बिकते शब्द

शब्द  मीठे /कडवे  बनाओं तो बन जाते   शस्त्र  तीखे बाण /कानों को अप्रिय  आदेश  हौसला ,ढाढंस ऊर्जा बढ़ाते  मौत को टोक कर  रोक देते उपदेशो से कर देते  अमर  शब्दों का पालन  भागदौड़ भरी दुनिया से परे  सिग्नल मुहँ चिढा रहे  बिन बोले  सौ बका और एक लिखा  कैसे वजन करें  इंसाफ की तराजू  शब्द झूट के  हो जाते विश्वास की कसमो में  बेवजह तब्दील  चंद  रुपयों की खातिर  अनपढ़ों को मालूम   शब्द बिकते    पढ़े लिखे बने अंजान  वे खोज रहे शब्दकोश  जहाँ से बिन सके  बिकने वाले सत्य  और मीठे शब्द  संजय वर्मा “दृष्टी “

स्वागत है ऋतुराज

                     वसंत ऋतू की शोभा अनुपम है .. इसी लिए इसे ऋतुराज भी कहा जाता है | चरों ओर खिली हुई सरसों जब प्रकृति का श्रृंगार करती है तो क्यों न मन भी वसंती हो जाए | वसंत ऋतू में वासंती हुए मन में निखर ही जाता है प्रीत का रंग |  आइये करें ऋतुराज का स्वागत                                   आइये हम वसंत ऋतू का स्वागत कुछ  कविताओं के साथ करें … “वसंत ऋतु “ फिर पद चाप  सुनाई पड़ रहे  वसंत ऋतु के आगमन के  जब वसुंधरा बदलेगी स्वेत साडी करेगी श्रृंगार उल्लसित वातावरण में झूमने लगेंगे मदन -रति और अखिल विश्व करने लगेगा मादक नृत्य सजने लगेंगे बाजार अस्तित्व में आयेगे अदृश्य तराजू जो फिर से तोलने लगेंगे प्रेम जैसे विराट शब्द को उपहारों में अधिकार भाव में आकर्षण में भोग -विलास में और विश्व रहेगा अतृप्त का अतृप्त फिर सिसकेगी प्रेम की असली परिभाषा क्योकि जिसने उसे जान लिया उसके लिए हर मौसम वसंत का है जिसने नहीं जाना उसके लिए चार दिन के वसंत में भी क्या है ? आइये ऋतुराज  आगमन हो रहा है वसंत का कर लिया है प्रकृति ने श्रृगार आरंभ हो गया है मदन -रति का नृत्य मैंने भी  निकाल लिए है कुछ सूखे लाल गुलाब जो तुम्हारे स्पर्श से पुनः खिल जायेगे वो पुरानी बिंदिया जो तुम्हारी दृष्टि पड़ते ही सुनहरी हो जायेगी और सिल ली है वो पायल जिसकी छन -छन सीधे तुम्हारे ह्रदय में जायेगी हर वसंत की तरह इस बार भी पुनः और दृढ हो जायेगा हमारे रिश्ते का वृक्ष जिसे वर्ष भर असंख्य जिम्मेदारियों और व्यस्तताओ के बीच धीरे -धीरे ,चुपके -चुपके सींच रहे थे हम -तुम “स्वागत है ऋतुराज” लाल गुलाब आज यूं ही प्रेम का उत्सव मनाते लोगों मेंलाल गुलाबों केआदान-प्रदान के बीचमैं गिन रही हूँवो हज़ारों अदृश्यलाल गुलाबजो तुमने मुझे दिए तब जब मेरे बीमार पड़ने पर मुझे आराम करने की हिदायत देकर रसोई में आंटे की लोइयों से जूझते हुए रोटी जैसा कुछ बनाने की असफल कोशिश करते हो तब जब मेरी किसी व्यथा को दूर ना कर पाने की विवशता में अपनी डबडबाई आँखों को गड़ा देते हो अखबार के पन्नो में तब जब तुम “मेरा-परिवार ” और “तुम्हारा-परिवार” के स्थान पर हमेशा कहते हो “हमारा-परिवार” और सबसे ज़यादा जब तुम झेल जाते हो मेरी नाराज़गी भी और मुस्कुरा कर कहते हो “आज ज़यादा थक गई हैं मेरी मैडम क्यूरी “ नहीं , मुझे कभी नहीं चाहिए डाली से टूटा लाल गुलाब क्योंकि मेरा लाल गुलाब सुरक्षित है तुम्हारे हिर्दय में तो ताज़ा होता रहता है हर धड़कन के साथ। वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……… वाणी वंदना मायके आई हुई बेटियाँ काहे को ब्याही ओ बाबुल मेरे बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए आपको  कविता  “..स्वागत है ऋतुराज “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

सतरंगिनी – ओमकार मणि त्रिपाठी की सात कवितायें

1… आखिर  कब तक….?  डूबे रहोगे  सिर्फ बौद्धिक व्यभिचार में वक्त पुकार रहा हैसमस्याओं के उपचारकी बाट जोह रहे हैं लोगअब मिथ्याचार नहीं,बल्कि समाधान के आधार तलाशो २… कई बार ऐसा होता है   रख दिए जाते हैं  संवेदना के स्रोतों के ऊपर यथार्थ के पत्थर ढंक दिया जाता है संवेदना कोमर जाती हैसंवेदना की स्रोतस्विनीडर जाती हैक़ाली हकीकतों को देखकर ३…… मीत अगर कहलाना है,तो बातों से मत बहलाना, मैं भी खुद को खो दूंगा,तुम भी खुद को खो देना। वीणा का तार हो जाउंगा,करुणा का भाव तुम बन जाना। काजल हूं रात का मैं,भिनसार की झलक तुम,शबनम हूं भोर की मैं,मधुबन की भूमिका तुम,प्रणयी का गीत हूं मैं,बिसरा अतीत हूं मैं,मैं छेडूंगा राग सारे,बस तुम गीत गुनगुनाना। 4…. जब मुखर होता है , मौन  शब्द चुक जाते है | तब अहसासों की प्रतीती में , पुनः  जन्म लेती है वाणी 5……… भूलूं तुझे अगर तो लोग बेवफा कहें…..रखूं अगर जो याद तो परछाइयां डसें।खोलूं अगर जो होंठ तो रुसवाई हो तेरी…..चुप रहूं तो चीखती सच्चाइयां डसें।घर में रहूं या बाजार में रहूं…….भीड में भी मुझे तन्हाइयां डसें।तेरी बेवफाई से गिला कोई नहीं,मगर……..मुझको मेरे मिजाज की अच्छाइयां डसें। ६ …….. भावों ने भिगोया जिन्हें नहीं, बरसात की कीमत क्या जानें। बस,बातों के जो सौदागर, जज्बात की कीमत क्या जानें।दिल-दिमाग जिनके बंजर,तन ही सब कुछ,मन क्या जानें।जग को ठगकर भी जो भूखे,उपवास की कीमत क्या जानें।खुदगर्जी जिनकी फितरत है,अहसास की कीमत क्या जानें।खून भरोसे का जो करते,विश्‍वास की कीमत क्या जानें। ७……… ……क्योंकि दुखडे सुनाने की आदत न थी हम अंदर ही अंदर सुलगते रहे फिर भी हमें देखकर लोग जलते रहे ……क्योंकि दुखडे सुनाने की आदत न थी।वैसे दुश्मन किसी को बनाया नहींलेकिन,दोस्तों ने कमी वो भी खलने न दी….क्योंकि झूठी तारीफें करने की आदत न थी।सीढी बने हम और चढाया जिन्हेंचिढाकर हमें वो भी चलते बने….क्योंकि बदला चुकाने की आदत न थी।खुद बिखरते रहे,खुद सिमटते रहेसब सिसकियों पर ठहाके लगाते रहे…..क्योंकि हमें गिडगिडाने की आदत न थी।बस दिया ही दिया,कुछ लिया न कभीपर,लेने वाले भी आंखें दिखाते रहे…क्योंकि हमें दिल दुखाने की आदत न थी। 8…… मीत जबसे तुम मिले हो,ख्वाब फिर सजने लगे हैं,निर्जीव मन में नूतन सृजन के भाव फिर जगने लगे हैं.द्वंद्व मन का मेरा सब काल-कवलित हो गया है,हसरतों की रोशनी में सारा अंधेरा खो गया है.जंगल-जंगल वीरानों में मन का साथी ढूंढ रहा था,साथ तुम्हारा हुआ है जबसे,फूल खिलने फिर लगे हैं. ९ ………

शिक्षक दिवसपर विशेष : गुरू चरण सीखें

बैठ कर हम  गुरू चरण सीखे सभी मान दे कर गुरू को सदा पूजे सभी ज्ञान की नई विधा  सीख लें रोज हम आज शिक्षक दिवस हम मनाये सभी हम रहेंगे गुरू के हमेशा ऋणी हो बड़े आज हम ऋण चुकाये सभी आपका नाम रौशन करे शिष्य ही शीश हम गुरू को फिर नवाये सभी प्रण करूँ काम ऐसा न कोई करूँ आज हम फिर गुरू को  हसाये सभी डॉ मधु त्रिवेदी 

कुछ चुनिन्दा शेर

मेरा मशवरा है यही  की तोड़ दो उसे  जिस आईने में ऐब अपने दिखाई न दें  कहती है मेरे साथ कब्र में भी जायेगी  इतना प्यार करती है मुझसे तन्हाई मेरी शिकवे , गिले और साजिशों का , दौर जिंदगी |न ये तेरी , न ये मेरी , हैं बस , खेल जिंदगी | वो अपने फायदे की खातिर फिर आ मिले थे हमसे;हम नादाँ समझे कि हमारी दुआओं में असर बहुत है! सांसों के सिलसिले को न दो जिंदगी का नाम  जीने के बावजूद भी  मर जाते हैं कुछ लोग  ये भी एक दुआ है खुदा से, किसी का दिल न दुखी मेरी वज़ह से, मेरी ये आदत नहीं किसी को हाले दिल सुनाऊ  पर तकलीफ बहुत मिलती है राजे दिल छुपाने से  एहसास अगर हो तो मोहोब्बत करो महसूस…हर बात का इजहार जरूरी नहीं लब से…. कभी पत्थर की ठोकरों से भी आती नहीं खराश  कभी जरा सी बत से इंसान बिखर जाता है  आँधियों में जो दिया जलता हुआ मिल जायेगा  उस दिए से पूँछना मेरा पता मिल जाएगा  कुछ चाहतों के दिए … कब के बूझ गए होते  कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता  है  मुझे खैरात में मिली खुशियाँ अच्छी नहीं लगती  मैं अपने गम में रहता हूँ नवाबों की तरह 

सच की राहों में देखे हैं कांटे बहुत,

सच की राहों में देखे हैं कांटे बहुत,पर,कदम अपने कभी डगमगाए नहीं।बदचलन है जमाने की चलती हवा,इसलिए दीप हमने जलाए नहीं ।खुद को खुदा मानते जो रहे,उनके आदाब हमने बजाए नहीं।धधकते रहे,दंश सब सह गये,किंतु,पलकों पे आंसू सजाए नहीं। ओमकार मणि त्रिपाठी  प्रधान संपादक – अटूट बंधन एवं सच का हौसला  www.sachkahausla.com

जिन्दगी कुछ यूं तन्हा होने लगी है

जिन्दगी कुछ यूं तन्हा होने लगी है अंधेरों से भी दोस्ती होने लगी है  चमकते उजालों से लगता है डर हर शमां वेबफा सी लगने लगी है  सच्चाइयों से जबसे पहचान होने लगीइक सजा इस तरह से जिंदगी हो गईबहारों के मौसम देखे थे जहांकितनी बंजर आज वो जमीन हो गई ओमकार मणि त्रिपाठी  प्रधान संपादक – अटूट बंधन  एवं सच का हौसला  हमारा वेब पोर्टल

सपेरे की बिटिया

कभी पढ़ने आती थी हमारे स्कूल में, सपेरो की बस्ती से————— एक सपेरे की बिटिया। वे तमाम किस्से सुनाती थी साँपो के अक्सर,वे खुद भी साँपो से खेलना जानती थी,पर वे मासुम नही जानती थी,इंसानी साँपो का जहर, एक दिन———– उसी मासूम की नग्न लाश, उसकी बस्ती से पहले——– पड़ने वाले एक झुरमुट में पाई गई, मै सिहर गया! उस नग्न मासूम की लाश देख, मै अब भी इतने सालो बाद भी—– अपनी उस मासूम छात्रा को भूल नही पाता, हर नाग पंचमी को वे मेरी जेहन मे उभर आती है, और पुछती है मुझसे कि बताईये न सर, कि कैसे चुक गई, अपने पुरे बदन पे रेंगे हुये नाखूनी  साँपो से, एक सपेरे की बिटिया। —-रंगनाथ द्विवेदी। एडवोकेट कालोनी,मियाँपुर जौनपुर। हमारा वेब पोर्टल

बैरी_सावन

मन के दबे से दर्द जगाने फिर से बैरी सावन आया। सूना आँगन सूनी बगिया माना नहीं है कोई घर में यादें कहती मुझे बुलाकर हम भी तो रहती हैं घर में मायके की याद दिलाने फिर से बैरी सावन आया। थोड़ी सी मेहँदी लगवा लूँ और पहन लूँ हरी चूड़ियाँ साड़ी हरी, संग ले घेवर और लगा लूँ माथे बिंदिया सज कर चलूँ मायके अपने मुझे बुलाने सावन आया। फोटो के पास बैठकर कुछ अपनी कहना,उनकी सुनना थोड़ी देर बस् रूठना उनसे और मनाने गले भी लगना दूर बहुत ,पर है मेरे मन में यही बताने सावन आया। मन के दबे से दर्द जगाने फिर से बैरी सावन आया। ————————————– डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई फोटो क्रेडिट ::राकेश आनंद बौड़ाई  हमारा वेब पोर्टल

हामिद का चिंमटा

संगत का साथी हो सकता है यह औखत पर औज़ार फकीर का मँजीरा सिपाही का तमंचा सबसे सलोना यह खिलौना जो साबुत रहेगा अन्धड़ पानी तूफ़ान में सहता सारे थपेड़े कविता मेरे लिए तीन पैसे का चिमटा है जिसे बचपन के मेले में मोल लिया था मैंने कि जलें नहीं रोटियाँ सेंकने वाले हाथ कि दूसरों को दे सकूँ अपने चूल्हे की आग ! प्रेम रंजन अनिमेष  कविता कोष से साभार  यहाँ भी  पधारें .. दैनिक समाचारपत्र – सच का हौसला