कविता -रेशमा

“रेशमा” महज़ एक लड़की नही बल्कि वे मुझ जैसे किसी शायर की मुहब्बत थी————— तेरे शहर में———– आज रात मै फिर गा रहा हूँ रेशमा। देख तुझसे किये अहद को——— मै कितनी शिद्दत से निभा रहा हूँ रेशमा। आज भी ये नज़र तलाश रही है, वे किनारे कि महबूब कुर्सी, जिसपे तुम बैठ कभी हमें सुना करती थी, तेरी खातिर अब तलक मै खुद को—– कितना तड़पा रहा हूँ रेशमा। मेरी गज़लो के हर्फ महज़ हर्फ नही, तेरे सहलाये भरे जख्म़ है, लेकिन फिर वे ताजे हो टिस रहे है, मान नही रहे न जाने क्यू आज़, जबकि इन्हें मै———– तेरी खातिर न जाने कितनी देर से मना रहा हूँ रेशमा। लोग कहते है कि मेरी गज़ल को वे सिरहाने रख के सोते है, शायद उन्हें पता नही, कि हम एक गज़ल को लिख फिर सारी रात रोते है, ये दिवान मेरे है लेकिन—————– इस दिवान की कबर पे तुम्ही छपी हो रेशमा। सच तुम हमारी मुहब्बत थी,मुहब्बत हो बेशक—– तुम्हारे शहर से मै जा रहा हूँ रेशमा। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर (उत्तर-प्रदेश)। आपको आपको  कविता   “ कविता -रेशमा“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

कितने जंगल काटे हमने, कितने वृक्ष गिराए हैं

कितने जंगल काटे हमनेकितने वृक्ष गिराए हैंनीड़ बिना बेघर पंक्षीमौसम ने मार गिराए हैंकितने—चारों ओर कोलाहल भारीजहर घुल गया सांसों मेंउन्नति के सोपानों पर चढ़अवनति द्वार बनाए हैंकितने—जल स्रोतों को सुखा मिटा कर हमने महल बनाए हैंधधक रही अवनी की छातीरेगिस्तान बुलाए हैंकितने—जिन पवित्र नदियों पर गर्वितसदा रहे इतराते हमउनके ही निर्मल जल मेंमल का अम्बार लगाए हैंकितने—लाज नहीं आती हमको निर्लज्जों की श्रेणी में हमबात शान्ति की करते , लेकिनएटम बम गिराए हैंकितने–होगा क्या भविष्य अब अपना प्रज्ञा बेंच , गवाएं हैंरजस्वला हो रही धरा केअनगिन गर्भ गिराए हैंकितने–‘–विविधायुध घनघोर गरजतेदेशों की सीमाओं परपंचमहाभूतों पर अब तो हमने दांव लगाए हैंकितने—” उषा अवस्थी आपको आपको  कविता  “कितने जंगल काटे हमने, कितने वृक्ष गिराए हैं“ कैसी लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

चुनमुन का पिटारा – पांच बाल कवितायें

आज हम ले कर आये हैं बच्चों के लिए पांच बाल् कवितायें , तो खोलिए चुनमुन का पिटारा और लीजिये आनंद बाल कविताओं का  छुकछुक रेल छुकछुक- छुकछुक चलती रेल मुसाफिरों की रेलमपेल इंजन-पटरी-डिब्बों का अदभुत और अनोखा मेल पहले कोयला खाती थी फिर डीजल पी जाती थी जब बिजली की बारी आई हवा से होड़ लगती थी सुविधाजनक सवारी है नहीं जेब पर भारी है गाँव शहर या हो बस्ती इसकी हद में सारी हैं स्वच्छता का रखना ध्यान कम सामान-सफर आसान रेल हमारी अपनी है इसको ना पहुँचे नुकसान नियमों का पालन करना सफर टिकट लेकर करना बिना टिकट को जेल या जुर्माना पड़ता भरना इंजी. आशा शर्मा बीकानेर शेर-सियार शेर-सियार ने सावन में झूला एक लगाया बीस-बीस बार झूलेंगे ऐसा नियम बनाया एकदिन दोनों दोस्तों में होने लगा जब झगड़ा आकर उनसे पूछी लोमड़ी क्या है भाई लफड़ा बोला शेर, बहन ! इस पर क्यों न आयेगा खीस खुद बीस को दस कहता मेरे दस झूले को बीस नहीं बहन झूठे शेर को गिनना भी न आता है खुद ज्याद झूलता है मुझे पंजे से डराता है अकल लगाओ गिनती सिखो शेर तेरा है गलत धंधा लोमड़ी पर शेर झपटकर बोला यहाँ अकल नहीं चलता है पंजा जान बचाकर भागी लोमड़ी रास्ते में मिला एक पेड़ उसके मोटे तने में था एक बहुत बड़ा सा छेद तना छेद से भागी लोमड़ी शेर को दे डाली झटका शेर पीछे से जब लपका मोटा शरीर उसी में अँटका हँसती हुई बोली लोमड़ी कहाँ गया अब तेरा बल अकल लगाकर नकल भी करना यहाँ पंजा नही चलती है अकल -दीपिका कुमारी दीप्ति बरखा रानी  बरसो बरसो बरखा रानी तुम पर आज आई जवानी। घुटनों तक जल भरा हुआ है वेनिस मेरा शहर हुआ है रुकी हुई हैं बस और कारें नावों पर चलती राजधानी बरसो बरसो बरखा रानी। छुट्टी हम बच्चों ने पायी धमा चौकड़ी मौज मनाई गरम पकोड़े तलती मम्मी ये सब है तेरी मेहरबानी बरसो बरसो बरखा रानी। जूते चप्पल हाथ चढ़ा लो धोती अपनी जरा उठालो गिर जाओगे वर्ना रपटकर बाबू होगी बड़ी परेशानी बरसो बरसो बरखा रानी। बरसो आज जम कर बरसो पर  तुम  बिलकुल मत कड़को बूढ़े दादाजी को डर  लगता है नहीं सुनाते फिर वो कहानी बरसो बरसो बरखा रानी। मम्मी कहती रुक भी जाओ धूप जरा तुम निकल भी आओ गीले कपडे कहाँ सुखाऊँ कील – डोरी कहाँ लगाऊँ पर तुमने कब मम्मी की मानी बरसो बरसो बरखा रानी। वंदना बाजपेयी  जाड़ा  मम्मी मुझे स्कूल न भेजो  बाहर कितना जाड़ा है  किट – किट करते दांत यूँ मेरे  जैसे बजे नगाड़ा है  सूरज भी देखो  कितनी देर से घर से निकलता है  चंदा भी रात में  ठिठुर ठुठुर कर चलता है  मौसम की इस मार ने देखो  हाल सभी का बिगाड़ा है  छोटे दिन है रात बड़ी  जल्दी जल्दी भागे घड़ी  मैडम जी ने नहीं करी है  होमवर्क में कोई कमी  हम बच्चों के टाइम टेबल का  इसने किया कबाड़ा है  सरबानी  सेनगुप्ता  गाए हर बच्चा गीत ख़ुशी के गाए हर बच्चा गीत ख़ुशी के ऐसा जतन करें  साँस ले सकें स्वच्छ हवा में  ऐसा जतन करें  कैसी थाती सौंपेंगे हम इनको  सोचा कुछ हमने? अपने मैं को पोषित करने में ही  सब खोया हमने  क्या करते, क्या करना चाहते ये  पूछो ज़रा कभी संग बैठ कर जानो इनके मन की  थोड़ा समय अभी  कैसा देश, शहर, परिवेश, संस्कार  आँगन इन्हें मिलना  कैसा हो रूप विचारें सब मिलकर  जहाँ इन्हें खिलना  हर बच्चा पाए भोजन भरपेट और पढ़े-लिखे-मुस्काये तभी सार्थक बालदिवस, हर ओर  ज़िंदगी नाचे-गाए। ————————————— डा०भारती वर्मा बौड़ाई आपको आपको   “चुनमुन का पिटारा – पांच   बाल कवितायें  “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   

बाल दिवस है

चाय की दुकान पे———- सुट-बूट वाले साहब के, अधरो पे सुलगते सिगरेट का कश है, उस फैले धुँऐ में तेरह साल का बच्चा, जूठे कप-प्लेट उठाता है, जरा सा उसके मैले हाथो का श्पर्श और माँ की गाली! मासूम गालो पर—— बाल पकड़कर चंद चाटे, देख रोटी——- इतनी कम उम्र में इस बच्चे की भूख, तेरी खातिर कितना विवश है! इस मासूम को——— अपनी पिड़ाओ की दुनिया से बाहर, ये भी पता नही कि——— कल तमाम देश के बच्चो के चाचा नेहरु का जन्मदिन, यानी की बाल दिवस है। रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी।

मैं नन्हीं – सी

मैं नन्हीं – सी प्यार की मूरत हूँ |मैं भविष्य की छिपी हुई सूरत हूँ || मेरे मुस्कराने से कलियां खिलतीं |मेरे चहचहाने से चिढियां उढ़तीं ||मैं गाऊं तो भँवरे गाएँ मीठे गान |मुझको तनिक नहीं कोरा अभिमान || मैं नन्हीं – सी प्यार की मूरत हूँ |मैं भविष्य की छिपी हुई सूरत हूँ || मातु – पिता का मुझपर उपकार |मैं हूँ ईश्वर का प्यारा-न्यारा उपहार || मैं कोमल हूँ, सुंदर फूलों के जैसी |ये गंदी नजर हटालो, कांटों जैसी || मैं नन्हीं – सी प्यार की मूरत हूँ |मैं भविष्य की छिपी हुई सूरत हूँ || मुझे बचाया और पढ़ाया – लिखाया |मैंने इन्द्रा, किरण – सा नाम कमाया ||भारतवर्ष की बेटी हूँ, लक्ष्मी मर्दानी |इतिहास के पन्ने-पन्ने पे लिखी कहानी || मैं नन्हीं – सी प्यार की मूरत हूँ |मैं भविष्य की छिपी हुई सूरत हूँ || मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 

अन्तरा करवड़े की पाँच कवितायेँ

काव्य जगत में प्रस्तुत हैं अन्तरा  करवड़े की पाँच कवितायें | जिनमें कुछ में लयात्मकता है तो कुछ गद्य की हद तक जा कर अपनी बात कहने की कोशिश करती है | ये एक नयी शैली है पर इसमें भावों की लय  कहीं टूटती नहीं है |  1 झूला झूले पर बैठा नन्हा मन जिसे मीठी यादों के दादा धकियाते हैं                 लेता है पींगे कल के लिए फिर कल के ही समीकरण उलझाते हैं बचपन से आगे का पेन्डुलम सम्हल नही पाता फिर यह आना जाना थमता जाता है झोंकों का सिलसिला सच्चाई में पींगों का गढ्ढों में तब्दील हो जाना मन बडा होकर झूलता नही है लेकिन स्थिर होकर भी झोंकों को भूलता नही है झूले की पींगों से नाता जोडता है खुद की याद को धकियाता दादा बनकर झूले में खुद को ही झुलाता जाता है फिर नन्हा सा मन हो जाता है 2 हो जाओ तुम पत्थर……… हो जाओ तुम पत्थर मै तुम पर फूल फूल गिरता जाऊंगा तुम्हे कद ऊंचा इतना दूंगा कि तुम्हारी नीची आंखे पा जाऊंगा मिले तुम्हे धन मान सम्मान मै भरपेट तुम्हे खिलाया करूंगा दुनिया में तुम बडे. खड़े हो तुममे तुमको ही सुलाया करूंगा होंगी जो आंखे सबकी तुमपर मै सबपर आंखे अपनी रखूंगा बहते गिरते पड़ते तुमको हंस कौवे का ज्ञान भी दूंगा गाओगे जब विजय गान तुम थोड़ा जल धर जाया करूंगा तुम मुझको कोसो फिर जी भर मै ही तुम्हे याद आया करूंगा हो जाओ तुम पत्थर मै तुम पर फूल फूल गिरता जाऊंगा तुम्हे कद ऊंचा इतना दूंगा कि तुम्हारी नीची आंखे पा जाऊंगा स्वप्न सजाओ तुम माया के मैं प्रेम की छाया करता रहूंगा तुम ऊंचे बस बढ़ते जाना मैं सीढ़ी बन बिछता जाऊंगा चढ़ते सूरज से तेजस तुम मैं जल बन ताप सहता जाऊंगा ढ़लते दिन से थके हारे तुम मैं सिर पर हाथ फिराया करूंगा खुद से चाहो दूर तुम होना मैं मन की डोर बंधाता रहूंगा रिश्तों में सीलन जो आए मैं ही तपिश दे मिटाता रहूंगा हो जाओ तुम पत्थर मै तुम पर फूल फूल गिरता जाऊंगा तुम्हे कद ऊंचा इतना दूंगा कि तुम्हारी नीची आंखे पा जाऊंगा दुनिया की तहज़ीब अजब है तुम्हे गिरने से बचाता रहूंगा होंगे जब दुश्मन वो तुम्हारे मैं प्रेम प्रस्ताव देता रहूंगा तरूणाई के सुंदर स्वप्न तुम मै शरीर नही मन को तकूंगा ढ़लती धूप के साथ तुम्हारे तन को सहारा दिये चलूंगा भटको रेगिस्तानों में तुम मैं दहलीज़ें याद दिलाया करूंगा शर्मसार घर से जब हो तुम बिरह गीत गा बुलाता रहूंगा हो जाओ तुम पत्थर मै तुम पर फूल फूल गिरता जाऊंगा तुम्हे कद ऊंचा इतना दूंगा कि तुम्हारी नीची आंखे पा जाऊंगा आंसू तुम्हारे खारे होंगे समुंदर मै बन जाया करूंगा तुम जो जीवन से रूठे तो कठिनाई मै जी जाया करूंगा हो जाओ जब लक्ष्यहीन तुम लक्ष्य बन तीर झेला करूंगा मौत बुलाए तुम्हे जो कभी तान के छाती खड़ा रहूंगा तुम मुझे अपना भर कह दो मै खुद को भुला बस तुम्हारा रहूंगा हिल जाने दो नीवें फिर ये पत्थर मै बन जाया करूंगा हो जाओ तुम पत्थर मै तुम पर फूल फूल गिरता जाऊंगा तुम्हे कद ऊंचा इतना दूंगा कि तुम्हारी नीची आंखे पा जाऊंगा 3 जब वसीयत विरासत हो जाती है रिश्तों के पौधों पर पनपते सिक्के अचानक खनकने लगते हैं लकडी से छडी पर पदोन्नति के साथ मुखौटे ढाई इंच में सजते हैं किसे मेला दिखाया और कंधे पर बैठाया की यादे जोर मारने लगती है रिश्तों के नवीनीकरण की योजना भी तब असर दिखाने लगती है कब? जब वसीयत विरासत हो जाती है घर की एक एक ईंट शरीर की हड्डी सी प्यारी बन जाती है कोने कोने से अधिकारों की अमरबेल उग आया करती है आपकी सांसों की सलाईयों से सपनो की इबारते बुनी जाती है वर्तमान की कडाही से निकली यादों की खुरचने तब खाई जाती है कब? जब वसीयत विरासत हो जाती है राखी भाईदूज पर उपहारों का स्तर ऊंचा हो जाता है गांव के खेत का छोड का दाना भी मोती मोती लगता है कभी खण्डहर रही पुरानी तांबे की कोठी भी इमली पा जाती है किटी जाति बहूरानी को भी गांव की नाईन तब याद आ जाती है कब? जब वसीयत विरासत हो जाती है पुरखों के इतिहास की गर्द सम्मान से झाडी जाती है फिर बडों का मन रखने को छत पर मुंगौडी भी तोडी जाती है बच्चों के नाक और आंखें किसी पूर्वज से मिलाई जाती है और बेढब ही सही चौखट पर रंगोली की लकीर भी तब खिंच जाती है कब? जब वसीयत विरासत हो जाती है टूटा चश्मा सुनहरी फ्रेम बन आंखों पर इतराता है और बुजुर्गों के कागज सम्हालने को वक्त भी अब मिल जाता है कमर झुकाकर बच्चो को मम्मी आदर मान करना सिखलाती है और अटाले में पडी सासूजी की फोटो फ्रेम तब सुहागन हो जाती है कब? जब वसीयत विरासत हो जाती है लेकिन चमकती हैं दो आंखें सुनहरी फ्रेम के पीछे से अनुभव कहता है कि खरपतवार ही उगती है बिना किसी के सींचे से ये बहता प्रेम नदिया तो नही, बरसाती नाले की ही प्रजाति है और राजहंस बन बुजुर्ग की नज़रें, जो करना है कर जाती है कब? जब वसीयत विरासत हो जाती है 4 हम क्या हैं                                                  क्या ऎसा नही लगता कि हम सभी के भीतर एक सुकरात जिंदा है कभी ना कभी तो जहर का प्याला हम भी पीते हैं, हंसते हंसते फिर कभी हमारी भी तो बदसूरती दिखाई देती है आईने को और हम भी अपनी ही सोच की जेल में बंद रहते हैं, थोडे अधार्मिक होकर इससे आगे चलें तो हममें कभी वॉल्डेन के थोरो जिंदा दिखाई देते हैं लौट पडते हैं हम भी उन्ही की मानिंद भगवदगीता की ओर आध्यात्मिकता को ओढते हैं, भौतिकता को बिछाते हैं, धर्म जीने लगते हैं फिर अचानक स्वाद बदलने को, मिट्टी माथे से लगाने झुकते हैं यात्रा जारी रखेंगे तो कोई पगलाया सा निमाई भी मिलेगा हममें हां हां, चैतन्य महाप्रभु, सत्य के स्पर्श से आल्हादित, प्रमुदित निमाई लेकिन हमारे पगलाएपन में भी ध्यानाकर्षण का चैतन्य होता है  तभी कोई हमें नही कहता कि “काश सभी हमारे समान पागल हो सकते” मन के शांत ताल में कभी राबिया होती है तो जुन्नैद … Read more

अच्छा नहीं लगता

रोज़ ही सामने होता है कुरुक्षेत्र, रोज़ ही मन मे होता है घमासान, रोज़ ही कलम लिख जाती है, कुछ और झूठ, दबाकर सत्य को, होता है कोई अत्याचार का शिकार, अच्छा नही लगता—– रोज ही दबा दिए जाते हैं, गरीब के हक, जो सच होता है,  उठती है, उसी पर उंगली, उसी पर शक, अच्छा नही लगता—- सच पता है पर, सच को नकारना भी है एक कौशल, और इसमें पारंगत हो चुकी हूं मैं, भावुकता पर विजय पा, एक झूठ को जिये जा रही हूँ मैं, किसी फूले गुब्बारे में, पिन नही चुभाती मैं, किसी पिचके हुए को ही, पिचकाती जा रही हूँ मैं अच्छा नही लगता—– जानती हूँ, मैं नही करूंगी, फरियाद ऊपर तक जाएगी, धनशक्ति वहां भी जीत ही जाएगी, सो, अनचाहा किये जा रही हूँ। व्यवस्था में ढलना आसान न था, पर व्यवस्था के विपरीत, और भी कठिन, सो भेड़चाल चले जा रही हूँ मैं अच्छा नही लगता——- देख कर बढ़ती परिवार की जरूरतें, मानवीयता को मार, रिश्तों के मोह से उबर, रोज ही खून किये जा रही हूँ मैं अच्छा नही लगता—– पर जिये जा रही हूँ मैं—        रश्मि सिन्हा

बेगुनाह कर्ण

कर्ण और कुंती दो पात्रो पर लिखी ये महज़ कविता नही अपितु बेगुनाह कर्ण के वे आँसू है जो बिना किसी अपराध के आज भी आँख से अपनी कुंती जैसी माँ से अपना अपराध जानना चाहता है? पढ़िए बेहद मार्मिक कविता “बेगुनाह कर्ण “ आज भी विवाह पूर्व जने बच्चे को——- कुंती कचरे मे फेक रही है! नियति का पहिया घुम रहा है, कचरे का कर्ण——– फिर बेइज़्ज़त और अपमानित होगा, अपने दंम्भ और जाती का आँचल बचाने की खातिर, आज की कुंती भी——— कहाँ झेप रही है। अट्टहास कर रहा कहकहे लगा रहा अमीरो का महल, तमाम घिनौने कृत्यो को समेटे, लेकिन मौन है? कर्ण के उस कचरे के डिब्बे के रुदन से, नही पिघल रही कुंती, क्योंकि आज की कामांध कुंती के, कामातुर मसले स्तन, किसी कर्ण के होंठ से नही लगेंगे, क्योंकि इस धरती पे हर कर्ण, एक गाली था,गाली है और गाली रहेगा! वे देखो घने अँधेरे मे चली आ रही फिर कोई कुंती, कचरे के डिब्बे में फेकने—– एक बेगुनाह कर्ण। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर।

ठुमरी को उदास छोड़े जा रही

रंगनाथ दुबे जी की ये कविता प्रसिद्ध ठुमरी गायिका गिरिजा देवी को भावभीनी श्रद्धांजलि है | विगत २४ अक्टूबर को कोलकाता के बिडला अस्पताल में दिल का दौड़ा पड़ने से उनका निधन हो गया | भारतीय शास्त्रीय संगीत के ठुमरी गायन को विश्व प्रसिद्ध करने वाली गिरिजा देवी जी का जन्म ८ मई सन १९२९ में बनारस में हुआ था | वो बनारस घराने की ही गायिका थी | हालांकि संगीत की शुरूआती शिखा उन्होंने अपने पिता से ही ली थी | शुरुआत में गायन के लिए परिवार का कड़ा विरोध सहन करने वाली गिरिजा देवी गायन में डूबती ही चली गयीं | ठुमरी के अलावा उन्होंने होली चैती , कजरी व् ठप्पा भी गाये | उन्हें १९७२मे पदमश्री १९८९ में पदम् भूषण व् २०१६ में पदम् विभूषण से भी सम्मानित किया गया |  ठुमरी समाज्ञ्री गिरजा देवी को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि मै तो बस अपनी ये साँस तोड़े जा रही——— एै बनारस मै फिर आऊँगी तेरी घाटो पे लौट रियाज़ करने, मै इसलिये————— एक आखिरी ठुमरी छोड़े जा रही। अनगिनत साज़-आवाज़ की महफिले, और दिवान मे गिरजा का जिक्र होगा——- मै अपनी गायकी का एक रंग छोड़े जा रही। ना रो मुझे जाने दे एै मेरी सदके मोहब्बत, तु तो मेरे बचपन की सहेली है, वे देख कब से खड़ी है ले जाने को आज़, जाने दे ना रोक सहेली, देख तेरे नाते वे फरिश्त़े औरत भी गमज़दा है, उसे भी पता है कि वे गिरज़ा की साँस के साथ—— हमेशा के लिये ठुमरी को उदास छोड़े जा रही। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। फोटो क्रेडिट –विकिमीडिया कॉमन्स

शिवोहम – उषा अवस्थी की कवितायें

प्रस्तुत हैं उषा अवस्थी जी की दो कवितायें शिवोहम व् चाँदनी  कितनी सुहानी चाँदनी  शिवोहम ब्रम्हांड बने जब तन कोई कैलाश बने कोई मन उस मन परवत पर विचरण करते  गौरि शंभु हरदम मन रत्नाकर विस्तृत अगाध प्रज्ञा मंदर और रज्जु श्वास से करे कोई मंथन उसके सब कलुष हलाहल पीते नीलकंठ हरदम कर कुसुम- चाप, अभिमान भरे जब मदन बाण पर धार धरे करता समाधि भंजन तब ही कामारि त्रिलोकनाथ खोलें तिनेत्र हरदम जिसका तन काशी मन गंगा उस पुण्य सलिला भागीरथी में करता कोई अवगाहन भव- बंध काट आनंद धाम भेजें प्रभु हर हरदम 2- चाँदनी, कितनी सुहानी- चाँदनी चाँदनी, कितनी सुहानी, चाँदनी ज्यों उड़ेले मधु- कलश  कोई सजीली कामिनी,। चाँदनी, कितनी सुहानी, चाँदनी डाली- डाली फूल- फूल पर नर्तन करती धूल- धूल पर विहंस- विहंस मुकुलित विटपों पर है बिखेरे रागिनी चाँदनी, कितनी सुहानी, चाँदनी डाल किरण- माला धरती पर अम्बर करता प्रणय- निवेदन अन्तर में अनुराग समेटे भू लजीली भामिनी चाँदनी, कितनी सुहानी, चाँदनी चन्द्र- रश्मियों की डोरी से बाँध रहा अलकावलियाँ नभ बिखर गईं मधुजा- मुख पर जो बन हठीली यामिनी चाँदनी, कितनी सुहानी, चाँदनी लेखिका परिचय नाम-उषा अवस्थी शिक्षा- एम ए मनोविज्ञान  सम्प्रति- 1- समिति सदस्य ‘अभिव्यक्ति’ साहित्यिक संस्था, लखनऊ 2- सदस्य ‘भारतीय लेखिका परिषद’, लखनऊ प्रकाशित रचनाएँ- ‘अभिव्यक्ति’ के कथा संग्रहों, भारतीय लेखिका परिषद’ की पत्रिका ‘अपूर्वा’, दैनिक पत्रों ‘दैनिक जागरण’ व ‘राष्ट्रबोध’, साप्ताहिक पत्र ‘विश्वविधायक’ एवं विविध पत्रिकाओं यथा ‘भावना संदेश’, ‘नामान्तर’ आदि में रचनाएँ प्रकाशित विशेष-1- आकाशवाणी लखनऊ द्वारा समय समय पर कविताओं का प्रसारण 2- राष्ट्रीय पुस्तक मेले के कवियत्री सम्मेलन की अध्यक्षता 3- कुछ वर्षों का शैक्षणिक अनुभव 4- संगीत प्रभाकर एवं संगीत विशारद