बाॅलीवुड—-एक बेवा बिखराव है

बाॅलीवुड———- नरगिस और राज कपुर का अलगाव है, गुरुदत्त की ख़ुदकुशी है, तो घुट-घुट के दुनिया से विदा हुई—— मीना कुमारी के सीने का घाव है। बाॅलीवुड———- आँसू और ड्रामा है नही, ये उस काका के आनंद का किरदार है, जो बाबु मोशाय के बाद——– एक तन्हा कोठरी में तड़पता और घुटता, एक शराबी——— की पिड़ाओ का गैंग्रीनी पाँव है। बाॅलीवुड———- वे परवीन बाॅबी है जिसे कई महेश भट्ट ने चाहा जरुर, पर तन्हा छोड़ दिया! वे डिप्रेस्ड बंद कमरे में छ दिनो तलक, मरी पड़ी रही बीना किसी वारिस के, सच तो ये है कि बाॅलीवुड——- एक औरत की अधुरी ख्वा़हिशो का, वही परवीन बाॅबी वाली सडी लाश की तरह, अपने बिस्तर पर पड़ी———- एक बेवा बिखराव है। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर

एक भावान्जलि -भाई के नाम

एक थी , छोटी सी अल्हड़  मासूम बहना। …  छोड़ आई अपना बचपन ,तेरे अँगना , बारिश की बूंदो सी  पावन स्मृतियाँ ,  नादाँ आँखे उसकी  उन्मुक्त  भोली हँसी, …. क्या भैया !   तुमने उसे देखा है कही ,………… ! छोटी सी फ्राक की छोटी सी जेब में , पांच पैसे की टाफी की छीना -छपटी  में , मुँह फूलती उसकी ,शैतानी हरकते  स्लेट के  अ आ  के  बीच ,मीठी शरारते  क्या ?… तुम उसे याद करते हो कभी ,…. ! दिनभर, अपनी कानी गुड़िया संग खेलती , माँ की गोद  में पालथी मारे बैठती , ,जहा दो चोटियों संग माँ गूंथती , हिदायतों भरी दुनियादारी की बातें , बोलो भैया ,!वो मंजर भूल तो नहीं जाओगे कभी.… ,! आज तेरे उसी घर – आँगन में, ठहर जाये ,वैसी ही मुस्कानों की कतारे , हंसी -ठहाकों की लम्बी महफिले , हम भाई–बहनो के यादो से भींगी बातें , और ख़त्म ना हो खुशियो की ये सौगाते कभी भी,…  ! राखी के सतरंगे धागो में गूँथे हुए अरमान , तुमने दिए ,मेरे सपनो को अनोखे रंग , और ख्वाईशों को दिए सुनहरे पंख , और अब सफेद होते बालो के संग , स्नेह की रंगत कम न होने देना कभी.… ! माथे पर तिलक सजाकर ,नेह डोर बांधकर, भैया मेरे ,राखी के बंधन को निभाना , छोटी बहन को ना भुलाना , इस बिसरे गीत के संग , अपनी आँखे नम न करना कभी   …. !  आँखों में , मीठी यादो में बसाये रखना, इस पगली बहना का पगला सा प्यार  , यही याद दिलाने आता है एक दिन , बूंदो से भींगा यह प्यारा  त्यौहार, बस ,भैया तुम मुझे भूला ना देना, कभी। ….  ”’ ई. अर्चना नायडू  जबलपुर 

दीपवाली पर कविताओं के 7 दीप

                                                 दीपावली अँधेरे पर रौशनी की विजय का त्यौहार है | ये नन्हे – नन्हे दीपों का ही तो चमत्कार है की काली अमावस की रात टिमटिमाती रोशिनी से जगमग हो जाती है | दीप जलाने की इसी परंपरा को आगे बढाते हुए हमने प्रतीकात्मक रूप से कविताओं के सात दीप जलाए हैं | आखिर अज्ञान के  अँधेरे को  तो ज्ञान के दीप ही दूर करते हैं |  इसमें हमने शामिल किये हैं …उषा अवस्थी , डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई “, डॉ .मधु त्रिवेदी , रंगनाथ द्विवेदी , बीनू भटनागर , संजय वर्मा , रोचिका शर्मा और रामचंद्र आज़ाद के काव्य दीप | आइये आप भी इन नन्हें दीपों के प्रकाश की जगमगाहट का आनंद लें |आशा है ये आप की दीपावली को कुछ और जगमग कर देंगे …. एक दीपक जरा जलाओ तुम   दीपावली की रात अमावस के दिन सैकड़ों दीप जलाए होगें दूर करने को मन का अंधियारा एक दीपक जरा जलाओ  तुम खूबसूरत ,नए चमकते कीमती कपड़े  अपने बच्चों को पिन्हाए होगें  ठ॔ड से कपकंपाते बच्चों को  एक फतुहीं जरा सिलाओ तुम दूर – – – – – गर्म पूड़ी , मिठाई, मेवे खा तुमने त्योहार मनाया होगा भूख से बिलबिलाते बच्चों को एक रोटी जरा खिलाओ तुम दूर – – – – –  नर्म गद्दे ,रजाई ,तकियों पर लेते हो चैन की नीदें हरदम काटते रात जो फुटपाथों पर एक कम्बल उन्हे ओढ़ाओ तुम दूर – – – – –  तुमने हर बार दीवाली की खुशी  सुन्दर रंगीन पटाखों से मनाई होगी जबरन जिनसे कराते काम, नौनिहालों को अक्षर -माला जरा दिलाओ तुम दूर – – – – –  उषा अवस्थी जलें दीप घर में मेरे जलें दीप घर में मेरे पर हो उजाला सर्वत्र एक दीप पितरों के लिए चल रहा आशीष जिनका हर क़दम संग सबके एक दीप माँ-पिता के लिए जन्म देकर बनते प्रेरणा बच्चों की जीवन भर के लिए एक दीप परिचित मित्रों के लिए व्यवहार जिनका बनता नयी सीख जीवन में एक दीप दुश्मनों के लिए जो मेरी कमी से नहीं बन सके मेरे मित्र कभी एक दीप शहीदों के लिए जिन्होंने रखी नींव आज के स्वतंत्र भारत की एक दीप सैनिकों के लिए जो रहते सरहद पर तैनात देश की रक्षा में दिन रात एक दीप किसानों के लिए जो रचते अन्न-संगीत कड़ी मेहनत से एक दीप उन सबके लिए जो जुड़े है किसी न किसी रूप में हम सबसे लेकिन हम हैं अनजान उनसे और इस तरह जलायें इतने दीप रह न पाये अँधेरा भूले से भी कहीं। डा० भारती वर्मा बौड़ाई दीप मिल कर जला दीजिये दीप मिल कर जला दीजिये मात लक्ष्मी बुला दीजिये साल में एक ही बार हो वन्दवारे सजा दीजिये साफ घर द्वार कर लो सभी रोज छिप कर बुला दीजिये अर्चना  आज तेरी  करे कष्ट सारे मिटा दीजिये स्वस्तिकें द्वार अपने रखूँ मात आ कर दुआ दीजिये भोग तेरा लगा मात अब पीर मेरी भगा दीजिये घर पधारे सदा माँ मिरे लाज मेरी बचा दीजिये डॉ मधु त्रिवेदी दिवाली नही आई भरपेट भोजन की थाली नही आई, कुछ एैसे भी घर है———- जहां दिवाली नही आई। रो रही घर में——— तक-तक के दरवाजे को भूखी बेटिया, उन्हे अपनी माँ की बुलाती आवाज़, प्यार भरी थपकी, छोटी बिटिया के खुशीयो की—— वे ताली नही आई! अभी तलक———- लौट कर इस घर की दिवाली नही आई। सुबह के धुधलके में——– दो पुलिसिये चादर में लपेटकर, लाये थे नग्न लाश! बेटिया डर गई, एकटक देखा कि कौन है? फिर माँ कह झिंझोडा——– लेकिन उसकी माँ की खुली आँखो ने तका नही, पहली बार-उसकी माँ के चेहरे पे कोई लाली नही आई। ये बेटिया क्या जाने? कि करोड़ो के पटाखो में दब गई, इनके माँ की सिसकिया! देख लो आज तुम भी मेरी कविता, इसके बदन पे हवस के निशान—– ये आज भी अपने घर खाली नही आई, ये और बात है कि———- इसके घर कोई दिवाली नही आई। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जौनपुर। शायद कुछ एैसे वंचित घर है जहां दिवाली नही आती,फिर भी ईश्वर हर घर को रौशनी दे। दिवाली बहुरंगी रंगोली सजाई, चौबारे पर दिये जलाये, लक्ष्मी पूजन आरती वंदन,  कार्तिक मास अमावस आई। मन मयूर सा नाच उठा जब, साजन घानी चूनर लाये,  घानी चूनर जड़े सितारे, दीप दिवाली के या तारे । खील बताशे पकवान, और मिष्ठान निराले, अपनो के उपहार अनोखे, स्नेह संदेशालेकर आये । फुलझड़ी व अनार चलाये, बंम रौकिट का शोर न करके, फूलों से सजावट करके, दीवाली त्योहार मनाये।  बीनू भटनागर  आओं हमारे घर आओं हमारे घर दीपावली में रोशनी लगतीजेसे घरों ने पहन लिए हो स्वर्णहारलाल- हरी,पीली-नीली रंगोलियालक्ष्मी -कुबेर को दे रही होघर आने का निमंत्रणबच्चे फुलझड़ियों की रौशनी सेकरने लग जाते है मानो उनका अभिवादनऐसा लगता है कि दीवाली परमाँ लक्ष्मी कृपा का भ्रमण करनेनिकली हो संग कुबेरतभी मन ही मन खुश होकरझोपड़ी में जलते दीयों नेएक साथ धीमे से पुकार दीआओं हमारे घर माँ लक्ष्मीहमारी कामना है किझोपड़ी भी स्वर्णहार पहनेऔर रह रहे इंसान बन जाए धन कुबेर संजय वर्मा “दृष्टि “ -धार दिवाली दीप  जलाऊं झिलमिल दिवाली की रौनक सी ,घर में खुशियाँ ले आती संपूर्ण तपस्या  जीवन भर की, बिटिया झलक जब दिखलाती इसके गृह प्रवेश संग तम, कौने-कौने का हट जाता निसदीन वास करे  घर में तो, दुख-दारिद्र भी घट जाता उसके पग से छूटा अलता ,चौखटको पावन कर जाता इंद्रधनुष से रंग बिखराती ,देहरी की रंगोली को सजाता भोली सूरत में इसकी समाहित अन्न,धन और रत्न अनमोल मुस्कानों में फुलझड़ियाँ हैं,  किल्कारी आरती के बोल इसकी महिमा जान न पाए, क्यूँ लक्ष्मी पूजन करते हो गर्भ में जाँच कराते क्यूँ हो, पैदा होने से डरते हो धन तेरस से पग हो माँडते ,द्वार भी रख लेते हो खुला गर्भ द्वार करते निष्कासित, तिरस्कृत लक्ष्मी मन की तुला लक्ष्मी पूजन की विधियों में , बैठी लक्ष्मी की महिमा बड़ी घर में पैदा लक्ष्मी हो जाए , बनेमुँह तयोरियाँ क्यूँचढीं जन-जन को ये शपथ दिलाऊं, कन्या भ्रूण हत्या बंद कराऊँ देवी लक्ष्मी सा मान दिलाऊं, तोमैं दिवाली दीप जलाऊं रोचिका शर्मा , चेन्नई डाइरेक्टर सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी दीपावली के दीप दीप ऐसे जलाएं दिवाली में हम,                खुशियों से यह धरा जगमगाने लगे | कोई कोने व अंतरे न बाकी … Read more

सामर्थ्य

होलाड़ली मेंसामर्थ्य इतनाउड़े ऊँची उड़ानअपने जिये सपनों के लिएतो चलेंउसके साथबिना किसी शर्त केऊबड़-खाबड़,पथरीलेरास्तों पर भीकरेअन्याय कासामना स्वयंदे दोषियों को सज़ाबीच चौराहे परतो बनेंउसकी शक्तिनिर्विरोध समाज के सम्मुखहोशिक्षित स्वयंजगायेअलख शिक्षा कीअज्ञान के अंधेरे मेंतोदें शिक्षाजो वह चाहेकरने देंजो वह करना चाहेन बनेंबाधकपड़ोसियों,सम्बन्धियोंसमाज के डर सेरखने देंनई लीककल जिस परचल कर पीछे-पीछेउसके विरोधियों कोअपना भविष्य गढ़ना हैतो भरेंसामर्थ्यलाड़लियों में अपनीबना सकेंसामर्थ्यवान हर जन को।डा०भारती वर्मा बौड़ाई

स्मिता दात्ये के दोहे

आँखें उलझी नेट में, मोबाइल में कान। टेक्नोसॅवी हो रहे, बच्चे बूढ़े जवान।। स्वयं मानव ने बुना, अपनी खातिर जाल। अभी जाने आगे क्या, होगा उसका हाल।। दुनिया कर ली मुट्ठी में, भुला दिया घरबार। अनदेखा अनसुना रहा, अपना ही परिवार।। …………………………………………………. न बदली है न बदलेगी नेता तेरी जात। टेढ़ी पूँछ श्वान की तीन ढाक के पात।। जनता पर ऐसे पड़ी किस्मत तेरी मार। कल कहा जिसे लुटेरा, अब है तारणहार।। श्वेत वस्त्र पर यों चढ़ा राजनीति का रंग। पल पल बदलता देखकर गिरगिट भी है दंग।। जब जब भी आरक्षण की चले कहीं भी बात। वे कहते अधिकार है, ये कहते सौगात।। पाँव लटकते कब्र में, सत्ता छोड़ी न जाय। संत कबीरा कह गए, लालच बुरी बलाय।। जोश नहीं कुछ काम का, अनुभव का है मोल। यह कहकर वे बजा रहे, अपना अपना ढोल।। लेन-देन कोयले का,  होंगे काले हाथ। मुँह भी काला कर लिया यह अचरज की बात।। करोडों की माया है एक रुपये की आय। यह चमत्कार कैसा है कोई ज़रा बताय।। ………………………………………………….. फैला शीतल चांदनी, बोला अकड़कर चांद। सूरज अपनी धूप का यह देखो अनुवाद।। धूप चढ़ी सहा न गया, जब सूरज का ताप। दूब की आँखों से तब, ढली ओस चुपचाप।। कितना सिखाया चांद को, तू भी तपना सीख। सूरज वही कहलाता, तोड़ चले जो लीक।। झाडी, झुरमुट घास पर पसरी अजगर धूप। हेमंती सर्दी का ये ठिठुर सिहरता रूप।। पहाड़ चढ़ सूरज थका, कल लूँ कुछ आराम। नींद उसे ऐसी लगी, सुबह हुई ना शाम।। ………………………………………………. स्मिता दात्ये 

ज़रूरतें

गिनते हुए ज़रूरतें वो निकला घर से हड़बड़ाता ,बड़बड़ाता गिड़गिड़ाता ! वो निम्न मध्यम वर्गीय जीव ! बहुतायत में पायी जाने वाली -प्रजाति ! एक हाथ में दो -चार रोटियों व सुखी सब्जी से ठूंसा डिब्बा ! दूसरे हाथ से कस कर बस का डंडा पकड़े ! दिमाग में राशन ,बिजली -पानी के बिल ! बच्चों की फीस ,मकान का किराया ! जीनें को ज़रूरी, ज़रूरतों का सॉफ्टवेयर अपडेट करता हुआ ! धक्कों से धकेला जा कर पहुंचा काम पर ! खटता ,पिटता ,समेटता ,चुनता – न मालूम कितनी ज़रूरतों में से ! बहुत जरूरी कुछ ज़रूरतों –के कंकड़ ! इन कंकड़ों के ही चुभने से ही , उसके अस्तित्व से रिसते हैं ज़ख्म ! ज़ख्मों पर मरहम का समय नहीं है ! पैसों का पहाड़ खोद कर ! ज़रूरतों के गड्ढों में मिट्टी भरनी है ! डॉ .संगीता गाँधी नई दिल्ली 

प्यार का चाँद

करवा चौथ की सभी व्रती महिलाओ के प्यार की एक खूबसूरत कविता—- (प्यार का चाँद) हमने पाया है तुममे अपने प्यार का चाँद, बेशक कल तुम तकोगी छत पे मुझे, मेरे हाथो से पियोगी व्रत का पानी, लेकिन मै नही तकुंगा तेरे सिवा मेरी सजनी, क्योंकि दुनिया तकेगी उसे, मै तो तकुंगा तुम्हें क्योंकि तुम्हि हो———– हमारी धड़कन और हमारे प्यार का चाँद। मेंहदी,महावर,चुड़ियाँ,सिन्दूर,बिंदिया, वही पहले करवे सी शर्म, तुम बहुत अच्छि हो मेरी सजनी, क्या करुंगा तक के मै, बहुत फिका है तेरे आगे आज—– इस पुरे संसार का चाँद। मै तुम्हें पाऊ हर जनम, कभी न छिने मेरी आँखो से मेरी सजनी, क्योंकि पल-छिन नही है तुमसे मेरी सजनी, तुम्हारे साजन के प्यार का चाँद—— हमने पाया है तुममे अपने प्यार का चाँद। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जौनपुर (उत्तर–प्रदेश)। PHOTO CREDIT –AAZ TAK

बिटिया खुले मे शौच जाती है

आदरणीय भारतीय प्रधानमंत्री की खुले मे शौच मुक्त भारत का एक काव्यात्मक समर्थन————- बिटिया खुले मे शौच जाती है _____________________ आखिर बाप और भाई की ये कैसी छाती है? जो उसकी जवान बहु-बेटी————— खुले में शौच जाती है। रास्ते भर फबत्ती और——– किसी की छेड़खानी का डर क्या होता है? कभी देखना हो, तो उसका वे चेहरा देखना कि किस तरह वे चंद लम्बी साँसे लेती है, जब सकुशल अपने घर लौट आती है। अक्सर हम अखबार और टी.बी. मे ये पढ़ते व सुनते है, कि अधिसंख्य————– खुले मे शौच गई महिला की, रेप या बलात्कार के साथ नृशंस हत्या, सारे रोंगटे खड़े हो जाते है, जब सबसे ज्यादा———— एैसे ही बलात्कार की रिपोर्ट आती है। आओ हम बदले अपनी बहु और बिटिया के लिये, ये ना समझो कि पहले कौन? तन्हा लड़ो क्योंकि हर अच्छे के लिये——— फिर फौज आती है। एै “रंग” ये महज़ कविता नही एक दर्द है, कि आजादी के इतने सालो बाद भी, हमारे देश की बिटिया———– खुले में शौच जाती है। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर (उत्तर-प्रदेश)।

रश्मि सिन्हा की 5 कवितायें

                                                                        रश्मि सिन्हा जी की कविताओं में वसंत की बहार से ताजगी है तो गर्मी की धूप  सा तीखापन भी |यही बात उनके काव्य संसार को अलहदा बनाती है | आप भी पढ़ें रश्मि सिन्हा जी की 5 कवितायें …                  धोबी घाट  यहां हर आदमी है, पैदायशी धोबी, थोड़ा बड़ा हुआ नही कि धोने लगा, कभी बीच चौराहों पर धो रहा है, कभी बंद कमरों में, वो देखिए, फिल्मकारों ने बनाई फ़िल्म, आलोचकों का समूह धो रहा है, लेखकों ने लिखी कहानी, कविता, लेख, पाठक धो रहा है, “मातहत” को बॉस धो रहा है, गोया कि, सब लगे हैं धुलाई में, वो देखिए सरकारी विभाग का नज़ारा, ऊपर से नीचे तक, धुलाई चल रही है, साल भर की मेहनत को, वार्षिक सी.आर में धो डाला, और ये धुलने वाले लोग, निसंदेह कान में तेल डाले बैठे हैं अपनी ‘बारी’ का इंतज़ार करते, एक दिन तो आएगा ‘गुरु’, ऐसा धोबी पाट देंगे कि, धुल रहे होंगे तुम, और हम मज़े लेंगे। २….अजीब  मेरी नज़र में, हर “लड़का “हो या “लड़की”, अजीब ही होता है, गरीब तो और भी अजीब, मंजूर है उसे कचरा बीनना, गोद मे बच्चा टांग भीख मांगना, पर ईश्वर के दिये दो हाथों का, इस्तेमाल “पेट” भरने को, उसे नही मंजूर, क्योंकि काम करने के लिए, चाहिए “धन”, जो उसके पास नही होता, पर “भीख” मांग धन एकत्र करनेवाला, “दिमाग” होता है। और “अमीर”,वो तो और भी, अजीब होता है। और, और कि लालसा, पहुंचा देती है, “एक के साथ एक फ्री” के द्वार और, गैर जरूरी चीजें खरीदता अमीर, सचमुच इंसान अजीब होता है। ३ ….शापित अहिल्या  क्या तुम सुन रहे हो, में हूँ शापित अहिल्या, और शापित ही रह जाऊंगी, पर किसी की चरण-रज से शाप मुक्त नही कहाऊंगी। मुझे करना है शाप मुक्त, तो कर दो श्रापित उस गौतम ऋषि को, जिसके शक, और श्राप ने, मजबूर किया, शिलाखंड बनने पर, चरण रज से में कभी श्राप मुक्त नही होना चाहूंगी, हाँ , प्रेम से उर लगाओगे उद्गार स्वरूप, नेत्रों में, जल भी ले आओगे, उसी क्षण में होऊँगी श्राप मुक्त, नही चाहिए मुझे, नाखुदा रूप में कोई पांडव, द्यूत क्रीड़ा में मुझे हारते, और न ही किसी राम की कामना मुझे, जो मेरी खातिर, किसी रावण का सर कलम कर जाए, पर अगले ही पल, किसी रजक के कहने पर, मेरा भविष्य, धरती में समाए, में तो हूँ, गार्गी और अपाला, जो बार बार चुनौती बन सामने आऊँगी, और देवकी की वो कन्या संतानः, जो कंस के द्वारा चट्टान पर पटकने पर भी, हवा में उड़ जाऊंगी, और तुम्हे श्रापित कर, तुम्हारा ही संहार करने वाले का, पता तुम्हे बताऊंगी।             ४….और कितनी आज़ादी  आजादी ही आजादी, 1947 से अब तक, पाया ही क्या है हमने,सिर्फ आज़ादी, आज़ादी अपने संविधान की, संविधान में संशोधन इस हद तक, कि तैयार होते एक नए संविधान की आज़ादी, नेता चुनने की आज़ादी, नेता को कुछ भी बोल देने की आज़ादी, आरोप, प्रत्यारोप की आज़ादी, जो अपने जैसे विचार व्यक्त न करे, उसे बेशर्म,दिमागविहीन कह देने की आज़ादी, अधिकारी को कुर्सी से खींच, पिटाई कर देने की आज़ादी, रोज ट्रैफिक रोक, जुलूस की आज़ादी, यूनियनबाजी की आज़ादी, कितनी आज़ादी—-? सूचना के अधिकार के तहत, हर जानकारी की आज़ादी, आज़ादी अपराध की, बलात्कार की— पीने पिलाने की आज़ादी, न्याय पालिका की आज़ादी, उफ! आज़ादी ही आज़ादी— गोया कि, जनता से ठसाठस भरा ये देश, हो गया है एक, बड़ा कड़ाह/पतीला, जिसमे उबाल रहे हैं तेजाब सम, विचार ही विचार, और उबल-उबल कर, व्यक्त होते ही जा रहे हैं, फैल रहा है ये तेजाब, समाज को दूषित करता हुआ, आज़ादी की वार्षिकी मुबारक। ५ ….आतंकवाद  कितनी माँओं की करुण पुकार, कितनी पत्नियों के करुण क्रंदन, छाती को फाड़ कर निकली, कितनी ही बहनों की” हूक” निरंतर करती चीत्कार, ” सुकमा” ,कुपवाड़ा” या किसी भी नक्सली हिंसा का शिकार, मासूम, सिर्फ शक्ति होने के कारण, गंवाता जान,रक्षा के नाम पर,? सैनिक, बलिदानी, शहीद की उपाधि पाता, न्याय को तरसे बार-बार, कहाँ हो हे कृष्ण!! कितने ही विषधर “कालिया” मर्दन को तैयार, हे शिव! किस बात की है प्रतीक्षा? खोलो न, अपना तीसरा नेत्र एक बार, या, क्या ये फरियादें भी, यूं ही जाएंगी बेकार, या, माँ काली, दुर्गा बन, फिर से नारियों को ही, उठाने पड़ेंगे हथियार???

गाँधी

किताबोंफ़ोटो मेंड्राइंगरूमओफिसों में हीबचें हैं गाँधीनहीं हैं तो बससबके दिलों में नहीं हैंशिक्षाएँ उनकीपुस्तकालयों,भाषणों मेंक़ैद हैचरख़ाम्यूज़ियम मेंजब उन्हेंजगाना होगागाँधी जयंती औरशहीद दिवस मनाना होगामध्यावधि-पूर्णावधि चुनावों मेंवोट माँगने होंगेतभी ढूँढा जाएगाखोये गाँधी कोअन्यथा तो वेआउट ऑफ़ डेटआउट ऑफ़ फ़ैशनआउट ऑफ़ पॉलिटिक्स हैं।—————————————डा० भारती वर्मा बौड़ाई,देहरादून