वरिष्ठ लेखिका रश्मि प्रभा जी की कलम में जादू है | उनके शब्द भावनाओं के सागर में सीधे उतर जाते हैं | आज हम रश्मि प्रभा जी की पांच कवितायें आपके लिए ले कर आये हैं जो पाठक को ठहर कर पढने पर विवश कर देती हैं | एक माँ से मिले हो ? तुम एक स्त्री से अवश्य मिले होगे उसके सौंदर्य को आँखों में घूँट घूँट भरा भी होगा इससे अलग क्या तुम सिर्फ और सिर्फ एक माँ से मिले हो ? उसकी जीवटता, उसकी जिजीविषा का अद्भुत सौंदर्य बिना किसी अगर-मगर के देखा है समझा है ? उसका आंतरिक, मानसिक वेग और उससे परे उसका शांत झील सा चेहरा और उसकी सम्पूर्णता में समाहित गीता को पढ़ा है ? एक माँ के अस्तित्व में ही जीवन का कुरुक्षेत्र छिपा होता है वही अर्जुन,वही कर्ण वही अभिमन्यु होती है सारथि कृष्ण का रूप धर कई दुर्योधन दुःशासन को मारती है कुंती से मुँह फेरकर राधा का सम्मान करती है ! बच्चे के लिए एक नहीं कई समंदर उसके भीतर होते हैं ऊँची उठती लहरों पर भी वह अद्भुत संतुलन साधती है बहती है उसके अंदर त्रिवेणी जहाँ अदृश्य लगती सरस्वती के आगे वह आशीषों के बोल रखती है जो धरती-आकाश की कौन कहे पाताल तक रक्षा करती है … एक माँ में सम्पूर्ण तीर्थस्थलों सी शक्ति होती है …. माँ बनते एक स्त्री के सारे उद्देश्य बदल जाते है सोच की दिशा बदल जाती है कुछ न होकर भी वह एक मशाल बन जाती है प्रकाश का अदम्य स्रोत सामर्थ्य, परिवेशीय स्थिति से निर्विकार वह अपमान में भी सम्मान के अर्थ भरती है अपने बच्चे के लिए संजीवनी बन उसके रास्तों को निष्कंटक बनाती है … उसके चेहरे में उसे देखना उसे पाना बहुत मुश्किल है सतयुग से लिखी जा रही वह वह कथा है जो सिर्फ उसी की कलम से लिखी जा सकती है ! चलो चलें जड़ों की ओर माँ और पिता हमारी जड़ें हैं और उनसे निर्मित रिश्ते गहरी जड़ें जड़ों की मजबूती से हम हैं हमारा ख्याल उनका सिंचन … पर, उन्नति के नाम पर आधुनिकता के नाम पर या फिर तथाकथित वर्चस्व की कल्पना में हम अपनी जड़ों से दूर हो गए हैं दूर हो गए हैं अपने दायित्वों से भूल गए हैं आदर देना … नहीं याद रहा कि टहनियाँ सूखने न पाये इसके लिए उनका जड़ों से जुड़े रहना ज़रूरी है अपने पौधों को सुरक्षित रखने के लिए अपने साथ अपनी जड़ों की मर्यादा निर्धारित करनी होती है लेकिन हम तो एक घर की तलाश में बेघर हो गए खो दिया आँगन पंछियों का निडर कलरव रिश्तों की पुकार ! ‘अहम’ दीमक बनकर जड़ों को कुतरने में लगा है खो गई हैं दादा-दादी नाना-नानी की कहानियाँ जड़ों के लिए एक घेरा बना दिया है हमने तर्पण के लिए भी वक़्त नहीं झूठे नकली परिवेशों में हम भाग रहे गिरने पर कोई हाथ बढ़ानेवाला नहीं आखिर कब तक ? स्थिति है, सन्नाटा अन्दर हावी है , घड़ी की टिक – टिक……. दिमाग के अन्दर चल रही है । आँखें देख रही हैं , …साँसें चल रही हैं …खाना बनाया ,खाया …महज एक रोबोट की तरह ! मोबाइल बजता है …,- “हेलो ,…हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ……” हँसता भी है आदमी ,प्रश्न भी करता है … सबकुछ इक्षा के विपरीत ! ………………. अपने – पराये की पहचान गडमड हो गई है , रिश्तों की गरिमा ! ” स्व ” के अहम् में विलीन हो गई है ……… सच पूछो, तो हर कोई सन्नाटे में है ! ……..आह ! एक अंतराल के बाद -किसी का आना , या उसकी चिट्ठी का आना …….एक उल्लसित आवाज़ , और बाहर की ओर दौड़ना ……, सब खामोश हो गए हैं ! अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं , देखता है , आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं ! चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ? -मोबाइल युग है ! एक वक़्त था जब चिट्ठी आती थी या भेजी जाती थी , तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी , और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे ……नशा था – शब्दों को पिरोने का ! …….अब सबके हाथ में मोबाइल है …………पर लोग औपचारिक हो चले हैं ! ……मेसेज करते नहीं , मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता , या टाइम नहीं होता ! फ़ोन करने में पैसे ! उठाने में कुफ्ती ! जितनी सुविधाएं उतनी दूरियाँ समय था …….. धूल से सने हाथ,पाँव, माँ की आवाज़ ….. “हाथ धो लो , पाँव धो लो ” और , उसे अनसुना करके भागना , गुदगुदाता था मन को ….. अब तो !माँ के सिरहाने से , पत्नी की हिदायत पर , माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा ! क्षणांश को भी नहीं सोचता ” माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ……” …….सोचने का वक़्त भी कहाँ ? रिश्ते तो हम दो ,हमारे दो या एक , या निल पर सिमट चले हैं …… लाखों के घर के इर्द – गिर्द -जानलेवा बम लगे हैं ! बम को फटना है हर हाल में , परखचे किसके होंगे -कौन जाने ! ओह !गला सूख रहा है …………. भय से या – पानी का स्रोत सूख चला है ? सन्नाटा है रात का ? या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ? कौन देगा जवाब ? कोई है ? अरे कोई है ? जो कहे – चलो चलें अपनी जड़ो की ओर … जिजीविषा का सिंचन जारी है ……. अपनी उम्र मुझे मालूम है मालूम है कि जीवन की संध्या और रात के मध्य कम दूरी है लेकिन मेरी इच्छा की उम्र आज भी वही है अर्जुन और कर्ण सारथि श्री कृष्ण बनने की क्षमता आज भी पूर्ववत है हनुमान की तरह मैं भी सूरज को एक बार निगलना चाहती हूँ खाइयों को समंदर की तरह लाँघना चाहती हूँ माथे पर उभरे स्वेद कणों की अलग अलग व्याख्या करना चाहती हूँ आकाश को छू लेने की ख्वाहिश लिए आज भी मैं शून्य में सीढ़ियाँ लगाती हूँ नन्हीं चींटी का मनोबल लेकर एक बार नहीं सौ बार सीढ़ियाँ चढ़ी हूँ गिरने पर आँख भरी तो है पर सर पर कोई हाथ रख दे इस चाह … Read more