कैंसर

कैंसर बस एक ही शब्द  काफी था सुनने के लिए  अनसुनी ही रह गयी  उसके बाद दी  गयी सारी  हिदायते  पहली दूसरी या तीसरी स्टेज का वर्णन  बस दिखाई देने लगी मौत  रेंगते हुए आगे बढती  किसी सौ बाहों वाले केंकेडे  की तरह  जो अपनी  बाँहों के शिकंजे में  कस कर चूस लेगा जीवन  आश्चर्य  की कैंसर  सिर्फ शरीर को ही नहीं होता  यह होता है  रिश्तों को  हमारे द्वरा शुरू किये गए कामों को जिसकी नींव रखी गयी होती है   सपनों की जमीन पर  पर उसमें भी जाने कैसे   नज़रंदाज़  हो जाती हैं  पहली , दूसरी और तीसरी अवस्थाएं  गहराता जाता है रोग  और बढ़ चलता है जीवन  मृत्यु की तरफ  मृत्यु अवश्य्समाभावी है  परन्तु  अपने को   सपने को  और रिश्तों को  यूँ पल -पल मरते देखना  बहुत पीड़ा दायक है  बहुत पीड़ा दायक है …….. नेहा बाजपेयी 

इंतजार

इन्तजार कोई भी करे किसी का भी करे पीड़ादायी और कष्टदायी ही होता है लेकिन बदनसीब होते हैं वो लोग जिनकी जिन्दगी में किसी के इन्तजारका अधिकार नहीं होताक्योंकि इन्तजार  रिश्तो की प्रगाढ़ता का पैमाना भी हैकोई गैरो का नहींसिर्फ अपनों का ही इन्तजार करता हैऔर जैसे – जैसे प्रगाढ़ होता जाता है कोई रिश्ताउसी अनुपात में बढ़ता जाता है इंतजारसूनी हो जाती हैं आँखेजब उन आँखों को नहीं रहताक्रिया पर प्रतिक्रिया याकिसी के आगमनका इन्तजारऔर ये सूनी आंखे ,भावशून्य आँखेह्रदय को संवेदनहीन बनाने लगती हैऔर शायद इसीलियेइन्तजारविहीन आदमीजिन्दा लाश बन जाता हैक्योंकि लाशो को किसी का भीइन्तजार नहीं रहता ओमकार मणि त्रिपाठी 

अजय चन्द्रवंशी की लघु कवितायें

#तटस्थ# वह कशमकश में है वह किस तरफ है क्योकि उसे मालूम है वह किस तरफ है #गाली और क्रांति# वह सब को गाली देता है व्यवस्था को समाज को खुद को भी उसके लिये गाली ही क्रांति है #एक……# वह मंच पर दहाड़ता है और जमीन पर हांफता है #ज़मीनी कवि# उसकी रचना में सिर्फ जमीन होती है कविता कही नही #आलिंगन# उसने गले लगाया मै सिहरा नही चीख उठा!! #सत्यवादी# वह हमेशा सच बोलता है इसलिये कभी बोलता नही #सच्चे वीर# वे सच्चे वीर थे उन्होंने केवल पुरुषों की हत्या की स्त्रियों और बच्चों को छोड़ दिया #दर्द# मेरे दिल में उठा मैंने ही महसूस किया मै ही तड़पा मुझी से खत्म हुआ #खुद्दार# वह रोज ऐलान करता है वह बिका नही है इस तरह रोज़ बेचता है अपने ‘न बिकने’ को #देशभक्त# वह देशभक्त है इसलिये कुछ नही करता सिवा देशभक्ति के अजय चन्द्रवंशी   छत्तीसगढ़ 

होलिका दहन-वर्ण पिरामिड

1– हो दर्प दहन खिलें रंग अपनों संग प्रेम विश्वास के होली के उल्लास में। ————————– 2– आ छोड़ें अपनी द्वेष ईर्ष्या करें संपन्न होलिका दहन मथें विचार गहन। ———————– 3) ——- आ  चल जलाएँ  बुराइयाँ होलिका संग  बदलेगा ढंग  सबके जीवन का। ——————— 4) ——- हो  जीत  अधर्म  बेईमानी  अन्याय पर  होलिका दहन  करे इनको वहन  ———————- 5 ——— स्व बचे लकड़ी पर्यावरण हो सुरक्षित कंडे अपनाएँ यूँ होलिका जलाएँ।   ————————- 6 ——— आ पूजें  होलिका  रंग कंडे मौली ले हाथ  जलाएँ दीप आठ  परिक्रमा करें सात। ———————— डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई । फोटो क्रेडिट –जनसत्ता होली की हार्दिक शुभकामनाएं 

होली स्पेशल – होली की ठिठोली

जल्दी से कर लीजिये हंसने का अभ्यास इस बार की होली तो होगी खासमखास  दाँतन बीच दबाइए लौंग इलायची सौंफ  बत्तीसी जब दिखे तो मुँह से आये न बास खा खा कर गुझिया जो ली हो तोंद बढ़ाय  हसत -हसत घट  जायेगी हमको है विश्वास देवर को भाभी रंगें , चढ़े जीजा पर साली का रंग घर आँगन के बीच मचे होली का हुडदंग अम्मा कहती दूर हटो , कोई न आओ पास पापड़ सब टूट जायेंगे , होगा सत्यानाश  लाल , काला ,  हरा गुलाबी हैं तो अनेकों रंग  पर रंग हंसी के आगे लगते सब बकवास दूर भगाईये  डाक्टर  नीम हकीम और वैध बिन पैसे का  हास्य रस   करे रोग सब नाश वंदना बाजपेयी  होली की हार्दिक शुभकामनाएं 

पंखुरी सिन्हा की कवितायें

युवा कवियत्री पंखुरी सिन्हा की कलम जब चलती है सहज ही प्रभावित करती है | वह अनूठे विषयों को उठाकर अपने सहज प्रस्तुतीकरण के माध्यम से उन्हें और भी अद्वितीय बना देती हैं | प्रस्तुत हैं उनकी कुछ अनुपम कवितायें …. साँझ काजल लगाये और लगा था कि छोटे शहर के उस बगीचे वाले घर में चले जाने के बाद दम ही न घुट जाए कि खुलता तो है सूर्योदय की दिशा में पर खुलता किधर है ये दरवाज़ा कौन सी हैं परछाइयाँ यहाँ किसकी कैसा अँधेरा घिर आता है यहाँ आनन फानन जल्दी जल्दी साँझ काजल लगाये सबसे पहले ठुमकती यहीं चली आती है इस अचानक नीचे से हो गए घर में कुछ इस तरह बढ़ गया है शहर का कद पास के सारे खेतों से खुदी हुई मिटटी बिछाकर मानो खेती के लिए बहुत ढेर सारी मिटटी अछूती छोड़ देने की कोई परंपरा न हो…………………….. यह कविता कुमार अनिल जी और दैनिक भास्कर पटना की उन तमाम बहुत प्रबुद्ध साहित्यिक बहसों को समर्पित है, जिनमे से कुछ में मुझे भी शामिल होने का मौका मिला—— शब्द और मौसम वसंत इन दिनों बहुत खूबसूरत एक शब्द है कुछ फूल पत्तों का बना हुआ भयानक धूल और गर्त के बीच सरकारी इमारतों के उद्यानों के गमलों में कैद और कुछ तो लटक ही जाता है मौसम लोगों के घर की चहरदीवारियों से ज़्यादातर आम और लीची की शक्ल में शहर अब ईंट की एक भट्ठी है जहाँ शायद राजनीतिक भाषणो के लिए बचे हैं एक आध मैदान, जिनकी रौंदी हुई भूरी होती घास में कोई सम्भावना नहीं लहलहाने की वसंत तो अधूरा ही रहेगा बिना घास के खुले मैदानों के हाँ, घास में भी खिलते हैं फूल और इतनी हैं विविधताएँ घास की कि अपरिचित रह जाती हैं तमाम ज़िंदगियाँ अखबारी बहसों में आता और जाता है वसंत और वसंत के साथ घास के मैदानों की संधि से चकित रह जाते हैं लोग भूकम्प के एक नवीन झटके के बाद भी………………… ये मेरी पहली राजनैतिक कविता है, जिसमे मैंने किसी नेता का नाम लिया है———- खुली जगहें ऐसा जनसंहार नहीं होता भूकम्प में अगर संजय गांधी ज़िंदा होता ये त्राहि, त्राहि ये त्राहि माम इसलिए क्योंकि विस्फोट की तरह है जनसंख्या का बढ़ना चार से भी ज़्यादा बच्चे प्रति दम्पति जनम और पल रहे हैं झुग्गियों में सुर्खी और गिलावे से जोड़ी जा रही हैं कमज़ोर ईटों की दीवारें यह तिरस्कार नहीं है उनका जो उठ नहीं पाये हैं गरीबी रेखा से ऊपर न मूल्यों की अवमानना यह एक रणनीति है भूकम्प को कम भयावह बनाने की तीसरी दुनिया को इस तरह हिलाने वाली आपदा से बच निकलने की…………………. सहमत करना पुरुषों को कि हो रहे हैं पुरुषों के भी बलात्कार जाने किस क्रांति की उम्मीद में उन सज्जन से कह दिया था मैंने की यों समझते हुए भूकंप का कहर कुछ नहीं कर पाना और अगर दहशत में नहीं जीना तो ये जानते कि निकट कहीं बहुतों ने जानें भी गवाईं हैं और हाथ पाँव भी बस सह लेना ये सबकुछ और कहना नहीं अरोकी जनसँख्या वृद्धि पर एक भी शब्द लगातार एक बलात्कार के साथ जीना है मुझे लगा था वो सहमत हो जाएँगे पर नहीं बहुत मुश्किल होता है पुरुष को सहमत करना ये स्वीकारने के लिए कि धर्र्ल्ले से हो रहे हैं पुरुषों के जवान होते लड़कों के बलात्कार वो मान लेते कि ये मिली जुली लड़ाई है तो आसान होता स्त्री मुक्ति के झंडे तले असल मुद्दों की बातें करना……………… —————— पंखुरी सिन्हा

नव वर्ष पर हार्दिक शुभकामनाओ के साथ कविताओ का गुलदस्ता

मंगलमय हो नव वर्ष  पूरब सेउतरी नव किरणेंप्रदीप्त हुआ प्रभाकर नवीनआज प्रभात के घाट परपरिदृश्य हैं नवनीत शरद ने शृंगार कियाधरा बनी दुल्हनपुष्प कीरीट से शोभित क्यारीहर्षित है चंपा की डालीइंद्रधनुष के रंग भरप्रकृति मनाए उत्कर्षभाव भरे जनकल्याण कानवनिर्माण कासृजन का और विकास काकहें सभी सहर्षमंगलमय हो नववर्ष हेमेंद्र जर्मा दिलों में हो फागुन, दिशाओं में रुनझुनहवाओं में मेहनत की गूँजे नई धुनगगन जिसको गाए हवाओं से सुन-सुनवही धुन मगन मन, सभी गुनगुनाएँ।नव वर्ष की शुभकामनाएँ ये धरती हरी हो, उमंगों भरी होहरिक रुत में आशा की आसावरी होमिलन के सुरों से सजी बाँसुरी होअमन हो चमन में, सुमन मुस्कुराएँ।नव वर्ष की शुभकामनाएँ न धुन मातमी हो न कोई ग़मी होन मन में उदासी, न धन में कमी होन इच्छा मरे जो कि मन में रमी होसाकार हों सब मधुर कल्पनाएँ।नव वर्ष की शुभकामनाएँ – अशोक चक्रधर नव प्रभाती  नव-प्रभाती गुनगुनाकर जो किरण उतरी धरा पर, मैं उसी के नाम लिखने जा रही हूं नव सृजन को। भोर से ही दे रहा आहट नया उत्कर्ष कोई। या कि फिर आया जगाने नित्य नूतन पर्व कोई। हर ऋचा की मांगलिकता इन दिशाओं से उतर कर, दे रही हैं सूचनाएँ भारती को, हर भुवन को। सूर्य फिर करने लगा है इस धरा पर दस्तकारी। और केसर की किरण करने लगी है चित्रकारी। शस्य- श्यामल प्रकृति के फिर गीत गाने लग गई है, हवा दुलराने लगी अठखेलियाँ करते सपन की। आज हम हर कंकरी को फूल का आकार दे दें। हर कली को भ्रमर-दल जैसा,मधुर गुंजार दे दें। आज जन-जन को समर्पित हैं सकल शुभ- कामनाएँ, और वह जो शेष है,अर्पित मनुजता की लगन को। भीतरी कलमष हटाकर  रोशनी के शब्द जोडें।  जो घटा अपने विगत में भूल जाएं और छोड़ें। आज हम जो रच रहे हैं, वह बने इतिहास कल का, बाँसुरी बन दे सुनाई लेखनी अपने गगन की। निर्मला जोशी फिर भी आएगा नया साल साल कीपहली तारीख को छपने वाली पत्रिकाओं मेंभरी है उबासी और थकानसाल के अंतिम दिन-सी। डर भरे हैं जेबों में,किशमिशऔर चिलगोज़ों की जगहकोई फौज लड़ती नहींअकेलेपन औरअपसंस्कृति के विरुद्धबारिशों में बरसती नहींशुभकामनाओं की मछलियाँ।थोड़ी सी भीखुशियाँ जमा नहीं हुई बैंक मेंकि मनाया जा सकेनए साल का उत्सव। सब सोये हैंअपनी अपनी बेबसी से बुनेथुल्मे ओढ़ेबिछे हैं आडंबरों के कालीनज़मीन की सच्चाई परअब पाँव रखे नहीं जाते।कोई लिखता नही खुशी के गीत नया साल फिर भी आएगाचुपचापआँखें झुकाए, बदन सिकोड़ेनिकल जाएगा बिना बात किएजिसकी अगवानी को तुमनेनहीं उबाला दूधवो बाहें खोलतुम्हें आशीष कैसे देगा? –पूर्णिमा वर्मन नयी सुबह   चलो,पूरी रात प्रतीक्षा के बादफिर एक नई सुबह होगीहोगी न,नई सुबह?जब आदमियत नंगी नहीं होगीनहीं सजेंगीं हथियारों की मंडियानहीं खोदी जायेगीं नई कब्रेंनहीं जलेंगीं नई चिताएँआदिम सोच, आदिम विचारों सेमिलेगी निजातहोगी न,नई सुबह?सब कुछ भूल करहम खड़े हैंहथेलियों में सजायेफूलों का बगीचा,पूरी रात जाग करफिर एक नई सुबह के लिएहोगी ननई सुबह? कुँअर रवीन्द्र कलेन्डर~~~~~~~ यादों का पुलिन्दा पकड़ाते हुए पुराना साल नए साल के कानों में चुपके से कह गया! ये  इंसानो की बस्ती हैं सभल कर रहियो आकाश जैसा कलेजा और धरती जैसा धैर्य रखियों तबै साल भर टिक पइयो! साल पुजते पुजते तुम्हारा रोम रोम कलंक,अपवाद,अत्याचार, बलात्कार,और प्राकृतिक आपदाओं से भर जायेगा! फिर भी लोगो को चैन नही आयेगा! तो कुछ नई बिमारियों का नाम भी तुम्हारे साथ जुड़ जायेगा! तुम्हारी धंजियाँ उड़ाने में धरती का बन्दा बन्दा बाज नही आयेगा! और जब तुम्हारा रोम रोम उसके नाम हो जायेगा तो  कुछ नही बदलेगा सिर्फ कलेन्डर में सन सम्वत बदल जायेगा! कंचन आरज़ू हैप्पी न्यू इयर  नया साल आने वाला है सब खुश है सबने तैयारी कर ली हैइस उम्मीद के साथशायदजाग जाये सोया भाग्य उसने भी जिसने आपने फटे बस्ते में रखी फटी किताब को सिल लिया है इस उम्मीद के साथ शायद कर सके काम के साथ विद्याभ्यास उसने भी जिसने असंख्य कीले लगी चप्पल में फिर से ठुकवा ली है नयी कील इस उम्मीद के साथ शायद पहुँच जाए चिर -प्रतिच्छित मंजिल के पास उसने भी जसने ठंडे पड़े चूल्हे और गीली लकड़ियों को पोंछ कर सुखा लिया है इस उम्मीद के साथ शायद इस बार बुझ सके पेट की आग और उन्होंने भी जो बड़े-बड़े होटलों क्लबों में जायेगे पिता-प्रदत्त बड़ी-बड़ी गाड़ियों में सुन्दर बालाओं के साथ नशे में धुत चिंता -मुक्त जोर से चिलायेगे हैप्पी न्यू इयर इस विश्वास के साथ बदल जायेगी अगले साल यह गाडी और यह……. वंदना बाजपेयी 

बाल दिवस पर विशेष कविता : पढो और बढ़ो :डॉ भारती वर्मा बौड़ाई

पढ़ो, बढ़ो, जीवन के दुर्गम पर्वत चढ़ो। मिलें बाधाएँ रौंद उन्हें नव पथ गढ़ो। दिखे कहीं अन्याय, सहो न आगे बढ़ लड़ो। पथ अपना चुन, उस पर अकेले ही बढ़ो। अँधियारा, डरना कैसा? अपना दीपक आप बनो। रंग भले ही हों कितने भी बस भोलापन चुनो। ———————— कॉपीराइट@डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई।

बाल दिवस पर विशेष : कविता हामिद की दिवाली : संगम वर्मा

दादी! ओ दादी! कौन ? कौन है, जो दादी पुकार रहा है ? अरे दादी! मैं, “हामिद” अरे हामिद! (ख़ुशी से स्वर भरते हुए ) तू कहाँ चला गया था बेटा ? देख न.…… कैसे तेरी बाट में ये आँखें  बूढ़ी हो गई है इक तू ही तो है जिसपे मुझे भरोसा है आजकल तो बुजुर्गों को तो सबने कोसा है तू इन बूढ़ी आँखों की बारिश का बोसा है रे ख़ुशी की थाली में जो तूने प्यार परोसा है (सर पे हाथ फेरती हुई और आँखों से निहारती हुई) बता न…. किधर गया था अरे दादी! मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा फ़िक्र लगी रहती है आखिर…. ग़रीब की ख़ुशी खूंटी पे टंगी रहती है मेले में गया था याद है पिछली दफा तुम्हारे लिए ईद में चिमटा लाया था आज भी दिवाली में तुम्हारे लिए मिट्टी के दीये लाया हूँ घर कैसे सूना रहने देता पर माँ….. दुनिया बहुत ही ज्यादा बदल गई है चारों ओर लूटमार और कोहराम है बगल में छुरी मुँह में राम – राम है जीना भी क्या जीना बस हाहाकार है महंगी हो गई दुनिया सब बेकार है दिखावे की दुनिया में सब जीते है दूसरों की ख़ुशी में जलते रहते हैं मिलावट रिश्तों में घर कर गई है ज़िन्दगी किश्तों में बसर गई है लोग पता नहीं कैसे गुज़र बसर कर लेते है साहूकार की दूकान के टी.वी. पे देखा था सहिष्णुता को लेकर बवाल मचा हुआ है ढूँढ रहें है पुरोधा आखिर कौन सा सवाल बचा हुआ है पहले हथियारों से लड़ा जाता था और अब बातों से लड़ा जाता है बहुत मार है.…बहुत मार है ऐसा क्यों है दादी कलियुग है बेटा घोर कलियुग है यहाँ कोई किसी का नहीं है अच्छा, ये बता दीये लेने क्यों गया था दादी, सारा भारत दिवाली मना रहा है अयोध्या के श्री राम सपरिवार लंका जीत कर आये थे तो साकेत नगरी ने ख़ुशी में दीये जलाए थे तो मैं भी दीये जलाऊँगा क्या पता मेरी अम्मी और अब्बा जान भगवान के यहाँ से वापिस हो आये दादी सबके घर दीये से जगमगा रहें हैं ख़ुशी की फुलझड़ी चला सारे खिलखिला रहें है मेरा भी जी हो आया की मैं भी दीये जलाऊँ अपनी दादी संग ये ज्योति पर्व मनाऊँ अपनी दादी संग ये ज्योति पर्व मनाऊँ (ख़ुशी से लबरेज़ दादी हामिद को लाड़ और दुलार देती हुई जुग जुग जिए मेरे लाल जुग जुग जिए ) #संगमवर्मा सहायक प्राध्यापक  सतीश चन्द्र धवन राजकीय महाविद्यालय  लुधियाना ,पंजाब 

दीपावली पर हायकू व् चोका

जपानी विधा *हाइकु (5/7/5) ; कविता लेखन का जिस तरह एक विधा है 1. दीया व बाती दम्पति का जीवन धागा व मोती। 2 लौ की लहक सीखा दे चहकना जो ना बहके। 3 पथिकार है हरा दुर्मद तम अतृष्ण दीप । 4 मिटे न तम भरा छल का तेल बाती बेदम। 5 पलते रहे नयनों के सपने तम में जीते। 6 लौ की लहक सिखा दे चहकना जो ना बहके। 7 हँस पड़ती पथ दिखाती ज्योति सहमी निशा। 5 नभ हैरान तारे फीके क्यूँ लगे दीप सामने । 6 बत्ती की सख्ती अमा हेकड़ी भूली अंधेर मिटा । 7 मन के अंधे ज्ञान-दीप से डरे अंह में फँसे 8 सायास जीव देहरी मांगे ज्योति दीये जो गढ़े ~~ ठीक उसी तरह तानका (5/7/5/7/7) अकेला जल सहस्र जलाता है सहस्रधी है जीयें हम जीवन दीप जैसा सीख लें सेदोका (5/7/7/5/7/7) तमिस्रा मिटा प्रकाशमान होता सच्चा दीपक वही नव्य साहस संचरण करता विकल्प सूर्य का हो ~~ और चोका (5/7/5/7/5/……अनगिनत…… 7/7) कविता लेखन विधा है चोका 1. इक कहानी चार दीप थे दोस्त फुसफुसाते गप्प में मशगुल एक की इच्छा बड़ा बनना था मायूस रोया था वो लोल का टेढ़ा छोटा दीया था बाती फक्क बुझती दूजे आकांक्षा भव्य मूर्ति बनना शोभा बढ़ाना अमीर घर सज्जा ना जा सका वो मिट्टी विद्युत होड़ी हुआ हवन तीजे महोत्वाकांक्षा पैसे का प्यासा गुल्लक तो बनता भरा रहता खनक सुनता वो चांदी सोने की न यंत्रणा सहता आकंठ डूबा बातें सुन रहा था चौथा दीपक संयमी विनम्र था हँसता हुआ वो आया बोला आपको हूँ बताता राज की बात छूटा भवन ठाठ  सब ना रूठा सोचो साथ ईश का हमें जगह मिली  पूजा घर में तम डरा हराए  उजास फैला हम  दीपो का पर्व सब करे खरीदारी  दीवाली आई क्यूँ बने हम सब रोने वाला चिराग आस जगायें राह दिखाने वाले मंजिल पहुंचायें विभा रानी श्रीवास्तव  ~~~ यह भी पढ़ें ……. दीपावली पर जलायें विश्व एकता का दीप दीपावली पर 11 नयें शुभकामना संदेश धनतेरस दीपोत्सव का प्रथम दिन मनाएं इकोफ्रेंडली दीपावली लक्ष्मी की विजय