जाने कितनी सारी बातें मैं कहते कहते रह जाती हूँ

लफ्जों को समझदारी में लपेट कर निगल जाती हूँ  जाने कितनी सारी बातें मैं कहते कहते रह जाती हूँ ।  और तुम ये समझते हो ,मै कुछ समझ नही पाती हूँ  है प्यार तुमको जितना मुझसे , मै समझ जाती हँ ।  बड़ी मुश्किल से मुहाने पर रोकती हूँ …बेचैनी को  और इस तरह अपना सब्र….मै रोज़ आजमाती हूँ ।  आरजू हो ,  किसी मन्नत के मुरादो में मिले हो तुम  सलामत रहों सदा…. दुआ मैं दिन भर गुनगुनाती हूँ । चाहे तुम रहो जहां कहीं ….तुम मुझसे दूर नही हो  आखें मैं बंद करू और  अपने मन में  तुम्हें पाती है । अब कहीं कहां मेरा…… कोई ठौर या ठिकाना  एक कड़ी हर रोज़ तुम्हारे और करीब आती हूँ ||  _________ साधना सिंह                       गोरखपुर  यह भी पढ़ें … पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “जाने कितनी सारी बातें मैं कहते कहते रह जाती हूँ “कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें 

श्री राम

तेरी पीड़ा की प्रत्यंचा को—— सब खीच रहे है राम! तेरी नगरी मे, तुम्हें टेंट से ढक कर, मंदिर यहीं बनायेंगे—– बस चीख रहे है राम। हर चुनाव के मुद्दे मे, बस भुना रहे अयोध्या को, कुछ न किया और कुछ न करेंगे, सच तो ये है कि, ये नकली भक्त है आपके सारे, जो अपने-अपने स्वार्थ का चंदन—– भर माथे पे टीक रहे है राम। तेरी पीड़ा की प्रत्यंचा को—— सब खीच रहे है राम। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर—222002 (उत्तर–प्रदेश)। पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “ श्री राम “कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under- Ram, shri Ram, Ram Navami

मुझे शक्ति बनना होगा

                                  साल में दो बार नवरात्र  आती हैं | जहाँ हम सबका प्रयास रहता है कि पूजा -पाठ द्वारा देवी माँ को प्रसन्न करें व् उनका आशीर्वाद प्राप्त करें | आश्चर्य है कि शक्ति की उपासना करने वाले देश में स्त्री आज भी अबला ही है | वो कैसे सबला बनें |  इसका समाधान क्या है ? प्रस्तुत है इसी विषय पर एक कविता … माँ !मुझे शक्ति बनना होगा माँ आज तुम्हारे दरबार में सर झुकाते हुए देख रही हूँ अपने पिता को जिन्होंने मेरी शिक्षा यह कह कर रोक दी थी कि ज्यादा पढ़ा देंगे  ढूंढना पड़ेगा बहुत पढ़ा-लिखा  लड़का देख रही हूँ अपने भाई को जिसने कभी पलट कर माँ से नहीं पूंछा कि मेरी थाली में खीर और बहन की थाली में खिचड़ी क्यों ? नहीं पूछा कि  मुट्ठी भर चावल के दानों को आँचल में बाँध कर विदा कर देने के बाद क्यों खत्म होजाता है उसका इस घर पर अधिकार मैं देख रही हूँ अपने पति को जिन्होंने अपने घर की मर्यादा व् इज्ज़त के कभी न खुलने वाले डब्बे में मेरे सारे अरमानों , सपनों व् स्वतंत्रता को कैद कर लिया कभी  ठहर कर सोंचने का प्रयास नहीं किया उनके द्वारा हवा में उछाले गए दो जुमलों ‘करती क्या हो दिन भर ” और ‘कमाता तो मैं ही  हूँ “ की तेज धार से रक्त रंजित हो जाता है मेरा आत्मसम्मान मैं देख रही हूँ अपने पुत्र को जिसकी रगों में दौड़ रहा है मेरा दूध व् रक्त फिर भी न जाने क्यों बढते  कद के साथ बढ़ रहा है उसमें अपने पिता की सोंच का घनत्व जो मुझे श्रद्धा से सर झुकाकर प्रणाम  करने के बाद भी यह कहने से नहीं झिझकता कि लड़कियाँ तो ये या वो काम कर ही नहीं सकती है मैं देख रही हूँ सामाज के हर वर्ग , हर तबके ,हर रंग के पुरुषों को जो तुम्हारी उपासना करते हैं जप ध्यान करते हैं पर उन सबके लिए अपनी माँ – बहन , बेटी के अतरिक्त हर स्त्री मात्र देह रह जाती है जिसे भोगने की कामना है कभी देह से , कभी आँखों से और कभी बातों से मैं देख रही हूँ तुम्हारे सामने नत हुए इन तमाम सिरों को जो तुम्हें खुश करने के लिए धूप, दीप , आरती ,और नैवेद्ध  कर रहे हैं अर्पित ये तमाम बुदबुदाते हुए होंठ पकड़ा रहे हैं तुम्हें अपनी मनोकामनाओं की सूची कर रहे हैं इंतज़ार तुम्हारी एक कृपा दृष्टि का माँ , आज तुम्हारे मंदिर में इन घंटा -ध्वनियों के मध्य तुम्हारी आँखों से बरसते हुए तेज को देखकर मैं समझ रही हूँ कि थाली में सजा कर नहीं मिलते अधिकार अपनी दयनीय दशा पर आँसू बहाने के स्थान पर स्वयं ही अपने नाखूनों से फाड़ना होगा समाज द्वारा पह्नाया गया अबला का कवच कि अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए मुझे स्वयं शक्ति बनना होगा हां ! मुझे शक्ति बनना होगा वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … पतंगें साल बदला है हम भी बदलें नारी मन प् कवितायें मायके आई हुई बेटियाँ आपको  कविता  “मुझे शक्ति बनना होगा  “कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under- navraatre, devi , durga , shakti , women 

शहीद दिवस पर कविता

शहीद दिवस भारत माता के तीन वीर सपूत भगतसिंह , राजगुरु व् सुखदेव को  कृतज्ञ राष्ट्र का सलाम है |अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च सन 1931 को फांसी पर लटका दिया था | देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले ये तीनों हमारे आदर्श हैं आइये पढ़ते हैं उन्हीं को समर्पित कविता .. शहीद  दिवस पर कविता वे  देश के लिए  अपना आगा-पीछा  देखे-सोचे बिना  हँसते-हँसते  फाँसी के  फंदे पर झूल गए  और आज  अपने आस-पास  अन्याय होते  देख कर भी  नहीं निकलते  घर से बाहर देखते हैं बस  अपने घर की  खिड़कियों पर लगे  परदों का एक कोना हटा कर  चोरों की तरह  कितना अंतर आ गया है  स्वतंत्र होने के बाद  शहीदों को याद करते हैं  नमन करते हैं  सोशल मीडिया पर  गूगल से ढूँढ-ढूँढ कर  शहीदों की फ़ोटो  पोस्ट करते हैं  सभाएँ,कार्यक्रम करते हैं  उनकी फ़ोटो पर  माल्यार्पण कर  देश के लिए अपना  सर्वस्व समर्पण की  बात करते हैं  पर समय आने पर  देश तो बहुत दूर  अपने आस-पास तक के लिए भी  बाहर निकलने तक में  डरते हैं  कुछ करने में  सौ बार सोचते हैं और केवल सोचते रहते हैं  शहीदों की विरासत को इस तरह संभाले बस खड़े रहते हैं। ————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई फोटो क्रेडिट –shutterstock पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “ शहीद  दिवस पर कविता“कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under- shaheed divas, 23 march, bhagat singh

माँ गंगा

जल दिवस के उपलक्ष्य मे माँ गंगा की पीड़ा पर लिखी कविता——– कविता – माँ गंगा माँ गंगा———- अब धरती पे रो रही है! इसके बेवफ़ा बेटो मे अब, भगीरथ का किरदार न रहा, रोज शहर और घर के मैलो से पाट रहे, उफ!अब गंगा अपने बेटो का प्यार नही, बल्कि उनके हाथो मिला जहर———- अपने अंदर समो रही है, माँ गंगा———– अब धरती पे रो रही है। देखो इसी का असर है कि, इसके पानी का पूरा बदन, जहर से नीला पड़ता जा रहा, तड़पती गंगा माँ, अब बह नही रही———- बल्कि अपनी लाश को बस ढो रही है। माँ गंगा———- अब धरती पे रो रही है। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर —222002 (उत्तर–प्रदेश)। पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “ “माँ गंगा “कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें 

विश्व गौरैया दिवस पर दो कविताएँ

20 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय गौरैया दिवस मनाया जाता है | इसका मुख्य उद्देश्य गौरैया और अन्य घरेलू चिड़ियों के  बारे में जागरूकता पैदा करना है , ताकि इनकी लुप्त होती प्रजाति को बचाया जा सके | ये एक पहल है भारत की nature foever society व् बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समूहों की | इसी चेतना अभियान को जगाते हुए गौरैया पर दो कवितायें  विश्व गौरैया दिवस पर दो कविताएँ गौरैया-१ ———— हों  भले ही  कितने ही  नाम तुम्हारे  गुबाच्ची, पिछुका चिमनी, चकली घराछतिया, चराई पाखी  चेर, चिरी, झिरकी, चिरया, पेसर डोमिस्टिकस आदि-आदि  पर मुझे तो  भाता है तुम्हारा  छोटा सा  प्यारा सा नाम  गौरैया! माना कि शहरीकरण के नए दौर में नहीं हैं घरों में बगीचे नहीं है घरों में  ऐसी कोई जगह  जहाँ बना सको  घोंसले तुम  अपने मन से  पर सुनो गौरैया! ऐसा नहीं कि कोई सोचता नहीं  तुम्हारे लिए  अख़बारों में  लिखे जा रहे लेख  आयोजित हो रही है  सभाएँ-चर्चाएँ  जिनके केंद्र में  होती हो तुम  किसी ने तो  अपने पूरे घर को  बना दिया तुम्हारा घर  तो कोई प्लाईवुड के  घर बना कर  बाँटने में लगा है  कई कारागारों में  क़ैदियों ने बनाए है  तुम्हारे लिए  छोटे-छोटे प्यारे घर  जिन्हें वहाँ से  ख़रीद कर लोगों ने  लगाए हैं तुम्हारे लिए घर  तुम वहाँ रहने  ज़रूर जाना  जहाँ भी रखा है  किसी ने तुम्हारे लिए पानी  वहाँ पानी पीने  ज़रूर जाना  जब गर्मी लगे तो  नहाना भी  खाने के लिए बिखेरे दाने  खाना भी  मेरे मोहल्ले के  छोटे-छोटे बच्चे राह देखते हैं नित  उनके लिए  हम सबके लिए  हमारे अँगना में  फिर से आना  चहचहाना  आओगी न  गौरैया! —————— गौरैया-२ ——— गौरैया मेरे आँगन की  मेरी बेटी सी हो कर  उड़नछू हो गई जैसे वो आती है  ससुराल से  घड़ी भर के लिए  बस वैसे ही  गौरैया भी आती है भूले-भटके कभी  पानी की दो बूँद पीने  और जब से  पड़ोसी के विद्वेष ने  कटवाया अशोक का  हर-भरा पेड़  जो हो गया ठूँठ सा  रूठ गई तभी से गौरैया  भूल गई रास्ता  मेरे घर का  रोज रखती हूँ  मिट्टी के चौड़े बर्तन में  पानी उसके लिए  देखो कब आती  पीने पानी  मेरी रूठी  गौरैया रानी! मत कर मनमानी  ————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें … बदनाम औरतें बोनसाई डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ बैसाखियाँ  आपको “ विश्व गौरैया दिवस पर दो कविताएँ“कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keyword-sparrow, world sparrow day, 20 march

प्रकृति की अद्भुत छटा

कूजती है कोकिला अमराई मेंगूंजती भ्रमरावली मधुराई मेंचल रही सुरभित मृदुल शीतल पवनकर रहे कलरव मधुर पक्षी मगनइन्द्रधनुषी तितलियां इठला रहींझूमती लतिकाएं रस बरसा रहींपुष्प भारों से झुके पादप विपुलखिल रहा सौन्दर्य धरती का अतुलपीत सरसों खेत में लहरा रहीअवनि रंगों से सजी मुसका रहीबांसुरी चरवाहे की कुछ कह रहीप्रकृति की अद्भुत छटा मन हर रहीहै इला की दीप्ति चित को खींचतीनयन पथ से चल ह्रदय को सींचती उषा अवस्थी  यह भी पढ़ें … बदनाम औरतें बोनसाई डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ बैसाखियाँ  आपको “प्रकृति की अद्भुत छटा “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

मेखला

                         संबंधों की डोर कुछ ऐसी तनी कि रिश्तों के मनके बिखर गए, कोई किधर , कोई किधर और कुछ तो खो ही गए । मैंने उन्हें बटोर कर फिर से पिरोने का प्रयास किया , पर अहसास हुआ कि कमज़ोर डोर पर टूटे, बिखरे रिश्तों को नहीं पिरोया जा सकता। तब मैंने नए सिरे से, आत्मीयता की डोर में, निश्छल, नि:स्वार्थ प्रेम के रिश्ते , गहरे प्रगाढ़ संबंधों के मनके पिरोये हैं । इस दृढ़ विश्वास के साथ कि यह मेखला कभी नहीं टूटेगी । अन्नदा पाटनी यह भी पढ़ें …  यह भी पढ़ें … बदनाम औरतें बोनसाई डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ बैसाखियाँ  आपको “मेखला “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष -मैं स्त्री

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष  मैं  ———— अपने पराये रिश्तों में इतना विष मिला  पीकर नीलकंठ हो गई मैं अब  विष भी अमृत सा लगता हैं नहीं लगता अब कुछ बुरा अच्छे-बुरे की सीमाओं से  ऊपर उठ गई हूँ मैं बहुत कुछ है इस संसार में जो अभी तक  देखा नहीं जो अभी तक  किया नहीं हरी मखमली दूब पर लेट कर दिन में सूरज से  आँख मिला कर तो रात में  चाँद की चाँदनी में नहा कर उलझाना है उन्हें नदी के संग  नदी बन कर बहते जाना है मुझे हवा के संग दूर -दूर तक की यात्राएँ करनी है मुझे तितलियों के संग उड़ना जुगनुओं के संग गाहे-बगाहे चमकना है मुझे जिन गौरैयों को पापा के संग मिल क्षण भर के लिए भी पकड़ा था उन्हें मनाना है मुझे श्यामा और सुंदरी मेरी जिन गायों ने दूध देकर दोस्ती का रिश्ता निभाया था मुझसे कहाँ हैं वे अब उन्हें ढूँढना है मुझे और वो जूली बिल्ली जिसे थैले में रख  घंटाघर छोड़ कर  आए थे हम क्योंकि अपने ही बच्चों को काटने लगी थी वो कहाँ होगी वो और उसकी बेटी स्वीटी सोचती हूँ  उन्हें भी तो ढूँढ कर कुछ समझाना-दुलराना होगा और वो मिट्ठू जो एक दिन भूल से बरामदे में रह गया था उसी दिन किसी दूसरी बिल्ली ने पंजे मार घायल कर डाला था उसे कि फिर वो जी ही नहीं पाया था उसके दुःख में माँ ने तीन दिन तक खाना ही नहीं खाया था कहाँ होगा वो किस रूप में फिर जन्मा होगा वो ये भी तो पता लगाना है कितने ही काम हैं ऐसे जो करने है मुझे तो भला कैसे मैं उलझी रह सकती हूँ मैं इसमें कि किसने मुझे  कब, क्या कह कर दुखी किया मैं सही हूँ या गलत यह सिर्फ और सिर्फ  मैं जानती हूँ किस राह चलना है ये भी मैं जानती हूँ क्या करना है मुझे ये भी मैं ही जानती हूँ तो जिन रिश्तों ने दर्द दिया उन्हें वैसा ही छोड़ अपने लक्ष्य के लिए आगे बढ़ना भी मैं ही जानती हूँ, इसलिए चल पड़ी हूँ अब नहीं रुकूँगी मैं पीछे मुड़ कर देखूँगी नहीं मैं। ——————- २—स्त्री—१ ———— स्त्री  माँ बहन बेटी  भाभी चाची मौसी  नानी दादी किसी भी  रूप में हो  वह एक स्त्री है  इससे ज़्यादा और कुछ नहीं  दूसरों के लिए  स्त्री  पूछना चाहती है  बहुत कुछ  ग़ुस्से में घर के अंदर या बाहर  तेज़ आवाज़ में  बोलता पुरुष सही और घर के अंदर भी  बोलती हुई स्त्री  ग़लत क्यों? शराब के नशे में  सिर से पाँव तक डूबे  गालियाँ देते  मारते-पीटते पुरुष को सहती  विज्ञान द्वारा  प्रमाणित होने पर भी  बेटा न उत्पन्न कर पाने का ठीकरा  उसी के माथे पर  क्यों फोड़ दिया जाता है  ज़िम्मेदार पुरुष  अपने पुरुषत्व को सहेजते  सबके सामने मूँछों पर ताव देते पुरुष को  स्वयं योग्य होते हुए भी  विवश हो  उसे स्वीकारती,  सफलता की ओर बढ़ती स्त्री  ‘चालू है’ की सोच रखते पुरुष  और यहाँ तक की  स्त्री की भी  मानसिकता से लड़ती  घर में  चकरघिन्नी सी घूमती  अपने को भूल  घर, सारे रिश्ते सहेजती- समेटती कुछ क्षण अपने को महसूस करती स्त्री  असहनीय क्यों होती है? ऐसे कितने ही प्रश्न  उमड़ते हैं उसके अंदर वह जानती है अगर वह पूछेगी तो  प्रताड़ना के सिवा  कुछ नहीं पाएगी इसी से खुली आँखों में  उन्हें लिए  स्वयं से पूछती है प्रश्न सही होते हुए भी  ग़लत क्यों है वह  ग़लत नहीं तो  सहती क्यों है वह सहती है तो  दुखी क्यों होती है वह  यह सब सोचती  खड़ी क्यों है वह  जब रहते हैं अनुत्तरित प्रश्न उन्हें सहेज कर  आँखों में  कर लेती है  पलकें बंद  और चलती रहती है उसकी  अनवरत यात्रा इसी तरह  मैं कहना चाहती हूँ  हर स्त्री से  रुको वहीं  जहाँ तुम्हें रुकना हो  मौन रहो वहीं  जहाँ तुम्हें मौन रहना हो  मन की सुनो  यदि पथ है सही  लक्ष्य स्वयं गढ़ो अपनी राह पर आगे  बेधड़क बढ़ो। —————————  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष -कुछ पाया है ….कुछ पाना है बाकी ३—स्त्री-२ ——————- सारे  रिश्तों से लदी  उन्हें अपने में समेटे  घर की मालकिन होने के बोझ से  दबी सी  भरे-पूरे घर में भी  अकेली होती है स्त्री  लिखती है  रेशम के धागों से  भविष्य का महाकाव्य निबटा कर  घर के काम-काज  ऊन और सलाइयाँ लिए  बैठती है धूप में  बुनती है वर्तमान के सुंदर डिज़ाइन रसोई में  मसालों की सुगंध में  रची-बसी  रचती है रोज  एक नई कविता  जीवन की अपने नए  सपनों के साथ। ——————— ४—सुनो ———— सुख मिले तो उसे जीने को शामिल करो सबको पर दुःख में बहते आँसुओं को थामने-पोंछने अपना हाथ अपना रुमाल स्वयं बनो पर इत्तनी भी उन्मुक्त दर्पयुक्त न बनो कि अपनों, आस-पास गुजरने वालों की पदचाप सुन कर उन्हें पहचान ही न सको अस्तित्व बराबरी की  प्रतियोगिता से संपृक्त हो बाज़ारवाद की चपेट से बचते हुए सोचो तुम अर्थ हो घर-संसार का सफलता में कहीं तुम पीछे हो किसी के तो कहीं कोई पीछे है तुम्हारे सबके साथ मिल कर लिखती हो जीवन के अध्याय  तो फिर अपने लिए किसी एक दिवस की आवश्यकता क्यों अनुभव करें हर दिवस तुम्हारा हम सबका है वो जो लोहे के बंद दरवाज़े है उन्हें खोल कर लिखो नई इबारत जो कल नया इतिहास रचेंगी अपने रंगों को समेट उठो, चलो, दौड़ो मिल कर देखो…… दूर-दूर तक सारा आकाश तुम्हारा है सारा आकाश हमारा है। ———————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें …  प्रेम कविताओं का गुलदस्ता नारी मन पर पांच कवितायें फिर से रंग लो जीवन जल जीवन है आपको “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष -मैं स्त्री  “कैसी  लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

Happy Holi – रंग ही जीवन है

यूँ तो रंगों का त्यौहार होली भारत और नेपाल का प्रमुख त्यौहार है जो फागुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है , परन्तु ग्लोबलाइज़ेशन  आज न जाने कितने देश इसके रंगों में रंग गए हैं | और क्यों न रगें होली है ही इतना रंगीन की नजीर बनारसी भी कह उठे … अगर आज भी बोली ठोली न होगी तो होली ठिकाने की होली न होगी                                        यही तो ऐसा त्यौहार है जिसमें बड़े भी बच्चे बन जाते हैं | साल में एक दिन ही तो होता है जब हम अपना बचपना जी भर के जी सकते हैं | अबीर , गुलाल रंग और उस पर भाँग का संग … एक दिन बचपन में लौटने की पूरी व्यवस्था हमारे पूर्वजों ने कर दी | ठीक भी है इसे अज की आधुनिक भाषा में “स्ट्रेस रिलिजर” के रूप में देख सकते हैं | दुनिया भर के तनाव एक तरफ रख कर कुछ पल केवल उल्लास और हंसी के नाम … Happy Holi – आज ब्रज में होली रे रसिया                                 होली का नाम लेते ही सबसे पहले बृज की होली स्मरण में आती है, पिचकारी लिए हुए कान्हा और बचने के लिए आगे – आगे भागती गोपियाँ | ये स्मृतियाँ हर बार होली में फिर से पुनर्जीवित हो जाती हैं क्योंकि आज़ कौन कान्हा नहीं है और कौन गोपियाँ नहीं है …देखो तो … जोगिरा सा रा रा रा  होली की दस्तक …. होली की दस्तक, रंग गया मस्तक, नहीं बच पाया कोई अब तक। रंगों में रंग गया, सपनों में खो गया, जिस पर रंग लगा वो ही निखर गया। कंही नगारे बजे, कंही ढोल बजे, किसी के चेहरे  पर बारह भी बजे। कोई गिरा कोई फिसला, यूंही चलता रहा सिलसिला, रंगो का सज गया खुबसूरत टीला। कंही पटाखे फूटे, किसी के बर्तन टूटे, काले रंग से बचने सब के पसीने छूटे। ……………………………………………………………………………………….                                       यूँ तो होली बड़ों को भी बच्चा बनने का अवसर देती हैं पर बच्चों की उमंग तो देखते ही  बनती है | कितने दिनों पहले से बच्चे पानी के  गुब्बारे आते -जाते लोगों पर फेंकने लगते हैं , पलट कर देखने पर मुस्कुरा कर कहते हैं , आंटी -अंकल प्लीज , यही तो मौका मिला है हमें जी भर कर शैतानी करने का | फिर उनकी मासूमियत पर क्यों न बड़े हंस कर कहे ठीक  है … ठीक है , होली वाले दिन हम भी इस शैतानी में जुड़ेंगे … बच्चों , आखिर हमारी जिंदगी के रंग तुम्हीं से तो हैं  होली के नये रंग …. होली के नये रंग, नन्ही परी के संग, एक बिटिया ही है जीवन का नया रंग। छोटे-छोटे उसके हाथ, जीवन का नया साथ, उसकी सुन्दर मुस्कान हमेषा रहती है साथ। रंग बिरंगी तीतली जैसी, बिटिया रानी परी जैसी, मेरे जीवन में लेकर आयी अनमोल खुषियाँ स्वर्ग जैसी। सात रंगो का ये संसार, खुषियाँ मिले सबको अपार, होली के नये रंग सबको करे सरोबार। ……………………………………………………………………………………….                           होली का त्यौहार बहुत सारे संकेत देता है , शीत ऋतु बीत चुकी है , अब मौसम घर में दुबके रहने का नहीं बाहर निकलकर काम करने का है | वो सन्देश देती है … देखो पतझड़ बीत चुका है , पलाश के फूल खिल रहे हैं | जीवन हर बार पतझड़ से निकल कर पलाश की और बढता है , फिर क्यों उदासी ओढ़े रहे बीते हुए पलों की , क्यों न स्वागत करें आगत का और भर लें अपनी झोली में सारे रंग  होली की नयी कविता …. होली की ये नयी पहेली है, सालो से ये नई नवेली है, फाल्गुन में ये अकेली है, खुषबू में ये चमेली है। होली के रंगो से पहले पलाश निखर रहा है, जिन्दगी का पतझड़  अब खत्म हो रहा है। होली पर नीबू और आम  ढूंढ रहे है अपने झुरमूट, अब रंग बिरंगे चेहरे ढूंढ रहे है अपने झूण्ड। खुषियों की ये दुनिया ढूंढती है नये बहाने, रंगों से ला देती है सबको मिलाने के बहाने। ……………………………………………………………………………………….                                                           होली धीरे से हमारे कान में कहती है … हमारे चारों और कितने रंग बिखरे पड़े हैं , उन्हें पहचानो और अपने जीवन को रंग लो . वैसे ही जैसे प्रकृति रंगती है खुद को , क्योंकि रंग ही जीवन है |  नितिन मेनारिया उदयपुर,  राजस्थान प्रस्तुतीकरण – अटूट बंधन परिवार  होली की हार्दिक शुभकामनाएं  यह भी पढ़ें … होली और समाजवादी कवि सम्मलेन होली के रंग कविताओं के संग फिर से रंग लो जीवन फागुन है होली की ठिठोली आपको “ Happy Holi – रंग ही जीवन है “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords- happy holi , holi, holi festival