डॉ मधु त्रिवेदी की पांच कवितायें

मैं व्यापारी हूँ  झूठ फरेब झोले में रखतासच सच बातें बोलतासत्य हिंसा को मैं रोदतासाँच में आँच लगातामैं व्यापारी हूँ संस्कृति हरण का पापीगर्त की ओर ले जातामिथ्या भाषण करता हूँचार छ:रोज सटकातामैं व्यापारी हूँ अशुद्ध परिहास करता हूँनकली बेकार कहता हूँसच्चाई का गला घोटता हूँसाफ साफ हिसाब देता हूँबेजोड हेर फेर करता हूँसदा असत्य कहता हूँमैं व्यापारी हूँ हाँ जीयहाँ मैं बेचता हूँआप भी खरीद लोफ्री में बिकती है झूठ मक्कारीवादों की नहीँ कीमत है यहाँरोज हजार दम तोड़ते यहाँवादा मेरा मैं साथ दूँगानिर्लज्जता सीखा दूँगामैं व्यापारी हूँ हर जगह जगह मेराबोलबाला हैजनमन कैसा बेचारा हैटेडेमेडे लोग सबल हैअन्न जल से निर्बल हैलाज शर्म रोती हैबेशर्मी पनपती हैमैं व्यापारी हूँ बेशर्मी का नंग नाच करतादुर्जनों पर रोज हाथ साफ करताहत्या , रेप , लूटपाट , डकैतीयहीं सब मेरे आचार हैमैं व्यापारी हूँ 1………. हे माँ सीते !दीवाली पर आ जानाहे माँ सीते ! विनती है मेरीघर दीवाली पर आ जानाराम लखन बजरंगी सहितजन – जन के उर बस जाना हे माँ सीते ! मेरा हर धामचरणों में तेरे रोज बसता हैदीवाली की यह जगमगाहटतेरे ही तेज से मिलती है माँ सीते ! आकर उर मेरेप्यार फुलझड़ी जला जानाहर जन को रोशन करकेअँधेरा दिल का मिटा जाना हे मा सीते! आशीष अपनादुष्ट जनों पर बरसा जानाबन कर दीप चाहतों का तुमनवयौवन का अंकुर फूटा जाना हे माँ सीते ! दिलो में आकरलोगों को सब्र का पाठ पढ़ानाजैसे तुम बसी हो उर राम केवैसे प्रिय प्रेम का दीप जला जाना हे माँ ! लक्ष्मण प्रिय भक्त तेरेभाव हर भाई में यह जगानान हो बँटवारा भाई -भाई मेंदीप वह जला माँ तुम जाना हे माँ सीते! खील खिलोने कीहर गरीब जनों पर बारिशें होहृदय में मधु मिठास को घोलशब्द शब्द को मधु बना जाना दीप जलते अनगिनत दीवाली परराकेट जैसे जाता है दूर गगन तकजाति-पाति धर्म की खाई को पाटसबके हृदय विशाल बना जाना 2………………… लाज अपने देश की सबको बचाना है लाज अपने देश की सबको बचाना हैदुश्मनों के आज मिल छक्के छुड़ाना है बार हर मिल कर मनाते प्रव गणतंत्र काइसलिये अब प्रतिज्ञा हमको कराना है याद वीरों की दिला कर के यहीं गाथामान भारत भूमि का अब बढ़ाना है कोन जाने यह कि आहुति कितनी दी हमनेयाद वो सारी हमें ही तो दिलाना है माँग उजड़ी पत्नियों की ही यहाँ पर क्योंबात बच्चों को यही समझा बताना है खो दिये है लाल अपने तब यहाँ पर जोफिर पुरानी आपसे दुहरा जताना है आबरू माँ की बचाने के लिए हम अबगर पडे़ मौका शीश अपना भी कटाना है 3………… जाया भारतभूमि ने दो लालों कोवो गाँधी और लाल बहादुर कहलायेबन अलौकिक अनुपम विभूतिभारत और विश्व की शान कहलाये दो अक्टूबर का यह शुभ दिन आयाविश्व इतिहास में पावन दिवस कहलायाराष्टपिता बन गाँधी ने खूब नाम कमायालाल ने विश्व में भारत को जनवाया सत्य अहिंसा के गाँधी थे पुजारीजनमन के थे गांधी शांति दातादीन हीनों के थे गाँधी भाग्य विधाताबिना तीर के थे गाँधी अस्त्रशस्त्र चल के गाँधी ने साँची राह परदेश के निज गौरव का मान बढायादो हजार सात वर्ष को अन्तर्राष्टीयअहिंसा दिवस के रूप में मनवाया शांति चुप रहना ही उनका हथियार थाभटकी जनता को राह दिखाना संस्कार थाबन बच्चों के बापू उनके प्यारे थेतो मेरे जैसों की आँखों के तारे थे लालबहादुर गांधी डग से डगमिलाकर चला करते थेएक नहीं हजारों को साथ ले चलते थेराह दिखाते हुए फिरंगियों को दूर करते फिरंगी भी भास गये इस बात कोअन्याय अनीति नही अब चलने वालाअब तो छोड़ जाना होगा ही करहवाले देश गाँधी जी को ही गाँधी जी नहीं है आज हमारे बीचफिर हम रोज कुचल देते है उनकीआत्मा और कहलाते है नीचआत्मा है केवल किताबों में बन्द अपना कर गाँधी बहादुर का आदर्शहम देश को बचा सकते हैघात लगाये गिद्ध कौऔं से लुटनेसे हमेशा बचा सकते है 4…….. शहर के मुख्य चौराहे परठीक फुटपाथ परले ढकेल वह रोजखड़ा होता थालोगो को अपनी बारीका इन्तजार रहताजब कभी गुजरना होताघर से बाहरमैं भी नहीं भूलतीखाना पानी पूरीबस पानी पूरीखाते खातेआत्मीयता सी होगई थी मुझेजब कभी मेराजाना होतातो वह भी कहने सेना चूकता थाआज बहुत दिन बाद—– वक्त बीतता गयाजीवन का क्रम चलता रहाअनायास एक दिन वहफेक्चर का शिकारहो गयातदन्तर अस्पताल मेंसुविधाएं भी पैसे वालों केलिए होती है ———पर वो बेचाराजैसे तैसे ठीक हुआबीमारी ने आ घेराएक दिन बस शून्य मेंदेखते ही देखतेकाल कवलितहो गयाफिर बस केवलसंवेदनाएं ही संवेदनाबस स़बेदनाबची सबकी जीवन का करूणांततदन्तरआत्मनिर्भर परिवारिक जनों कीदो रोज की रोटी नेएक गहरी चिंतन रेखाखींच दी पर मैं और मेरीआत्मीयता बाकी हैआज भीक्योंकि व्यक्ति जाता हैजहां सेउसकी नेकी लगावआसक्ति रह जाती हैबाकीपर वक्त छीन देता हैउसे भीऔर घावों को भर देता है

एक गुस्सैल आदमी

उसे बात – बात पर गुस्सा आता था क्योंकि उसे लगता था कुछ भी ठीक नहीं है वह टकराना चाहता था व्यवस्था से यहाँ तक की ईश्वर से जिसने किया है इतना भेद – भाव आदमी और आदमी में जब हुंकारता व्यवस्था के खिलाफ उसके चारों और खड़ी  हो जाती एक भीड़ जिसे यकीन था की एक दिन वो सब बदल देगा पर भीड़ बदलना चाहती उसका गुस्सा वो उसे दुलराती – पुचकारती , समझाती काना वही सब बस कम कर दो अपना गुस्सा वो फिर हुंकारता , नकारता और चल पड़ता अपने लक्ष्य की ओर पीछे – पीछे चल पड़ती भीड़ उसकी अनुगामी बन कर व्यवस्था को बदलने के लिए एक दिन उसने समझा गुस्से का अर्थ शास्त्र और त्याग दिया गुस्सा अब वो शांति से बात करता कुछ बढ़ा कर कुछ घटा कर बीच – बीच में जोड़ देता कुछ जुमले जो साबित कर देते की उसमें भी है विनोदप्रियता सुना है अब उसके चारों ओर की भीड़ छंटने लगी उसके गुस्से में एक आग थी जिससे लोगों को आस थी उसका गुस्सा खत्म होते ही खत्म हो गया लोगों का यकीन व्यवस्था परिवर्तन पर सुना है अब वो फिर से सीख रहा है गुस्सा करना और भीड़ फिर से ढूंढ रही है एक गुस्सैल आदमी जिसके गुस्से में छिपा हो यकीन व्यवस्था परिवर्तन का स्व . ओमकार मणि त्रिपाठी                                               रिलेटेड पोस्ट ….. ओमकार मणि त्रिपाठी की सात कवितायें जिंदगी कुछ यूँ तनहा होने लगी है सच की राहो में देखे है कांटे बहुत इंतज़ार

उर्दू शायर शुजाअ ‘ख़ावर’ की चुनिंदा शायरी

आलेख, संकलन, लिप्यंतरण एवं प्रस्तुति: सीताराम गुप्ता दिल्ली  जीवन परिचय  पूरा नाम: शुजाउद्दीन साजिद पैदाइश: 24 दिसंबर सन् 1946 को दिल्ली में  वालिद का नाम: जनाब अमीर हुसैन तख़ल्लुस: शुजाअ ‘ख़ावर’  मुलाज़मत: पहले दिल्ली के एक काॅलेज में अंग्रेज़ी के लेक्चरर मुकर्रर हुए और बाद में आई.पी.एस. इम्तिहान पास करने के बाद 20 साल तक पुलिस में आला अफसर के रूप में काम किया। वफ़ात: 19 जनवरी सन् 2012 को दिल्ली में  पैदाइश और मिज़ाज के ऐतिबार से ही नहीं, ज़बान और उस्लूब के ऐतिबार से भी शुजाअ ‘ख़ावर’ ठेठ दिल्ली की ख़ूबसूरत टकसाली ज़बान के शायर हैं। उनकी शायरी में अल्फाज़ और मुहावरों का इस्तेमाल देखते ही बनता है। क्योंकि शुजाअ ‘ख़ावर’ के यहाँ ज़बान और बयान में किसी क़िस्म का बनावटीपन नहीं है इसलिए उनकी शायरी को न सिर्फ आम पाठक पसंद करते हैं बल्कि शायरी की ख़ास समझ रखने वाले भी उस पर उतनी ही तवज्जो देते हैं। उनके कुछ शेर देखिए: पहुँचा हुज़ूरे-शाह,  हर एक रंग का फक़ीर, पहुँचा नहीं जो, था वही पहुँचा हुआ फक़ीर। कहाँ से इब्तिदा कीजे, बहुत मुश्किल है दरवेशो! कहानी उम्र भर की और जलसा रात भर का है। हालात न बदलें तो इस बात पे रोना, बदलें तो बदलते हुए हालात पे रोना। गुज़ारे के लिए हर दर पे जाओगे ‘शुजाअ’ साहब अना का फ़लसफ़ा दीवान में  रह जाएगा लिखा। कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अंदर से शुजाअ, और अगर बोला तो फिर, बाहर से मार जाएगा। थोड़ा सा बदल जाए तो  बस ताज हो और तख़्त, इस दिल का मगर क्या करें सुनता नहीं कमबख़्त। इस सर की ज़रूरत कभी उस सर की ज़रूरत, पूरी  नहीं  होती   मिरे  पत्थर  की  ज़रूरत। मरके भी देखा जाए दो इक दिन, कब तक  ऐसे  ही ज़िंदगी कीजे। ‘शुजाअ’ मौत से पहले ज़रूर जी लेना, ये काम भूल न जाना  बड़ा ज़रूरी है। ये दुनियादारी और इर्फान का दावा  शुजाअ ख़ावर, मियाँ  इर्फान  हो  जाए  तो  दुनिया छोड़ देते हैं। तुझ पर है श्हर भर की नज़र इन दिनों शुजाअ, क्यों  बोलता  नहीं  किसी इर्शाद के ख़िलाफ। इस तरह ख़ामोश रहने से तो ये मिट जाएगा, सोचिए इस शहर के बारे मंे बल्कि  बोलिए। यहाँ  तो  क़ाफिले  भर को  अकेला छोड़ देते हैं, सभी चलते हों जिस पर हम वो रस्ता छोड़ देते हैं। मुझको तो मरना है इक दिन ये मगर ज़िंदा रहे, कारीगर की मौत का क्या है,  हुनर ज़िंदा रहे। सर को ख़म कीजे तो दस्तार बंधे सर पे शुजाअ, बोलिए क्या है अज़ीज़ आपको  दस्तार कि सर? शब्दार्थ: हुज़ूरे-शाह = शाह की सेवा में उपस्थिति इब्तिदा = प्रारंभ अना = मैं/अहंकार दीवान = ग़ज़लों का संकलन इर्फान = विवके/ब्रह्मज्ञान/तमीज़ ख़म करना = झुकाना दस्तार = पगड़ी/सम्मान इर्शाद = हिदायत/हुक्म/आज्ञा रिलेटेड पोस्ट बहादुर शाह जफ़र के अंतिम दिन -इतिहास की एक उदास ग़ज़ल मीना कुमारी की बेहतरीन गजलें

दोस्ती बनाम दुश्मनी~कुछ चुनिंदा शेर

संकलन, लिप्यंतरण एवं प्रस्तुति: सीताराम गुप्ता दिल्ली-110034      बहुत कठिन है डगर पनघट की। पनघट की तरह ही दोस्ती की भी। जिसे हम दोस्ती कहते हैं कई बार वो एक बेहद ख़ुदग़र्ज़ रिश्ते से ज़्यादा कुछ नहीं होता। वफ़ा और बेवफ़ाई की तरह दोस्ती के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। पुरातन काल से आज तक जितने भी कवि, कलाकार लेखक, विचारक हुए हैं शायद ही उनमें से कोई ऐसा हो जिसने इस विषय पर लेखनी न चलाई हो। प्रस्तुत हैं दोस्ती व दुश्मनी पर कुछ प्रसिद्ध उर्दू शायरों के अश्आर: कहाँ की दोस्ती  किन दोस्तों की  बात  करते हो, मियाँ दुश्मन नहीं मिलता कोई अब तो ठिकाने का।          -वसीम बरेलवी दिन एक सितम  एक  सितम  रात  करो हो, वो दोस्त हो दुशमन को भी तुम मात करो हो।   -कलीम आजिज़  माना  कि दोस्तों को नहीं  दोस्ती का पास, लेकिन ये क्या कि ग़ैर का एहसान लीजिए। -शहरयार मिलना-जुलना  दोस्तों से बारहा  टलता  रहा, इस तरह भी दोस्ती का सिलसिला चलता रहा।             -हबीब कैफ़ी  तेरे क़रीब आ के  बड़ी उलझनों में हूँ, मैं दुश्मनों में हूँ, कि  तेरे दोस्तों में हूँ।             -अहमद फ़राज़ दुश्मनों की भीड़ में कुछ दोस्त भी मौजूद हैं, देखते रहना करेगा मुझपे पहला  वार  कौन?    -मंज़र मजीद दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे  रिश्ता, दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए।     -‘निदा’ फ़ाज़ली क़त्अ  कीजे न  तअल्लुक़ हमसे, कुछ नहीं है तो अदावत ही सही।          -मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ मंज़िले-हस्ती में दुश्मन को भी अपना दोस्त कर, रात हो जाए तो दिखलावें  तुझे  दुश्मन  चिराग़।           -‘आतिश’ कोई  सूरत तो दिल को  शाद  करना, हमें  दुश्मन समझ  कर  याद  करना।         -असग़र अली ख़ाँ देहलवी यूँ लगे  दोस्त तेरा  मुझसे  ख़फ़ा  हो जाना, जिस तरह फूल से ख़ुशबू का जुदा हो जाना।  -क़तील शिफ़ाई कुछ दोस्तों से वैसे  मरासिम नहीं  रहे, कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही।          -दुष्यंत कुमार तीर कब  दुश्मन  चलाएगा  हमें मालूम था, इसलिए तो दोस्ती से  दुश्मनी अच्छी लगी।             -‘क़मर’ जलालाबादी दोस्तों  से  इस  क़दर  सदमे उठाए जान  पर, दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा।           -‘आतिश’ ग़म बढ़े आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह, तुम छुपा लो मुझे  ऐ दोस्त  गुनाहों की तरह।   -सुदर्शन फ़ाकिर वो दुश्मनों की तरह मुझपे वार करता है, मगर गिरोह में अपने  शुमार  करता  है।       -डाॅ अतीक़ुल्लाह ‘ताबिश’ तू दश्ना-ए-नफ्रत को ही लहराता रहा है, तूने कभी दुश्मन से लिपटकर नहीं देखा।                     -अहमद फ़राज़ दोस्ती और किसी ग़रज़ के लिए, वो तिजारत है दोस्ती  ही  नहीं।        -इस्माईल मेरठी रिलेटेड पोस्ट ….. ये दोस्ती न टूटे कभी की तू जहाँ भी रहे तू मेरी निगाह में है

जी.यस.टी. GST

रंगनाथ द्विवेदी। लाख विरोध करे——— काग्रेंस,यस.पी.(SP),बी.यस.पी.(BSP), लेकिन इस देश के आखिरी शख्स़़ के—– हित मे है जी.यस.टी(GST)। आओ हम सपोर्ट करे, क्योंकि हमी तो खरीदते है——- रोज आटा,चावल,घी, जी.यस.टी.(GST)। बनिये,स्वर्णकार,व्यापार मंडल की बंदी विरोध मजबूरी है, ये फैंसी चोर है, जिसने हमेशा कर चुरा के इस देश, सरकार और आम आदमी की—– गाढ़ी कमाई की क्षति बहुत की, जी.यस.टी.(GST)। आओ हम सब एक स्वर-एक कर, के पक्ष मे ध्वनिमत से कहे, कि स्वागत है तुम्हारा— मेरे देश में जी.यस.टी.(GST)

तुफानों का गजब मंजर नहीं है

सुशील यादव 122२  1222 १22 तुफानों का गजब मंजर नहीं है इसीलिए खौफ में ये शहर नहीं है तलाश आया हूँ मंजिलो के ठिकाने कहीं मील का अजी पत्थर नहीं है कई जादूगरी होती यहाँ थी कहें क्या हाथ बाकी हुनर नहीं है गनीमत है मरीज यहाँ सलामत अभी बीमार चारागर नहीं है दुआ मागने की रस्म अदायगी में तुझे भूला कभी ये खबर नही है

पिता को याद करते हुए

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई ——————————– कल बहुत दिनों बाद सुबह मिली  खिली खिली बोली उदास होकर तुम्हारे पिता मुझसे रोज़ मिला करते थे गेट का ताला खोल कर इधर-उधर देश-समाज साहित्य, घर-संसार और तुम्हारी कितनी ही बातें करने के बाद तब तुम्हारी माँ सँग सुबह की चाय पिया करते थे फिर बरामदे में बैठ सर्दियों की गुनगुनी धूप में गर्मियों की सुबह-सुबह की ठंडक में साहित्य-संवाद किया करते थे बारिश होने पर बरामदे में आई बूँदों और ओलों को देख अपनी नातिन को पुकारते फ़ोटो खींचने और कटोरी में ओले  भरने को जब बन जाते धीरे-धीरे वे पानी तब वो पूछती ओले कहाँ गए “चैकड़ी पापा” उन दोनों की बालसुलभ सरल बातें सुन मैं भी मन ही मन मुस्काती उनके सँग बैठी रहती थी पर अब मैं रोज़ आती हूँ गेट भी खुलता है पर वो सौम्य मुस्कान लिए चेहरा नज़र नही आता तुम्हीं बताओ अब किसके सँग बैठूँ किससे कहूँ अपना दुख-सुख मुझसे मिलने अब कोई नही आता जो आते है वे सब कुछ करते हैं पर मुझसे बोलते तक नहीं बताओ सही है क्या भला यह! कभी अपने पिता की तरह मुझसे मिलने “उत्तरगिरि” में आओ न सुबह-सुबह। ————————–

अपने पापा की गुड़िया

फादर्स डे पर  एक बेटी की अपने पापा की याद को समर्पित कविता। अपने पापा की गुड़िया दो चुटिया बांधे और फ्रॉक पहने, दरवाजे पे-खड़ी रहती थी——— घंटो कभी अपने पापा की गुड़िया। फिर समय खिसकता गया, मै बड़ी होती गई! मेरे ब्याह को जाने लगे वे देखने लड़के, फिर ब्याह हुआ, मै विदा हुई पापा रोये नही, पर मैने उनके अंदर———- के आँसूओ का गीलापन महसूस किया, पीछे छोड़ आई सब कुछ अपने पापा की गुड़िया। सुना था बहुत दिनो तक, पापा तकते रहे वे दरवाज़ा,  शायद ये सोच—————- कि यही खड़ी रहती थी कभी, उनके इंतज़ार में घंटो,  फ्रॉक पहने दो चुटिया बांधे इस पापा की अपने गुड़िया। फिर आखिरी मर्तबा उन्हे बीमारी मे देखा, वे चल बसे! अब यादो में है——————-  कुछ फ्रॉक दो चुटिया और तन्हा खड़ी—————–  दरवाजे के उस तरफ, आँखो में आँसू लिये—————- अपने पापा की गुड़िया।  ### रंगनाथ द्विवेदी, यह भी पढ़ें ……. डर -कहानी रोचिका शर्मा एक दिन पिता के नाम -गडा धन आप पढेंगे ना पापा लघुकथा -याद पापा की आपको  कविता  “    पूरक एक दूजे के “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs, parents

मां

कवि मनोज कुमार रूठने पर झट से मना लेती थी मां दवा से ज्यादा दुआ देती थी कुछ बात थी उसके हाथों में जो भूख ही पेट से वो चुरा लेती थी चोट कितनी भी गहरी लगी क्यों न हो फूंक कर झट से वो भगा देती थी मां पढ़ी कम थी मेरी मगर हर मर्ज की वो दवा देती थी आंख से आंसू निकलते नहीं थे आंचल वो झट से फिरा देती थी कुछ कहता न था मैं लब से मगर खिलौना वही वो दिला देती थी मुंह अंधेरे भी निकलूं जो घर से अगर उठ कर खाना वो झट से बना देती थी बहस कितनी भी कर लूं उससे मगर मुस्कुरा कर सब वो भुला देती थी मां दवा से ज्यादा दुआ देती थी। परिचय: श्री मनोज कुमार यादव प्रणवीर सिंह इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैंIउन्होंने मैकेनिकल इंजीनियरिंग में ऍम.टेक की उपाधि प्राप्त की है एवं विगत पंद्रह वर्ष से अध्यापन कार्य में संलग्न हैंIइंजीनियरिंग क्षेत्र में होने के बावजूद साहित्य में रूचि होने के कारण श्री मनोज कुमार ने हिंदी कविता के क्षेत्र में बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किया है तथा विभिन्न सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दों पर अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में जन जागरण का कार्य किया हैI

राग झुमर सुन रहा हूँ

रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी मै उसके कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं, कंगन,बिछुवे,चुड़ियां संगत कर रही, कोई घराना नही दिल है———– जिससे मै राग चाहत सुन रहा हूं, मै उसके कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। उसका इस कमरे,उस कमरे आना-जाना, एक सुर,लय,ताल का मिलन है उस मिलन से उपजी———– मै राग पायल सुन रहा हूं, मै उसके कानो की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। कपकंपाते होंठ सुर्खी गाल की, तील जैसे लग रही उसकी सखी, और कर रही छेड़छाड़ भर बदन, उफ!उसकी उम्र के उन्माद का—— मै राग काजल सुन रहा हूं, मै उसकी कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। घन-गरज है,बिजलियाँ है काँधे पे वे श्वेत आँचल लग रहा कि मछलियाँ है, उन मछलियो के प्रेम की——– मै राग बादल सुन रहा हूं, मै उसके कानो की बाली का राग झुमर सुन रहा हूँ रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।