पन्द्रह अगस्त

15 अगस्त पर एक खूबसूरत कविता —रंगनाथ द्विवेदी अपनो के ही हाथो——— सरसैंया पे पीड़ाओ के तीर से विंधा, भीष्म सा पड़ा है——पन्द्रह अगस्त। सड़को पे द्रोपदी के रेप के दृश्यो ने, फिर भर दी है आजाद देश के उन तमाम शहीदो की आँखे, और उनकी रुह के सामने! शर्म से खड़ा है—-पन्द्रह अगस्त। बहुत बिरान है मजा़रे कही मेला नही लगता, ये सच है——————- कि हम शहिदो की शहादत के दगाबाज है, फिर भी एै,रंग————- ये लहराते तिरंगे कह रहे, कि हमारी तुम्हारी सोच से भी कही ज्यादा, विशाल और बड़ा है—–पन्द्रह अगस्त। यह भी पढ़ें ….. क्या है स्वतंत्रता का सही अर्थ भारत बनेगा फिर से विश्व गुरु आइये स्वतंत्रता दिवस पर संकल्प ले नए भारत के निर्माण का स्वतंत्रता दिवस पर आधी आबादी जाने अपने अधिकार भावनात्मक गुलामी भी गुलामी ही है स्वतंत्रता दिवस पर विशेष : मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के मेरा भारत महान ~जय हिन्द  Attachments area

अस्पताल गोरखपुर

गोरखपुर के उन बह रहे तमाम आँसुओ को समर्पित एक पीड़ा——- चालीस बच्चो की मौत पे भी शिकन नही——- बड़ी मोटी है तेरी सियासी खाल गोरखपुर। आॅक्सीजन की सप्लाई रुक गई, अभी तलक आजाद है सी.ऐम.ओ.(C.M.O.), मुझे तो शक है कि, इन बच्चो की मौत के है——— यही दलाल गोरखपुर। योगी यही के है इसी से मिट्टी डल रही है, लेकिन जल गई है धुनी—— अब आयेंगे काग्रेंस,सपा,बसपा के लोग, और बजायेंगे कुछ दिन नकली संवेदना लिये—– अपने-अपने सियासी गाल गोरखपुर। लेकिन वे आँखे भरी रहेंगी जिन आँखो में अभी तलक, अपने बच्चे के खेलने, और कानो को सुनने की किलकारियाँ थी, शायद कभी नही भरेंगे, उन बच्चो के खोने के ये घाव, रुह कांप जायेगी इनकी ता उम्र, और हमेशा इनकी जेहन मे रहेगा—— एक दर्द बनके तेरा अस्पताल गोरखपुर। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर–प्रदेश)।

चोटी काटने वाले से दुखी हूँ

रंगनाथ द्विवेदी औरतो की कट रही चोटी पे एक लेखकीय सहानुभूति कुछ औरतो के चोटी कटने की खबर सुन—— मेरी लुगाई भी सदमे मे है। वे सोये मे भी उठ जा रही बार-बार, फिर चोटी टटोल सो जा रही, अभी कल ही तो उसने——- एक तांत्रिक के बताये कुछ सामान मंगवा के, अपनी पुरी चोटी का तीन चक्कर लगा, घर मे सुलगाई अंगीठी मे, काला तील,लोबान,कपुर सब डाल कर, आँख मुद अपनी चोटी के रक्षार्थ, उस काले-कलुटे तांत्रिक के बताये, उट-पटांग सा श्लोक पढ़, फिर अपनी चोटी मे——- 15 से 20 मिनट तक नींबू और हरी मिर्च टांग, अनमने मन से एक कप चाय लाती है। उसके इस हाल पे हँसी और तरस दोनो आ रहा, क्या करु पति हूँ————– इसलिये मै उस चोटी काटने वाले से दुःखी हूँ। @@@रचयिता——रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

शिखरिणी छंद

शिखरिणी छंद—रक्षाबंधन पर डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई देहरादून, उत्तराखंड 1– रेशम सूत्र बनता नेह डोर संबंध गूढ़। —— 2– भाई बहन प्रफुल्लित हैं दोनों राखी पहन। —– 3– शीश चंदन सजती हाथ राखी भाई मगन। —– 4– सजाए थाली रोली चावल राखी बैठी बहना। —– 5– चाहे बहना रहे समृद्धि प्रेम भाई अँगना। —— 6– रहे मायका बना सदा भाई से चाहे बहना। —— 7– हों भाई भाभी बच्चे भी साथ तभी रक्षाबंधन। ——- 8– मिटें दूरियाँ रक्षा सूत्र पहुँचे लेकर नेह। —— 9– बदला रूप खिले रक्षासूत्र ले नई पहचान। —— 10– न हो सीमित संबंध बनें सब स्नेह बँधन। —— 11– भुलाएँ सब आपसी वैमनस्य मनाएँ राखी। —– 12– अभयदान दें प्रकृति को बाँध रेशम सूत्र। —– 13– रक्षा संकल्प लेकर सभी जन हों कटिबद्ध। ——– 14– कहे त्योहार रखना सदा याद प्रेम अपार। —— 15— राखी का मोल भावनाएँ जिसमें भरी अमोल। ——————————

रेप के घाव

@@@रचयिता—-रंगनाथ दुबे। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर। थाने पे——– एक गरीब की बिटिया, अपनी सलवार उतारे——— जगह-जगह हुये रेप के घाव दिखा रही है। दरोगा———- बार-बार थप थपाके देख रहा, दाँत और नाखून चुभे——— उरोजो को बार-बार। लड़की सिहर उठी—उसी रेप के छुअन कासा, ऐहसास हुआ उसे! वे समझ गई आँख भर-भरा आई उसकी, कि अब एक रात और चीखेगी थाने पे, फिर हरे हो जायेंगे————— ना भरने के लिये उसकी उरोजो पे ताजिंदगी, एै,रंग———–ये रेप के घाव।

आया राखी का त्यौहार – भाई बहन पर कवितायें

बहन की राखी  ईमेल एसएमएस की दुनिया में डाकिये ने पकड़ाया लिफाफा 22 रुपए के स्टेम्प से सुसज्जित भेजा गया था रजिस्टर्ड पोस्ट पते के जगह, जैसे ही दिखी वही पुरानी घिसी पिटी लिखावट जग गए, एक दम से एहसास सामने आ गए, सहेजे हुए दृश्य वो झगड़ा, बकबक, मारपीट सब साथ ही दिखा, प्यार के छौंक से सना वो मनभावन, अलबेला चेहरा उसकी वो छोटी सी चोटी, उसमे लगा काला क्लिप जो होती थी, मेरे हाथों कभी एक दम से आ गया सामने उसकी फ्रॉक, उसका सैंडल ढाई सौ ग्राम पाउडर से पूता चेहरा खूबसूरत दिखने की ललक एक सुरीली पंक्ति भी कानों में गूंजी “भैया! खूबसूरत हूँ न मैं??” हाँ! समझ गया था, लिफाफा में था मेरे नकचढ़ी बहना का भेजा हुआ रेशमी धागे का बंधन था साथ में, रोली व चन्दन थी चिट्ठी….. था जिसमे निवेदन “भैया! भाभी से ही बँधवा लेना ! मिठाई भी मँगवा लेना !!” हाँ! ये भी पता चल चुका था आने वाला है रक्षा बंधन आखिर भाई-बहन का प्यारा रिश्ता दिख रहा था लिफाफे में …… सिमटा हुआ………..!!! मुकेश कुमार सिन्हा  चिट्ठी भाई के नाम*************** भैया  पिछले रक्षाबंधन पर  जैसे ही मैंने नैहर की  चौकठ पर  रखा पांव बड़े नेह से भौजाई लिए खड़ी थी हांथो में थाल सजाकर जुड़ा हमारा  हॄदय खुशी से आया नयन भर हमने दिया आशीष  मन भर सजा रहे भाई का आंगन भरा रहे भाभी का आँचल रहे अखंड सौभाग्य हमारा नैहर रहे आबाद भैया तुम रखना भाभी का खयाल कभी मत होने देना उदास भाभी तेरे घर की लक्ष्मी है और तुम हो घर के सम्राट माँ भी हैं तेरे साथ  उन्हें भी देना मान  सम्मान  सिर्फ़ तुमसे है  इतना आस  पापा का बढ़ाना  नाम  ********************* ©कॉपीराइट किरण सिंह ‎_भैया_लौटे_हैँ‬ भैया लौटे हैँ लौटी हैँ माँ की आँखेँ पिता की आवाज मेँ लौटा है वजन बच्चोँ की चहक लौटी है भाभी के होँठो पर लौट आई लाली बहुत दिन बाद हमारी रसोई मेँ लौटी खुशबू आँगन मेँ लौटा है परिवार नया सूट पाकर मैँ क्योँ न खुश होऊँ बहन हूँ शहर से मेरे भैया लौटे हैँ.! _गौरव पाण्डेय ‘रक्षा -बंधन ; एक भावान्जलि  ” एक थी , छोटी सी अल्हड़  मासूम बहना। …  छोड़ आई अपना बचपन ,तेरे अँगना , बारिश की बूंदो सी  पावन स्मृतियाँ ,  नादाँ आँखे उसकी  उन्मुक्त  भोली हँसी, …. क्या भैया !   तुमने उसे देखा है कही ,………… ! छोटी सी फ्राक की छोटी सी जेब में , पांच पैसे की टाफी की छीना -छपटी  में , मुँह फूलती उसकी ,शैतानी हरकते  स्लेट के  अ आ  के  बीच ,मीठी शरारते  क्या ?… तुम उसे याद करते हो कभी ,…. ! दिनभर, अपनी कानी गुड़िया संग खेलती , माँ की गोद  में पालथी मारे बैठती , ,जहा दो चोटियों संग माँ गूंथती , हिदायतों भरी दुनियादारी की बातें , बोलो भैया ,!वो मंजर भूल तो नहीं जाओगे कभी.… ,! आज तेरे उसी घर – आँगन में, ठहर जाये ,वैसी ही मुस्कानों की कतारे , हंसी -ठहाकों की लम्बी महफिले , हम भाई-बहनो के यादो से भींगी बातें , और ख़त्म ना हो खुशियो की ये सौगाते कभी भी,…  ! राखी के सतरंगे धागो में गूँथे हुए अरमान , तुमने दिए ,मेरे सपनो को अनोखे रंग , और ख्वाईशों को दिए सुनहरे पंख , और अब सफेद होते बालो के संग , स्नेह की रंगत कम न होने देना कभी.… ! माथे पर तिलक सजाकर ,नेह डोर बांधकर, भैया मेरे ,राखी के बंधन को निभाना , छोटी बहन को ना भुलाना , इस बिसरे गीत के संग , अपनी आँखे नम न करना कभी   …. !  आँखों में , मीठी यादो में बसाये रखना, इस पगली बहना का पगला सा प्यार  , यही याद दिलाने आता है एक दिन , बूंदो से भींगा यह प्यारा  त्यौहार, बस ,भैया तुम मुझे भूला ना देना, कभी। ….  ”’ ई. अर्चना नायडू  जबलपुर  पक्के रंग  कितनी खुश थी मैं जब माँ ने बताया था की परी रानी आधी रात कोदे गयी है मुझे एकअनोखा उपहारकोमल सा नाजुक साजिसे अपनी नन्ही गोद में लिटाघंटों खेलतीहाँ ! भैया तुम मेरी गुडियाँ में तब्दील हो गए कब वो नन्हे -नन्हे हाँथ-पाँव बढ़ने लगे शुरू हो गया संग खेलना मेज के नीचे घर का बनाना मिटटी के बर्तन में खाना रूठना -मानना तकिये के नीचे टॉफ़ी छिपाना हाँ ! भैया तुम मेरे दोस्त में तब्दील हो गए जब बढ़ गया तुम्हारा कद मेरे कद से तो हो गए जैसे बड़े उम्र में सजग -सतर्क रखने लगे मेरा ख़याल कॉलेज ले जाना, लाना मेरा हाथ बटाना मेरी छोटी -छोटी खुशियों का ध्यान हां भैया ! तुम मेरे संरक्षक में तब्दील हो गए और उम्र के इस दौर में जब मेरे दर्द पर भर आती है तुम्हारी आँखें निभाते हो जिम्मेदारियाँ फेरते हो सर पर स्नेहिल हाँथ मौन ही कह जाते हो चिंता मत करो” मैं हूँ तुम्हारे साथ “ कब ! पता नहीं कब ? मेरे भाई ! तुम मेरे पिता में तब्दील हो गए आज तुमको भेजते हुए राखी बार -बार कह रहा है मन मेरी गुड़ियाँ , मेरे भाई , संरक्षक , मेरे पिता बड़ा अनमोल है अपना यह रिश्ता क्योंकि कुछ धागों के रंग कभी कच्चे नहीं होते समय बीतने के साथ साल दर साल यह और मजबूत और गहरे और पक्के होते जाते हैं :वंदना बाजपेयी

नंदा पाण्डेय की कवितायें

 तुम ही हो ———————————————आज फिर तुम्हारी यादों नेमेरे मन के दरवाजे परदस्तक दी है…….. फिर उदास हो गई ये शाम……क्या कहुँ तुमको…….अजीब असमंजस की सीस्थिति है…….एक तरफ “दिल”मुझे तुम्हारी ओर खींचता है … तोदूसरी तरफ किसी कीनजर में न आ जाऊं का डरक़दमों की बेड़ियां बन  मुझेरोक लेता है…..!!!न तो एक झलकदेख पाने के लोभ कासंवरण किया जा सकता है….!!!और न ही लोक-लाज के भयको ही त्यागने का साहस…..!!मुद्दत हुईन भुला गया वो चेहरादोष मेरा हैक्या करूँ मन कोबेखुदी में जो कुछ भी लिखाबसबब मैंने…….वास्ता तुमसे ही हैक्या पता है तुमको……?????खुद भी न कभीखुद को समझालगा बस तुम ही हो “”खुदा”””तुम ही हो खुदा…….!!!!!                                                 आखिर क्या है ये———————————————-कितनी भी दशा और दिशाएंतय कर लूँये “मन” तुम्हारे हीइर्द-गिर्द घूमता है…..कितनी भी खाइयाँक्युं न बना लूँहमारे बीच फिर भीये “मन”गोल-गोल चक्करलगाते हुएतुम तक पहुँच ही जाता है……आखिर क्या हैतुम्हारा और मेरा रिश्ता……????प्यार..???? , स्नेह…????, दोस्ती …???या इन सबसे कहीं ऊपरएक दूसरे को जानने समझने की इच्छा…..???क्या रिश्ते को नाम देना जरुरी है????रिश्ते तो “मन” के होते हैंसिर्फ “मन ” के …….!!!!!                                                 हम – तुम———————————बहुत महीन था वह बंधनबंधे थे जिसमें“हम-तुम”न जाने कब….. क्यों…. और कैसे …????पड़ गई उनमें छोटी-छोटी गांठे…..पता ही नहीं चलासमझ ही न पाये “हम -तुम”जब घेरती हैं पुरानी यादेंबहुत दर्द देती हैं वो यादेंरिसती रहती है धीरे-धीरेचलो आज मिलकर खोलते हैंउन सारी गांठों को…..!!!!सुलझाते हैं उन धागों कोजिसके खूबसूरत बंधन से बंधे थे “हम-तुम”गांठों से मुक्त करते हैंअपने बीच के बंधन कोपिरोते हैं उसमें अतीत केखुबसूरत फूल……और खो जाते हैंउसकी खुशबु में  “हम-तुम”                                               संबंध          ************** तुम्हारा मेरा “संबंध”….माना की भूल जाना चाहिए था,मुझे अब तक……! पर लगता है एक शून्य अब भी है,जो बिना कहे सुने पल रहा हैहमारे बीच……! आज वही शून्य मुझसे कह रहा है,कीवह सब यदि मुझे भुला नहीं ,तोभूल जाना चाहिए अवश्यएकदम अभी, आज ही, इसी वक़्त.. पर उन यादों को मिटाना क्या आसान है….???जो नागफनी की तरहमेरे “मन” के हर कमरे मेंफर्श से लेकर दीवारों तक फैले हैं…जिसका दंश रह-रह कर शूल साचुभता रहता है…!! याद है…?तुम हमेशा कहा करते थे नागफनी तो सदाबहार होती है…!————————–शायद इसलिए सदाबहार की तरह छाये रहते हो मेरे मन- मस्तिष्क पर ..। -नंदा पाण्डेयरांची (झारखंड)

वेदना का पक्ष

संजय वर्मा”दृष्टी” स्त्री की उत्पीड़न की  आवाज टकराती पहाड़ो पर और आवाज लौट  आती साँझ की तरह  नव कोपले वसंत मूक बना  कोयल फिजूल मीठी  राग अलापे  ढलता सूरज मुँह छुपाता  उत्पीड़न कौन  रोके  मौन  हुए बादल  चुप सी हवाएँ  नदियों व्  मेड़ो के पत्थर  हुए मौन   जैसे उन्हें साँप  सूंघ गया  झड़ी पत्तियाँ मानो  रो रही  पहाड़ और जंगल कटते गए  विकास की राह बदली  किन्तु उत्पीड़न की आवाजे  कम नहीं हुई स्त्री के पक्ष में  वासन्तिक  छटा में टेसू को  मानों आ रहा हो  गुस्सा  वो सुर्ख लाल आँखे दिखा  उत्पीडन  के उन्मूलन हेतू  रख रहा हो दुनिया के समक्ष  वेदना का पक्ष  संजय वर्मा”दृष्टी” मनावर जिला धार (म प्र )

महबूब के मेंहदी की रस्म है

रोऊँगा नही मै——————- आज मेरी महबूब के मेंहदी की रस्म है। भीच लुंगा होंठ को दाँतो से कुचलकर, एै खुदा चढ़े- —————— उसकी हथेली पे इतनी सुर्ख मेंहदी, कि सारा शहर कहे—————– किसी भी हथेली पे आज तलक इतनी मेंहदी नही चढ़ी। रोऊँगा नही मै—————- आज मेरी महबूब के मेंहदी की रस्म है। वे शरमा के हथेली से जब ढ़के चेहरा, एै आह!मेरी उसको न देना बददुआ, वे महबूब थी मेरी और महबूब रहेगी, मै मरके भी दुआ दुंगा——– महबूब को अपने। एै,रंग——-रोऊँगा नही मै आज मेरी महबूब के मेंहदी की रस्म है।

#NaturalSelfi ~ सुंदरता की दुकान या अवसाद का सामान

                                                   #NaturalSelfi,ये मात्र एक शब्द नहीं एक अभियान हैं | पिछले कुछ दिनों से इस हैशटैग से महिलाएं  फेसबुक पर अपनी तसवीर पोस्ट कर रहीं  हैं| यह मुहीम बाजारवाद के खिलाफ है |  इस मुहिम की शुरुआत की है  गीता यथार्थ यादव ने |   बाजार जिस तरह सौंदर्यबोध को प्रचारित कर रहा है और मेकअप प्रोडक्ट बेचे जा रहे हैं, उसके खिलाफ यह महिलाओं को ऐलान है कि वे बिना मेकअप के भी सुंदर हैं |                             सुन्दरता के इस चक्रव्यू में महिलाओं को फंसाने का काम सदियों से चला आ रहा है |आज भी ये शोध का विषय है की क्लियोपेट्रा  किससे  नहाती थी | आज भी सांवली लड़की पैदा हिते ही माता – पिता के चेहरे उतर जाते हैं की उसका ब्याह कैसे करेंगे | योग्य वर कैसे मिलेगा ? बचपन से ही उसका आत्मसम्मान बुरी तरह कुचल दिया जाता है | और शुरू होता है लड़की को स्त्री बनाने की साजिश | उसमें मुख्य भूमिका अदा करता है उसका सौन्दर्य |  यह माना जाता रहा है की सुन्दरता स्त्री के अन्य गुणों के ऊपर है या कम से कम साथ तो है ही | दुर्भाग्य है की स्त्री शिक्षा व् जागरूकता के साथ – साथ  एक नया कांसेप्ट आया ब्यूटी विद ब्रेन का | बाजारवाद  ने इसको हवा दे दी | मतलब स्त्री ब्रेनी है तो भी  उसके ऊपर ख़ूबसूरती बनाये रखने का दवाब भी है | ये दवाब है खुद को नकारने का , बाज़ार के मानकों में फिट होने का , ऐसी स्किन , ऐसे हेयर और ऐसी फिगर …. इन सब  के बीच अपना करियर , अपनी प्रतिभा अपना हुनर बचाए रखने की जद्दोजहद |                                           एक तरफ हम सुखी जीवन जीने के लिए self love को प्रचारित करते हैं | वहीँ मेकअप कम्पनियां स्त्री को खुद को कमतर समझने और हीन भावना भरने की जुगत में लगी  रहती हैं |  ये आई ब्रो के बाल तोड़ने से पहले आत्मविश्वास तोड़ने का काम करती हैं | ये ख़ुशी की बात हैं की आज महिलाएं खुद आगे आई हैं | उन्होंने न सिर्फ इस जाल को समझा है बल्कि उसे नकारना भी शुरू किया है |                                                                      बहुत पहले  इसी विषय पर कविता लिखी थी … ” सुन्दरता की दु कान या अवसाद का सामान ” | आज ये #NaturalSelfi अभियान उसी दर्द का मुंहतोड़ जवाब है |  देश की राजधानी में  हर छोटी -बड़ी गली नुक्कड़ में  कुकुरमुत्ते की तरह उगी हुई हैं  सौंदर्य  की दुकाने जो सुंदरता के पैकेट में  बेचती हैं अवसाद का सामान  असंतोष तुलना और हीनभावना  यहाँ आदमकद शीशों के सामने  बैठी मिल ही जाती है  सात से सत्तर साल की  स्नोवाइट की अम्माएं  पल -प्रतिपल पूँछती  बता मेरे शीशे “सबसे सुन्दर कौन “ शीशे के मुँह खोलने से पूर्व  आ जाती हैं परिचारिकाएं  कहती हैं मुस्कुराते हुए  ठहरो……….  मैं बनाती हूँ तुम्हें “सबसे सुन्दर “ भौहों को तराशती  चेहरे नाक ठोढ़ी  की मसाज करती  पिलाती जाती हैं घुट्टी  धीरे -धीरे  देह के आकर्षण की  कितना आवश्यक है सुन्दर दिखना  कि खूबसूरत चेहरा है  एक चुम्बक  प्रेम की पहली पायदान  कमजोर -सबल शिक्षित -अशिक्षित महिलाओं के मन में  गुथने  लगते हैं  प्रेम के दैहिक मापदंड  बिकने लगते हैं  महंगे “सौंदर्य प्रसाधन “ पार्लर मायाजाल में जकड़ी मासूम  महिलाएं  दे बैठती हैं वरीयता  दैहिक सुंदरता  को  आत्मिक और बौद्धिक सुंदरता के ऊपर नहीं रह जाता चर्चा का केंद्र  मंगल अभियान  प्रधानमंत्री का भाषण  कश्मीर की बाढ़  रह जाती हैं चर्चा  सिमिट कर मात्र  तेरी कमर २८ तो मेरी ३२ कैसे ? आती है सहज ईर्ष्या  दौड़ती ट्रेड मिल पर  गिनती एक -एक कैलोरी  चेहरे का एक पिम्पल कभी नाक का आकर  कभी कोई तिल   तोड़ कर रख देता है सारा आत्मविश्वास जिंदगी सिमट कर रह जाती है देह के मापदंडों में  खरीदती हैं नया प्रसाधन  साथ में आ जाता है नया अवसाद  वो पांच साल की गुड़ियाँ  खेलती है बार्बी डॉल से  जो मासूम बच्चों के मन में गढ़ती है  देह के सौंदर्य की परिभाषा  आह !खो गया है गुड़ियाँ का  बचपन  इसीलिए तो बड़ी अदा से  तरण-ताल में  उतरती है “टू पीस “में  शायद दिखना चाहती है जवान उम्र से पहले  क्योंकि नन्ही उम्र जान गयी है व्यर्थ है बच्चा दिखना   जवान ही हैं आकर्षण का केंद्र  अ आ इ  ई सीखने से पहले  सीखा दी  है माँ ने दैहिक आकर्षण की परिभाषा  सोलह से बीस साल की चंचला ,स्वीटी ,पिंकी  इस उम्र में कैरियर की जगह  करती है फ़िक्र “जीरो फिगर की “ इतनी इस कदर कि  कंकाल मात्र देह  लगने लगती है वज़नी  शिकार हैं “एनोरोक्ज़िआ नर्वोसा” की  बैठा लिया है गणित खाने व् वज़न के बीच  खाना कहते ही करती हैं उलटी  जैसे पाप  है अन्न खाना  सूखी देह में पड़ गयी है झुर्रियाँ  बंद हो गया है मासिक चक्र  दिमाग में बेवजह की उलझन  बस एक ही भय  कहीं वज़न न बढ़ जाये उनके लिए   कृशकाय होना ही सुंदरता है  एक बड़े मॉल में  आँखों में आंसूं भर एक महिला  परिचारिका से करती है बहस कि  ट्रायल रूम में  अन्तःवस्त्रों की फिटिंग देखने जाने दिया जाये  उसके पति को  बड़े घरों की हंसती -मुस्कुराती दिखती यह महिलाएं  भयंकर अवसाद ग्रस्त हैं  जिन्होंने देह की सुंदरता को ही प्रेम का आधार मान लिया है  दिन -रात डरती  हैं  सौंदर्य के ढलने से  अस्वीकृत होने से  युवावस्था के  खोने के भय से  प्रौढ़ महिलाएं  उम्र से कम दिखने के असफल प्रयास में डालती हैं  एफ बी पर सुबह -शाम   अनेकों मुद्राओं में फोटो   झूठी वाह -वाह और लाइक  और पीछे हँसते लोग  कहाँ पढ़ पाते हैं उनका अवसाद  की बाज़ार के पढ़ाने पर  सौंदर्य को ही माना था अब तक थाती  अब रिक्त हांथों में भर रहा है   दुःख और अवसाद सौंदर्य के बाज़ार वाद … Read more