और धर्मपाल । दादी धर्मपाल को धर्म की कहानियां सुनाया करती थीं । कर्म का फल कैसे मिलता है , कैसे जो लोग इस जन्म में अच्छे कर्म करते हैं उन्हें अगले जन्म में सब सुख सुविधाएँ मिलती हैं …. राजयोग बनता है … मिटटी में भी हाथ लगाओ तो सोना बन जाती है । धर्मपाल बुद्धिमान थे … गणित के हिसाब से धर्म को भी मान लिया । इस जन्म का हर कष्ट अगले जनम में सुख सुविधाओं की गारंटी  है । धीरे – धीरे धर्मपाल बड़े हुए । पढने में तेज़ थे । प्रतियोगी परीक्षा में सफल हुए और देखते देखते सी पी डब्लू डी  में इंजीनियर के पद पर नियुक्त हो गए । माँ – बाप बहुत खुश थे । लड़का अब उनकी गरीबी मिटा देगा । अच्छी जगह शादी करेंगे ढेर सारा दहेज़ लेंगे । पर धर्मपाल अड़ गए । दहेज़ नहीं लेंगे … लड़की उनके यहाँ दो कपड़ों में आएगी । माँ बाप ने बहुत समझाया पर धर्मपाल  ना माने । माँ बाप ने सोंच समझकर एक अमीर घराने की लड़की से उसकी शादी कर दी । सोंचा अभी ना सही धीरे – धीरे ही सही ससुराल से कुछ तो आता ही रहेगा । लड़की के माँ बाप ने भी इंजीनियर समझ कर शादी की थी कि भले ही ससुराल खाली हो पर लड़का नोटों से घर भर देगा । पर  हुआ बिलकुल विपरीत । धर्मपाल जी को अपनी पत्नी का मायके से रुमाल लाना भी नागवार था । और विभाग ?  विभागीय आमदनी की स्थिति तो ये  थी की ना  खुद खाते थे ना खाने की इज़ाज़त देते थे । ऊपर वाले भी नाखुश … नीचे वाले भी नाखुश । हर चार महीने में तबादला हो जाता । फिर भी जब उनपर कोई असर नहीं पड़ा तो उन्हें एक केस बनाकर झूठे मामले में फंसा दिया गया । धर्मपाल जी निलंबित हो गए । घर में खाने के लाले पड़ गए । पत्नी अभावों से घबड़ाकर मायके चली गयी । पर धर्मपाल बहुत खुश थे कि अगला जन्म उन्हें बहुत अच्छा मिलने वाला है । जैसे डाइटिंग करते समय लोग अपनी एक – एक कैलोरी गिनते हैं वैसे ही धर्मपाल जी भी एक -एक पुन्य गिनते और  हिसाब लगाते कि अगले जन्म में वो क्या बनेंगे । काम तो कुछ था नहीं … बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते । बाकी समय अपने पुण्य गिनते। …. दहेज़ नहीं लिया, शहर के सबसे अमीर आदमी बनेगे क .P.WD में   रहे और रिश्वत नहीं ली। …. जरूर टाटा बिरला के यहाँ पैदा होंगे। अपने हर पुण्य  के साथ अपने को एक पायदान ऊपर पहुंचा कर अगले जन्म की कल्पना में खुश रहते ।धीरे -धीरे वो देश के प्रधान मंत्री तक पहुँच गए। अब उन्होंने  और पुण्य कमाने की और गणित बिठाने की कोशिश शुरू कर दी  ।अब उन्हें पक्का यकीन हो गया की अगले जनम में अमेरिका के राष्टपति की कुर्सी उन्हें ही मिलेगी। वो बहुत खुश रहने लगे लोग उन्हें पगला कहते थे।  एक दिन धर्मपाल की मृत्यु हो गयी । उनकी आत्मा ऊपर की दिशा में चल दी । धर्मपाल बहुत खुश थे … अगला जन्म सोंच – सोंच कर रोमांचित हो रहे थे । सामने प्रभु दिखाई दिए । प्रभु बोले … धर्मपाल तुमने बहुत पुन्य किये हैं । धर्मपाल बीच में ही बात काटकर बोले हां प्रभु मैं जानता हूँ आप मुझे क्या देने वाले हैं … मन ही मन प्रधान मंत्री की कुर्सी , टाटा – बिडला के यहाँ जन्म या अमेरिका के राष्ट्रपति की कुर्सी  आदि उन्हें दिखाई दे रहा था । प्रभु मुस्कुराये … वत्स मैं तुम्हे मोक्ष दूंगा … तुम अब दुबारा जन्म नहीं लोगे । धर्मपाल तेज़ प्रकाश पुंज में समाहित होने लगे …. लेकिन उनकी निगाहें अभी भी कुर्सी  पर टिकी थी  … गणना चल रही थी ………   हिसाब तो पूरा बराबर था पर ये  क्या उल्टा हो गया , कौन से पुण्य ज्यादा हो गए ? वंदना बाजपेई  (चित्र गूगल से साभार ) 

चलती ट्रेन में दौड़ती औरत

कुछ ही मिनट विलंब के कारण ट्रेन छूट गयी । कानोँ तक आवाज आई, पीरपैँती जानेवाली लोकल ट्रेन पाँच नंबर प्लेटफार्म पर खड़ी है । गणतव्य तक पहुँचने की नितांत आवश्यकता ने मतवाली गाड़ी के पीछे दौड़ लगाने को कहा । हाँफते हुए उस डब्बे के करीब पहुँचा जहाँ भीड़ कम दिखाई पड़ी । देखते ही आँखेँ झिलझिला गई, आदमी तो कम लेकिन बड़े गठ्ठर से लेकर छोटी बोड़िया की ढेर लगी हुई । किसी तरह अंदर प्रवेश किया । सीट पर तो दो–चार महिलाएँ ही बैठी हुई थीँ, ज्योँही उसकी नजर मुझपर पड़ी और सीट पर पसर कर बैठ गयी । कुछ देर यूँ ही टुकूर–टुकूर देखता रहा, भला कोई मर्द रहे तब तो अपने हिस्से की बात कही जाए । मन मेँ वेवकुफाना सोच भी उत्पन्न हुआ, ऐसा तो नहीँ महिला बोगी मेँ आ गया । एक महिला पास बैठी महिला से बोली, “बोयल दहो न आगु चैल जैतेय, यहाँ खड़ा–खड़ा टटुआय जैतेय।“ आपस मेँ खिलखिलाती हुई बोली, “आगु चैल जा न खालिये छैय…।“ बोल ही रही थी कि मुखर्जी आके बढ़ा, वहाँ भी जस–के–तस । समझ से परे हो चला । एक अधेर महिला ठिठोली मेँ मग्न थी । देखते ही बोली, कहाँ जाएगा , बैठ जाईये । थोड़ा–थोड़ा खिसक कर जगह बना दी । मुखर्जी भी बैठ गया, वही टुकूर–टुकूर वाला स्टाईल मेँ । अगला स्टेशन मेँ कल्याणपुर मेँ दो महिला आ धमकी । चाल–चलन, पहनावा–ओढ़ावा से थोड़ी पढ़ी–लिखी मालूम पड़ रही थी । हिम्मत नहीँ हुआ कि बोल पाऊँ बैठ जाईये । दोने खड़े–खड़े बातेँ करती जा रही थी । पास मेँ बैठी महिलाओँ मेँ एक बोली, “नरसिनिया होते – कहो आगु जाय ले…।“ दूसरी बोली, “अरे नाय–नाय ! यहाँ के नेतवा की कैल कैय नाय जाने छो, सब घसघरहनिया के हाथो मेँ कलमोँ थमाये देलकैय और ई सब देखैय नैय छो– एक कखनी मेँ बैगवा लटकाय के दौड़ा–दौड़ी करैत रहल छैय …।“ वह दोनोँ महिला अनसुनी करती हुई आगे बढ़ गई । ठीक बगल वाला सीट पर बैठ गई । कभी बुनाई की बात तो सिलाई की….। विद्यालय के बच्चोँ की शिकायत ट्रेन पर करती रही । एक शिक्षिका महोदया चर्चा छेड़ी, क्या बतावेँ दीदी, एक बार मैँ मुंबई गई थी, अपने मालिक के संग । वे पहले वहीँ काम करते थे । समय पर रुपया–पैसा भी नहीँ भेजते थे । मैँ भी घरनी बन आस लगाए ताकती रहती थी । कब डाक बाबू आवे ? रुपया–पैसा का टांट बना ही रहता था । सोची जब तक पुरुष को कसके नहीँ पकड़ा जाए तो, छुट्टा घोड़ा बन जाएगा । गाँव–गिराम मेँ भी सुनती आ रही थी, परदेश मेँ वे लोग बिगर जाते हैँ । बात भी सही है ।मैँ चली गई । वहाँ की हालात देखकर तो हँसी भी आती है और घूटन भी कम नहीँ । एक दिन बाजार घूमने निकली, देखकर तो मेरी आँखेँ चकरा गई। अधनंगी छोरी तो थी ही, मेरी मां की उम्र की भी महिला आधे कपड़े मेँ खुद को बेढ़ंग दिख रही थी। मेरे पति उस ओर दिखाकर कहने लगे। देखो, यही है शहर । तुमलोग खामखाह बदनाम करती रहती हो। “देख रही हो न!” मैँ कुछ नहीँ समझ पाई । झट से उसके आँखोँ पर हाथोँ से ढ़क दी और बोली , आप उधर मत देखिये । दूसरी महिला ठहाका मार कर हँसने लगी …..। अरे आप तो कमाल कर दिया, तब क्या हुआ ? आपको हँसी आती है ? मेरा तो प्राण ही निकला जा रहा था। घर मेँ तो वे कुछ समझते ही नहीँ थे। डर के मारे कुछ बोल भी नहीँ पाती थी। फिर भी हिम्मत करके बोली, आज के बाद इस रास्ते से नहीँ गुजरेँगे। वे हकचका कर बोले, तब तो ठीक है। गंधारी के तरह आँखोँ पर पट्टी बांध दो, तुम आगे–आगे और मैँ पीछे–पीछे चलता रहुँगा। कुटिल मुस्कान नारी मन मेँ बदबू भी उत्पन्न कर रही थी। पल भर के लिए मैँ उधेर बुन मेँ विचरण करने लगी। भला मैँ क्या करुँ? रास्ते भर चलती रही। जहाँ कहीँ अधोवस्त्र का दर्शन होता, मैँ उनके आँखोँ पर हाथ रख देती। आगे बढ़ती गई। बंबईया चकाचौंध से लड़ते हुए अपनी मरैया तक पहुँच गई जहाँ ढेर सारे बच्चोँ की भीड़ टुकड़े पुरजे से बने बसेरा जो क्षण भर मेँ गाँव की याद ताजा कर गई। सरकार तो हम महिलाओँ के लिए भगवान बन उतर आये, न तो भला नौकरी मिलती? कितना पढ़े–लिखे दिल्ली–ढ़ाका खाक छान रहा है। यहाँ भी लफुआ–लंगा बन चोरी–डकैती पर उतारु है, उससे तो हम भला हैँ। साथी महिला बोली, अभी कहाँ हैँ आपके —? अब भला मैँ साथ छोड़ूँ। वह कठमर्दवा भी आशा मेँ ही था, छोअन–भोजन साथ चले। मैँ भी सोची सोने पे सोहागा। अब तो बस दिनभर घर के काम मेँ इधर–उधर मंडराते रहता है। मैँ अपनी डयूटी मेँ मगन रहती हूँ। अचानक गाड़ी की सीटी बजी और आगे बढ़ गई। चिल्लाई, लो जी! तुम्हारे चक्कर मेँ गाड़ी भी खुल गई । क्षण मेँ चुप्पी ने अपना दबदबा बना दिया। चिँतित स्वर मेँ बुदबुदायी। ट्रेन भी कोई गाड़ी है, ऑटो से आती तो रुकवा कर उतर भी जाती, इसे कौन कहने वाला? इधर एक महिला ठहाके के साथ ताने दी, “हम्मे कहलियो नै कि घसगरहनी सब मास्टरनी बैन गेलैय– पढ़ल–लिखल रहैय तब नै नामो पैढ़के उतैर जाये। औकरा से अच्छा हमसब छियै, अगला स्टेशन कोन अयतैय पता छैय….।“ मुखर्जी चुप–चाप सुनता जा रहा था।धीरे–धीरे भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। डब्बे की यह हालात कि हर कोई चढ़ने वाले रिश्ते मेँ बंधे हो, मानो एक दूसरे से पारिवारिक संबंध हो। कोई संकोच नहीँ, आना और बैठ जाना। बातचीत भी जारी। पसीने से तरबतर एक महिला आई, अपने गट्ठर को उपरी सीट पर फेँक कुछ बोलना चाही तब तक मेँ मुखर्जी थोड़ा खिसक गया। वह बैठ गई। तभी पहले से बैठी महिला बोली, “आंय हे बरियारपुर वाली तोहर मर्दवा कारी माय संग फंसल छौ की…..।“ मैले कुचैले साड़ी का आंचल मेँ ही पसीना पोँछी और राहत की सांस ली। किसी तरह की सकुचाहट नहीँ, न ही घृणा। बोली, “आजो कल भतरा अपने क शेर समझी रहल छै। बिलाय नियर घौर मेँ बैठलो रहल और गुरकी देखायव मेँ आगु। अपने फुसुर–फुसुर कनचुसकिया मशीनमा से करैत रहल औअर घरनी पर … Read more

पुरुस्कार

    पुरूस्कार  सुबह साढ़े ६ बजे का समय स्नेह रोज पक्षियों के उठने के साथ उठकर पहले बालकनी में जाकर अपने पति विनोद जी के लिए अखबार लाती है और फिर रसोई में जाकर  चाय बनाने लगती है। पति विनोद जी बिस्तर  पर टाँग पसार कर बैठ जाते हैं और फिर आवाज़ लगाते हैं ……….”नेहुुु नेहुउउ जरा मेरा चश्मा तो दे दो। स्नेहा आकर बिस्तर के बगल में रखी मेज से चश्मा उठा कर  दे देती है। विनोद जी चश्मा  लगा कर मुस्कुराते हुए कहते हैं”जानती हो नेहू चश्मे के लिए बुलाना तो बहाना था मैं तो सुबह -सुबह सबसे पहले अपनी लकी चार्म अपनी नेहू  का चेहरा देखना चाहता था अजी पिछले २५ वर्षों से आदत जो है। स्नेहा मुस्कुराकर अपने स्वेत -श्याम बालों को सँवारते हुए रसोई में चली जाती है। ५५ वर्षीय विनोद जी अखबार पढ़ने लगते हैं और स्नेह चाय बनाने लगती है। अरे नेहू !सुनती हो तुम्हारी प्रिय लेखिका” कात्यायनी जी “को उनकी कृति “जीवन” पर साहित्य अकादमी  का  पुरूस्कार मिला है। …. विनोद जी अखबार पढ़ते हुए जोर से चिल्लाकर कहते हैं। खबर सुनते ही स्नेहा के हाथ से चाय का प्याला छूट जाता है। चटाक की आवाज़ के साथ प्याला टूट जाता है चाय पूरी रसोई में फ़ैल जाती है। आवाज़ सुनकर विनोद जी रसोई में आते हैं वहां अवाक सी खड़ी स्नेहा को देखकर पहले चौंकते हैं फिर मुस्कुरा कर कहते हैं “भाई फैन हो तो हमारी नेहू जैसा “सारा घर तो कात्यायनी जी के कथा संग्रहों उपन्यासों से तो भरा हुआ है ही और उनके साहित्य अकादमी पुरूस्कार की बात सुन कर दिल तो दिल कप संभालना  भी मुश्किल हो गया है “                                         नेहू तुम चिंता ना करो इस बार मैं साहित्य अकादमी के पुरूस्कार समरोह में जरूर तुम्हारे साथ जाऊँगा। भाई मैं भी तो देखू हमारी नेहू की कात्यायनी जी लगती कैसी हैं विनोद जी ने चुटकी ली .अच्छा तुम ऐसा करो ये साफ़ करके दूसरी चाय बना लो तब तक मैं “मॉर्निंग वाक “करके आता हूँ कहकर विनोद जी घर के बाहर निकल गए। स्नेहा कप के टुकड़े बीन कर जमीन में फ़ैली चाय के धब्बे मिटाने लगी। आज अचानक उसके सामने उसका अतीत आ कर खड़ा हो गया। माँ -बाप की चौथी  संतान स्नेहा जिसका बचपन मध्यमवर्गीय था पर माँ -बाप और चारों बहनों का आपसी  प्यार अभावों को अंगूठा दिखा ख़ुशी -ख़ुशी जीवन को नए आयाम दे  रहा था।                                     स्नेहा सबसे छोटी वाचाल नटखट सबकी लाड़ली थी। देखने में सामान्य पर ज्ञान में बहुत आगे। स्कूल से लेकर कॉलेज तक उसकी पढाई वाद -विवाद गायन नाटक मंचन आदि के चर्चे रहते थे। कुल मिला कर उसे “जैक ऑफ़ आल ट्रेड्स “कह सकते हैं। प्रशंशा व् वाहवाही लूटना उसकी आदत थी। छोटा सा घर घर में एक से एक चार  प्रतिभाशाली बहनें घर की हालत ये कि जाड़ों में जब दीवान से कपडे बाहर निकालकर अलमारियों  में जगह बना लेते  तो अलमारियों में रखी लड़कियों की किताबें निकल कर जाड़े भर के लिए बंद करी गयी फ्रिज में अपनी जगह बना लेटी। सब खुश बहुत खुश। माता -पिता को अपने बच्चों पर गर्व तो बच्चों की आँखों में कल के सपने। अभावों में ख़ुशी बाँटना जैसे माँ ने उन्हें दूध के साथ पिलाया हो। जैसे सूर्य का प्रकाश छिपता  नहीं है वैसे ही इन बहनों की प्रतिभा के किस्से मशहूर  हो गए। पिता जी भी कहाँ चूकने वाले थे। इसी प्रतिभा के दम  पर उन्होंने तीन लड़कियों की शादी एक से एक अच्छे घर में कर दी। एक बहन शादी के बाद अमेरिका चली गयी और दो कनाडा। रह गयी तो बस छुटकी स्नेहा। उसके लिए वर की खोज जोर -शोर से जारी थी। तभी अचानक वो दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी आ गया। जब स्नेहा के पिता लड़का देख कर घर लौट रहे थे एक तेज रफ़्तार ट्रक नें उनकी जान ले ली। जिस घर में डोली सजनी चाइये थी वहां अर्थी सजी सारा माहौल ग़मगीन था। माँ ,माँ का तो रो रो कर बुरा हाल था उनकी तो दुनियाँ  ही पिताजी तक सीमित थी। अब वह क्या करेंगी ?      मातम के दिन तो कट गए पर जिंदगी का सूनापन नहीं गया। माँ मामा पर आश्रित हो गयी। अकेली जवान लड़की को लेकर कैसे रहती। माँ के साथ स्नेहां  भी मामा के घर में रहने लगी। उस समय जब उन्हें अपनेपन की सबसे ज्यादा जरूरत थी उस समय मिले तानों और अपमान के दौर को याद करके उसका शरीर  आज भी सिहर उठता है. तभी एक और हादसा हुआ मामा की बेटी तुलसी दीदी का देहांत हो गया। तुलसी दीदी की एक पांच वर्ष की बेटी थी उसका क्या होगा ये सोचकर मामा ने उससे दस वर्ष बड़े विनोद जी से उसकी शादी कर दी। माँ कुछ कहने की स्तिथि में नहीं थी वह सर झुका कर हर फैसला स्वीकार करती गयीं। स्नेहा विनोद जी के जीवन में तुलसी दीदी की पांच वर्षीय पारुल के जीवन में माँ की जगह भरने मेहँदी लगा कर इस घर में आ गयी।                                                            धीरे -धीरे ही सही पर पारुल नें उसे अपना लिया। विनोद जी तो उसकी प्रतिभा के बारे में पहले से ही जानते  थे  उसे कहीं न कहीं पसंद भी करते थे उन्हें एक दूसरे को अपनाने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा। पहला वर्ष  नए घर को समझने में लग गया और दूसरा वर्ष स्नेह और विनोद के पुत्र राहुल के आने की ख़ुशी में पंख लगा कर उड़ गया। परन्तु दोनों का विपरीत स्वाभाव कहीं न कहीं अड़चन पैदा कर रहा था। स्नेहा  जो हंसमुख वाचाल और नटखट थी वहीँ विनोद जी अपने नाम के विपरीत बिलकुल भी विनोद प्रिय नहीं थे। ज्यादा बातचीत उन्हें पसंद नहीं थी। बड़ा व्यापार था ज्यादातर व्यस्त रहते थे। स्नेहा से प्रेम उन्हें जरूर था लेकिन स्नेहा का हंसना बोलना बात -बात पर खिलखिलाना उन्हें … Read more

पुदी उर्फ़ दीपू

                                              ‘तुम्हारा नाम क्या है दीपू ?’ – खेलते हुए बच्चे चिल्लाकर पूछते‘पू उ उ उ दि ‘— दीपू हो हो कर हँसते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाता उत्तरसुनकर खेलते – खेलते बच्चों का वह झुंड ताली बजा – बजाकर हंसने लगता.औरउन सबके साथ दीपू भी हो – हो कर हँसता जाता .बिना यह समझे कि वे सभी उसपर ही हँसे जा रहे हैं                                                  दीपू दस वर्ष का मानसिक – मंडित बच्चा था .अभी कुछ दिनों पूर्व हीएक छोटे से शहर से लखनऊ जैसे बड़े शहर में आया था .उस के माता – पितादोनों ही एक सरकारी विभाग में मुलाजिम थे और एक सरकारी कालोनी में रहतेथे .दीपू से किसी बच्चे ने दोस्ती नहीं की थी .वह तो अपने से दो वर्षबड़े भाई विभूति के साथ अक्सर आ जाता था खेलने . शहर में नया होने के कारण अपने नए मित्रों के दीपू के साथ के इस खेल का विभूति कभी विरोध नहीं कर पाता था .बस चुपचाप दीपू और अन्य बच्चों को हँसते हुए देखता रहताथा.बचपन से अपने छोटे भाई की इस त्रासदी को झेलने के कारण विभूति के मन मेंउस के  प्रति सहानुभूति की भावना धीरे – धीरे कम  होती जा रही थी .वह माँ के बहुत कहने पर ही दीपू को खेलने साथ लेकर आता थादीपू के जन्म पर पिता मुकुल सक्सेना ने एक पार्टी रखी थी .सभी नाते –रिश्तेदारों को बुलाला था .खूब धूम – धडाके हुए थे .पार्टी के बाद रिश्तेदारों और दीपू की माँ सुलोचना के आग्रह पर शहर के सबसे बड़े ज्योतिष को भी बुलाया था दीपू की जन्मकुंडली बनवाने के लिए   दीपू का भविष्य जानने की इच्छा से .दीपू की दादी ने उन ज्योतिष जी को ख़ास आग्रह कर कहा था – ‘पंडी जी जैसे हमारे बडके  पोता विभूति की कुण्डली आप ने मनसे बनाई है वैसे ही इन छोटके राजकुमार की भी बनाईये हम मुंहमांगा इनाम देंगे ‘और ,पंडीजी जो कुण्डली बना लाये  उस के मुताबिक़ दीपू का दिमाग बचपन से ही काफी तेज होना था तथा  बड़े होने पर उसे एक विश्व – प्रसिद्ध हस्ती भीबनना था .कुण्डली जोर – जोर से पढ़कर मुकुल  सक्सेना ने सबको सुनाया था.उस दिन एक बार फिर से घर में खुशी ऎसी छिटकी कि उत्सव सा माहौल हो गया ‘दादी ने दीपू की बलैया लेते हुए कहा – मैं न कहती थी यह मेरा पोता हजारों- लाखों में एक है .किसी बहुत बड़े आदमी की आत्मा है इसके अन्दर ‘दादी की बात सुन भला दादा कहाँ चुप रहने वाले थे ‘तुरत ही बोल पड़े–‘पहली बार तुम ने बिलकुल सही बात की है मुकु की अम्मा .यह मेरे कुल का नाम रोशन करेगा इसलिए इसका नाम दीपक रहेगा .’माता –पिता ,दादा –दादी सबके आकर्षण का केंद्र अपने छोटे भाई को बना देख तब दो साल का विभूति मुंह लटकाए चुपचाप एक और बैठा था .उसकी  बाल –बुद्धि ने जब उसे अपनी हीनता का बोध कराया तो वह अचानक जोर – जोर से रो पडा .दादी ने उसे अपने पास खींच प्यार से सर सहलाते हुए रोने  का कारण पूछा तो उस ने बड़ी मासूमियत से कहा – ‘आप सब लोग सिर्फ इस दीपू को प्याल करते हो मुझे तो कोई प्याल  नहीं करता                                                    ‘बच्चे की मासूमीयत पर रीझ दादी ने उसे  अपने से चिपका  माथा चूमते हुए कहा था –‘ अरे तू तो हमारा ही नहीं हमारे पुरे गाँव की विभूति बनेगा ‘ और दादी के प्यार से हँसता हुआ दो वर्ष का नन्हा विभूति दादी की गोद में लेट गया लेकिन ,जैसे –जैसे दीपू बड़ा होता गया सुलोचना और मुकुल के ह्रदय में चिंता घर करने लगी .वह अपने बड़े भाई से अलग था .जिस उम्र में विभूति अपने भावों को माँ को अपनी क्रियाओं से समझा देता था – दीपू ऐसा कुछ न कर पाता. एक साल  का होते – होते चाईल्ड – स्पेशलिस्ट ने भी यह बता दिया कि दीपू का मानसिक विकास एक सामान्य बच्चे की तरह नहीं हो रहा . माँ के गर्भ में ही किसी कारण उस का मस्तिष्क सामान्य रूप से विकसित  नही हो पाया था .सुनकर सुलोचना की आँखों से आंसुओं का सैलाब बह निकला था .मुकुल चाह कर भी कोई दिलासा नहीं दे पा रहा था .तीन  साल का विभूति माँ को चुपचाप पास खडा रोते देखता रहता कभी ,करीब जा अपनी नन्हीं हथेलियों से आँसू पोछ पूछता – ‘ममा क्या हुआ ?क्यों रो रही हो ?’जवाब में सुलोचना उसे अपने पास खींच सीने से चिपटा लेती . इस पूरी प्रक्रिया के दौरान दीपू निर्विकार बैठा रहता .लेकिन ,जब बड़े भाई को माँ से चिपका देखता तो जोर – जोर से रोने लगता .उस की रुलाई से सुलोचना का कलेजा मुंह को आने लगता और वह विभूति को छोड़ झट दीपू को गोद में उठा प्यार करने लगती .माँ के कलेजे से लग दीपू को चैन मिलता और वह तुरत चुप हो जाता .दिन – प्रतिदिन उस की जिद्द भी बढ़ती जा रही थी ‘जिस चीज को पकड़ने या लेने की बात करता अगर वह नहीं मिल पा रही हो तो जब तक उसे पा नहीं लेता लगातार रोता रहता .मानसिक कमजोरियों के बावजूद उस में मानवीय भावों को समझने की अद्भुत क्षमता थी .उसे प्यार करने वाले व्यक्ति के ह्रदय में उस के प्रति सच्चा प्यार पल रहा है या वह सिर्फ  दिखावा कर रहा है – यह बात उसकी समझ में तुरत आ जाती और वह इस अनुसार अपनी प्रतिक्रियाएं भी प्रगट कर देता .दीपू की दादी को जब दीपू के बारे में डॉक्टर की बातों का पता चला तो दादी ने पूरे घर में यह कहते हुए हंगामा खडा कर दिया कि ज्योतिष की कही बात कभी झूठी नहीं हो सकती .जरुर डॉक्टर ने ही गलत बताया है .अत: दीपू को किसी बड़े अस्पताल में ले जाकर बड़े डॉक्टर से दिखाना होगा .दादी की लगातार जिद्द से मुकुल और सुलोचना को भी लगने लगा कि हो न हो इस डॉक्टर से कोई गलती हो गई है .सो उन्हों ने उसे एम्स,नई दिल्ली में ले … Read more

नसीब

                       !!!!!!!! नसीब !!!!!!!!                       (कहानी -उपासना सियाग )                                                  कॉलेज में छुट्टी की घंटी बजते ही अलका की नज़र घड़ी पर पड़ी। उसने भी अपने कागज़ फ़ाइल में समेट , अपना मेज़ व्यवस्थित कर कुर्सी से उठने को ही थी कि जानकी बाई अंदर आ कर बोली , ” प्रिंसिपल मेडम जी , कोई महिला आपसे मिलने आयी है।” ” नहीं जानकी बाई , अब मैं किसी से नहीं मिलूंगी , बहुत थक गयी हूँ …उनसे बोलो कल आकर मिल लेगी।” ” मैंने कहा था कि अब मेडम जी की छुट्टी का समय हो गया है , लेकिन वो मानी नहीं कहा रही है के जरुरी काम है।” जानकी बाई ने कहा। ” अच्छा ठीक है , भेज दो उसको और तुम जरा यहीं ठहरना ….,” अलका ने कहा।     अलका  भोपाल के गर्ल्स कॉलेज में बहुत सालों से प्रिंसिपल है। व्यवसायी पति का राजनेताओं में अच्छा रसूख है। जब भी उसका  तबादला  हुआ तो रद्द करवा दिया गया। ऐसे में वह घर और नौकरी दोनों में अच्छा तालमेल बैठा पायी।नौकरी की जरूरत तो नहीं थी उसे लेकिन यह उनकी सास की आखिरी इच्छा थी कि  वह शिक्षिका बने और मजबूर और जरूरत मंद  महिलाओं की मदद कर सके।        उसकी सास का मानना था कि अगर महिलाये अपनी आपसी इर्ष्या भूल कर किसी मजबूर महिला की मदद करे तो महिलाओं पर जुल्म जरुर खत्म हो जायेगा। वे कहती थी अगर कोई महिला सक्षम है तो उसे कमजोर महिला के उत्थान के लिए जरुर कुछ करना चाहिए।        जब वे बोलती थी तो अलका उनका मुख मंडल पर तेज़ देख दंग  रह जाती थी। एक महिला जिसे मात्र  अक्षर ज्ञान ही था और इतना ज्ञान !        पढाई पूरी  हुए बिन ही अलका की शादी कर दी गयी तो उसकी सास ने आगे की पढाई करवाई। दमे की समस्या से ग्रसित उसकी सास ज्यादा दिन जी नहीं पाई।  मरने से पहले अलका से वचन जरुर लिया कि वह शिक्षिका बन कर मजबूर औरतों का सहारा जरुर बनेगी। अलका ने अपना वादा निभाया भी।अपने कार्यकाल में बहुत सी लड़कियों और औरतों का सहारा भी बनी।अब रिटायर होने में एक साल के करीब रह गया है।कभी सोचती है रिटायर होने के बाद वह क्या करेगी ….!                        ” राम -राम मेडम जी …!” आवाज़ से अलका की तन्द्रा  भंग हुई। सामने उसकी ही हम उम्र लेकिन बेहद खूबसूरत महिला खड़ी थी। बदन पर साधारण – सूती सी साड़ी थी। चेहरे पर मुस्कान और भी सुन्दर बना रही थी उसे। ” राम -राम मेडम जी , मैं रामबती हूँ। मैं यहाँ भोपाल में ही रहती हूँ। आपसे कुछ बात करनी थी इसलिए चली आयी।  मुझे पता है यह छुट्टी का समय है पर मैं क्या करती मुझे अभी ही समय मिल पाया।” रामबती की आवाज़ में थोडा संकोच तो था पर चेहरे पर आत्मविश्वास भी था। ” कोई बात नहीं रामबती , तुम सामने बैठो …!” कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए अलका ने उसे बैठने का इशारा किया। ” अच्छा बताओ क्या काम है और तुम क्या करती हो …?” अलका ने उसकी और देखते हुए कहा। रामबती ने अलका की और गहरी नज़र से देखते हुए कहा , ” मेडम जी  , मैं वैश्या हूँ …! आप मेरे बारे में जो चाहे सोच सकते हो और यह भी  के मैं एक गिरी हुयी औरत हूँ।” ” हां गिरी हुई  तो हो तुम …!” अलका ने होठ भींच कर कुछ आहत स्वर में रामबती को देखते हुए कहा। ” लेकिन तुम खुद  गिरी हो या गिराया गया है यह तो तुम बताओ। तुमने यही घिनोना पेशा  क्यूँ अपनाया।काम तो बहुत सारे है जहान में।अब मुझसे क्या काम आ पड़ा तुम्हें। ” थोडा सा खीझ गयी अलका। एक तो थकान  और  दूसरे भूख भी लग आयी थी उसे। उसने जानकी बाई को दो कप चाय और बिस्किट लाने को कहा। ” पहले मेडम जी मेरे बारे में सुन तो लो …! साधारण परिवार में मेरा जन्म हुआ।पिता चपरासी थे।माँ-बाबा की लाडली थी। मेरी माँ तो रामी ही कहा करती थी मुझे। हम तीन बहने दो भाई ,परिवार भी बड़ा था।फिर भी पिता जी ने हमको स्कूल भेजा।”        “मेरी ख़ूबसूरती ही मेरे जीवन का बहुत बड़ा अभिशाप बन गयी। आठवीं कक्षा तक तो ठीक रहा लेकिन उसके बाद ,मेडम जी.… !  गरीब की बेटी जवान भी जल्दी हो जाती है और उस पर सुन्दरता तो ‘ कोढ़ में खाज ‘ का काम करती है।  मेरे साथ भी यही हुआ।” थोडा सांस लेते हुए बोली रामबती।   इतने में चाय भी आ गयी।  अलका ने कप और बिस्किट उसकी और बढ़ाते हुए कहा , ” अच्छा फिर …!”                            ” अब सुन्दर थी और गरीब की बेटी भी जो भी नज़र डालता गन्दी ही डालता।स्कूल जाती तो चार लड़के साथ चलते , आती तो चार साथ होते। कोई सीटी मारता कोई पास से गन्दी बात करता या कोई अश्लील गीत सुनाता निकल जाता। मैं भी क्या करती। घर में शिकायत की तो बाबा ने स्कूल छुडवा दिया।”     ” कोई साल – छह महीने बाद शादी भी कर दी। अब चपरासी पिता अपना दामाद चपरासी के कम क्या ढूंढता सो मेरा पति भी एक बहुत बड़े ऑफिस में चपरासी था। मेरे माँ-बाबा तो मेरे बोझ से मुक्त हो गए कि  उन्होंने लड़की को ससुराल भेज दिया अब चाहे कैसे भी रखे अगले ,ये बेटी की किस्मत …! मैं तो हर बात से नासमझ थी। पति का प्यार -सुख क्या होता है नहीं जानती थी।बस इतना जानती थी कि पति अपनी पत्नी का बहुत ख्याल रखता है जैसे मेरे बाबा मेरी माँ का रखते थे।कभी जोर से बोले हुए तो सुना ही नहीं। पर यहाँ तो मेरा पति जो मुझसे 10 साल तो बड़ा होगा ही , पहली रात को ही मेरे चेहरे को दोनों हाथों में भर कर बोला …!” बोलते -बोलते रामबती … Read more

कोबस -कोबस

महानगरों में रहने वालों की त्रासदी – कंक्रीट के जंगल में ,छोटे – छोटे फ्लैट्स में गुजर बसर करना .यह कहानी ऐसी ही एक महानगरीय सभ्यता को व्याख्यायित करती है .रोजमर्रा की भाग – दौड़ के बीच अपने और अपनों के लिए समय निकाल पाना महानगरों में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए मुश्किलों से भरा काम होता है .पर ,बचपन के संस्कार और कुछ अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण आधुनिकता का चोला पहन उन रीति – रिवाजों के प्रति ये भी अत्यंत सचेत होते हैं जिनका औचित्य वे भले ही जानते – समझते न हों . अपने पूर्वजों के प्रति जुड़े रहने की गारंटी देने के लिए ऎसी ही एक परम्परा को निभाने की बात को लेकर एक मुहल्ले के सभी नागारिकों की मीटिंग चल रही थी .मुद्दा था – पितृ –पक्ष में घर की छत पर कौवों का न मिलना .जाहीर सी बात है पम्परा के अनुसार अगर श्राद्ध के अन्न को कौवे ने नहीं खाया तो श्राद्ध मान्य नहीं होगा .पर ,इस कंक्रीट के जंगल को कौवों ने अपने अनुकूल न जान अब लगभग त्याग ही दिया था . लोगों की चिंता धीरे – धीरे बहस का रूप लेती जा रही थी कि एक सज्जन ने सुझाया –‘क्यों न हम मुहल्ले से थोड़ा हटकर बने पार्क में श्राद्ध के लिए जाएँ ? मुहल्ले के पार्क में तो यह संभव नहीं क्योंकि वहाँ कई महंगे पेड़ और करीने से सजा – धजा लॉन है जहाँ हमारे बच्चे खेलते हैं या हम कभी वहाँ घूमने ही चले जाते हैं .अत: वहाँ गंदगी फैलाना उचित नहीं ‘ दूसरे ने उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा – ‘ बिलकुल सही कह रहे हैं आप मुहल्ले के बाहर वाला पार्क ही ठीक रहेगा .वहाँ बेतरतीब पेड़ – पौधे भी खूब हैं और आसपास झुग्गियां ही हैं तो कौवे तो मिलेंगे ही गंदगी फैले या न फैले इस बात से भी कोई फर्क नहीं पडेगा ‘ इस बात से हर किसी ने सहमती जताई .नतीजतन ,फैसला हुआ कि कमीटी द्वारा अगले दो दिनों के अन्दर पितृ –पक्ष शुरू होते से पहले पार्क के एक छोटे से हिस्से की साफ़ – सफाई करा दी जाए ताकि लोग अपनी सुविधानुसार या श्राद्ध की तिथि के अनुसार वहाँ जाकर कौवों को अन्न खिला पितरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें ..  उस पार्क के पास बड़ी संख्या में झुग्गियाँ थीं .सब की सब अवैध रूप से बनी हुई उस में रहने वाले सभी या तो ऑटो चालक थे या ठेले पर फल – सब्जी बेचने वाले या फिर ऐसे ही कोई छोटा – मोटा रोजगार करने वाले .कुछ मजदूर – वर्ग के लोग भी यहाँ झुग्गी बना रहते थे .कई बार सत्ता की और से उन झुग्गियों को हटाने की कोशिश हुई पर हमेश विपक्ष की और से ऐसा बखेड़ा खडा कर दिया जाता कि सत्ता पक्ष चुप हो जाता और शहर के बीचो – बीच गगनचुम्बी इमारतों को चिढाती वे झुग्गियाँ पूरी शान से सर उठाये खडी थीं .आसपास के लोगों को उन झुग्गियों से कुछ ख़ास शिकायत नहीं थी क्योंकि वहाँ की महिलायें उन के घरों के काम करती थीं .अत: यह सभी भली – भांती जानते थे कि अगर यह झुगी – बस्ती यहाँ से हट गई तो कामवालियों का अकाल पड जाएगा .इस तरह परस्पर समन्वय और सहजीवन की प्रतीक ये झुग्गियां निश्चिन्त थीं .इन्हीं झुग्गियों में एक झुग्गी बस अभी – अभी बनी ही थी . रमेश ,उस की पत्नी और एक पाँच वर्ष का उनका बेटा – अभी कुछ दिनों पूर्व ही गाँव से आ कर रोजगार की तलाश में यहाँ बस गए थे .रमेश झुगी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बन रहे एक विशाल शौपिंग – माँल में मजदूरी करने लगा था और उसकी पत्नी अंजू अन्य महिलाओं की तरह एक घर में चौका – बर्तन ,साफ़ – सफाई आदि .करने लगी थी .बेटा गोकुल – जब तक माँ दूसरे घरों के काम निबटाती पास – पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता रहता .उस की झुग्गी पार्क से बिलकुल सटी हुई थी .अत: वह अक्सर पार्क में बेतरतीब उगे वृक्षों पर भी चढने की कोशिश करता .इस क्रम में कई बार गिरा भी और माँ से इस के लिए डांट भी खूब सुनी लेकिन वह कभी अपनी इस आदत से बाज न आता था .  ऎसी ही दिनचर्या के साथ एक सुबह गोकुल अपनी झुग्गी के पास बैठा हुआ था .अभी पास – पड़ोस के बच्चे खेलने आये नहीं थे .तभी उसकी आँखें गहरे आश्चर्य से फ़ैल गईं .उस के पास ही कुछ दूरी पर एक बड़ी सी चमचमाती कार आकर हच से रुकी और वह कुछ समझ पाता इस से पहले ही उस कार से एक भारी – भरकम डील – डौल वाले रेशमी कुरते – पायजामे में सजे – धजे एक सज्जन निकले .उन के एक हाथ में एक बड़ा सा कई खानों वाला टीफिन था तथा दूसरे में एक प्लास्टिक की थैली में कुछ सामान .महानगरीय सभ्यता का आदी हुआ जा रहा गोकुल न तो बड़ी गाड़ी से आश्चर्यचकित था और न ही उन सज्जन के पहनावे से .उस के आश्चर्य का कारण था सज्जन का गाड़ी में बैठ कर वहाँ पार्क तक आना .बालक – मन कौतुहल से भर उठा .उसे वह सज्जन रहस्यों से भरे लगे .खासकर उन के हाथ में टंगा वह टीफिन .वह अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उन सज्जन के पीछे – पीछे पार्क में पहुँच गया .सज्जन ने पार्क की थोड़ी सी साफ़ जगह पर टीफिन रख अभी प्लास्टीक की थैली को खोलने का उपक्रम ही किया था कि उन की नजर पास खड़े गोकुल पर पद गई .गंदे कपडे में लिपटे बच्चे को अपनी और उत्कंठा से देखते हुए देख उन्हों ने उसे जोर से डांटते हुए कहा – ‘ अबे ,चल भाग यहाँ से .खडा – खडा क्या देख रहा है ‘ फटकार सुन गोकुल डर से न चाहते हुए भी उन सज्जन की नज़रों से ओझल होने के लिए पास की झाड़ी के पीछे चला गया और वहीं से उन्हें देखने लगा . सज्जन ने कागज़ के बने चमकीले प्लेट्स निकाले तथा टिफीन खोल उस में एक – एक कर खीर ,पूड़ी और सब्जी रखने लगे .इतना बढ़िया खाना देख गोकुल के मुँह में पानी आ गया .उस पर सब्जी से उठती गरम मसाले की सुगन्ध से उस का अपने पर से नियंत्रण … Read more

पहचान

                                                                                                                                                                         मेरा इस शहर में नया -नया तबादला हुआ था । जिससे दोस्ती करता सब दीनानाथ जी के बारे में कुछ न कुछ बताते । दीनानाथ जी हमारे ही दफ्तर के दूसरे विभाग में काम करते थे । वे क्लर्क थे , पर हर कोई उनकी तारीफ करता था …….. क्या आदमी हैं ……… कहाँ -कहाँ तक उनकी पहुँच है , हर विभाग के अफसर के घर चाय -पानी है । एक दिन एक मित्र ने मुझसे यहाँ तक कह दिया कि अगर कोई काम अटके तो दीनानाथ जी से मिल लेना ,चुटकियों में काम हो जाएगा । पर मैंने सोचा मुझे क्या करना है ? दो रोटी खानी हैं और अपनी फकीरी में मस्त ! बच्चों के साथ खेलूं या दीनानाथ से मिलूँ । पर विधि का विधान , मेरी एक फाइल फंस ही गई । मैं लोगों के कहने पर उनके घर गया । दीनानाथ जी सोफे पर लेटे थे । स्थूलकाय शरीर, तोंद कमीज की बटन तोड़ कर बाहर आने की कोशिश कर रही थी । पान से सने दांत और बड़ी -बड़ी मूंछें जो उनके व्यक्तित्व को और भी रौबीला बना रही थीं । मैंने जाकर पाँव छुए (सबने पहले ही बता दिया था कि उन्हें पाँव छुआना पसंद है ), वे उठ बैठे । मैंने अपनी समस्या बताई। ” बस इतनी सी बात ” वे हंस पड़े ,ये तो मेरी आँख की पुतली के इशारे से हो जाएगा । उन्होंने कहा ” अब क्या बताएं मिश्राजी ,यहाँ का पत्ता-पत्ता मेरा परिचित है ।सब मेरे इशारे पर काम करते हैं ! उन्होंने अपने परिचय सुनाने शुरू किये ,फलाना अफसर बुआ का बेटा ,वो जीएम् … उसकी पोस्टिंग तो मैंने करायी  है । दरअसल उसका अफसर मेरे साले के बहनोई का पडोसी है । मैं सुनता जा रहा था ,वो बोलते जा रहे थे । कोई लंगोटिया यार ,कोई कॉलेज का मित्र कोई रिश्तेदार ,और नहीं तो कोई मित्र के मित्र का पहचान वाला । मैं चमत्कृत था, इतना पावरफुल आदमी !! मुझे तो जैसे देव पुरुष मिल गए ! मेरा काम तो हुआ पक्का !! मैं उनके साथ साहब से मिलने चल पड़ा । साथ में चल रहे थे उनके पहचान के किस्से !वो बताते जा रहे थे और साथ में जगह -जगह पर पान की पीक थूक रहे थे । मुझे उन्हें थूकते हुए देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कोई बड़ा अधिकारी किसी फाइल पर अपनी मोहर लगा रहा हो । सारा रास्ता उनकी मोहरों से रंग गया ।मैं मन ही मन सोच रहा था कि कितने त्यागी पुरुष हैं, इतनी पहचान होने पर भी साधारण जीवन व्यतीत कर रहे हैं ।इन्हे तो संसद में होना चाहिए !! सर्दी के दिन थे । सामने चाय की छोटी सी रेहड़ी थी ।मैने चाय पीने की ईक्षा  ज़ाहिर की । वे अनमने से हो गए । पर मैं क्या करता ? उंगलियाँ अकड़ी जा रही थीं । इसलिए उनसे क्षमा -याचना करते हुए एक चाय का आर्डर दे दिया । दीनानाथ जी मुँह  फेर कर खड़े हो गए। वृद्ध चाय वाले ने मुझे चाय दी । मैंने चाय पीते हुए दीनानाथ जी को आवाज दी । बूढा चाय वाला बोला- उसे मत बुलाओ ,वो नहीं आएगा ।वो मेरा बेटा है । वो अब बड़ी पहचान वाला हो गया है । अब अपने बूढे बाप को भी नहीं पहचानता । चाय मेरे गले में अटक गई ।दूसरों से पहचान बढ़ाने के चक्कर में अपनी पहचान से इनकार करने वाले दीनानाथ जी अचानक मुझे बहुत छोटे लगने लगे ।                               वंदना बाजपेयी