रश्मि सिन्हा जी की कविताओं में वसंत की बहार से ताजगी है तो गर्मी की धूप सा तीखापन भी |यही बात उनके काव्य संसार को अलहदा बनाती है | आप भी पढ़ें रश्मि सिन्हा जी की 5 कवितायें … धोबी घाट यहां हर आदमी है, पैदायशी धोबी, थोड़ा बड़ा हुआ नही कि धोने लगा, कभी बीच चौराहों पर धो रहा है, कभी बंद कमरों में, वो देखिए, फिल्मकारों ने बनाई फ़िल्म, आलोचकों का समूह धो रहा है, लेखकों ने लिखी कहानी, कविता, लेख, पाठक धो रहा है, “मातहत” को बॉस धो रहा है, गोया कि, सब लगे हैं धुलाई में, वो देखिए सरकारी विभाग का नज़ारा, ऊपर से नीचे तक, धुलाई चल रही है, साल भर की मेहनत को, वार्षिक सी.आर में धो डाला, और ये धुलने वाले लोग, निसंदेह कान में तेल डाले बैठे हैं अपनी ‘बारी’ का इंतज़ार करते, एक दिन तो आएगा ‘गुरु’, ऐसा धोबी पाट देंगे कि, धुल रहे होंगे तुम, और हम मज़े लेंगे। २….अजीब मेरी नज़र में, हर “लड़का “हो या “लड़की”, अजीब ही होता है, गरीब तो और भी अजीब, मंजूर है उसे कचरा बीनना, गोद मे बच्चा टांग भीख मांगना, पर ईश्वर के दिये दो हाथों का, इस्तेमाल “पेट” भरने को, उसे नही मंजूर, क्योंकि काम करने के लिए, चाहिए “धन”, जो उसके पास नही होता, पर “भीख” मांग धन एकत्र करनेवाला, “दिमाग” होता है। और “अमीर”,वो तो और भी, अजीब होता है। और, और कि लालसा, पहुंचा देती है, “एक के साथ एक फ्री” के द्वार और, गैर जरूरी चीजें खरीदता अमीर, सचमुच इंसान अजीब होता है। ३ ….शापित अहिल्या क्या तुम सुन रहे हो, में हूँ शापित अहिल्या, और शापित ही रह जाऊंगी, पर किसी की चरण-रज से शाप मुक्त नही कहाऊंगी। मुझे करना है शाप मुक्त, तो कर दो श्रापित उस गौतम ऋषि को, जिसके शक, और श्राप ने, मजबूर किया, शिलाखंड बनने पर, चरण रज से में कभी श्राप मुक्त नही होना चाहूंगी, हाँ , प्रेम से उर लगाओगे उद्गार स्वरूप, नेत्रों में, जल भी ले आओगे, उसी क्षण में होऊँगी श्राप मुक्त, नही चाहिए मुझे, नाखुदा रूप में कोई पांडव, द्यूत क्रीड़ा में मुझे हारते, और न ही किसी राम की कामना मुझे, जो मेरी खातिर, किसी रावण का सर कलम कर जाए, पर अगले ही पल, किसी रजक के कहने पर, मेरा भविष्य, धरती में समाए, में तो हूँ, गार्गी और अपाला, जो बार बार चुनौती बन सामने आऊँगी, और देवकी की वो कन्या संतानः, जो कंस के द्वारा चट्टान पर पटकने पर भी, हवा में उड़ जाऊंगी, और तुम्हे श्रापित कर, तुम्हारा ही संहार करने वाले का, पता तुम्हे बताऊंगी। ४….और कितनी आज़ादी आजादी ही आजादी, 1947 से अब तक, पाया ही क्या है हमने,सिर्फ आज़ादी, आज़ादी अपने संविधान की, संविधान में संशोधन इस हद तक, कि तैयार होते एक नए संविधान की आज़ादी, नेता चुनने की आज़ादी, नेता को कुछ भी बोल देने की आज़ादी, आरोप, प्रत्यारोप की आज़ादी, जो अपने जैसे विचार व्यक्त न करे, उसे बेशर्म,दिमागविहीन कह देने की आज़ादी, अधिकारी को कुर्सी से खींच, पिटाई कर देने की आज़ादी, रोज ट्रैफिक रोक, जुलूस की आज़ादी, यूनियनबाजी की आज़ादी, कितनी आज़ादी—-? सूचना के अधिकार के तहत, हर जानकारी की आज़ादी, आज़ादी अपराध की, बलात्कार की— पीने पिलाने की आज़ादी, न्याय पालिका की आज़ादी, उफ! आज़ादी ही आज़ादी— गोया कि, जनता से ठसाठस भरा ये देश, हो गया है एक, बड़ा कड़ाह/पतीला, जिसमे उबाल रहे हैं तेजाब सम, विचार ही विचार, और उबल-उबल कर, व्यक्त होते ही जा रहे हैं, फैल रहा है ये तेजाब, समाज को दूषित करता हुआ, आज़ादी की वार्षिकी मुबारक। ५ ….आतंकवाद कितनी माँओं की करुण पुकार, कितनी पत्नियों के करुण क्रंदन, छाती को फाड़ कर निकली, कितनी ही बहनों की” हूक” निरंतर करती चीत्कार, ” सुकमा” ,कुपवाड़ा” या किसी भी नक्सली हिंसा का शिकार, मासूम, सिर्फ शक्ति होने के कारण, गंवाता जान,रक्षा के नाम पर,? सैनिक, बलिदानी, शहीद की उपाधि पाता, न्याय को तरसे बार-बार, कहाँ हो हे कृष्ण!! कितने ही विषधर “कालिया” मर्दन को तैयार, हे शिव! किस बात की है प्रतीक्षा? खोलो न, अपना तीसरा नेत्र एक बार, या, क्या ये फरियादें भी, यूं ही जाएंगी बेकार, या, माँ काली, दुर्गा बन, फिर से नारियों को ही, उठाने पड़ेंगे हथियार???