कविता -बदनाम औरतेँ

बदनाम औरतें मात्र एक कविता नहीं है | ये दर्द है उन औरतों का जो समाज की मुख्यधारा से कट कर पुरुषों की गन्दी नीयत का अभिशाप झेलने को विवश है | ऐसे संवेदनशील विषय पर बहुत कम लोगों ने अपनी कलम उठाई है | साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका गाथांतर  की संपादक सोनी पाण्डेय जी बधाई की पात्र है जिन्होंने उन महिलाओं के लिए आवाज़ उठाई है , जिनके बारे में सभी घरों में बात करना भी गुनाह है |  प्रस्तुत है हृदयस्पर्शी कविता बदनाम औरतें 1 माँ ने सख्त हिदायत देते हुए कहा था उस दिन उस तरफ कभी मत जाना वो बदनाम औरतोँ का मुहल्ला है । और तभी से तलाशने लगीँ आँखेँ बदनाम औरतोँ का सच कैसी होती हैँ ये औरतेँ क्या ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती हैँ क्या इनका कुल – गोत्र भिन्न होता है क्या ये प्रसव वेदना के बिना आती हैँ या मनुष्य होती ही नहीँ ये औरतेँ मेरी कल्पना का नया आयाम हुआ करतीँ थीँ उन दिनोँ जब मैँ बड़ी हो रही थी । समझ रही थी बारीकी से औरत और मर्द के बीच की दूरी को एक बड़ी लकीर खिँची गयी थी जिसका प्रहरी पुरुष था छोटी लकीर पाँव तले औरत थी । 2 बदनाम औरतोँ को पढते हुए जाना कि इनका कोई  मुहल्ला होता ही नहीँ यह पृथ्वी की परिधि के भीतर बिकता हुआ सामान हैँ जो सभ्यता के हाट मेँ सजायी जाती हैँ इनके लिए न पूरब है न पश्चिम न उत्तर है न दक्खिन न धरती है न आकाश ये औरतेँ जिस बाजार मेँ बिकता हुआ सामान हैँ वह घोषित है प्रहरियोँ द्वारा  रेड लाईट ऐरिया “ प्रवेस निषेध के साथ । किन्तु ये बाजार तब वर्जित हो जाता है सभी निषेधोँ से जब सभ्यता का सूर्य ढल जाता है ये रात के अन्धेरे मेँ रौनक होता है सज जाता है रूप का बाजार और समाज के सभ्य प्रहरी आँखोँ पर महानता का चश्मा पहन करते हैँ गुलजार इस मुहल्ले को बदनाम औरतोँ के गर्भ से जन्म लेने वालीँ सन्तानेँ सभ्य संस्कृति के उजालोँ की देन होतीँ हैँ जिन्हेँ जन्म लेते ही असभ्य करार दिया जाता है । ये औरतेँ जश्न मनातीँ हैँ बेटियोँ के जन्म पर मातम बेटोँ का शायद ये जानती हैँ कि बेटियाँ कभी बदनाम होती ही नहीँ बेटे ही बनाते हैँ इन्हेँ बदनाम औरतेँ । 3 ये बदनाम औरतेँ ब्याहता न होते हुए भी ब्याहता हैँ मैँ साक्षी हूँ पंचतत्व  दिक् – दिगन्त साक्षी हैँ देखा था उस दिन मन्दिर मेँ ढ़ोल – ताशे  गाजे – बाजे लक – धक  सज – धज के साथ नाचते गाते आयी थीं मन्दिर मेँ बदनाम औरतेँ बीच मेँ मासूम सी लगभग सोलहसाला लडकी पियरी . चुनरी मेँ सकुचाई  लजाई सी चली आ रही थी गठजोड किये पचाससाला मर्द के साथ । सिमट गया था सभ्य समाज खाली हो गया था प्रांगढ़ अपने पूरे जोश मेँ भेरवी सम नाच रही थी लडकी की माँ लगा बस तीसरी आँख खुलने ही वाली है । पुजारी ने झटपट मन्दिर के मंगलथाल से  थोड़ा सा पीला सिन्दूर माँ के आँचल मेँ डाला था भरी गयी लडकी की माँग । अजीब दृश्य था मेरे लिए पूछा था माँ से ये क्या हो रहा है ब्याह मासूम लडकी अधेड से ब्याही जा रही है अम्मा ! ये तो अपराध है माँ ने हाथ दबाते हुए कहा था ये शादी नहीँ  इनके समाज मे नथ उतरायी की रस्म है “ और छोड दिया था अनुत्तरित मेरे सैकड़ोँ प्रश्नोँ को समझने के लिए समझ के साथ । हम लौट रहे थे अपनी सभ्ता की गलियोँ मेँ एक किनारे कसाई की दुकान पर बँधे बकरे को देखकर माँ बड़बड़ायी थी  बकरे की माँ कब तक खैर मनाऐगी “ और मैँ समझ के साथ – साथ जीती रही मासूम लड़की के जीवन यथार्थ को तब तक  जब तक समझ न सकी कि उस दिन  बनने जा रही थी सभ्यता के स्याह बाजार मेँ मासूम लड़की बदनाम औरत । 4  एक बडा सवाल गुँजता रहा तब से लेकर आज तक कानोँ मेँ कि  जब बनायी जा रही थी समाज व्यवस्था क्योँ बनाया गया ऐसा बाजार क्योँ बैठाया गया औरत को उपभोग की वस्तु बना बाजार मेँ औरत देह ही क्योँ रही पुरुष को जन कर  मथता है प्रश्न बार – बार मुझे देवोँ ! तुम्हारे सभ्यता के इतिहास मेँ पढा है मैँने जब – जब तुम हारे औरत शक्ति हो गयी धारण करती रही नौ रुप और बचाती रही तुम्हेँ । फिर क्योँ बनाया तुमने बदनाम औरतोँ का मुहल्ला क्या पुरुष बदनाम नहीँ होते फिर क्योँ नहीँ बनाया बदनाम पुरुषोँ का मुहल्ला अपनी सामाजिक व्यवस्था मेँ मैँ जानती हूँ तुम नैतिकता  संस्कार और संस्कृति के नाम पर जीते रहे हो दोहरी मानसिकता का जीवन . सदियोँ से। देखते आ रहे हो औरत को बाजार की दृष्टि से  । आज तय कर लो प्रार्थना है . . . . कि बन्द करना है ऐसे बाजार को जहाँ औरत बिकाऊ सामान है जोड़ना है इन्हेँ भी समाज की मुख्यधारा से आओ  थामलेँ एक – दूसरे का हाथ बनालेँ एक वृत्त इसी वृत्त के घेरे मेँ नदी  पहाड़  पशु – पक्षी औरत – मर्द सभी चलते आरहेँ हैँ सदियोँ से और बन जाता है ये वृत्त धरती और धरती को घर बनाती है औरत तुम रोपते हो जीवन बस यही सभ्यता का उत्कर्ष है । हाँ मैँ चाहती हूँ ये वृत्त कायम रहे इस लिए मिटाना चाहती हूँ इस वृत्त के घेरे से ” बदनाम औरतोँ का मुहल्ले” का अस्तित्व क्योँ की औरते कभी बदनाम होती ही नहीँ बदनाम होती है दृष्टि । डा. सोनी पाण्डेय संक्षिप्त परिचय नाम- डा. सोनी पाण्डेय पति का नाम – सतीश चन्द्र पाण्डेय शिक्षा – एम .ए. हिन्दी बी.एड. पी .एच. डी कथक डांस डिप्लोमा  बाम्बे आर्ट अभिरुचि – लेखन  चित्रकला साहित्यिक पुस्तकेँ पढना सम्प्रति – अध्यापन संपादन  गाथांतर हिन्दी त्रैमासिक विभन्न पत्र पत्रिकाओँ मेँ कविता कहानी  लेख का प्रकाशन ये कविता ” अटूट बंधन ” मासिक पत्रिका नवम्बर २०१४ के ” में प्रकशित हो चुकी है |  यह भी पढ़ें … श्वेता मिश्र की पांच कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ नए साल पर पांच कवितायें – साल बदला है … Read more

वसंत पर कविता – Hindi poem on vasant

वसंत यानी प्रेम का मौसम , पर हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं होता कि उसे उसका प्यार मिल ही जाए | ऐसे में वसंत और भी सताता है भावनाएं जब हद से ज्यादा दर्द देने लगती हैं तो लिख जाता है आँसू भरी आँखों से कोई प्रेम गीत   Hindi poem on vasant दिलों की बातें  आँसू कह जाते  ख़ुशी -दुःख में  पलकों की खिड़कियों से  झाँकते  दूसरों की  मन की दुनियां बहुत दूर जाने   बहुत दिनों बाद  मिलने पर  ऐसे ढुलकते आँसूं  जैसे गालों पर पड़ी हो ओंस  तब भीगता है  मन  उन आंसुओं  में से  कुछ आँसू ऐसे भी   जो बचाकर  रखें   यादों की किताबों में  जब याद आयी  खोली किताब  किस्से अक्षरों में लिखे  आंसुओं में घुल गए  धुल  गए  वसंत में कोयल गाने लगी  प्रेम के गीत  मन की खिड़कियों से  अब आँसू नहीं लुढ़कते  इंतजार  में सूख भी जाते  आँखों से  आँसू  वक्त को दोहराता  वसंत का मौसम  हर साल आता  मीठी आवाज कोयल के संग  जो मन की किताब के कोरे पन्नों में  टेसू की स्याही से  लिखने लग जाता प्रेम के गीत  संजय वर्मा “दृष्टी “ यह भी पढ़ें …… श्वेता मिश्र की पांच कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ नए साल पर पांच कवितायें – साल बदला है हम भी बदलें आपको “वसंत पर कविता – Hindi poem on vasant “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | vasant ritu, love, poem on love

मनीषा जैन की कवितायें

मनीषा जैन की कवितायें आम बात कहती हुई भी खास हो जाती हैं क्योंकि वो हर संवेदना की गहराई तक जा कर वो निकाल लाती हैं जो सतह पर तैरते कवि अक्सर देख ही नहीं पाते| शायद यही कारण है कि मनीषा जी की कवितायें बहुत पसंद करी जा रही हैं | आज हम आपके लिए लायें हैं मनीषा जी की कुछ चुनिन्दा कवितायें … मनीषा जैन की नौ कवितायें  1. मैनें देखा रात के अंधेरे में मैनें देखा सड़क पर मिट्टी बिछाती स्त्री मैनें देखा उसे सड़क बनाते दिल्ली की सड़कों पर नवजात दुधमुंहे बच्चे को लिटा कर टोकरे के भीतर फिर फिर तोड़ती रही मिट्टी के ढ़ेले एक शिकन तक नही उसके मुख पर मैनें देखा उसे सड़कों पर अकेले। 2. भूखा बच्चा चाँद  को देख भूखा बच्चा बोल पड़ा कब आओगे रोटी बनकर चांद से देखी न गई बच्चे की भूख वह दूध बनकर मां के स्तनों से अमृत सा बह निकला फिर भी कई चांद से सरे आसमां एक भी भूख मिटाने के काबिल न था बहुत से रंग थे जीवन में उसके एक भी तो उसकी भूख मिटाने के काबिल न था। करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें 3. सिर्फ देह एक दिन सिर्फ देह होने से मना करने पर उसने माना स्त्री की देह मानो कूड़ाघर उठा कर अंगुली एक सुना दिया फ़रमान मैं डरी सहमी सी दे ही न सकी कोई जबाब तुम्हारे प्रश्नों में कहीं कोई शर्म लिहाज भी नहीं थी। 4. रगो में लहू पिता आप उस दिन देख रहे थे मेरी ओर बुझती सांझ की तरह मेरी आंखों में भर रही थी तुम्हारी आंखों की सतरंगी रोशनी पिता उस दिन जब हाथ तुम्हारे उठ रहे थे मेरी तरफ कुछ कहने वो शाख में उगती पत्तियों की तरह दे रहे थे अटूट विश्वास मेरी बाहों को पिता उस दिन तुम्हारे वो कदम जो जा रहे थे मृत्यु की ओर मेरे पैरों में भर रहे थे गति मेरे जीवन में आ रही थी सुबह पिता मैं कहां भूल पाउंगा तुम्हारा देना जो अदृश्य हो कर दिया तुमने जो बहता है आज भी मेरी रगो में लहू बनकर क्या मैं अपने बेटे को दे पाउंगा ये सब कुछ। 5. साल के अंत में साल के नए दिन वह स्त्री धो रही है बर्तन बुहार रही है फर्श इस साल होली पर वह स्त्री रसोई में खेल रही है मसालों से होली बना रही है रंगबिरंगी सब्जियां गूंथ रही है परात भर चून थपक रही है सैंकड़ो पूरियां पकायेगी उन्हें पसीने के घी में सूरज की कढ़ाही में इस वर्ष तीज पर वह स्त्री ढ़ो रही है गारा, मिट्टी, ईंट घिस रही है एड़ियां सजा रही है जीवन की महावर अपने पैरो पर चमका रही है जीवन के आईने में अपना चेहरा इस वर्ष राखी पर वह स्त्री बांध रही है पेड़ को राखी नाप रही है संघर्ष की लम्बाई इस वर्ष दिवाली पर उस स्त्री का घर बह गया बाढ़ में बैठी है सड़क मुहाने पर कैसे जला पायेगी घर में दिया साल के अंत में वह स्त्री पूछ रही है माचिस का पता। अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का 6. अपने बाल बांध लो द्रोपदी ने जब पूछा था प्रश्न भरी सभा में जुए में हारे हुए व्यक्ति को मुझे दाव पर लगाने का क्या हक है ? तब पूरे सभागार में मौन पसर गया था ना तब कृष्ण ने उठाया था बीड़ा द्रोपदी की लाज बचाने का तो इसलिए ओ मेरी संघर्षरत बहनों देखो अभी हारना मत चाहे वो तुम्हें घसीटें चांटे मारे या कि मुक्के या धक्का ही दे दे कभी कभी बातों से घायल करें लेकिन अभी घुटनों के बल मत बैठना देखो अभी अभी खोंसी है मैनें जीवन की कुछ इच्छायें अपने ब्लाउज के भीतर बिलकुल अभी अभी अपनी पूरी न होती आंकाक्षाओं को चढ़ाया है मैनें पानी जैसे सूरज को चढ़ाते है जल बिलकुल अभी अभी पिया है मैनें तोहमत का जल कब तक कहेंगे हम उनसे ? हमें स्वीकार कर लो हमें स्वीकार कर लो कब तक आचमन करेगें बासी पड़े पूजा के फूलों का अब कोई कृष्ण नहीं आयेगा द्रोपदी, तुम्हें बचाने के लिए उठो, अपने बाल बांध लो अकेले जीने के लिए तैयार रहो क्यों कि वो तुम्हें अपने रंग में नहीं मिलायेगें तुम स्वयं अपनी धोती को इतना लम्बा कर लो कि किसी कृष्ण की जरूरत ही न पड़े। 7. गहरी नींद में सो सकूं यही तो है जीवन उसका वह फटे पुराने वस्त्र पहने छुपाता है शरीर निकलता है हर रोज काम पर सूखी रोटी खा कर हाथ में खुरपी हाथ में करणी या हाथ में रंग रोगन का डिब्बा और ब्रश लिए सारे दिन जुता रहता है एक बैल की तरह काम पर मैं देख देख कर उसके काम को हैरान हूं उसके श्रम पर यही तो है असली जीवन स्ंाघर्ष से भरा जाड़े की ठिठुरती रात में वह दो रोटी खा सो रहेगा खोड़ी खाट पर ही और गहरी नींद उसे ले लेगी जल्द ही अपने आगोश में और हमें मुलायम बिस्तर पर भी नींद नहीं आती पलक भी नहीं झपकती पता नहीं कैसा संघर्ष है ये हमारा अगले जन्म में हमें भी दिहाड़ी मजदूर बनाना जिससे गहरी नींद में तो सो सकूं। 8. नियत तोड़े है मैंने वजु करने को रखे पानी से मैंने धो ली हैं अपने दिल में धंसी कांच की किरचें और अपमान में जलती आंखें अजान की आवाज पर अब मैं सिर नहीं ढ़कता अब पांचों वक्त की नमाज का नियम भी तोड़ दिया है मैनें क्या मैं अब इंसान नहीं रहा या कि अभी इंसानियत नहीं छोड़ी है मैनें। 9. अनार के फूल सड़क से गुजरते हुए अपलक देख रही हूं निमार्णाधीन मकान के बाहर उन मजूर स्त्रियों के मुख पर श्रम के पसीने की बूदें झिलमिलाती हुई सतरंगी इन्द्रधनुष के रंग भी फीके हो गए थे उस वक्त जब मिटटी् भरा तसला उठाती हुई करती हैं बीच-बीच में एक दूसरे से चुहल, हंसी मज़ाक तब सारे फूलों के रंग उतर आए थे गालों पर उनके लगता था जैसे वे दुनिया की सबसे खूबसूरत औरतें हैं और अनार के फूलों सी हंसी दबा लेती हैं होठों में अपने। परिचयः- मनीषा जैन जन्म- … Read more

अंतस से -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें

                                   कवितायें वैसे भी भावनाओं के कुसुम ही हैं और जब स्वयं कुसुम जी लिखेंगी तो सहज ही अनुमान लागाया जा सकता है कि उनमें सुगंध कुछ अधिक ही होगी| मैं बात कर रही हूँ कुसुम पालीवाल जी के काव्य संग्रह “अंतस से “की | अभी हाल में हुए पुस्तक मेले में इसका लोकार्पण हुआ है | यह कुसुम जी का तीसरा काव्य संग्रह है जो ” वनिका पब्लिकेशन “से प्रकाशित हुआ है |मैंने कुसुम जी के प्रथम काव्य संग्रह अस्तित्व को भी पढ़ा है | अस्तित्व को समझने के बाद अपने अंतस तक की काव्य यात्रा में कुसुम जी का दृष्टिकोण और व्यापक , गहरा और व्यक्ति से समष्टि की और बढ़ा है | गहन संवेदन शीलता कवि के विकास का संकेत है | कई जगह अपनी बात कहते हुए भी  उन्होंने समूह की भावना को रखा है | यहाँ उनके ‘मैं ‘ में भी ‘हम ‘निहित है | ‘अंतस से’समीक्षा  -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें   यूँ तो संग्रह में 142 कवितायें हैं | उन पर चर्चा को सुगम करने के लिए मैं उन्हें कुछ खण्डों में बाँट कर   उनमें से कुछ चयनित रचनाओं को ले रही हूँ | आइये चलें  ‘अंतस से ‘ की काव्य यात्रा पर कविता पर …                  कवितायें मात्र भावनाओं के फूल नहीं हैं |ये विचारों को अंतस में समाहित कर लेना और उसका मंथन है | ये विचारों की विवेचना है , जहाँ तर्क हैं वितर्क  हैं और विचार विनिमय भी है |  इनका होना जरूरी भी है क्योंकि जड़ता मृत्यु की प्रतीक है | कविता जीवंतता है | पर इनका रास्ता आँखों की सीली गलियों से होकर गुज़रता है … देखिये –  अक्षर हूँ नहीं ठहरना चाहता रुक कर किसी एक जगह 2 … जहाँ विचार नहीं है वहां जड़ता है जहाँ जड़ता है वहाँ जीवन नहीं विचार ही जीवन है जीवन को उलझने दो प्रतिदिन संघर्षों से 3… कविता कोई गणित नहीं जो मोड़-तोड़ कर जोड़ी जाए गणित के अंकों का जोड़-गाँठ से है रिश्ता किन्तु कविता का गणित दिल से निकल कर आँखों  की भीगी और सीली गलियों से होकर गुज़रता है रिश्तों पर ….                     अच्छे रिश्ते हम सब के लिए जरूरी है क्योंकि ये हमें भावनात्मक संबल देते हैं | परन्तु आज के समय का सच ये है कि मकान  तो सुन्दर बनते जा रहे पर रिश्तों में तानव बढ़ता जा रहा है एकाकीपन बढ़ता जा रहा है | क्या जरूरी नहीं कि ह्म थोडा  ठहर कर उन रिश्तों को सहेजें – आजकल संगमरमरी मकानों में मुर्दा लाशें रहती हैं न बातें करती हैं न हँसती ही हैं उन्होंने बसा ली है दुनिया अपनी-अपनी एक सीमित दायरे में २…. ख्वाबों के पन्नों पर लिखे हुए थे जो बीते दिनों के अफ़साने आज दर्द से लिपटकर पड़पड़ाई हुई भूमि में वो क्यूँ तलाशते  रहते हैं दो बूंदों का समंदर 3 … सोंचती हूँ… जीवन की आपाधापी में ठिठुरते रिश्तों को उम्मीदों की सलाइयों से आँखों की भीगी पलकों पर ऊष्मा से भरे सपनों का एक झबला बुनकर मैं पहनाऊं नारी पर …                     नारी मन को नारी से बेहतर कौन जान सका है | जो पीड़ा जो बेचैनी एक नारी भोगती है उसे कुसुम जी ने बहुत सार्थक  तरीके से अपनी कलम से व्यक्त किया है |वहां अतीत की पीड़ा भी है , वर्तमान की जद्दोजहद भी और भविष्य के सुनहरी ख्वाब भी जिसे हर नारी रोज चुपके से सींचती है – दफ़न रहने दो यारों ! मुझे अपनी जिन्दा कब्र के नीचे बहुत सताई गयी हूँ मैं सदियों से यहाँ पर कभी दहेज़ को लेकर तो कभी उन अय्याशों द्वारा जिन्होंने बहन बेटी के फर्क को दाँव पर लगा बेंच खाया है दिनों दिन 2… तुम लाख छिपाने की कोशिश करो तुम्हारी मानसिकता का घेरा घूमकर आ ही जाता है आखिर में मेरे वजूद के कुछ हिस्सों के इर्द -गिर्द 3… तुम्हारी ख़ुशी अगर मेरे पल-पल मरने में और घुट -घुट जीने में विश्वास करती है तो ये शर्त मुझे मंजूर नहीं 4… चाँद तारों को रखकर अपनी जेब में सूरज की रोशिनी को जकड कर अपनी मुट्ठी में तितली के रंगों को समेट कर अपने आँचल में बैठ जाती हूँ हवा के उड़न खटोले पर तब बुनती हूँ मैं अपने सपनों के महल को 5 .. सतयुग हो या हो त्रेता द्वापर युग हो या हो आज सभी युगों में मैंने की हैं पास सभी परीक्षाएं अपनी तुम लेते गए और मैं देती गयी 6… छोटे – छोटे क़दमों से चलते हुए चढ़ना चाहती थी वो सपनों की कुछ चमकीली उन सीढ़ियों पर जिस जगह पहुँच कर सपने जवान हो जाते हैं और फिर … खत्म हो जाता है सपनों का आखिरी सफ़र 7 … मैं पूँछ ती हूँ इस समाज से क्या दोष था मेरी पाँच साल की बच्ची का लोग कह रहे हैं बाहर छोटे कपडे थे … रेप हो गया क्या दोष था उसका ! बस फ्रॉक ही तो पहनी थी पांच साल की बच्ची थी वो उम्र में भी कच्ची थी हाय …. कहाँ से ऐसी मैं साडी लाऊं जिसमें अपनी बच्ची के तन को छुपाऊं ! समाज के लिए ….                          किसी कवि के ह्रदय में समाज के लिए दर्द ही न हो , ऐसा तो संभव ही नहीं | चाहे वो आतंक वाद हो , देश के दलाल हो या भ्रस्टाचार हो सबके विरुद्ध कुसुम जी की कलम मुखरित हुई है | वो सहमी सी आँखें डरती है एक ख्वाब भी देखने से जो गिरफ्त में आ चुकी हैं संगीनों के साए में उनकी आँखों में भर दिए गए हैं कुछ बम और बारूद 2. ओ समाज के दलालों कुछ तो देश का सोंचो मत बेंचो अपनी माँ बहनों को इन्हीं पर तुम्हारी सभ्यता टिकी है और उइन्ही से तुम्हारी संस्कृति जुडी है 3. अंधेरों से कह दो चुप जाएँ कहीं जा कर कलम की धर … Read more

करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें

    डेज़ी नेहरा जी के काव्य संग्रह ” करवटें मौसम की ” जो की ” विश्वगाथा” प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ है,  की  कवितायें पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे कवियत्री के संवेदनशील मन में एक गंभीर चिंतन चल रहा है , जिसे वो कविता के माध्यम से आम पाठकों के लिए सरल से सरल शब्दों में कहना चाहती  है, परन्तु जब बात मन की हो तो इसके आयाम इतने विस्तृत होते हैं कि पाठक उस गहराई में बहुत देर तक घूमता रह जाता है, और प्रवेश करता है एक ऐसी सुरंग में जहाँ मानव मन की गुत्थियाँ खुलती चली जाती हैं | कम शब्दों गहरी बात कह देना डेजी जी की विशेषता है | उनके लघुकथा संग्रह ‘कटघरे’ में ये कला और उभर  कर आई है | दोनों ही पुस्तकों में मानव मन पर उनकी सूक्ष्म पकड़ दिखाई पड़ती है | हम आपके लिए  डेजी नेहरा जी के काव्य संग्रह ” करवटें मौसम की ” से कुछ लागु कवितायें लाये हैं | आप भी थोड़े शब्दों में गहरी बात का आनंद लीजिये | करवटें मौसम की – गहरी बात कहती कुछ लघु कवितायें  1)मौसम कुदरत ने  तो भेजा था हर मौसम हर एक के लिए फिर जाने…  बटोरने वालों ने किया जुर्म या मौसमों ने स्वयं ही किया पक्षपात किसी की झोली में झरे पतझड़ सारे किसी के हिस्से खिले वसंत ही वसंत 2 )पंख पंख आते -जाते रहते मेरी दुनिया में मौसमों के साथ यही भला है वर्ना … मैं भूल न जाता जमीं पे पैर रखना पढ़ें – कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद ३)जिंदगी उलझे रहे तो है जिंदगी वरना ‘सजा’है बस विश्वास है तो है ‘बंदगी’ वरना ‘खता ‘है बस उबर गए तो है ‘मुक्ति’ वरना ‘तपस्या’है बस 4)मुस्काने हमारी मुस्काने … पहले भी थी स्वत :ही बेवजह किशोरावस्था में मुस्काने…. अभी भी हैं कढ़ी-गढ़ी दमदार परिपक्वता में 5)हर साल सुना है करते हो आत्मावलोकन हर वर्ष के अंत में लेते हो नया प्रण हर बार , प्रारम्भ में , इन दो दिनों को छोड़ क्या करते हो सारा साल ? 6 )परिवर्तन वक्त बदलता है संग ‘सब’ नियम है, सुना है तुम बदलें रंग ‘सब’ फिर मैंने ही ये पड़ाव क्यूँ चुना है ? 7)आस  अब गम न हो कोई तुमसे लो!  छोड़ दी हर ख़ुशी की आस जो जुडी है तुम से 8)शुक्रिया सपनों की वादी से सच की छाती तक अमृत की हंडिया से विष की नदिया तक ले आये तुम तुम्हारा शुक्रिया !! कि … इंसान की हार से जीवन के सार से परिचय जो करवा दिया इतनी जल्दी 9)…मान लेती हूँ तुझमें साँसे मेरी  जानती हूँ मुझमें साँसे तेरी ‘मान’लेती हूँ कि … बनी रहूँ मैं बनाएं रखूँ तुझको 10)रंग इन्द्रधनुषी  रंगों से परे भी होते हैं कई रंग दिखा दिए सारे ही मुझको शुक्रिया जिन्दगी वरना काली-सफ़ेद भी कोई जिंदगी होती ? 11)श्रेष्ठ योनि जब सब होकर भी कुछ नहीं तुम्हारे पास अपनों से मिली बेरुखी जी करती हताश नाउम्मीद, अकेला और बदहवास  ‘मन ‘ ठोकर सी मारता है इस जीवन को जिसे कभी योनियों में श्रेष्ठ स्वयं माना था उसने यह भी पढ़ें … बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने काहे करो विलाप -गुदगुदाते पंचों और पंजाबी तडके का अनूठा संगम मुखरित संवेदनाएं -संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती एक स्त्री के स्वर अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का आपको  समीक्षा   “ करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                       

जोधा-अकबर और पद्ममावत क्यू है?

बता एै सिनेमा—————— आखिर तुम्हें हमारी इतिहास से, इतनी अदावत क्यू है? तेरे दामन मे———- जोधा-अकबर और पद्ममावत क्यू है? । सवाल है मेरा तुझसे, कि सिनेमा के वे सेंटीमेंटल सीन और अंतरंगता, कोई मनोरंजन नही, ये इतिहास की पद्ममिनी का, सीने से खिचा आँचल है, हद तो ये है कि, इतने टुच्चे सिनेमाकारो के साथ आखिर—- हमारे यहाँ की अदालत क्यू है? । ठीक है माना कि, पद्ममावत जायसी की है, लेकिन एक तरफ “लव माई बुरका” पे रोक, लगाने वाली अदालत बता, कि पद्ममावती हर सिनेमाघर मे लगे, आखिर ये तेरी——– दोमुँही इजाज़त क्यू है? । तेरे दामन मे——— जोधा-अकबर और पद्ममावत क्यू है? । @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। अभी-अभी पद्ममावत फिल्म पे आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पे मेरी भावाभिव्यक्ति,सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का संम्मान करता हूं।मेरी इस रचना का ध्येय किसी जाति विशेष को आहत करना नही है,अगर एैसा भूलवस होता भी है तो आप हमे अपना छोटा अनुज समझ क्षमा करे।–रंगनाथ द्विवेदी। फोटो क्रेडिट विकिमीडिया कॉमन्स यह भी पढ़ें ……… काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रंगनाथ द्विवेदी की कलम से नारी के भाव चित्र मुखरित संवेदनाएं आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “जोधा-अकबर और पद्ममावत क्यू है?..“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  डिस्क्लेमर -ये लेखक के निजी विचार हैं इनसे अटूटबंधन सम्पादकीय दल का सहमत होना जरूरी नहीं है |

वाणी-वंदना

                                         यूँ तो पतझड़ के बाद वसंत के आगमन पर जब वसुंधरा फिर से नव- श्रृंगार करती है तो सारा वातावरण ही  एक अनूठी शोभा से युक्त हो जाता है | ऋतुओं में श्रेष्ठ वसंत ऋतु  का सबसे उत्तम दिन है वसंत पंचमी |  वसंत पंचमी हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार माघ मास  के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि की मनाया जाता है |मान्यता है की वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती का प्राकट्य  हुआ था , जिन्होंने जीव -जंतुओं को वाणी प्रदान की | माता सरस्वती को ज्ञान विज्ञान, संगीत , कला और बुद्धि की देवी भी माना जाता है |माता के जन्म के उत्सव में उनके प्रति श्रद्धा व् आभार प्रगट करने के लिए वसंत पंचमी का उत्सव मनाया जाता है | आइये हम सब उनकी स्तुति करें |  माँ सरस्वती की वाणी-वंदना  जय वीणा – पाणि पुस्तक धारिणि जय श्वेत वसनि अक्षर कारणि जय ब्रम्ह -सुता , कवि – कुल मंडन जय – जय अज्ञान तिमिर भंजन जय प्रखर प्रज्ज्वलित ज्ञान – ज्योत साहित्य – सृजन प्रेरणा स्रोत जय हे शारदे कमल आसनि आध्यात्म – पुंज उर भ्रम नाशिनि इस आत्म – दीप मन – चन्दन से अर्चन वन्दन स्वीकार करो इस प्राण – पियाले में रक्खे कुछ भाव – पुष्प स्वीकार करो उषा अवस्थी  यह भी पढ़ें … स्वागत है ऋतू राज वाणी की देवी वीणा पानी और उनके श्री विग्रह का मूक सन्देश आत्मविश्वास बढ़ाना है तो पीला रंग अपनाइए निराश लोगों के लिए आशा की किरण ले कर आता है वसंत आपको  कविता  “.वाणी-वंदना .“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

बदलते हुए गाँव

गाँव यानि अपनी मिटटी , अपनी संस्कृति और अपनी जडें , परन्तु विकास की आंधी इन गाँवों को लीलती जा रही है | शहरीकरण की तेज रफ़्तार में गाँव बदल कर शहर होते जा रहे हैं | क्या सभ्यता के नक़्शे में गाँव  सिर्फ अतीत का हिस्सा बन कर रह जायेंगे |  हिंदी कविता – बदलते हुए गाँव  गाँव की चौपालें बदलने लगी हैं  राजनीती का जहर असर कर रहा है अब फसक हो रहे हैं सह और मात के तोड़ने और जोड़ने के सीमेंट के रास्तों से पट चुके है गाँव दूब सिकुड़ती जा रही है  टूटते जा रहे हैं  घर बनती जा रही हैं  दीवारें  हो रहा विकास बढ़ रही प्यास पैसों की सूखे की चपेट में हैं रिश्ते  अकाल है भावों का  बहुत बदल गया है गाँव शहर को देखकर  बाजार को घर ले आया है गाँव  खुद बिकने को तैयार बैठा है हर हाल में  हरी घास भी  खरीद लाये हैं  शहर वाले अब सन्नाटा है चौपालों में अब दहाड़ रही है राजनीति  घर घर चूल्हों में आग नहीं है  हाँ मुँह उगल रहे हैं आग सिक  रहा भोला भाला गाँव बाँट दिए हैं  छाँट दिए हैं मेलों में मिलना होता है  वोटों को बाँटने और काटने के लिए  छद्म वेशों में  घुस चुके हैं गाँव के हर घर में जन जन तक और मनों को कुत्सित कर चुकी है आज की कुत्सित राजनीती यों ही चलता रहा तो  मिट जायेगा गाँव और गाँव का वजूद  फिर ढूँढने जायेंगे किसी गाँव को शहर को गलियों में डॉ गिरीश प्रतीक पिथौरागढ़ उत्तराखंड                    यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.बदलते हुए गाँव.“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई

सुबह होते ही———– कपाल भाति और अनुलोम-विलोम कर गई, हाय!राम——— मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई। एलोवेरा और आँवले के गुण बता रही, मुझे तो अपने जवानी की चिंता सता रही, हे! बाबा रामदेव———- आपने मेरी खटिया खड़ी कर दी, सारे रोमांस का नशा काफुर हो गया, ससुरी पति के प्यार का आसन छोड़—– आपके योगासन मे पिल गई। हाय!राम———– मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई। रोज च्यवनप्राश और दूध का सेवन, पचासो दंड बैठक, मै निरुपाय तक रहा उसका रुप लावण्य, तीन दिन हो गये हाथ न लगी, डर है कि ये दिन कही तीस न हो जाये, उफ!ये दूरी———– यही सोच के मेरी बुद्धि हिल गई। हाय!राम———— मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें श्वेता मिश्र की पांच कवितायें नए साल पर पांच कवितायें – साल बदला है हम भी बदलें चुनमुन का पिटारा – बाल दिवस पर पांच कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.मुझे पत्नी पतंजलि की मिल गई“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

पतंग और गफुर चचा

एक ज़माने में पतंगों का खेल बच्चों के बीच बहुत लोकप्रिय होता था , साथ ही लोकप्रिय होते थे गफुर चचा , जो बच्चों के लिए एक से बढ़कर एक पतंगे बनाते थे| जो ऊँचे आसमानों में हवा से बातें करती थीं | मोबाईल युग में पतंग उड़ाने का खेल अतीत होता जा रहा है , साथ ही अतीत होते जा रहे हैं गफूर चचा | पुरानी स्मृतियों को खंगालती बेहतरीन कविता ….पतंग और गफुर चचा आज शिद्दत से मुझे याद आ रहे है, वे बरगद के पेड़ के नीचे, छोटी सी गुमटी में रंखे पतंग—– गफुर चचा। एक जमाना था——— जब नदी के इस पार और उस पार, दिन भर पेंचे लड़ा करती थी, तब अपनी पतंगो के लिये कितने थे—— मशहूर चचा। पर हाय री!शहरी संस्कृति, तुमने निगल डाले वे पुराने खेल, और छीन लिये कितनो के मुँह के निवाले, मै भूल नही पाता, तब कितने टूटे-टूटे दिखे थे——— गफुर चचा। फिर वे ज्यादा न जी सके, जिंदगी के उनके ड़ोर कट गई, फिर भी उनकी खुली आँखे, एकटक आसमान तक रही थी, और एैसा लग रहा था मुझे जैसे, कि ढूंढ रहे हो कोई अच्छी पतंग—– गफुर चचा। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर। यह भी पढ़ें ……….. काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें श्वेता मिश्र की पांच कवितायें नए साल पर पांच कवितायें – साल बदला है हम भी बदलें चुनमुन का पिटारा – बाल दिवस पर पांच कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.पतंग और गफुर चचा“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें