मैं गंगा

फ़ोटो क्रेडिट::::अभिषेक बौड़ाई मैं गंगा जानते हैं सभी बहती आई हूँ सदियों से अपनों के लिए इस पावन धरा पर अलग-अलग रूप लिए अलग-अलग नाम से उमड़ता है एक प्रश्न मथता है मनो-मस्तिष्क मेरे अपने मेरे अस्तित्व को बचाए रखने को बनाई योजनाएँ अमल में लाते क्यों नही? हर जन जब स्वयं अपने से आरंभ करे प्रयत्न मुझे सुरक्षित रखने का तभी मेरा अस्तित्व अक्षुण्ण रह पाएगा सोचो, करो, देखो तुम सबका प्रयास व्यर्थ नहीं जाएगा वादा मेरा मैं इस धरा पर बहने के साथ साथ बहूँगी सर्वदा तुम सबके भीतर नए विश्वास के साथ। ———————————- डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ डॉ . भारती वर्मा ;बौड़ाई ‘ की अन्य रचनाएँ पढने के लिए क्लिक करें

रंडी—एक वीभत्स और भयावह यथार्थ

“अँधेरी रात मे——- वे शहर की स्ट्रिट लाइट से टेक लगा, अपना आधे से अधिक वक्षस्थल खोले, किसी ग्राहक को रिझाने और लुभाने का प्रयास करती है, किसी रात जब काफी प्रयासो के इतर, कोई ग्राहक आता और रिझता नही दिखता, तो अपनी निदाई आँखो की निद दुर करने को, वे गाढ़ी और सुर्ख लिपस्टिक के उस तरफ, अक्सर बीड़ी पीने से सँवलाये होंठो के बीच, एक बीड़ी दबा————– बड़ी अश्लीलता और निर्लज्जता से वे अपने हाथो को, अपने अधखुले वक्षस्थल मे डाल, चारो तरफ जलाने को दियासलाई टटोलती है, उस टटोलने मे स्त्रियोचित कोई संवेदना नही, बल्कि बेरहमी से दियासलाई निकाल बीड़ी जला—– कुछ तगड़े-तगड़े सुट्टे ले जब अपने नथुनो से धुआँ निकालती है, तो उस धुँये की धुँध उसे अपनी एकलौती जीवन सखी लगती है, कभी-कभी जब एकाध कस की शुरुआत मे ही किसी ग्राहक को आता देखती है, तो उसे रोज अपनी तरह जली बीना बुझाये फेक, कुछ इस तरह झुकती है, कि उसके अधखुले वक्षस्थल थोड़ा और गहरे खुल, ग्राहक को यौन मदांध कर बाबले और उतावले कर देते है, उसकी इस झुकन की कलात्मकता ने ही उसे अब तक, ज्यादा ग्राहक दिये है! वे हर रात अपने ग्राहक को शिशे मे उतार, इस स्ट्रिट लाइट की कुछ दुरी पे बने अपने उस दो कमरे की सिलन की बदबू से रचे बसे कोठरी मे ले जाती है, और उसी कमरे की एक जर्जर तखत पे सो जाती है, कभी इसी तखत पे दुल्हन की तरह सोने आई थी, और इसी तखत पे सोने के लिये, माँ-बाप का घर छोड़———- प्रेमी के साथ भाग आई थी ये शायद उन्हिं की पीड़ा का श्राप है, कि सुहाग तखत पे रंडी बन रह गई। फिर समय के साथ मैने ख़ुदकुशी न की, हाँ उस शरीर और अंग से बदला जरुर लेती हूँ, जिसे अगर कुछ दिन और संभाल लेती तो एक औरत होने का, संम्पुर्ण ऐहसास करती, मै बलात भागी थी उसी बलात भागने ने जीवन नर्क कर दिया। हर रात उसका ग्राहक तृप्त हो जब ये जुमले कहता है कि—– तेरे अर्धखुले वक्षस्थल ब्लाउज मे तो सुंदर थे ही, और आजाद हुये तो और कयामत व सुंदर हो गये, ये सुन उसने हमेशा की तरह अपने ग्राहक को मन ही मन मादरजात गाली दे, फिर अपने उस ब्लाउज को उठा एक रुटीन की तरह, बीना किसी कोमलता के जबरदस्ती इधर-उधर ठुस, और उस ठुसने की रगड़ को, वे राड़ कह खूब हँसती है वे हँसी अपने को और पीड़ित करने की होती है, फिर उसी तखत पे अस्त-ब्यस्त लेट, एक रंडी की तरह पुरा दिन बीता उठती है, नहा धुलकर,गाढ़ी लिपस्टिक लगा चल पड़ती है, एक बीड़ी होठ पे लगाये उसी स्ट्रिट लाइट की तरफ, वैसे ही खड़ी हो फिर किसी ग्राहक को, अपने अधखुले ब्लाउज से रोज की तरह दिखाने अपना, अाधे से अधिक खुला वक्षस्थल।

कतरा कतरा पिघल रहा है

 साधना सिंह कतरा कतरा पिघल रहा है   दिल नही मेरा संभल रहा है  ||  हवा भी ऐसे सुलग रही है  और ये सावन भी जल रहा है || कि एक तेरे जाने से देखो,  कैसे सबकुछ बदल रहा है ||  फूल लग रहा शूल सरीखा  नमक जले पर मल रहा है || अब चाँद अखरता है मुझको  क्यों आसमान मे निकल रहा है || जाने वाला तो जायेगा ही,   नियति का नीयत अटल रहा है ||  पर दिल नही मेरा संभल रहा है,  ये कतरा कतरा पिघल रहा है ||  ________________

स्मृति – पिता की अस्थियां ….

सुशील यादव पिता , बस दो दिन पहले आपकी चिता का अग्नि-संस्कार कर लौटा था घर …. माँ की नजर में खुद अपराधी होने का दंश सालता रहा … पैने रस्म-रिवाजों का आघात जगह जगह ,बार बार सम्हालता रहा …. @@ आपके बनाया दबदबा,रुतबा,गौरव ,गर्व अहंकार का साम्राज्य , होते देखा छिन्न-भिन्न, मायूसी से भरे पिछले कुछ दिन… खिंचे-खिंचे से चन्द माह , दबे-दबे से साल गुजार दी आपने बिना किसी शिकवा बिना शिकायत दबी इच्छाओं की परछाइयां न जाने किन अँधेरे के हवाले कर दी @@ एक  खुशबु पिता की  पहले छुआ करती थी दूर से विलोपित हो गई अचानक, न जाने कहाँ …? न जाने क्यों  मुझसे अचानक रहने लगे खिन्न >>> आज इस मुक्तिधाम में मैं अपने अहं के ‘दास्तानों’ को उतार कर चाहता हूँ तुम्हे छूना … तुम्हारी अस्थियों में, तलाश कर रहा हूँ उन उंगलियों को…. छिन्न-भिन्न ,छितराये समय को टटोलने का उपक्रम पाना चाहता हूँ एक बार … फिर वही स्पर्श जिसने मुझे उचाईयों तक पहुचाने में अपनी समूची  ताकत झोक दी थी पता      नहीं  कहाँ कहाँ झुके थे लड़े थे …. मेरे पिता मेरी खातिर …. अनगिनत बार >>> मेरा बस चले तो सहेज कर रख लूँ तमाम उँगलियों के पोर-पोर हथेली ,समूची बांह कंधा …उनके  कदम … जिसने मुझमें  साहस का ‘दम’जी खोल के भरा >>> पिता जाने-अनजाने आपको इस ठौर तक अकाल ,नियत- समय से पहले ले आने का अपराध-बोध मेरे दिमाग की कमजोर नसें हरदम महसूस करती रहेगी

दो स्तन

ये महज कविता नही वरन रोंगटे खड़े करता एक भयावह यथार्थ है। रंगनाथ द्विवेदी कुछ भिड़ झुरमुट की तरफ देख, अचानक मै भी रुक गया——– और जैसे ही मेरी नज़र उस झुरमुट पे पड़ी, उफ!मेरे रोंगटे खड़े हो गये, एक पैत्तीस साल की औरत का———– विभत्स बलात्कार मेरे सामने था, उसके गुप्तांग जख्मी थे, और उससे भी कही ज्यादा जख्मी थे—– उसके वे दो खुले स्तन। जिसपे पशुता के तमाम निशान थे, नोचने के,खसोटने के,दाँतो के बहुत मौन थे, लेकिन ये मौनता एक पिड़ा की थी, क्या?इसिलिये ईश्वर ने दिया था, इस औरत को———- कि कोई अपनी पशुता से छिन ले,मसल दे इसके दो स्तन। जब पहली मर्तबा इसके बलात्कारी ने भी पिया होगा, अपनी नर्म हाथो से बारी-बारी——- अपनी माँ का दो स्तन! तब इनमे दुध उतरा था, क्यूं ?नहीं दिखा आखिर—– मसलते,कुचलते,नोचते वक़्त, शायद देखता तो कांप जाता, क्योंकि इसकी अपनी माँ के भी थे—– यही दो स्तन। इतना ही नही गर कल्पना करता, तो इसे दिखता———— अपने ही घर मे अपनी बुआ,अपनी चाची और सीने पे दुपट्टा रंखे अपनी बहन के– इसी बलात्कार की गई औरत की तरह, दुपट्टे के उस तरफ भी तो लटके है एै”रंग”—– यही दो स्तन। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर।

मदर्स डे : माँ को समर्पित सात स्त्री स्वर

                                 वो माँ भी है और बेटी भी |इस अनमोल रिश्ते में अनमोल प्रेम तो है ही पर जहाँ एक और उसके ह्रदय में अपनी माँ के प्रति कृतज्ञता का भाव है वहीँ अपने बच्चों के प्रति कर्तव्य  का बोध | कैसे संभाल पाती है एक स्त्री  स्नेह के इन दो सागरों को एक साथ | तभी तो छलक जाती हैं बार बार आँखें , और लोग कहतें हैं की औरतें रोती बहुत हैं | आज मदर्स डे के अवसर पर हम लाये हैं एक साथ सात स्त्री स्वर , देखिये कहीं आप की आँखें भी न छलक पड़ें | इसमें आप पढेंगें वंदना गुप्ता , संगीता सिंह ” भावना “, डॉ . किरण मिश्रा , आभा खरे , सरस दरबारी , डॉ . रमा द्विवेदी और अलका रानी की कवितायें  कब आओगी तुम  माँ कहाँ हो तुम ? जाने से पहले यूँ भी न सोचा तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा? कौन मुझे चाहेगा? कौन मुझे दुलारेगा ? मेरे होठों की हँसी के लिए कौन तड़प -तड़प जाएगा मेरी इक आह पर कौन सिसक- सिसक जाएगा पिता ने तो अपनी नई दुनिया बसा ली है अब तो नई माँ की हर बात उन्होंने मान ली है तुम ही बताओ अब कहाँ जाऊँ मैं किसे माँ कहकर पुकारूँ मैं यहाँ पग-पग पर ठोकर और गाली है तुम्हारी लाडली के लिए अब कोई जगह न खाली है माँ , कहाँ हो तुम ? क्या मेरे दर्द को नही जानती क्या अब तुम्हें दर्द नही होता अपनी बेटी की पीड़ा से क्या अब तुम्हारा दिल नही रोता क्यूँ चली गई जहान छोड़कर मुझे भरी दुनिया में अकेला छोड़कर किससे अपने सुख दुःख बाटूँ कैसे मन के गुबार निकालूं? कौन है जो मेरा है ? ये कैसा रैन-बसेरा है ? जहाँ कोई नही मेरा है अब तो घुट-घुट कर जीती हूँ और खून के आंसू पीती हूँ जिस लाडली के कदम जमीं पर न पड़े कभी वो उसी जमीं पर सोती है और तुम्हारी बाट जोहती है इक बार तो आओगी तुम मुझे अपने गले लगाओगी तुम मुझे हर दुःख की छाया से कभी तो मुक्त कराओगी तुम बोलो न माँ कब आओगी तुम ? कब आओगी तुम? वंदना गुप्ता अनुपम कृति है …..’माँ ‘ मैं भी लिखना चाहती हूँ माँ पर कविता , माँ यशोदा की तरह प्यारी न्यारि …… लिखती हूँ जब कागज के पन्नों पर , एक स्नेहिल छवि उभरती है शायद…….संसार की सबसे अनुपम कृति है …..’माँ ‘ जब भी सोचती हूँ माँ को , हर बार या यूं कहें बार-बार माँ के गोद की सुकून भरी रात और साथ ही ,,,,,, नरमी और ममता का आंचल और भी बहुत कुछ प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार ऐसा होता है माँ का प्यार ……. हर शब्द से छलक़ता ,,,,, प्यार ही प्यार … सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह और समर्पण , ही पहचान है ,उसकी अपनी तभी तो इस जगत में, ”माँ” महान है …….!!! संगीता सिंह ”भावना” माँ का सबक  जब उड़ने लगती है सड़क पर धूल और नीद के आगोश में होता है फुटपाथ तब बीते पलों के साथ मैं आ बैठती हूँ बालकनी में , अपने बीत चुके वैभव को ,अभाव में तौलती अपनी आँखों की नमी को बढाती पीड़ाओं को गले लगाती । तभी न जाने कहां से आ कर माँ पीड़ाओं को परे हटा हँस कर , मेरी पनीली आँखों को मोड़ देती है फुटपाथ की तरफ और बिन कहे सिखा देती है अभाव में भाव का फ़लसफा । मेरे होठों पर , सजा के संतुष्टि की मुस्कान मुझे ले कर चल पडती है पीड़ाओं के जंगल में जहाँ बिखरी पडी हैं तमाम पीड़ायें मजबूर स्त्रियां मजदूर बचपन मरता किसान इनकी पीड़ा दिखा सहज ही बता जाती हैं मेरे जीवन के मकसद को अब मैं अपनी पीड़ा को बना के जुगनू खोज खोज के उन सबकी पीड़ाओं से बदल रही हूँ माँ की दी हुई मुस्कान और सार्थक कर रही हूँ माँ के दिए हुए इस जीवन को। डॉ किरण मिश्रा माँ को समर्पित  बढ़ती उम्र के साथ अब मै माँ तुम जैसी लगने लगी हूँ.. इतराती हूँ और ख़ुद को तुम जैसी ख़ूबसूरत कहने लगी हूँ.. तेरी बिंदिया और पायल पहन मैं और भी सजने संवरने लगी हूँ… चुराकर तेरी मुस्कान की खुश्बू हरसिंगार सी महकने लगी हूँ .. मेरे हाथों में हो तेरे हांथों का हुनर ईश्वर से ये दुआ मांगने लगी हूँ… उतरा है यूँ तेरा नूर मुझपर तेरी तरह बच्चों के नखरे सहने लगी हूँ… दूर होकर भी तू होती है पास मेरे जबसे सितारों से दोस्ती करने लगी हूँ…!!! आभा खरे तूने मुझे शर्मसार किया  ‘पुत्रवती भव’ रोम रोम हर्षित हुआ था – जब घर के बड़ों ने – मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था – कोख में आते ही – तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर! बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने … तू कैसा होगा रे- तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम! बस आजा तू यही मनाती दिन रात …… गोद में लेते ही तुझे- रोम रोम पुलक उठा था – लगा ईश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !! ————- आज….. तूने …मेरी झोली भर दी ! शर्म से… उन गालियों से- जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं … उस धिक्कार से – जो हर आत्मा से निकल रही है … उस व्यथा से – जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है … उन बददुआओंसे – जो मेरी कोख पर बरस रही हैं ….! मैंने तो इक इंसान जना था – फिर – यह वहशी ! कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू … आज मेरी झोली में नफरत है – घृणा है – गालियाँ हैं – तिरस्कार है – जो लोगों से मिला – ग्लानि है – रोष है – तड़प है- पछतावा है- जो तूने दिया !!! जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे – वही बददुआ बन गया ! तूने सिर्फ मुझे नहीं – ‘ माँ’ – शब्द को शर्मसार किया … सरस दरबारी माँ के आंचल को मैं तरसती रही… मेरी सांसों … Read more

मदर्स डे : माँ को समर्पित कुछ भाव पुष्प ~रंगनाथ द्विवेदी

जहाँ एक तरफ माँ का प्यार अनमोल है वही हर संतान अपनी माँ के प्रति भावनाओं का समुद्र सीने में छुपाये रखती है | हमने एक आदत सी बना रखी है ” माँ से कुछ न कहने की ” खासकर पुरुष एक उम्र के बाद ” माँ मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ ” कह ही नहीं पाते | मदर्स डे उन भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर देता है | इसी अवसर का लाभ उठाते हुए रंगनाथ द्विवेदी जी ने माँ के प्रति कुछ भाव पुष्प अर्पित किये हैं | जिनकी सुगंध हर माँ और बच्चे को सुवासित कर देगी | माँ की दुआ आती है मै घंटो बतियाता हूं माँ की कब्र से, मुझे एैसा लगता है कि जैसे——- इस कब्र से भी मेरी माँ की दुआ आती है। नही करती मेरी सरिके हयात भी ये यकिने मोहब्बत, कि इस बेटे से मोहब्बत के लिये, कब्र से बाहर निकल———- मेरे माँ की रुह यहां आती है। जब कभी थकन भरे ये सर मै रखता हू, कुछ पल को आ जाती है नींद, किसी को क्या पता?———– कि मेरी माँ की कब्र से जन्नत की हवा आती है। एै,रंग—-ये महज एक कब्र भर नही मेरी माँ है, जिससे इस बेटे के लिये अब भी दुआ आती है। ठंड मे माँ———– जिस जगह गीला था वहाँ सोयी थी।ठंड-दर-ठंड———तू कितना बडा हो गया बेटे,कि तू हफ्तो नही आता अपनी माँ के पास।देख आज भी गीला है———माँ का वे बीस्तर!बस फर्क है इतना कि पहले तू भीगोता था,अब इसलिये भीगा है रंग———-कि माँ रात भर रोयी थी।ठंड मे माँ—————जिस जगह गीला था वहाँ सोयी थी। माँ पर लघु कवितायें १——-मै घंटो बतियाता हूँ माँ की कब्र से,ऐ,रंग—-ऐसा मुझे लगता है कि!जैसे इस कब्र से भी—————मेरे माँ की दुआ आती है। २————–भूखी माँ सुबह तलक—-भूख से बिलबिलाती बेटी के लिये,लोरी गाती रही।पड़ोसीयो ने कहा बेटी मर गई,ऐ,रंग—-वे इस सबसे बे-खबर!कहके चाँद को रोटी गाती रही। ३———–माँ—————मै आज ढ़ेरो खाता हूँ,पर तेरी चुपड़ी रोटी की भूख रह जाती है।आज सब कुछ है———–स्लिपवेल के गद्दे,एसी कमरे,पर नींद घंटो नही आती है।ऐ,रंग—-यादो मे!माँ की गोद और लोरी रह जाती। ४———–बचपन होता बचपन की चोरियाँ होती,माँ मै चैन से सोता————–इस पत्थर के शहर में,गर तू होती और तेरी लोरीयाँ होती। रंगनाथ दुबे

निर्भया को न्याय है

रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर। ये महज़ फाँसी नहीं————— उस निर्भया को न्याय है। जो चीखी,तड़पी,छटपटाई तेरी विकृत कुंठा के डाले गये वे सरिये, कितने घृणित थे! काश तुम्हारी माँ ने कहा होता, या तुमने———– अपनी सगी बहन के वे गुप्तांग याद किये होते, तो तुम्हारा ज़मीर कहता कचोटता, कि ये पाप है,अन्याय है और तुम कांप जाते! हां तुम्हारी पशुता व अमानवियता से, वे कुछ ही दिनो मे मर गई, लेकिन तुम तभी से मर रहे हो तील-तील, सच गलिजो़————– आज निर्भया की रुह खुश होगी, उसका गला रुंध आया होगा, ये तुम्हें महज़ फाँसी नही बेगैरतो बल्कि—— उस मासुम और बेगुनाह लड़की, निर्भया को न्याय है।

जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ मेरी बेटी लगती है !

उषा लाल                              जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ                            मेरी बेटी लगती है ! घड़ी घड़ी जिज्ञासित हो करबहुत प्रश्न वह करती है भर कौतूहल आँखों मेंहर नई वस्तु को तकती है ! बात बात पर घूम घूम फिरवही सवाल उठाती हैउत्तर पा कर , याददाश्त कोवह दोषी ठहराती है ! जोश वही है उनका अब भीचाहे पौरुष साथ न देसब कुछ करने को आतुर वहघर में जो भी काम दिखे ! निद्रामग्न रहें जब बेसुधशिशु समान वह दिखतीहैवयस तिरासी बिता चुकी हैलेकिन दो ही लगती है ! बचपन में मुझको अम्माँ , इकआटे की चिड़िया दे करचौके में बैठा लेती थीखेल कूद में उलझा कर! जी करता है मैं भी उनकोकुछ वैसे ही बहलाऊँछोटे छोटे बर्तन ला करचूल्हा – चौका करवाऊँ ! ईश्वर दया दिखाना इतनीउन्हें सुरक्षित तुम रखनाहाथ -पाँव सब स्वस्थ रहेंबस बोझ किसी पर मत करना! बिना दाँत का भोला मुखड़ाकितनी प्यारी दिखती हैजाने क्यूँ मुझको मेरी माँ मुझको मेरी बेटी लगती है  indianvoice से साभार

घूंघट वाली औरत और जींस वाली औरत

आँखें फाड़ – फाड़ कर देखती है घूंघट  वाली औरत पड़ोस में आकर बसी जींस पहनने वाली औरत को याद आ जाते हैं वो दो गज लम्बे दुप्पटे जिन्हें भी तहा  कर रख आई थी माँ की संदूक में की अब बस साड़ी ही पहननी है यही ससुराल का ड्रेस कोड है इसके इतर कुछ पहनने पर लग जायेंगे उसके संस्कार पर प्रश्न चिन्ह ? नाप दिए जायेंगे बाप – दादा पर वो , कैसे पहन पाती है जींस फिर अपने ही प्रश्न को पलट देती है , तवे पर रोटी के साथ फुर्सत में सोंचेगी पहले सबको खाना तो खिला दे बड़ी हसरतों से देखती है घूँघट वाली औरत सुबह कपडे धोते  हुए जींस वाली औरत को फोन पर अंग्रेजी में गपियाते हुए याद आ जाती हैं वो किताबें वो स्कूल का जीवन वो अधूरी शिक्षा जो पिता के  जल्दी कन्यादान कर गंगा नहाने की इच्छा में आंसुओं में बह गयी पर वो …. कैसे पढ़ पायी फिर बहा देती है अपने ही प्रश्न को कपडे के मैल  के साथ भीगी  पलकों से झरोखे से निहारती है घूँघट वाली औरत कार चला कर बाहर जाती जींस वाली औरत को अचानक खिड़की के जिंगले गड़ने लगते हैं सीने में  बढ़ा देती है कदम वो भी बाहर जाने को की ठीक दरवाजे की चौखट के आगे सुनाई पड़ती है खखारते  ससुर की आवाज़ भले घर की औरतें अकेली बाहर नहीं जाती भरती है आह फिर याद आ जाती है विदाई के समय माँ की शिक्षा की उस घर से अर्थी ही जाए पी जाती है अपनी ही चाह को अपने आंसुओं के साथ बड़े गुस्से से देखती है घुंघट वाली औरत जींस वाली औरत को की उसका पति आजकल घर के वरामदे में ज्यादा मंडराया करता है तुलना करता है उसकी जींस वाली औरत से और बात – बात पर देता है उसे गंवार की उपाधि   पर वो …. वो तो भाव नहीं देती उसके पतिको जानती है वो न उसे  बाहर जाने को मिलेगा न उस पर लगा गंवार का लेवल हटेगा इस बार नहीं पलट पाती अपने ही प्रश्न को न तवे पर रोटी के साथ न कपड़ों के साथ न आंसुओं के साथ दिन रात मंथन करती है घूंघट वाली औरत जींस वाली औरत के कारण अनायास  ही उपजी समस्या का पतिव्रता , घर के बाहर कह नहीं सकती है पति के खिलाफ एक भी शब्द साथ जो निभाना है जीवन भर सुना है आजकल उसने घर – बाहर कहना शुरू कर दिया है जींस वाली औरत के बारे में निर्लज्ज है , बेहया ,संस्कारहीन न जाने कैसे कपडे पहनती फिरती है सुना है  सुन – सुन कर आजिज़ आ चुकी जींस वाली औरत भी पुकारने लगी है उसे पिंजड़े की मैना जो दूसरे पर अँगुली उठाने से पहले काबू में न रख पायी अपने पति को मेरे , आप के हम सबके मुहल्ले में है घूँघट वाली औरत और जींस वाली औरत में तनातनी अंगुलियाँ उठ रही हैं दोनों ओर से इस बीच एक तीसरा पक्ष भी है जो लगता है दोनों पर सरेआम आरोप कुछ नहीं “ औरत ही औरत की दुश्मन है “ स्वीकृति में हिलते सरों के बीच कहीं  कोई प्रश्न नहीं उठता “ आखिर औरत को औरत की दुश्मन बनाया किसने “ वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.घूंघट  वाली औरत और जींस वाली औरत .“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें