अखबारों के पन्नों पर

अखबारों के पन्नों पर

हम सब रोज अखबार पढ़ते हैं | अखबार की खबरें हमारी मानसिक खुराक होती है | पर ये खबरे किसी दर्द किसी अत्याचार या किसी अन्याय की सूचना होती हैं |अखबारों के पन्ने पर पन्ना दर पन्ना लिखी होती हैं शोषण की दस्ताने |आइए इस विषय पर पढ़ते हैं डॉ. पूनम गुज़रानी की महत्वपूर्ण गजल अखबारों के पन्नों पर पढ़ते पढ़ते कितना रोई अखबारों के पन्नों पर, सांझ हुई तो अक्सर सोई अखबारों के पन्नों पर। जाने वाले सैनिक का मासूम सा बच्चा भूखा था, नेताओं ने आंख भिगोई अखबारों के पन्नों पर। अरबों की खरबों की दौलत रहती बंद तिजोरी में, बस वादों की फसलें बोई अखबारों के पन्नों पर। लालकिले के सब गलियारे कानाफूसी करते हैं, किसने कितनी लाशें ढोई अखबारों के पन्नों पर। अपने हिस्से की खुशियां जो ‘पूनम’ जग को दे जाता, उसके खातिर सदियां रोई अखबारों के पन्नों पर। डॉ पूनम गुजरानी सूरत यह भी पढ़ें …. मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा कविता सिंह जी की कवितायें गीता के कर्मयोग की काव्यात्मक व्याख्या आपको गजल “अखबारों के पन्नों पर कैसी लगी ? अपने विचार हमें अवश्य बताएँ |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

हम अपने बच्चों के दोषी हैं

बच्चे

  बच्चों को दुनिया में तभी लाएँ जब आप शारीरिक -मानसिक रूप से 21 साल का प्रोजेक्ट लेने के लिए तैयार हों — सद्गुरु बच्चे दुनिया की सबसे खूबसूरत सौगात हैं | एक माता -पिता के तौर पर हम बच्चों को दुनिया में लाते हैं तो एक वादा भी होता है उसे जीवन की सारी खुशियाँ देंगे | शायद अपने हिसाब से अपने बच्चों के लिए हम ये करते भी हैं पर कभी उँगलियाँ अपनी ओर भी उठ जातीं हैं |शायद कभी कभी ये जरूरी भी होता है |   हम अपने बच्चों के दोषी हैं हम अपने बच्चों के दोषी हैं, हम लाते हैं उन्हें दुनिया में , उनकी इच्छा के विरुद्ध क्योंकि  हमें चाहिए उत्तराधिकारी, अपने पैसों का, अपने नाम और उपनाम का भी, हम नहीं तो कम से कम सुरक्षित रह जाए हमारा जेनिटिक कॉन्फ़िगयुरेशन और शायद हम बचना चाहते हैं अपने ऊपर लगे बांझ या नामर्दी के तानों से, और उनके दुनिया में आते ही जताने लगते हैं उन पर अधिकार, गुड़िया रानी के झबले से, खाने में रोटी या डबलरोटी से, उनके गाल नोचे जाने और हवा में उलार देने तक उनकी मर्जी के बिना हम अपने पास रखते हैं दुलार का अधिकार , हम ही तो दौड़ाते हैं उन्हें जिंदगी की रैट रेस में, दौड़ों,भागों पा लो वो सब कुछ, कहीं हमारी नाक ना कट जाए पड़ोस की नीना , बिट्टू की मम्मी,ऑफिस के सहकर्मियों के आगे, उनकी मर्जी के बिना झटके से उठा देते हैं उन्हें तकिया खींचकर क्योंकि हम उनसे ज्यादा जानते हैं इसीलिए तो खुद ही चुनना चाहते हैं उनके सपने, उनका धर्म  और उनका जीवन साथी भी उनका विरोध संस्कारहीनता है क्योंकि जिस जीव को हम अपनी इच्छा से दुनिया में लाए थे उसे खिला-पिला कर अहसान किया है हमने उन्हें समझना ही होगा हमारे त्यागों के पर्वत को तभी तो जिस नौकरी के लिए दौड़ा दिया था हमने, किसी विशेषाधिकार के तहत जीवन की संध्या वेला में कोसते हैं उसे ही … अब क्यों सुनेंगे हमारी, उन्हें तो बस नौकरी प्यारी है .. अपना,नाम अपना पैसा क्योंकि अब हमारी जरूरतें बदल गईं है अब हमें पड़ोस की नीना और बिट्टू की मम्मी नहीं दिखतीं अब दिखती है शर्मा जी की बहु,चुपचाप दिन भर सबकी सेवा करती है राधेश्याम जी का लड़का,नकारा रहा पर अब देखो , कैसे अस्पताल लिए दौड़ता है.. और ये हमारे  बच्चे ,संस्कारहीन, कुलक्षण बैठे हैं देश -परदेश में हमारा बुढ़ापा खराब किया लगा देते हैं वही टैग जो कभी न कभी हमें लगाना ही है जीवन के उस पन में जब सब कुछ हमारे हिसाब से ना हो रहा हो सच, पीढ़ी दर पीढ़ी हम बच्चों को दुनिया में लाते हैं उनके लिए नहीं अपने लिए अपने क्रोमज़ोम के संरक्षण के लिए,अपने अधूरे रह गए सपनों के लिए , अपने बुढ़ापे के लिए कहीं न कहीं हम सब अपने बच्चों के दोषी हैं | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. प्रियंका–साँप पकड़ लेती है ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह अजनबी मर्द के आँसू आपको कविता “हम अपने बच्चों के दोषी हैं “कैसी लगी |हमें अपने विचारों से जरूर अवगत कराए |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो वेसआइट सबस्क्राइब करें | अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

रिश्तों पर अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ

अर्चना त्रिपाठी की कविताएँ

अगर कहानी ठहरी हुई झील है तो कविता निर्झर | कौन सा भाव मानस की प्रस्तर भूमि पर किसी झरने के मानिंद कब  प्रवाहित हो चलेगा ये कवि भी नहीं जानता और एक कविता गढ़ लेती है आकार |अर्चना त्रिपाठी जी की कविताओं में यही खास बात है कि  वो बहुत ही सरल सहज भाषा में अपने मनोभावों को व्यक्त करती हैं |आज पढिए विभिन्न रिश्तों को समेटे अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ | ये कहीं टूटते हुए रिश्तों की खनक है तो कहीं अजन्मी बेटी की पुकार , कहीं प्रेम रस की फुहार तो कहीं तनहाई का आर्तनाद और तकनीकी से भी तो एक रिश्ता है है तभी तो वह कह उठती हैं “दिनों दिन तकनीकी के विकास का गुल खिल रहा…. रिश्तों पर अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ टीस रिश्तों पर पड़ी कड़वाहट की धूल को वक्त की हवा भले ही उड़ा दे पर वह , उस दरार को भरने में कभी सक्षम नहीं होगी, जो कड़वाहटों ने बना दी । उस दर्द की टीस कम नहीं होती बरसों-बरस । वह टीस कराह उठती है , जब कभी किसी आयोजन में आपको अपने रिश्ते दिखते हैं । अपने मुल्कों के लोग दिखते लोगों के जरिए,रिश्तों की याद दिलाई जाती है। वे रिश्ते तब कहां होते जब वही सुईयाँ चुभोते हैं वक़्त का लंबा सफर गुजर जाता है,वक्त नहीं लौटता कहते हैं,वक्त हर घावों को भर देता है मेरा कहना है,वक्त कुछ घावों को, नासूर बना देता है अतः उस घाव के अंग का, कट जाना ही बेहतर है रिश्तों का दिया दर्द, वक्त नहीं कर पाता कमतर अतः रिश्तों का टूट जाना ही है बेहतर,बेहतर,बेहतर   भ्रूण अति अति सुंदर, अति सुंदर कृति हो तुम, इस सृष्टि की क्योंकि………..क्योंकि रचा है मैंने तुम्हें, भूत हो तुम मेरा……….. वर्तमान, वर्तमान भी तुम ही हो मेरा अति सुंदर………. कृति हो तुम इस सृष्टि की क्योंकि, क्योंकि पुनः जी रही हूँ मैं तुममें तुममें पूरी हो रही है मेरी अधुरी तमन्नाएँ भविष्य……………. मेरा भविष्य तुम ही तो हो, वह भी मेरा करूँगी, साकार अपने सपनों को तुममें। न रहकर भी रहेगी सदा मैं, तुम्में किंतु मेरे अपने ही नहीं चाहते तुम्हें आने देना इस धरती पर नहीं चाहते, साकार होने देना मेरे सपनों को क्योंकि, क्योंकि तुम भ्रूण हो, मादा भ्रूण मेरी हसरत तुम मेरी बेटी हो, भावी बेटी बावजूद तमाम विरोधों के लाउँगी मैं तुम्हें इस पृथ्वी पर भगीरथ के गंगा की तरह जनूँगी, बनूँगी मैं तुम्हें कुंती के कर्ण की तरह जननी मैं तुम्हें, मैं तुम्हें मैं तुम्हें अवश्य, अवश्य, अवश्य ।   आहें तुम मेरी तकलीफों से बेखबर अपने में मशगूल, मैं, अपने और अपनी तन्हाई से गमगीन ख़दश हैं रफ्ता – रफ्ता… तुम्हारी ये बेरूखी, हमारे रिश्ते का इनसेदाद न कर दे… जिंदगी सहरा न बन जाए, जिसमें खुशियों के दरख्त हों न अरमानों के गुल उड़ेंगी सिर्फ दो रूहों की जर्रा-ए-आहें सहरा-ए-जिंदगी में हौसला उम्मीदों के आकाश से कटी हुई पतंग की तरह वास्तविकता के धरातल पर ऐसी गिरी…….! कि कहीं कोई ठहराव नहीं दिखता नहीं दिखता कोई आशियां जहां मेरा ठिकाना हो हौसले का तिनका का बटोर मुझे स्वयं ही अपने उम्मीदों का घरौंदा तैयार करना होगा अकेले, तन्हा………! जहां मैं अपने उद्देश्यों को साकार कर, सजा कर अपने उस झोपड़े में रह सकूं पुनः तन्हा, तन्हा और तन्हा……… ही और जीने को प्रेरित करेगी हौसले की किरण। तकनीक तरक्की या त्रास्दी दिनों दिन तकनीकी के विकास का गुल खिल रहा, प्रेम पतझड़ के, पल्लव बन गिर रहा! नाम, पद, पहचान नहीं नम्बरों में बंट गए। तकनीक ने दी त्रासदी, ऐसी की अखियाँ तरस गई बातें तो होती रहीं, मिलने को अखियाँ बरस गई दूर थे पर पास दिलों के अब पास होकर दूर दिल की दूरी बढ़ती गई थे स्नेह प्रेम मानव के मीत दिन वो आज हैं बने अतीत गांधी ने देखा स्वप्न था सब स्वरोजगार हों और आत्मनिर्भर भी भौतिक सुख भोग रहे नैतिकता नष्ट हुई सत्य और सत्य व अहिंसा की रट लगाते हिंसा व असत्य की पगडंडियाँ बनती गईं इतनी बनी, इतनी बढ़ी दर, दर दरारें, दिल की दिवार तक दड़क गई मिसाइलें बना बना, मिसाल कायम कर रहे मानव तो बने नहीं, मानव-बम बन गए प्रवंचना विजय की, पर विजय हुए नहीं यंत्रो का दुरुपयोग कर घट घट घटती गई, मन की देख मानवता आँखों को दिखती हैं कम, आपस की एकता तकनीक की ये त्रासदी, ऐसी की अखियाँ तरस गईं बातें तो होती रहीं, मिलने को अखियाँ बरस गई सुख साधानों से मिली शान्ति, विश्व अशान्ति बढ़ती गई महलों और कारखानों से क्षणिक सुकुन भले मिले लघु व कुटीर उद्योग टूटते गए, दुश्मनी की देख बस्तियां बसती गई ऐसी नहीं थी सोच गांधी की, थी कभी नहीं पर कहते हैं जब तक है साँस लोगों रखो विश्व शान्ति की आश और सोचे सभी है ये क्या …… ? तकनीकी की तरक्की या त्रासदी? सुकून नित्य मिलना तुम्हारा कुछ इस कदर बदली से आतप का चमकना मेघों को मध्य चाँदनी का छिटकना छिटककर पुनः मेघों में सिमटना इस लघु क्षण में तुम्हे जी भर निहारने की चाहत पहचानना समझना तुम्हें अपनाने की चाहत देता है भरपूर सुकून खुद का खुद से सवाल तुम वही हो जिसकी तलाश थी इंतजार था मंद मुस्काता वह रूप तुम्हारा पूनः देता ऐसा सुकूँ मिट गई हो जैसे चिर तृष्णा किसी की सोचता हूँ-काश ! थम जाते वो क्षण तुम्हारा वह ह्रदयस्पर्शी चितवन मैं देखती, देखती बस देखती पाती शाश्वत सुकून अर्चना त्रिपाठी अमृता प्रीतम जी पर अर्चना त्रिपाठी जी का वक्तव्य यहाँ सुनें साहित्यांजलि अमृता प्रीतम यह भी पढ़ें … आलिंगन- कविता व विस्तृत समीक्षा जया आनंद की कविताएँ कैलाश सत्यार्थी जी की कविता -परिंदे और प्रवासी मजदूर आपको अर्चना त्रिपाठी जी की कविताएँ कैसी लगी ?हमें अपनी बहुमूल्य राय से अवश्य अवगत कराएँ | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो atootbandhann.com को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन का फेसबूक पेज लाइक करें |

आलिंगन- कविता व विस्तृत समीक्षा

आलिंगन

  आलिंगन यानि जादू की झप्पी |प्रेम में संपूर्णता से तिरोहित हो जाने का भाव |  एक माँ जब अपने नन्हे शिशु को अपनी छाती से चिपकाती है वहीं से प्रेम की परिभाषा शुरू होती है | अनामिका चक्रवर्ती जी अपनी कविता “आलिंगन”में प्रेम के इसी भाव को रेखांकित करती हैं | पढिए कविता व उस पर स्वामी ध्यान कल्याण जी की विस्तृत समीक्षा   आलिंगन प्रेम में गले लगने और लगाने का सुख आत्मा में प्रवेश करता है और प्रेम को प्रगाढ़ बनाता है। गले लगाने का सबब तुम तब समझोगे जब इस प्यास को अपनी छाती के भारीपन में महसूस करोगे। जैसे एक शिशु की माँ अपने छाती के भारीपन और उसमें उठ रही टीस को महसूस करती है । बच्चे को अपनी छाती से लगाकर केवल बच्चे का पेट नहीं भरती बल्कि खुद उससे कहीं अधिक उस संतुष्टि का अनुभव करती है जो बच्चे की भूख मिटाकर वह अपनी छाती के भारीपन से और उसकी टस- टस हो रही पीड़ा से मुक्ति पाकर आत्म सुख को भी अनुभव करती है। ठीक वैसे ही प्रेम के आलिंगन में प्रेम के वात्सल्य और विश्वास की भावना भी समाहित होती है । शरीर भावनाओं की भाषा की लिपि है जिसमें सम्पूर्ण शब्दकोश और मात्राएँ समाहित हैं और इसको वाचना प्रेम को स्पर्श प्रदान करता है। गले लगने को आभूषण न बनाओं उसे प्रेम हो जाने दो छाती के भारीपन को प्रेम में घुल जाने दो, उसे आलिंगन हो जाने दो उसे आत्मा में प्रवेश कर जाने दो। अनामिका चक्रवर्ती समीक्षा : स्वामी ध्यान कल्याण अनामिका जी का लेखन हमारे सामने एक सम्पूर्ण दृश्य निर्मित कर देता है अनामिका जी का यह लेखन ” आलिंगन ” हमें विशुद्ध प्रेम से हमारा परिचय कराता है। एक माँ के द्वारा अपने बच्चे के प्रति प्रेम को आधार बनाकर लिखी गयी यह कविता जिसे पढ़ते हुए प्रेममय और करुणामय हो जाना स्वाभिक है। आपके शब्दों का चयन हमें आरम्भ से अंत तक कविता में बनाये रखता है । सौभाग्य से मैं पहली बार किसी कविता पर अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहा हूँ अतः इसमें कोई भूल चूक हो तो क्षमा कीजिएगा । जब भी हम किसो को गले लगाते से हैं या कोई हमें गले से लगाता है तो उस समय में वे दोनों ही तिरोहित हो जाते हैं। दोनों के ऊर्जा क्षेत्र मिलकर एक नया ऊर्जा क्षेत्र निर्मित करते हैं और प्रेम सीधे आत्मा मैं प्रवेश कर जाता है, और हमें आत्मिक सुख का अनुभव कराते हुए प्रेम को प्रगाढ़ बनता है। कुछ पंक्तिओं से लेखिका कविता के रुख को सीधा माँ से संबद्धित करती हैं, एक खुली सामजिक चुनौती देते हुए माँ की छाती के भारीपन और उससे उठ रही टीस को महसूस कराती हैं, माँ हम सभी की जीवनदायिनी है और हमारी उत्तपत्ती में माँ की सबसे महत्तवपुर्ण भूमिका है । इसी तरह आगे की पंक्तिओं से लेखिका कविता के रुख को फिर से मोड़ देती हैं और माँ की छाती के भारीपन और उससे उठ रही टीस को आत्मिक सुख और सन्तुष्टि मैं परिवर्तित कराती हैं, और एक जीवन का भरण पोषण कर उस मासूम को भी प्रेम की अनुभूति कराती हैं, और स्वयं माँ को भी भारीपन और टस टस हो रही पीड़ा से मुक्त कराती हैं इन पंक्तिओं से लेखिका हमें कविता के शीर्षक “आलिंगन” पर ले आती हैं, प्रेम के राज्य मैं वे हो प्रवेश पा सकते हैं जो की बच्चों की भांति सरल और सहज हों, सरल और सहज होना विश्वास को भी प्रतिनिधित्व करता है । और इसी भावना से प्रेम में होने वाले आलिंगन को कलमबद्ध करती है। जो शरीर भावनाओं की भाषा लिपि है क्योंकि शरीर तो हमारी भावनावों के वश मैं सदा से ही है भावनाएं जो आदेश करती हैं शरीर उसी अनुसार व्यवहार करता है, और इस लिपि मैं सारा अस्तित्व समाया हुआ है, इसको वाचने मात्र से हम प्रेम को स्पर्श कर लेते हैं, लेखिका वाचन शब्द का उपयोग कर प्रेम को पूजा का स्थान देती हैं आलिंगन की कल्पना मात्र ही हमारी आँखों को बन्द कर, हमारे भारीपन को प्रेम मैं घोल देती है हमें भारीपन से मुक्त कर प्रेम को हमारी आत्मा मैं प्रवेश कराती है, इसीलिए लेखिका कहती हैं गले लगाने तो आभूषण न बनाओ उसे प्रेम हो जाने दो, उसे आलिंगन हो जाने दो, उसे आत्मा मैं प्रवेश करने दो। समीक्षा : स्वामी ध्यान कल्याण यह भी पढ़ें —- नए साल का स्वागत कल्पना मनोरमा की कविताएँ ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह आपको कविता आलिंगन व उसकी समीक्षा कैसी लगी ?अपनी प्रतिक्रिया हमें अवश्य दें |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारी साइट सबस्क्राइब करें | अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें |

नए साल का स्वागत

new year

  2020 साल एक ऐसा रहा जिसने ये सिद्ध किया कि हम चाहें जितनी योजनाएँ बना लें होगा वही जो नियति  ने लिख रखा है |वैसे यह साल इतिहास में एक नकारात्मक साल के रूप में दर्ज है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो सकारात्मक हुआ है | एक कहावत है न .. सुख में ही दुख और दुख में सुख छिपा है | वही हाल इस साल का भी है हमने समय से बहुत कुछ सीख है पहले से बेहतर इंसान बने हैं |उम्मीदों की गठरी 2021 को सौंपते हुए एक कविता नए साल का स्वागत ऐ जाते हुए साल अलविदा, बहुत सताया तुमने, कर दिया हमें  घरों में कैद ग्लोबल विलेज सिमिट गया घर के चाहर दीवारी के अंदर बाँट जोहती रहीं आँखें पुरानी रौनकों की भूल ही गए हम दोस्तों के साथ गले मिलना पीठ पर धौल -धप्पा कभी भी किसी के घर जा कर ठसक कर बैठ जाना दोस्तों की थाली से कुछ भी उठा कर खाना तुम्हीं ने परिचय कराया हमारा कोविड -19 के खौफ से मास्क सेनीटाइजर और दस्तानों से कुछ भी छू कर ,बार -बार हाथ धुलवाने से कितनी  नौकरियां छूटी , कितने स्वाभिमान टूटे , क्लास बंक  कर मिलने की हसरत भरे कितने दिल टूटे पर हर बार की तरह हमारी जिजीविषा भारी पड़ी तुम पर हामने सीख ही लिया बेसिक सुविधाओं में जीना घर के कामों को खुद ही कर लेना कहीं न कहीं हम और टेक्निकल हो गए छोटे कस्बे गाँव भी ऑनलाइन मुखर हो गए हमने  समझ ली है रिश्तों की अहमियत पर्यावरण और हमारी सेहत का गणित समझती हूँ ,तुम आए थे एक शिक्षक की तरह सिखा रहे थे जिंदगी का पाठ और एक अच्छे विधयार्थी की तरह सीख कर हम जा रहे हैं दो हजार इक्कीस में हमने सौंप दी है आशाओं की गठरी इस नए साल को नई समझदारी और ज्ञान से हम अवश्य ही बेहतर बनाएंगे प्रकृति के हाल को आओ दो हजार इक्कीस स्वागत है तुम्हारा नए जोश और नई  उम्मीदों  के साथ हम फिर से तैयार हैं करने को समय से दो -दो हाथ वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा सैंटा तक ये  सन्देशा

सैंटा तक ये  सन्देशा

सैंटा तक ये संदेशा

मान्यता है कि क्रिसमस पर सैंटा अपनी छोटी सी स्लेज में बैठ कर रात भर बच्चों को उनके मर्जी के उपहार बाँटते हैं | आज भी बच्चे रात भर जाग कर सैंटा का इंतजार करते हैं | ऐसी ही बचपन की किसी क्रिसमस में डूबता उतराता मन .. सैंटा तक ये  सन्देशा सैंटा तक ये  सन्देशा कोई जल्दी से पहुंचाना घर-आँगन  फिर से  बचपन वाली  क्रिसमस लाना तकिये  के नीचे रखें फिर से मन्नत भरी  जुराबें खिड़की पर रात भर टकटकी बांधे रहे निगाहें आएगा कोई सुध लेने, भरोसा  फिर से जगाना सैंटा तक ये  सन्देशा..  बिस्किट ,चॉकोलेट टॉफी से कैसे खिल जाता है मन हर अनजान अपरिचित से  कैसे हो जाता अपनापन सर्द  हवा  भी  डिगा  ना पातीं, नन्ही आशा के तारे सबकी अर्जी पूरी करने कोई फिरता द्वारे -द्वारे बड़े  दिन की शुरुआत  बड़े दिल से होती समझाना सैंटा तक ये  सन्देशा..  वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. क्रिसमस पर 15 सर्वश्रेष्ठ विचार सांता का गिफ्ट सेंटा क्लॉज आएंगे जीवन को दिशा देते बाइबल के 21 अनमोल विचार आपको कविता सैंटा तक ये  सन्देशा.. कैसी लागि ?हमें अपनी राय से अवगत कराये |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फेसबूक पेज लाइक करे व साइट को सबस्क्राइब करें |  

कल्पना मनोरमा की कविताएँ

कल्पना मनोरमा

 कल्पना मनोरमा जी एक शिक्षिका हैं और उनकी कविताओं की खास बात यह है कि वो आम जीवन की बात करते हुए कोई न कोई गंभीर शिक्षा भी दे देती हैं | कभी आप उस शिक्षा पर इतराते हैं तो कभी आँसुन भर कर पछताते भी हैं कि पहले ये बात क्यों न समझ पाए | अम्मा पर कविता 90 पार स्त्री के जीवन की इच्छाओं को दर्शाती है तो देर हुई घिर आई साँझ उम्र की संध्या वेल में जड़ों  को तलाशते मन की वापसी है | तो आइए पढ़ें कल्पना मनोरमा  जी की कविताएँ …. कल्पना मनोरमा की कविताएँ नुस्खे उनके पास जरूरी तुनक मिज़ाजी की मत पूछो हँस देते, वे रोते-रोते। इसके-उसके सबके हैं वे बस सच कहने में डरते हैं सम्मुख रहते तने-तने से झुक, बाद चिरौरी करते हैं क्या बोलें क्या रखें छिपाकर रुक जाते वे कहते-कहते।। ठेल सकें तो ठेलें पर्वत वादों की क्या बात कहेंगे कूदो-फाँदो मर्जी हो जो वे तो अपनी गैल चलेंगे नुस्खे उनके पास जरूरी बाँधेंगे वे रुकते-रुकते ।। यारों के हैं यार बड़े वे काम पड़े तो छिप जाते हैं चैन प्राप्त कर लोगे जब तुम मिलने सजधज वे आते हैं नब्बे डिग्री पर सिर उनका मिल सकते हो बचते-बचते।। -कल्पना मनोरमा पुल माटी के टूट रहे पुल माटी के थे उजड़ गये जो तगड़े थे | नई पतंगें लिए हाथ में घूम रहे थे कुछ बच्चे ज्यादा भीड़ उन्हीं की थी, थे जिन पर मांझे कच्चे दौड़ गये कुछ दौड़ें लम्बी छूट गये वे लँगड़े थे || महँगी गेंद नहीं होती है, होता खेल बड़ा मँहगा पाला-पोसा मगन रही माँ नहीं मँगा पायी लहँगा थे अक्षत,हल्दी,कुमकुम सब पैसे के बिन झगड़े थे || छाया-धूप दिखाई गिन-गिन लिए-लिए घूमे गमले आँगन से निकली पगडंडी कभी नहीं बैठे दम ले गैरज़रूरी बने काम सब चाहत वाले बिगड़े थे || -कल्पना मनोरमा  अम्मा नब्बे सीढ़ी उतरी अम्मा मचलन कैसे बची रह गई।। नींबू,आम ,अचार मुरब्बा लाकर रख देती हूँ सब कुछ लेकिन अम्मा कहतीं उनको रोटी का छिलका खाना था दौड़-भाग कर लाती छिलका लाकर जब उनको देती हूँ नमक चाट उठ जातीं,कहतीं हमको तो जामुन खाना था।। जर्जर महल झुकीं महराबें ठनगन कैसे बची रह गई।। गद्दा ,तकिया चादर लेकर बिस्तर कर देती हूँ झुक कर पीठ फेर कर कहतीं अम्मा हमको खटिया पर सोना था गाँव-शहर मझयाये चलकर खटिया डाली उनके आगे बेंत उठा पाटी पर पटका बोलीं तख़्ते पर सोना था बाली, बल की खोई कब से लटकन कैसे बची रह गई।। फगुनाई में गातीं कजरी हँसते हँसते रो पड़ती हैं पूछो यदि क्या बात हो गई अम्मा थोड़ा और बिखरती पाँव दबाती सिर खुजलाती शायद अम्मा कह दें मन की बूढ़ी सतजुल लेकिन बहकर धीरे-धीरे खूब बिसुरती जमी हुईं परतों के भीतर विचलन कैसे बची रह गई? -कल्पना मनोरमा देर हुई घिर आई सांझा उड़ने लगीं हवा में तितली याद हमें हो आई घर की ।। समझ-समझकर जिसकोअपना लीपा -पोता खूब सजाया अपना बनकर रहा न वो भी धक्का दे मन में मुस्काया देर हुई घिर आई साँझा याद हमें हो आई घर की।। चली पालकी छूटी देहरी बिना पता के जीवन रोया अक्षत देहरी बीच धराकर माँ ने अपना हाथ छुड़ाया चटकी डाल उड़ी जब चिड़या याद हमें हो आई घर की।। पता मिला था जिस आँगन का उसने भी ना अंग लगया राजा -राजकुमारों के घर जब सोई तब झटक जगाया तुलसी बौराई जब मन की याद हमें हो आई घर की।। -कल्पना मनोरमा लेकिन पंख बचाना चिड़िया रानी उड़कर जीभर, लाना मीठा दाना लेकिन पंख बचाना।। राजा की अंगनाई, मटका पुराना है प्यास-प्यास जीवन का, अंत हीन गाना है मेघों की छाती में सोता है पानी का लेकिन वह बंधक है फूलमती रानी का लेकर हिम्मत अपने मन में मेधी जल पी आना लेकिन पंख बचाना।। पिंजरे में बैठा जो सुगना सयाना है राम राम कह,खाता मक्की का दाना है जुण्डी की बाली में दुद्धी चबेना है उसपर भी लेकिन पड़े जान देना है आँखों के आगे से चुनकर लाना सच्चा दाना लेकिन पंख बचाना।। -कल्पना मनोरमा यह भी पढ़ें …. यामिनी नयन गुप्ता की कवितायें किरण सिंह की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायेँ मनीषा जैन की कवितायें आपको  “कल्पना मनोरमा की कविताएँ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

कविता सिंह जी की कवितायें

कविता सिंह

कविता लिखी नहीं जाती है …आ जाती है चुपचाप कभी नैनों के कोर से बरसने को, कभी स्मित मुस्कान के बीच सहजने को तो कभी मन की उथल पुथल को कोई व्यवस्थित आकार देने को | जहाँ कहानी में किस्सागोई का महत्व है वहीँ कविता में बस भाव में डूब जाना ही पर्याप्त है | कहानी हो या कविता शिल्पगत प्रयोग बहुत हो रहे हैं होते रहेंगे| कभी कच्ची पगडण्डी पर चलेंगे तो कभी सध कर राजपथ में भी बदलेंगे  पर भाव की स्थिरता ही कविता को जमीन देती है | आज कविता सिंह जी की कुछ ऐसी ही कवितायें लेकर आये हैं जहाँ कहीं मन की उलझन है तो कहीं प्रेम का अवलंबन तो कहीं स्त्री सुलभ कोमल भावनाएं … कविता सिंह जी की कवितायें छटपटाहट अक्सर ही आती है वो रात के सन्नाटे में, झकझोरती है मुझे, जब मैं होती हूँ मीठी सी नींद में, बुन रही होती हूँ कुछ मधुर सपने, तभी कानों में पड़ती है जानी पहचानी एक सिसकी, खोलती नहीं आँखें मैं कहीं चली ना जाए वो, बोलती नहीं वो, सिर्फ सिसकती है, पता है मुझे क्या चाहती है वो मुझसे!! मैं लिखना चाहती हूँ उसे उसकी पीड़ा को, अपनी कविता और कहानियों में, पर हर बार चूक जाती हूँ शब्दों में पिरोने से उसे, सोचती हूँ कुछ नये शब्द गढ़ लूँ जो व्यक्त कर सकें उसे, पर नहीं गढ़ पाती, और अक्सर ही लथपथ होकर उठ बैठती हूँ, आप पूछेंगे कौन है वो, नहीं बता सकती, बस इतना जानती हूँ, जब से खुद से परिचय हुआ तब से जानती हूँ उसे, जानती हूँ उसकी तलाश को, उसकी तकलीफ को भी, मुझसे अछूती नहीं इच्छाएं भी उसकी!! पर लिख पाऊंगी कभी मैं उसकी बेचैनी, उसकी तड़प? या फिर यूँ ही नींद में अचानक सुनकर उसे छटपटाती रहूँगी मैं?? कामवाली_बाई# वो घर-घर जाकर धुलती है जूठे बर्तन रगड़-रगड़कर, जैसे मांज रही हो लिखा भाग्य, या अपने बच्चों का आने वाला कल!! झाड़ती है जालें और बुहारती पोछती है फर्श हौले से, धीरे-धीरे जैसे, रह न जाये उसकी किस्मत के बिखरे टूटे कोई भी कण!! फिंचती है मैले कपड़े पटक-पटककर, धोती है दाग धब्बे, जैसे मिटा रही हो रात में पड़ी मार के निशान,और आत्मा पर पड़े गालियों के दाग!! जानती है वो, चलती रहेगी जिंदगी यूँ ही लगातार, ना मंजेगा भाग्य, ना ही फिकेंगे किस्मत के बिखरे कण और ना ही मिटेंगे तन मन पे पड़े घाव के निशान….. तो फिर झटकारती है कपड़ों के संग सपने भी और टांग देती अलगनी पर…..     ——–#कविता_सिंह#——— मन_गौरैया# तन की कोठरी में चहकती फुदकती मन गौरैया कभी पंख फड़फड़ाती कभी ची- ची करती भर जाती पुलक से नाचती देहरी के भीतर। उड़ना चाहती पंख पसार उन्मुक्त गगन में देखना चाहती ये खूबसूरत संसार…. नहीं पता उसे ये लुभावने संसार के पथरीले धरातल, और छद्म रूप धरे, मन गौरैया के पर कतरने ताक में बैठे शिकारी… हर बार कतरे जाते सुकोमल पंख कभी मर्यादा, कभी प्रेम, कभी संस्कार, कभी परम्परा की कैंची से!!! और फिर! अपने रक्तरंजित परों को फड़फड़ाना भूल वो नन्हीं गौरैया समेट कर अपना वजूद, दुबक जाती अपने भीत आँखो को बन्दकर अपनी अमावस सी अँधेरी कोठरी में। फिर एक किरण आशा की करती उजियारा धीरे -धीरे मन गौरैया खोलती हैं आँखें अपने उग आये नए परों को खोलती अपने दुबके वजूद को ढीला छोड़ दबे पांव शुरू करती फिर फुदकना। पर पंख कतरने का भय नहीं छोड़ता पीछा.. और उस भय से डरी-सहमी गौरया आहिस्ता-आहिस्ता हो जाती है विलुप्त!! अंततः रह जाता है सिर्फ अवशेष अंधेरी कोठरी का!! …………कविता सिंह………… जिन्दगी  जिंदगी तू इतनी उलझी – उलझी सी क्यों है?? कभी आशा कभी निराशा कभी हो निष्क्रिय विचरती सी क्यों है?? कभी खुशी कभी दुःख कभी भावों से विमुक्त रिक्ती सी क्यों है?? कभी शोर कभी सन्नाटा कभी वीरानों में भटकती आत्माओं सी क्यों है?? कभी अपना कभी पराया कभी साहिल की रेत सरीखी उड़ती सी क्यों है?? कभी अतीत कभी भविष्य कभी आज से भी पीछा छुड़ाती सी क्यों है?? कभी सपनों कभी ख्वाहिशों कभी अवसाद में डुबती – उतराती सी क्यों है?? कभी बंधती कभी बांधती कभी हो उन्मुक्त खुशबू बिखेरती सी क्यों है?? कभी ठहरती कभी भागती कभी हर  गति से परे तिरस्कृत सी क्यों है??? बता ना जिंदगी तू इतनी उलझी उलझी सी क्यों है???            ………………..कविता सिंह                “सर्मपण” आओ ना एक बार, भींच लो मुझे उठ रही एक कसक अबूझ – सी रोम – रोम प्रतीक्षारत आकर मुक्त करो ना अपनी नेह से। आओ ना एक बार, ढ़क लो मुझे, जैसे ढ़कता है आसमां अपनी ही धरा को बना दो ना एक नया क्षीतिज । आओ ना एक बार, सांसो की लय से मिला दो अपनी सांसों की लय को प्रीत हमारी नृत्य करे धड़कनों के अनुतान पर रोम  रोम में समा लो ना मुझे। आओ ना एक बार, सुनाई दे ध्वनि शिराओं में प्रवाहित रक्त की, स्वेद की बूंदें भी हो जाएं अमृत जकड़ो ना मेरी देह को। आओ ना एक बार, बन जाते हैं पथिक उस पथ का जिसकी यात्रा अनंत हो, कर दो ना निर्भय विभेदन के भय से। आओ ना एक बार, करो ऐसा यज्ञ जिसमें अनुष्ठान हो मिलन की आहुति हो प्रेम की करो ना हवन जिसमें मंत्र हों समर्पण, समर्पण और अंततः समर्पण।। हां आओ ना एक बार……. —–कविता सिंह हां!  हो तुम     हां!  हो तुम हृदय में , जैसे मृग के कुंडल में स्थित कस्तूरी, आभामंडल सा व्याप्त है तुम्हारे अस्तित्व का गंध, जो जगाए रखता है निरंतर एक प्यास मृगतृष्णा सी, हां मृगतृष्णा सी -…. एक अभिशप्त तृष्णा जो जागृत रखती है अपूर्णता के एहसास को मृत्युपर्यंत ….. हां ये अपूर्णता ही तो परिपूर्ण करती है जीवनचक्र, नहीं होना मुक्त इस एहसास से, बस यूं ही कस्तूरी सा बसे रहो हृदय तल में, जिसकी गंध से अभिभूत एक विचरण जो जीवित रख सके मृत्यु तक…. —-कविता सिंह——–      #अव्यक्त भाव की पीड़ा# ऐसा प्रायः क्यों होता है व्यतिथ हृदय दग्ध चित्त व्यग्र मन शब्दों का अवलम्ब ले उतर जाना चाहते हैं किसी पन्ने पर.. प्रायः ऐसा होता है कि शब्द गायब हो शुन्य में विलीन होते … Read more

अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें

अनामिका

अनामिका चक्रवर्ती आज कविता में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं | यूँ तो वो हर विषय पर कवितायें लिखती हैं पर उनकी कलम से स्त्री का दर्द स्वाभाविक रूप से ज्यादा उभर कर आता है | आज आपके लिए उनकी कुछ ऐसी ही स्त्री विषयक कवितायें लेकर आये हैं |इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार लोकगीत “काहे को ब्याही विदेश” मन में गुंजायमान हो गया | कितनी पीड़ा है स्त्री के जीवन में जब उसे एक आँगन से उखाड़कर दूसरे में रोप दिया जाता है | पर क्या पराये घर में उसे अपनी बात कहने के अधिकार मिल पाते हैं उड़ने को आकाश मिल पाता या स्वप्न देखने को भरपूर नींद | आधुनिक पत्नी में वो कहती हैं .. क्योंकि जमाना बदल गया है औरतों के पास कई कई डिग्रियाँ होती हैं कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ उनके ड्राइंग रूम की शान होती है साक्षरता के वर्क से सजी हुई लड़की पढ़ी लिखीं चाहिए समाज को दिखने के लिए पर उसकी डिग्री ड्राइंग रूम का शो केस बन कर रह जाती हैं |किस तरह से पति गृह में बदलती जाती है एक स्त्री | कहीं पीड़ा की बेचैनी उनसे कहलवाती है कि औरतें तुम मर क्यों नहीं जाती तो कहीं वो क पुरुष कहकर पुरुष को ललकारती हैं | समाज में हाशिये से भी परे धकेली गयीं बदनाम औरतों पर लिखी उनकी रचनायें उनके ह्रदय की संवेदना पक्ष को उजागर करती है | कम से कम स्त्री तो सोचे उनके बारे में …जिनके बारे में ईश्वर  भी नहीं सोचता | अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें आधुनिक_पत्नी जमाना बदल गया है तकनीकी तौर पर गाँवों का भी शहरीकरण हो चुका है कच्ची सड़कों पर सीमेंट की वर्क बिछा दी गई है और सड़क की शुरूआत में टाँग दी गई है एक तख्ती उस सड़क के उदघाटन करने वाले किसी मंत्री का नाम पर क्योंकि जमाना बदल गया है औरतों के पास कई कई डिग्रियाँ होती हैं कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ उनके ड्राइंग रूम की शान होती है साक्षरता के वर्क से सजी हुई तकनीकी तौर पर ये आज की आधुनिक औरतें कामकाजी कहलाती हैं मगर इनका अपनी ही जेबों पर खुद का हक़ नहीं होता इनको महिने भर की कमाई का पूरा पूरा हिसाब देना पड़ता है अपने ही आजाद ख्यालात परिवारों को घर के बजट में ही होता है शामिल उसके खर्चों का भी बजट जबकि उसके कंधे भी ढोते हैं बजट भार की तमाम जिम्मेदारी मगर उन कंधों को देखा जाता है केवल आंचल संभालने की किसी खूंटी की तरह ये औरतें भी गाँव की उन कच्ची सड़कों जैसी होती हैं जिनपर बिछा दी जाती हैं सीमेंट की वर्क जिनका उदघाटन उनके पतिनुमा मंत्री ने किया होता है और परिवार के शिलालेख पर लिखा होता है आधुनिक पत्नी के आधुनिक पति का नाम। बदलाव  उसे लहसुन छीलना आसान लगता था प्याज काटना तो बिलकुल पसंद नहीं था रह-रहकर नहीं धोती थी मुँह अपना जबकि सूख जाता था चेहरे पर ही पसीना आँखें तो रगड़कर पोछना बिलकुल पसंद नहीं था पीते पीते पानी ठसका भी नहीं लगता था न होती थी नाक लाल बीच में चाहे कुछ भी कर ले बातें चुप रहना तो बिलकुल पसंद नहीं था उसे अब प्याज काटना बहुत पसंद है मुँह भी धोती है रह-रहकर पोछती है आँखें रगड़कर पीते पीते पानी लग जाता है अक्सर अब ठसका जबकि चुपचाप ही पीती है नाक भी दिख जाती है लाल वो अब भी बहुत बोलती है अब तो खत्म होने लगा है जल्दी काजल भी पसंद करने लगी है मगर चुप रहना….. वेश्याएँ आखिर कितनी वेश्या ? मोगरे की महक जब मादकता में घुलती है शाम की लाली होंठों पर चढ़ती है वेश्यायें हो जाती है पंक्तियों में तैयार कुछ लाल मद्धम मद्धम रोशनी में थिरकती हैं दिल के घाव पर मुस्कराहट के पर्दे डालकर झटकती है वो जिस्मों के पर्दों को जिसमें झाँक लेना चाहता है हर वो मर्द जिसने कुछ नोटों से अपना जमीर रख दिया हो गिरवी और कुछ चौखटों पर दिखती हैं तोरण सी सजी अपने अपने जिस्म को हवस की थाली में परोसने के लिए लगाती है इत्र वो अपनी कलाइयों में उस पर बाँधती है चूड़ा मोगरे का आँखों के कोने तक खींचती है वो काजल और काजल के पर्दे से झाँकती है औरत होने की असिम चाह जिनके नसीब में सुबह भी काली होती है मगर जिस्म बन कर रह जाती हर बार हवस की थाली लिये मर्द नामर्द हवस के भूखे भेड़िये नहीं होते क्योंकी भेड़िया हवस का भूखा नहीं होता वे होते है किसी के खसम, भाई, दद्दा, बेटा जो घर की औरतों को इज्जत का ठेका देते हैं और बाजारों में अपनी हवस मिटाने का लेते है ठेका फिर भी नहीं मिटती उनकी भूख कभी न देते है औरत को औरत होने का हक़ कभी आस मिटती नहीं, आँखें छलकती नहीं फिर हर बार बनती है वो वेश्या सजती सवँरती है लगाती है इत्र फिर गजरे बालों में बांधती रखती गालो में पान ऐसे श्रृगाँर से रखना चाहती दूर वह अपनी बेटीयों को, जिनके नसो में बहता नाजायज बाप का खून मगर सर पर साया नहीं रहता कभी न होते है जन्मप्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर कोई औरत न होने की पीड़ा लिये जीती है ऐसी माएँ वेश्या की आड़ में तब तक झुर्रियाँ उसकी सुरक्षा का कवच न बन जाए जब तक ।  सच है, स्त्रियाँ नहीं कर सकतीं पुरुष की बराबरी क्या हुआ अगर उसी ने जन्म दिया है पुरुषों को कोई हक़ नहीं उसे अपनी भूख को मिटाने का खाने का आखिरी निवाला भी वह पुरुष की थाली में ही परोस देती है चाहे फिर उसे भूख से समझौता ही क्यों न करना पड़े खाने के साथ साथ अपनी कामनाओं से भी कर लेती है समझौता बेहद जरूरी होता है पुरुष का पेट भरना, मन भरना जब तक कि उसको न दोबारा भूख लगे क्यों हर भूख को मिटाना पुरुष के लिये ही होता है परन्तु भूख तो स्त्रियों की भी उतनी ही होती है पुरुष की संतुष्टि से तृप्त नहीं होतीं स्त्रियाँ मगर वह खुशी से जीती हैं अपनी ज़िन्दगी अपनी असंतुष्टि और अतृप्त पीड़ा को लेकर नहीं करतीं वह बातें इस … Read more

बदल दें

किरण आचार्य

क्या इतिहास को बदला जा सकता है | हालांकि ये ये संभव नहीं है फिर भी कवी मन ऐतिहासिक पात्रों से गुहार लगा उठता है कि वो अपने निर्णयों को बदल दें | खासकर तब जब उनके निर्णय की अग्नि में स्त्री का अतीत और वर्तमान झुलस रहा हो | क्योंकि इतिहास की कोख से ही भविष्य जन्म लेता है | तो क्या संभव है कि हम उन निर्णयों को बदल दें | आइये पढ़ें किरण आचे जी की खूबसूरत कविता … बदल दें  समुद्र तट पर अग्नि परीक्षा के लिए चढ़ रही चिता पर वह समुद्र भी नहीं लाता कोई लहर चिता बुझाने को मौन सब नहीं करता कोई विरोध वह स्वयं भी नहीं रूको देवी …… देवी की तरह नहीं मनुष्य की भाँति करो व्यवहार कहो ,तट पर खड़े हर एक बुद्धिमना से मेरे हृदय के सत्य को ठुकरा कर ले रहे हो देह की परीक्षा हृदय तो जल चुका अविश्वास के ताप में पलट जाओ उतर आओ उल्टे पैर नहीं तो युगों तक हर एक नारी से माँगी जाएँगी ये परीक्षा तुम्हारा नाम ले कर कड़ा करो मन को कहो कि मेरी पवित्रता है मेरे शब्दों में नहीं जो हूँ स्वीकार तो वन में जा रहूँगी वैसे भी अंत में है यही मेरी नियति भरी उस सभा में थामती तुम चीर अपना हर किसी से माँगती न्याय की दुहाई किससे गूँगों की भीड़ से रूको देवी जो खींचते घसीटते तुम्हें लाए हैं निर्ल्लजता से तनिक वो देखो खड्ग उठा कर काट दो वो हाथ और फिर ग्रीवा रोक दो ये अट्टाहस सिंहनी बन होना है इसी क्षण हो जाए महाभारत क्यों वर्षों तक उलझे केश तेरे करे लहू स्नान  की प्रतीक्षा बढ़ो आगे बढ़ो नहीं तो युगों तक बना रहेगा इनका रहेगा पशु व्यवहार क्या पता उन निर्णयों की गूँज नारी को बल दे यूँ पूछ रहा है मन कहाँ बुना जाता है समय का ताना बाना कहाँ रखा जाता है अतीत के पन्नों को पात्रों को वहीं ले चलो उस काल की कुछ घटनाओं को बदल दें २ एक इच्छा अनकही सी आज फिर गली से निकला ऊन की फेरी वाला सुहानें रंगों के गठ्ठर से चुन ली है मैनें कुछ रंगों की लच्छियाँ एक रंग वो भी तुम्हारी पसंद का तुम पर खूब फबता है जो बैठ कर धूप में पड़ोसन से बतियाते हुए भी तुम्हारे विचारों में रत अपने घुटनों पर टिका हल्के हाथ से हथेली पर लपेट हुनर से अपनी हथेलियों की गरमी देकर बना लिए हैं गोले फंदे फंदे में बुन दिया नेह तुम्हारी पसंद के रंग का स्वेटर टोकरी में मेरी पसंद के रंग का गोला पड़ा बाट देखता है अपनी बारी की और मैं सोचती हूँ अपनी ही पसंद का क्या बुनूँ कोई नहीं रोकेगा कोई कुछ नहीं कहेगा पर खुद के लिए ही खुद ही,,, एक हिचक सी पर मन करता है कभी तो कोई बुने मेरी पसंद के रंग के गोले लो फिर डाल दिए है नए रंग के फंदे टोकरी में सबसे नीचे अब भी पड़ा हैं मेरी पसंद के रंग का गोला लेखिका किरन आचार्य आक्समिक उद्घोषक आकाशवाणी चित्तौड़गढ मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “बदल दें “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-poem, hindi poem, history, sita, draupdi