होली और समाजवादी कवि-सम्मेलन

होली पर कवि सम्मलेन का अपना ही मजा है , क्योंकि हंसी के रंग के बिना तो होली अधूरी ही है , पर आज एक समाजवादी कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ है … जरा देखिये उसके रंग होली और समाजवादी कवि-सम्मेलन डरिये नही क्योंकि————– यहाँ न बीवी न उसके हाथ मे बेलन है, आज छूट है,आॅफर है,लाभ उठाये ये हम जैसे बेलन सिद्ध कवियो का—– एक समाजवादी कवि-सम्मेलन है। यहाँ सबसे सीनियर कवि को, आशाराम बापु स्वर्णभष्म सम्मान से अलंकृत कर, उससे इस कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता करवायेंगे, और किसी महिला कवयित्री को———- हनीप्रित सम्मान से नवाज कर, किसी राम-रहीम नेचर के कवि से, उसके गुलाबी गालो पे अबीर मलवायेंगे। बैंक से पैसे न निकलपाने के कारण, इस कवि-सम्मेलन का भुगतान, हम विथ जियसटी के होली बाद करवायेंगे। क्योंकि हम कवि है कोई नीरव मोदी नही, हमारी तो बीस हजार की खातिर, जाँच पचीसो करवायेंगे——- और ये निश्चित है कि वे हमे किसी नियम पाँच मे बझायेंगे, इसलिये हम उनके कथनानुसार, अपने ही पैसे को होली बाद ही ले पायेंगे। हे! भगवान अजीब स्थिति है——– कलम किंग और पीयनबी वाले बड़े-बड़े, फैंसी फ्राडो का भुगतान करोड़ो और अरबो का करवायेंगे, और हमे हमारे ही चंद हजार के लिये, बैंक का दिवाल पे लिखा नियम पढ़वायेंगे, अब तो कालेधन की छोड़िये———– उजला धन तो अब काले से ज्यादा जा रहा, विपक्ष मे राहुल ट्वीट पे ट्वीट कर पुछ रहे, अपनी अगली होली———- दो हजार उन्नीस मे ढूंढ रहे, यानी भाजपा के लिये बसंती, तो राहुल के लिये अगला चुनाव—— एै “रंग” विदेशी हेलन है। ये हम जैसे बेलन सिद्ध कवियो का—— एक समाजवादी कवि-सम्मेलन है। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर यह भी पढ़ें …. होली के रंग कविताओं के संग फिर से रंग लो जीवन फागुन है होली की ठिठोली आपको “ होली और समाजवादी कवि-सम्मेलन“कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords- happy holi , holi, holi festival

होली के रंग कविताओं के संग

होली का त्यौहार यानि रंगों का त्यौहार , ये रंग हैं ख़ुशी के आल्हाद के , जीवंतता के , “बुरा न मानों होली है”के उद्घोष के साथ जीवन को सहजता से लेने के इन्हीं रंगों से तो रंग है हमारा जीवन , ऐसे ही विविध रंगों को सहेजते हुए हम आपके लिए लाये हैं  कुछ ख़ास कवितायें – होली के रंग कविताओं के संग  १—होली में  ——————— होली में उड़े रे गुलाल आओ रंगे तन मन हम! बच्चों ने थामी पिचकारी भिगोने चले धम-धम! बड़े चले सब मिल कर रंगे पुते जाने किधर! स्त्रियों ने  छेड़ी मीठी तान नाचे गाएँ झूम झूम कर! बच्चे बूढ़े खाएँ मन भर गुझिया मठरी ले ले थाल कैसे कहें रंगों ने जोड़े दिल के टूटे हुए तार होली आई मस्ती भरी आज करे मन वीणा झंकार।।  ——————————— २—होली पर  ——————- दूर कहीं सोच रही बिटिया लेने आएगा भाई मुझे आज सोचें देवर पहली होली भाभी की कैसे कैसे रंगना उन्हें आज सरहद पर सैनिक सपना देखे अगली होली जाऊँगा मैं घर मस्ती भरी होली जैसी इस बार आई ऐसी फिर आए सबके घर खुशियों के रंग मीठी गुझिया के संग सबको बुलाए होली अगले वर्ष सिंधारा देकर  भेज रही बेटे को आज  बिटिया के ससुराल में माँ। ———————————- ३—पहली होली  ———————— तेरी पहली होली संग पिया परिवार के खिलें रंगों के इंद्रधनुष तेरे घर-आँगन-द्वार में महके सुगंध पकवानों की चतुर्दिक दिशाओं में उड़ें खुशियों के गुलाल जहाँ-जहाँ तक दृष्टि जाए दिखें दूर-दूर तक चलती  मस्ती भरी हवाएँ फागुन की  रंगे तन-मन तेरा गाढ़े प्रेम रंग में लाए होली हर बार नव उपहार आँचल में हो सरल हर कठिन परिस्थिति हमारा आशीर्वाद होली में। ————————————- होली पर इंस्टेंट गुझिया मिक्स मुफ्त – स्टॉक सीमित ४—रंग होली के  ———————- रंग  होली के  तन से अधिक  रंगे मन को  गहनता से  प्रेम में  गहरा हो  विश्वास तो  जन्मती है कल्पना  मन की आवाज़  करती उसे  साकार   तो चुन  रंग कुछ ऐसे  बने आवाज़ मन की  रंग जाएँ रिश्ते भी  निर्भय बन  जीवन में  हर रंग  कहता सबसे  सुनो मेरी कहानी  बदलते हैं जीवन  सही रंग से  चलो  कुछ रंग लेकर  रंगे वो जिंदगियाँ  लूट गए रंग जिनके  उन्हें रंग आएँ  अपनेपन में  होली  कहे अब  दिखावा न हो  हों मन कर्म भाव सच्चे  तो खिले हर रंग  आँगन में। ———————————- ५—-होली ——————- होली  ———- होली  बरसाना की हो  मथुरा वृंदावन की हो  शांतिनिकेतन की  गाँव शहर की हो कहीं की भी हो  खेले जाते जिसमें  रंग फूलों के  अबीर गुलाल के  सच्चाई और विश्वास के  तभी खिलते  बिखरते सर्वत्र  रंग उमंग उल्लास के ख़ुशियों से सराबोर जीवन में पर  सिर उठाती विकृतियाँ  लील रही   रंग होली के  अब होली  नहीं जगाती उमंग  मन में रंगों से खेलने की  जिनकी आड़ में  विकृत मानसिकता  करती बेरंग  चेहरों को  आइए  खेलें होली  शुचिता लिए रंगों से  पकवानों की  सुगंध के साथ पर खेलें न कभी  किसी की  जिंदगी के साथ। ————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें ……. फिर से रंग लो जीवन होली स्पेशल – होलिकी ठिठोली होलिकादहन – वर्ण पिरामिड फागुन है आपको “होली के रंग कविताओं के संग “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

फिर से रंग लो जीवन

सुनो सखी , उठो बिखरे सपनों से बाहर एक नयी शुरुआत करो किस बात का खामियाजा भर रही हो शायद … मन ही मन सुबक रही हो कालिख भरी रात तो बीत ही चुकी नयी धूप , नया सवेरा पेंड़ों पर चहकते पंछियों का डेरा उमंग से भरे फूल देख रहे हैं तुम्हें फिर तुम क्यों न भूली अपनी भूल प्रेम ही तो किया था ऐतबार के फूल अंजुली में भरकर आगे बढ़ी थीं टुकड़े हुए अरमानों के महल पर यही तो अंत नहीं है इस विशालकाय भुवन में एक कोना तुम्हारा है जहाँ सतरंगी रंगों को उमंग की पिचकारी में भरकर दोनों बाहें फैलाकर कोई बना सहारा है आओ सखी आओ अपने मन की होलिका जलाओ दर्द तड़फ के  मटमैले आंसू धो  डालो इस होली में फिर इन्द्रधनुष के सारे रंग भरो अपनी झोली में सरबानी सेनगुप्ता  यह भी पढ़ें … बदनाम औरतें रेप से जैनब मरी है डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ माँ मैं दौडूगा आपको “फिर से रंग लो जीवन   “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

अलविदा श्रीदेवी

श्रीदेवी आज तू ——— लाइट,ऐक्सन,कैमरा यानी सबको तन्हा और, विरान कर गई। देखो हमारी भीगी नम आँखे—— हम कोई ऐक्टिंग नही करते, इसमे आज तेरे निभाये हर किरदार की वे—- हर एक सूरत उतर गई। तू क्या जाने कि तेरे जाने से, हमारी मुहब्बत के दरख्त़ो के सारे महबूब पत्तो को, तू दर-बदर-कर गई। हो सकता है कि इन दरख़्तो पे लगे फिर नये पत्ते, फिर पहले सी बहार आये, लेकिन तू क्या जाने कि किस तरह तेरे जाने से, हमारे दौरे शाख की बुलबुल, हमेशा कि खातिर हमारे मुहब्बत के शाख से उड़ गई। शायद आसमां पे भी खुदा को, अपनी सिनेमा की खातिर तेरे जैसे किरदार की जरुरत थी, शायद आज इसी से——— तू हमसे और हमारे जैसे तमाम चाहने वालो से बिछड़ गई। सच यकीन नही हो रहा एै “रंग” आज—– की हमारे दिल और हमारे सिनेमा की श्रीदेवी मर गई। अलविदा हम और हमारे दौर के कला की बेमिसाल मूरत यानी श्रीदेवी को। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर– फोटो क्रेडिट –bollywoodhungama.com यह भी पढ़ें … जल जीवन है पतंगे . बातूनी लड़की काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे आपको  कविता  “.अलविदा श्रीदेवी “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

फागुन है

फागुन का मौसम यानि होली का मौसम , रंगों का मौसम जो न केवल मन को आल्हादित करता है बल्कि  एक अनोखी उर्जा से भर देता है | ऐसे में  कविता “ फागुन है “ अपनी रंगों से भरी पिचकारी के रंगों से पाठकों को भिगोने को तैयार है… कविता -फागुन है   मदभरी गुनगुनी धूप मे फागुन है, आम की अमराई,कोयल की कूक मे फागुन है। ढ़लती उम्र में कोई पढ़ रहा दोहे, कोई कह रहा गोरी!तुम्हारे रुप मे फागुन है। प्रीत के,प्यार के हर कही बरस रहे रंग, फिर भी किसी विरहन के हूक मे फागुन है। कोई हथेली से मल रहा गुलाल, तो कही किसी प्रेमी के चूक मे फागुन है। ढ़ोल की थाप पर मेरा झुम रहा मन, हाय!रंग–कितने शुरुर मे फागुन है। रचयिता—-रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर–222002 (up) यह भी पढ़ें … जल जीवन है पतंगे . बातूनी लड़की काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे आपको  कविता  “.फागुन है“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे

किसी भी कथा को कविता के रूप में प्रतुत करने का चलन बहुत पुराना है | आज हम “ अटूट बंधन “ पर ऐसी  ही काव्य कथा – गहरे काले रंग के परदे ले कर आये हैं | परदे अपने अंदर बहुत सारा दर्द और शोषण  छिपाए रखते हैं , जिनका बेपर्दा होना बहुत जरूरी हैं| आइये पढ़ते हैं …  काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे  नए घर में सामन जमाते हुए बरबस ही मेरा ध्यान आकर्षित कर ले गए गहरे काले रंग के परदे जो टंगे थे मेरे घर के ठीक सामने वाले घर की बड़ी-बड़ी खिडकियों पर एक अजीब सी इच्छा जगी जानने की कि कौन रहता है इन पर्दों के पीछे जिसकी है इतनी अलग पसंद क्या कोई और रंग नहीं मिला घर सजाने को या कुछ खास ही होगा अंदर जो लगा दिया है नज़र का टीका गहरे काले रंग के पर्दों के रूप में बचपन में अम्मा ने बताया था अशुभ होता है काला रंग शोक का प्रतीक घर में पूजा करने वाले पंडित जी  ने बताया था शनि का रंग है काला दूर ही रहना इससे नहीं तो कहीं का नहीं छोड़ेगा विज्ञान की कक्षा में मास्टर जी ने बताया काला रंग सोख लेता है हर रंग को कोई भी रंग पार नहीं जा सकता इसे कितनी ही परिभाषाएं थी काले रंग की जो सब की सब बता रहीं थी उसके दोष क्या उन्हें नहीं पता ? फिर क्यों टांग रखे हैं गहरे काले रंग के परदे धीरे -धीरे चलने लगा पता मेरे ही नहीं पूरे मुहल्ले की जिज्ञासा का केंद्र थे गहरे काले रंग के परदे कोई नहीं जानता की कौन रहता है क्या होता है इन पर्दों के पीछे सुना है  रहते हैं दो औरतें और एक पुरुष माँ -बेटी कभी निकलती नहीं कभी झांकती नहीं हाँ पुरुष जाता है रोज सुबह और लौटता है शाम को दो बार खटकते हुए दरवाजों के अक्तिरिक्त कोई हलचल नहीं होती वैसे ही टंगे रहते हैं वो गहरे काले रंग के परदे एक दिन रात के चार बजे आने लगी रोने की आवाजें उन्हीं पर्दों के पीछे से अपनी -अपनी बालकनियों से झांकते लोग कर रहे थे प्रयास जानने का जमा होने लगी भीड़ दरवाजे के बाहर बढती रुदन की आवाजों से टूट गए दरवाजे अन्दर थी  दो कृशकाय स्त्रियाँ एक जीवित एक मृत एक विक्षिप्त सी माँ विलाप करती अपनी किशोर बेटी पर थोड़ी दूर अनमयस्क सा बैठा पिता घूरता भीड़ को जिसकी आँखों में थे सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न जिनके जवाब छप गए थे दूसरे दिन के अख़बारों पर एक पिता जिसने कैद कर रखा था अपनी ही बेटी और पत्नी को घर के अन्दर पत्नी के असमर्थ हो जाने पर जो भूल गया था पिता होना और अपनी ही बच्ची को बनाता रहा अपनी वासना का शिकार सालों साल जिसका दर्द , घुटन , मौन चीखें बाहर जाने से रोक रहे थे गहरे काले रंग के परदे मैं सोंचती रह गयी काले रंग की किस की परिभाषा सही है अम्मा की , पंडित जी की या मास्टर जी की कितना कुछ छिपाए थे ये गहरे काले रंग के परदे पर्दों का रंग भले ही कला न हो  बड़े घरों में टंगे परदे जिनके पीछे के दर्द की कहानी शायद अलग हो पर वो हमेशा ये याद दिलाते हैं कि इस पर्दादार देश में पर्दों के पीछे बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिसका बेपर्दा होना जरूरी है… सरिता जैन दिल्ली यह भी पढ़ें … मनीषा जैन की कवितायें अंतरा करवड़े की पांच कवितायें रश्मि सिन्हा की पांच कवितायेँ नारी मन पर वंदना बाजपेयी की पांच कवितायें आपको ” काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords-poetry, hindi poem, poem, curtain

राजगोपाल सिंह वर्मा की कवितायें

                                 राजगोपाल सिंह वर्मा की कवितायें भावों की गहनता तक जाकर कुछ पड़ताल करती हैं, वहां से कुछ ठोस निकालती है और सीधी –सादी भाषा में पाठकों के सामने प्रस्तुत कर देती हैं | गंभीर बात को सरल शब्दों में कहना इनकी विशेषता है जो सहज ही पाठक के ह्रदय पर अमिट छाप छोड़ती हैं|  राजगोपाल सिंह वर्मा की कवितायें  १ . दर्प का आवरण ——— सुनहरी धूप की किरणों से, न जाने कैसे… पक जाती हैं वह… गेहूं की बालियां… जो दमकती हैं एकबारगी, खरे सोने की तरह… कतार में ऐसे खड़ी… लहलहाती हों… जैसे झूमते हुए स्वागत में… हां, कुछ बौरा-सी जाती हैं… जब वह पक चुकी होती हैं… पूरी तौर पर… और, होती हैं आतुर… अपनी जमीं से… बिछुड़ने के लिए, सही तो है… फिर सहलायेगा कोई… संजोयेगा जतन से.. मन से… मिलेगा आदर भी… निवाला बनने से पहले… और गर घुन लगी तो… निकृष्ट माने जाओगे… तुम भी खूबसूरत-से सुनहरे दानों… और फेंक दिए जाओगे… कचरे के ढेर में… तब, बीनेगा कोई तुम्हें… फिर से, अपना निवाला बनाने के लिए, शायद कुछ ख़ास श्रम से… पर तब तक… कुछ भरम तुम्हारा टूटेगा… यकीनन… कि सोना नहीं हो तुम.. पर, कौन कहता है कि… कुछ कम हो तुम… क्योंकि, तुम दे सकते हो… जो तृप्ति… स्वर्ण का गुण तो वह नहीं… आवरण ओढ़ता है वह मात्र… दर्प का…! कुछ मिथ्या अवधारणाओं का… जबकि तुम… जीवन देते हो… और देते हो ऊर्जा… निरन्तर, असीमित और , देदीप्यमान… सपनों के जीवन-दान की ! पढ़िए -बदलते हुए गाँव २. अलग है स्त्रियों का प्रेम —- स्त्रियों का प्रेम पुरुषों से बिल्कुल अलग होता है, जब पुरुष प्रेम पींग बढ़ाता है, स्त्री उसे संशय से देखती है, हां, सिर्फ संशय… उसके भावों पर, कुछ अभिव्यक्तियों पर या फिर उसकी बड़ी-बड़ी बातों पर, प्रेम की परिभाषाओं पर ! स्त्री आसानी से भरोसा नहीं करती पुरुष पर… आरम्भ में, पर जब करती है तो पूरा करती है और करती रहती है… अपनी टूटन के आखिरी सिरे तक, महीन कमज़ोर-से धागों के स्वतः दरकने तक, द्वैत से अद्वैत का यह सफरनामा 360 अंश पर पहुंचकर पूरा होता है… उसके लिए, वह पसंद करती हैं इश्क़ रूहानी… और पुरुष का प्रेम… पहले देह तकता है ! वह समझता है कि पा लिया है स्नेह उसने स्त्री का तब वह हो जाता है… स्वछंद, उच्छ्रंखल और बेपरवाह, उस प्यार से जो मिला था उसे न जाने किस कर्म के पुरुस्कार में, हमेशा ही, या अकसर ऐसा होता है, और स्त्रियां ही शिकार होती हैं पुरुषों की कुछ अतिरेक व्यंजनाओं की, कुछ किस्सों-कहानियों की और न जाने कितने सच्चे-झूठे वादों की, और फिर कहते हैं न… कि स्त्री लज़्ज़ा है, मर्यादा है और कुल का मान है… ! पुरुष जब अपना… सौ प्रतिशत झोंक देता है तब स्त्री कहीं जाकर धीमे-धीमे… सकुचाती हिरणी-सी अपने एक अंशांस से जुड़ती है…संशय के साथ, एक-एक कदम उठाती है धड़कनें साथ नहीं देती अक्सर पर, प्रेम की बात है न और जानते हो न आप, प्रेमल सम्बन्धों को जिंदा रखने के लिए तोड़ सकती है वह जन्म-उत्पत्ति के भी संबंध, यदि पढ़ी है उसने आपके दृगों में स्नेह की पाती, और पुरुष… न जाने क्या करता है, क्या अर्थ रखते हैं यह प्रेम संबंध उसके लिए, कुछ भी तो अप्रत्याशित नहीं जुड़ जाने के बाद… जिसे कहते हैं जन्मान्तरों के बंधन, पर मिलता क्या है… प्रताड़ना…दरकना… आरोप…अनचाहे से, फिर अंततः टूटना और वह सब जो स्त्री के लिए सोच्य भी नहीं! प्रेम वह करता है… निर्वहन स्त्री करती है, प्रेम और तृष्णा.. दोनों का निर्वहन करना आसान है क्या ? और फिर प्रेम का अनचाहा निर्वहन या अपराधबोध तुम्हारा क्या वही है अशेष स्त्री को जो रहे प्रतीक्षारत, बिछा कर पलकें हर पल..? पढ़िए -बदनाम औरतें ३. नमन तुम्हें, हे गर्व महान ! —– सृष्टि का जो आधार है, है उद्गम जिसका पावन पर्वतों की श्रृंखला से, ब्रह्म रूप धारिणी… ब्रज संस्कृति की तुम जननी कहलाती, सूर्यदेव की गर्वीली पुत्री, मृत्यु देव यम की प्रिय भगिनी श्रीकृष्ण की परि…. हे कालिंदी, यमुना भी तुम, भक्ति की बहती निर्झर सरिता हो तुम! तुम समेटते हो अंचल में न जाने कितने निर्मल-से जल स्रोत, कहीं टोंस को करती आत्मसात, या ले चलती कमलाद और अस्लौर, कहाँ हिमालय और कहाँ इलाहाबाद, तुमने जन्मे मथुरा के तट, स्मृति तुम में ही है सरस्वती की और संभाला कृष्ण गंगा को तुमने ही तो सिर्फ ! तुमको बाँध लिया दिल्ली ने, किया नियंत्रित प्रवाह, पर सोचो क्या रुक पाया… निर्मल तुम्हारा स्वभाव, वृन्दावन को किया पल्लवित, मथुरा को गौरवान्वित, श्रीकृष्ण हुए आसक्त शाहजहाँ की बनी प्रेरणा तुम, ताजमहल भी नतमस्तक है, हो बटेश्वर का तुम धर्म, कर चम्बल को आत्मसात हो जाती तुम भी विस्तीर्ण, चलती रही साथ-साथ मिली प्रयाग में जाकर तब… संगम तुम कहलाई, स्वभाव तुम्हारा है, सहेजना सबको, जब देखा किया समाहित, स्नेह-नीर बांटा यूँ ही बस हर पल! तुमने शरण दी सेंगर को, और किया सम्मान बेतवा का, तुमने दिया जीवन केन को, तुमसे हुई श्रद्धानत नदी जो कहलाती सिंध ! बहता निर्मल पानी हो, मात्र यह नहीं है भ्रम हमारा, तुम हो वाहक संस्कृति की, तभी कहलाता… पुरातन सभ्यता, यह गौरवशाली देश हमारा पूज्य हो तुम, श्रद्धेय तुम, दुःख को सबके हरने वाली पवित्र हो तुम हो प्राचीन तुम्हीं, यमुना ही हो न तुम ! -राजगोपाल सिंह वर्मा राजगोपाल सिंह वर्मा ————– पत्रकारिता तथा इतिहास में स्नातकोत्तर शिक्षा. केंद्र एवम उत्तर प्रदेश सरकार में विभिन्न मंत्रालयों में प्रकाशन, प्रचार और जनसंपर्क के क्षेत्र में जिम्मेदार वरिष्ठ पदों पर कार्य करने का अनुभव. पांच वर्ष तक प्रदेश सरकार की साहित्यिक पत्रिका “उत्तर प्रदेश “ का स्वतंत्र सम्पादन. इससे पूर्व उद्योग मंत्रालय तथा स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार में भी सम्पादन का अनुभव. वर्तमान में आगरा, उत्तर प्रदेश में निवासरत. विभिन्न राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, आकाशवाणी और डिजिटल मीडिया में हिंदी और अंग्रेजी भाषा में लेखन और प्रकाशन तथा सम्पादन का  बृहद अनुभव.  कुल लगभग 800 लेख आदि प्रकाशित. कविता, कहानी तथा ऐतिहासिक व अन्य विविध विषयों पर लेखन.  ई-मेल: rgsverma.home@gmail.com) — यह भी पढ़ें – मनीषा जैन की कवितायें अंतरा करवड़े की पांच कवितायें रश्मि सिन्हा की पांच कवितायेँ नारी … Read more

गीत वसंत

धरा ने है ओढ़ी वसन्ती ये चूनरनव सुमनों का किनारा टँका हैनवल किसलयों का परिधान पहनाकि फागुन अभी आ रहा , आ रहा है धरा – – – –ये पायल की रुनझुन सी भँवरों की गुनगुनसघन आम्रकुन्जों में कोयल की पंचमशीतल सुगन्धित मलय को लिए संगऋतुराज तो स्वागत को खड़ा हैधरा  – – – – ये पुष्पों के भारों से झुकती लताएँविपुल रंगों की इन्द्रधनुषी छटाएँये सौन्दर्य – झरना धरा यौवना काअनिमेष फागुन ठगा सा खड़ा हैधरा – – – – उषाअवस्थी, गोमती नगरलखनऊ ( उ0प्र0) यह भी पढ़ें … बदनाम औरतें रेप से जैनब मरी है डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ माँ मैं दौडूगा आपको “गीत वसंत    “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

माँ मै दौडूंगा

माँ मै तुम्हारे लिए दौडूंगा जीवन भर आप मेरे लिए दौड़ती रही कभी माँ ने यह नहीं दिखाया कि मै  थकी हूँ  माँ ने दौड़ कर जीवन की सच्चाइयोंका आईना दिखायासच्चाई की राह परचलना सिखाया  अपने आँचल से मुझेपंखा झलायाखुद भूखी रह करमेरी तृप्ति की डकारखुद को संतुष्ट पाया  माँ आप ने मुझे अँगुलीपकड़कर चलना /लिखना सिखायाऔर बना दिया बड़ा आदमीमै खुद हैरान हूँ  मै सोचता हूँमेरे बड़ा बनने पर मेरी माँ का हाथ औरसंग सदा उनका आशीर्वाद हैयही तो सच्चाई का राज है  लोग देख रहे है खुली आँखों सेमाँ के सपनों का सचजो उन्होंने मेहनत/भाग दौड़ से पूरा कियामाँ हो चली बूढ़ीअब उससे दौड़ा नहीं जाता किंतुमेरे लिए अब भी दौड़ने की इच्छा है मन में  माँ अब मै  आप के लिए दौडूंगाता उम्र तक दौडूंगादुनिया को ये दिखा संकूमाँ से बढ़ कर दुनिया मेंकोई नहीं है संजय वर्मा”दृष्टि” यह भी पढ़ें ……. बदनाम औरतें रेप से जैनब मरी है डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ नए साल पर पांच कवितायें -साल बदला है हम भी बदलें आपको “ माँ मै  दौडूंगा  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

कुछ रचनाएँ बीनू भटनागर जी के काव्य संग्रह ” मैं सागर में एक बूँद सही” से

बीनू भटनागर  जी  की कवितायें  भावनाओं का सतत प्रवाह है |  किसी नदी की भांति यह अपना  आकार स्वयं  गढ़  लेती हैं |बीनू जी यथार्थ  को यथार्थ की तरह रखती हैं वह उसे अनावश्यक बिम्बों का जामा नहीं पहनाती | इसीलिए पाठक किसी मानसिक  द्वंद से गुज़रे बिना  उन कविताओं से सीधे जुड़  जाता है | कहीं कहीं कविताओं  में लयात्मकता भी दृष्टिगोचर होती है | जो कविताओं को और अधिक प्रभावशाली बना देती है | बीनू जी का यह प्रथम काव्य संग्रह  है | जो उनकी शब्दों और भावों पर पकड़  के कारण  अनुपम बन गया है |इसमें उन्होंने दर्शन और आध्यात्म,पीड़ा,प्रकृति और प्रदूषण, पर्यटन,ऋतुचक्र,हास्य और व्यंग्य,समाचारों की प्रतिक्रिया आदि अनेकों विषयों को अपनी सजग लेखनी से कलमबद्ध किया है | कुछ रचनाएँ उनके काव्य संग्रह ” मैं सागर में एक बूँद सही ” से  कुछ रचनाएँ बीनू भटनागर जी के काव्य संग्रह  ” मैं सागर में एक बूँद सही”  से  मै सपनो मे नहीं जीती         मै सपनो मे नहीं जीती         सपने मुझमे जीते हैं।            मेरी कविता भी,         कल्पना मे नहीं जीती,            ये वो नदी है जो,         यथार्थ मे ही बहती है।          कल्पना का आँचल,         यथार्थ ने पकड़ा हो,          तभी कविता मेरी,           आकार लेती है।         निराशा और आशा से,          बनती है कहानी भी,           कहानी मे भले ही,          संघर्ष और दुख हों,           हौसले नहीं टूटेंगे,           घरौंदे नहीं छूटेंगे,         उम्मीद से बंधे होंगे,           किरदार सब मेरे।         जब मै लेख लिखूँगी,         जीवन को दिशा दूँगी,       मिथ्या और अंधविश्वास से,         निरंतर लड़ूगी मै,     सामाजिक, धार्मिक कुरीतियों का,        विरोध करती रहूँगी मै। कोशिश कुछ अनचाहा सा, कुछ अनसोचा सा, कुछ अनदेखा सा, कुछ अप्रिय सा, जब घट जाता है, तो मन कहता है नहीं… ये नहीं हो सकता, दर्द और टीस का कोहरा, छा जाता है सब ओर। पर नियति है… स्वीकारना तो होगा थोड़ा मुश्किल है, पर करना तो होगा.. ये स्वीकारना ही एक ऐलान है, उस अनचाहे से लड़ने का, अपनी शक्ति समेटने का, फिर विजयी होने की संभावना के साथ जीना, पल पल हर पल, विजय मिले या आधी अधूरी ही मिले, पर कोशिश पूरी है,नहीं आधी अधूरी है। वो चला आयेगा                                   मन से पुकारो,   वो चला आयेगा।  राह मे कोई   मिल जायेगा,  जब वो उजाले  मे ले जायेगा,  तब सब साफ़  नज़र आयेगा।  पहचानो,    भगवान नज़र आयेगा,  क्योंकि,  वह नीचे आता है   कभी  ,नहीं  ज़रिया बनाकर  भेजता है,  इन्सान को ही।  वो होगा इन्सान ही,  कुछ समय के लियें,  तुम्हारे ही लियें,  थोड़ा ऊपर उठ जायेगा।  वो मित्र, शिक्षक, चिकित्सक,  या कोई और भी हो सकता है।  तुमसे तुम्हारी,  पहचान वो करायेगा,  मन की खिड़कयाँ खोलो,  धूल की पर्त को धोलो,  वो  सहारा देगा,,,  पर सहारा नहीं बनेगा,  तुम्हे  राह दिखाकर,  भीड़ मे खो जयेगा। दीवाली  बहुरंगी रंगोली सजाई, चौबारे पर दिये जलाये, लक्ष्मी पूजन आरती वंदन,  कार्तिक मास अमावस आई। मन मयूर सा नाच उठा जब, साजन घानी चूनर लाये,  घानी चूनर जड़े सितारे, दीप दिवाली के या तारे । खील बताशे पकवान, और मिष्ठान निराले, अपनो के उपहार अनोखे, स्नेह संदेशालेकर आये । फुलझड़ी व अनार चलाये, बंम रौकिट का शोर न करके, फूलों से सजावट करके, दीवाली त्योहार मनाये।  नदिया हिम से जन्मी, पर्वत ने पाली, इक नदिया। साथ लिये फिरती वो, बचपन की सहेलियाँ, घाटीघाटीझरनेझरने, करतीवोअठखेलियां। बचपन बीताआई जवानी, मैदानों मे पंहुची, कितनी ज़िम्मेदारियां, फ़सल सींची, प्यास बुझाई, हुई प्रदूषित उसकी काया। धीरेधीरे ढली जवानी, मंद पड़ीअंगड़ाइयाँ। शाँत हुई,नहीं रुकी फिर भी, धीरेधीरे बहती गई, सागर से मिलकर , बढ गईं गहराइयां। मानव जीवन की भी कुछ, ऐसी ही हैं कहानियाँ। यह भी पढ़ें ……… श्वेता मिश्र की पांच कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ नए साल पर पांच कवितायें – साल बदला है हम भी बदलें आपको “कविता -बदनाम औरतेँ  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |