अगर सावन न आइ (भोजपुरी )

रंगनाथ द्विवेदी हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान——- अगर सावन न आई। रहि-रहि के हुक उठे छतियाँ मे दुनौव, लागत हऊ निकल जाई बिरहा में प्रान——- अगर सावन न आई। हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान—— अगर सावन न आई। ऊ निरमोही का जाने कि कईसे रहत थौ, बिस्तर क पीड़ा ई कईसे सहत थौ, टड़पत थौ सगरौ उमर क मछरियाँ, बाहर के घेरे न बरसे सखी! जबले पिया से हमरे मिलन के न घेरे बदरियाँ, तब ले न हरियर होये सखी! ई उमरियाँ क धान, अगर सावन न आई। हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान—– अगर सावन न आई। हे!सखी का होई रुपिया अऊ दौलात, का होई गहना, ई है सब रही कमायल-धयामल, बस बीत जाई हमन के उमरियाँ——- बाहर कई देईहै दुनऊ परानी के ले लेईही बेटवा, मरी-मरी बनावल ई सारा मकान, फिर बाहर खूब बरसे——— लेकिन न भीगे तब तोहरे चहले ई शरिरियाँ बुढ़ान, हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान——- अगर सावन न आई।

बरसने की जरुरत न पड़े

रंगनाथ द्विवेदी या खुदा————– उसके रोने से धुल जाये मेरी लाश इतनी, कि बदलियो को घिर-घिर के बरसने की जरुरत न पड़े। वे तड़पे इतना जितना ना तड़पी थी मेरे जीते, ताकि मेरी लाश पे किसी गैर के तड़पने की जरुरत न पड़े। या खुदा———- वे मेहंदी और चुड़ियो से इतनी रुठ जाये, कि शहर मे उसको बन-सँवर के निकलने की जरुरत न पड़े। एै हवा उड़ा ला उसके सीने से दुपट्टे को, और ढक दे मेरी लाश को———— ताकि मेरी लाश पे किसी गैर के कफ़न की जरुरत न पड़े। या खुदा———— वे जला के रखे एक चराग हर रात उस पत्थर पे, जहाँ बैठते थे हम संग उसके, ताकि एै”रंग”——– मेरी रुह को भटकने की जरुरत न पड़े। या खुदा——— उसके रोने से धुल जाये मेरी लाश इतनी, कि बदलियो को घिर-घिर के बरसने की जरुरत न पड़े। रचयिता——रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं ( हास्य – व्यंग कविता )

रंगनाथ द्विवेदी अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं। आ गये अच्छे दिन——— मै इलू-इलू गा रहा हूं, अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं। मार्केट से सभी सब्ज़ियाँ तो ले ली, पर टमाटर को लेने मे लग गये घंटो, क्योंकि सभी एक से भाव मे बेच रहे थे, यहाँ तलक कि टमाटर को बिना मतलब छुने से रोक रहे थे, थक-हार एक ठेले वाले को पटा रहा हूं—— बड़ी मुश्किल से घर टमाटर ला रहा हूं, अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं। बीबी भी सबसे पहले सब्ज़ियो के झोले से, टमाटर टटोल कर निकालती है, और पुछती है क्या भाव पाये, कैसे कहु कि हे!भाग्यवान तुम अपने टमाटर खाने का शौक, काश सस्ते होने तलक टाल पाती, लेकिन नही,तुम नही टाल पाओगी, तुम्हारे इसी न टालने के नाते, अपनी एक महिने की सेलरी का तीस पर्सेंट खर्च कर, बस मै तुम्हारे लिये टमाटर ला रहा हूं। आ गये अच्छे दिन——- मै इलू-इलू गा रहा हूं, अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

छुट्टी का दिन

नीलम गुप्ता आज छुट्टी का दिन है ……… आज  बच्चे देर से उठेंगे तय नहीं है कब नहायेंगे नहायेंगे भी या नहीं घर भर में फ़ैल जायेंगी किताबें , अखबार के पन्ने , मोज़े , कपडे , यहाँ वहां इधर – उधर सारा दिन चलेगा  टीवी , मोबाइल और कम्प्यूटर देखी  जायेगी फिल्म , होगी चैट खेले जायेंगे वीडियो गेम आज छुट्टी का दिन जो है … आज साहब उठेंगे देर से बिस्तर पर ही पियेंगे चाय फिर घंटो पढेंगे अखबार जमेगी दोस्तों की महफ़िल लगेंगे कहकहे करेंगे तफरी बुलायेंगे उसे पास ना नुकुर पर हवा में उछाल देंगे वही पुराना जुमला ” आखिर तुम सारा दिन करती क्या रहती हो आज छुट्टी का दिन जो है ………. वो उठेगी थोडा जल्दी कामवाली ने ले रखी है छुट्टी निपटा लेगी बर्तन सबके उठने से पहले बदल देगी रसोई के अखबार आज धुलेंगे ज्यादा कपडे पूरी करने है कुछ अच्छा बनाने की फरमाइश लानी है हफ्ते भर की सब्जी तरकारी बनाना है बच्चों का टाइम टेबल आज ही टाइम है सजाना है करीने से घर आज छुट्टी का दिन जो है……..

राधा कृष्ण “अमितेन्द्र ” जी की कवितायें

******स्थिति और परिस्थिति****** स्थिति और परिस्थिति सभी को अपने ढ़ंग से नचाता है…. कोई याद रखता है , कोई भूल जाता है ! जो काम स्थिति वश  बहुत अच्छा होता है….. वही काम परिस्थिति वश बहुत बुरा बन जाता है…. इंसान के सोचने का नजरिया अलग-अलग होता है… कोई खरा-खोटा और तो कोई खोटा-खरा होता है….. स्थिति और परिस्थिति से मजबूर होकर…. न चाहते हुए भी जो करना पड़ता है….. वो तुम करते हो…. तो फिर….. दूसरे से शिकवा और शिकायत क्यो ???? उसकी भी मजबूरियों का ख्याल क्यों नही करते हो !! बस तुम रूठ जाते हो  यूँ ही…………                कभी -कभी !!!!!!!!!!!                                                       ————————————————–               ******समझौते का मकान****** बहुत कुछ…… न चाहकर भी करना पड़ता है लोगो को…. इस जिन्दगी में….. बहुत कुछ ….. न चाहकर भी सहना पड़ता है लोगो को…. इस जिन्दगी में……. जिन्दगी क्या है ?????? एक समझौते का मकान…… ! जिसे घर बनाना….. चाहकर भी …. नही बना पाता है इंसान…….. ! फिर भी….. प्रसन्नता का मुखड़ा  पहन कर….दर्द पीकर…… अपनी कुछ न कह कर सब की सुन कर खो देता है…….स्वाभिमान स्व…………. जो उसका है……. ! उसे ही भुला देता है……… और……….. भावना के भंवर जाल मे फँस कर……… अपना सब कुछ लुटा देता है……… !!!!!!!!!                       राधा कृष्ण “अमितेन्द्र “

शराब नही लेकिन

-रंगनाथ द्विवेदी। तेरी सरिया मे शराब नहीं लेकिन———– हम पीने वालो के लिये खराब नही लेकिन। हम बाँट लेते है अक्सर नशे मे जूठन भी—– यहाँ के पंडित और मियाँ का जवाब नही लेकिन, तेरी सरिया मे शराब नही लेकिन। ना वे गीता जानता है और न मै कुरान की आयत, जबकि उसका घर मंदिर की तरफ है, और मेरा घर मस्जिद की तरफ है, हमारे लिये जुम़ा और मंगलवार एक सा है, हम पीते है,किसी दिन का हमारे पास एै”रंग”—– कोई हिसाब नही लेकिन। तेरी सरिया मे शराब नही लेकिन, हम पीने वालो के लिये खराब नही लेकिन—- तेरी सरिया मे शराब नही लेकिन। @@@रचयिता—-रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

तुम्हीं से है……..

सुमित्रा गुप्ता  तुम्हीं से है…….. कभी शिकवा शिकायत हैकभी मनुहार इबादत हैमेरे प्यारे, मेरे भगवन, मेरे बंधु,तुम्हीं से है, तुम्हीं से है पायी तेरी इनायत है करी तेरी इबादत है तू सामने हो या ना भी हो मुझे तेरी जरूरत है  मेरेे प्यारे, मेरे भगवन, मेरे बंधु तुम्हीं से है, तुम्हीं से है जग में बहुत ही नफरत है जग में बहुत ही गफलत है तेरे दर पे ही शराफत है तेरे दर पे ही नजाकत हैमेरे प्यारे, मेरे भगवन, मेरे बंधु तुम्हीं से है, तुम्हीं से है सखी’ने चाहा मुद्दत सेसखी’ ने चाहा शिद्दत सेछोड़ कर दुनियां के नातेलगायी प्रीत दिलबर सेनिभाते सभी रिश्तों कोप्रभु तुझसे ही मोहब्बत है मेरे प्यारे, मेरे भगवन, मेरे बंधुतुम्हीं से है, तुम्हीं से है……..

चंद्र मौलि पाण्डेय की कवितायें

जूनून  छत की मुंडेर पर खड़ी वो कभी हाथ हिलाती तो कभी गले से स्कार्फ उतारकर उसको लहराती लग रहा था कि कहीं  उसके अंतर्मन में आजादी का कोई कीड़ा रेंग रहा है  जो उसे प्रेरित कर रहा है या उकसा रहा है  कुछ ऐसा जुनून पैदा करने के लिए जो उसके आत्मसम्मान को हिमालय की चोटियों से भी  ऊँचा पहुंचा सके अल सुबह टूटे हाथ के साथ  देख रहा हूँ उसे स्कूल जाते हुए  शायद शाम को मुंडेर से गिर गई थी वो मगर चेहरा  ताजमहल का संगमरमर दमकता हुआ  सीमा पर तैनात जवानों जैसा आत्मविश्वास सालों बाद आज उसे फिर देखा सिगरेट के अधजले टुकड़ों और  शराब की टूटी बोतलों के बीच  लाशों के ढेर के पास खड़ी  वो तलाश रही थी  अपने बाप की लाश जो आज  उसी  के हाथों मारा गया ख़त्म कर दिया था उसने  आतंकवाद का एक अध्याय माँ को विधवा कर  कई महिलाओं को बचाया होने से विधवा सपने में भी देखा था उसने एक सपना अपने खून से भी बढ़ कर है देश अपना जूनून जारी था उसका  आत्मविश्वास  अब हिमालय को भी पिघला रहा था.. निराशा ——— आज बाँट रहा था खाना उसने कहा बेटा  रोज रोज यहाँ ना आना, तुम कर दोगे शायद मुझे कमज़ोर हो गई थी मैं पूरी तरह कठोर, नहीं छेड़ना चाहती  वो दिल के पुराने तार जब कभी था उस पूत के लिए  इस अबला माँ का प्यार, बंद कर ली हैं मैंने  अपनी इच्छाएं और संवेदनायें नहीं चाहती की कोई  अवचेतन मन मे भी उसे जगाये, तेरी चाहत और तेरा प्यार कहीं खोल ना दे प्यार का द्वार, और ..मैं कहीं फिर ठगी ना जाऊँ पुत्र शब्द ही हमेशा के लिए भूल जाऊँ विनाश  तेज़ हवा की धुन पर  नाच रहा था समुन्दर अठखेलियां करती लहरें  मदहोश कर रही थीं  अट्टालिकाओं को झूमने के लिए नतमस्तक हो गईं थीं वे लहरों की मादकता मे बारिश की घुड़की से  भाग रहे थे बड़े बड़े पत्थर नदी भी अपने पूरे यौवन पर थी प्रेमी पत्थर डूब रहे थे इस यौवन मे दरख़्त भी मदहोशी मे  खो चुके थे अपनी जड़ें प्रकृति थी गुस्से मे  कर रही थी तांडव नृत्य आईना दिखा रही थी बता रही थी हमारे कृत्य सुनामी हो या भूकंप मच जाता हर तरफ हड़कम्प प्रकृति है जीवन की सांस छेड़ोगे तो होगा विनाश  चंद्र मौलि पाण्डेय                          उप वन संरक्षक                                भोपाल              chandrapandey@yahoo.com

बाँध लेता प्यार सबको देश से

डॉ मधु त्रिवेदी बाँध लेता प्यार सबको देश से              द्वेष से तो जंग का आसार है लांघ सीमा भंग करते शांति जो              नफरतों से वो जले अंगार है होड़ ताकत को दिखाने की मची               इसलिये ही पास सब हथियार है सोच तुझको जब खुदा ने क्यों गढ़ा                पास उसके खास ही औजार है जिन्दगी तेरी महक  ऐसे गयी                 जो तराशे इस जहाँ किरदार है शाम होते लौट घर को आ चला                  बस यहाँ पर साथ ही में सार है हे मधुप बहला मुझे तू रोज यूँ                   इस कली पर जो मुहब्बत हार है संक्षिप्त परिचय————————— . पूरा नाम : डॉ मधु त्रिवेदी पदस्थ : शान्ति निकेतन कालेज आॅफबिजनेस मैनेजमेंट एण्ड कम्प्यूटर साइंस आगरा प्राचार्या,पोस्ट ग्रेडुएट कालेज आगरा  मधु त्रिवेदी के अन्य लेख  बस्ते के बोझ तले दबता बचपन बहू बेटी की तरह होती है , कथनी सत्य है या असत्य अंधेर नगरी चौपट राजा बाल परिताक्त्या

रंगनाथ द्विवेदी की कलम से नारी के भाव चित्र

                             कहते हैं नारी मन को समझना देवताओं के बस की बात भी नहीं है | तो फिर पुरुष क्या चीज है | दरसल नारी भावना में जीती है और पुरुष यथार्त में जीते हैं | लेकिन भावना के धरातल पर उतरते ही नारी मन को समझना इतना मुश्किल भी नहीं रह जाता है | ऐसे ही एक युवा कवि है रंगनाथ द्विवेदी | यूँ तो वो हर विषय पर लिखते हैं | पर उनमें  नारी के मनोभावों को बखूबी से उकेरने की क्षमता है | उनकी रचनाएँ कई बार चमत्कृत करती हैं | आज हम रंगनाथ द्विवेदी की कलम से उकेरे गए नारी के भाव चित्र  लाये हैं |                                        प्रेम और श्रृंगार                                      स्त्री प्रेम का ही दूसरा रूप है यह कहना अतिश्योक्ति न होगी | जहाँ प्रेम है वहाँ श्रृंगार तो है ही | चाहें वो तन का हो , मन का या फिर काव्य रस का रंगनाथ जी ने स्त्री के प्रेम को काव्य के माध्यम से उकेरा है  शमीम रहती थी  कभी सामने नीम के——— एक घर था, जिसमें मेंरी शमीम रहती थी। वे महज़——— एक खूबसुरत लड़की नही, मेंरी चाहत थी। बढ़ते-बढ़ते ये मुहल्ला हो गया, फिर काॅलोनी बन गई, हाय!री कंक्रिट——– तेरी खातिर नीम कटा, वे घर ढ़हा——– जिसमें मेरी शमीम रहती थी। अब तो बीमार सा बस, डब-डबाई आँखो से तकने की खातिर, यहाँ आता हूँ! शुकून मिल जाता है इतने से भी, ऐ,रंग———– कि यहाँ कभी, मेरे दिल की हकिम रहती थी! कभी सामने नीम के——– एक घर था, जिसमें मेरी शमीम रहती थी।   पतझड़ की तरह रोई  बहुत खूबसूरत थी मै लेकिन——– रोशनी में तन्हा घर की तरह रोई। कोई ना पढ़ सका कभी मेरा दर्द—— मै लहरो में अपने ही,समंदर की तरह रोई। सब ठहरते गये—————- अपनी अपनी मील के पत्थर तलक, मै पीछे छुटते गये सफर की तरह रोई। लोग सावन में भीग रहे थे, ऐ,रंग—–मै अकेली अभागन थी जो सावन में पतझड़ की तरह रोई।         सखी हे रे बदरवा  तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा, करे छेड़खानी सखी छेड़े बदरवा। सिहर-सिहर जाऊँ शरमाऊँ इत-उत, मोहे पिया की तरह सखी घेरे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। चुम्बन पे चुम्बन की है झड़ी, बुँद-बुँद चुम्बन सखी ले रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। अँखियो को खोलु अँखियो को मुँदू, जैसे मेरी अँखियो में कुछ सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। मेरी यौवन का आँचल छत पे गिरा, मेरी रुप का पढ़े मेघदुतम सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। पपीहा मुआ  मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ, वे भी तो तड़पे है मेरी तरह, वे पी पी करे और मै पी पी पिया। मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। वे रोये है आँखो से देखे है बादल, मै रोऊँ तो आँखो से धुलता है काजल, वे विरहा का मारा मै विरहा की मारी, देखो दोनो का तड़पे है पल-पल जिया, मेरी बढ़ाये पपीहा मुँआ। हम दोनो की देखो मोहब्बत है कैसी? वे पीपल पे बैठा मै आँगन में बैठी, की भुल हमने शायद कही पे, या कि भुल हमने जो दिल दे दिया, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। चल रे पपीहे हुई शाम अब तो, ना बरसेगा पानी ना आयेंगे ओ, मांगो ना अब और रब से दुआ, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ।                                उन्होंने मुझको चाँद कहा था  पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। तब से लेकर अब तक मै—– वे करवा चौथ नही भुली। मै शर्म से दुहरी हुई खड़ी थी, फिर नजर उठाकर देखा तो, वे बिलकुल मेरे पास खड़े थे, मैने उनकी पूजा की——- फिर तोड़ा करवे से व्रत! उन्होनें अपने दिल से लगा के—– मुझको अपनी जान कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। बनी रहु ताउम्र सुहागिन उनकी मै, यूँही सज-सवर कर देखू उनको मै, फिर शर्मा उठु कर याद वे पल, जब पहली बार पिया ने मुझको—- छत पर अपना चाँद कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—- उन्होनें मुझको चाँद कहा था। चूड़ियाँ ईद कहती है चले आओ———- कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। भर लो बाँहो मे मुझे, क्योंकि बहुत दिन हो गया, किसी से कह नही सकती, कि तुम्हारी हमसे दूरियाँ—- अब ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। सिहर उठती हूं तक के आईना, इसी के सामने तो कहते थे मेरी चाँद मुझको, तेरे न होने पे मै बिल्कुल अकेली हूं , कि चले आओ——– अब बिस्तर की सिलवटे और तन्हाइयां ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। तीन तलाक पर एक रिश्ता जो न जाने कितनी भावनाओं से बंधा था वो महज तीन शब्दों से टूट जाए तो कौन स्त्री न रो पड़ेगी | पुरुष होते हुए भी रंग नाथ जी यह दर्द न देख सके और कह उठे बेजा तलाक न दो  ख्वा़हिशो को खाक न दो! एै मेरे शौहर———– सरिया के नाम पे, मुझे बेजा तलाक न दो। बख्श दो——— कहा जाऊँगी ले मासुम बच्चे, मुझ बेगुनाह को——- इतना भी शाॅक न दो, बेजा तलाक न दो। न उड़ेलो कान में पिघले हुये शीशे, मुझ बांदी को सजा तुम——– इतनी खौफ़नाक न दो, बेजा तलाक न दो। न छिनो छत,न लिबास खुदा के वास्ते रहने दो, मेरी बेगुनाही झुलस जाये——- मुझे वे तेजाब न दो, बेजा तलाक न दो। सी लुंगी लब,रह लुंगी लाशे जिंदा, लाके रहना तुम दु जी निकाहे औरत, मै उफ न करुंगी! बस मेरे बच्चो की खुशीयो को कोई बेजा, इस्लामी हलाक न दो——- बेजा तलाक न दो। तीन मर्तबा तलाक  एक औरत——— किसी सरिया के नाम पे कैसे हो सकती है मजाक। कैसे———– लिख सकता है कोई शौहर, अपनी अँगुलियो से इतनी दुर रहके, मोबाइल के वाट्सप पे——— तीन मर्तबा तिलाक। नही अब … Read more