बकरा

रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर,जौनपुर(उत्तर-प्रदेश) पालने वाले मालिक से खरीदकर, जब कसाई—————– जबरदस्ती पकड़े ले चलेगा बकरे को उस गाँव,उस गली से जहां वे इतने दिन पला बढ़ा है, तो में में में कर रोता जायेगा वे रास्ते भर। गर रास्ते में कही देखेगा वे बकरी का मेंमना, तो सोचेगा————— कि देखो कितना उछल कुद रहा, गले में घंटी और घुँघरू पहने, अपने अंजाम से बेखबर, कितना खुश है ये मेंमना! यही जब बड़ा हो जायेगा तो इसको भी खरीदने, फिर इसी गाँव और गली में आयेगा एक कसाई! ले जायेगा फिर में में में करते हुये बकरे को, फिर कसाई उसे तमाम बकरो में खड़ा कर, खू से तरबतर ———– जब इसको भी काटने की तरफ बढ़ेगा, तो एक मर्तबा फिर बकरे को———- वे गाँव,वे गली,वे मालिक याद आयेगा। फिर कसाई———— गले को बेरहमी से काटेगा रेतेगा, और में में में में कर तड़पड़ा के, अपने ही खून में कुछ देर के बाद, हमेशा के लिये शांत हो जायेगा बकरा।

राम-रहीम से बलात्कारी बाबा बढ़ रहे

रंगनाथ द्विवेदी बाबाओ को गदराई दैहिकता ललचा रही———– औरत इन्हें भी हमारी तरह भा रही। सारे प्रवचन भुल रहे, बिस्तर पर हर रात एक यौवन का सेवन, तन्दुरुस्ती एैसी कि एक जवान से ज्यादा——- औरत की जिस्म पे बाबा जी झूल रहे। कामोत्तेजना के तमाम आसन कोई इनसे पुछे, दाँतो तले पहरे पे खड़े सेवक अपनी अँगूली दबा रहे, साठ के बाबा जी के क्या कहने कि बीना शिलाजीत खाये, इनके कमरे की हर ईट से जैसे कामसूत्र चीखे। सभी बाबा एक-एक कर फँस रहे, जेल मे आशाराम बापू आह भर रहे, सीडी किंग नित्यानंद, जेल मे चोरी-चोरी अश्लील किताब मंगा, अपना अंग विशेष पकड़े———– बड़ी समाधिस्त अवस्था मे मस्तराम को पढ़ रहे, फिर भी इन चरित्रहीनो के भक्त है, कि मानते नही, पुलिस,पैरामिलट्री,कर्फ्यू तक लगाना पड़ रहा, लेकिन वाह रे इन गलिजो के भक्त, इतनी निकृष्ट गुरुता का अंधापन, कि पंजाब और हरियाणा के बलात्कारी को बचाने के लिये, अपने ही राज्य के बेटे लड़ रहे, शायद इसी से एै “रंग”, अब हमारे देश मे राम-रहीम से———- बलात्कारी बाबा बढ़ रहे। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर–प्रदेश)। तुम धन्य हो इस देश के तथाकथित बलात्कारी बाबाओ जो इतना इस देश की आस्था का श्री वर्द्धनकर आप चार चाँद लगा रहे।

विघ्न विनाशक

डॉ मधु त्रिवेदी हर विघ्न के विनाशक सारे जहाँ में जोदेवता गणेश जी की इनायत हमें भी है कारज सफल करे अब कोई न चूक होकिरपा बनी रहे ये इजाजत हमें भी है हर वक्त हम संभल कर आगे बढ़े सदाहो जब विषम परिस्थिति राहत हमें भी है वरदान ईश्वर का हमेशा हमें मिलासारी हकीकते ये खिलाफत हमें भी है कोई दुखी न हो न परेशान दीन होदे दे खुशी सभी को नसीहत हमें भी है झगड़े कभी न हो हर मजहब का मान होझण्डा ऊँचा रहेगा हिफाजत हमें भी है चाहे पूजे रहीम या पूजे वो राम कोमकसद सभी का एक अदालत हमें भी है

तलाक था..

-रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर–प्रदेश)। औरतो की खूशनुमा जिंदगी मे जह़र की तरह है तलाक——- औरत आखिर बगावत न करती तो क्या करती, जिसने अपना सबकुछ दे दिया तुम्हें, उसके हिस्से केवल सादे कागज़ पे लिखा—— तीन मर्तबा तुम्हारा तलाक था। इस्लाम और सरिया की इज़्ज़त कब इसने नही की, फिर क्यू आखिर—————- केवल मर्दो के चाहे तलाक था। मै हलाला से गुजरु और सोऊ किसी गैर के पहलु, फिर वे मुझे छोड़े, उफ! मेरे हिस्से एै खुदा———- कितना घिनौना तलाक था। महज़ मेहर की रकम से कैसे गुजरती जिंदगी, दो बच्चे मेरे हिस्से देना, आखिर मेरे शौहर का ये कैसा इंसाफ था, मै पुछती बताओ मस्जिदो और खुदा के आलिम-फा़जिल, कि आखिर मुझ बेगुनाह को छोड़ देना——— कुरआन की लिखी किस आयत का तलाक था। पढ़िए ………..रंगनाथ द्विवेदी का रचना संसार

लज्जा

शरबानी  सेनगुप्ता वह कोयले के टाल  पर बैठी लेकर हाथ में सूखी रोटी संकुचाई सिमटी सी बैठी पैबंद लगी चादर में लिपटी  मैली फटी चादर को कभी वह इधर से खींचती उधर से खींचती न उसमें है रूप –रंग ,और न कोई सज्जा सिर्फ अपने तन को ढकना चाहती क्योंकि उसे आती है लज्जा || अरे ! देखो वो कौन है जाती ? इठलाती और बलखाती अपने कपड़ों पर इतराती टुकड़े –टुकड़े वस्त्र को फैशन कहती और समझती सबसे अच्छा क्योंकि उसे न आती लज्जा लज्जा का यह भेदभाव मुझे समझ न आता कौन सी लज्जा निर्धन है और कौन धनवान कहलाता यह सोच सोच कर मन में लज्जा भी घबराती वस्त्रहीन लज्जा को देखकर लज्जा भी शर्माती

हे श्याम सलोने

©किरण सिंह ************ हे श्याम सलोने आओ जी  अब तो तुम दरस दिखाओ जी  राह निहारे यसुमति मैया  तुम ठुमक ठुमक कर आओ जी  आओ मधु वन में मुरलीधर प्रीत की बंशी बजाओ जी दबा हुआ बच्चों का बचपन  अब राह नई दिखलाओ जी  पुनः द्रौपदी चीख रही है  अस्मत की चीर बचाओ जी  राग द्वेष से मुक्त करो हमें  गीता का पाठ पढ़ाओ जी  मति हीन हम सब मूरख हैं  अपना स्वरूप दिखलाओ जी  जन्म ले लिये कृष्ण मुरारी  सखियाँ सोहर गाओ जी 

देश भक्ति के गीत

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई, देहरादून, उत्तराखंड जय गान करें ———————– भारत का जय गान करें आओ हम अपने भारत की नई तस्वीर गढ़ें भारत का…. अपनी कीमत खुद पहचाने हम क्या हैं खुद को भी जाने अपने मूल्यों और संस्कृति की एक पहचान बनें भारत का…. जो खोया वो फिर पाना है जो छीना वो फिर पाना है अपनी धरोहर की रक्षा में नहीं किसी से डरें भारत का…. अपनी गलती से सीखें हम उसको कभी न दोहराएं हम हिंदुत्व अपने में लेकर हम हर एक कदम धरें भारत का… ———————————— –कुछ इस तरह ———————— जिऊँ कुछ इस तरह देश मेरे कुछ ऋण तुम्हारा उतार सकूँ सोचूँ  कुछ इस तरह देश मेरे जीवन में तुम्हें बसा सकूँ गाऊँ कुछ इस तरह देश मेरे गीतों में तुम्हें गुनगुना सकूँ लिखूं कुछ इस तरह देश मेरे शब्दों में तुम्हें बाँध सकूँ उड़ूँ कुछ इस तरह  देश मेरे तिरंगा अपना लहरा सकूँ देखूँ कुछ इस तरह  देश मेरे हरदम तुम्हें हिय में बसा सकूँ मैं रोऊँ-गाऊँ कुछ भी करूँ देश मेरे जब चाहूँ तुमको बुला सकूँ।        मरुँ कुछ इस तरह देश मेरे मिट्टी में मिल तुझमें समा सकूँ। —————————- मेरा भारत महान ~जय हिन्द  Attachments are

पिजड़े से आजादी

यूँही नही मिली एै दोस्त————– गुलाम भारत के पिजड़े की चिड़ियाँ को आजादी। यूँही नही इसके पर फड़फड़ाये खुले आकाश—– बहुत तड़पी रोई पिजड़े मे इसके उड़ने की आजादी। इसने देखा है——– गोली सिने मे लगी घिसटता रहा खोलने पिजड़े को, लेकिन खोलने से पहले दम तोड़ गया, इस आस मे कि मै तो न खोल सका, पर कोई और खोलेगा एकदिन और दुनिया देखेगी—- इस बंद पिजड़े के चिड़ियाँ की आजादी। जश्ऩ मे डुबी सुबह होगी तिरंगे फहरेंगे, जलिया,काकोरी,आजाद,विस्मिल की गाथाये होंगी, हाँ ! आँख भिगोये देखेगी वही पिजड़े की चिड़ियाँ, क्योंकि बड़ी मुश्किलो से पाई है एै “रंग”———- इस चिड़ियाँ ने उस पिजड़े से आजादी। @@@रचयिता—-रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर–प्रदेश)। मेरा भारत महान ~जय हिन्द

कान्हा तेरी प्रीत में – जन्माष्टमी के पावन पर्व पर डॉ . भारती वर्मा की कवितायें

कान्हा तेरी प्रीत में ~पढ़िए प्रभु श्रीकृष्ण को समर्पित डॉ . भारती वर्मा की कवितायें  1–कान्हा ————– कान्हा तेरी प्रीत में हुई बावरी मैं तेरे रंग में रंग कर हुई साँवरी में  भावे न अब कछु मोहे तुझे देखती मैं दिवस हो या रैन अब तुझे जपती मैं तेरी प्रीत के गीत ही गाती रहती मैं कोई कहे चाहे कुछ भी बनी मतवाली मैं जब बजती बंसी तेरी रुक न पाती मैं आ कदम्ब के पेड़ तले बैठी रहती मैं तुम छलिया छलते सदा मूरख बनती मैं  रास रचाते यमुना तीरे तुम्हें देखती मैं ना मैं मीरा ना मैं राधा पर तेरी हूँ मैं  तेरी राह निहारूँ नित किससे कहूँ मैं तेरी प्रीत के रंग रंगी भूल गई सब मैं। ————————— 2–साँवरे ————– साँवरे अपने रंग रंग दीन्हा। मोर मुकुट मन में बसाए नैनों को अब कुछ ना भाए साँवरे ये तूने क्या कर दीन्हा। बंसी तेरी मधुर तान सुनाए मन तेरी और खींचा चला आए साँवरे ये कैसा  दुःख दीन्हा। ——————- 3–मुरली —————-  कान्हा तेरी मुरली जब से बजी सुन इसे सबने धीर धरी कान्हा तेरी मुरली जब से बजी सुन इसे सबकी पीर गई कान्हा तेरी मुरली के रंग हज़ार मिलें यहीं ढूंढों चाहे बाज़ार कान्हा तेरी मुरली छलिया बड़ी छल से मन में जाय बसी कान्हा तेरी मुरली कहे पुकार सुन इसे आओ मेरे द्वार कान्हा तेरी मुरली ने छीना चैन सब लीन्हा किया बेचैन कैसा जादू किया तेरी मुरली ने तेरे रंग में रंगा संसार कान्हा तेरी मुरली अपरंपार इसमें छिपा है जीवन सार। ———————————-

गीता के कर्मयोग की काव्यात्मक व्याख्या

गीता का तीसरा अध्याय कर्म योग के नाम से भी जाना जाता है प्रस्तुत है गीता के  कर्मयोग  की सरल काव्यात्मक व्याख्या /geeta ke karmyog ki saral kaavyaatmak vyakhya  श्रीमती एम .डी .त्रिपाठी ( कृष्णी राष्ट्रदेवी )  अर्जुन ने प्रभु से  कहा  सुनिए करुणाधाम  मम मन में संदेह अति  निर्णय दें घनश्याम  ज्ञान अगर अति श्रेष्ठ है  कर्मों से दीनानाथ  लगा रहे हो घोर फिर  कर्मों में क्यों नाथ   कहा प्रभू ने पार्थ सुनो  ये दो निष्ठाएं जग में हैं  ज्ञान योग व् कर्म योग में  कुछ भी तो भेद नहीं है  कोई भी नर एक क्षण भी तो  नहीं कर्म किये बिना रह सकता है  यदि तन से नहीं तो मन से ही  वह कर्म का चिंतन करता है  इसलिए कर्म को त्यागना  संभव नहीं है पार्थ  हर क्षण में है कर्म का  नर जीवन में साथ  हठ पूर्वक रोक जो इन्द्रियों को  जो कर्म का चिंतन करता है  ऐसा नर निश्चय ही अर्जुन  मिथ्याचारी कहलाता है  इन्द्रियों को जो वश में रख के  आसक्ति रहित हो कर्म करे  वही श्रेष्ठ पुरुष कहलाता है  जो शास्त्र विहित कर्तव्य करे  कर्तव्य कर्म का करना ही  सब भांति मनुज के हित में है  निष्काम कर्म करने से ही  कल्याण जीव का होता है  जो शास्त्र विहित हैं कर्म सभी  वे यज्ञ स्वरुप हो जाते हैं  फिर अनासक्त हो जाने से  बंधन भी सब छुट जाते हैं  प्रभु अर्पण यदि तुम कर्म करो  सब इच्छित फल पा जाओगे  आसक्ति भाव से कर्म किया  तो बंधन में बंध जाओगे  इसलिए निरंतर हे अर्जुन  आसक्ति रहित तू कर्म करे  दो लोक बनेगे तब तेरे  किंचित फल की आशा न करे  आरभ सृष्टि के ब्रह्मा ने  है प्रजा की रचना यज्ञ से की  तुम अनासक्त हो कर्म करो  निज प्रजा को भी यह आज्ञा दी  हे पार्थ सुनो सम्पूर्ण जीव की  उत्पत्ति अन्न से होती है  अरु अन्न की उत्पत्ति वर्षा से  वर्षा कर्म यज्ञ से होती है  जीवन उसका ही धनी की जो  प्रभु हित कर्तव्य कर्म करता  जो स्वार्थ युक्त हो कर्म करे  वो पाप अन्न ही खाता है  जनकादिक सभी ज्ञानियों ने  आसक्ति रहित ही कर्म किये  फिर लोक कल्याण को पा कर के  है अंत मोक्ष को प्राप्त किये  त्रैलोक्य में भी मुझको अर्जुन  कुछ भी कर्तव्य है शेष नहीं  परलोक हितार्थ सदा ही तो  कर्तव्य कर्म से दूर नहीं  परवश स्वाभाव से हो प्राणी  कर्मों को करता रहता है  ” मैं करता हूँ ” अपने में  भावना यह धारण करता है  यह ही बंधन का कारण है  इससे ही दुःख उठाते हैं  इस गुण विभाग के तत्वों को  ज्ञानी जन खूब जानते हैं  कामना रहित कर्मों द्वारा  आचरण शुद्ध  हो जाएगा  बस अनासक्त हो जाने से  बंधन भी सब छुट जाएगा  इस काम रूप बैरी का ही  हे अर्जुन प्रथम विनाश करो  जो सर्वशक्ति आत्मा तेरी  उस पर अटल विशवास करो || लेखक परिचय : श्रीमती एम डी त्रिपाठी , हिंदी की व्याख्याता रहने के बाद प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों  की सेवा में पूर्ण रूप से लग गयी | उन्होंने श्री कृष्ण भक्ति पर अनेकों पुस्तके लिखी है | प्रस्तुत रचना संक्षिप्त गीतामृतम से है |हम श्रीमती त्रिपाठी जी का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं |  यह भी पढ़ें …….. पवित्र गीता सभी को कर्तव्य व् न्याय के मार्ग पर चलने का सन्देश देती है जन्माष्टमी पर विशेष झांकी _ जय कन्हैया लाल की